राजनैतिक भ्रष्टाचार पर किये गये शोध बताते हैं कि यदि संचार माध्यम स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो तो इससे सुशासन को बढ़ावा मिलता है जिससे आर्थिक विकास को गति मिलती है।
भारत में 1955 में अखबार के मालिकों के भ्रष्टाचार के मुद्दे संसद में उठते थे। आज मिडिया में भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि मीडिया के मालिक काफी तादाद में संसद में बैठते दिखाई देते हैं। अर्थात् भ्रष्ट मिडिया और भ्रष्ट राजनेता मिलकर काम कर रहे हैं। भ्रष्ट घोटालों में मीडिया घरानों के नाम आते हैं। उनमें काम करने वाले पत्रकारों के नाम भी आते हैं। कई पत्रकार भी करोड़पति और अरबपति हो गए हैं।
आजादी के बाद लगभग सभी बड़े समाचार पत्र पूंजीपतियों के हाथों में गये। उनके अपने हित निश्चित हो सकते हैं इसलिए आवाज उठती है कि मीडिया बाजार के चंगुल में है। बाजार का उद्देश्य ही है अधिक से अधिक लाभ कमाना। पत्रकार शब्द नाकाफी है अब तो न्यूज बिजनेस शब्द का प्रयोग है। अनेक नेता और कॉरापोरेट कम्पनियां अखबार का स्पेस (स्थान) तथा टीवी का समय खरीद लेते हैं। वहां पर न्यूज, फीचर, फोटो, लेख जो चाहे लगवा दें। भारत की प्रेस कौंसिल और न्यूज ब्राडकास्टिंग एजेन्सी काफी छोटी है। अखबारों से सम्पादक के नाम पत्र गायब हैं। लोग विश्वास पूर्वक लिखते नहीं, लिख भी दिया तो अनुकूल पत्र ही छपते हैं बाकी कूड़ेदान में ही जाते हैं। कुछ सम्पादकों की कलम सत्ता के स्तंभों और मालिकों की ओर निहारती है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बड़े शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं।मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया घरानों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। ऊपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है।वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया घरानों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है।