न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, यह एक आम मान्यता है। जब किसी व्यक्ति के खिलाफ अदालती निर्णय आता है तो उसे लगता है कि जरूर न्यायाधीश ने विपक्षी लोगों से पैसे लिए होंगे या किसी और वजह से उसने अदालत का निर्णय अपने पक्ष में करवा लिया होगा। कहते सब हैं, पर डरते भी हैं कि ऐसा कहने पर वे अदालत की अवमानना के मामले में फंस न जाएं। उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
अंग्रेजी शासन काल से ही न्यायालय शोषण और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये थे। उसी समय यह धारणा बन गयी थी कि जो अदालत के चक्कर में पड़ा, वह बर्बाद हो जाता है। भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अब आम बात हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायधीशों पर महाभियोग की कार्रवाही हो चुकी है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार में - घूसखोरी, भाई भतीजावाद, बेहद धीमी और बहुत लंबी न्याय प्रक्रिया, बहुत ही ज्यादा मंहगा अदालती खर्च, न्यायालयों की भारी कमी और पारदर्शिता की कमी, कर्मचारियों का भ्रष्ट आचरण आदि जैसे कारकों की प्रमुख भूमिका है।
आमतौर पर कहा जाता है कि अमुक वकील के पास जाइए, वह निश्चित रूप से आपकी जमानत करवा देगा। उस ‘निश्चित रूप से’ का एक अर्थ होता है। यही भ्रष्टाचार है। परन्तु अदालतों ने अपने आप को पूरी तरह से ऐसे आवरण में ढक रखा है कि कभी इस पर न कोई खबर छपती है, न कोई कार्रवाई होती है। कानून ऐसा है कि आज न्यायाधीश को गिरफ्रतार नहीं कर सकते। उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति रखने का मुकदमा नहीं किया जा सकता। कानून ऐसा है कि अगर कोई न्यायाधीश इस प्रकार की स्थितियों में पाया जाए तो उस पर होने वाली कार्रवाई को सार्वजनिक नहीं किया जाता।
वैसे विगत सात दशकों में राज्य के तीन अंगों के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका को ही बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान उल्लंघन को रोका है, लेकिन अदालतों में विचाराधीन मुकदमों की तीन करोड़ की संख्या का पिरामिड देशवासियों के लिए चिंता और भय उत्पन्न कर रहा है। अदालती फैसलों में पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना आम लोगों के लिए त्रसदी से कम नहीं है। न्याय का मौलिक सिद्धांत है कि विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना आकाश के तारे तोड़ना जैसा होगा।
वस्तुतः अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए यह कार्यप्रणाली ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है और उसमें व्यापक परिवर्तन नहीं किया गया है। कई मामलों में तो वादी या प्रतिवादी ही प्रयास करते हैं कि फैसले की नौबत ही नहीं आ पाए। समाचार-पत्रों और टीवी के बावजूद नोटिस तामीली के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता और नोटिस तामील होने में वक्त जाया होता रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि कानूनों में सुधार करके जमानत और अपीलों की चेन में कटौती की जाए और पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। हालांकि देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वन्यायी हुआ है कि कोई भी कोना उससे बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्चस्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर निस्तवन साफ-सुथरी है।। अब तो पश्चिम बंगाल के न्यायमूर्ति सेन और कर्नाटक के दिनकरन जैसे मामले प्रकाश में आने से न्यायपालिका की धवल छवि पर कालिख के छींटे पड़े हैं। मुकदमों के निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चत्तम न्यायालय और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कार्रवाई किया जाना बहुत कठिन होता है। न्यायिक आयोग के गठन का मसला सरकारी झूले में वेर्षो से झूल रहा है।