अल-नीनो पूर्वी और मध्य विषुवतीय प्रशांत महासागर के पानी के असामान्य रूप से गर्म होने की ऐसी अवस्था है जिससे हवाओं के पैटर्न में आने वाला परिवर्तन विश्व भर के मौसम में परिवर्तन लाता है। प्रत्येक तीन से सात साल के अंतराल में प्रशांत महासागर के मध्य तथा पूर्वी क्षेत्रें में गर्म पानी का एक विशाल स्रोत बहता है। इस बहाव के कारण वायुमंडल का ताप अचानक बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में जब हवा का उच्च दबाव पश्चिम की ओर अदृश्य रूप में एक झोंके की तरह बढ़ता है तो इससे इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया के चारों ओर समुद्र की सतह आधा मीटर ऊंची हो जाती है। इसी दौरान पेरू के समुद्र तट पर भी ऐसा ही दृश्य उपस्थित हो जाता है। हवा और गर्म जल का यही प्रभाव ‘अल-नीनो’ के संचालन के लिए जिम्मेदार होता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक जब इन झोकों का वेग धीमा पड़ता है तो समुद्र का जल पतला हो जाता है। जब पतला होने के पहले चरण में समुद्र की सतह के ऊपर की गर्म व पतले जल की परत से लगी नीचे के ठंडे और गाढ़े जल की ‘थर्मोक्लाइन’ नामक परत अलग होकर समुद्र की गहराई में उतरने लगती है। इससे समुद्र की ऊपरी परत गर्म होने लगती है और समुद्र के ऊपर व आस-पास का वायुमंडल तेजी से गर्म होने लगता है। यही अल-नीनो प्रभाव है जिससे गर्मी अचानक बढ़ जाती है। ईसा मसीह के जन्म से मौसम की इस गतिविधि को जोड़ते हुए मछुआरों ने गर्म धाराओं की उत्पत्ति को ‘अल-नीनो’ नाम दिया जिसका स्पेनिश में अर्थ है ‘मानव पुत्र’। बहुत से लोग इसे ‘ईशु पुत्र’ भी कहते हैं।
ला-नीना
अल-नीनो के ठीक बाद की प्रक्रिया है ला-नीना। ला-नीना भी स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘छोटी बच्ची’। ला-नीना के चलते गर्म हुआ प्रशांत महासागर ठंडा होने लगता है। ला-नीना की अवस्था में मौसम के प्रभाव साधारणतया अलनीनो के विपरीत होते हैं। अब कई देशों के मौसम विज्ञानी मानने लगे हैं कि ला-नीना, अल-नीनो से भी ज्यादा नुकसानदायक है।
ला-नीना अधिकांशतः दक्षिणी गोलार्द्ध को प्रभावित करता है। इसमें अमेरिका के मध्य पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा बढ़ जाती है। उत्तरी रॉकी पर्वतीय क्षेत्र, उत्तरी कैलिफोर्निया और उत्तर पश्चिमी प्रशांत के पूर्वी क्षेत्र में अधिक वर्षा होती है। दक्षिणी क्षेत्रें में वर्षा कम हो जाती है। कनाडा में ला-नीना के प्रभाव से बर्फ ज्यादा पड़ती है जिससे सर्दी बहुत बढ़ जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधी चक्रवातों की संख्या बढ़ने से तटीय क्षेत्रें में विशेषकर चीन में इसका प्रभाव अधिक हो सकता है। भारत में इसके कारण सामान्य से अधिक वर्षा होती है।
भारत के लिए यह एक अच्छी खबर है कि ला-नीना यहां मॉनसून के साथ होगा जबकि यहां खरीफ की फसल बोयी जाती है। जब अल-नीनो मध्य प्रशांत महासागर में उत्पन्न होता है तब इसको ‘मोदोकी’ कहते हैं। जापानी भाषा में मोदोकी का अर्थ है ‘मिलता जुलता किंतु भिन्न’। इस अल-नीनो के प्रभाव भी पारंपरिक अल-नीनो के प्रभाव से भिन्न होते हैं। इसके प्रभाव के फलस्वरूप अनेक चक्रवात अटलांटिक महासागर के तटों पर टकराते हैं। इस अल-नीनो का कारण मानवीय क्रिया-कलापों के कारण जलवायु में होने वाले परिवर्तन को माना गया है।
अल-नीनो का प्रभाव
विश्व के विभिन्न भागों में अल-नीनो का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। जैसे कि इसका प्रभाव उत्तरी अमेरिका की अपेक्षा दक्षिणी अमेरिका पर अधिक होता है। दक्षिणी अमेरिका में अल-नीनो के गर्म जल के कुंडों से पूर्वी मध्य तथा प्रशांत महासागर में गरज वाले बादलों में जलवाष्प की मात्र बहुत बढ़ जाने से अधिक वर्षा होने लगती है। उत्तरी पेरु तथा इक्वाडोर के समुद्री तटों पर भारी वर्षा के कारण ग्रीष्म ऋतु में भीषण बाढ़ आ जाती है। दक्षिणी अमेरिका के तटों पर ठंडा पौष्टिक जल जिसमें मछलियां पलती हैं, अल-नीनो के कारण वहां जल का उत्प्रवाह कम हो जाता है। परिणामस्वरूप इसके प्रभाव से पेरू के पास के समुद्री क्षेत्र में मछलियां मर जाती हैं और अन्य प्रवासी पक्षी भी प्रभावित होते हैं। दक्षिणी ब्राजील और उत्तरी अर्जेंटीना में सामान्य की अपेक्षा आरंभिक ग्रीष्म ऋतु में अधिक वर्षा होने लगती है। अमेजन नदी के किनारों, कोलम्बिया तथा मध्य अमेरिका के कुछ भागों में शुष्क और भीष्ण गर्मी होने लगती है। अल-नीनो के प्रभाव के कारण मध्य-पश्चिम तथा उत्तरी पूर्वी अमेरिकी राज्यों में सामान्य जाड़े में कमी आ जाती है। पहाड़ी क्षेत्रें में वर्षा बढ़ जाती है।
भारत के मौसम विज्ञानियों ने भारतीय मानसून की वर्षा पर अल-नीनो प्रभाव के अनेक अध्ययन किए हैं। इनमें देखा गया कि अल-नीनो की अवस्था में भारत में सूखा पड़ने की संभावना अधिक हो सकती है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक अल-नीनो वर्ष में भारत में सूखा ही पड़ेगा। किसी भी अल-नीनो वर्ष में भारत में बाढ़ के संकेत नहीं मिले हैं। अल-नीनो के वर्षों को एक चेतावनी अवश्य समझा जा सकता है। अल-नीनो को आजकल बहुत सी बीमारियों का कारण भी माना जा रहा है। इसके प्रभाव से मलेरिया, डेंगू और रिट वैली ज्वर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। कुछ अध्ययनों में प्रशांत महासागर के द्वीप, इंडोनेशिया आदि में डेंगू और अल-नीनो के बीच संबंध पाया गया है। वास्तव में यदि शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रें में भारी वर्षा हो जाती है तो जगह-जगह जल एकत्रित होने से मच्छरों के पनपने के लिए अनुकूल जगह बन जाती हैं और ऐसे में मच्छरों के कारण फैलने वाली बीमारियों में बढ़ोतरी हो जाती है।
पिछले कुछ दशकों में अल-नीनो की संख्या में वृद्धि हुई है और ला-नीना की घटनाओं में कमी देखी गई है। आज कल विभिन्न प्रकार के जलवायु के मॉडलों से अल-नीनो प्रभाव का अध्ययन किया जा रहा है जिनसे आने वाले वर्षों में वास्तविक परिणाम प्राप्त होने की आशा है। वैसे अल-नीनो के पूर्वानुमान में उपग्रहों से विशेष सहायता प्राप्त हुई है। ऐसे उपग्रहों से आंकड़े प्राप्त करने के लिए उनमें विशेष प्रकार के संसूचक लगे होते हैं। समुद्री क्षेत्र में अल-नीनो के उत्पन्न होते ही वहां तेज हवाएं चलने लगती हैं। वायुमंडल में घनघोर बादल छाने लगते हैं और वर्षा होने लगती है। समुद्र तल में उस स्थान पर जल का स्तर ऊंचा होने लगता है। इन्हीं अवस्थाओं को विभिन्न उपकरणों से मापकर मौसम विज्ञानी अल-नीनो का पूर्वानुमान लगाते हैं। अल-नीनो के पूर्वानुमान के प्रमुख केंद्र अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और ब्रिटेन आदि देशों में स्थित हैं।
चूंकि मौसम और जलवायु परिवर्तन पर ही समूची मानव जाति का भविष्य टिका हुआ है इसलिए मौसम विज्ञानी और पर्यावरणविद जलवायु बदलने वाली इन दोनों प्रक्रियाओं अर्थात अल-नीनो और ला-नीना के बारे में खोजबीन में जुटे हैं। इसके लिए एक ओर तो ताप और वर्षामापक माने जाने वाले प्राकृतिक तत्व मूंगा को समुद्र की तलहटी से खींचकर बाहर निकाला जा रहा है तो दूसरी ओर बर्फ और रेत की विभिन्न परतों या तहों का अध्ययन किया जा रहा है।