यूएस-तालिबान संधि
- 07 Mar 2020
- शनिवार, 29 फरवरी 2020 को अमेरिका और तालिबान ने "अफगानिस्तान में शांति लाने" के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो अमेरिका और नाटो को अगले 14 महीनों में सेना वापस लेने और 10 मार्च-2020 से ओस्लो (नॉर्वे) में शुरू होने वाले अंतर-अफगान संवाद को सुविधाजनक बनाने में समर्थ करेगा।
- भारत ने कतर के दोहा में संपन्न हुए हस्ताक्षर समारोह में भाग लिया।
संधि के प्रमुख तत्व
- सैन्य वापसी: अमेरिका 135 दिनों में 8,600 सैनिकों को वापस बुलाएगा और नाटो अथवा गठबंधन सेना की संख्या को भीआनुपातिक रूप से और एक साथ वापस हटाया जाएगा।
- आतंकवाद विरोधी आश्वासन: तालिबान द्वारा मुख्य आतंकवाद विरोधी प्रतिबद्धता यह है कि वह अपने किसी भी सदस्य, अन्य व्यक्तियों या समूहों कोअल-कायदा सहित, अफगानिस्तान की मिट्टी का उपयोग करने की अनुमति नहीं देगा, ताकि संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा को खतरा पैदा न हो सके।
- प्रतिबंध हटाना:तालिबान नेताओं पर अगले तीन महीने (29 मई, 2020 तक) में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को और 27 अगस्त-2020 तक अमेरिकी प्रतिबंध को हटाया जाना चाहिए।
- कैदियों की रिहाई: यूएस-तालिबान समझौते में कहा गया है कि 10 मार्च-2020 तक 5,000 तालिबानी कैदी और“दूसरी तरफ” सेतालिबान द्वारा 1,000 कैदी “रिहा किये जायेंगे।“
- युद्ध विराम: समझौते में कहा गया है कि युद्ध विराम "एजेंडा का एक अंश" होगा। जब अंतर-अफगान वार्ता शुरू होती है तोदर्शाता है किवास्तविक युद्धविराम एक अफगान राजनीतिक समझौते के "पूरा होने" के साथ होगा।
चुनौतियां
- अंतर-अफगान वार्ता के दौरान अभी भी कई मुद्दों पर काम किया जाना बाकी है, जिसमें सत्ता को साझा करना, समाज में तालिबान लड़ाकों को निरस्त्रीकरण और पुन: संगठित करना,देश के लोकतांत्रिक संस्थानों और संविधान के भविष्य का निर्धारण करना शामिल है।
- जातीय,संप्रदायवादी और जनजातीय मतभेदों से पीड़ित एक कमजोर केंद्र सरकार इस प्रक्रिया को जटिल बना सकती है, जो खुलेआम संघर्ष में उतर सकते है और शांति समझौते में बाधा उत्पन्न करते हुए अगले गृहयुद्ध की शुरुआत कर सकते हैं।
- एक ही समय मेंविशेषज्ञों का कहना है कि पिछले अठारह वर्षों में तालिबान किसी भी क्षेत्र में अत्यधिक मजबूत है। ये अफीम पोस्ता की खेती और अवैध दवा व्यापार से लाखों डॉलर कमाते हैं। कुछ विश्लेषक इस बात से भी चिंतित हैं कि तालिबानी लड़ाके का सामान्य सदस्य शांति समझौते का पालन नहीं कर सकते हैं।
अफगानिस्तान पर प्रभाव
- अमेरिका की वापसी काबुल सरकार को हमेशा के लिए कमजोर कर देगी,युद्ध के मैदान और बातचीत दोनों में शक्ति के संतुलन को बदलकर।
- तालिबान को वही मिला है जो वे चाहते थे जैसे सैनिकों को वापस लेना, प्रतिबंधों को हटाना और कैदियों की रिहाई। इसने पाकिस्तान, तालिबान के लाभार्थियों को भी मजबूत किया है और इससे पाकिस्तान सेना और आईएसआई का प्रभाव बढ़ रहा है।
- इससे अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी के दो दशकों के बाद सामाजिक परिवर्तन आया - मानव अधिकार, महिला मुक्ति, मनोरंजन - संकट में पड़ सकता है।
- अफगानिस्तान के लोगों के लिए भविष्य अनिश्चित है, और यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तालिबान अपनी प्रतिबद्धताओं का सम्मान कैसे करता है और क्या यह 1996-2001 के शासन के मध्यकालीन प्रथाओं में वापस आता है।
भारत पर प्रभाव
- तालिबान ने भारत को शत्रुतापूर्ण देश माना, क्योंकि भारत ने 1990 के दशक में तालिबान विरोधी उत्तरी गठबंधन का समर्थन किया था।
- 1996-2001 के दौरान सत्ता में रहने के बावजूद भारत ने कभी भी तालिबान को राजनयिक और आधिकारिक मान्यता नहीं दी।
- शांति सौदा देश के लिए रणनीतिक और भू-राजनीतिक निहितार्थ रखता है, जिसने अफगानिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश किया है।
- अफगानिस्तान से प्रारंभिक रूप से सेना को वापस लेने के निर्णय से भारत के लिए दूरगामी परिणाम बुरे होने की संभावना है। जैसे अफगानिस्तान में तालिबान के प्रभाव में वृद्धि से कश्मीर घाटी में सुरक्षा स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
- इसके अलावा यह समझौता अन्य आतंकवादी समूहों पर चुप्पी साधे है।जैसे लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत विरोधी समूह। भारत, अमेरिका का सहयोगी नहीं है अन्तोगत्वाइस संधि के अंतर्गत नहीं आता है।
- यह सौदा पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण संबंधों के संदर्भ में भी महत्व रखता है जिसके क्षेत्र में हित हैं।
- अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के साथ, पाकिस्तान वास्तव में एक महत्वपूर्ण देश बन जाएगा। इससे भारत की सुरक्षा आज की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षित होगी।
आगे का रास्ता
- अमेरिकी बलों की वापसी से क्षेत्र में निर्वात के निर्माण की संभावना है और आतंकवादियों और चरमपंथियों द्वारा उस निर्वात को भरे जाने की संभावना है।
- भारत, रूस और चीन जैसे क्षेत्र में अन्य हित धारकों के साथ अमेरिका को अफगानिस्तान के साथ दीर्घकालिक राजनयिक जुड़ाव के लिए तैयार रहना चाहिए।जिसमें एक साथ देश की राजनीतिक मुख्यधारा को मजबूत करना और उसके भीतर एकीकृत तालिबान को करना शामिल होगा।
- आगे की चुनौतियाँ विकट हैं। आशा है, लेकिन संदेह गहरा है।