भारतीय दर्शन में सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के निर्माण का आधार पंचतत्व (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश व अग्नि) को माना गया है। इस कड़ी में मानव जीवन भी शामिल है। औद्योगिक क्रांति से लेकर अब तक हो रहे वैज्ञानिक विकास ने हमें दिया कम है, लिया ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर मानव की अंतरिक्ष में उपस्थिति से अंतरिक्ष कचरा, उर्वरक एवं कीटनाशकों के अधिकतम प्रयोग से दूषित जल और उससे होने वाली कैंसर जैसी बीमारियां, त्योहार एवं उत्सव के दौरान पटाखे छुड़ाने से चहुंओर वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाना और धुंध बढ़ने से विजिबिलिटी कम होना, दुर्घटनाएं होती हैं। साथ ही फ़ेफड़ों की दयनीय स्थिति फलतः, रेप्रिफ़जरेटर, फोटो कॉपी मशीन, एसी आदि के प्रयोग से ग्रीन हाऊस गैस से ओजोन परत में छिद्र होना और पृथ्वी पर तपिश बढ़ने से मानव जाति अनेक बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है। डीजलयुक्त वाहन, कोयला आधारित ताप विद्युत का उत्सर्जन आदि भी ऐसे अनेक कारक हैं जिनसे आज का मानव त्रस्त है। यही जीवनदाई पंचमहाभूत मानव को संजीवनी देने के बजाय प्राणहंता साबित हो रहे हैं। इनमें सबसे पहले तो दूषित जल की समस्या सामने आई, उसके किए वैज्ञानिकों ने ऑरो आदि का विकास किया और जीवन सुरक्षित बनाया पर शुद्ध पेयजल के अभाव में आज भी पानी से अनेक संक्रामक रोग (हैजा, पीलिया आदि) जनित हो रहे हैं जिससे मानव जाति त्रस्त है। यहां तक कि पानी आज एक बड़ा मार्केट बन गया है। यद्यपि है यह मानव का मौलिक अधिकार? अर्थात जिनके पास शुद्ध पेयजल खरीदने की क्षमता है वो तो ठीक है वरना गरीब तबके के लोग तो बस यूं ही अभिशपत होते रहेंगे।
जल के बाद मानव जीवन के लिए दूसरा अहम तत्व वायु भी हाल-फिलहाल मानक स्तर से कहीं अधिक संदूषित हो चुकी है। इसके लिए भी मानव समुदाय खुद अधिक जिम्मेदार है।
आज का मानव भोगवादी परंपरा का आदी होता जा रहा है। कभी मानव समुदाय नदी, पेड़, पक्षी, मिट्टी व जलवायु के प्रति भावनात्मक संबंध रखते हुए पूजा-अर्चना करता था, आज इसी परंपरा को तोड़ने में वह रत है। वह जिस डाल पर बैठा है उसी को काट रहा है। मानव जीवन संकटग्रस्त प्रजाति में शामिल हो जाएगा, तब तक। युद्ध, संघर्ष, आतंक, वैश्विक तापन, प्राकृतिक आपदाएं, भुखमरी, संक्रामक रोग वैसे ही मानव जीवन के अस्तित्व को ललकार रहे हैं ऊपर से मानव खुद अपने निंदनीय क्रियाकलापों से अपने चारों ओर संकट उत्पन्न कर रहा है।
हमारे देश में भी प्रदूषक वाहन बंदी, कोयलायुक्त बिजली के उत्पादन में कमी, पटाखा जैसे बारूद पर सख्ती से रोक के साथ मास्क के प्रयोग को बढ़ावा और पर्यावरण के हित में कार्य किया जाना सबके लिए अपरिहार्य बनाया जाए। ऑक्सीजन के हितकारी वृक्ष नीम, पीपल व बरगद को वृक्षारोपण में विशेष तरजीह दी जाय।
एक प्रश्न और उठता है कि हर मानव को अनुच्छेद 21 के तहत उसका मौलिक अधिकार बनता है कि उसे शुद्ध पेय जल, हवा आदि प्राप्त करने का पूरा अधिकार है। इसके लिए एक नागरिक को वहां की सरकार द्वारा इस तरह की मूलभूत सुविधाएं मुहैया करायी जाय। यह यथार्थ भी है। इस बात की हिमायत न्यायालय भी करता है। दरअसल सरकार की इकाई मतदाता है। सरकार के साथ-साथ हर नागरिक भी यदि अपने दायित्वों का निर्वहन करे तो हर जगह अगल-बगल स्वच्छ पर्यावरण होने से हमें इस तरह की असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। बावजूद इसके यदि कोई प्रदूषक क्रियाकलाप में लिप्त पाया जाए तो उसके खिलाफ कठोर आर्थिक दंड के साथ सजा आदि का भी प्रावधान किया जाए ताकि स्वच्छ वातावरण में ही मानव को निर्मल श्वास लेने का अधिकार प्राप्त हो सके और हमारी भावी पीढ़ी अपने अस्तित्व से जूझते न दिखें। मानव का निरंतर विकास जारी है, यह कथन सही मायने में तभी यथार्थ रूप ले पाएगा।