महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए 1979 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय कानून का रूप दिया था। भारत में घरेलू हिंसा से निजात दिलाने के लिए ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 पारित किया गया है। यह कानून महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक और यौन हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संध्या-बनाम-मनोज के वाद में प्रतिपादित किया गया है कि पीडि़त महिला पति या उसके किसी भी रिश्तेदार के विरुद्ध परिवाद ला सकती है। पीडि़त महिला सीआरपीसी, हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटिनेंस एक्ट और घरेलू हिंसा कानून के तहत गुजारा भत्ता की मांग कर सकती है। हाल में केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि तलाक होने पर महिला को पति या पैतृक संपत्ति से भी मुआवजा या हिस्सेदारी मिलेगी। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के तहत गर्भपात के लिए महिला की सहमति अनिवार्य बनाया गया है। आईपीसी की धारा-498। के तहत पीडि़त महिला दहेज उत्पीड़न का मुकदमा दायर कर सकती है।
महिला सशक्तीकरण के लिए राष्ट्रीय नीति, 2001 लागू की गई है। मध्य प्रदेश सरकार ने ‘ऊषा किरण योजना’ की शुरुआत की है, जिसके तहत पीडि़त महिला को निःशुल्क सहायता दी जाती है। कठिन परिस्थितियों से उबरने के लिए ‘स्वधार' योजना।
घरेलू हिंसा रोकने में राष्ट्रीय महिला आयोग कितना सफल?
महिलाओं को पुरुषों के हिंसा और अन्याय से बचाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया। यह अपने उद्देश्यों में ज्यादा सफल नहीं हो पा रहा है। आयोग में पढ़ी-लिखी तथा आत्मनिर्भर महिलाओं की शिकायतें अधिक रहती है। गांवों की अनपढ़, कम पढ़ी-लिखी, दबी-कुचली महिलाओं की आवाज इस आयोग में नहीं सुनी जाती।
राष्ट्रीय महिला आयोग यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता है कि राज्यों में आयोग है। आरुषि हत्याकांड में आयोग की कार्यशैली पर सवाल उठाए गए हैं। आयोग में शिकायतों का ढ़ेर लगा है_ लेकिन निपटाने वाला कोई नहीं है। आयोग के कई प्रस्ताव कागजों में सिमट कर रहे गए हैं, जैसे-
महिला आयोग के सराहनीय पहल
यौन पीडि़त महिलाओं के राहत और पुनर्वास, अप्रवासी भारतीय पतियों के जुल्मों और धोखे की शिकार या परित्यक्त महिलाओं को कानूनी सहारा, ‘ऑनर किलिंग' रोकने के लिए विधेयक लाने की पहल।