गुरुकुलः गुरु का घर (आश्रम) ही स्कूल होता था। छात्र गुरु के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। गुरु अपने छात्रें को सन्तान की तरह मानता था और छात्रें के मानसिक, नैतिक और शारीरिक विकास का पूरा ध्यान रखता था। गुरु उसके लिए भोजन, निवास, मनोरंजन आदि की व्यवस्था करता था। गुरु के परिवार में गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं था, सबके साथ एक जैसा बर्ताव किया जाता था। गुरु छात्रें की दुःख-सुख को अपना दुःख-सुख मानता था।
टोलः टोल में संस्कृत पढ़ाई जाती थी। एक टोल में एक ही शिक्षक होता था। इस प्रकार के टोल बंगाल में मुख्य रूप से थे।
चरणः वेदों के केवल एक अंग की शिक्षा चरण में दी जाती थी। यहां एक ही शिक्षक होते थे।
घटिकाः एक घटिका में अनेक शिक्षक होते थे। यहां दर्शन एवं धर्म की शिक्षा दी जाती थी।
विद्यापीठः इसमें व्याकरण तथा तर्कशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।
परिषद्ः एक परिषद् में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
ब्राह्मणीय महाविद्यालयः इसमें चार विषय पढ़ाए जाते थे, जैसे- पुराण, दर्शन, कानून व व्याकरण। इस विद्यालय को ‘चतुष्यथी’ भी कहा जाता था।
मंदिर महाविद्यालयः यह प्रायः मंदिरों से सम्बद्ध होते थे। इसमें धर्म, दर्शन, वेद तथा व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार के महाविद्यालय दक्षिण भारत में बहुतायत थे।
विश्वविद्यालयः कालान्तर में उच्च शिक्षा की कुछ संस्थाओं ने विश्वविद्यालय का रूप धारण कर लिया, जिसमें तीन प्रकार की शिक्षा अर्थात धार्मिक, अध्यात्मिक तथा भौतिक शिक्षा दी जाती थी। काशी, नालन्दा तथा तक्षशिला के विश्वविद्यालय इसके उदाहरण हैं।
भ्रमणकारी अध्यापकः अनेक अध्यापक ऐसे भी थे, जो कि स्थान-स्थान पर शिक्षा प्रदान करते थे।
अग्रहारः दक्षिण भारत में ग्राम पंचायतें तथा शासक कुछ गांव तथा भूमि शिक्षक ब्राह्मणों को दे देते थे, जो उस आय से विद्यार्थियों का खर्च भी चलाते थे। ऐसे गांव अग्रहार कहलाते थे।