Question : "पुनर्जागरण राजनीतिक अथवा धार्मिक आन्दोलन नहीं था। वह एक मनोदशा थी।"
(1994)
Answer : यदि गहराई से देखा जाये तो पुनर्जागरण एक पूर्णतः नए राजनीतिक अथवा धार्मिक आन्दोलन की बजाय तत्कालीन मानसिक स्थिति को कहीं ज्यादा व्यक्त करता है। लेकिन इस विचार को बिल्कुल हाल ही में मान्यता मिल सकी। एक लंबे अर्से तक विद्वानों में यह मानने का फैशन-सा चल पड़ा था कि 14वीं से 16वीं सदी का पुनर्जागरण आंदोलन, जो एक लंबी ‘नैतिक एवं बौद्धिक जड़ता’ के बाद अस्तित्व में आया था, मानव चेतना के क्षेत्र में एक बड़ा ही क्रांतिकारी कदम था। इस युग में पुनः उन आदर्शों तथा मूल्यों को महत्व दिया जाने लगा जो मध्यकाल में नगण्य समझे जाते थे, जैसे-लौकिक जगत के प्रति आस्था, मानववाद का विकास, रूढि़वादिता के स्थान पर तर्क की महत्ता, प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुभूति आदि पुनर्जागरण काल में पुनः महत्वपूर्ण हो गये। 9वीं सदी में कैरोलिंगियन आन्दोलन एवं 12वीं सदी में इटली के शासक फ्रेड्रिक द्वितीय के पुनर्जागरण के प्रयासों से कुछ-न-कुछ ग्रहण करते हुए भी नवीन प्रकृति से ओत-प्रोत 14वीं सदी से शुरू पुनर्जागरण आंदोलन, वास्तविकता में मानव मन की नयी सोच एवं विचार से उत्पन्न भावनाओं को ही व्यक्त करता था। पुनर्जागरण एक ऐसा बौद्धिक एवं उदार सांस्कृतिक आन्दोलन था, जिसमें प्राचीन यूरोप की प्रेरणा के आधार पर नये यूरोप का निर्माण हो रहा था तथा आलोचनात्मक एवं अन्वेषणात्मक प्रकृतियां जन्म ले रही थीं। परिणामस्वरूप, मनुष्य मध्यकालीन बन्धनों से मुक्त होकर स्वतन्त्र चिन्तन की ओर अग्रसर हुआ तथा मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का उन्नयन आरम्भ हुआ जो उस युग की कला, साहित्य, दर्शन एवं विज्ञान आदि क्षेत्रों में परिलक्षित हुआ।
Question : "प्रोटेस्टेन्टवाद ने पूंजीवाद के उद्भव में विशिष्ट योग दिया।"
(1994)
Answer : इस विवादित सम्बन्ध के बारे में एंगेल्स ने उल्लेख किया है। जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने अपने ‘प्रोटेस्टेंट नीतिशास्त्र और पूंजीवाद की मूल भावना’ (Protestant Ethics and Spirit of Capitalism, 1902) नामक ग्रन्थ में मार्क्सवाद के आर्थिक नियतत्ववादी लोक प्रचार के विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तर्क दिया कि काल्विनवादी नैतिकता ने "पूंजीवादी भावना" के विकास में योगदान दिया है।
(क) प्रोटेस्टेंट इंग्लैण्ड और हॉलैण्ड ने पूंजीवादी विकास का मार्ग प्रशस्त किया; फ्रेंच काल्विनवादी (“यूगेनाट) व्यापार और शिल्प के क्षेत्र में सक्रिय थे जबकि कैथोलिक दक्षिणी यूरोप में तुलनात्मक दृष्टि से आर्थिक अस्थिरता और पतन की स्थिति में जी रहे थे।
(ख) संघीय और चर्च के हस्तांतरण ने इंग्लैण्ड में पूंजीवादी कृषि-व्यवस्था की प्रकृति के विकास में योगदान दिया, पर ऐसा सर्वत्र नहीं हुआ।
(ग) स्वयं वेबर का तर्क मुख्यतः मानसिक दृष्टिकोण और जीवन मूल्यों पर आधारित था। उनके अनुसार प्रारब्ध का सिद्धान्त (Doctrine of Predestination) का अर्थ था कि ईश्वर द्वारा मनोनीत लोग मेहनत से काम करें और अपने व्यवसाय या "आजीविका" को सफल बनाएं। इस धारणा ने फ्भौतिक तपश्चर्या" अर्थात् श्रम के गुणों का विकास, मितव्ययिता, आत्मसंयम, धन का उचित और व्यवस्थित अर्जन, धन के संग्रह आदि पर बल दिया जो उस परंपरागत ईसाई धर्म के बिल्कुल विपरीत था, जिसमें धन संग्रह की निंदा की गयी थी और परोपकार एवं गरीबी का गुणगान किया गया था। क्रिस्टोफर हिल के अनुसार मूल बात वस्तुतः यह है कि प्रोटेस्टेंटवाद में अपेक्षाकृत अधिक लचीलापन है और मध्य या बुर्जुआ वर्ग के विकास से संबंधित विविध क्षेत्रों में नवीन मूल्यों के प्रति उनके दृष्टिकोण में एक प्रकार का खुलापन है।
Question : सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान वैज्ञानिक ज्ञान का विकास क्रम किस हद तक परिवर्तनशील समाज की आवश्यकताओं की उपज था?
(1994)
Answer : पुनर्जागरण, व्यापारिक क्रान्ति, नये प्रदेशों की खोज, धार्मिक सुधार आंदोलन आदि द्वारा एक ऐसे युग का सूत्रपात हुआ, जिसमें पुरानी मान्यताओं और विश्वासों के विरुद्ध एक प्रकार की क्रान्ति उत्पन्न हुई। सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में प्रश्नोत्तर, निरीक्षण और परीक्षण पद्धतियों को बढ़ावा दिया गया ताकि नये-नये वैज्ञानिक तथ्य उद्घाटित हो सकें। इस बात पर बल दिया गया कि सत्य के निर्धारण में प्राचीन ग्रंथों का आश्रय नहीं लेना चाहिये, अपितु स्वयं के प्रत्यक्ष ज्ञान का अवलम्बन चाहिये। शंकाओं के जन्म के साथ-साथ उनके समाधान की कोशिश की गयी। नयी प्रवृत्तियों का विकास हुआ, जिससे विश्व सम्बन्धी आधुनिक दृष्टिकोण की नींव पड़ी। परम्परागत तरीकों का स्थान ‘आधुनिकता’ ने ले ली, जिससे सभी मान्यताओं के समीक्षात्मक मूल्यांकन को प्रोत्साहन मिला। प्राकृतिक तथ्यों की समीक्षा के लिए परिकल्पना और प्रयोग का तरीका अपनाया जाने लगा और चिन्तन की शैली अधिक तर्कसंगत और युक्तिमूलक होने लगी। आविष्कारों एवं खोजों के फलस्वरूप इस युग में इतने परिवर्तन हो गये कि यह घटना ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ कहलाती है। यह सब तथ्य विश्व में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभ्युदय के प्रमाण थे।
पुनर्जागरण, धर्म सुधार, भौगोलिक खोजों एवं व्यापार में वृद्धि के पश्चात् समाज की आवश्यकतायें भी बढ़ गयी थीं। अब उसे ऐसे आविष्कार की जरूरत थी, जिससे उपज अधिक हो, कपड़े अधिक तेजी से बनें, तेजी से चलने वाले यातायात का विकास हो, विश्व में जगह-जगह जाने वाले लोगों को हो सकने वाले रोगों से सुरक्षा प्राप्त हो आदि। 16वीं एवं 17वीं शताब्दियों के दौरान वैज्ञानिक ज्ञान का विकास क्रम इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आगे बढ़ा।
पोलैण्ड के कोपरनिकस (1473-1543) एवं इटली के वैज्ञानिक जिओर्दानों ब्रूनो ने परम्परागत सामाजिक विचारों से अलग सूर्य को ग्रह-मण्डल का केन्द्र माना और पृथ्वी का अपनी धुरी पर चक्कर लगाने के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। जर्मन खगोल शास्त्री जोहांस केपलर (1571-1630 ई.) ने भी इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाया। इटली के गैलीलियो (1564-1642 ई.) द्वारा दूरबीन के आविष्कार ने तो अंतरिक्ष अध्ययन विज्ञान में एक क्रांति ही ला दी, इससे लोगों को नक्षत्रों की दिशा समझने में आसानी हुई।
इंग्लैंड के विलियम हार्वे (1578-1658 ई.) ने शरीर के रुधिर के परिसंचरण की युक्ति संगत व्याख्या की। हार्वे की खोज से युक्ति संगत शरीर विज्ञान की नींव पड़ी। रसायन शास्त्र के क्षेत्र में राबर्ट बॉयल (1627-1691 ई.) ने बताया कि गैसों का आयतन दबाव पर निर्भर करता है। आधुनिक युग में रसायन शास्त्र की खोज का (जो एक विशुद्ध विज्ञान का रूप प्राप्त कर लिया) बहुत कुछ श्रेय बॉयल को ही प्राप्त है। अंग्रेज वैज्ञानिक फ्रांसिस बेकन तथा फ्रांसीसी वैज्ञानिक रेने डेकार्ते ने वैज्ञानिक खोजों को लोकप्रिय बनाने में काफी मदद की। 1662 में फ्रॉयल सोसायटी ऑफ लन्दन" एवं 1666 में ‘फ्रेंच रॉयल अकादमी’ की स्थापना के बाद वैज्ञानिक विकास के क्षेत्र में और भी तेजी आई।
अंग्रेज वैज्ञानिक न्यूटन (1642-1727) ने अपने ग्रन्थ फ्प्रिसिपिया मेथेमेटिसिया", जिसे 1683 में प्रकाशित किया गया, में गणित शास्त्र के आधार पर सिद्ध किया कि प्रकृति का एक नियम ‘सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण’ है, जो आकाशीय पिण्डों की गति और पदार्थों के ऊपर जाने की बजाय नीचे की ओर गिरने की व्याख्या करता है। न्यूटन की व्याख्या के फलस्वरूप पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष के सभी तत्त्व एक एकीकृत निकाय के अंग बन गये। न्यूटन ने गति के नियमों का प्रतिपादन किया।
न्यूटन के आविष्कारों का काफी प्रभाव पड़ा। अब यह स्पष्ट होने लगा कि यह विश्व कोई दैवयोग या आकस्मिक घटना नहीं, जैसा कि बहुत से लोग सोचते थे, अपितु एक ऐसी वस्तु है जो प्रकृति के सुव्यवस्थित नियमों के अनुसार चल रही है। अरस्तू और टॉलमी के सिद्धान्त पूर्णतः ध्वस्त हो गये। न्यूटन ने यह प्रतिस्थापित किया कि विश्व का संचालन एक सरल प्राकृतिक नियम के अनुसार होता है। न्यूटन की विश्व प्रणाली में ईश्वर का वही स्थान था जो एक सांविधानिक राजा का होता है। कोपरनिकस की मृत्यु और न्यूटन के बीच मुश्किल से दो सौ वर्ष बीते थे, किन्तु इस अवधि में विज्ञान ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। प्रयोग और प्रेक्षण की नयी प्रणाली तथा विश्व के यंत्रवत होने के विचार ने न केवल प्राकृतिक विज्ञान को प्रभावित किया, वरन् विश्व के बारे में शिक्षित वर्ग के सोचने के दृष्टिकोण पर भी असाधारण प्रभाव डाला। विश्व में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक संस्थाओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जन्म की शुरुआत हुई। पारम्परिक चिंतन शैली का अंत होने लगा और आधुनिक वैज्ञानिक सोच का जन्म हुआ। इसी वैज्ञानिक ज्ञान ने मानव की हर आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नए-नए आविष्कारों का रास्ता प्रशस्त किया।
Question : "एशियाई राष्ट्रवाद उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकाें के दौरान एशियाई बुद्धिजीवी वर्ग पर मात्र पाश्चात्य प्रभाव की ही उपज है।"
(1994)
Answer : एशिया के अधिकतर देश उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पश्चिमी देशों (यूरोपीय देशों) के उपनिवेश बन चुके थे। इन यूरोपीय देशों के लिए यह संभव नहीं था कि सिर्फ अपने ही लोगों के द्वारा एशियाई उपनिवेशों का प्रशासन चलाया जा सके। इसलिए उन्होंने उपनिवेशों में अपनी शिक्षा प्रणाली, जो यूरोपीय विज्ञान, दर्शन, राजनीति और इतिहास पर आधारित थी, की शुरुआत की। पाश्चात्य दर्शन से ओत-प्रोत इस शिक्षा ने यहां के चन्द लोगों को ही सही मगर मानवतावादी, राष्ट्रीयता एवं स्वतंत्रता के मूल्य को आत्मसात् करने में काफी बड़ी भूमिका निभाई। एशियाई लोग अपनी पारंपरिक जड़ता को तोड़ने के लिए व्याकुल हो उठे। भारत में राजा राममोहन राय, केशव चन्द्रसेन, विवेकानन्द, दयानंद, भारतेन्दु आदि का उदय इसी पाश्चात्य दर्शन को राष्ट्रीय दर्शन से जोड़ने के फलस्वरूप हुआ। ऐसी ही स्थिति हिन्देशिया के देशों में भी थी। इन बुद्धिजीवियों ने पहले-पहल तो अपने समाज को परंपरागत कुरीतियों से मुक्त करने का प्रयास किया और इस प्रयत्न ने लोगों में धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रवादी भावना एवं स्वतंत्रता की भावना को जन्म दिया। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों को यह अवसर प्राप्त हुआ कि वे पाश्चात्य दर्शनों एवं सोचों के अच्छाइयों एवं बुराइयों को जानकर अपने देश के दर्शन एवं सोच में परिवर्तन लायें, उन्होंने ऐसा करने का प्रयास किया और इसमें सफल भी रहे।
लेकिन यह भी सत्य है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में एशियाई देशों में राष्ट्रवाद के उदय के पीछे बुद्धिजीवी वर्गों पर पड़ा पाश्चात्य प्रभाव ही नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में उपनिवेशवादी शक्तियों की शोषण की प्रकृति बेहद बढ चुकी थी और जनता त्रस्त हो चुकी थी, उन्हें एक नेतृत्व की जरूरत जरूर थी, मगर वे राष्ट्रीय चेतना से खाली नहीं थे। एशियाई देशों ने देश की जनता की भावना को आवाज दी और नेतृत्व किया। हां, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन बुद्धिजीवियों पर पाश्चात्य दर्शन का प्रभाव जरूर पड़ा था।
Question : "1919 ई- के पश्चात् मध्य पूर्व के देश सतत् उत्तेजना एवं कतिपय आकर्षक परिवर्तनों के केन्द्र बन गये।"
(1994)
Answer : 1919 ई- के पश्चात् मध्य पूर्व के देश प्रथम विश्व युद्ध में विजयी मित्र राष्ट्रों के लिए एक ऐसा रोटी बन गये थे, जिसमें सभी मित्र राष्ट्र हिस्सा चाहते थे। मध्य पूर्व देशों से सम्बन्धित युद्धोत्तर-व्यवस्था की कठिनाई के मूल में दो बातें थीं। एक तो विल्सन के चौदह सूत्रों के आधार पर मित्र राष्ट्रों ने युद्धोपरान्त तुर्की की पराजय के बाद अरबों को स्वतन्त्र कर देने का आश्वासन दिया था। लेकिन दूसरी तरफ विजयी राष्ट्र अपनी विजय का पुरस्कार चाहते थे। उनकी आंखें जर्मनी और तुर्की के उन प्रदेशों पर गड़ी हुई थीं जो पराधीन थे। वे उन्हें हड़पना चाहते थे। लेकिन यह कार्य उतना आसान नहीं था। स्वशासन की मांग की आवाज सबके कानों में गूंज रही थी और विल्सन के रहते उसके सिद्धान्तों की उपेक्षा करना सरल नहीं था। लेकिन व्यावहारिक राजनीति की दृष्टि से यह आवश्यक था कि युद्धकाल में घोषित स्वशासन के सिद्धान्त और साम्राज्यवाद के सिद्धान्त में किसी तरह समन्वय कराया जाये। इसका उपाय लेकर दक्षिण अफ्रीका के राजनेता जनरल स्मट्स आये, जिसे ‘संरक्षण प्रणाली’ (Mandate System) कहा गया, जिसमें मध्य पूर्व के देशों पर राष्ट्रसंघ का अधिकार होने और इन अधिकारों को राष्ट्रसंघ के नाम पर विजित राष्ट्रों द्वारा उपयोग किये जाने की बात की गयी थी। इसे मान लिया गया। राष्ट्रसंघ के विधान की 22वीं धारा में इसका अर्थ एवं कार्यान्वित करने की विधि का उल्लेख करते हुए इराक, फिलिस्तीन तथा जोर्डन को ब्रिटेन और सीरिया एवं लेबनान को फ्रांस की संरक्षकता में रखा गया। और इसी के साथ उस उत्तेजना की समाप्ति हुई, जिससे वशीभूत हो ब्रिटेन और फ्रांस कोई भी कदम उठाने को तैयार थे। इस दौरान मध्य पूर्व के देश वैश्विक राजनीति के केन्द्र बने रहे।
Question : "आर्थिक बेचैनी का स्थायीकरण यूरोप में आगामी दो दशकों (1919-39) के दौरान राजनीतिक अस्थिरता का मुख्य कारण था।" इस कथन की व्याख्या कीजिये।
(1994)
Answer : आर्थिक संकट (1919-1932) के इस काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है। 1919 से 1923 तक का काल पहली स्थिति को दर्शाता है, जिसमें एक कड़े कूटनीतिक आदान-प्रदान के पश्चात् हारी शक्तियों, विशेषतया जर्मनी से वसूल किया जाने वाला मुआवजा निश्चित किया गया और प्रसिद्ध जर्मन औद्योगिक क्षेत्र रूर घाटी के खदान क्षेत्रों पर मित्र राष्ट्रों का कब्जा हुआ। जर्मनी से 136,000,000,000 मार्क मुआवजे के रूप में वसूला गया, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति ही बैठ गयी। रूर पर फ्रांसीसी कब्जे से जर्मनी का आर्थिक विनाश पूर्ण हो गया। जर्मनी के उद्योग धंधे तथा व्यापार ठप्प पड़ गये एवं जर्मन मुद्रा का मूल्य घट गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जर्मनी में इस शांति व्यवस्था के प्रति जहां आक्रोश पैदा होने लगा, वहीं यूरोप के अन्य देशों में उसके प्रति सहानुभूति भी जगने लगी।
दूसरी स्थिति (1924-29, डाक्स योजना): सितंबर 1923 में नयी जर्मन सरकार ने, जिसका गठन गुस्ताफ स्ट्रेस्मान ने किया था, यह निर्णय लिया कि फ्रांस के विरोध में जो शांतिपूर्ण विरोध का आंदोलन चल रहा था, उसे तत्काल वापस ले लिया जाये, क्योंकि उससे न केवल जर्मनी में आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी होती जा रही थी, वरन् संपूर्ण यूरोपआर्थिक संकट की लपेट में आता जा रहा था। दूसरी ओर, फ्रांस में एडुअर्ट हैरियट की नयी सरकार भी संबंध सुधारना चाहती थी। जर्मनी तथा यूरोप को विषम आर्थिक संकट से उबारने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति अमेरिकी फौजी जनरल डाक्स की अध्यक्षता में बनायी गयी। एक योजना बनाई गयी, जिसके अंतर्गत जर्मनी अपने ऊपर लदे हुए कर्जों को कुछ आसानी से उतार सके। इस समिति के प्रस्तावानुसार क्षतिपूर्ति का एक नया रूप तैयार किया गया, जर्मनी की मुद्रा का पुनर्गठन किया गया और सारी पुरानी मुद्रा को भंग कर 10,00,00,00,,00,000 पुराने मार्कों के बदले नयी मुद्रा राइकमार्क वितरित की गयी। नयी जर्मन सरकार का कार्य सुचारु रूप से चल सके, इसके लिए उसकी सहायता के रूप में एक नया अंतर्राष्ट्रीय ऋण जारी किया गया। इस प्रकार 1924 से 1929 के काल में जर्मनी पर से आर्थिक संकट के काले बादल धीरे-धीरे छंट गये तथा समृद्धि के नए युग का आरंभ नजदीक आता प्रतीत होने लगा। परंतु यह सब कुछ अमेरिका से प्राप्त होने वाले ऋणों के लगातार आते रहने पर निर्भर करता था।
तीसरी स्थिति (1929-32): 1929 में अमेरिकी सट्टे बाजार में आयी अचानक तेजी अचानक बैठ गयी और अमेरिका में मंदी के दौर का श्रीगणेश हो गया। अमेरिका में मंदी या आर्थिक अव्यवस्था के आने का सीधा प्रभाव यूरोप पर पड़ना ही था। अमेरिकी पैसे के खुराक पर चल रही यूरोपीय आर्थिक व्यवस्था भी भरभरा कर गिर गयी। इस आर्थिक अव्यवस्था के दौर में आर्थिक राष्ट्रवाद का तेजी से विकास हुआ, जिसके कारण प्रत्येक देश अपने आर्थिक स्वार्थ के मद्देनजर ही अपनी आर्थिक नीति बनाने लगा। इससे वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को और भी नुकसान पहुंचा। इसका प्रभाव यूरोप के सभी देशों पर पड़ा। यूरोप के कर्जदार देश या तो दिवालिया हो गये और उन्होंने ऋण या उस पर लगने वाला ब्याज चुकाने से इनकार कर दिया (जैसे- चिली) या वे कर्जा चुकाने से कतराने लगे या फिर ऋण अदा न करने की धमकियां (जैसे-जर्मनी) देने लगे। इस प्रकार यूरोप के कर्जदार देशों के सामने अमेरिकी ऋण के ब्याज चुकाने का एक ही रास्ता था कि वे अपना बचा-खुचा सोना भी अमेरिका को दे दें या फिर कर्जा चुकाने से मुकर जायें। इस प्रकार विश्व भर का सोना अमेरिका को जाना शुरू हुआ।
इन दो दशकों की आर्थिक बेचैनी के स्थायीकरण ने यूरोप में राजनीतिक अस्थिरता के वातावरण का सृजन किया। इस संकट का अत्यधिक विनाशकारी प्रभाव केंद्रीय यूरोप (जिसमें जर्मनी भी आता है) पर पड़ा। उसके आयात-निर्यात ठप्प हो गये। रूर घाटी में, जो कभी कल-कारखानों के शोर से गूंजती रहती थी, अब सिर्फ फ्रांसीसी फौजों के बूटों की आवाज आती थी। बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गयी थी। इस समस्या ने कई सामाजिक समस्याओं को जन्म तो दिया ही, जर्मनी की तत्कालीन सरकार, वाइमर गणराज्य के अस्तित्व को संकट में डाल दिया। निराश मध्यवर्गीय नवयुवक हिटलर की पार्टी में सम्मिलित होने लग गये। मार्च 1930 के चुनाव में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की भारी पराजय हुई और हिटलर की नाजी पार्टी को बहुमत प्राप्त हो गया। इस प्रकार आर्थिक तनाव ने जर्मनी में फासीवादी शासन की नींव रखी। हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी में अपनी पुरानी स्थिति एवं सम्मान प्राप्त करने की भावना तेजी से फैलने लगी और हिटलर एक अधिनायकवादी सत्ता का प्रतीक बन गया। 1932 में जर्मन सरकार ने बाकी मुआवजा देने से साफ इन्कार कर दिया। लाउसेन नामक स्थान पर बुलाए गये एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि बाकी मुआवजे को 15,00,00,000 पौंड के लंबी अवधि वाले बांडों में बदल दिया जाये। इससे जर्मन अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सुधरने लगी।
प्रथम विश्व युद्ध तक विश्व अर्थव्यवस्था का सिरमौर रहा ब्रिटेन भी इस आर्थिक संकट से नहीं बच सका और वहां भी बेरोजगारी (1932 में 37-5 लाख बेरोजगार थे) तेजी से बढ़ी। इस काल में लिबरल कंजर्वेटिव पार्टी की सरकार का पतन होने के बाद पहली बार श्रमिक दल (स्ंइवनत च्ंतजल) की सरकार, मैकडोनाल्ड की अध्यक्षता में बनी। मैकडोनाल्ड ने डरते-डरते ही सही, मगर कुछ ऐसे आर्थिक कदम उठाये, जिससे 1932 तक ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार दिखने लगे। 1932 के लाउसेन सम्मेलन ने मित्र राष्ट्रों के आपसी कर्जों को रद्द कर दिया। परंतु इस भयानक आर्थिक कठिनाई ने पहली श्रमिक दल की सरकार को डस लिया और उसका पतन हो गया।
1920 के दशक में जर्मनी से मुआवजों के रूप में प्राप्त बड़े धन एवं यूरोप के सभी देशों से ज्यादा स्वर्ण भंडार रखने के कारण फ्रांस इस आर्थिक संकट के दौर से तो बचा रहा, लेकिन जब 1933-34 में अन्य यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था सुधर रही थी, तो फ्रांस की अर्थव्यवस्था 1936 में डांवाडोल होने लगी थी। स्टालिन के नेतृत्व वाली साम्यवादी सरकार के नेतृत्व में रूस इस आर्थिक संकट से पूरी तरह बचा रहा था। इस आर्थिक संकट ने इटली को भी प्रभावित किये बगैर नहीं छोड़ा। वहां मुसोलिनी के रूप में एक ऐसे अधिनायकवादी का उदय हुआ जो विस्तारवादी नीतियों का पैरोकार होने के कारण आने वाले दिनों में विश्व शांति के लिए खतरा ही बन बैठा।
अतः यह कहा जाता है कि 1919-32 के बीच यूरोप में आयी आर्थिक बैचेनी ने यूरोपीय देशों की राजनीति में काफी अस्थिरता पैदा कर दी थी, जो आने वाले दिनों में एक नए विश्व युद्ध का कारण बनी।
Question : यह स्पष्ट कीजिये कि किस प्रकार दुर्बल एवं निरीह चीन ने पड़ोसी जापान में सैन्यवाद के उद्भव एवं प्रजातंत्र के विघटन को जन्म दिया?
(1994)
Answer : उग्रवादी जापानी नेता प्रथम विश्व युद्ध के बाद चीन की राजनीति में नयी प्रवृत्तियों को देखकर घबरा गये। 1926 में जब च्यांग काई शेक का नानकिंग-सरकार पर प्रभाव कायम हुआ, तबसे चीन में राजनीतिक एकता कायम करने की दिशा में प्रबल प्रयास किया गया। च्यांग काई शेक ने सैनिक सरदारों का सफाया कर दिया और कम्युनिस्टों के साथ घोर मतभेद के बावजूद चीन की राजनीतिक एकता बहुत हद तक कायम कर ली। उसने चीन में विदेशी पट्टे रद्द करने का भी प्रयास किया। चीनी राष्ट्रवाद की इन उपलब्धियों से जापानी नेता घबरा गये। जापान के सैनिकवादियों तथा पूंजीपतियों का यह ख्याल था कि उनके हित में चीन का विभाजित और कमजोर बना रहना ही अच्छा है। लेकिन उन्होंने देखा कि जिस रफ्रतार से चीन अपनी राजनीतिक एकता प्राप्त करता जा रहा था, यदि वह क्रम जारी रहा तो जापान को चीन में मिली हुई सारी सुविधाओं का परित्याग कर देना पड़ेगा। अतएव राजनीतिक दृष्टिकोण से चीन के शक्तिशाली होने से पूर्व ही जापानी नेता चीन पर आक्रमण कर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देना चाहते थे, जिससे चीन में पूर्ण एकता स्थापित न हो सके। जापान में सैन्यवादी विचारधारा के उदय के पीछे रूस की शक्ति से डर, 1930 का आर्थिक संकट, बढ़ती हुई आबादी की समस्या एवं विस्तृत आर्थिक क्षेत्र की खोज की भावना भी काम कर रही थी। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण चीन द्वारा मंचूरिया को फिर से प्राप्त करने से जापान के आर्थिक हित को चोट पहुंचना था।
1928 के अंत में जब मंचूरिया विधिवत् चीनी राज्य में मिला लिया गया तो जापानी नेताओं के कान खड़े हो गये और यह आशंका पैदा हुई कि चीन की राष्ट्रवादी सरकार की नीति से कहीं जापानी स्वार्थों का अन्त न हो जाये। मंचूरिया में राजनीतिक परिवर्तन होने के साथ ही जापान के सैनिक और असैनिक अधिकारियों में प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गयी। उद्योगपतियों, कुलीनों एवं आर्थिक संकट से त्रस्त आम जनता का समर्थन प्राप्त सैनिक अधिकारियों ने जापान की राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली और इच्छा के अनुसार मंत्रिमण्डल बनाने और हटाने लगे। जिन लोगों ने विरोध किया, उनकी हत्या कर दी गयी। उनकी नीति थी कि चीन के विरुद्ध जबर्दस्ती का उपाय अपनाया जाना चिाहए और उग्र विदेश नीति का अवलम्बन करना चाहिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री बैरन तानाका गीइची ने चीन के प्रति ठोस नीति अवलम्बन करने का निश्चय किया और उसके लिए उसने एक योजना तैयार की जिसे तानाका-मेमोरियल कहते हैं। यह जापान के साम्राज्यवादी प्रसार की योजना थी, जिसमें जापान की बढ़ती हुई आबादी, कच्चे मालों की दुर्बलता, आर्थिक संकट आदि का उल्लेख करते हुए जापान के लिए उग्रवादी आक्रामक नीति के अवलम्बन की बात पर जोर दिया गया था। मेमोरियल में कहा गया था: फ्मंचूरिया और मंगोलिया चीन के प्रांत नहीं हैं। चीन को जीतने के लिए हमें पहले इन दोनों प्रान्तों को जीतना चाहिए और विश्व को जीतने के लिए चीन पर विजय प्राप्त करना जरूरी है। यदि हम चीन को जीतने में सफल हो जाते हैं तो शेष एशिया के देश हमसे भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर देंगे। चीन के सम्पूर्ण साधनों पर अधिकार कर हम भारत, पूर्वी द्वीप समूह, मध्य एशिया तथा यूरोप तक को जीत सकते हैं। परन्तु इस दिशा में पहला कदम मंचूरिया और मंगोलिया का नियन्त्रण है।" 1931 के बाद जापानी साम्राज्यवाद का जो विस्फोट हुआ, उसका आधार यही तानाका- मेमोरियल था।
इन परिस्थितियों ने जापान को अपने साम्राज्यवादी जीवन का द्वितीय चरण प्रारम्भ करने के लिए प्रेरित किया और उसने अपना मुख्य लक्ष्य मंचूरिया को बनाया। चीन द्वारा मंचूरिया को अपने साथ जोड़ लेने से जापान के लिए पहला दुश्मन चीन ही बन गया था। जबकि इस काल में चीन च्यांग काई शेक के नेतृत्व में पुनर्निर्माण एवं एकीकरण के दौर से गुजर रहा था और उसकी इतनी ताकत नहीं थी कि वह जापान से लड़ सके, पर मंचूरिया को प्राप्त करने एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों के कारण जापान में सैन्यवाद का दूसरी बार विकास हुआ और इसका कारण इस बार निरीह एवं दुर्बल चीन रहा। अपने इस नए सैन्यवाद की पुष्टि जापान ने मई 1931 में कोरियाई सैनिकों को चीन के विरुद्ध सहायता प्रदान कर दी, फिर तो फरवरी 1932 तक लगातार युद्ध का दौर चलता रहा।
Question : "लुई चतुर्दश के राजतंत्र का माप, वैभव और संगठित शक्ति यूरोप में सर्वथा नवीन थी।"
(1993)
Answer : माजारैं एवं कोलबर्ट जैसे योग्य व्यक्तियों की सहायता से लुई चतुर्दश ने अपने राज्य काल में फ्रांस को सारे यूरोप में सैनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं कला की दृष्टि से सिरमौर बना दिया था। उसने मनसर्ट, जिरारदों एवं लूर्वे जैसे शिल्पकारों की मदद से पेरिस से 12 मील दूर वर्साय नामक स्थान पर 10 करोड़ डॉलर खर्च कर नयी राजधानी बनायी थी, जो बेहद खूबसूरत थी। लुई ने फ्रांसीसी भाषा एवं साहित्य को इतना बढ़ावा दिया कि कहा जाने लगा कि ‘फ्रांसीसी सेनाओं ने केवल एक बार नेपोलियन के समय यूरोप जीता था, लेकिन फ्रांसीसी भाषा ने तीन सौ वर्षों तक यूरोप में अपना प्रभाव बनाये रखा।’ उसके काल में फ्रांस हर क्षेत्र में यूरोप के देशों का अग्रदूत था। लेकिन डेबोल्यू का युद्ध, हालैण्ड से युद्ध, ऑक्सबर्ग की लीग से युद्ध, स्पेन के उत्तराधिकार का युद्ध आदि में लुई के शामिल होने से अंततः सारा यूरोप ही फ्रांस के विरुद्ध हो गया और अंत में फ्रांस की हार हुई और उसे यूट्रेक्ट की अपमानजनक संधि को मानना पड़ा। इस संधि ने फ्रांस के सम्मान एवं विस्तार को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया। इस संधि का लाभ सबसे अधिक इंग्लैंड को हुआ। इस संधि के अपमान को लुई नहीं झेल सका और दो वर्ष बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। लेकिन लुई चौदहवें के गौरव और महानता के सम्मुख, सम्राट चार्ल्स पंचम (1520-56), फिलिप द्वितीय (1556-1598) जैसे महान शासक भी फीके पड़ गये।
लुई ने शक्तिशाली राजतंत्र, फ्रांस के वैभव तथा प्रभुत्व के स्थापनार्थ अपनी समस्त शक्तियां लगा दीं। निःसन्देह उसे अपने ध्येय में अभूतपूर्व सफलता मिली, किन्तु वह फ्रांस के स्थायी हितों को समझने में असमर्थ रहा।
Question : यूरोप में पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में जो बौद्धिक चेतना घटित हुई, उसका मूल्यांकन कीजिये। इसने आधुनिक समाज और सभ्यता को किस प्रकार प्रभावित किया?
(1993)
Answer : यूरोप में पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में जो बौद्धिक चेतना घटित हुई, उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि इसने मध्ययुगीन धर्म और परम्पराओं से नियन्त्रित चिन्तन को मुक्त कर तर्क को बढ़ावा दिया। अरस्तू के विचारों एवं पेरिस, वोलोन, ऑक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रिज के विश्वविद्यालयों ने तार्किक चिन्तन की दिशा में मानव को प्रेरित किया। इस काल के बौद्धिक चेतना की एक प्रमुख विशेषता थी-मानवतावाद, अर्थात् मानव जीवन में रुचि लेना, मानव की समस्याओं का अध्ययन करना, मानव का आदर करना, मानव जीवन के महत्व को स्वीकार करना तथा उसके जीवन को सुधारने और समृद्ध एवं उन्नत बनाने का प्रयास करना। एक अन्य विशेषता थी- भौतिक एवं मानसिक दबाव के मुक्त होकर सहज सौंदर्य की उपासना करना। लिओनार्दो दा बिची, अलबर्ती एवं शैनीनि का कला एवं साहित्य इसके उदाहरण हैं। बौद्धिक चेतना का साहित्य पर बेहद स्थायी एवं महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। मातृभाषा का महत्व, मानवतावादी विषयवस्तु एवं तर्क का साहित्य में पदार्पण हुआ। इटली के दांते (1265-1321), फ्रांसेस्को पैट्रार्क (1304-1374 ई.) एवं ज्योवनी बुकासिओ (1313-1375 ई.) की रचनायें साहित्य की इस नयी धारा की द्योतक हैं। दांते की ‘डिवाइन कॉमेडी’ अपने-आप में एक अद्वितीय रचना मानी जाती है और इन्हें "इतालवी कविता का पिता" कहा जाता है। फ्रांस के रेवेलास (1495-1553 ई.) तथा मॉन्टेन (1533-1592 ई.) भी साहित्य में मानवतावादी विषयवस्तु के समर्थक थे और इनकी रचनायें इसकी उदाहरण भी हैं। इंग्लैण्ड में ‘अंग्रेजी काव्य के पिता’ जोफरे चौसर (1340-1400 ई.) की कृति ‘कैन्टरबरी टेल्स’ एवं सर टॉमस मूर (1478-1535 ई.) की कृति ‘यूटोपिया’ एवं फ्रांसिस बेकन (1561-1626 ई.) की रचनायें भी मानवतावादी विचारधारा से ओत-प्रोत थीं। इंग्लैण्ड की सबसे बड़ी देन शेक्सपियर (1564-1616 ई.) की रचनायें हैं, जो जीवन के हर पहलू को बेहद करीब से जांचती-पड़तालती चलती हैं। हॉलैण्ड के इरैसमस (1466-1536 ई.) एवं स्पेन के सरवेन्टीज (1547-1616 ई.) भी युग की बौद्धिक चेतना से अछूते साहित्यकार नहीं थे।
राजनीतिक साहित्य के क्षेत्र में दांते का ‘द मोनार्क्य’, मार्सीलियो का ‘डिफेन्डर ऑफ पीस’, मैकियावली की रचना ‘द प्रिन्स’ ने राजनीति के क्षेत्र में एक क्रान्ति का आरम्भ किया और सामान्य जन को इस क्षेत्र में सोचने के लिए प्रेरित किया। बौद्धिक चेतना का प्रभाव सिर्फ साहित्य पर ही नहीं पड़ा, बल्कि इसका असर कला, चित्रकला, स्थापत्य, मूर्तिकला एवं संगीत के क्षेत्र पर भी पड़ा और इन सब क्षेत्रों में मानवीय भावना को भी अंकित किया गया। इस क्षेत्र में इटली के जियटो, फ्रान्जेलिको, मेशेशियो, लिओनार्दो द बिंची, माइकेल एंजेलो एवं राफेल का योगदान काफी उल्लेखनीय रहा।
बौद्धिक चेतना की लहर ने विज्ञान के क्षेत्र को भी अछूता नहीं छोड़ा और खोजकर्ता अब प्राचीन पंरपरागत सोच से बाहर निकल कर नए तर्क एवं सोच के सहारे नए खोज में जुटने लगे। फ्रांसिस बेकन (1561-1626 ई.), टॉलमी, पोलैण्ड के कोपर्निकस (1473-1543 ई.), इटली के जाइडिनी ब्रूनों (1548-1600 ई.), जर्मनी के जॉन केपलर (1571-1630 ई.), इटली के गैलीलियो (1564-1642 ई.), नीदरलैण्ड के वेसेलियस (1574-1564 ई.), इंग्लैण्ड के विलियम हार्वे(1576-1657 ई.) एवं फ्रांस के डेकार्त (1596-1650 ई.) ने खगोल विज्ञान, भौगोलिक ज्ञान, मानव विज्ञान आदि के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण योगदान देकर मानव जिज्ञासा को एक नया आयाम प्रदान किया और आने वाले युग के वैज्ञानिक युग होने की घोषणा कर दी। बौद्धिक चेतना के इस युग ने प्राचीन प्रेरणाओं पर आधारित एक ऐसा प्रयोग आरम्भ किया, जो उस युग की परिस्थितियों से सामंजस्य भी कर सका। साथ ही, नितान्त मौलिक एवं प्रगतिशील दिशाएं भी तलाश कर सका। इस युग की बौद्धिक चेतना ने मनुष्य को उसकी महत्ता से अवगत कराया, तर्क-वितर्क आधारित ज्ञान प्राप्ति का रास्ता दिखाया और एक नये वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सृजन किया। बौद्धिक चेतना के विकास ने धर्म ग्रन्थों के बहुत से सिद्धान्तों और पहले से चले आ रहे धार्मिक विश्वास को झकझोर कर रख दिया था। इसी काल में चर्च और राज्य के बीच पृथकता की कल्पना की गयी। राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी, देशी भाषाओं के प्रयोग ने इसमें योगदान दिया, जिससे राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना होने लगी और राष्ट्र को अधिक महत्व मिलने लगा।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दियों की बौद्धिक चेतना के विकास ने जिन प्रवृत्तियों की शुरुआत की तथा जिन्हें संस्थापित किया, वे आगे आने वाले आधुनिक समाज एवं संस्कृति के आधार तथा दिशा-निर्धारक बने।
Question : 1852 तक इटली के एकीकरण में क्या बाधायें थीं? किस प्रकार और किन उपायों से इटली का एकीकरण प्राप्य हुआ?
(1993)
Answer : उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में इटली में राष्ट्रीयता और उदारवाद की विचारधाराओं का विकास हुआ। इटली की जातियों की महिमा, रोमन साम्राज्य की धूमिल स्मृतियां, दांते की कविताएं, रेनासां की कला और विज्ञान के द्वारा इस भावना को जीवित रखा कि इटालियन एक महान जाति के थे। इन सबके बावजूद भी इटली के एकीकरण के मार्ग में अनेक कठिनाइयां थीं, जो निम्नलिखित हैं:
1. कई राज्यों में विभक्त: इटली की सबसे बड़ी कठिनाई उसकी भौगोलिक आकृति थी। एक लम्बे कटे हुए देश के रूप मेंइटली मोटे रूप से तीन राजनीतिक खण्डों में विभक्त था-उत्तरी इटली, मध्य इटली तथा दक्षिणी इटली। ये राजनीतिक खण्ड भी पुनः कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त थे, जहां भिन्न-भिन्न प्रकार के कानून और शासन व्यवस्थाएं मौजूद थीं। इस विभाजन के कारण राष्ट्रीय चेतना का पूर्णतः अभाव रहा।
2. विदेशी प्रभावः एकीकरण के मार्ग में एक अन्य बाधा विदेशियों की भी थी। इटली पर आस्ट्रिया का प्राधान्य था। लोम्बार्डी और वेनीशिया पर उसका अधिकार था। मोडेना व टस्कनी पर आस्ट्रिया से सम्बन्धित राजकुमारों का अधिकार और परमा की रानी लुईसा आस्ट्रिया की राजकुमारी थी। आस्ट्रिया के इस प्राधान्य के कारण इटली के एकीकरण की बात सोचना भी कठिन था। इसीलिए कावूर ने कहा था-आस्ट्रिया इटली की स्वतंत्रता का प्रमुख शत्रु है।
3. रोम का प्रतिक्रियावादी पोपः रोम का राज्य इटली के मध्य में स्थित था। पोप के शक्तिशाली शासन के कारण इटली भौगोलिक दृष्टि से दो भागों में विभाजित था। इटली के एकीकरण के मार्ग में पोप का यह राज्य बाधक था, क्योंकि यदि इस राज्य को जीतने का प्रयास किया जाता तो यूरोप की कैथोलिक जनता का विरोध उत्पन्न हो जाता। इसके अतिरिक्त पोप पायस सप्तम एक प्रतिक्रियावादी व्यक्ति भी था। उसके रहते एकीकरण का कोई भी प्रयास असफल रहता।
4. राजनीतिक विषमताएं: इटली के एकीकरण की प्रक्रिया के सम्बन्ध में भी विभिन्न मत थे। कुछ लोग इटली के पूर्णतः गणतन्त्रत्मक स्वरूप के समर्थक थे। कुछ लोग रोम के पोप की अध्यक्षता में संघीय राज्यों की स्थापना के पक्ष में थे। कुछ सार्डीनिया-पिडमोन्ट के राज्य की अध्यक्षता में इटली के एकीकरण के समर्थक थे। ये राजनीतिक विषमताएं आर्थिक कारणों से और भी उग्र हो गईं, क्योंकि दक्षिणी इटली अविकसित और ग्रामीण था और उत्तरी इटली अर्ध औद्योगिक अवस्था में था।
इन सभी बाधाओं के अतिरिक्त इटली में प्रांतीयता, सांविधानिकता और उदारवाद की भावनाएं प्रबल थीं। सभी का लक्ष्य एक था, किन्तु मार्ग अलग-अलग थे।
राष्ट्रीय एकता के प्रयासः उपरोक्त कठिनाइयों के बावजूद इटली के कुछ देशभक्तों ने मिलकर, स्वतन्त्रता और उदारवाद की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने का निर्णय किया। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इटली में कई गुप्त संस्थाओं की स्थापना हुई। नेपोलियन बोनापार्ट के समय में भी कई गुप्त संस्थाएं स्थापित हो चुकी थीं।
मुरत के शासनकाल में नेपल्स में स्थापित ‘कार्बोनरी’ नामक संस्था के नेतृत्व में ही 1931 तक इटली का स्वतंत्रता संग्राम चलता रहा। 1820 से 1831 के बीच स्वतंत्रता के लिए गुप्त संस्थाओं ने नेपल्स, पिडमोन्ट, लोम्बार्डी, परमा एवं मोडेना में विद्रोह किया, मगर आस्ट्रिया ने उसे दबा दिया। जब ये सारे प्रयास विफल हो रहे थे, ऐसे में देश से निष्कासित जोसेफ मेजिनी ने 1831 में फ्रांस में ‘युवा इटली’ ( (Young Italy) नामक संगठन बनाया, जिसके तीन नारे थे- परमात्मा में विश्वास रखो, सब भाइयों को एक साथ मिलाओ और इटली को मुक्त करो।" मेजिनी के प्रयत्न से 1849 में रोम में गणतन्त्र की स्थापना हुई। परन्तु कुछ समय पश्चात् ही फ्रांस की सेनाओं ने रोम के पोप को पुनः सत्तारूढ़ कर लिया। असफल होने के बावजूद मेजिनी ने इटली के एकीकरण की आधारशिला रखी।
1831 से 1848 के मध्य इटली में गुप्त क्रान्तिकारी संगठन अपनी तैयारियां करते रहे। सन् 1848 में फ्रांस में क्रांति हुई और इधर इटली की आर्थिक अवस्था भी बदहाल थी। इन दोनों का प्रभाव इटली के स्वतंत्रता आंदोलन पर पड़ा। सुधारवादी नेताओं की जबरदस्त मांग के कारण 1848 तक नेपल्स, सिसली, पिडमोन्ट, टस्कनी और पोप के राज्य में गणतन्त्र की स्थापना हुई। 1848 में हुई क्रान्ति के बाद मेटरनिख के भाग जाने की खबर ने भी क्रान्तिकारियों में नया जोश भरा। रिसार्जीमेंटो पत्र के सम्पादक काउन्ट कावूर ने जनता से अपीलें की और 23 मार्च,1848 को सार्डीनिया के सम्राट चार्ल्स एलबर्ट ने अपील से प्रभावित होकर आस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। पोप एवं फर्डिनेन्ड के विश्वासघात के कारण चार्ल्स इस युद्ध में हार गया। फरवरी 1849 में मेजिनी के नेतृत्व में रोम में गणतन्त्र की स्थापना की गयी। लेकिन अंततः मेजिनी और उसके सहयोगी गैरीबाल्डी को असफल हो इटली से भागना पड़ा। इस संघर्ष के पश्चात् स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व पिडमोन्ट के शासक विक्टर इमेनुअल द्वितीय (1849-70) के हाथ में आ गयी और उसने 1850 में काउन्ट कावूर को अपना मंत्री बना इस प्रक्रिया को जारी रखा। कावूर की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य था- इटली के एकीकरण के लिए आस्ट्रिया के प्रभुत्व से मुक्त होना तथा पिडमोन्ट के शासक की अध्यक्षता में उसे संगठित करना। इसके लिए उसने फ्रांस एवं इंग्लैण्ड से अपना सम्बन्ध मधुर बनाया। अंततः कावूर ने आस्ट्रिया को अकेला कर धीरे-धीरे पिडमोन्ट को शक्तिशाली बनाया और गैरीबाल्डी जैसे लोगों की मदद से ऐसी स्थिति बना दी कि 2 जून, 1871 को विक्टर इमेनुअल ने इटली के एकीकरण की घोषणा नयी राजधानी रोम में की। इटली के एकीकरण की प्रक्रिया एक सतत् विकास एवं निरंतर प्रयास का प्रतिफल था, जिसमें मेजिनी, गैरीबाल्डी, कावूर एवं विक्टर इमेनुअल का बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय योगदान था।
Question : "एक क्लांत और भीरु पीढ़ी के लिए मेटरनिख ही आवश्यक व्यक्ति था।"
(1993)
Answer : नेपोलियन के पतन के बाद क्रान्ति के विरुद्ध प्रतिक्रियावाद का जमाना आया, जिसका नेता आस्ट्रिया का चान्सलर मेटरनिख था। 1815 से 1848 तक वह यूरोप का सबसे अधिक प्रभावी राजनीतिज्ञ रहा और इस काल को ‘मेटरनिख युग’ कहा जाता है। वह फ्रांस की क्रांति और उसकी राष्ट्रीयता और प्रजातन्त्र के सिद्धान्त को एक भयानक रोग समझता था, अर्थात् वह निरकुंश राजतन्त्र को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रगतिशील विचार के उदय का विरोध करता था। वह आस्ट्रिया में किसी भी उदारवादी विचारों के प्रवेश को रोकने के लिए न सिर्फ आस्ट्रिया में ही सक्रिय रहा, बल्कि इटली, जर्मनी औरर फ्रांस में भी इन विचारों को विकसित होने से रोकने का प्रयास किया। उसने वियना कांग्रेस और यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना इसी उद्देश्य से की थी। उसने निरंकुशवादी रवैया अपना कर प्रगति एवं सुधार के लिए आकांक्षित लोगों को रोकने का प्रयास किया। लेकिन उसकी सफलता क्षणिक थी, क्योंकि प्रगतिशील विचारों को ज्यादा दिनों तक नहीं रोका जा सकता है और हुआ भी यही। आस्ट्रिया की जनता ही उसके दबाव के विरुद्ध उठ खड़ी हुई और अंततः उसे यूरोप के दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। अतः यह कहना कि क्लान्त और भीरु पीढ़ी के लोगों के लिए मेटरनिख ही उचित व्यक्ति था, शायद उचित ही होगा, क्योंकि उसने उस पीढ़ी का नेतृत्व किया था जो बदलाव नहीं चाहता था और निरंकुश राजा का पुजारी था।
Question : फ्वर्साय संधि बीस वर्षों का एक युद्धविराम मात्र था।"
(1993)
Answer : फ्रांस के मार्शल फाश ने उचित ही कहा था, "यह (वर्साय) संधि कोई शान्ति सन्धि नहीं है। यह केवल बीस वर्षों के लिए युद्ध विराम है।" उसकी बात सही सिद्ध हुई और 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हुआ। वर्साय की सन्धि से सिर्फ जर्मनी, तुर्की आदि ही नाराज नहीं थे, मित्र राष्ट्रों में से एक इटली भी अपने मनोवांछित लाभ नहीं प्राप्त होने के कारण नाराज था। इधर वर्साय की संधि में पूरा प्रयास किया गया जर्मनी को सदैव के लिए पंगु बनाकर रखने का। संधि के नियम कठोर अैर अपमानजनक थे, जिसके तहत जर्मनी के सारे उपनिवेश छीन लिये गये, व्यापारिक सुविधा पर नियन्त्रण लगा दिया गया, उसके क्षेत्र अन्य राज्यों में बांट दिये गये, उस पर असहनीय क्षतिपूर्ति का बोझ लाद दिया गया। उसकी सैनिक शक्ति नष्ट कर दी गयी और उसे युद्ध के लिए दोषी भी ठहराया गया। उल्लेखनीय तथ्य तो यह था कि यह संधि पूर्णतः आरोपित एवं एकतरफा थी, जिसमें जर्मनी को अपनी सफाई देने का मौका ही नहीं दिया गया था। साथ ही, यह जर्मनी के साथ विश्वासघात भी था, क्योंकि उसे बताया गया था संधि विल्सन के 14 सूत्रों पर आधारित होगी, जो झूठ था। यह आवश्यक ही था कि जर्मन जैसी लड़ाकू प्रजाति वाले लोगों का देश एक-न-एक दिन बदला लेने के लिए उठ खड़ा होता और यही हुआ भी, हिटलर के उदय के साथ जर्मनी एक बार पुनः अपनी पहले की स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने लगा। परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया।
Question : "मंचूरियाई संकट ने लीग ऑफ नेशन्स के भाग्य का निर्णय कर दिया।"
(1993)
Answer : पेरिस शान्ति वार्ता के समय ही 8 जनवरी, 1918 को अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने एक राष्ट्रसंघ स्थापित करने की घोषणा की थी। इसके बाद राष्ट्रसंघ की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की प्राप्ति, भविष्य में युद्धों को असंभव बनाना तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सहिष्णुता को बढ़ावा देने के उद्देश्य के साथ हुई। लेकिन राष्ट्रसंघ शुरू से ही अमेरिका, रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और तुर्की के सदस्य नहीं बनने के कारण सर्वभौम नहीं बन सका था तथा कोई सैनिक एवं आर्थिक प्रतिबंध का अधिकार न होने कारण पंगु ही रहा। राष्ट्रसंघ के सदस्यों के परस्पर विरोधी हित, आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय, अधिनायकवाद का विकास एवं संविधान का दोषपूर्ण होना राष्ट्रसंघ के अंधकारमय भविष्य का संकेत थे। ऐसे में जापान द्वारा 1922 में वाशिंगटन कांफ्रेंस द्वारा उसके द्वारा हथियाये गये चीन के प्रदेशों को पुनः चीन के वापस करने के आदेश को स्वीकार कर लेने के बाद अपने विस्तारवादी स्वार्थ के लिए 1931 में चीन पर आक्रमण करना और मंचूरिया को जीत लेने और इस मामले में राष्ट्रसंघ के मूक बने देखते रहने से यह सिद्ध हो गया कि राष्ट्रसंघ शक्तिहीन है। इस परिस्थिति का फायदा उठा कर इटली और जर्मनी ने भी अपने विस्तारवादी प्रयास को तेज कर दिया, जिससे राष्ट्रसंघ का अस्तित्व संकट ग्रस्त हो गया और विश्व एक बार फिर विश्व युद्ध के कगार पर पहुंच गया।
Question : ‘अरब राष्ट्रीयता और तेल’ वे प्रमुख कारक थे, जो बाह्य जगत के साथ पश्चिम एशियाई देशों के संबंधों को जटिल बनाते थे। क्या आप इससे सहमत हैं?
(1993)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध और उसके बाद अरब जगत में राष्ट्रवाद का उदय पश्चिमी एशिया के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी। यह राष्ट्रवाद पहले ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की) के विरुद्ध और बाद में यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध उदित हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व आधुनिक इराक, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान तथा फिलीस्तीन आदि पश्चिमी एशियाई देश ऑटोमन साम्राज्य के अंग थे। इन देशों के निवासी अरब और उनके शासक तुर्क थे। राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर अरब लोग ऑटोमन दासता से मुक्ति पाना चाहते थे। इसी बीच 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, जिसमें तुर्की का सुलतान जर्मनी के पक्ष में ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध में सम्मिलित हो गया। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन ने तुर्क शासकों के विरुद्ध अरबों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। अरब नेताओं की सहानुभूति एवं समर्थन प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने स्पष्ट घोषणा की कि वे उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को समझते हैं और इसीलिए युद्धोपरान्त उनकी नीति यह होगी कि अरब राज्यों को तुर्की की अधीनता से मुक्त करा दिया जाये।
अंग्रेजों ने मक्का के शरीफ हुसैन के अतिरिक्त अन्य अरब राज्यों, जैसे- सीरिया, इराक आदि से भी इस संबंध में बातचीत की। अंग्रेजों ने इन देशों के निवासियों को प्रेरित किया कि वे मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेकर तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दें। अंग्रेजों का प्रोत्साहन पाकर मध्य और पूर्वी अरब के अरब सरदार स्वयं को स्वतंत्र घोषित करने लगे। बाद में फिलीस्तीन, सीरिया आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों की विजय एवं तुर्की की पराजय में अरबों का राष्ट्रीय विद्रोह एक बड़ा कारण साबित हुआ।
यद्यपि युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों ने ऑटोमन साम्राज्य के विरुद्ध अरब राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित किया था, तथापि वे उनकी विजय नहीं देखना चाहते थे। इन मित्र राष्ट्रों का यह उद्देश्य था कि युद्धोपरान्त ऑटोमन साम्राज्य के विभिन्न टुकड़ों पर उनका वर्चस्व कायम हो जाये, क्योंकि उनकी ललचायी हुई दृष्टि अरब क्षेत्र में स्थिर तेल के उन विशाल भण्डारों पर थी जो समस्त विश्व की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम था। इसी उद्देश्य से 1916 में उन्होंने आपस में साइक्स-पिकाट समझौता किया था, जो ब्रिटेन, फ्रांस एवं रूस के बीच एक गुप्त समझौता था और जिसका उद्देश्य ऑटोमन साम्राज्य का आपस में विभाजन करना था। 1918 में प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने और उसमें तुर्की की पराजय के बाद अरब राज्यों को स्वतंत्रता मिल जानी चाहिये थी, जैसा कि मित्र राष्ट्रों ने उन्हें आश्वासन दिया था। लेकिन विजयी राष्ट्र अब अपने वादे को पूरा करने में आनाकानी करने लगे। उन्होंने एक संरक्षण प्रणाली की व्यवस्था की, जिसमें यह प्रावधान था कि ऑटोमन साम्राज्य के भूतपूर्व राज्यों पर राष्ट्रसंघ का प्रभुत्व हो और राष्ट्रसंघ की ओर से इन राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था कुछ यूरोपीय देशों को दे दी जाये। इस प्रकार सैन रेमो सम्मेलन में इराक ट्रांस जॉर्डन, फिलीस्तीन पर ब्रिटिश संरक्षण एवं सीरिया तथा लेबनान पर फ्रांसीसी संरक्षण कायम करने पर सहमति हुई। इस प्रकार एक बार फिर पश्चिम एशिया के अरब देश अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन और फ्रांस के संरक्षित राज्य बन गये और उन पर नये साम्राज्यवादी देशों का अधिकार स्थापित हो गया। दो विश्व युद्धों के बीच के समय में अरब राष्ट्रवाद उदित होने का उद्देश्य विदेशी दासता से छुटकारा पाना था। पेरिस शांति सम्मेलन के निर्णयों से अरब जगत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की हत्या हुई थी और विशाल अरब राज्य का सपना टूट कर बिखर गया था। फलतः सीरिया और इराक में राष्ट्रवादी आंदोलन तीव्र हुआ। अरबों को तुर्की साम्राज्य से तो मुक्ति प्राप्ति हो गयी थी लेकिन संरक्षक के बहाने उन पर पश्चिमी साम्राज्यवाद लाद दिया गया था।
सीरिया को अपने संरक्षण में लेकर फ्रांस ने इसे दो भागों में बांट दिया-एक भाग लेबनान और दूसरा भाग सीरिया कहलाया। इन दोनों ही क्षेत्रों में फ्रांस द्वारा अपना साम्राज्यवादी शिकंजा मजबूत करने के विरोध में सीरियाई राष्ट्रवादी आंदोलनों ने गंभीर रूप धारण कर लिया। 1925-26 में हुए अनेक विद्रोहों को फ्रांसीसी सैनिक शक्ति ने निर्दयतापूर्वक दमित कर दिया। इसी बीच 1931 में इराक पर इंग्लैंड का संरक्षण अधिकार समाप्त होने और इराकी स्वतंत्रता से सीरियाई राष्ट्रीय आंदोलन को नया प्रोत्साहन मिला। फ्रांस द्वारा भी इस दिशा में रुचि प्रदर्शित की गयी और राष्ट्रवादी तत्त्वों को संतुष्ट करने के लिए 1930 में एक संविधान बनाकर निर्वाचित मंत्रिमंडल बनाया गया। इन सबके बावजूद फ्रांस पच्चीस वर्ष तक सीरिया की सैनिक व्यवस्था, आर्थिक एवं विदेश नीति पर अपना नियंत्रण रखना चाहता था। सीरियाई संसद द्वारा इसका विरोध करने पर उसे भंग करके स्वशासन संबंधी सभी अधिकार छीन लिये गये। फ्रांस में उदारवादी सरकार बनने पर 1936 में सीरियाई नेताओं और फ्रांस के मध्य एक सार्थक समझौता हुआ, लेकिन इस पर अमल होने से पूर्व ही फ्रांस की सरकार बदल गयी, जिसने सीरिया और लेबनान पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने में रुचि जाहिर की। इसकी प्रतिक्रिया में सीरियाई राष्ट्रवादियों ने पुनः अपना आंदोलन तेज कर दिया।
उधर युद्ध के बाद इराक को ब्रिटेन ने अपने संरक्षण में ले लिया था लेकिन इराकी जनता इसके विरुद्ध थी। अरब भावना को तुष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने मक्का के शासक शरीफ हुसैन के पुत्र फैजल को इराक का शासक बना कर उन्हें फुसलाने का प्रयास किया। प्रकारान्तर से इराक में सभी राजकीय पदों पर अधिकार युक्त अंग्रेज अधिकारी ही नियुक्त थे इस कारण सम्पूर्ण इराक में अंग्रेजी शासन का विरोध होता रहा। लेकिन अंग्रेजों ने इन विरोधों का क्रूरता से दमन किया। लेकिन कालान्तर में आंदोलन, विद्रोह और अव्यवस्था के कारण ब्रिटिश सरकार ने बाध्य होकर इराक की स्वतंत्रता के लिए 1931 में एक संधि कर ली।
युद्धोपरान्त इंग्लैंड के संरक्षण में आये फिलीस्तीन में बड़ी संख्या में यहूदी रहते थे जो इसे अपना राष्ट्रीय आवास बनाना चाहते थे। युद्ध के बाद असंख्य यहूदी यूरोप से भाग कर फिलीस्तीन में बसने लगे जिसका अरबों ने कड़ा विरोध किया। फलस्वरूप यहूदियों एवं अरबों के शुरू झगड़ों ने बाद में साम्प्रदायिक दंगों का रूप ले लिया। समस्या के समाधानार्थ 1939 में ब्रिटिश सरकार द्वारा निकाले गये एक श्वेत पत्र में फिलीस्तीन को दस वर्ष बाद स्वतंत्रता देने और यहूदियों के आगमन को प्रतिबंधित करने की बात कही गयी थी। लेकिन इस श्वेत पत्र का दोनों ही पक्षों ने विरोध किया। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने से फिलीस्तीन की समस्या पृष्ठभूमि में चली गयी। तब से लेकर आज तक यासिर अराफात के नेतृत्व में फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चे द्वारा अरबों की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चलता रहा है। इस बीच विश्व के शिखर मध्यस्थों के प्रयास से यहूदी-अरब समस्या का हल निकालने की कोशिश की जाती रही। अंततः सितम्बर 1993 में किये गये एक समझौते द्वारा पश्चिमी तट और गाजा-पट्टी में अरबों को सीमित स्वायत्तता मिल सकी है।
हालांकि मिड्ड 1882 से ही ब्रिटेन का संरक्षित राज्य बन गया था लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह फंदा और कस गया। इस अवधि में मिड्ड का घोर आर्थिक शोषण और मिड्डियों से जबरन युद्ध में काम कराया गया। उसके विरोध में उपजे असंतोष से वहां राष्ट्रवादी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। ‘वफ्रद’ नामक राष्ट्रवादी पार्टी के नेता जगलुल पाशा की गिरफ्रतारी के विरोध में मिड्ड में इतना भयंकर विद्रोह हुआ, जिससे ब्रिटिश सरकार भी मिड्ड की स्वतंत्रता के बारे में सोचने के लिए विवश हो गयी। 1922 में हुए समझौते के तहत मिड्ड की स्वाधीनता को स्वीकार करते हुए भी स्वेज नहर पर ब्रिटिश हितों को मान्यता दी गयी। प्रधानमंत्री बनने वाले जगलुल पाशा मिड्ड की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए मिड्ड सरकार से असफल बातचीत की। इसके बाद ब्रिटिश विरोधी दंगे फिर शुरू हो गये। कालान्तर में ‘वफ्रद’ पार्टी के नए नेता ‘नहस पासा’ ने घोषणा की कि यदि ब्रिटेन मिड्ड को स्वतंत्र कर दे तो वह इटली के विरुद्ध उनका साथ देगा। 1936 में मिड्ड और ब्रिटेन के बीच हुई एक संधि के तहत ब्रिटेन ने मिड्ड की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत अरब देशों में उत्पन्न राष्ट्रीयता यूरोपीय राष्ट्रों के साम्राज्यवादी शिकंजे की प्रतिक्रिया थी। यूरोपीय शक्तियां आरम्भ में इन क्षेत्रों को स्वतंत्रता देकर अपने आर्थिक हितों की बलि नहीं देना चाहती थीं, क्योंकि वे अरब तेल भंडारों से अंधाधुंध उपार्जन कर रहे थे। लेकिन जब अरबों का राष्ट्रवादी आंदोलन काफी उग्र हो गया तब कहीं जाकर इन यूरोपीय शक्तियों को यह क्षेत्र छोड़ने पर विवश होना पड़ा। हालांकि इन साम्राज्यवादी तत्त्वों ने अधिकारों का त्याग काफी धीरे- धीरे किया।
Question : “सीसी क्रान्ति जैसी सर्वसमावेशी कोई भी घटना कभी बौद्धिक-शून्य में नहीं घटती है।”
(2007)
Answer : कहा जाता है कि यदि फ्रांसीसी क्रान्ति की पृष्ठभूमि में एक परिवर्तनकारी सशक्त दार्शनिक एवं आर्थिक विचारधारा नहीं होती, तो यह क्रान्ति हिंसक प्रतिरोधों के सिवा कुछ प्राप्त नहीं कर पाती। वस्तुतः फ्रांस की क्रान्ति का वास्तविक निर्देशन एवं एक हद तक इसके स्वरूप का निर्धारण बुद्धिजीवियों एवं दार्शनिकों द्वारा ही किया गया था। दार्शनिकों ने ही तर्कवाद की प्रतिष्ठा करते हुए फ्रांस की क्रान्ति के दौरान लोगों में सकारात्मक सोच एवं आशावादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया।
दार्शनिक ने तात्कालिक शोषणमूलक प्रशासनिक तंत्र एवं रूढि़वादी चर्च की न केवल वास्तविकता को उजागर किया बल्कि उनका विकल्प भी लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। 18वीं शताब्दी में फ्रांस में पुनर्जागरण के जनक कहे जाने वाले वाल्टेयर ने मनुष्य की प्राकृतिक स्वतंत्रता एवं वैयक्तिक अधिकारों पर बल देते हुए इंग्लैण्ड के संवैधानिक तंत्र को फ्रांस में अपनाने पर बल दिया। राजनीति विज्ञान के महान विचारक मॉण्टेस्क्यू ने राज्य के कार्यों को तीन संस्थाओं द्वारा संचालित करने का सुझाव दिया-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इस ‘शक्ति के विभाजन’ के सिद्धान्त को क्रांति के प्रारंभ से ही क्रान्तिकारियों द्वारा अंगीकार कर लिया गया एवं कालान्तर में निर्मित संविधान का यह सिद्धान्त मूलाधार बना। कहा जाता है कि यदि ‘रूसो न होता न फ्रांस की क्रान्ति होती।’ फ्रांस की क्रान्ति का मूल सिद्धान्त अर्थात् ‘स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व’ का प्रतिपादन रूसो द्वारा ही किया गया था।
रूसो ने ‘सोशल कान्ट्रेक्ट’ के सिद्धान्त द्वारा क्रान्तिकारियों में लोकतांत्रिक भावनाओं एवं सिद्धान्तों का प्रसार किया। फ्रांस के तत्कालीन अर्थशास्त्रियों ने, जिन्हें फिजियोक्रेट कहा जाता है, ने आर्थिक मुद्दों पर जनता को संगठित करने में अहम् भूमिका निभाई। उन्होंने लॅासेज फेयर के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर प्रगतिशील आर्थिक नीतियों से जनता को परिचित कराया। इंग्लैंड में निर्मित विश्वकोष को फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया गया। उस विश्वकोश में संतुलित रूप से धार्मिक असहिष्णुता, दोषपूर्ण कर निर्धारण एवं वसूली व्यवस्था, दास प्रथा, निर्मम दण्ड विधान आदि पर तथ्यपरक प्रहार किया गया था।
इस विश्वकोश में फ्रांसीसी बुद्धिजीवी वर्ग से संबंधित ये लेख मध्यमवर्गीय लोगों के प्रशिक्षण और परिवर्तन के अनुकूल मानसिकता का निर्माण करने में अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुए। अतः स्पष्ट है कि फ्रांस की क्रान्ति, जो एक युगान्तकारी घटना थी, को वास्तविक दिशा बुद्धिजीवियों दार्शनिकों एवं महान मानवीय सिद्धान्तों के द्वारा दी गई थी। स्वाभाविक रूप से एक सशक्त बौद्धिक पृष्ठभूमि ही उस क्रान्ति की सफलता का मूल कारण था।
Question : “नव साम्राज्यवाद एक राष्ट्रीयता मूलक, न कि एक आर्थिक प्रघटना थी।”
(2007)
Answer : उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में नव साम्राज्यवाद का उदय हुआ। इसका स्वरूप मुख्यतः राष्ट्रीय दृष्टिकोण से प्रेरित प्रतीत होता है, लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आर्थिक कारक भी नवसाम्राज्यवाद के मूल में एक प्रमुख कारक था। वस्तुतः 1860 के बाद औद्योगिक क्रांति का प्रसार इंग्लैंड के अतिरिक्त फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम आदि अनेक देशों में हो गया था।
बाद में इसमें अमेरिका, जापान और रूस भी शामिल हो गए। पुनः इस समय भारी एवं आधारभूत उद्योगों का व्यापक विकास हुआ। तीसरी विशिष्ट बात है कि औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप महत्वपूर्ण औद्योगिक देशों में बड़ी मात्र में अतिरिक्त पूंजी जमा हो गई। अब इस पूंजी के निवेश की समस्या थी। इस दृष्टिकोण से उपनिवेशों में पूंजी निवेश सबसे लाभप्रद था क्योंकि यहां कच्चा माल उपलब्ध था, श्रम सस्ता था एवं एक विशाल बाजार तो तैयार माल के खपत के लिए था ही। अतः 1860 के बाद महत्वपूर्ण औद्योगिक देशों में उपनिवेशों को प्राप्त करने की होड़ लग गई। इस संपूर्ण प्रक्रिया को ही नव साम्राज्यवाद कहा गया। इस समय औद्योगिक देशों के समक्ष कुछ अन्य समस्याएं उत्पन्न हुईं।
श्रमिक संगठित हो रहे थे एवं अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गये थे। दूसरी तरफ साधारण जनता मताधिकार के विस्तार की मांग कर रही थी। अपने देश की जनता का ध्यान आंतरिक समस्याओं से हटाने के लिए औद्योगिक देशों ने राष्ट्रीय गौरव की भावना पर बल दिया।
इसी परिप्रेक्ष्य में औपनिवेशिक विस्तार को प्रोत्साहित किया गया। इंग्लैंड ने घोषणा की कि उसके साम्राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता। जर्मन ने सूरज तले जमीन की मांग की। अमेरिका ने लैटिन अमेरिकी देशों पर वर्चस्व स्थापित किया एवं घोषणा की कि 20वीं शताब्दी अमेरिकावासियों का है। जापान ने अपने को एशिया का मुक्तिदाता घोषित किया।
इस प्रकार राष्ट्रीय गौरव पर बल देकर साम्राज्यवाद को प्रोत्साहित किया गया एवं आंतरिक असंतोष को कम करने की कोशिश की गई। अतः इस दृष्टिकोण से देखें, तो स्पष्ट है कि नव साम्राज्यवाद महज राष्ट्रीयमूलक प्रघटता नहीं थी, बल्कि इसके पीछे ठोस आर्थिक राजनीतिक तथ्य भी थे। हां, इतना अवश्य है कि नव साम्राज्यवाद के विकास के कारकों में राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर यूरोप के विभिन्न राष्ट्र विश्व में अपनी शक्ति विस्तार के लिए उत्सुक हुए। इस दौरान साम्राज्य विस्तार को लेकर इन देशों के जन सामान्य में भी उत्साह एवं राष्ट्रवादी भावनाओं का उफान देखा गया क्योंकि किसी राष्ट्र के उपनिवेशों का अधिकाधिक संख्या उस राष्ट्र के लोगों के लिए राष्ट्रीय गौरव की बात समझी जाती थी। लेकिन नव साम्राज्यवाद के मूल में वस्तुतः आर्थिक राजनीतिक कारक ही अधिक प्रभावी कारण थे।
Question : “युद्ध (प्रथम विश्व युद्ध) के युद्धोत्तर वर्षों की भावना को सबसे ज्यादा स्थायी योगदान मोह-भंग था।”
(2007)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त इस प्रकार के प्रयासों पर जोर दिया कि भविष्य में किसी प्रकार के संघर्ष को टाला जाय। हालांकि पेरिस शान्ति सम्मेलन के घोषित उद्देश्य भले ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सहयोग पर बल देना हो, लेकिन वास्तव में उसने स्थितियों में सुधार के दृष्टिकोण से शायद ही योगदान दिया हो। 1919 के बाद से अमेरिका क्रमशः यूरोपीय मामलों से अलग हटने लगा एवं यूरोप में सुरक्षा संबंधी मामलों पर अपनी प्रतिबद्धता से भी उसने इंकार कर दिया। पेरिस शान्ति सम्मेलन के उपरान्त ही पांच राष्ट्रों का गठबंधन भी समाप्त हो गया। उस समय पेरिस शान्ति संधियों की व्यवस्था को बनाये रखने का भार ब्रिटेन और फ्रांस पर आ गया। लेकिन उस समय ब्रिटेन की जर्मनी के प्रति तुष्टीकरण की नीति के कारण फ्रांस उससे अलग होता गया। प्रारंभ में सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त का मुसोलिनी (इटली) समर्थक था लेकिन बाद में हम देखते हैं कि कतिपय आर्थिक-राजनितिक मजबूरी के कारण इसका भी व्यवस्था से मोहभंग हो गया। जर्मनी, जापान एवं इटली आदि देशों में उग्र राष्ट्रवाद पुनः प्रोत्साहित हुई। अन्तर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण सम्मेलन से पहले जापान और इसके बाद जर्मनी और इटली अलग हो गये। उन देशों में (जर्मनी एवं इटली) में लोकतांत्रिक व्यवस्था अलोकप्रिय हो गई एवं तानाशाही का उदय हो गया। रूस प्रारंभ से ही तात्कालिक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अलग था। राष्ट्रसंघ के प्रति जल्द ही समस्त प्रतिबद्धताएं समाप्त हो गईं। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्धोत्तर वर्षों में न केवल अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों एवं पुराने सहयोगियों के बीच संबंधों में कहड़वाहट एवं अलगाव आ गया, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सहयोग एवं उत्तरदायित्व को लेकर जिस प्रकार का माहौल बनाने के प्रयास किए गए थे उससे भी देशों का अल्पकाल में ही मोहभंग हो गया। साथ ही इस समय विभिन्न देशों की जनता में निश्चित प्रकार की विचारधारा एवं व्यवस्था के प्रति मोहभंग की स्थिति भी स्पष्ट होती है।
Question : फ़ासिज्म के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : 20वीं सदी के तीसरे दशक में यूरोप में सर्वसत्तावाद का विकास हुआ। सर्वसत्तावाद वैसी शासन पद्धति है, जिसमें एक निश्चित अल्पसंख्यक शक्ति और धमकी के बल पर सामाजिक जीवन केसभी अवयवों पर अपनी इच्छा थोप देता है।
सर्वसत्तावाद के दोनों रूप मिलते हैं-यथा वामपंथी और दक्षिणपंथी। इसका वामपंथी रूप रूस की साम्यवादी सरकार में एवं दक्षिणपंथी रूप फासीवाद एवं नाजीवाद में देखा जा सकता है। फासीवाद कोई मौलिक दर्शन नहीं है। यह डार्विनवाद, बुद्धि विरोधवाद, परंपरावाद, आदि का मिला-जुला रूप है। यह व्यक्तिगत पूंजीवाद, अन्तर्राष्ट्रीय समाजवाद, उदारवाद एवं लोकतंत्रवाद का कट्टर विरोधी है। यह ऐसा विश्वास करता है कि ‘राज्य के भीतर ही सब कुछ है। राज्य के बाहर कुछ नहीं है एवं राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं है।’ यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जब हम व्यापक अर्थों में फासिज्म की चर्चा करते हैं जो आवश्यक नहीं कि वह केवल इटली एवं मुसोलिनी के संदर्भ में ही उपयुक्त हो।
व्यापक अर्थों में, फासिज्म के अभिलक्षण प्रत्येक समान विचारों वाले सर्वसत्तावादी व्यवस्थाओं के लिए कमोवेश एक समान है चाहे वह जर्मनी की नाजी व्यवस्था हो अथवा अन्य कोई निरंकुश शासन प्रणाली। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है फ़ासिज्म पर डार्विनवाद का गहरा प्रभाव था। डार्विन के अनुसार, जो जीवन संघर्ष की प्रतिस्पर्धा में नहीं ठहर सकते, वे नष्ट हो जाते हैं। मुसोलिनी ने इसे अपना सिद्धान्त वाक्य बनाये रखा। उसने नवयुवकों एवं सैनिकों को क्रांति का वाहक बनाया। उसने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि वह शान्ति में विश्वास नहीं रखता। पुनः फासीवादी विचारधारा का कोई स्पष्ट सिद्धान्त नहीं था। ‘वाइन’ के अनुसार फ़ासिज्म अस्पष्ट है क्योंकि यह विभिन्न स्रोतों से प्राप्त विभिन्न विचारों का संकलन मात्र है, जो आवश्यकता अनुसार संग्रहित किया गया है।य् कुल मिलाकर फ़ासिज्म के अन्य प्रमुख अभिलक्षण निम्नवत् हैं-
फ़ासिज्म के अन्तर्गत सर्वसत्तावादी राज्य को प्राथमिकता दी जाती है। फासिज्म के अन्तर्गत राज्य की शक्ति अपरिमित होती हैएवंराज्य की सारी संस्थाएं राज्य की शक्ति के अधीन की जाती है। जैसा कि मुसोलिनी का स्पष्ट विचार था कि ‘राज्य के भीतर ही सबकुछ है, इसके बाहर और इसके विरुद्ध कुछ भी नहीं।’ फासीवाद एक दल और एक नेता की परिकल्पना में विश्वास रखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य सत्ता अपनी प्रकृति के कारण केन्द्रीभूत और दमनकारी होती है। वास्तव में, मुसोलिनी ने इन सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन किया था। इसी नीति के तहत 1926 ई. में अपने सभी विरोधियों का दमन करते हुए सभी विरोधी पार्टियों को समाप्त कर दिया। हिटलर ने भी इसी नीति का अनुपालन जर्मनी में किया। फासीवाद में लोकतंत्र का कोई स्थान नहीं होता है।
मुसोलिनी लोकतंत्र को पश्चिम यूरोप के धनी देशों के आमोद-प्रमोद का एक साधन मानता था। वह इस अवधारणा के विपरीत था कि बहुमत को शासन करने का अधिकार होना चाहिए। वह संख्या के स्थान पर गुण की प्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन शासन में लोकतंत्र का जो उदात्त स्थान था, फासिज्म उसका सर्वथा विरोधी था। फ़ासिज्म व्यक्तिवाद में विश्वास नहीं करता। मुसोलिनी का कहना था कि राज्य व्यक्ति के लिए नहीं अपितु व्यक्ति राज्य के लिए है। राष्ट्र की अवधारणा बड़ी व्यापक है, अतः फासीवाद इस संभावना से इंकार करता है कि व्यक्ति स्वयं या समूहों में कार्य करने के लिए अधिकृत है। इस प्रकार फासीवाद के अभिलक्षणों में व्यक्तिवाद के विरुद्ध का सिद्धान्त अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
फ़ासिज्म शान्ति का विरोधी युद्ध एवं हिंसा को गौरवान्वित करने वाली विचारधारा है। मुसोलिनी का कथन था कि ‘शान्ति एक जलाशय के समान है जहां पानी ठहरा रहता है, उन्नति का अभिप्राय है आगे बढ़ना और आगे बढ़ने का मतलब है, दूसरों को अपने पैरों के नीचे रौंदना। बिना युद्ध के कोई देश, जाति या समाज अपना उत्कर्ष नहीं कर सकता।’ इस प्रकार मुसोलिनी ने डार्विन की विचारधारा का सम्यक् रूप से पालन किया। मुसोलिनी एवं हिटलर दोनों ने अपने देश की जनता में युद्धरत भावना का संचार करने का हर संभव प्रयास किया। हिटलर 1934 ई. में राष्ट्रसंघ के निःशस्त्रीकरण कार्यक्रम से अलग हो गया। आगे चलकर उसने आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण करके युद्ध के परिस्थितियों को जन्म दिया।
मुसोलिनी ने भी अपने देश में व्यापक शस्त्रीकरण को प्रोत्साहित किया। अबिसीनिया पर आक्रमण करके उसने फासीवाद के मूल अभिलक्षण को स्पष्ट कर दिया। वस्तुतः यह फासीवाद की ही देन थी कि यूरोप की शान्ति भंग हुई एवं विश्व को द्वितीय विश्वयुद्ध की विभिषिका झेलनी पड़ी। फ़ासिज्म बुद्धिवाद का विरोधी होता है। वह किसी भी विचार को तर्क की कसौटी में रखने पर विश्वास नहीं रखता। उसके अनुसार राज्य का आदेश ही सर्वोपरि होता है। अंततः फासीवाद का प्रमुख अभिलक्षण उग्रराष्ट्रवाद है। जर्मनी एवं इटली दोनों देशों में कलाकारों एवं लेखकों पर नियंत्रण स्थापित किया गया। लेखकों को इस बात पर बल देना था कि व्यक्ति की जगह राज्य का हित सर्वोपरि है। फासीवाद उग्रराष्ट्रवाद के सहारे एक लोकप्रिय जन आन्दोलन का रूप ले लेता है। इटली एवं जर्मनी में इस जन आन्दोलन के जरिए आर्थिक स्वावलंबन एवं सैन्य शक्ति के विकास को प्रोत्साहित किया गया। इसका आवश्यक परिणाम साम्राज्यवादी प्रवृतियों के विकास एवं सैन्य संघर्ष के रूप में सामने आया। इस प्रकार फासीवाद के मूल अभिलक्षण ही वस्तुतः संघर्ष एवं युद्धरत भावनाओं के विकास को प्रोत्साहित करता है। इस स्थिति में व्याप्त अशांति के माहौल से द्वितीय विश्वयुद्ध अवश्यम्भावी था।
Question : ‘1980 के दशक तक आते-आते सोवियत संघ का साम्यवादी तेज परमशक्ति के रूप में देश की भूमिका को बनाए रखने में अक्षम हो गया था।’ इस कथन को सुस्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : विश्व राजनीति में 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध के भूकंपीय हलचल की संज्ञा दी जाती है। 1985-91 के बीच घटित घटनाओं ने सोवियत संघ जैसी महाशक्ति तथा सुंसगठित साम्यवादी खेमे को विघटन की प्रक्रिया बहुत पहले से प्रारंभ हो गयी थी एवं 1980 के दशक के आगमन के साथ ही प्रतीत होने लगा कि सोवियत संघ की शक्ति का अवसान देर-सबेर ही सही अवश्यम्भावी है। हालांकि सोवियत साम्यवाद एवं सोवियत संघ के विखंडन की प्रक्रिया 1991 में पूरी हुई, किन्तु इसके बीज स्टालिन के कठोर शासनकाल (1924-53) के दौरान ही बोये जा चुके थे। स्टालिन ने पूर्वी यूरोप के देशों में बलपूर्वक साम्यवादी व्यवस्था को थोप दिया था। सरकार एवं विचारधारा के इस बाध्यकारी आरोपण से जनता में सदैव रोष बना रहा, जिसे शक्ति के बल पर मुखरित होने से रोके रखा गया।
हालांकि मार्शल टीटो के नेतृत्व में युगोस्लाविया ने 1948 में ही सोवियत संघ से मतभेद दिखाते हुए उससे अलग होने का साहसिक कदम उठाया था। साथ ही हंगरी, बुल्गारिया पौलेंड एवं अल्बानिया में भी साम्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध असहमति के स्वर उठने लगे थे। स्टालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ के अगले राष्ट्रपति निकिता दृुश्चेव ने समझौतावादी कदम उठाकर यद्यपि युगोस्लाविया समेत अन्य देशों को पुनः साम्यवादी गुट के अन्तर्गत संगठित करने में अवश्य सफलता प्राप्त कर ली, लेकिन भविष्य के संकेत उस समय से ही प्राप्त होने लगे थे। वास्तव में सोवियत गणराज्यों में साम्यवाद को पूर्ण उत्साह या इच्छा के साथ कभी अपनाया नहीं गया था।
सोवियत साम्यवादी शासन के अन्तर्गत ‘धर्म को अफीम’ घोषित करके धार्मिक अराधना स्थल को नष्ट कर दिया गया था। उसके कारण सोवियत संघ एवं अन्य साम्यवादी पूर्वी यूरोपीय देशों में रहने वाली धर्मावलंबी जनता की भावनाओं को गहरा आघात पहुंचा। इसाई धर्म के अनुयायी एवं विशेषकर मध्य एशिया के गणराज्यों में रहने वाले मुसलमान समय-समय पर अपना मुखर विरोध प्रदर्शित करने लगे थे। 1974 में उज्बेकिस्तान में, 1976-77 में आर्मीनिया में एवं 1981 में कजाखस्तान में हुए व्यापक जन आन्दोलन परिस्थिति की गंभीरता को स्पष्ट करते हैं। बुद्धिजीवियों एवं संस्कृतिकर्मियों का एक वर्ग भी साहित्य एवं कला के साम्यवादीकरण से असंतुष्ट थे। कई स्वतंत्र लेखकों एवं विद्वानों के स्वतंत्र लेखन को पूंजीवादी विचारों से प्रेरित मानकर प्रतिबंधित कर दिया गया था।
बावजूद इसके 1970 एवं 1980 के दशक में साहित्यकारों एवं कलाकारों के तेवर उग्र होते जा रहे थे। इसके अतिरिक्त संचार क्रान्ति के परिणामस्वरूप साम्यवादी देशों की जनता ‘लौहयवानिका’ से बाहर संसार को देख सकती थी।
सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के नवयुवक पश्चिमी उपभोक्ता वाद, संगीत, चलचित्र तथा खुली जीवन-शैली से प्रभावित होने लगे थे। फलतः 1960 एवं 1970 के दशक में बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन साम्यवादी देशों से पश्चिम यूरोप एवं अमेरिका की ओर होने लगा। सोवियत साम्यवादी व्यवस्था के बिखराव के सर्वप्रमुख कारण आथिर््ाक ही थे। साम्यवादी देशों की विफलता इस बात से स्पष्ट हो चुकी थी कि वे पूंजीवादी समाजों से आगे निकलने के वायदों को पूरा करने में असमर्थ साबित हुए थे। सोवियत संघ प्रमुख निकिता ख्रुश्चेव (1956-64) के द्वारा कामेकॉन (पारस्परिक आथिर््ाक सहायता परिषद्) का प्रयोग साम्यवादी गुट को एकमात्र एकीकृत अर्थव्यवस्था के रूप में संगठित करने के उद्देश्य से किया गया। ख्रुश्चेव पूर्वी जर्मनी एवं चेकोस्लोवाकिया को मुख्य औद्योगिक क्षेत्रें एवं हंगरी एवं रोमानिया को कृषि क्षेत्रें के रूप में विकसित करना चाहते थे। किन्तु बाद में जाकर साम्यवादी
आर्थिक योजनाएं असफल सिद्ध हुईं।
यूरोपीय समुदाय की तुलना में साम्यवादी समुदाय का सकल घरेलू उत्पाद एवं सामान्य उत्पादन क्षमता काफी कम थी। विशेषकर ब्रेझनेव के काल में आते-आते अधिकांश रूसी उद्योग पिछड़ी अवस्था में आ गये। कोयला एवं तेल उत्पादन में बढ़ोतरी के प्रयास असफल सिद्ध हुए। निर्माण उद्योगों में रूग्णता एवं निम्न कृषि उत्पादन एक प्रमुख समस्या बन गया।
1980 के दशक के आरंभ तक रूस के समाजवादी आर्थिक व्यवस्था की दशा शोचनीय स्तर तक पहुंच चुकी थी। वहीं 1980 के दशक में संपूर्ण पूर्वी यूरोप में मुद्रा स्फीति, जीवन स्तर में गिरावट तथा अल्प आयु जैसी समस्याओं से ग्रसित हो गई थी। सोवियत संघ के विभिन्न गणराज्य आर्थिक असमानता के शिकार थे। कई गणराज्य राष्ट्रीय आय में व्यापक योगदान देने के बावजूद आनुपातिक रूप से थोड़ा ही लाभ हासिल कर पा रहे थे। फलतः यूक्रेन, बेलारूस, आमींनिया एवं कज़ाकस्तान जैसेगणराज्य अपनी आर्थिक प्रभुता के प्रति अधिक संवेदनशील हो गये थे। आर्थिक आधार पर विभिन्न गणराज्यों में विरोध तीव्र होता जा रहा था। दूसरी ओर आर्थिक संकट से ग्रस्त सोवियत संघ की साम्यवादी शक्ति स्थिति से निपटने में स्वयं को अक्षम पा रही थी।
उपरोक्त विफलताओं के कारण साम्यवादी तंत्र एवं उनके नेताओं के प्रति जनता का अविश्वास काफी बढ़ चुका था।
जनता गैर-लोकतांत्रिक ढंग से थोपे गए उन नेताओं की तानाशाही प्रवृतियों से त्रस्त हो चुकी थी। साम्यवादी अधिनायक तंत्र के विरोध में बुद्धिजीवियों एवं नवयुवकों द्वारा अनेक गुप्त संगठन स्थापित कर लिये गये थे।
पूर्वी यूरोप के देशों में आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में रैलियों, सभाओं एवं प्रदर्शन की लहर-सी उठ गई थी। जिसे पहले की तरह कुचलना आंतरिक व बाह्य दवाबों के कारण असंभव हो गया था। सोवियत गणराज्यों में भी स्वायत्तता तथा पृथकत्व की मांगें मुखर होती जा रही थीं। गणराज्यों में साम्यवादी दल के केन्द्रीय नेताओं का लंबा कार्यकाल स्थानीय अभिजात्य वर्ग में असंतोष को जन्म देता था।
एस्टोनिया, जार्जिया, बेलारूस, अर्मीनिया एवं यूक्रेन में पृथकतावादी आन्दोलन निरंतर मजबूत होते गए। 1985 के बाद मिखाइल गोर्बाच्चोव ने सोवियत संघ के विघटन को रोकने हेतु बहुत प्रयास किए। इसके लिए गोर्बाच्चोव ने ग्लासनोस्त अर्थात् खुलेपन की नीति एवं पेरेस्ट्रोइका या सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण की नीति को अपनाया।
देतांत की पहल, चीन के साथ संबंध में सुधार, अफगानिस्तान से सेना की वापसी एवं शीतयुद्ध का अंत आदि अन्य कदम भी उठाए गए, लेकिन सोवियत संघ का विघटन एवं साम्यवादी व्यवस्था का अंत आखिरकार 1991 तक हो कर रहा।
वस्तुतः 1980 के दशक के आते-आते ही समस्त नियंत्रण निरन्तर अव्यवस्था की शिकार एवं दुर्बल हो रही सोवियत साम्यवादी व्यवस्था के हाथों से लगभग निकल चुकी थी।
Question : “नाटो’ अनेक तरीकों से उस कुंजी भूमिका का प्रतीक था, जो संयुक्त राज्य-अमेरिका यूरोप में निभाने आया था।”
(2007)
Answer : शीतयुद्ध के दौर में नाटो की स्थापना अप्रैल 1949 में की गई। वैसे तो नाटो की स्थापना पश्चिमी यूरोपीय देशों एवं अमेरिका की पारस्परिक सहमति के आधार पर की गई, जिसमें दोनों पक्षों के हितों की रक्षा होनी थी। लेकिन वास्तव में नाटो के माध्यम से अमेरिका ने यूरोप में अपने व्यापक हितों की पूर्ति करनी चाही एवं उसमें उसे सफलता भी प्राप्त हुई। सर्वप्रथम अमेरिका किसी कीमत पर पश्चिमी यूरोप में साम्यवाद के प्रसार को रोकना चाहता था। इसके लिए अमेरिका सामरिक दृष्टिाकोण से सोवियत संघ एवं उसके समर्थक राष्ट्रों के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा खोलना चाहता था ताकि यूरोप के अन्यदेश उदार-पूंजीवादी शक्तियों के सहयोग से सोवियत संघ के संभावित आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना कर सकें। नाटो के माध्यम से अमेरिका को इस उद्देश्य के पूर्ति के लिए यूरोप में एक मंच प्राप्तहो गया। पुनः संयुक्त राज्य अमेरिका पश्चिम यूरोप पर नाटो के माध्यम से अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने में भी सफल हो गया। अमेरिका के यूरोप में व्यापक सामरिक, आर्थिक और व्यापारिक हित मौजूद थे।
फ्रांस एवं जर्मनी के दवाब में बनायी जाने वाली यूरोपीय संघ की प्रतिकूल नीतियां अमेरिकी व्यापार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती थीं। शक्ति प्रदर्शन और समझौते की मिली-जुली रणनीति द्वारा ही अमेरिका यूरोप में अपने आर्थिक हितों को सुरक्षित रख सकता था। नाटो द्वारा यूरोप में सैनिक वर्चस्व बनाये रखना इसी रणनीति का एक हिस्सा था। इसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त इटली और जर्मनी जैसे बड़े एवं युद्ध से व्यापक क्षतिग्रस्त राज्यों में फासीवादी विचारों के पुनर्प्रसार को रोकने के लिए आवश्यक था कि उनके आर्थिक पुनर्निर्माण के साथ ही आवश्यक था कि उन देशों पर सैन्य निगरानी हो सके एवं आवश्यकता पड़ने पर साम्यवादी ताकतों के विरुद्ध सैन्य सहयोग किया जाय। पूर्वी जर्मनी से साम्यवादी प्रभाव का निवारण एवं जर्मनी का एकीकरण उस दिशा में अमेरिका की यूरोप में एक प्रमुख उपलब्धि रही, जो नाटो के उपस्थिति से और भी सरल हो सका। उसी प्रकार पूर्वी यूरोप के देशों से साम्यवादी प्रभाव की समाप्ति अमेरिका की प्रमुख उपलब्धि रही।
नाटो के द्वारा जिस प्रकार अमेरिका ने युगोस्लाविया एवं सार्बिया आदि के विरुद्ध बल प्रयोग किया, उससे स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका ने किस प्रकार इस संस्था का उपयोग यूरोप में अपने हितों के पूर्ति के लिए किया। वर्तमान में विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद अमेरिका के समक्ष प्रमुख चुनौती बनकर उभरा है। अमेरिका के साथ-साथ यूरोप भी इस्लामिक आतंकवादियों के निशाने पर है। ऐसे में यूरोप में नाटो की संगठित शक्ति द्वारा ही इससे निपटना संभव हो सकेगा।
Question : ‘पुनर्जागरण विद्वानों ने अंडे दिये थे, जिनको बाद में धर्म-सुधार आन्दोलन के जनक लूथर ने सेआ था’ चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : पुनर्जागरण का अर्थ है- पुनर्जन्म। पुनर्जागरण एक बुद्धिवादी, उदार, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक आंदोलन था, जिसमें प्राचीन आदर्शां, सिद्धांतों, मान्यताओं, विचारों एवं अवधारणाओं के आधार पर नए यूरोप का निर्माण हुआ। इसमें नवीन आविष्कारात्मक, अनुसंधानात्मक, आलोचनात्मक, वैज्ञानिक प्रवृत्तियों का व्यापक प्रसार हुआ।
पुनर्जागरण वह आन्दोलन था जिसके द्वारा पश्चिमी राष्ट्र मध्य युग से निकलकर आधुनिक युग में प्रविष्ट हुए। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसने मानव बुद्धि को धर्म के ठेकेदारों से मुक्त कराया और एक नवीन चेतना को जन्म दिया। पुनर्जागरण की घटना से पूर्व मानव की चिंतन शैली, परंपरा और रूढि़वादिता पर आधारित थी। पुनर्जागरण के बाद मानव जीवन में ऐसे परिवर्तन आए जो आधुनिकता का श्रीगणेश करने के लिए जिम्मेदार माने जा सकते हैं। पुनर्जागरण का मूल मंत्र था-सांसारिकता या लौकिकता जिसका संबंध इस दुनिया से है न कि पारलौकिक दुनिया से। मानवतावाद पुनर्जागरण की मुख्य विशेषता थी। मानवतावाद में ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को प्रमुखता दी जाती है। यह कहा जा सकता है कि पुनर्जागरण ने जिस बौद्धिकता का विकास किया उसे धर्म सुधार आन्दोलन के जनक लूथर ने नैतिकता से भर दिया। पुनर्जागरण के कारण चर्च और उसके प्रधान पोप के खिलाफ विद्रोह की भावना बलवती हो उठी।
चर्च नवीन विचारधारा का सबसे जबर्दस्त विरोधी था। वह नहीं चाहता था कि पुराने विश्वासों और रूढि़यों को उखाड़कर नये सिद्धांतों और आदर्शों की स्थापना हो। चर्च नवीन बौद्धिक प्रगति के मार्ग में एक बहुत बड़ा रोड़ा था। अतः पुनर्जागरण ने जिस बौद्धिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किया था, उसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए धर्मसुधार आवश्यक था।
जर्मनी के एक किसान परिवार में लूथर का जन्म हुआ था। धर्मशास्त्रें का अध्ययन कर उसका मन उद्वेलित हो उठा। उसने यह अनुभव किया कि मुक्ति का मार्ग अच्छा कर्म, संस्कार और कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि ईसा में सरल आस्था है। उसने पूजा, प्रायश्चित, खानगी प्रार्थना, आध्यात्मिक ध्यान और क्षमा-प्रदान पत्रें की खरीद से पाप से मुक्त होने की संभावना को पूर्णतः नकार दिया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बाह्य-क्रियाकलापों या अनुष्ठानों के द्वारा मोक्ष पाना असंभव है पर इसे दैवी कृपा से जागृत अंतः करण की निजी आस्था से प्राप्त किया जा सकता है।
यही ‘विश्वास द्वारा पापमुक्ति’ (Justification by faith) का मूल सिद्धांत था। उन्होंने पापों से मुक्ति के लिए माफीनामों के विक्रय के खिलाफ अपनी 95 बातें (95 theses) द्वारा सार्वजनिक विरोध किया, जिससे जर्मनी में भारी जन-उभार हुआ। छापे खाने के आविष्कार से इस जन-उभार को काफी मदद मिली। उसने दलील दी कि क्षमा प्रदान पत्र (इण्डलजेन्स) के द्वारा मनुष्य चर्च द्वारा लगाए दण्ड से तो मुक्त हो सकता है, परन्तु मृत्यु के पश्चात् वह पाप के फल से बच नहीं सकता है। उसने कई पम्फलेट लिखकर चर्च की कमजोरियों पर प्रहार किया, पोप के अधिकारों को चुनौती दी, चर्च की सम्पत्ति जब्त करने और चर्च पर नियंत्रण करने का आह्नान राजाओं से किया।
सन् 1520 ई. में अपनी तीन लघु-पुस्तिकाओं द्वारा उसने उन मूल सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, जिन्हें आगे चलकर प्रोटेस्टेंटवाद नाम से अभिहित किया गया। पोप ने उसे धर्मच्युत कर दिया। जर्मनी की शाही संसद ने उसकी भर्त्सना की, परन्तु कुछ स्थानीय नरेशों तथा भारी राष्ट्रीय जनजागरण के कारण लूथर के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जा सका। लूथर ने ईसा और बाइबिल की सत्ता स्वीकार की, लेकिन पोप और चर्च की दिव्यता और निरंकुशता को नकार दिया। चर्च में चमत्कार, ईसा को समर्पित रोटी और शराब को मांस और खून में परिवर्तित हो जाना आदि विश्वासों को उसने नहीं माना।
केवल तीन संस्कारों-नामकरण, प्रायश्चित और प्रसाद (बैप्टिज्म, पेनैंस और यूकेरिस्ट) को ही उसने माना। उसने राजाओं को चर्च का प्रधान स्वीकार किया। मठों और पादरियों को ब्रह्मचर्य को समाप्त करने का विचार उसने रखा। उसने बताया कि चर्च का अर्थ रोमन कैथोलिक या कोई अन्य विशिष्ट संगठन नहीं, बल्कि ईसा में विश्वास करनेवालो लोगों का समुदाय है। पोप कार्डिनल और विशप के पदानुक्रम को समाप्त करने की उसने मांग की और सभी आस्थावानों की पुरोहिताई स्वीकार की। सम्पूर्ण जर्मनी में उसने सामाजिक एवं धार्मिक खलबली मचा दी।
चर्च में असंतुष्ट लोग नेतृत्व के लिए लूथर की ओर देखने लगे। किसानों ने लूथर की प्रेरणा से कुछ क्षेत्रें में विद्रोह कर दिया। परन्तु आन्दोलन के जनवादी और हिंसक चरित्र के कारण उसने जनविरोधी फैसला लेते हुए शासकों से विद्रोह के दमन का आग्रह किया। वह जानता था कि शासकों और मध्यम वर्ग के बीच ही उसका विचार पनप सकता है। लूथर के समर्थक प्रोटेस्टैण्ट कहलाए। प्रोटेस्टैण्ट सुधारवादी थे। प्रोटैस्टैण्ट धर्म उत्तरी जर्मन राज्यों, डेनमार्क, नार्वे, बाल्टिक राज्यों और स्वीडेन में तेजी से फैल गया। 1546 ई. में लूथर की मृत्यु हो गई।
लूथर ने धर्म के मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर जोर दिया। पोप के खिलाफ विभिन्न देशों के राजाओं और मध्यमवर्ग की राष्ट्रीय भावना को उसने उभारकर यह बताया कि राजा चर्च से बढ़कर है। उसने अपने विचारों का प्रसार जर्मन भाषा में किया तथा जर्मनभाषा को लोकप्रिय बनाया। वस्तुतः जर्मन राष्ट्रवाद को जीवन्त और संगठित करने वालों में लूथर का अग्रणी स्थान है। आधुनिक युग का आह्वान करने वालों में उसे गिना जा सकता है। सुधारवादियों के इतिहास में धर्म सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर का महत्वपूर्ण स्थान है। यह कहा जा सकता है कि पुनर्जागरण से एक नवीन चेतना का जन्म हुआ था, जिसे धर्मसुधार के जनक मार्टिन लूथर ने पनपने का अवसर प्रदान किया। उसने चर्च और पोप की रूढि़वादिता से समाज को मुक्त कर पुनर्जागरण से उत्पन्न बौद्धिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रतिष्ठित किया।
Question : ‘प्रतिनिधित्व के बिना कोई करारोपण नहीं’।
(2006)
Answer : ब्रिटिश सरकार कई उपायों द्वारा अमरीकी जनता से धन उगाहना चाहती थी। अनेक आयातित मालों और व्यावसायिक दस्तावेजों पर कर लगाया गया। सरकार उपनिवेशों पर प्रत्यक्ष कर लगाकर एक बड़ी सेना का निर्माण करना चाहती थी। किन्तु अमेरिकावासी सरकार को किसी प्रकार की सहायता देने को तैयार नहीं थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्रेनविल ने सन् 1765 में संसद में स्टाम्प अधिनियम पारित कराया। इस अधिनियम के अनुसार अमेरिका में सभी सरकारी दस्तावेजों एवं कानूनी कागजातों पर सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क का स्टाम्प लगाना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अतिरिक्त कागज, चाय, शीशा, रंग आदि वस्तुओं पर आयात कर लगा दिया गया। सरकार ने ये अधिनियम अमेरिकावासियों की सहमति के बिना पारित किया था। अतः उपनिवेशवासियों ने इसका डटकर विरोध किया। न्यूयार्क में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें कई बस्तियों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन मे यह स्पष्ट किया गया कि इग्लैण्ड की सरकार को यद्यपि बाहरी कर लगाने का अधिकार है, परन्तु भीतरी कर लगाने का अधिकार नहीं है। सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने ‘प्रतिनिधित्व के बिना कोई कर नहीं का नारा दिया’। ब्रिटिश अर्थ मंत्री टाउनशैंड ने यह सोचा कि अमरीकी उपनिवेशों की आपत्ति सिर्फ आंतरिक करों को लेकर है अतः बाह्य करों को लगाने से उपनिवेशों को आपत्ति नहीं होगी। इसी बात को ध्यान में रखकर उसकी सरकार ने 1767 ई. में चाय, शीशा, कागज, सिक्कों, धातु एवं रंग पर बाह्य कर लगा दिया। विरोध होने पर अन्य चार वस्तुओं से कर हटा लिया गया। सिर्फ चाय पर कर बरकरार रहा, परन्तु उपनिवेशवासी किसी वस्तु विशेष के लिए नहीं अपितु सभी वस्तुओं पर कर लगाने के विरूद्ध थे। अतः विरोध जारी रहा। उपनिवेशों की जनता ने यह दावा किया कि वे भी अंग्रेज हैं, परन्तु पार्लियामेण्ट में बिना उनके प्रतिनिधित्व के उन पर कर लगाया जा रहा है। इस प्रकार अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम में ‘प्रतिनिधित्व के बिना कर नहीं’ एक प्रमुख नारा बन गया।
Question : ‘‘वर्साय की संधि में भावी द्वंद्व के बीज शामिल थे’’
(2006)
Answer : द्वितीय विश्व युद्ध के लिए वर्साय की संधियां प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार थीं। ऐसी अपमानजनक तथा कठोर संधियों को कोई भी राष्ट्र एक लम्बे अरसे तक सहन नहीं कर सकता था। यह निश्चित था कि भविष्य में जर्मनी फिर युद्ध द्वारा ही अपने इस अपमान को धोने का प्रयास करेगा।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पराजित जर्मनी के समक्ष संधि को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ जर्मनी शक्ति का संचय करता रहा तथा संधि की शर्तों का उल्लंघन करने लगा। जर्मन राजनीति में हिटलर के उत्थान के बाद वर्साय की संधि के तहत जर्मनी के सारे उपनिवेश छीन लिए गए थे, उस पर असहनीय क्षतिपूर्ति का बोझ लाद दिया गया, उसकी सैनिक शक्ति नष्ट कर दी गई तथा युद्ध के लिए उसे एकतरफा दोषी माना गया था। वर्सायकी संधि में जर्मनी के साथ विश्वासघात भी हुआ, क्योंकि उसे यह बताया गया था कि संधि विल्सन के 14 सूत्रें पर आधारित होगी। हिटलर ने सर्वप्रथम निरस्त्रीकरण तथा क्षतिपूर्ति की व्यवस्थाओं को तोड़ा। 1932 ई. में राइनलैंड पर अधिकार किया। तत्पश्चात् आस्ट्रिया, चेकोस्लाविया, पोलिश गलियारा और डेन्जिंग बंदरगाह की ओर उसका ध्यान गया। वर्साय की सन्धि की अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं को तोड़ने के लिए हिटलर ने घटनाओं की वहश्रृखंला शुरू की, जिसका परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुआ।
वर्साय की सन्धि से न तो विजेताओं को संतोष मिला और न विजितों को। सन्धि से सिर्फ जर्मनी, तुर्की आदि ही नाराज नहीं थे, इटली भी मनोवांछित हिस्सा नहीं प्राप्त होने से नाराज था। फ्रांस सन्धि के बाद से लगातार सुरक्षा की खोज करता रहा। इस संधि ने यूरोप के राजनीतिक वातावरण को अशांत तथा तनावपूर्ण कर दिया। अतः यह कहा जा सकता है कि वर्साय की संधि में ही भावी द्वंद्व के बीज शामिल थे।
Question : ‘उपनिवेश फलों की भांति होते हैं, जो पेड़ से तभी तक जुड़े रहते हैं जब कि वे पक न जाएं’।
(2006)
Answer : किसी साम्राज्यवादी राज्य के उपनिवेश तभी तक उस राज्य से जुड़े रहते हैं, जबतक उनका विकास नहीं हो जाता है। उपनिवेशों की जनता को जब प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है, तब साम्राज्यवादी राज्य के लिए इसे बनाए रखना संभव नहीं रह जाता। उपनिवेशों की जनता में साम्राज्यवादी राज्य द्वारा उनके शोषण के चलते स्वाभिमान की भावना पैदा होती है। अंततः साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों का जन्म होता है तथा उपनिवेशमुक्ति को प्रोत्साहन मिलता है। भारत समेत अनेक देशों में भी उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। समय के साथ उपनिवेशों में राष्ट्रवादी भावना विकसित होती है, क्योंकि औपनिवेशिक शासन का शोषक चरित्र अधिक समय तक छुपा नहीं रह सकता। उपनिवेशों में उठने वाली रियायतों की मांग अंततः स्वतंत्रता की मांग में बदल जाती है।
अमेरिका के तेरह उपनिवेशों, भारत सहित अन्य एशियाई देशों तथा अफ्रीकी देशों में स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत तभी हुई जब ब्रिटेन, फ्रांस तथा हालैण्ड जैसे साम्राज्यवादी ताकतों के शोषण के परिणामस्वरूप वहां की जनता जागरूक हुई। यद्यपि मिशनरियों की गतिविधियों तथा स्वयं साम्राज्यवादी शासन के कार्यों से भी उपनिवेशों की जनता का विकास होने लगता है, तथापि उपनिवेशों का वास्तविक विकास साम्राज्यवादी शासन के प्रतिक्रियास्वरूप होता है। अतः उपनिवेश फलों की भांति होते हैं, जो पेड़ से तभी तकजुड़े रहते हैं जबकि वे पक न जाएं। पक जाने के बाद वे उस पेड़ से अलग हो जाते हैं।
Question : दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2006)
Answer : दक्षिण अफ्रीका में पहली यूरोपीय बस्ती का निर्माण डच ईस्ट इंडिया द्वारा 1652 ई. में केप ऑफ गुड होप में की गई। यह बस्ती दक्षिण के दक्षिणी छोर पर स्थापित कर लिया तथा किसानों को खदेड़कर स्वयं कृषि-पेशा अपना लिया। ये डच कृषक बोअर कहलाए। 1795 ई. के बाद इन क्षेत्रों में अंग्रेजों का आगमन हुआ जिसने डचों को वहां से खदेड़ दिया। अतः बोअर लोग उत्तर की ओर पलायन कर गए तथा 1838 से 1848 ई- के बीच ट्रांसवाल तथा आंरेज फ्री स्टेट नामक दो गणतंत्रें का गठन किया।
उन्होंने नाटाल में भी बस्ती स्थापित की। ब्रिटिश प्रारंभ में केप क्षेत्र तक सीमित रहे, परन्तु जब बोअर क्षेत्रोंमें हीरे की खानों का विकास हुआ तो ब्रिटिश उस क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए तथा ट्रांसवाल एवं आरेंज फ्री स्टेट पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहा। अंततः बोअर युद्ध में पराजित हुए तथा ब्रिटेन ने इन क्षेत्रें को अपने नियंत्रण में लिया परन्तु इन क्षेत्रें के विकास के लिए ब्रिटेन ने बहुत बड़ी राशि प्रदान की तथा बोअरों के साथ सद्भाव स्थापित करने का प्रयत्न किया।
परन्तु मूल अफ्रीकी निवासियों के मुद्दों का नजरअंदाज किया गया। ब्रिटेन ने ट्रांसवाल, केप क्षेत्र, आंरेंज फ्री स्टेट तथा नाटाल को मिलाकर साउथ अफ्रीका के यूनियन का निर्माण किया, जिसमें 70: लोग काले अफ्रीकन या बन्तु, 18: श्वेत लोग, 9:, मिश्रित तथा 3:, एशियाई थे।
कुछ उग्र बोअर लोगों ने मिलकर 1912 ई. में जनरल हार्टोंग की अगुवाई में नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया। इस पार्टी का एक उद्देश्य ब्रिटिशों के विरूद्ध बोअर हितों की रक्षा करना तथा दूसरा उद्देश्य श्वेतों की रक्त शुद्धता को बनाए रखना था। यद्यपि अश्वेत लोगों के विरूद्ध भेदभाव की नीति बहुत पहले से ही प्रारंभ हो चुकी थी तथा महात्मा गांधी ने इस नीति के विरूद्ध दक्षिण अफ्रीका में आन्दोलन छेड़ा था। इसके परिणामस्वरूप एशियन तथा मिश्रितलोगों को कुछ अधिकार प्राप्त हुए। किन्तु बहुसंख्यक अफ्रीका बन्तु इससे वंचित ही रह गए। जिसे ‘अपार्थाइड’ (Apartheid) की नीति के नाम से जानते हैं। उसकी औपचारिक शुरुआत 1948 एवं उसके पश्चात् हुई। 1946 की जनगणना से यह पता चला कि नगरीय क्षेत्रों में अश्वेत लोगों की संख्या श्वेत लोगों की तुलना में बढ़ गई है। फागन कमीशन ने यह अनुशंसा की कि धीरे-धीरे अश्वेत लोगों को राजनीतिक-सामाजिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए। इस अनुशंसा से बोअरों की नेशनलिस्ट पार्टी श्वतों के अधिकार को लेकर चिंतित हो गई। उसने श्वेतों की शुद्धता को बनाए रखना अपना महत्वपूर्ण कार्यक्रम घोषित किया। 1948 में दक्षिण अफ्रीका में नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार गठित हुई तथा प्रधानमंत्री मालन ने ही औपचारिक रूप से रंगभेद की नीति की शुरुआत की। इस नीति में 1949 ई. में एक अधिनियम पारित कर श्वेत-अश्वेत वैवाहिक संबंधों पर पूर्ण पाबंदी लगा दी गई। अलग-अलग नस्ल के लोगों को अलग-अलग क्षेत्रें में बसने, श्वेत एवं अश्वेत जनसंख्या को पूरी तरह अलग रखने संबंधी कानून भी पारित किए गए। अश्वेतों के नियंत्रण में 13 प्रतिशत क्षेत्र ही रह गए, जबकि उनकी जनसंख्या 80-90: थी। अश्वेतों के लिए पहचान पत्र की व्यवस्था की गई। रंगभेद की नीति का कठोरता पूर्वक पालन किया गया।
अश्वेत लोगों ने इस भेदभाव के विरूद्ध प्रतिक्रिया की तथा यह प्रतिक्रया स्वाभाविक ही थी। अश्वेत लोगों ने एलबर्ट लुथली के नेतृत्व में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का गठन किया।
अश्वेत लोगों ने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की अगुआई में प्रतिबंधित क्षेत्रें में प्रवेश के लिए एक मुहिम छेड़ा। सरकार ने साम्यवादी दमन कानून बनाया, जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के आंदोलनकारियों को साम्यवादी घोषित करके उन्हें दण्डित किया गया। 1960 ई. में सार्पविले नामक स्थान पर पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोली चलायी। इसमें लगभग 67 लोग मारे गए। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण नेता नेल्सन मंडेला को जेल में डाल दिया गया तथा अल्बर्ट लुथली बहुत ही संदिग्ध अवस्था में मृत पाए गए। परन्तु धीरे-धीरे दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर अंतराष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया। कामनवेल्थ तथा अफ्रीकी यूनियन ने रंगभेद की नीति की तीव्र आलोचना की। दक्षिण अफ्रीका के विरूद्ध आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में पारित हुआ। दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था संकट के दौरे से भी गुजर रही थी। अतः अफ्रीकी सरकार कुछ मूलभूत नीतिगत परिवर्तन करने के लिए विवश हुई। डी- क्लार्क की सरकार ने अंततः 1989 ई. में रंगभेद की नीति को समाप्त करने का निर्णय लिया। 1990 ई- में नेल्सन मंडेला जेल से रिहा कर दिए गए तथा नामीबिया को स्वंतत्रता प्रदान कर दी गई।
मंडेला ने भी नेशनलिस्ट पार्टी के साथ समझौतावादी रूख अपनाते हुए यह आश्वासन दिया कि अश्वेत सरकार के अन्तर्गत श्वेतों के अधिकारों का हनन नहीं होगा। उन्होंने यह भी वादा किया कि दक्षिण अफ्रीका के उद्योगों का पूरी तरह राष्ट्रीयकरण नहीं होगा। 1991 ई. में डी. क्लार्क तथा मंडेला के बीच एक वार्ता हुई। इसी वार्ता के आधार पर 1993 ई- में दक्षिण अफ्रीका में चुनाव कराए गए, जिसमें अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को दो तिहाई से अधिक सीटें प्राप्त हुई। एक मिली-जुली सरकार का गठन हुआ, जिसमें अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस, नेशनलिस्ट पार्टी तथा इन्कथा शामिल हुई। नेल्सन मंडेला पहले अश्वेत राष्ट्रपति हुए तथा डी- क्लार्क को उपराष्ट्रपति बनाया गया। इस प्रकार एक लम्बे संघर्ष के बाद रंगभेद की नीति का अंत हुआ तथा दक्षिण अफ्रीका में प्रजातांत्रिक सरकार का गठन हुआ।
Question : ‘चतुर विजेता अपने विजित पर अपनी मांगे हमेशा किस्तों में आरोपित करेगा’।
(2006)
Answer : चतुर विजेता अपने द्वारा पराजित शक्ति से क्षति-पूर्ति के नाम पर अधिकाधिक प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। युद्ध के लिए वह अपने विजित को एकमात्र जिम्मेवार मानते हुए उसे दण्डित करता है तथा एक-एक कर अनेक संधियां उसपर आरोपित कर देता है। विजित से उसके महत्वपूर्ण प्रदेश ले लिए जाते हैं। उसके खनिजों, कल-कारखानों आदि पर विजेता अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न करता है तथा युद्ध की क्षतिपूर्ति के नाम पर किस्तों में अधिकाधिक धन की मांग आरोपित करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मित्र राष्ट्रों ने इसी नीति का पालन किया। जर्मनी को एकमात्रजिम्मेवार मानते हुए उस पर अनेक मांगें किस्तों में आरोपित की गइंर्। वर्साय की संधि एवं अन्य उपायों द्वारा जर्मनी के महत्वपूर्ण क्षेत्रें पर मित्रराष्ट्रों ने अधिकार स्थापित कर लिया। जर्मनी के आर्थिकस्रोतों का अधिकाधिक शोषण किया गया। राईन क्षेत्र पर मित्र राष्ट्रों का कब्जा हो गया, स्लेशविग डेनमार्क को, यूपेन और मल्मेडी बेल्जियम को तथा ओशन पोलैंड को सौंप दिया गया। जर्मनी की सेना सीमित कर दी गई। यह भी व्यवस्था की गई कि जर्मनी 1921 तक मित्र राष्ट्रों को 15 अरब रूपये देगा तथा प्रत्येक वर्ष 1 अरब 50 करोड़ देता रहेगा।
बेल्जियम के कर्ज की अदायगी भी जर्मनी पर लाद दी गई। किस्तों में मांगें यदि नहीं आरोपित की जाती तो विजित संभवतः इसे स्वीकार नहीं करता। अतः चतुर विजेता अपने विजित पर मांगें हमेशा किस्तों में आरोपित करेगा, ताकि उसके स्रोतों का अधिक-से-अधिक शोषण किया जा सके। विश्व इतिहास में मित्र राष्ट्रों ने इस चतुर विजेता की भूमिका अदा की तथा वर्साय की संधि जैसी उपयुक्त व्यवस्था द्वारा अपनी मांगें विजित पर किस्तों में आरोपित कीं। ऐसा माना जा रहा था कि इस व्यवस्था से जर्मनी लम्बे समय तक खड़ा नहीं हो पाएगा, परन्तु हिटलर के नेतृत्व में शीघ्र ही जर्मनी पुनः विश्व राजनीति में उभर कर आया और आरोपित संधियां एक-एक कर टूटने लगीं।
Question : 1949 की चीनी क्रांति के कारणों और परिणामों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
(2006)
Answer : सन् 1949 ई. में चीनी कम्युनिस्टों ने छापामार लड़ाई को त्याग कर च्यांगकाईशेक की सेना को सीधी चुनौती दी तथा पेकिंग पर अधिकार कर लिया।
1949 ई. के अंत तक च्यांग की बची खुची सेना चीन की मुख्य भूमि को माओत्से तुंग के नियंत्रण में छोड़कर ताइवान के टापू में भाग गयी। इस प्रकार सम्पूर्ण चीन में साम्यवाद का बिगुल बज गया और यहां चीनी जनवादी गणतंत्र की स्थापना हुई।
चीन की क्रांति के अनेक कारण थे। आर्थिक दृष्टि से चीन की दशा निरन्तर खराब होती गयी। विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में चीन में मुद्रा-स्फीति चरम सीमा तक पहुंच गयी थी। विदेशी पूंजीपति चीन का शोषण कर रहे थे। चीन में अमरीका का प्रभाव बढ़ रहा था। विदेशों से सहायता के रूप में प्राप्त धन की भ्रष्ट अधिकारियों के जेब में चला जाता था। सैनिकों को समय पर वेतन भी नहीं प्राप्त होता था। कुओमितांग सरकार कुछ भी करने में असमर्थ साबित हो रही थी। अतः चीन की सामान्य जनता और यहां तक की पूंजीपति वर्ग भी सरकार के विरोधी हो गए। कोमिन्तांग सरकार भ्रष्ट और निकम्मी हो गयी थी। उसने कुछ हद तक उद्योगपतियों, जमींदारों एवं बैंकरों के हितों की रक्षा पर ही ध्यान केन्द्रित किया, सुधार कार्यक्रम नहीं चलाए। कारखानों की स्थिति में सुधार नहीं के बराबर हुआ।
कारखाना निरीक्षकों में भ्रष्टाचार व्याप्त था और सरकार उद्योगपतियों को नाराज नहीं करना चाहता था। मौजूदा कानूनों का भी पालन नहीं के बराबर होता था। किसानों की दशा एवं गरीबी को सुधारने का प्रयास कोमिन्तांग सरकार ने नहीं किया। भुखमरी, जमाखोरी, बंधुआ मजदूरी, बाढ़, अकाल, करों की ऊंची दरें आदि कुछ ऐसे मुद्दे थे जिसने किसानों में असंतोष पैदा किया। चीन की सामाजिक स्थिति भी असंतोषजनक थी। समाज सामन्तवादी व्यवस्था पर आधारित था। सरकार ने समाज के सामान्तवादी स्वरूप को परिवर्तित करने में रूचि नहीं दिखाई। समाज में किसानों तथा मजदूरों की स्थिति में सुधार का प्रयत्न नहीं किया गया। गांव उपेक्षित रहे, शहरों की प्रगति हुई। उपर्युक्त परिस्थितियों के चलते चीन के सभी वर्गों के लोग सरकार के विरोधी और साम्यवादियों के समर्थक हो गए। कम्युनिस्ट शासित क्षेत्रें की भू-नीतियां किसानों को आकर्षित करती थी। कम्युनिस्टों ने धनी जमींदारों की जमीनें छीन ली थी और उसे किसानों के बीच बांट दिया था। उनकी भू-राजस्व नीतियों ने विश्वयुद्ध के बाद छोटे-छोटे किसानों के साथ-साथ छोटे भूमिपतियों का समर्थन दिला दिया।
1949 की चीनी क्रांति के लिए च्यांग-काई-शेक का व्यक्तित्व भी जिम्मेवार था। वह एक महत्वाकांक्षी तानाशाह था। उसने राजनीतिक सत्ता को सर्वदा अपने हाथों में केन्द्रित रखा। कोमिन्तांग दल उसके हाथ की कठपुतली बन गया था। अपनी तानाशाही को स्थापित रखने के उदे्श्य से वह सदा अपने विरोधियों को कुचलने में लगा रहा। व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण उसने अपनी सत्ता बनाए रखने पर ही जोर दिया। उसे जन-कल्याण की विशेष परवाह नहीं थी। उसका शासन-तंत्र ढीला तथा भ्रष्ट था। अतः सरकार ने जन-समर्थन खो दिया। सरकारी विभागों में भी च्यांग के विश्वासपात्र भर गये थे।
कुओमिंतांग सरकार ने दमनकारी नीतियों का पालन कर समाज के प्रत्येक वर्ग को अपने विरूद्ध कर लिया था। कृषक तथा मजदूर अपनी स्थिति में सुधार चाहते थे। विद्वान तथा बुद्धिजीवी वर्ग नयी स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता था, किंतु सरकार ने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत उसने दमन का चक्र चलाया। व्यापारी और पूंजीपति वर्ग भी सरकार से असंतुष्ट थे। इस प्रकार कुओमितांग सरकार ने लोकप्रियता खो दी और इसका स्वरूप प्रगतिवादी न होकर प्रतिक्रियावादी हो गया था।
साम्यवादी क्रांति का एक महत्वपूर्ण कारण कुओमितांग सरकार का साम्राज्यवादी क्षेत्रें से संबंध भी था। चीनी भूमिपतियों का अमेरिका के पूंजिपतियों से गहरा लगाव था। अमेरिकी बैंक का चीन की समस्त बैंकिग व्यवस्था पर नियंत्रण था। चीनी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से अमेरिकी आर्थिक साम्राज्यवादी चंगुल में थी। इससे चीन के निजी उद्योग धन्धों को काफी नुकसान हुआ। 1948 तक चीन में अमेरिका से इतने माल आने लगे कि देश के हजारों औद्योगिक कम्पनियां बंद हो गईं और लाखों मजदूर बेकार हो गए। सरकार कीइस नीति से असंतुष्ट मजूदर, किसान तथा अन्य वर्ग के लोगों ने गृह-युद्ध में कुओमितांग सरकार के विरूद्ध चीनी साम्यवादियों का साथ दिया। विश्व युद्ध के समय साम्यवादियों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रें का राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास अपेक्षाकृत अधिक हुआ था। अतः देश में उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित कर साम्यवादियों ने देश के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त करने की चेष्टा की। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति जनमत के झुकाव का एक कारण उनके द्वारा जापान के विस्तार को रोकने का प्रयास करना भी था। 1937 में जापान के साथ युद्ध में कोमिन्तांग सैनिकों की पराजय हुई तथा पूर्वी चीन पर जापान का कब्जा हो गया। ऐसे समय में कम्युनिस्टों ने कारगर छापामार युद्ध का नेतृत्व कर लोगों के सामने अपने को देशभक्त राष्ट्रवादी के रूप में प्रस्तुत किया।
चीन की क्रांति केवल चीन ही नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए महत्वपूर्ण थी। 1949 की क्रांति ने अविकसित देशों की जनता को ही नहीं वरन् पाश्चात्य जगत के उन तबकों को भी प्रेरित कया जो सामाजिक न्याय व समता के लिए संघर्षरत थे। चीन की क्रांति ने यह साबित कर दिया कि प्रगतिशील विचार और तौर-तरीके केवल पाश्चात्य जगत में ही जन्म नहीं लेते।
चीन की क्रांति ने यह साबित कर दिया कि प्रजातंत्र और समानता तभी वास्तविक रूप ले सकते हैं, जबकि समता हो, भूख से मुक्ति हो और उत्पादन का संगठन इस प्रकार किया जाए कि वह विश्व के उत्पाद और संपति का उत्पादन करने वालों के हित में हो। क्रांति के पूर्व चीन का विश्व के प्रायः सभी साम्राज्यवादी ताकतों ने शोषण किया था। चीन की समस्त संपति और उत्पादन का गठन साम्राज्यवादी ताकतों के लाभ के लिए ही किया जाता था।
पश्चिमी शक्तियों तथा जापान द्वारा लादी गई असमान संधियों के अधीन चीन की जनता अभावग्रस्त जीवन जी रही थी। जनता साथ ही साथ सामान्तवादऔर युद्ध सामन्तवाद की भी शिकार थी। भूख और गरीबी तत्कालीन चीन में समग्र रूप से व्याप्त था। चीन की क्रांति ने न केवल सामंतवाद का अंत कर दिया। साथ-ही-साथ साम्राज्यवादियों के सामाजिक आधार को भी नष्ट कर दिया। उपनिवेशवाद को समाप्त करने की दिशा में चीन की क्रांति महान कदम था। चीन की जनता ने साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष छेड़कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे अन्य एशियाई देशों के समक्ष प्रेरणा का कार्य किया। चीन की क्रांति ने समाज में क्रांतिकारी बदलाव में किसानों की भूमिका की एक रूपरेखा भी प्रस्तुत की। चीन के अनुभव का लाभ उठाते हुए प्रायः सभी एशियाई देशों के साम्यवादी दलों ने जनवादी प्रजातांत्रिक क्रांति के सिद्धांतों को अपने कार्यक्रम में शामिल किया। अतः चीन की क्रांति ने वहां की जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व बौद्धिक जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाया तथा सामाजिक न्याय व समता के लिए संघर्षरत विश्व की जनता को प्रेरणा प्रदान की।
Question : 1949 की चीनी क्रांति की परिस्थितियों की विवेचना करते हुए उसके महत्व का विश्लेषण कीजिए।
(2005)
Answer : चीन की साम्यवादी क्रांति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर द्वितीय-विश्व युद्ध की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। यह क्रांति एक दीर्घकालीन संघर्ष एवं गृह युद्ध के दौर से गुजरने के बाद सफल हुई। यह क्रांति एक दल की विजय और दूसरे की पराजय मात्र नहीं थी बल्कि इसने विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। जब द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हुआ तो चीन में तीन तरह की सरकारें थीं- मंचूरिया में एक स्वतंत्र व पृथक राज्य था, जिसे ‘मंचूकाओ’ कहा जाता था। इस राज्य पर जापान का प्रभाव था तथा इस सरकार की राजधानी नानकिंग थी।
दूसरी सरकार जिसे ‘राष्ट्रवादी सरकार’ कहा जाता था, महासेनापति च्यांग काई शेक के नेतृत्व में थी तथा इसकी राजधानी चुंगकिंग थी। इसके अलावा एक तीसरी सरकार जो उत्तर-पश्चिम चीन में थी, साम्यवादियों के नेतृत्व में थी तथा इसकी राजधानी थेयान थी। साम्यवादियों की सरकार की इच्छा थी कि चुंगकिंग की सरकार के साथ मिलकर जापान को चीन से बाहर कर दिया जाए। इसके लिए साम्यवादियों की सरकार, जिसका नेतृत्व माओत्सेतुंग कर रहे थे, चुंगकिंग सरकार की अधीनता में कार्य करने के लिए भी तैयारी थीं। परंतु च्यांग काई शेक जापान के विरुद्ध संघर्ष को उतना महत्व नहीं देता था, जितना आंतरिक राजनीति को महत्व देता था। इस समय जापान चीन के संपूर्ण समुद्र तट पर अधिकार कर चुका था। इस कारण च्यांग काई शेक की सरकार का अन्य देशों के साथ कोई सीधा संबंध नहीं रह गया था। इधर अमेरिका एवं ब्रिटेन चीन में रूस एवं जापान के प्रभाव को नहीं बढ़ने देना चाहता था। अतः वे चीन को द्वितीय विश्व युद्ध में वायुयान से सहायता पहुंचाने का प्रयास किया।
ब्रिटेन एवं अमेरिका का साम्यवाद से विरोध होने के कारण ही वह चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता था। ये दोनों देशों को यह पता था कि यदि चीन में गृहयुद्ध हुआ तो साम्यवादियों की विजय निश्चित है। अतः ब्रिटेन और अमेरिका गृह युद्ध को रोकना चाहते थे। इन सभी कारणों से ब्रिटेन और अमेरिक च्यांगकाईशेक सरकार को हर संभव सहायता दे रही थी। इस प्रकार की विकट परिस्थिति में भी येयान के साम्यवादी सरकार यह प्रयत्न कर रही थी कि चुंगकिंग की सरकार को जापान के विरुद्ध लड़ाई में सहयोग करे। किंतु च्यांगकाईशेक और कुओमिंगतांग दल के सदस्य साम्यवादियों के साथ सहयोग करने की अपेक्षा उसे समाप्त कर देना चाह रहे थे। यही कारण है कि दोनों सरकारों के बीच सहयोग कम होते जा रही थी तथा च्यांगकाईशेक की सेनाएं जापान के विरुद्ध लड़ाई में न लगकर साम्यवादियों के विरुद्ध युद्ध करने में लगी हुई थीं। इधर मित्र राज्यों ने इस बात के लिए बहुत प्रयास किया कि च्यांगकाईशेक की सरकार साम्यवादियों से युद्ध न करके जापान के विरुद्ध युद्ध करे तथा साम्यवादी सरकार भी जापान के विरुद्ध युद्ध में च्यांगकाईशेक की सरकार की मदद करे।
अगस्त 1945 में जब जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध में आत्मसमर्पण किया और इस महायुद्ध का अंत हुआ तो चीन में जापान समर्थित नानकिंग की सरकार का भी अंत हो गया। इससे चीन में एक नया समस्या यह उत्पन्न हुआ कि नानकिंग सरकार द्वारा अधिकृतप्रदेशों पर अब किसका आधिपत्य हो- चुंगकिंग की कुओमिंगतांग सरकार का या येयान की साम्यवाद सरकार का? इस समस्या को हल करने के लिए अमेरिका ने जनरल मार्शल को चीन भेजा। मार्शल ने दोनों सरकारों के बीच 1946 में एक संधि कराने में सफल हुए। इस संधि के अनुसार दोनों पक्षों के सेनाओं को संघर्ष समाप्त करना था तथा चीन का जो प्रदेश जिस सेना के अधिकार में थे, उसे उसी सेना के अधिकार में रहना था। साम्यवादियों ने संचार साधनों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया और मंचूरिया पर पुनः राष्ट्रीय सरकार का अधिकार स्वीकार की गई। इस प्रकार इस संधि से गृह युद्ध कुछ समय के लिए हल हो गया। लेकिन 1946 ई- के समझौते से चीन की वास्तविक समस्या का हल नहीं हुआ था और कुछ समय बाद ही चुंगकिंग और येयान के पारस्परिक विरोध ने उग्र रूप धारण कर लिया जो जल्द ही गृह युद्ध में परिणत हो गया। इस गृह युद्ध में साम्यवादियों को अंततः सफलता मिली।
साम्यवादियों की गृह युद्ध में सफलता का कारण उसकी लोकप्रियता और शक्ति में वृद्धि था। साम्यवादियों की लोकप्रियता बढ़ाने में लोगों में इस दृष्टिकोण के प्रचार को जाता है कि इस दल के नेताओं ने अपने अधिकार का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए न करके सामाजिक उद्देश्य के लिए करते हैं। यह तथ्य उनके द्वारा कृषकों के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में परिलक्षित होता था। इस दल के नेताओं ने भू-स्वामित्व में संशोधन किया। विशेषतः उन जमींदारों के संदर्भ में जो जमीन की खुदकाश्त नहीं करते थे। इसके अलावा कृषि कार्यों के लिए पहले से न प्रयुक्त होने वाली भूमि का कृषि कार्यों के लिए प्रयोग किया गया। इसके साथ ही लगान की दरों और पैदावार के हिस्सों में कमी की गई। साम्यवादियों ने देश के भीतर और बाहर समर्थन प्राप्त करने के लिए एक नए लोकतंत्र और भूमि सुधार की विनम्र विधि का प्रचार किया। साम्यवादियों के इन कार्यों के कारण जनता का समर्थन अधिक प्राप्त हो सका तथा वे संपूर्ण चीन पर अधिकार स्थापित करने में सफल हो गए। उधर कुओमिंगतांग दल ने युद्ध की समाप्ति के तत्काल बाद राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का पुनः निर्माण करने की ओर ध्यान नहीं दिया। उसने संचार-साधनों को भी पुनः स्थापित करने की ओर ध्यान नहीं दिया। कुओमिंगतांग दल का मुख्य कार्य था कि उसे नागरिक समुदायों के आर्थिक जीवन को पुनः स्थापित करना और नगरों तथा गांवों के बीच संबंध स्थिर करना, परंतु इसमें यह दल असफल रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय सरकार की सैनिक शक्ति कम हो गई और उन्हें राष्ट्रीय साधनों का पूरा लाभ नहीं हुआ। अब वे केवल अपनी उच्च सैनिक शक्ति के आधार पर ही शासन चला सकते थे लेकिन इस सरकार की यह सैनिक शक्ति भी देश की प्रगतिशील आंतरिक अर्थव्यवस्था पर आधारित न होकर उसकी क्षीणतर हो रही अर्थव्यवस्था पर आधारित थी। सैनिक तंत्र को बराबर बनाये रखने के लिए देश की आर्थिक पुनः स्थापना से अधिक जोर अमेरिकी सहायता पर दिया गया था।
चीन की साम्यवादी क्रांति के महत्व पर पॉल जॉनसन की टिप्पणी है कि -‘अतः चालीस वर्षों के बर्बर गृह (आंतरिक) संघर्ष के पश्चात जिसमें लाखों लोग मारे गए सनयात सेन के किसी भी उद्देश्य की उपलब्धि के बिना चीन वापस वहीं पहुंच गया जहां से वह चला था। साम्यवादी नेतृत्व में एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति के रूप में चीन का उदय हुआ तथा एक लंबी अराजकता के दौर को समाप्त किया। इस घटना के परिणामस्वरूप विश्व राजनीति में अनेक मोड़ आये तथा अनेक नई परिस्थितियों को जन्म दिया। माओत्सेतुंग ने संपूर्ण चीन में एक सत्ता की घोषणा की और इस प्रकार एशिया के एक विशाल क्षेत्र में साम्यवाद ने आधिपत्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। चीन की इस क्रांति ने अफ्रीका में भी राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहित किया। पश्चिम की महान शक्ति अमेरिका ने भी चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद शंकित हो जापान के लोकतंत्र को दृढ़ता प्रदान करने वाली नीति अपनायी ताकि जापान अपने पड़ोसी साम्यवादी देशों से बचा रह सके।
चीन की साम्यवादी क्रांति ने शीत युद्ध को भी प्रभावित किया तथा पूर्व एवं पश्चिम संबंधों को और भी बिगाड़ दिया। इस क्रांति से पूर्व शीत युद्ध यूरोप और अमेरिका तक ही सीमित था और संयुक्त राष्ट्र भी इसके रणक्षेत्र में था। अब यह एशिया में भी पहुंच गया। चीन में साम्यवादियों की विजय अमेरिका की करारी हार मानी गई। अमेरिका ने दो शताब्दियों तक चीन को मान्यता नहीं दिया। इधर यह क्रांति सोवियत संघ की राजनीतिक और वैचारिक विजय थी। अमेरिका ने इसके प्रतिक्रिया में जनवादी चीन को अपने निषेधाधिकार का प्रयोग कर संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं करने दिया। इस मुद्दे पर सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र का बहिष्कार किया। इस प्रकार चीन की प्रतिनिधित्व की समस्या शीत युद्ध का एक प्रमुख मोहरा बन गई। अंत में हम कह सकते हैं कि चीनी क्रांति ने वर्षों से सुषुप्त चीन को जगाकर विश्व राजनीति को प्रभावित किया तथा आज भी वह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर रहा है।
Question : 1947 एवं 1962 के मध्य शीत युद्ध के विभिन्न आयामों तथा अवस्थाओं का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2005)
Answer : ‘शीत युद्ध’ शब्द दो महाशक्तियों के बीच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न तनाव के लिए प्रयोग किया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों के मध्य एक अभूतपूर्व मित्रता विकसित हुई थी। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के साथ ही दोनों के बीच की मित्रता भी समाप्त हो गई तथा दोनों मित्र राष्ट्रों के खेमे में जो संघर्ष या तनाव छिपा हुआ था, वह धीरे-धीरे उभकर सतह पर आ गया। हालांकि शीत युद्ध का आरंभ कब हुआ इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं हैं, परंतु 1947 तक दोनों गुटों के बीच शीत युद्ध काफी उग्र रूप धारण कर चुका था। इसी समय अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमेन ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए एक नीति की रूपरेखा प्रस्तुत किया। इसे ट्रूमेन सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इस नीति का मुख्य आशय था कि साम्यवाद का प्रसार जहां तक हो चुका है, उसे वहीं रोक दिया जाय। यह नीति मुख्य रूप से तुर्की और ग्रीस के संदर्भ में थी। ट्रूमेन सिद्धांत के कुछ महीने बाद जून 1947 को अमरीकी विदेशी मंत्री जार्ज मार्शल ने एक योजना की घोषणा की। टुमेन सिद्धांत में जहां मात्र दो देशों की सहायता देने का प्रस्ताव था, वहां मार्शल योजना एक व्यापक आर्थिक सहायता की योजना थी। इस योजना में एकामत्र शर्त यह थी कि जो देश इस योजना के अंतर्गत सहायता लेगा वह अपनी राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति का विवरण देगा। सोवियत संघ ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पूर्व-पश्चिम संघर्ष और गंभीर हो गया।
सोवियत संघ ने मार्शल योजना के प्रतिउत्तर में कम्युनिस्ट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो नाम से पूर्वी यूरोप के सभी साम्यवादी दलों का संघ बनाया इसमें फ्रांस एवं इटली के साम्यवादी दल भी शामिल हुए। इससे शीत युद्ध और भी तीव्र हो गया।
इसी समय जर्मनी के एकीकरण की समस्या ने दोनों गुटों के बीच तनाव को बढ़ाने में सहायक हुई। पश्चिमी गुटों द्वारा जर्मनी के एकीकरण के प्रयास में जब विफल हो गए तो मई 1948 में जर्मनी के तीनों पश्चिमी क्षेत्रों को एक में मिलाकर पश्चिमी जर्मनी का निर्माण किया गया तथा वहां कुछ आर्थिक सुधार लागू किए गये। इन कार्यों से सोवियत संघ को अलग रखा गया। सोवियत संघ ने पश्चिम के इन कार्यों का उत्तर बर्लिन के घेराबंदी करके दिया। इसके अलावा सोवियत संघ ने बर्लिन तथा पश्चिमी क्षेत्र के मध्य सभी प्रकार के संचार साधनों पर प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रकार के संपर्क तोड़ने का एकमात्र उद्देश्य पश्चिम बर्लिन के लोगों को पूर्वी गुट में शामिल होने के लिए बाध्य करना था।
अगस्त 1953 में सोवियत संघ ने अपना प्रथम आणविक परीक्षण किया तो अमेरिका काफी चिंतित हुआ। इस प्रकार अब दोनों गुटों के पास आणविक अस्त्रें का दौर शुरू हुआ। इसके बाद दोनों के बीच अंतरिक्ष में भी प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई। इसने शीत युद्ध को और भी भयानक बना दिया। इस प्रकार दोनों महाशक्तियों द्वारा ‘अतिविनाशक शक्ति’ के विकास ने स्थिति को भयावह बना दिया। इस अंतरिक्षीय एवं नाभकीय प्रतिद्वंद्विता के आरंभ होने के पूर्व ही, पश्चिम यूरोप के देशों ने साम्यवादी खतरों से निपटने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में अप्रैल 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन की स्थापना किया। यह मूलतः सोवियत संघ के विरुद्ध एक सैनिक गठबंधन था। इस गठबंधन को सोवियत संघ में चेतावनी के रूप में देखा गया। इसका उद्देश्य ‘स्वतंत्र विश्व’ की रक्षा के लिए, साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए तथा यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया। सोवियत संघ ने नाटो को ‘साम्राज्यवादी और आक्रामक देशों का सैनिक संगठन’ की संज्ञा दी तथा इसका घोर विरोध किया। नाटो ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में तनाव को और भी बढ़ाने का कार्य किया तथा सोवियत संघ भी एक सैनिक गठबंधन ‘वारसा समझौता’ करने का प्रयास किया। इस प्रकार दोनों गुटों ने सैनिक गठबंधनों का निर्माण कर शीत युद्ध की तीव्रता को बढ़ा दिया।
1949 और 1950 में दो ऐसी घटनाएं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर घटीं, जिसने पूर्व एवं पश्चिम संबंधों को और भी बिगाड़ दिया। शीत युद्ध अभी तक यूरोप एवं अमेरिका तक ही सीमित था लेकिन इन दोनों घटनाओं ने शीत युद्ध को एशिया में भी पहुंचा दिया। इसमें एक घटना चीन की क्रांति थी। इस क्रांति से चीन में माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई। अमेरिका की यह करारी हार थी तथा सोवियत संघ की यह वैचारिक और राजनीतिक विजय थी। प्रतिक्रियास्वरूप अमेरिका ने दो शताब्दियों से अधिक तक जनवादी चीन को मान्यता नहीं दिया तथा अपने निषेधाधिकार का प्रयोग करके उसे संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त करने दिया। इस प्रकार अब संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन की प्रतिनिधित्व की समस्या शीत युद्ध का मोहरा बन गया। अभी चीन से संबंधित प्रश्नों का समाधान भी नहीं हुआ था कि 1950 में दोनों कोरियाई देशों के बीच युद्ध छिड़ गया। इस संघर्ष को शीत युद्ध ने और भी जटिल बना दिया। सोवियत संघ ने उत्तर कोरिया का पक्ष लिया तो अमेरिका ने दक्षिण कोरिया का। यह संघर्ष इतना जटिल हो गया कि परमाणु संघर्ष का भय भी उत्पन्न कर दिया। हालांकि यह भय वास्तविकता में नहीं बदला लेकिन शीत युद्ध को काफी गंभीर बना दिया।
1953 ई- के आरंभ में शीत युद्ध में एक बड़ा बदलाव आया। इसका कारण था कि दोनों महाशक्तियों के शिखर स्तर के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। जनवरी 1953 में अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त हुआ तथा ट्रूमेन की जगह पूर्व सेना कमांडर आईजनहावर नए राष्ट्रपति बने। इधर सोवियत संघ के प्रधानमंत्री स्टालिन मार्च 1953 में स्वर्ग सिधार गए और वहां निकिता ख्रुश्चेव, स्टालिन के उत्तराधिकारी मैलेन्कोव तथा बुल्गानिन के अल्प कार्यकाल के बाद प्रधानमंत्री बने। इस समय पूर्व एवं पश्चिम के बीच तनाव में कुछ कमी आयी लेकिन शीत युद्ध के समाप्त होने का रास्ता आसान नहीं दिख रहा था। हालांकि दोनों पक्षों की ओर से 1954-64 की अवधि में संबंधों को सुधारने के लिए अनेक प्रयास किए गए, परंतु बीच-बीच में कई बार तनाव में वृद्धि भी हुई। 1953 से 1962 के बीच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में हंगरी की समस्या, आईजनहावर सिद्धांत, ख्रुश्चेव की अमेरिका की यात्र, यू-2 विमान कांड, पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता तथा क्यूबा मिसाइल संकट आदि ने शीत युद्ध को प्रभावित किया।
1956 में जब सोवियत संघ ने हंगरी में हस्तक्षेप किया तो पश्चिमी शक्तियों ने इसका तीव्र विरोध किया परंतु सोवियत संघ पर इसका कोई असर नहीं हुआ। हालांकि 1956 में ही दोनों महाशक्तियों ने स्वेज नहर युद्ध में अनजाने में एक-दूसरे को सहयोग किया। स्वेज युद्ध तो समाप्त हो गया लेकिन शीत युद्ध चलता रहा तथा मध्यपूर्व में भी शीत युद्ध का एक केंद्र बन गया। इसके बाद जून 1957 में आईजनहावर सिद्धांत, जिसके तहत अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया कि साम्यवाद के खतरे को नियंत्रित करने के लिए सशस्त्र सेनाओं का प्रयोग कर सकता है, ने शीत युद्ध को बढ़ा दिया। आईजनहावर की अवधि के अंतिम दो वर्ष भी शीत युद्ध जारी रहा तथा इस समय शीत युद्ध के मुख्य केंद्र जर्मनी, बर्लिन, कोरिया, जापान तथा मध्यपूर्व था।
1958 के बाद शीत युद्ध की तीव्रता में कमी आई क्योंकि प्रधानमंत्री ख्रुश्चेव पूर्व तथा पश्चिम के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात खुले रूप से करने लगे। वे अमेरिका जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने तथा मतभेदों को दूर करने के लिए तैयार हो गए। जब अमेरिका ने ख्रुश्चेव को निमंत्रण भेजा तो सिंतबर 1959 में ख्रुश्चेव ने अमेरिका की यात्र भी किया तथा राष्ट्रपति आईजनहावर से महत्वपूर्ण बातचीत भी की। ख्रुश्चेव के इस दौरे ने शीत युद्ध की गर्मी को मंद किया तथा अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को सुखद बनाया। एक अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि चारों महाशक्तियां- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तथा सोवियत संघ ने जून 1960 में पेरिस में शिखर सम्मेलन के लिए राजी हो गए। लेकिन जब पेरिस शिखर सम्मेलन की तैयारी हो रही थी, उसी समय अमेरिका का जासूसी विमान यू-2 सोवियत संघ की सीमा में जासूरी करते हुए पकड़ा गया। इस कांड के कारण तथा राष्ट्रपति आइजनहावर का यह कथन कि अमेरिका आकस्मिक आक्रमण को रोकने के लिए ऐसी कार्यवाही करता है और आगे भी करता रहेगा, ने शीत युद्ध को पुनः तीव्र कर दिया। इसके अलावा इन घटनाओं ने पेरिस शिखर सम्मेलन को असफल बना दिया तथा सारी दुनिया में गहरी निराशा छा गई।
अक्टूबर 1962 में क्यूबा मिसाइल संकट के रूप में दोनों महाशक्तियों के बीच एक जटिल समस्या पैदा हुई, जिसने दोनों को युद्ध के कागार पर ला खड़ा किया। सोवियत संघ जब क्यूबा में एक मिसाइल अîóा बनाने का निर्णय किया तो अमेरिका ने इसका कड़ा विरोध किया। अमेरिका ने क्यूबा पहुंचने वाले सभी सैनिक साजोसामान की कठोर नाकेबंदी का आदेश दिया। अमेरिका ने यह घोषणा किया कि क्यूबा से पश्चिमी गोलार्द्ध के किसी भी देश के विरुद्ध छोड़े जाने वाले किसी भी मिसाइल को सोवियत संघ द्वारा अमेरिका पर आक्रमण माना जाएगा तथा उसका उचित प्रत्युत्तर दिया जाएगा। दोनों देशों के बीच उत्पन्न इस गतिरोध को समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के जनरल सेक्रेटरी ने काफी प्रयास किया लेकिन उनका प्रयास विफल रहा। अमेरिका एवं सोवियत संघ के बीच युद्ध लगभग निश्चित हो गया। सोवियत संघ ने अपनी मिसाइल लगाने से रोकने के लिए अमेरिका से मांग किया कि वह तुर्की से अपने राकेट हटा ले। अंततः सोवियत इस योजना को छोड़ने के लिए सहमत होना पड़ा तथा एक भयानक संकट टल गया तथा तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका समाप्त हो गई।
इस प्रकार, शीत युद्ध अपने विभिन्न उतार चढ़ावों के साथ 1962 तक जारी रहा तथा आगे भी 1989 तक यह अपने विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए जारी रहा हालांकि 1962 के बाद अंतर्राष्ट्रीय जगत में अनेक सकारात्मक परिवर्तन हुए जिसने शीत युद्ध को शिथिल करने में मदद की।
Question : अमेरिकी संविधान की रचना में किन तत्वों का प्रभाव रहा? क्या आप बेयर्ड के कथन से सहमत हैं कि संविधान एक आर्थिक दस्तावेज है?
(2005)
Answer : नव स्वाधीनता प्राप्त संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान निर्माण सहज कार्य नहीं था क्योंकि संविधान निर्माण के लिए जो फिलाडेल्फिया सम्मेलन बुलाया गया था उसमें भिन्न-भिन्न विचारधारा के लोग शामिल थे तथा वे अपने हितों के अनुरूप संविधान की रचना करना चाहते थे। इसमें जो प्रजातंत्र की परंपरा में विश्वास करने वाले लोग थे, वे सरकार के कार्यक्षेत्र एवं शक्ति सीमित रखना चाहते थे। इस विचारधारा के लोग धनी वर्ग की अपेक्षा साधारण नागरिकों के आर्थिक हितों का अधिक ध्यान रखना चाहते थे। यह वर्ग यह विश्वास करता था कि साधारण मानव स्वतंत्रता का उपभोग कर सकता है। अतः उस पर विश्वास किया जाना चाहिए। इस वर्ग की यह भी मान्यता थी कि आदर्श नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का उपयोग बिना आर्थिक स्वतंत्रता के नहीं कर सकता है। इस वर्ग का विश्वास था कि अगर समाज के अधिकांश लोग संपत्तिहीन हैं, तो ऐसे समाज में स्वतंत्रता विचारधारा का अमेरिका में सबसे शक्तिशाली समर्थक थॉमस जैफरसन था।
अमेरिका में भूमिपतियों, व्यापारियों एवं महाजनों द्वारा कुलीनतंत्र में विश्वास करने वाला दूसरा वर्ग था। इस वर्ग की मान्यता थी कि केवल बहुमत पर आधारित शासन से व्यक्तिगत अधिकारों का खंडन होगा। यह शासन ऐसी स्थिति को जन्म देने वाला होगा, जिसमें निर्धन धनी वर्ग की संपत्ति छीन सकेंगे तथा सभ्य व्यवहार का अंत हो जाएगा। इस वर्ग का विश्वास था कि अज्ञानी तथा अनुशासनहीन जनसाधारण को राजनीतिक शक्ति प्रदान करना एक भूल होगी क्योंकि सिद्धांत एवं संपत्ति वाले वर्ग ही अपने उच्च जन्म तथा बुद्धि के कारण सरकार चलाने में समर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार यह वर्ग स्पष्ट रूप से यह चाहता था कि सरकार उच्च वर्ग के साथ में होनी चाहिए तथा उसकी संपत्ति की रक्षा करने के लिए शक्तिशाली सरकार होनी चाहिए। इस वर्ग का प्रमुख प्रवक्ता हेमिल्टन था।
नए राष्ट्र में प्रजातांत्रिक एवं कुलीन वर्ग में आर्थिक नीति के प्रश्न पर भी मौलिक मतभेद एवं विवाद थे। प्रजातांत्रिक वर्ग निजी संपत्ति की रक्षा में विश्वास रखता था लेकिन वह संपत्ति का कुछ ही लोगों के हाथों में संचय होने नहीं देना चाहता था। अतः यह वर्ग बड़े-बड़े फार्मों के स्थान पर छोटे-छोटे फार्मों का समर्थक था एवं पश्चिमी क्षेत्र की भूमि का वितरण अलग-अलग ऐसे परिवारों में चाहता था, जो कि इन क्षेत्रों में बस सके एवं स्वयं खेती कर सकें। यह वर्ग यह भी चाहता था कि सरकार किसानों एवं ऋणी लोगों की सहायता करे। इसके विपरीत कुलीन द्वारा एक ऐसा नीति चाहता था जो व्यापार के क्षेत्र में किए गए सौदों के उत्तरदायित्व को माने एवं ऋण देने वालों को सुरक्षा प्रदान करे तथा इस प्रकार के नियम बनाए, जिनसे व्यापार का विस्तार हो सके। अमेरिकी कुलीन वर्ग पश्चिम की क्षेत्र की भूमि के संबंध में भी, भूमि का सट्टा करने वाले धनिक वर्ग के स्वार्थों की रक्षा चाहता था।
अमेरिका के इन दोनों वर्गों में राजनीतिक विवाद भी तीव्र था। कुलीन वर्गीय लोग शक्तिशाली केंद्रीय सरकार चाहते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि शक्तिशाली केंद्रीय सरकार ही औद्योगिक तथा व्यापारिक हितों की रक्षा कर सकेगी तथा ऐसी सरकार पर कृषक तथा अन्य ऋ वर्ग अपना प्रभाव नहीं स्थापित कर सकेंगे। इसके विपरीत प्रजातांत्रिक वर्ग राज्यों की शक्ति तथा अधिकारों का समर्थक था तथा एक शक्तिशाली केंद्र के विरुद्ध था। यह वर्ग सरकार को कम से कम शक्ति देना चाहता था। विचारों के इस वाद-विवाद ने अमेरिकी विधान के निर्माण में वास्तव में सहायता प्रदान की। अगरप्रजातांत्रित आंदोलन ने अमेरिकी राष्ट्र को एक आदर्श प्रदान किया, तो कुलीन वर्गीय आंदोलन ने एक ऐसी शक्तिशाली सरकार प्रदान की, जिसके कारण ही नए राष्ट्र की शक्ति एवं समृद्धि में वृद्धि हुई। अगर प्रजातांत्रिक आंदोलन ने अमेरिकी राष्ट्र में वर्गहीन तथा सामाजिक समानता वाले स्वतंत्र समाज का आदर्श रखा तो कुलीन वर्गीय नेताओं की नीतियों के कारण ही अमेरिका में पूंजी का संग्रह और वृद्धि हुई, जिसके कारण उत्पादन बढ़ा और अमेरिका विश्व का संपन्न राष्ट्र बन सका। अमेरिका में हुई प्रगति तथा अमेरिकी समाज में स्थापित स्वतंत्रता तथा सामाजिक समानता इन्हीं दो विचारधाराओं की उपलब्धि कही जा सकती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान निर्माता लॉक के व्यक्तिवादी दर्शन से प्रभावित थे। लॉक ने संपत्ति के अधिकार को जीवन तथा स्वतंत्रता के समान ही पवित्र तथा अनुलंघनीय माना है। इसी व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण ही, अमेरिकी संविधान में स्वतंत्र आर्थिक नीति को अपनाया गया और यह स्वीकार किया गया कि कानून के उचित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता और यदि सार्वजनिक हित के लिए भी संपत्ति हस्तगत की जाय तो उसका उचित मुआवजा दिया जायेगा। इसके अलावा चौदहवें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति संबंधी अधिकार को व्यापक बनाया गया और आर्थिक व्यक्तिवाद की नींव और सुदृढ़ की गई। इन विशेषताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अमेरिका का संविधान एक आर्थिक दस्तावेज है पर इस संविधान को मात्र आर्थिक दस्तावेज ही नहीं कहा जा सकता जैसा कि इस संविधान के अन्य विशेषताओं से स्पष्ट हो जाता है। इस संविधान की अन्य विशेषताएं निम्न हैं-
अमेरिकी संविधान की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित मानी गई है। लोकप्रिय प्रभुसत्ता का सिद्धांत इसमें अपनाया गया है। इसके द्वारा अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गई है जो ‘शक्ति पृथक्करण’ सिद्धांत पर आधारित है। हालांकि सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं व्यवस्थापिका को एक-दूसरे से स्वतंत्र शक्ति देने का प्रयास किया गया है, परंतु इन तीनों में कार्यपालिका को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इस संविधान में दो सदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की गई है तथा विधानमंडल को ‘कांग्रेस’ नाम दिया गया है। संविधान में जो ‘शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत’ अपनाया गया है उसे व्यवहारिक बनाने के लिए नियंत्रण एवं संतुलन की प्रणाली को मान्यता दी गई है। इसी के परिणामस्वरूप यहां की न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका एक दूसरे की शक्तियों पर नियंत्रण एवं संतुलन बनाये रखती है। अमेरिका का संविधान शक्ति संतुलन का शानदार उदाहरण प्रस्तुत करता है। संविधान के अनुसार कांग्रेस पर राष्ट्रपति भी नियंत्रण रखता है और न्यायालय भी। राष्ट्रपति कांग्रेस द्वारा पारित कानूनों को वीटो कर सकता है और सर्वोच्च न्यायालय कांग्रेस तथा राष्ट्रपति के कार्योंको असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है। इसी प्रकार राष्ट्रपति पर भी कांग्रेस का नियंत्रण रहता है। यह नियंत्रण महाभियोग के माध्यम से स्थापित किया गया है। इस संविधान की एक मुख्य विशेषता नागरिकों को प्राप्त विभिन्न प्रकार के मौलिक अधिकार हैं। इसके अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, शांतिमय रूप से एकत्र होने की स्वतंत्रता, शस्त्र रखने का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार, ज्यूरी द्वारा अभियोगों की सुनवाई का अधिकार आदि के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। इस संविधान की अन्य विशेषताओं में संघात्मक शासन शासन व्यवस्था, न्यायपालिका की सर्वोच्चता तथा दोहरी नागरिकता का प्रावधान है। इन विशेषताओं को देखने पर स्पष्ट होता है कि यह संविधान मात्र आर्थिक दस्तावेज नहीं है।
Question : दार्शनिकों की रचनाओं ने लोगों के मस्तिष्क पर भारी प्रभाव डाला। उसमें क्रांतिकारी चेतना उत्पन्न की और फ्रांसीसी क्रांति के बौद्धिक मत का निर्माण किया।
(2005)
Answer : 18वीं शताब्दी में अनेक दार्शनिकों और साहित्यकारों ने फ्रांस की पुरातन व्यवस्था की बुराईयों की तीखी आलोचना की तथा अपनी लेखनी द्वारा युग के असंतोष, क्रोध और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति दी। हालांकि इस काल में यूरोप के सभी देशों में थोड़ी बहुत बौद्धिक क्रांति हुई। परंतु फ्रांस इससे विशेष रूप से ही प्रभावित था। तत्कालीन समाज के दार्शनिक आलोचना में 18वीं शताब्दी के फ्रांस ने यूरोप का नेतृत्व किया। मांतेस्क्यू, वाल्तेयर ,रूसो, दिदरो तथा अन्य अनेक विचारकों के साहित्य ने मानसिक जगत को गहराई तक आंदोलित कर दिया। उन्होंने राजनीति, धर्म, समाज, व्यवसाय आदि से संबंधित विचारों को नया आयाम एवं संवेग दिया। तत्कालीन साहित्य आशावादी, विश्लेषणात्मक, कटु आलोचक, संदेहमूलक, निर्भीक तथा वैज्ञानिकता की छाप से युक्त था। इन दार्शनिकों एवं लेखकों के साहित्य में तत्कालीन राजनीति, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं की आलोचना की गई जिसके कारण लोगों के मन में उपर्युक्त संस्थाओं के प्रति संदेह की भावना पैदा हुई। इन विचारकों के नए विचारों तथा आलोचनाओं ने पुरातन व्यवस्था के आधारभूत सिद्धांत को कमजोर किया।
फ्रांसीसी लेखकों का प्रभाव क्रांतिकाल में स्पष्ट दिखाई देता है। रूसो द्वारा प्रतिपादित स्वतंत्रता और जन सत्ता संबंधी विचारों ने क्रांतिकारियों के हाथों में पुरातन व्यवस्था का अंत करने के लिए एक शक्तिशाली अस्त्र का काम किया। क्रांति के प्रथम चरण में मांतेस्क्यू के शक्ति विभाजन का सिद्धांत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कार्यान्वित किया गया। क्रांतिकाल में क्रांतिकारियों ने जो सुधार धार्मिक क्षेत्र में किए उस पर दार्शनिकों के विचारों की स्पष्ट छाप देखा जा सकता है।
प्रायः बौद्धिक चेतना को क्रांति की आत्मा कहा जाता है और क्रांति का श्रेय दार्शनिकों एवं प्रबुद्ध लेखकों को दिया जाता है। स्वयं नेपोलियन का कहना था- यदि रूसो न हुआ होता तो फ्रांसीसी क्रांति संभव नहीं थी। फ्रांस के सामाजिक, राजनीति, आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्र में बुराईयां तो पहले भी थीं लेकिन इसके प्रति जागरूक बनाने का कार्य किया इन लेखकों ने। क्रांति के लिए कष्टों की तीव्रता ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि उस तीव्रता का पर्याप्त ज्ञान होना भी जरूरी है। अतः कहा जा सकता है कि फ्रांस की क्रांति का कारण सिर्फ वहां के लोगों का दुःख एवं अत्याचार ही नहीं थे, बल्कि इन कष्टों एवं दुःखों का ज्ञान कराने वाले बुद्धिवादी वर्ग के विचार भी थे।
लेकिन क्रांति के एकमात्र कारण के रूप में इन दार्शनिकों एवं लेखकों की भूमिका को मानना उचित नहीं है। क्रांति के विस्फोट एवं दार्शनिकों की विचारधारा में बहुत ही दूर का अप्रत्यक्ष संबंध था। इन दार्शनिकों तथा लेखकों ने किसी क्रांति का आह्नान नहीं किया। इन्हें अधिक से अधिक सुधारवादी कहा जा सकता है क्योंकि वे वैसे किसी निरंकुश राजा का समर्थन करने को तैयार थे, जो उनके विचारों को कार्यान्वित करने को तैयार होता। दार्शनिकों का प्रभाव क्रांति पर बाद में पड़ा। हालांकि इन दार्शनिकों ने इतना कार्य अवश्य किया कि फ्रांस के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक जीवन में व्याप्त अत्याचार एवं शोषण की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और उनमें जागरूकता बढ़ाया। वास्तव में फ्रांस के दार्शनिक क्रांति के कारण नहीं परिणाम थे क्योंकि यदि फ्रांस में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में गड़बड़ी नहीं रहती तो ये दार्शनिक इन विषयों पर लेख नहीं लिखते। अतः वे क्रांति के कारणों के परिणाम थे।
Question : ‘यद्यपि सुधार अवश्यम्भावी था फिर भी वह विधेयक (1832) जिसके द्वारा पारित किया गया। आलोचना का गंभीर कारण बना।’
(2005)
Answer : नेपोलियन के पतन तथा युद्धों से मुक्ति मिलने के बाद इंग्लैंड में सुधार आंदोलन जोर पकड़ने लगा। मध्यम वर्ग भी सुधारोंके पक्ष में हो गया था। इधर जनता की आर्थिक कठिनाईयों में वृद्धि हो रही थी और मजदूरों में असंतोष फैल रहा था। इसका फायदा उठाकर कुछ राजनीतिक नेता मजदूरों को हिंसा के लिए प्रेरित कर रहे थे। इन घटनाओं के कारण मध्यम वर्ग में यह भय उत्पन्न हो गया कि यदि समय पर उचित कार्यवाही नहीं की गई तो खूनी क्रांति हो जाएगी। सुधारवादियों ने 1820 ई. में पूरे टोरी मंत्रिमंडल की हत्या करने का षड्यंत्र रचा, किंतु इस षड्यंत्र का राज खुल जाने के कारण असफल हो गया तथा षड्यंत्रकारियों की मृत्यु दंड दे दिया गया। हालांकि 1822 ई. में जो लिवरपूल मंत्रिमंडल का पुनर्गठन हुआ, जिसमें राबर्ट पील गृह मंत्री तथा कैनिंग को विदेश मंत्री बनाया गया, इस कारण 1830 तक स्थिति शांत रही क्योंकि ये दोनों सुधारवादी विचारों के समर्थक थे।
उग्र सुधारवादी सभी सुधारों का मूल संसदीय सुधार को ही मानते थे। हालांकि इंग्लैंड के भिन्न-भिन्न स्थानों पर सुधारों की मांगों से भिन्नता थी क्योंकि इन स्थानों की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में भिन्नता थी। परंतु प्रत्येक स्थान पर इन सुधारवादियों का उद्देश्य एक ही था कि जनसाधारण की दशा में सुधार किया जाए। फ्रांस की जुलाई 1930 की क्रांति की सफलता की सूचना मिलते ही इंग्लैंड में संवैधानिक सुधारों की मांग तेज हो गई तथा जगह-जगह पर सार्वजनिक सभाएं की जाने लगीं। फिर भी सरकार ने सुधारों की मांग अस्वीकृत कर दिया लेकिन सुधारवादियों को जुलाई क्रांति ने विश्वास पैदा किया कि किसी आंदोलन को बल प्रयोग से सदा के लिए नहीं दबाया जा सकता। इस विश्वास ने सुधारवादियों की संख्या बढ़ाई तथा सुधारों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया, जिसका प्रतिफल 1832 का सुधार अधिनियम के रूप में आया।
हालांकि 1832 का सुधार अधिनियम पास कराने में लार्ड ग्रे ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया लेकिन वे आलोचना से बच नहीं सके। इस सुधार अधिनियम ने इंग्लैंड के संसदीय कानून में कई क्रांतिकारी परिवर्तन किया लेकिन इसकी धाराएं पूर्णतः नरम ही थीं। इससे राजनीति के क्षेत्र में उच्च मध्य वर्ग का ही प्रवेश हो सका। जनता का नहीं। इसने कामन्स सभा में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र का विस्तार किया लेकिन उसे व्यापक रूप से प्रजातांत्रिक नहीं बना सका। इस सुधार नियम से जनतंत्र के सिद्धांत का प्रचलन नहीं हुआ। इसे अधिक से अधिक बीच-बचाव का एक मार्ग ही कहा जा सकता है, जिसे सिद्धांत की दृष्टि से नहीं बल्कि उपयोगिता की दृष्टि से ही अपनाया गया था। इस प्रकार 1832 के सुधार नियम के परिणामों ने इसके समर्थकों और विरोधियों दोनों को ही निराश कर दिया। सुधार नियम के समर्थकों को इससे बहुत आशाए थीं, जो पूरी नहीं हुई। दूसरी ओर इसके विरोधियों को अनेक आशंकाएं तथा भय था। वे सोचते थे कि अब इंग्लैंड में मुकुट, लार्ड सभा, चर्च तथा संपत्ति सब समाप्त कर दिए जाएंगे। लेकिन ये भी निराधार सिद्ध हुए।
Question : ‘उन्होंने मुझे कूटनीति के द्वारा उत्तर से इटली का निर्माण करने से रोक दिया है, मैं क्रांति के द्वारा दक्षिण से इसका निर्माण करूंगा।’
(2005)
Answer : काबूर की मान्यता थी कि इटली का एकीकरण सार्डिनिया के नेतृत्व में ही हो सकता है, क्योंकि सार्डिनिया ही आस्ट्रिया को इटली से निकाल सकता है तथा बिना आस्ट्रिया को इटली से निकाले एकीकरण संभव नहीं है। आगे उसका विचार था कि आस्ट्रिया को इटली से निकालने के लिए सार्डिनिया को विदेशी सहायता आवश्यक है तथा यह सहायता फ्रांस और इंग्लैंड ही कर सकता है। लेकिन इंग्लैंड यूरोपीय राजनीति में हिस्सा लेना छोड़ दिया था। अतः फ्रांस से ही कुटनीतिक और सैनिक सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। काबूर इटली के एकीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति प्राप्त करना चाहता था जिसे वह अपनी कूटनीति से क्रीमिया के युद्ध में प्राप्त किया। युद्ध की समाप्ति के बाद पेरिस शांति सम्मेलन में सार्डिनिया को भी बुलाया गया। इस सम्मेलन में काबूर ने इटली की दुर्दशा की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया तथा इसके लिए आस्ट्रिया को जिम्मेवार ठहराया। इस प्रकार काबूर ने इस सम्मेलन में यूरोपीय राज्यों की सहानुभूति प्राप्ति किया। अब काबूर आस्ट्रिया को इटली से सैनिक बल के माध्यम से निकालने के लिए विदेशी सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इस प्रयास में वह सफल रहा तथा प्लोम्बियर्स समझौता के द्वारा फ्रांस इटली की मदद के लिए तैयार हो गया।
प्लोंबियर्स समझौता के बाद सार्डीनिया तथा आस्ट्रिया के बीच युद्ध आरंभ हो गया तथा नेपोलियन तृतीया ने सार्डीनिया को मदद देने के लिए दो लाख सेना के साथ आस्ट्रिया पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में आस्ट्रिया की हार होने लगी तथा लोम्बार्डी पर सार्डीनिया का अधिकार हो गया। इस समय ऐसा प्रतीत होने लगा कि जल्द ही इटली पर आस्ट्रिया का प्रभाव और आधिपत्य समाप्त हो जाएगा। लेकिन इसी बीच नेपोलियन तृतीय ने आस्ट्रिया के साथ विलाफ्रैंका की संधि किया तथा युद्ध से अलग हो गया। इससे सार्डीनिया की स्थिति कमजोर पड़ गई तथा उसे भी ज्यूरिख की संधि आस्ट्रिया के साथ करना पड़ा। हालांकि काबूर युद्ध बंद करने के पक्ष में नहीं था, क्योंकि वेनेशिया पर अभी भी आस्ट्रिया का आधिपत्य था। लेकिन सम्राट विक्टर इमैनुएल द्वितीय ने काबूर के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
विलाफ्रैंका के विश्वासघात के बाद काबूर को यह एहसास हो गया था कि इटली का एकीकरण अब उत्तर से संभव नहीं है अतः उसने अपनी रणनीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि - ‘यूरोपीय शक्तियों ने मुझे कूटनीति के द्वारा उत्तर की ओर से एकीकरण नहीं करने दिया। अब मुझे क्रांति का सहारा लेकर दक्षिण की ओर से इटली का एकीकरण करना होगा। अपनी इस नवीन नीति के अनुरूप ही उसने सिसली और नेपल्स के राज्य को इटली में मिलाया। इसके लिए काबूर ने इन राज्यों में जो जन असंतोष शासकों के विरुद्ध था उसी का सहारा लिया। इस कार्य में काबूर को गैरीबाल्डी का मदद भी मिला। इस प्रकार काबूर ने विलाफ्रैंका की संधि के बाद दक्षिण के राज्यों सिसली तथा नेपल्स को जन विद्रोहों के माध्यम से तथा गैरीबाल्डी के सहयोग से सार्डीनिया में मिलाया।
Question : ‘रूसी क्रांति (1917) एक आर्थिक विस्फोट थी जो कि निरंकुश सरकार की बुद्धिहीनता के कारण जल्द घटित हुई।’
(2005)
Answer : बीसवीं शताब्दी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रूस की क्रांति थी। इस क्रांति ने सम्राट के एकतंत्रीय निरंकुश शासन का अंत कर मात्र लोकतंत्र की स्थापना का ही प्रयत्न नहीं किया अपितु सामाजिक, आर्थिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में कुलीनों, पूंजीपतियों और जमींदारों की शक्ति का अंत किया तथा मजदूरों और किसानों की सत्ता की स्थापना भी किया। इस क्रांति का बीज वहां की आर्थिक अव्यवस्था में स्पष्ट रूप से ढूंढा जा सकता है। 1917 ई- में रूस एक कृषि प्रधान देश था, हालांकि वहां औद्योगिक क्रांति का प्रभाव भी कुछ क्षेत्रों विशेषकर यूरोपीय भाग में दिखने लगा था। रूस का कृषि क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ था। यहां करीब 15 करोड़ किसान और एक लाख तीस हजार भूमिपति रहते थे। लेकिन अधिकांश भूमि पर इन अल्संख्यक रहते थे। लेकिन अधिकांश भूमि पर इन अल्पसंख्यक भूमिपतियों का कब्जा था तथा सबसे बड़ा भूमिपति जार स्वयं था। रूस की कुल कृषक जनसंख्या का एक तिहाई भाग भूमिहीनों का था। इन भूमिहीन कृषकों की स्थिति दासों जैसी थी। हालांकि कृषकों के पक्ष में कुछ कानून बनाये गये थे लेकिन इससे उनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। मजबूर होकर रूस के भूमिहीन कृषक औद्योगिक केंद्रों पर रोजगार के लिए पहुंचे। लेकिन वहां भी उद्योगपतियों ने उनकी असहाय एवं दयनीय स्थिति का लाभ उठाकर न्यूनतम मजदूरी पर अधिक कार्य लिया और इस तरह वे यहां भी शोषण से नहीं बच पाए। इसका लाभ क्रांतिकारी समाजवादी दल ने उठाया तथा मजदूरों में समाजवादी विचारों का प्रचार किया। 1883 के बाद रूस में समाजवादी विचारधारा का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ा। कुछ समय बाद समाजवादी आंदोलन दो भागों में बंट गया। पहला क्रांतिकारी समाजवादी दल के रूप में था, जो कृषकों को संगठित कर क्रांति लाना चाहते थे तथा दूसरा सोशल डेमोक्रेटिक दल भी दो दलों में विभाजित हो गया- बोल्शेविक और मनशेविक। जारशाही ने तीव्रता से फैलते हुए समाजवादी विचारों को रोकने का प्रयत्न किया कितु उसे पर्याप्त सफलता नहीं मिली।
इन परिस्थितियों में भी जार ने बुद्धिहीनता का परिचय दिया तथा वह जनता के असंतोष को बंदूक की नोंक से शांत करने का प्रयत्न किया। जार निकोलस ने अपनी स्वेच्छाधारी शासन में बदलाव लाने का प्रयत्न नहीं किया। वास्तव में वह निकम्मा था और देश की आर्थिक और राजनीतिक समस्या को सही रूप से नहीं आंक सका। वह अपनी पत्नी जरीना के प्रभाव में था तथा जरीना पर एक लंपट पादरी रासपुटिन का प्रभाव था। इस कारण राज-कार्य में रासपुटिन की दखलअंदाजी काफी अधिक थी। रासपुटीन सभी प्रकार की नियुक्तियों, पदोन्नतियों तथा बर्खास्तगी में हस्तक्षेप करता था। इस लंपट पादरी के हस्तक्षेप के कारण पूरा राजपरिवार बदनाम हुआ और राजनीतिक व्यवस्था पर से लोगों की आस्था समाप्त हो गई। रासपुटिन के प्रशासन में इस हस्तक्षेप के कारण राजदरबार में उसके विरुद्ध एक दल का निर्माण हुआ, जिसने दिसंबर, 1916 ई- में उसकी हत्या कर दी। यदि जार में जरा भी समझ होती तो वह राजदरबार एवं शासन की अव्यवस्थाओं को काबू में करता तथा 1917 की क्रांति को टाल सकता था, किंतु निकोलस द्वितीय की मूर्खता ने क्रांति को अनिवार्य बना दिया।
Question : 1985-1991 के दौरान रुसी साम्यवाद और सोवियत संघ के पतन के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
(2004)
Answer : सोवियत संघ का पतन दुनिया के इतिहास में एक नवीन समाज में की गई गलतियों एवं भटकाव के कारण हुआ। नये समाज के निर्माण के लिए सक्रिय भागीदारी व सहयोग आवश्यक था। वहां पर सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में नहीं थी बल्कि सर्वहारा वर्ग पर राज्य व साम्यवादी पार्टी के नेताओं का वर्चस्व था। इसलिए जनता राज्य तथा व्यवस्था के प्रति उदासीन हो गयी और व्यवस्था को जीवंत रखने के लिए आवश्यक था कि देश में समाजवादी मनुष्य एवं संस्कृति पैदा किया जाये। सोवियत व्यवस्था ऐसा करने में विफल रही। समाजवादी संस्कृति एवं चेतना से वंचित जनमानस के लिए पूंजीवाद संस्कृति, जीवन शैली व रीति-रिवाजों में चुंबकीय आकर्षण पैदा हो गया। यह स्थिति समाजवाद के लिए घातक थी। 1985 के पश्चात अनेक कारण थे जिसकी वजह से सोवियत संघ का पतन हुआ। ये कारण आंतरिक एवं वाह्य दोनों थे।
1985 में मिखाईल गोर्बाचौफ के सोवियत संघ के राष्ट्रपति बनने के पश्चात वहां आर्थिक एवं राजनीतिक प्रणाली में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तनों का प्रवेश प्रारंभ हुआ। सोवियत जीवन के सभी पहलुओं की जांच-परख होने लगी। उन्होंने सोवियत अर्थव्यवस्था में पेरेस्त्रेइका ख्रुश्चेवपुनर्गठन) तथा ग्लासनोस्त (खुलापन) की अवधारणा पेश की। इस अवधारणा में सोवियत अर्थव्यवस्था के तत्कालीन ढांचे को, जो पिछड़ा और अपरिवर्तनशील माना जाता था, को आमूल-चूल रूप से बदलने की आवश्यकता पर बल दिया। पहले से चली आ रही अर्थव्यवस्था घटिया वस्तुओं, अकुशलता तथा प्रतिद्वंद्विता के अभाव से ग्रसित था। अब अधिक गतिशील, कुशल और समाजोन्मुख अर्थव्यवस्था पर जोर दिया जाने लगा। राजनीतिक प्रणाली में भी राजनीतिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना लक्ष्य निर्धारित किया गया। हर मुद्दे पर स्वतंत्र और खुली बहस होती थी। विचारों और अभिव्यक्तियों की आजादी पर से बंदिशें हटा दी गईं। ये सब कार्य साम्यवादी दल के सिद्धांतों के विरुद्ध थी। पहले साम्यवादी पार्टी ही अर्थव्यवस्था की दिशा का निर्धारण करती थी। पार्टी भावना ही महत्वपूर्ण थी। राजनीति पर भी पार्टी एवं पार्टी के लोगों का वर्चस्व हुआ करता था। इन सुधारों के कारण देश के राजनीतिक जीवन पर पार्टी की पकड़ ढ़ीली हुई और अन्य राजनीतिक दलों को भी काम करने की इजाजत दी गई। विदेश नीति में भी भारी परिवर्तनहुआ। अब शीत युद्ध के स्थान पर तनाव-शैथिल्य को महत्व दिया गया। विदेश यात्र पर प्रतिबंध तथा धार्मिक प्रतिबंध आदि भी वापस ले लिए गये। इस प्रकार सुधार कार्यक्रमों द्वारा सोवियत समाज को कठोर नियंत्रण कठोर अनुशासन तथा लौह-आवरण की नीति से मुक्ति हुई। कट्टर साम्यवाद स्वयं अपनी कमजोरियों के कारण पटल से परे चला गया।
मिखाइल गौर्बाचौफ की नीतियों के कारण सोवियत साम्यवादी दल की शक्ति में निरंतर हास होता गया। फलतः सोवियत संघ को एकता के सूत्र में बांधने वाले सबसे बड़े सम्पर्क सूत्र की शक्ति ही घटती गई। परिणामस्वरूप साम्यवाद विरोधी शक्तियां सिर उठाने लगीं। संयुक्त राज्य अमेरिका और पाश्चात्य देश सोवियत संघ में साम्यवादी शासन व्यवस्था को समाप्त करने के लिए लंबे समय से प्रयासरत थे। गोर्बाचौफ के उदार एवं कमजोर नीति ने उन्हें इस दिशा में सुअवसर प्रदान किया। उन्होंने साम्यवाद-विरोधी एवं पृथकतावादी शक्तियों को खुलकर सहायता प्रदान की। सोवियत संघ तथा पूर्वी युरोप में साम्यवाद शक्तियां हावी होती गईं। पूर्वी यूरोप के कई देशों में साम्यवाद के पतन ने सोवियत संघ की महाशक्ति की छवि को ही समाप्त कर दिया। गौर्बाचौफ अपनी स्वयं की अंतर्राष्ट्रीय छवि बनाने की आड़ में सोवियत संघ की सैनिक शक्ति को कम करते गये। हथियारों को कम करने के लिए उनके द्वारा किये गये शांति समझौतों से उन्हें तो शांति का ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला, परंतु एक महाशक्ति के रूप में तथा तृतीय विश्व के राष्ट्रों में सोवियत संघ का दबदबा कम होता गया।
पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों को सोवियत संघ आर्थिक, सैनिक व राजनैतिक मदद प्रदान करता था। अमेरिका खेमें में जाने से बचाने के लिए पहले सोवियत संघ उन्हें समाजवादी सहायता प्रदान करता था। अमेरिका के साथ सुरक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी होड़ में शामिल होना उसकी जरूरत बन गई थी। पूंजीवाद पर समाजवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करना भी उसका लक्ष्य था। अफगानिस्तान और पूर्वी यूरोप के देशों से सोवियत सेनाओं की वापसी के कारण सोवियत संघ में भोजन के निश्चित परिमाण और आवासों की कमी हो गई थी। उधर पूर्व यूरोपीय देशों से आने वाले कच्चे माल तथा भोजन सामग्री में भी अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। मूल्य नियंत्रण समाप्त होने से और कारखानों को मिलने वाले अनुदान बंद होने से वस्तुओं का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा था। इन सब कारणों से सोवियत संघ आर्थिक बोझ से इतना दब गया कि उस बोझ ने ही उसे बिखेर दिया।
सोवियत संघ ने अपनी स्थापना के समय बाल्टिक गणराज्यों को जबरन अपने में विलय कर लिया था। इन गणराज्यों में सोवियत संघ के विरूद्ध विद्रोह की आग सुलगती रही थी। गौर्बाचौफ के उदारवादी शासन काल में गणराज्यों ने अधिक स्वायत्तता की मांग रखी। कुछ गणराज्यें तो पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहते थे। अधिक स्वायत्तता करने वाले नये समझौते की रूपरेखा बनाने की कोशिश की गई। अगस्त 1991 में कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने मिलकर सत्तापलटने की असफल कोशिश की। लेकिन इसके फलस्वरूप सोवियत संघ के विघटन की प्रक्रिया और तेज हो गई। अंततः सोवियत संघ 15 स्वतंत्र गणराज्यों में बंट गया तथा इन सभी में कम्युनिस्ट शासन भी समाप्त हो गया।
निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि सोवियत संघ अपने ही बोझों से बिखर गया। वहां पहले से ही आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि प्रतिबंध एवं कठोरता व्याप्त थी। लोग इन प्रतिबंधों से मुक्ति पाने के लिए व्यग्र थे। नवोदित पीढि़यों को जारशाही काल के शोषण से नहीं बल्कि तत्कालीन समाजवादी व्यवस्था से शिकायत थी। वे पूंजीवादी की ओर वापस जाकर दोनों दुनिया-समाजवादी और पूंजीवादी दुनिया के सुखों को प्राप्त करना चाहते थे। 1985 के पश्चात् गोर्बाचौफ के खुलेपन की नीति और विचार को लोग समझ नहीं पाये। सोवियत संघ पहले ही अपनी नीतियों के कारण सुलग रहा था। अचानक आये इस खुलेपन से कई गलतियां होने लगी ओर सब पश्चिमी देश भी विरोधियों को हवा देने लगे तब सोवियत संघ अपनी बोझ नहीं संभाल सका और बिखर गया।
Question : ‘1991 के बाद के वर्षों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात फ्रांस द्वारा सुरक्षा की मांग थी।’
(2004)
Answer : 1991 ई- के बाद फ्रांसीसी सुरक्षा की मांग यूरोपीय राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य था। फ्रांस का सारा भय जर्मनी से था। यद्यपि प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस को विजय प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त फ्रांस जर्मनी से क्षेत्रफल, जनसंख्या तथा संसाधनों तीनों में आगे था। परंतु फ्रांसीसी लोग अपनी कमजोरी को भली-भांति समझते थे और जर्मनी के मुकाबले में कोई ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें उनकी सुरक्षा की गारंटी मिल सके।
जर्मनी के भावी आक्रमण से अपने को सुरक्षित करने के लिए पेरिस शांति-सम्मेलन में फ्रांस ने मांग की कि राइन नदी के बायें तक को जर्मनी से अलग कर फ्रांस को सौंप दिया जाए। फ्रांस के इस ‘भौगोलिक गारंटी’ की मांग को अमेरिका और ब्रिटेन ने नहीं माना। इसके बदले में इस प्रदेश पर मित्र राष्ट्रों का कब्जा रखा गया और अमेरिका तथा ब्रिटेन ने फ्रांस से एक संधि कर उसे जर्मन आक्रमण के विरुद्ध सहायता का वचन दिया। लेकिन अमेरिका के बाद में इस संधि को मानने से इंकार कर दिया। इससे यूरोपीय फ्रांस अपने को बहुत निर्बल और असुरक्षित समझने लगा। जर्मनी के प्रतिशोध से बचने के लिए वह राजनयिक उधेड़बुन में डूब गया। अब उसका प्रयास था- जर्मनी को राजनायिक क्षेत्र से एकदम अलग कर देना तथा उसे घेरने के लिए यूरोपीय राज्यों से गुटबंदी करना। ब्रिटेन के साथ फ्रांस द्वारा संधि का प्रयास असफल हो गया। तब उसने छोटे-छोटे राष्ट्रों के साथ संधि का प्रयास किया। 1920 में फ्रांस ने बेल्जियम के साथ संधि किया। पोलैंड को भी जर्मनी से डर बना हुआ था। अतः समान उद्देश्यों के कारण 1921 में उनमें संधि हो गयी। इससे फ्रांस को यह लाभ हुआ कि जर्मनी के आक्रमण की स्थिति में पूर्व में पोलैंड से तथा पश्चिम में बेल्जियम का साथ मिलता।
फ्रांस ने अपनी स्थिति को सुरिक्षत रखने के लिए अब ‘लघु मैत्री संघ’ का निर्माण आरंभ किया। 1920-21 में उसने चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया और रूमानिया का एक त्रिगुट संगठित किया। जिसका उद्देश्य यह देखना था कि जर्मनी फिर से सिर न उठा सके। इतना होने पर भी फ्रांस को संतोष नहीं हुआ और इन राष्ट्रों के साथ उसने प्रत्यक्ष संधि भी की। इस तरह सुरक्षा के नाम पर छः देशों के साथ संधि करके फ्रांस ने यूरोप की राजनीति में एक नया प्रभुत्व कायम किया। इन संधियों द्वारा मानसिक दृष्टि से फ्रांस ने अपनी सुरक्षा की समस्या का समाधान बहुत हद तक कर लिया।
Question : ‘रूसो के राजनैतिक दर्शन में समाजवाद, निरंकुशवाद और प्रजातंत्र के बीज विद्यमान है।’
(2004)
Answer : रूसो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल कॉन्ट्रेक्ट’ में अपने राजनैतिक विचारों को व्यक्त किया है। उसने लिखा है कि आदिम काल में मनुष्यों में स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व भाव’ था। ‘स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व भाव का उसने समर्थन किया है। यहां पर उसके समाजवादी तथा प्रजातांत्रिक विचारों के दर्शन होते हैं। उसने किसी एक व्यक्ति या संस्था में विश्वास प्रकट न करके केवल मानव मात्र में आस्था प्रकट की है। वह सभी व्यक्तियों को स्वतंत्र एवं समान मानता था। उसका मानना था कि मनुष्य जन्म से ही स्वतंत्र है। उसने अपनी पुस्तक में आदिम काल के बराबर अधिकार में बटें तथा सुखी समाज का चित्र खींचा है। वह सामाजिक सतयुग की प्राप्ति की बात कहता है। उसके इस प्रकार के विचार समाजवादी परंपरा के द्योतक हैं। उसने मानव आर्थिक समानता की बात भी कही है। उसने आम जनता को अपने अधिकारों के लिए भी प्रेरित किया। उसने जनता की सार्वभौम एवं नागरिकों की राजनीतिक समानता का विचार रखा है। उसने सार्वभौम सत्ता को जनता में निहित बताया है। इस अर्थ में वह प्रजातंत्र के सिद्धांतों को दुनिया के सामने रखा। इससे भी बढ़कर वह कहता है कि जैसे ही जनता के प्रतिनिधि स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व-भाव में हस्तक्षेप करने लगें, जनता को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उन्हें बदल दे। उसके यह विचार विशुद्ध प्रजातंत्र के द्योतक है। उसने समाज में संपत्ति की रक्षा और जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए राजा का होना आवश्यक बताया है। शासन की व्यवस्था बनाए रखने के लिए वह मनुष्यों को थोड़ी सी स्वतंत्रता त्यागने को भी बात करता है। व्यवस्था को बनाये रखने के लिए शासक की अधिकारों की बात भी करता है। यहां पर उसके निरंकुशवादी विचारधारा के दर्शन भी होते हैं।
Question : नेपोलियन क्रांति से जन्मा था, किंतु उसने अनेक प्रकार से उसी आंदोलन के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों को ही उलट दिया, जिससे वह स्वयं उत्पन्न हुआ था।
(2004)
Answer : बंधुत्व, समानता एवं स्वतंत्रता ये तीन शब्द 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति के महत्वपूर्ण सांकेतिक शब्द थे। नेपोलियन बोनापार्ट के कुछ प्रशासकीय कार्यों से तो यह कुछ हद तक बोध होता है कि वह क्रांति की उपज था, जबकि उसके कुछ कार्यों से यह प्रतीत होता है कि उसने क्रांति के आदर्शों एवं उद्देश्यों को उलट कर रख दिया। अपने शासन काल में नेपोलियन ने फ्रांसीसी लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक समानता की स्थायी सुरक्षा के लिए अनेक साहसिक कदम उठाये। लेकिन साथ-ही-साथ वह राजनैतिक समानता के बिल्कुल खिलाफ भी था और इसी कारण उसने फ्रांस में केंद्रित शासन व्यवस्था की नींव डाली। इस प्रकार जहां तक सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में समानता की बात थी, उन सभी को नेपोलियन ने पिछले शासकों की तुलना में बहुत प्रभावशाली ढंग से पूरा किया। लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में उसने राजनीतिक स्वतंत्रता का विरोध किया। साथ ही राष्ट्रीयता के सिद्धांत का भी नेपोलियन द्वारा विरोध किया गया।
कान्स्यूलेट की समयावधि में नेपोलियन ने फ्रांसीसी जनता को क्रांति का लाभ हासिल कराने के लिए क्रांति की उपलब्धियों को स्थायी कानून एवं संस्थागत रूप देने का एक सफल प्रयास किया। उसके द्वारा निर्मित नागरिक संहिता द्वारा कुलीनों के विशेषाधिकारों के सभी चिन्ह को समाप्त कर, कानून के समक्ष समानता बहाल की गयी। संधि द्वारा पोप ने फ्रांस की नयी भूमि व्यवस्था को स्वीकार किया, जो चर्च की संपत्ति के बिक्री संबंधी क्रांतिकारी विचारों पर आधारित था। इस प्रकार किसानों को स्थायी रूप से फ्रांस की क्रांति का लाभ मिला। संक्षेप में जागीरदारी, विशेषाधिकार एवं अन्य सामाजिक असमानताएं, जिनकी प्राप्ति के लिए फ्रांस की जनता ने संघर्ष किया था, नेपोलियन ने उन सबको समाप्त कर दिया।
लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में नेपोलियन ने बारबन के समय की केंद्रित शासन व्यवस्था में रूचि दिखायी। उसने फ्रांसिसी जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता की आज्ञा नहीं दी। उसका विश्वास था कि इस प्रकार की स्वतंत्रता प्रशासन की कार्य कुशलता को प्रभावित करती हैं एवं उसके लिए अनेक कठिनाइयां उत्पन्न कर देती है इसलिए उसने स्थानीय स्व-शासन हेतु जन-प्रतिनिधियों के चुनाव की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। धीरे-धीरे उसने समस्त प्रशासनिक अधिकारों को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया और अन्ततः अपने आपको ‘फ्रांस का सम्राट’ घोषित कर दिया। इस तरह उसने फ्रांस की जनता को कभी भी स्वतंत्रता का स्वाद नहीं चखने दिया।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘नेपोलियन क्रांति की संतान था लेकिन कई अर्थों में उसने उस आंदोलन (जिससे वह उत्पन्न हुआ था) के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों को उलट दिया।’
Question : चार्टिस्ट आंदोलन की पृष्ठभूमि की समीक्षा कीजिए। इसके असफल हो जाने के बावजूद बाद के वर्षों में उनकी मांगों की पूर्ति किस प्रकार हुई?
(2004)
Answer : 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड में एक उग्र राजनीतिक आंदोलन का जन्म हुआ। इसे ‘चार्टिस्ट आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। इंग्लैंड के आधुनिक इतिहास में श्रमिकों का यह प्रथम संगठित आंदोलन था। 1838 ई. में जब मैलबोर्न मंत्रिमंडल सत्ता में था, तब मजदूर नेताओं ने अपनी मांगें संसद के समक्ष एक चार्टर के रूप में प्रस्तुत की। इसलिए इस आंदोलन का नाम ‘चार्टिस्ट आंदोलन’ पड़ा तथा चार्टर के समर्थक चार्टिस्ट कहलाये। यह वर्ग श्रमिक समर्थक था।
1836 ई. से 1845 ई. तक इंग्लैंड को आर्थिक परेशानियों एवं राजनीतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा। मजदूरों की स्थिति उस समय विशेष रूप से शोचनीय थी। इस काल में ही चार्टिस्ट आंदोलन हुआ। इसके अतिरिक्त 1825 से 1950 ई. तक काल वैचारिक संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण है। इस काल में इंग्लैंड में वैचारिक संघर्ष चल रहा था। यह संघर्ष व्यक्तिवाद और समाजवाद के बीच था। लोगों का मानना था कि व्यक्तिवाद द्वारा शोषण तथा अन्याय का अंत नहीं हो सकता, इसका निराकरण समाजवाद द्वारा ही संभव है। परिणामस्वरूप इस काल में अनेक आंदोलन हुए। चार्टिस्ट आंदोलन का उद्देश्य समाज के आधारभूत सिद्धांतों में आमूलचूल परिवर्तन करके मजदूरों की दशा सुधारना था। यह मजदूरों द्वारा प्रारंभ किया हुआ राष्ट्रीय जागृति आंदोलन था, जिसका उद्देश्य मजदूरों का सर्वतोमुखी विकास करना था।
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के काल में नवस्थापित औद्योगिक नगरों में बहुत सारे मजदूर बस गये थे। इससे शिक्षा, आवास, सफाई आदि से संबंधित अनेक समस्याएं उठ खड़ी हुई थीं। मजदूरों के वेतन बहुत कम थे तथा पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा के लिए वस्तुओं के भाव जानबूझकर बढ़ाये जा रहे थे। इससे पूंजीपति अधिक धनी होते जा रहे थे और निर्धन लोगों की निर्धनता बढ़ती जा रही थी। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने आंदोलन के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर दी थी। 1830 ई. के पश्चात रार्बर्ट ऑवेन, ओकोनर आदि समाजवादियों ने इंग्लैंड में समाजवाद के विचार को तेजी से फैलाया। उनका कहना था कि ‘वस्तुओं का उत्पादन श्रमिक वर्ग ही करता है, अतः तैयार वस्तुओं पर श्रमिक वर्ग की ही पूर्ण अधिकार होना चाहिए। जबकि होता इसके विपरीत है, उत्पादित वस्तुओं का अधिकतम लाभ पूंजीपति प्राप्त करते हैं, जिससे अमीर और अधिक अमीर तथा गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं।’ इस प्रकार समाजवादी वर्ग-संघर्ष की शिक्षा दे रहे थे, जिसका जनमत पर अत्याधिक प्रभाव पड़ा। इस अधिनियम से श्रमिक वर्ग संतुष्ट नहीं था। इस एक्ट के निर्माता जॉन रसल ने इस सुधार अधिनियम को अंतिम सुधार अधिनियम घोषित किया और भविष्य में और सुधार न करने की बात कही। इससे श्रमिक वर्ग में असंतोष व्याप्त हो गया। 1832 के अधिनियम का लाभ केवल मध्यम वर्ग हो ही मिला। श्रमिकों को किसी प्रकार का राजनीतिक अधिकार नहीं मिला। उन्हें मतदान तक का अधिकार नहीं था। इससे मजदूरों को काफी निराशा हुई और उन्हें यह सबक भी मिला कि यदि वे मध्यम वर्ग की तरह संगठित होकर अपनी मांगों को प्रस्तुत करें तो सफलता मिल सकती है।
कई नेताओं एवं साहित्यकारों ने इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में सहायता प्रदान की। उस काल के साहित्यकारों एव उनके साहित्यों ने भी श्रमिकों की मांगों को जायज ठहराया। इन साहित्यों में सामाजिक बुराइयों की चर्चा की जाने लगी और सुधारों पर जोर दिया जाने लगा। कार्लाइल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चार्टिज्म पास्ट एंड प्रजेंट’ में चार्टरवाद की भावना का समर्थन किया। प्रसिद्ध विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी चार्टिस्ट आंदोलन का समर्थन किया और इस विचार को फैलाने में सहायता प्रदान की। 1834 ई. में रॉबर्ट ओवेन ने ‘ग्रांड नेशनल कन्सोलिडेटेड ट्रेड यूनियन’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य मजदूरों को विभिन्न प्रकार के अधिकार दिलवाने में सहायता प्रदान करना था। परंतु ‘ओवेन’ को सफलता नहीं मिली। 1838 में विलियम लॉवेट ने लंदन में एक श्रमिक संगठन स्थापित कर छः मांगें ‘जनता का आज्ञापत्र’ के रूप में प्रस्तुत की। ये मांगे थीं-व्यस्क मताधिकार, गुप्त मतदान, वार्षिक संसदीय चुनाव आदि। ये मांगें राजनीतिक प्रकार की थीं। लेकिन सरकार ने उनकी मांगे नहीं मानीं। चार्टर (आज्ञा-पत्र) के अस्वीकृति के पश्चात चार्टिस्टों ने सशस्त्र विद्रोह भी किए। 1840 में राष्ट्रीय चार्टिस्ट संघ की स्थापना के पश्चात् 1842 में सरकार के समक्ष दूसरा चार्टर पेश किया गया। इसे भी अस्वीकार कर दिया गया। परिणामस्वरूप देश में आम हड़ताल भी हुई। लेकिन सरकार ने इसे कठोरता के साथ दबा दिया। 1848 ई. में फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरणा पाकर चार्टिस्ट पुनः दुगुने उत्साह से आंदोलन किया। पचास लाख लोगों के हस्ताक्षर से युक्त प्रार्थना पत्र सरकार को दिये गये। परंतु उसमें तीस लाख हस्ताक्षर जाली पाये गये। परिणामस्वरूप चार्टिस्ट बदनाम हो गए और आंदोलन स्वयंमेव समाप्त हो गया।
यद्यपि चार्टिस्ट आंदोलन असफल हो गया परंतु इसके दूरगामी परिणाम निकले। इसने मजदूरों में सहयोग एवं एकता की भावना का संचार किया। इंग्लैंड के टोरी दल ने मताधिकार के अधिकार का समर्थन किया। इस दल ने चार्टिस्टों की अन्य मांगों का कलांतर में समर्थन भी किया। 1867 ई. से 1884 ई. के बीच इंग्लैण्ड में जो सुधार हुए उनमें इस आंदोलन के लक्ष्यों को समाहित किया गया। इस आंदोलन के कारण देश में समाज के सभी वर्ग सुधार की मांग करने लगे। आगे चलकर इस आंदोलन की सभी मांगे मान ली गयी, केवल प्रतिवर्ष लोक सदन के निर्वाचन की मांग के अलावा, 1867, 1884 और 1918 ई. के द्वारा ब्रिटिश जनता को व्यस्क मताधिकार मिला। 1858 में संसद के सदस्यों की योग्यता भी समाप्त कर दी गयी। गुप्त मतदान को भी स्वीकार कर लिया गया। चार्टिस्ट आंदोलन के प्रभाव से ही 1848 ई. में कारखाना नियम, खान नियम और सार्वजनिक स्वास्थ्य नियम पास हुए। अन्य कानून की समाप्ति पर भी इस आंदोलन का प्रभाव था।
Question : ‘बिस्मार्क के लिए 20 मई, 1882 की संधि इस प्रणाली की परिसमाप्ति थी।’
(2004)
Answer : 1871 ई- के बाद बिस्मार्क की विदेश-नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी के प्राधान्य के साथ यूरोप में शांति बनाए रखना था। उस समय यूरोप की शांति व्यवस्था को दो तरह से खतरा था- एक तो फ्रांस की प्रतिरोध की भावना से तथा दूसरे बाल्कन क्षेत्र में आस्ट्रिया और रूस की प्रतिद्वन्द्विता से। फ्रांस की ओर से बिस्मार्क को अधिक भय था, क्योंकि फ्रांस एल्सेस-लारेनप्रांत छिन जाने से बहुत असंतुष्ट था और वह 1870 के राष्ट्रीय अपमान को कभी भूल नहीं सकता था। अतः बिस्मार्क का उद्देश्य फ्रांस को मित्रहीन बना देना था, जिससे की वह एल्सास-लारेन प्रदेश को प्राप्त करने के लिए जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में नहीं आ सके।
इस उद्देश्य से 1872 में उसने यूरोप की तीन प्रमुख शक्तियों को अपने कूटनीति से मिलाकर ‘तीन सम्राटों से संघ’ का निर्माण किया। ये राज्य थे-रूस, ऑस्ट्रिया और जर्मनी। इन तीनों राष्ट्रों के अध्यक्षों ने 1872 में बर्लिन में मिलकर निश्चय किया कि यूरोप में शांति बनाये रखने के उद्देश्य से एक दूसरे से सहयोग करेंगे। लेकिन यह संघ अधिक दिन तक कायम नहीं रह सका क्योंकि रूस का विदेश मंत्री फ्रांस का समर्थक था। रूस के इस रवैये के कारण बिस्मार्क ने 1879 में जर्मनी और आस्ट्रिया से एक संधि कर ‘द्विगुट’ का निर्माण किया। इसमें यह तय हुआ कि युद्ध छिड़ने पर वे एक दूसरे की मदद करेंगे। बिस्मार्क को अब चिंता हुई कि कहीं रूस फ्रांस से मैत्री संधि न कर ले। इस उद्देश्य से वह रूस से पुनः संधि करना चाहता था, परंतु आस्ट्रिया इसके विरुद्ध था क्योंकि 1875 ई- के बाल्कन युद्ध में रूस ने आस्ट्रिया को समझाकर 1881 ई- में जर्मनी, रूस तथा आस्ट्रिया को मिलाकर एक त्रि-सम्राट संधि’ को जन्म दिया। यह संधि बिल्कुल गुप्त और रक्षात्मक थी। उस समय इटली एक ऐसा राष्ट्र था जो महाशक्ति बनने का इच्छुक था। इसी समय फ्रांस और इटली दोनों ट्यूनिस पर अधिकार के इच्छुक थे। 1881 में फ्रांस द्वारा ट्यूनिस पर अधिकार कर लेने से इटली क्षुब्ध हो उठा। इटली की क्षुब्धता का लाभ उठाकर बिस्मार्क ने उसे त्रिगुट ‘जर्मनी, आस्ट्रिया तथा इटली’ बनाने को कहा। इटली ने अपनी जरूरतों को महसूस करते हुए अपना समर्थन दे दिया और इस तरह 20 मई, 1882 को यह ‘त्रि राज्य संधि’ अस्तित्व में आया। इस संधि में तय हुआ कि यदि फ्रांस अथवा इटली एवं रूस मिलकर इन तीनों में से किसी पर भी आक्रमण करे तो सब मिलकर मुकाबला करेंगे। इस संधि से बिस्मार्क को निशि्ंचतता प्राप्त हुई। यह संधि बिस्मार्क की सफल कूटनीति का परिणाम थी। जब जर्मनी को फ्रांस से बिल्कुल भय नहीं था। यह संधि यूरोप में फ्रांस के भय को खत्म करने के लिए उसके द्वारा बनाई गई प्रणाली के समापन का सूचक भी थी।
Question : वाइमर गणतंत्र की दुर्बलताओं और कठिनाइयों पर प्रकाश डालिए। अपनी तानाशाही स्थापित करने में हिटलर को किस प्रकार सफलता मिली।
(2004)
Answer : प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में जर्मन जनता के कष्ट बहुत बढ़ गये थे। इस कारण वहां राजसत्ता के विरूद्ध विद्रोह हाेने लगे। इसी क्रम में नवंबर 1918 ई- में जर्मनी के मध्य वर्ग ने एक क्रांति कर राजतंत्र को समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना की। गणतंत्र की स्थापना के लिए एक सभा का चुनाव हुआ और सभा का प्रथम अधिवेशन ‘वाइमर’ नामक स्थान पर हुआ। यहीं पर विभिन्न दलों ने साथ मिलकर एक अन्तरिम सरकार गठित की। फ्रेडरिक एबर्ट राष्ट्रपति तथा फिलिप शीडमेन प्रधानमंत्री चुने गये। एक नवीन संविधान भी बनाया गया। ‘वाइमर’ नामक स्थान के कारण इसे ‘वाइमर गणतंत्र’ कहा जाता है। वाइमर संविधान संसार का एक अच्छा संविधान था, परंतु जर्मनी में अनेक प्रकार की कठिनाइयां व्याप्त थीं। इन कठिनाइयों के चलते अगले 12 वर्षों तक वाइमर गणतंत्र थे। अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। ये समस्याएं थीं- राजनैतिक, आर्थिक तथा नैतिक।
जर्मनी के लोग असंगठित थे। आर्थिक एवं युद्ध की समस्याओं के कारण वे लोग निराश तथा कष्टकारी अवस्था में थे। उन्हें संसदीय शासन के प्रति न तो कोई मोह था ना ही कोई अनुभव। वे दलीय व्यवहार की कठिनाइयों से सर्वथा अपरिचित थे। इस कारण वाइमर गणतंत्र को जनता का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया और जनता के सहयोग के बिना किसी शासन का चल पाना अत्यंत कठिन था। कुछ उग्रपंथी दल, जिनमें साम्यवादी प्रमुख थे, प्रारंभ से ही गणतंत्र विरोधी थे। इसके अतिरिक्त राजतंत्र के समर्थक, सैन्यवादी एवं अन्य दक्षिणपंथी दल भी गणतंत्र के विरूद्ध थे क्योंकि उनकी स्वार्थपूर्ति नहीं हो पा रही थी, वे सब गणतंत्र को समाप्त करना चाहते थे। मार्च 1920 में साम्यवादियों ने डॉ- बूल्फांग तथा बाल्थर वान के नेतृत्व में गणतंत्रीय सरकार को पलटने का असफल प्रयास किया। सरकार ने जनता के सहयोग से इस विद्रोह को दबा दिया। परंतु इस असफलता से साम्यवादियों का उत्साह कम नहीं हुआ और वे गणतंत्र के लिए समस्या बने रहे। 1923 में जनरल ल्यूडेनडोर्फ के नेतृत्व में म्यूनिख नगर में राजसत्तावादियों ने गणतंत्र को नष्ट करने के लिए एक दूसरा असफल प्रयास किया। इसमें हिटलर भी उनके साथ था। गणतंत्रवादियों ने राजसत्तावादियों को दण्डित किया, परंतु वे भी सरकार के लिए समस्या बने रहे।
इस समय सबसे बड़ी समस्या आर्थिक संकट की थी। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी को काफी नुकसान उठाना पड़ा। वहां के कई कारखाने बंद हो गये। फलस्वरूप बेरोजगारी काफी बढ़ गई। साथ ही क्षतिपूर्ति की बड़ी रकम उस पर थोप दी गयी। जर्मन के कई छोटे-बड़े औद्योगिक नगर उससे छीन लिए गये थे। जिससे समस्त जर्मन व्यापार नष्ट हो गया था। इसके अतिरिक्त भयंकर मुद्रा स्फीति के कारण साधारण व्यक्ति की आर्थिक कठिनाइयां काफी बढ़ गयी थी। जर्मन मुद्रा की कीमत गिरती जा रही थी। पहले एक पौंड की विनिमय दर 20 मार्क थी। 1922 तक यह 34,000 मार्क के बराबर हो गया। जर्मनी ने अपनी शोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण मित्र राष्ट्रों से दो वर्ष तक क्षतिपूर्ति न लेने का अनुरोध किया। लेकिन मित्रराष्ट्रों ने इसे नहीं माना। वर्साय की संधि के द्वारा जर्मनी को घोर अपमान सहना पड़ रहा था। उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये गये। वाइमर गणतंत्र इसका समाधान नहीं कर सका। इससे जर्मन लोगों में काफी रोष था। 1929 ई- के विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने जर्मनी पर गहरा प्रभाव डाला। कई कारखाने बंद हो गये। लाखों श्रमिक बेरोजगार हो गये। अमेरिका ने क्षतिपूर्ति चुकाने के लिए ऋण देना बंद कर दिया, इससे जर्मनी की स्थिति और भी बिगड़ गयी।
वाइमर गणतंत्र की एक बड़ी समस्या बहुदलीय व्यवस्था थी। वहां किसी भी एक दल को बहुमत नहीं मिल पाता था। इससे स्थायी सरकार कायम नहीं होती थी। 1919 से 1932 के बीच 18 मंत्रिमंडल गठित हुए। इससे जनता में गणतंत्र के प्रति कोई उत्साह नहीं रहा।
हिटलर एवं नाजी पार्टी का उदय एवं उत्थान इसी पृष्ठभूमि में हुआ। हिटलर प्रथम विश्व युद्ध में एक सैनिक के रूप में भाग लिया था। वह आरंभ से गणतंत्र के विरूद्ध था। सैन्य सेवा से हटने के पश्चात् वह क्षेत्रीय सेना के सूचना एवं प्रसारण विभाग में कार्य करने लगा। उसका एक कार्य समाजवादी विचारों के प्रचार को रोकना भी था। इसी समय वह ‘जर्मन वर्कर्स पार्टी’ के संपर्क में आया। आरंभ में इसकी सदस्य संख्या 20-25 थी। हिटलर इसका सदस्य बन गया और 1920 में इस पार्टी का नाम बदलकर ‘नाजी दल’ रखा। उसने दल के संस्थापक को निकलवाकर स्वयं अध्यक्ष बन गया। उसने अपनी निजी सेना बनाई। 1923 में गणतंत्र सरकार का तख्ता पलटने के कारण उसे जेल जाना पड़ा। जेल में ही उसने ‘मीन कैम्फ’ (मेरा संघर्ष) नामक पुस्तक लिखा। इसमें संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने का उल्लेख था।
हिटलर संसदीय प्रणाली का बहुत बड़ा आलोचक था। वह विशुद्ध जर्मन प्रजातंत्र का समर्थक था। वह वसीय की संधि को जर्मनी के लिए बहुत अपमानजनक करार दिया। जर्मनी की वर्तमान कमजोर स्थिति के लिए उसने गणतंत्र को दोषी ठहराया। वर्साय की अपमानजनक संधि और जर्मनी के निःशस्त्री का पूरा लाभ उठाने के लिए उसने जर्मन जनता के बीच वाइमर गणतंत्र के प्रति विरोधी और घृणा का प्रचार किया। 1924ई- में जेल से मुक्त होने के बाद उसने 1929 ई- तक नाजी पार्टी को मजबूत बनाया। वर्साय की संधि तथा फ्रांस को संतुष्ट करने की नीति के उसके विरोधी नीति से जर्मनी के राष्ट्रीय दल के लोग अधिकतर उच्चवर्गीय लोग उससे सहमत थे। आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से सर्वहारा वर्ग के लोग जो राजनीतिक दृष्टि से उग्रवादी बन गये थे, वे भी नाजी दल में शामिल हो गये। हिटलर एक अच्छा वक्ता भी था। जर्मनी के पक्ष में उग्र बातें करना और गणतंत्र की असफलता से देशभक्त युवक तथा युद्ध से लौटे सैनिकों ने उसका साथ दिया। जर्मनी के लोग एक ऐसा नेता चाहते थे जो उनके खोये हुए गौरव को लौटा सके। हिटलर में उन्हें अपने नेता के गुण नजर आते थे।
हिटलर के उत्थान का सबसे महत्वपूर्ण कारण 1929-30 की आर्थिक मंदी था। इस मंदी से जर्मन जनता का कष्ट बहुत बढ़ गया था। कृषकों पर तीन अरब डॉलर का ऋण था। उसने कृषकों को ऋण से मुक्ति या आश्वासन देकर अपनी ओर मिलाया। उसने उद्योगों का राष्ट्रीयकरण न करने का वादा कर उद्योगपतियों को तथा बेकारों को काम दिलाने का वाद कर अपनी ओर मिलाया। उसके साम्यवाद विरोधी कार्यक्रम के कारण उसे बड़े व्यापारियों एवं उद्योगपतियों एवं असंख्य साम्यवाद विरोधी लोगों का समर्थन मिला। उस समय यहूदी वर्ग जर्मन का वैभवशाली वर्ग था। जर्मन जनता अपनी पराजय का कारण यहूदी वर्ग को मानती थी। हिटलर ने यहूदी वर्ग को जर्मनी से निकालने का आश्वासन जनता को दिया। तत्कालीन समय में जर्मन जनता की समस्याओं का समाधान करने में वाइमर गणतंत्र असफल साबित हो रहा था। उधर हिटलर का व्यक्तित्व एवं कार्यक्रम भी प्रभावशाली साबित हो रहा था। इससे उसकी नाजी पार्टी को लोगों ने समर्थन देना शुरू किया।
1928 ई- के राइखस्टेग के निर्वाचन में नाजी दल के केवल 12 सदस्य निर्वाचित हो सके। किंतु 1930 ई- के चुनाव में उसकी सदस्य संख्या 107 हो गई। 1932 में राष्ट्रपति चुनाव में यद्यपि हिटलर हार गया परन्तु उसे 30 प्रतिशत मत मिले। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गई। 1932 के संसदीय चुनाव में 576 में से 230 स्थान नाजी दल को प्राप्त हुए। बहुमत तो उसे अभी भी नहीं मिला, परन्तु सबसे बड़ा दल बन कर उभरा। इस समय हिटलर प्रधानमंत्री बन गया। बहुमत प्राप्त करने के लिए हर प्रकार की युक्ति का सहारा लिया। फरवरी 1933 में लोकसभा भवन में आग लग गई। हिटलर ने इसका आरोप साम्यवादियों पर मढ़कर इसका पूरा राजनीतिक लाभ उठाया। साम्यवादियों के भय से जनता उसके पक्ष में हो गयी। इससे उसे चुनाव में 647 में से 288 स्थान तथा उसके सहयोगी पार्टी को 52 स्थान मिले। अब नाजी पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। शक्ति प्राप्त करने के पश्चात हिटलर ने गणतंत्र के विनाश हेतु कार्य आरंभ किया। 1934 में राष्ट्रपति हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात हिटलर राष्ट्रपति नियुक्त हुआ। लोकसभा को धमका कर उसने सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली और इस प्रकार हिटलर जर्मनी का सर्वेसर्वा तथा अधिनायक बन गया। उसे अब जर्मनी में कोई चुनौती देने वाला नहीं रह गया था।
Question : 1917 की रूसी क्रांति के कारणों का परीक्षण कीजिए और विश्व इतिहास में उसके महत्व का निरुपण कीजिए।
(2003)
Answer : रूस की राज्य क्रांति बीसवीं शताब्दी के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इस घटना के पूर्व में भी अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में अमेरिका और फ्रांस में क्रांतियां हुई थीं, किंतु रूस की क्रांति का अपना अलग ही महत्व है। प्रत्येक क्रांति अपनी प्रकृति, विस्तार एवं उद्देश्यों में अन्य क्रांतियों से भिन्न होती है। जहां अमेरिका की क्रांति उपनिवेशवाद को चुनौती थी, वही फ्रांस की राज्य क्रांति के कारण लोकतंत्र, राष्ट्रीयता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की विजय हुई थी। इसी प्रकार 1917 में रूस में जो राज्य क्रांति हुई, उसने सम्राट के एकतंत्रीय स्वेच्छाचारी शासन का अंत कर लोकतंत्र की स्थापना का ही प्रयत्न नहीं किया अपितु सामाजिक, आर्थिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में भी कुलीनों, पूंजीपतियों और जमींदारों की शक्ति का अंत कर, सर्वसाधारण मजदूर और किसान तथा आम जनता की सत्ता भी स्थापित की। इससे समाजवाद की विचारधारा को संसार में पहली बार मूर्त रूप मिला।
भौगोलिक दृष्टि से रूस संसार का सबसे बड़ा देश था। वहां का सम्राट जार निकोलस द्वितीय शक्तिशाली और निरंकुश शासक था। फ्रांसीसी क्रांति के समय जिस तरह फ्रेंच शासक निरंकुश किंतु अक्षम था, रूस की क्रांति के समय जार की भी यही स्थिति थी। रूस की साधारण जनता अशिक्षित और पिछड़ी हुई थी। चर्च का लोगों पर अधिक प्रभाव था। प्रजा-कुलीन वर्ग, मध्यवर्ग और मजदूर-किसान वर्ग में विभक्त थी। कुलीन और मध्यम वर्ग के लोग सर्वसाधारण जनता को घृणा की दृष्टि से देखते थे। यद्यपि 1905 ई- में क्रांति के बाद वहां पार्लियामेंट की स्थापना हो गयी थी, पर सम्राट व उसके सलाहकार जनता की इच्छा की परवाह नहीं करते थे, क्योंकि सम्राट दैवीय अधिकार के सिद्धांत में विश्वास करता था। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक रूस में स्वेच्छाचारी एकतंत्र स्थापित रहा।
रूस के जार अलेक्जेंडर प्रथम के समय से ही स्वेच्छाचारी शासन एवं दैवीय अधिकार के सिद्धांत में विश्वास करते थे। उसने उदारता की नीति अपनाने का प्रयत्न किया, परंतु पोलैंड के विद्रोह एवं अन्य बा“य प्रभावों के कारण उसने पुनः प्रतिक्रियावादी नीति अपना ली। अलेक्जेंडर द्वितीय ने भी उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर कृषक-दासों की मुक्ति एवं स्थानीय स्वशासन संबंधी सुधार किये, किंतु सामंतों के विरोध के कारण पुनः प्रतिक्रियावादी नीति अपना ली। निकोलस द्वितीय ने भी दमनकारी नीति अपनाई, परंतु 1905 की क्रांति के फलस्वरूप उसे सुधारवादियों को संतुष्ट करने के लिए कुछ सुधार करना पड़ा। लेकिन स्टालपीन की सहायता से पुनः प्रतिक्रियावादी शासन स्थापित कर लिया। सम्राट रासपुटीन जैसे दुष्टात्मा के प्रभाव में भी था जो सम्राज्य के लिए अनिष्टकारी था। जैसे-जैसे जारशाही के अत्याचार बढ़ते गये वैसे-वैसे उसके प्रति जनता का असंतोष एवं विरोध भी बढ़ता गया।
1904-05 में रूस-जापान युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस की छोटे से देश जापान के हाथों पराजय हुई। पहले क्रीमिया में शर्मनाक हार और अब रूस-जापान युद्ध में पराजय के कारण स्पष्ट हो गया कि रूस में सुधारों की आवश्यकता है। श्रमिकों एवं कृषकों ने अपना असंतोष व्यक्त करने के लिए दंगे किये। 22 जनवरी, 1905 को लगभग डेढ़ लाख मजदूरों ने गैपो के नेतृत्व में सम्राट के सम्मुख अपनी राजनीतिक और अन्य मांगों के लिए प्रदर्शन किया। शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे इन लोगों पर सैनिकों ने आक्रमण कर अनेक लोगों को मार दिया। इस घटना को खूनी इतवार की घटना कहा जाता है। परिस्थिति पर काबू पाने के लिए सम्राट ने शासन सुधारों की घोषणा की। यह घोषणा शासन-तंत्र द्वारा आत्मसमर्पण जैसा ही था। ड्यूमा को जनता का प्रतिनिधि संस्था मान लिया गया। लेकिन सम्राट ने डयूमा का प्रथम और द्वितीय अधिवेशन का विघटन कर दिया। इससे जनता तिलमिला उठी।
रूस एक कृषि प्रधान देश था, परंतु अलेक्जेंडर द्वितीय द्वारा 1861 में कृषि दासों की मुक्ति की घोषणा के उपरांत भी कृषकों की स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई थी। उन्नीसवीं सदी के अंत तक बीस हजार बड़े किसानों के पास लगभग 1800 लाख एकड़ भूमि थी, जबकि एक करोड़ से अधिक किसानों के पास केवल 1900 लाख एकड़ भूमि थी। कृषक जनसंख्या का तिहाई भाग भूमिहीन था। 1902 में हारकोवा और पोल्टावा तथा 1905 में यूक्रेन, काकेशस आदि के कृषकों ने विद्रोह किया। 1906 के कम्यून से अलग भूमि कटने का अधिकार कानून तथा 1910 के भूमि का समेकीकरण करने का कानून, से कुछ कृषकों को लाभ तो हुआ, परंतु भूमिहीन कृषकों को लाभ नहीं हुआ और कृषकों की दरिद्रता में कमी नहीं हुई। ऐसी स्थिति में कृषकों का विद्रोही होना अवश्यंभावी हो गया।
रूस के जार अलेक्जेंडर द्वितीय के समय पश्चिमी यूरोप के प्रमुख राज्यों में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी। औद्योगिक क्रांति का प्रभाव रूस में भी पड़ा। अलेक्जेंडर तृतीय के समय औद्योगिक उत्पादन बढ़ा। हजारों भूमिहीन कृषक उद्योगों में काम करने लगे। उद्योगपतियों ने अपने फायदे के लिए मजदूरों का शोषण करना आरंभ कर दिया। मजदूरों को अपने शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का अधिकार नहीं था। यद्यपि 1885 के उपरांत कुछ श्रमिक कानून बनाये गये, परंतु मजदूरों की हालत दयनीय बनी रही। क्रांतिकारी समाजवादी दल ने जो कि कृषकों में भी घुसपैठ बना चुका था इधर, मजदूरों को भी संघर्ष के लिए तैयार किया। श्रमिक दुर्घटना क्षतिपूर्ति अधिनियम 1903, स्वास्थ्य बीमा योजना 1912 आदि के द्वारा श्रमिकों को संरक्षण प्रदान किया गया, परंतु मजदूरों का असंतोष दूर नहीं हुआ। ये मजदूर पूंजीवादी व्यवस्था एवं जारशाही की निरंकुशता को समाप्त कर सर्वहारा वर्ग का शासन स्थापित करना चाहते थे।
तत्कालीन रूसी समाज की स्थिति वैसी ही थी जैसी 1789से पूर्व फ्रांस की थी। रूसी समाज दो भागों में विभक्त था-प्रथम विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग या जिसमें शासक, जमींदार वर्ग के लोग थे। दूसरा अधिकार हीन वर्ग था जिसमें किसान-मजदूर थे। इस प्रकार रूसी समाज में भारी आर्थिक एवं सामाजिक विषमता थी। फलतः यह वर्ग संघर्ष रूसी क्रांति का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
रूसी क्रांति में वहां के बुद्धिजीवी वर्ग का महत्वपूर्ण सहयोग था। पश्चिमी यूरोप के उदारवादी विचारों का प्रसार यहां भी हुआ। रूस के टॉल्सटाय, तुर्गनेव, दोस्तोवस्की जैसे उपन्यासकारों ने रूसी जीवन की विषमताओं का चित्र अपने साहित्यों में उतारकर जनता का ध्यान आकृष्ट किया। इनके विचारों से लोगों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हुई। शिक्षित वर्ग राजनीतिक अधिकारों की मांग करने लगा। इनके साथ ही कार्ल मार्क्स, मैक्सिम गोर्की आदि आदि के समाजवादी विचारों का भी देश के श्रमिकों एवं बुद्धिजीवियों पर प्रभाव पड़ा।
रूस में 1860 के बाद से ही किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति को लेकर मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों ने समाजवादी विचारधारा के आधार पर आंदोलन शुरू कर दिया था। 1883 के बाद समाजवादी दल दो भागों-क्रांतिकारी समाजवादी दल तथा सोशल डेमोक्रेटिक दल में बंट गया। सोशल डेमोक्रटिक दल 1903 में बोल्शेविक और मेनशेविक दल में बंट गया। 1905 में रूस के जापान द्वारा पराजित होने के बाद से ही जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध में भी रूस को हानि हुई। इससे जनता में असंतोष और बढ़ गया। 1916-17 के शीतकाल में रूस में आर्थिक संकट के कारण घोर असंतोष व्याप्त था। देश में खाद्यान्न अनाज, कपड़े आदि की घोर कमी थी। लोग इसके लिए जार को उत्तरदायी समझते थे। सरकार ने देश की अव्यवस्था को खत्म करने का प्रयास किये, परंतु उसका कुछ फायदा नहीं हुआ। अंत में 7 मार्च, 1917 को स्थिति अनियंत्रित हो गयी। गरीब मजदूरों ने भूख के कारण पेट्रोग्राड की सड़कों पर दुकानों को लूटना आरंभ कर दिया। सम्राट के आदेश के बाद भी सैनिकों ने गोलियां चलाने से इंकार कर दिया। यही क्रांति का आरंभ था। 7 नवंबर, 1917 की बोल्शेविक क्रांति के पश्चात रूस में सोवियत समाजवादी गणतंत्र की स्थापना हुई।
परिणाम और महत्व की दृष्टि से बीसवीं सदी के इतिहास में रूस की क्रांति सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी। फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप लोकतंत्र, राष्ट्रवाद और राजनीतिक समता का प्रादुर्भाव हुआ था। किंतु, 1917 की रूसी क्रांति उससे कहीं आगे बढ़ गयी। इसके फलस्वरूप एक नयी सामाजिक व्यवस्था का आदर्श उपस्थित हुआ। साम्यवाद के रूप में संसार में एक नयी विचारधारा आरंभ हुई जो एक नये समाज, नयी सभ्यता-संस्कृति का संदेश लेकर आयी। फ्रांस की क्रांति ने अभिजातीय कुलीन वर्ग के हाथ से सत्ता छीनकर बुर्जुआ वर्ग के हाथ में सौंप दी, पर रूस की क्रांति ने कुलीन और बुर्जुआ दोनों वर्गों को समाप्त कर सत्ता किसानों-मजदूरों को सौंप दी और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित कर दिया।
रूस की गरीब जनता को सुखी बनाने के लिए लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार ने रूस में एक नया प्रयोग किया जिसके द्वारा वहां एक वर्ग विहीन समाज का निर्माण किया गया तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का पूर्णतः अंत कर दिया गया। अब प्रत्येक श्रमिक अपने परिश्रम का उपभोग स्वयं कर सकता था। इस व्यवस्था का प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ा। इससे प्रेरित होकर विश्व में पूंजीवादी विचारधारा के समानान्तर समाजवादी-साम्यवादी विचारधारा चल पड़ी जो आज भी जीवित है। इससे संसार के मजदूरों को एकता की प्रेरणा मिली। इसके प्रभाव से सर्वहारा वर्ग में जागृति उत्पन्न हुई। वैसे सोवियत संघ का अस्तित्व मात्र ही दुनिया के लिए भारी प्रभाव-ड्डोत था। नवंबर क्रांति के दो दशकों के भीतर ही यह प्रमाणित हो गया कि संसार में एक नयी अर्थव्यवस्था का उदय हो चुका है जो मौजूदा सभी व्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक उत्तम है। विश्व में स्वतंत्र उद्योग और पूंजीवाद का एक ठोस विकल्प अस्तित्व में आ गया था। 1930 के दशक में अनेक देशों में योजनाकरण को स्वीकृति मिलने लगी थी। एशिया की पिछड़ी हुई और दासता के बंधनों में जकड़ी हुई जनता रूस की उपलब्धियों से विशेष रूप से प्रभावित हुई। रूस ने उन्हें दिखाया कि किस प्रकार एक अत्यंत पिछड़ा देश बिना किसी विदेशी सहायता के एक औद्योगिक वैज्ञानिक सभ्यता का विकास कर सकता है। रूस की महान उपलब्धियों ने पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था को रक्षात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर किया। 1929 की आर्थिक मंदी ने विश्व के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। अधिकांश पूंजीवादी देश मंदी के शिकार हो गये, पर रूस की साम्यवादी अर्थव्यवस्था फलती-फूलती रही।
संसार की पराधीन जातियों और यूरोप के साम्राज्यवादी देशों पर रूसी क्रांति का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा। पराधीन जातियों के स्वतंत्रता संग्राम में मदद देने तथा साम्राज्यवादी देशों को परेशान करने के उद्देश्य से रूस ने कामिंटर्न नामक संस्था की स्थापना की। इसका मकसद था पूंजीवादी देशों का तख्ता पलटना। कामिंटर्न की अनुप्रेरणा से विभिन्न मार्क्सवाद-अनुप्रेरित श्रमजीवी आंदोलनों का जन्म हुआ जिन्होंने साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रमक राष्ट्रवादी रवैया अपनाया। इस प्रकार पृथ्वी पर जहां भी यूरोपीय देशों की जंजीरों से लोग बंधे थे, रूस उनका दोस्त और मददगार हो गया। फ्रांस में क्रांति के पश्चात भी उसके उपनिवेश ज्यों के त्यों बने रहे, पर रूस ने क्रांति के पश्चात अपने सारे अपनिवेशों को मुक्त कर दिया।
Question : ‘सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र-संघ का हृदय है।’
(2003)
Answer : संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक अंग हैं, जिनमें महासभा तथा सुरक्षा परिषद प्रमुख हैं। महासभा संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों में सर्वाधिक वृहत है। महासभा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा संबंधी प्रश्नों के समाधान में प्रमुख रूप से भाग लेता है। परंतु संयुक्त राष्ट्र की संपूर्ण शांति सुरक्षा परिषद् में निहित है। सुरक्षा परिषद को अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा का पहरेदार माना जाता है। महासभा की अपेक्षा सुरक्षा परिषद बहुत ही छोटा सदन है परंतु उसकी शक्ति महासभा की अपेक्षा बहुत व्यापक है। यदि महासभा मानवता की सर्वोच्च शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है तो सुरक्षा परिषद विश्व की सर्वोच्च शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। राजनीतिक विषयों में सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र का कार्यपालकीय अंग है। वस्तुतः सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र का हृदय है। संयुक्त राष्ट्र के दूसरे अंग कार्य कर रहे हों या न कर रहे हों, वर्ष का कोई भी समय हो या कैसा ही मौसम हो, सुरक्षा परिषद अपना कार्य करती रहती है।
सुरक्षा परिषद के अंदर समूचे विश्व समुदाय के प्रमुख पांच महाशक्तियों का समुदाय है, जिनकी मित्रता एवं मतैक्य पर ही विश्व की शांति एवं सुरक्षा कायम रह सकती है। ये पांच स्थायी सदस्य हैं: सं- रा- अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस और चीन। सुरक्षा परिषद विश्व की शांति एवं सुरक्षा की रक्षा हेतु पुलिस दायित्व से संपन्न है तथा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक सजग प्रहरी का कार्य करता है। इसका सत्र कभी समाप्त नहीं होता है और शांति के लिए संकट सिद्ध होने वाले, शांति भंग अथवा आक्रमक कृत्यों की विद्यमानता पर शीघ्र निर्णय लेकर उनके निराकरण के लिए तुरंत एवं प्रभावी कार्यवाही करने में पूर्णतः सक्षम है। सुरक्षा परिषद के क्षेत्रधिकार में आने वाले बहुत-से संगठनात्मक विषयों में उसे कानूनी रूप से बाध्यकारी अधिकार प्राप्त हैं। नये राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान करना, महासचिव का चयन, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति आदि सभी ऐसे कार्य हैं जो महासभा से मिलकर करते हैं तथा बाध्यकारी प्रभाव भी रखते हैं। प्रमुख रूप से विश्व-शांति एवं सुरक्षा उसका कार्य क्षेत्र है। सुरक्षा परिषद अपने आंतरिक मामलों का स्वयं निर्णय करती है जहां तक शांति एवं सुरक्षा संबंधी निर्णयों को लागू करने का प्रश्न है केवल सुरक्षा परिषद ही शांति भंग करने वाले के विरुद्ध कठोर कार्यवाही कर सकती है। नये सदस्यों को मान्यता प्रदान करने के क्षेत्र में भी सुरक्षा परिषद को महासभा की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का महासचिव भी सुरक्षा परिषद की िसफारिश पर ही महासभा द्वारा नियुक्त किया जाता है। उपरोक्त अधिकार एवं कार्यों के चलने सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र का हृदय अवश्य है पर अभी भी यह संपूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही इसका स्थायी सदस्य न हो तब इसके हृयताा पर प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाता है।
Question : ‘17 मार्च 1948 की ब्रसेल्स संधि ने ‘नाटो’ के गठन का मार्ग प्रशस्त किया था।’
(2003)
Answer : द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत पश्चिमी यूरोप के देश साम्यवादी सोवियत संघ के पूर्वी एवं मध्य यूरोप में बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। 17 मार्च, 1948 में बेल्जियम, फ्रांस, लक्जेमबर्ग, ब्रिटेन तथा नीदरलैंड्स द्वारा आपसी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सैनिक सहयोग को सुनिश्चित करने के लिए ब्रुसेल्स संधि पर हस्ताक्षर किये गये। इस संधि की अवधि पचास वर्ष निर्धारित की गयी थी। इस संधि में पांचों शक्तियों ने यह बचन दिया था कि यदि यूरोप में उनमें से किसी पर आक्रमण हुआ तो शेष सभी चारों देश हर संभव सहायता देंगे। यह संधि यद्यपि रक्षात्मक थी, परंतु सोवियत गुट ने इस संधि को अपने विरुद्ध पश्चिम के गठबंधन का नाम दिया। शीघ्र ही इन पांचों राष्ट्रों ने यह अनुभव किया कि अमेरिका के सहयोग के बिना सोवियत संघ की शक्ति को संतुलित करना असंभव है। कुछ समय बाद ही अमेरिका एवं कनाडा के साथ व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात इन्हें भी इस संधि में शामिल करने का निर्णय लिया गया।
यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें सैनिक गुटबंदी के दिशा में पहला अतिशक्तिशाली कदम अमेरिका ने ‘उत्तरी अटलांटिक सैन्य संगठन’ यानी ‘नाटो’ के गठन का कदम उठाया। बर्लिन की घेराबंदी और बढ़ते हुए सोवियत प्रभाव को ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने स्थिति को स्वयं अपने हाथों में लेने का निर्णय लिया। इसके गठन का मुख्य उद्देश्य सोवियत प्रभाव को सीमित रखने तथा उसके किसी भी संभावित आक्रमण का सैन्य प्रत्युत्तर देगा। अतः संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 51 में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन, उत्तर-अटलांटिक संधि पर हस्ताक्षर किये गये। हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रों में अमेरिका, कनाडा, यूरोप के दस राष्ट्र-बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्जेमबर्ग, नीदरलैंड, नार्वे, पुर्तगाल और ब्रिटेन थे। इसका मुख्यालय ब्रसेल्स में है। नाटो संधि को मूल रूप से 20 वर्षों के लिए बनाया गया था, किंतु 1969 ई- में इसकी अवधि 20 वर्षों के लिए बढ़ा दी गयी। प्रत्येक दस वर्ष बाद संधि पर पुनर्विचार किया जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाटो के समस्त सदस्य देशों ने भौतिक, आर्थिक, राजनीतिक तथाभावनात्मक रूप से अनेक नुकसान उठाये। दूसरी तरफ सोवियत संघ द्वारा उन पर बर्चस्व स्थापित करने का खतरा मौजूद था। ऐसी अवस्था में शक्तिशाली अमेरिका ही उनके लिए आशा की किरण था, जो उनके आर्थिक पुनर्निर्माण की सबसे बड़ी आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम था। इसी बात को महसूस करते हुए उन्होंने अमेरिका के नेतृत्व में नाटो में सम्मिलित होना स्वीकार किया।
Question : शीत युद्ध की समाप्ति के लिए उत्तरदायी कारकों का विश्लेषण कीजिए और विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व के कारण बताइए।
(2003)
Answer : पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों के पतन तथा सोवियत संघ के विघटन को शीत युद्ध की समाप्ति का सूचक माना जाता है। सोवियत संघ के विघटन ने शीतयुद्ध काल की एक महाशक्ति के अस्तित्व को अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक पटल से विलोपित कर दिया। अब संयुक्त राज्य अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में वर्चस्वमान था। 1990 में शीतयुद्ध की समाप्ति हुई। जिस समय शीत युद्ध की समाप्ति हुई थी, उस समय स्वयं पश्चिमी पूंजीवादी देशों को भी शीतयुद्ध जीतने की प्रत्याशा नहीं थी। दूसरी ओर उस समय भी पूर्वी ब्लॉक के देश पूंजीवादी पद्धति के आंतरिक विनाश की उम्मीद लगाये बैठे थे। शीतयुद्ध की समाप्ति के निम्नलिखित कारण हैं:
1- गोर्वाच्योव एवं रीगन की भूमिका: शीतयुद्ध की समाप्ति गोर्वाच्योव एवं रीगन जैसे दो महत्वपूर्ण नेताओं के काल में हुआ। अमेरिका और सोवियत रूस के बीच 1945 के पश्चात् तनाव बढ़ने लगे थे। 1950 वाले दशक से ही तनाव को कम करने की अनेक कोशिशें की गयीं। पचास-साठ के दशक में एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र राज्य दुनिया के मामलों में स्वतंत्र भूमिका निभाने का आग्रह लेकर चले। इस काल में किसी भी सैनिक गुट में शामिल होने से उनका इंकार शांति का वातावरण तैयार करने में सहायक सिद्ध हुआ। इन देशों के एक साथ हो जाने से गुट निरपेक्ष आंदोलन का जन्म हुआ जिसने शीत युद्ध के तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1960 वाले दशक से शीत युद्ध का वातावरण कभी-कभी ढीला पड़ा और तनावों में कुछ कमी आयी। गुटनिरपेक्ष देशों ने किसी भी प्रकार के सैनिक गठबंधनों में शामिल होने से इंकार कर दिया था।
2- वियतनाम युद्ध का प्रभाव: साम्यवाद के परिसीमन की नीति के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका को वियतनाम से एक लंबी लड़ाई में उलझना पड़ा। वियतनाम में संयुक्त राज्य द्वारा चलायी जाने वाली लड़ाई अमेरिका के इतिहास की सबसे आलोकप्रिय लड़ाई थी। सारी दुनिया के लोगों ने उसकी निंदा की। व्यापक धन-जन की हानि के बावजूद अमेरिका को कुछ खास प्राप्त नहीं हुआ। एशिया के एक छोटे से देश के हाथों दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक शक्ति की पराजय ने अमेरिका के गर्व को तोड़ दिया। अंगोला में भी अमेरिका को बाहर होना पड़ा। स्वेज की लड़ाई एवं क्यूबा के मामले में सोवियत रूस एवं अमेरिका के बीच आमने-सामने की युद्ध की स्थिति आ गयी थी।
शीतयुद्ध की नीति को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बातों में एक इस बात की अनुभूति निहित थी कि मानव इतिहास के पहले के किसी भी दौर के विपरीत आज संपूर्ण युद्ध के लिए तत्परता अंतर्राष्ट्रीय मामलों को सुलझाने का आधार नहीं हो सकती। परमाणु युद्ध के प्रभावों पर प्रचार की गयी वैज्ञानिकों की रिपोर्टों तथा शस्त्रीकरण की होड़ तथा सुनिश्चित पारस्परिक विनाश एवं परमाणु भयोत्पादन के सिद्धांतों के खिलाफ उनके द्वारा उठायी गयी आवाज तथा विश्व के प्रत्येक भाग में युद्ध विरोधी आंदोलनों ने तनाव में कमी का वातावरण तैयार करने में महत्वपूूर्ण भूमिका निभायी। 1960 के दशक के आरंभ से ही कठोर सैनिक गठबंधनों के टूटने के लक्षण प्रकट हो रहे थे। 1956 से सोवियत नेता शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर जोर देने लगे थे।
3- साम्यवादी देशों में विभेद: 1950 वाले दशक के अंतिम वर्षों में साम्यवादी आंदोलन में जो विभेद पैदा होना शुरू हुआ, उसके कारण साम्यवाद के विस्तार के खतरे के सिद्धांत का आकर्षण काफी कुछ समाप्त हो गया। सोवियत संघ एवं चीन की शत्रुता के कारण साम्यवाद के भय में कमी आयी। 1961 में अलबानिया वार्सा पैक्ट से अलग हो गया तथा रोमानिया सोवियत संघ से स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण करने लगा। 1970 वाले दशक के आरंभिक दौर में चीन के साथ अमेरिका के संबंधों में सुधार आया। संयुक्त राज्य की अगुवाई में बनाये गये सैनिक गठबंधनों में भी बदलाव आये। 1979 में सोवियत संघ ने अफगान विद्रोहियों के खिलाफ वहां की सरकार की सहायता के लिए अपने सैनिक अफगानिस्तान भेजे। वहां व्यापक धन और जन की क्षति सोवियत संघ को उठानी पड़ी। शीत युद्ध की समाप्ति में निःशस्त्रीकरण की संधियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जैसे 1963 का टेस्ट बैन ट्रीटी युद्ध नीति, शस्त्रस्त्र परिसीमन वार्ता, परमाणु अप्रसार संधि आदि।
सोवियत का विघटन: 1980 वाले दशक की समाप्ति के बाद से दुनिया में जो परिवर्तन हुए उनमें से कुछ दूरगामी महत्व के हैं। एक राय के रूप में सोवियत समाजवादी गणतंत्रों के संघ के रूप में सोवियत संघ के बिखरने के बाद सोवियत संघ के 15 गणतंत्र राज्य बन गये। इन राज्यों और साथ ही पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी दलों का शासन समाप्त हो गया। सोवियत संघ रूसी क्रांति के बाद से ही विश्व राजनीति में एक बड़ी ताकत के रूप में काम करता रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह एक गुट का अगुआ था और पूर्वी यूरोप के देशों सहित वह संयुक्त राज्य अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप की सैनिक शक्ति और राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के लिए एक जबर्दस्त चुनौती माना जाता था। परंतु सोवियत संघ के पतन के बाद यह चुनौती समाप्त हो गयी और संयुक्त अमेरिका सर्वेसर्वा बनकर उभरा। वस्तुतः सोवियत संघ के पतन के पश्चात रूस को उसके उत्तराधिकार प्राप्त हुआ किंतु विघटित रूस की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। शीतयुद्ध को जारी रखने के बजाय उसने अपनी अर्थव्यवस्था के सुधार को प्राथमिकता दी। आर्थिक क्षेत्र में उसने साम्यवादी सिद्धांतों को तिलांजलि देकर पूंजीवादी सिद्धांतों को स्वीकार किया।
सोवियत संघ की समाप्ति के पश्चात सोवियत संघ के खाली स्थान की पूर्ति करने की क्षमता किसी भी राष्ट्र में नहीं थी। आर्थिक सुदृढ़ता, राजनीतिक स्थिरता, वैज्ञानिक प्रगति तथा व्यापक सामाजिक क्षमता के गठजोड़ ने अमेरिका को तुलनात्मक रूप से सर्वोच्चता की स्थिति में पहुंचा दिया। यही से विश्व में अमेरिकी प्रभुत्ववाद के दौर का आरंभ हुआ। इस प्रभुत्व के अनेक कारण हैं:
अमेरिका की आर्थिक स्थिति: अमेरिका की आर्थिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका की अर्थव्यवस्था को कोई क्षति नहीं हुई थी। महामंदी के संकट को भी उसने हल कर लिया था। 1940 से 1987 के बीच अमेरिका का सकल घरेलू उत्पादन 100 अरब डालर से बढ़कर 5200 अरब डालर पर पहुंच गया। उसके पास विपुल प्राकृतिक साधन भी है। विश्व के औद्योगिक उत्पादन में 1980 में उसका हिस्सा 45 प्रतिशत था। अर्थव्यवस्था के विकसित होने के कारण वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी सबसे अधिक धन खर्च करने में सक्षम है। इसलिए विज्ञान के क्षेत्र में अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम के क्षेत्र में वह आगे है। आर्थिक सहायता देने वाले संगठनों में भी उसकी सबसे ज्यादा पूंजी लगी हुई है। इन संगठनों का नीति निर्माता वही है। विश्व के कर्जदार देशों पर अमेरिका इन्हीं संगठनों के माध्यम से नियंत्रण बनाये रखता है।
राजनीतिक प्रभुत्वः अपनी आर्थिक तथा सैन्य शक्ति के माध्यम से अमेरिका ने विश्व में राजनीतिक वर्चस्व कायम किया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्णयों को अमेरिकी हितों के अनुरूप प्रभावित किया जाता है। अमेरिका संयुक्त राष्ट्र का उपयोग विश्व में अपने राजनीतिक प्रभुत्व के लिए करता है। विभिन्न विकासशील देशों की सरकारों को उत्तरदायी शासन, मानवाधिकार, नागरिक स्वतंत्रता आदि के संबंध में दिये जाने वाले अमेरिकी दिशा-निर्देश भी उसके राजनीतिक प्रभुत्व को व्यक्त करते हैं।
सामरिक क्षमता और परमाणु हथियारों के संग्रह की दृष्टि से अमेरिका अन्य देशों से काफी आगे है। वर्तमान में भी अमेरिका सैन्य क्षमता की कटौती करने के बजाय विस्तार किये जा रहा है। नवीनतम प्रौद्योगिकी पर आधारित अत्यंत संहारक हथियारों का संग्रह उसके पास है। नौ सैनिक एवं वायु सेना की शक्ति के मामले में भी वह विश्व में सबसे आगे है। इस प्रकार सैनिक क्षमता में भी वह विश्व में सर्वोच्च है। उपरोक्त विशेषताओं के कारण अमेरिका का प्रभुत्व विश्व में फैला हुआ है।
Question : बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण वोटों और भाषणों की बहुसंख्या द्वारा नहीं बल्कि ‘रक्त एवं लौह’ की नीति के द्वारा किया था। इस कथन के प्रकाश में जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क के योगदान का आकलन कीजिए।
(2003)
Answer : जर्मनी एकीकरण का सूत्रधार बिस्मार्क 1862 में प्रशा का चांसलर बना। उसके द्वारा प्रशा के चांसलर के पदभार ग्रहण करने के साथ ही देश के एकीकरण आंदोलन ने एक नया यथार्थवादी और व्यावहारिक रूप अख्तियार किया। बिस्मार्क यथार्थवादी का शास्त्रीय अभ्यासकर्ता था और उसका दृढ- विश्वास था कि समकालीन महान प्रश्नों का समाधान बौद्धिक भाषणों, आदर्शवाद अथवा बहुमत के निर्णय से नहीं वरन् ‘रक्त और लौह’ अर्थात युद्ध द्वारा ही किया जा सकता है।
वास्तव में बिस्मार्क विजय हासिल कर जर्मनी के बिखरे क्षेत्रों को एक करना चाहता था। तत्कालिक प्रभावशाली देश यू.के., फ्रांस, रूस और आस्ट्रिया-जर्मनी के एकीकरण के पक्ष में नहीं थे क्योंकि एक शक्तिशाली एकीकृत जर्मनी यूरोप के शक्ति संतुलन के लिए सबसे खतरा था। ऐसी परिस्थिति में बिस्मार्क एकीकरण के लिए विदेशी सहायता की अपेक्षा नहीं करता था और न ही वह आशा करता था कि जर्मनी के छोटे-छोटे राज्य ही सहायक होंगे। बिस्मार्क का विश्वास था कि जर्मनी की एकता के लिए प्रशा को युद्ध करना होगा। वस्तुतः बिस्मार्क जर्मनी का एकीकरण के नेतृत्व में करना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि एकीकरण के क्रम में प्रशा अपना अस्तित्व खो दे। वह चाहता था कि जर्मनी के प्रांत प्रशा की शक्ति की वास्तविकता को समझकर उससे जुड़ जाये। यह तभी संभव था जब जर्मनी के कुछ प्रांतों पर अधिकार जमाये आस्ट्रिया को जर्मनी से बाहर किया जा सके। इसके लिए कूटनीति और युद्ध दोनों की जरूरत थी और इन युद्धों द्वारा जर्मनी में राष्ट्रीयता की भावना जागृत कर जर्मनी को अपने राजाओं के विरुद्ध विद्रोह कराकर उनको प्रशा में मिलने के लिए प्रेरित करना होगा।
बिस्मार्क अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक दशक में तीन युद्ध किये तथा जर्मनी के राष्ट्रीय एकीकरण का सपना साकार किया। वह स्पष्टतः देख रखा था कि आस्ट्रिया को जर्मनी की राजनीति से निकाल बाहर किये बिना एकीकरण का मकसद हासिल नहीं किया जा सकता। अतः उसने अविलंब तैयारी शुरू कर दी।
इसी समय श्लेसबिग और हाल्सटाइन के दो लघु राज्यों की समस्या सामने आयी। बिस्मार्क को अपनी नीति के कार्यान्वयन के लिए बना बनाया अवसर मिल गया। श्लेसबिग में कुछ डेनमार्क और जर्मन मूल के लोग बसे हुए थे। डेनमार्क उसे अपने देश का अभिन्न अंग बनाना चाहता था। जो पूर्व की संधि के विपरीत था। इसे रोकने के लिए बिस्मार्क ने अपनी कूटनीतिज्ञता, अवसरवादिता एवं राजनीतिक योग्यता का परिचय देते हुए आस्ट्रिया से समझौता कर लिया। यह मैत्री बिस्मार्क की पहली विजय थी। सन् 1864 को आस्ट्रिया एवं प्रशा की सुयंक्त सेना ने डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। डेनमार्क को कहीं से भी सहायता नहीं मिली। फलतः वह युद्ध हार गया। वियना भू-(अक्टूबर 1864) संधि के अनुसार डेनमार्क को श्लेसबिग और हाल्सटाइन की ही नहीं बल्कि लाबेनबुर्ग की डच बाहुल्य क्षेत्र भी आस्ट्रिया और प्रशा के संयुक्त अधिकार में छोड़ देनी पड़ी। इन क्षेत्रों को लेकर दोनों के बीच मतभेद हो गया। अंततः 14 अगस्त, 1865 को आस्ट्रिया और प्रशा के बीच गेस्टाइन का समझौता हुआ।
इस समझौते के अनुसार-लाबेनबुर्ग की डची प्रशा को बेच दी गयी और श्लेशबिग भी प्रशा के पास ही रहे, जबकि हाल्सटाइन- आस्ट्रिया के अधिकार में रहे। कील की बंदरगाह पर दोनों का अधिकार हो गया लेकिन किलेबंदी करने का अधिकार प्रशा के पास ही रहा।
यह समझौता बिस्मार्क की महान कूटनीतिक विजय थी। क्योंकि बिस्मार्क ने बड़ी कुशलता के साथ डचियों के प्रश्न और आस्टनबुर्ग के ड्यूक को अपने मार्ग से हटाकर आस्ट्रिया के साथ संघर्ष करने की भविष्य में बहुत गुंजाइश छोड़ रखी थी। आस्ट्रिया को हाल्सटाइन अवश्य मिला, किंतु वहां की जनता जर्मन थी तथा वह प्रशा की सीमा से सटा था। ऐसी स्थिति में भविष्य में विद्रोह भड़का कर हॉल्सटाइन को प्रशा में मिलाने की बिस्मार्क के पास अच्छा असर था।
शीघ्र ही लघु राज्यों के प्रश्नों को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ। आवागमन के मार्ग पर अधिकार, आंतरिक शांति बनाये रखने का प्रश्न आदि ऐसे मुद्दे थे, जिन पर मतभेद बढ़ता गया। अंत में बिस्मार्क ने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी कि युद्ध का छिड़ना अवश्यसंभावी हो गया।
गेस्टाइन के समझौता और 1866 के युद्ध के बीच बिस्मार्क ने अपने पक्ष में वातावरण बनाने हेतु आस्ट्रिया को मित्रहीन बनाने की नीति का अवलंबन किया जिसमें उसे सफलता भी मिली।
इसी टकराव की पृष्ठभूमि में 1866 में आस्ट्रिया-प्रशा के मध्य युद्ध आंरभ हुआ। सेडोवा के निर्णायक युद्ध में आस्ट्रिया हार गया। इस हार के साथ बिस्मार्क के लिए मैदान खाली था। शीघ्र ही उसने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाना आरंभ कर दिया। इनमें हनोवर, कासेक, नारसालिया, श्लेशबिग, हाब्सटाइन प्रमुख थे। जर्मन महासंघ को विघटित कर दिया गया और दक्षिण के चार जर्मन राज्यों को छोड़कर सभी उत्तरी राज्यों का एक परिसंघ बना जिसका नेता प्रशा था। इस तरह जर्मनी के एकीकरण का प्रथम चरण पूरा हुआ।
चार दक्षिणी राज्य बवेरिया, बाडेन, बुटेम्बर्ग और हेस नये संगठन के बाहर थे। यह स्पष्ट था कि स्थिति अभी तक अस्थिर ही थी। दक्षिण राज्य अंतिम में लटके ही छोड दिये गये। लेकिन अंदर ही अंदर बिस्मार्क प्रशा में मिलाये जाने की भूमि तैयार करता रहा। उधर फ्रांस प्रशा की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित था। उसे इसब बात की चिंता खाये जा रही थी कि बिना फ्रांस का सहयोग लिए प्रशा आस्ट्रिया को हराने में सफल रहा। वस्तुतः सेडोवा में अप्रत्यक्ष तौर पर फ्रांस हारा था। वह किसी भी कीमत पर इन राज्यों को प्रशा के साथ विलय होने देने के पक्ष में नहीं था। ऐसी अवस्था में हर जगह यह अनुभव किया जाने लगा कि इन चार राज्यों को लेकर फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध होना निश्चित है।
दक्षिणी जर्मन राज्य में फ्रांस के प्रति फैली दुर्भावना को बिस्मार्क ने और तीव्र कर दिया। उनमें इतनी अधिक राष्ट्रीयता की भावना जागृत कर दी गयी कि दूसरे राष्ट्र पर निर्भर रहना अब उसे अपमानजनक प्रतीत होता था। बिस्मार्क को ऐसा लगा कि फ्रांस और आस्ट्रिया का युद्ध इन छोटे-छोटे राज्यों को भयक्रांत कर देगा और वे प्रशा के साथ मिल जाने पर बाध्य हो जायेगें। इसी कारण प्रशा युद्ध के लिए बिस्मार्क ने के नेतृत्व में पूरी सैनिक तैयारी कर लिया।
फलतः 15 जुलाई, 1870 को कुछ महत्वहीन कारणों को लेकर (लक्सेमबर्ग तथा स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकारी की समस्या) नेपोलियन III ने प्रशा पर आक्रमण कर दिया।
जर्मनी के राष्ट्रीय एकीकरण को पूरा करना ही युद्ध की नियति थी। फ्रांस-प्रशा युद्ध में जैसा कि अनुमान लगाया गया था प्रशा को दक्षिण राज्यों का समर्थन मिला। इस युद्ध में फ्रांस निर्णायक रूप से बुरी तरह सेडान में पराजित हुआ। विजयी सेना पेरिस में प्रवेश कर गयी। बिस्मार्क ने फ्रांस की पराजय का उपयोग जर्मनी के एकीकरण को पूरा करने में किया। राष्ट्रीय उत्साह से दक्षिण जर्मन राज्यों को जर्मन परिसंघ में मिल जाने के लिए प्रेरित किया। सेडान युद्ध से यूरोप ने एक स्थान खोकर एक नया शक्ति को जन्म दिया।
18 जनवरी, 1871 को एकीकृत जर्मनी के सूर्य का उदय हुआ। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जर्मनी के एकीकरण की सिद्धि सचमुच बिस्मार्क के ‘रक्त और लौह’ की नीति के जरिये हुई।
Question : ‘फ्रांस की क्रांति ने विशेषाधिकारों पर आक्रमण किया था न कि संपत्ति पर।’
(2003)
Answer : किसी भी देश में होने वाली क्रांति उस देश की जनता की स्थिति और मनोदशा में निहित रहती है। तत्कालीन फ्रांसीसी समाज विषम एवं विघटित था। वह सामन्तवादी पद्धति, असमानता और विशेषाधिकार के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित था। समाज मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त था- पादरी, कुलीन वर्ग और सर्वसाधारण। उच्च पादरी एवं कुलीन सुविधा प्राप्त वर्ग थे और कृषक, मजदूर तथा मध्यम श्रेणी के लोग सुविधाहीन वर्ग के थे। प्रत्येक वर्ग की भीतर, विभिन्न श्रेणियों के बीच अधिकारों एवं सुविधाओं की दृष्टि से भारी विषमताएं थीं। फ्रांस की सामाजिक व्यवस्था का आधार कोई विधान या कानून नहीं वरन् विशेषाधिकार, रियायतें और छूटें थीं। इस प्रकार की व्यवस्था के फलस्वरूप जन-जीवन में संशय, अविश्वास एवं असंतोष ही पनप सकता था। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि फ्रांस की कुल जनसंख्या के अनुपात में विशेषाधिकार प्राप्त उच्च वर्ग के लोगों की संख्या एक प्रतिशत से अधिक नहीं था। उच्च पादरी तथा कुलीन वर्ग को प्रदत्त विशेषाधिकारों ने जनसामान्य को विरोधी बना दिया। अगर राजा विशेषाधिकार का प्रश्न हल कर देता और मध्यम वर्ग को उचित स्थान दिला देता तो शायद क्रांति नहीं होती। वास्तव में जब क्रांति हुई तो मुख्यतः राजा के निरंकुश एकतंत्र के विरुद्ध नहीं, वरन् विशेषाधिकारों से युक्त वर्गों-कुलीन व पुरोहित के विरुद्ध थी और क्रांतिकारियों ने आरंभ में उन्हीं को ही समाप्त किया।
फ्रांस में चर्च के पास अतुल संपत्ति थी और परंपरा के अनुसार वह राज्य के करों से मुक्त था। इसके साथ ही शिक्षा, जन्म-मृत्यु के आंकड़े, विवाह एवं अन्य सामाजिक और धर्मिक आदि पर उनका एकाधिकार-सा था। फ्रांस का चर्च ‘राज्य के अंदर राज्य’ था। इसी प्रकार कुलीन वर्ग को भी बहुत सारी सुविधाएं तथा अधिकार प्राप्त थे। राज्य, चर्च तथा सेना के सभी उच्च पद इसी वर्ग के हाथों में थे और फ्रांस की समस्त भूमि का पांचवां भाग उनके अधिकार में था। मध्यम वर्ग के लोग भी ऐसे उद्योग, व्यवसाय एवं पेशे से संबंधित थे जिसमें उन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता था जैसे व्यापारी, शिक्षक, वकील, डाक्टर आदि। लेकिन यह वर्ग विशेषाधिकारों से वंचित था। यह तथ्य उन्हें आत्म सम्मान के विरुद्ध लगता था। क्रांति के समय राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन में रात भर में बहुसंख्यक कुलीनों ने अपने विशेषाधिकार का त्याग कर दिया। किंतु संपत्ति पर किसी प्रकार का प्रहार नहीं किया गया। चर्च की संपत्ति छिन जरूर ली गयी। पर इससे बड़े-बड़े भूखंडों में बेचा गया जिसे केवल धनवान लोग ही खरीद सकते थे। भूमिहीन इन भूखंडों को खरीदेने की क्षमता नहीं रखते थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि फ्रांस की क्रांति ने संपति की जगह विशेषाधिकारों पर आक्रमण किया था।
Question : ‘फासीवाद के अभ्युदय की जड़ें शांति संधियों में थीं।’
(2003)
Answer : इटली में फासीवाद का जनक वेनिटो मुसोलिनी को माना जाता है। उसके नेतृत्व में इटली एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा। प्रादेशिक लाभ के प्रलोभन में पड़कर इटली प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से प्रविष्ट हुआ था। 1915 की लंदन की गुप्त संधि के अनुसार इटली को कई भू-भागों पर अधिकार दिलाने का आश्वासन दिया गया था। युद्धोपरांत इटली विजेताओं की पंक्ति में खड़ा था और प्रधानमंत्री ऑरलैंडों पेरिस शांति-सम्मेलन में आशा के साथ शामिल हुआ था। लेकिन, पेरिस के शांति-सम्मेलन में उसको बहुत ही कम प्रादेशिक लाभ प्राप्त हो सके और इटली के नेता निराशा और क्षोभ की भावना को लेकर ही पेरिस से वापस लौटे। फ्रांस और इंग्लैंड ने इटली को जिन प्रदेशों का प्रलोभन देकर युद्ध में अपने गुट में मिलाया था, उनमें से कुछ को छोड़कर शेष प्रदेश उसे नहीं मिले। इटली, आरलैंडों, फ्रयूम तथा अल्बानिया पर अधिकार चाहता था, पर उसे इसमें सफलता नहीं मिली। अफ्रीका में साम्राज्य-विस्तार की उसकी लालसा भी अधूरी रह गयी। युद्ध में इटली के लाखों सैनिक मारे गये और घायल हुए। अरबों डॉलर भी खर्च हुए। इटली को व्यय की तुलना में आय लगभग नगण्य ही हुई। फलस्वरूप, इटली राष्ट्रवादियों ने मित्र राष्ट्रों द्वारा किये गये विश्वासघात को जान लिया और इटली को ‘अतृप्त राष्ट्र’ घोषित किया। इन राष्ट्रवादियों ने इटली को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए उत्तरदायी कमजोर सरकार को बताया। वसार्य की संधि की शर्तों से उत्तेजित होकर इटली के प्रसिद्ध कवि डी अन्नुजियों ने फ्रयूम पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उसे अन्ततः वहां से हटना पड़ा। इस घटना ने इटली वासियों का असंतोष और अधिक बढ़ा दिया।
प्रथम विश्व युद्ध का घातक प्रभाव इटली की आर्थिक दशा पर पड़ा। युद्ध में जन-धन की अपूर्णीय क्षति भी हुई। वर्साय की संधि ने इटली को इस आर्थिक परिस्थिति से उबारने में जरा भी मदद नहीं की। देश की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। हजारों लोग भूखे मरने लगे। देश के वार्षिक बजट में भारी घाटा दिखाया गया और मुद्रा-स्फीति के कारण खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं के मूल्य काफी बढ़ गये। इटली की तत्कालीन सरकार इन आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने में सर्वथा विफल हो रही थी। संपूर्ण इटली में अशांति का वातावरण बन गया था। इस परिस्थिति ने इटली के संपत्तिशाली वर्ग को चिंतित कर दिया। अराजकता की इस स्थिति पर काबू पाने के लिए इटली के जमींदार वर्ग, धनी वर्ग, व्यवसायी वर्ग, भूतपूर्व सैनिक वर्ग तथा कुछ बुद्धिजीवियों ने अपने को संगठित करना शुरू कर दिया। वे ऐसी सरकार की स्थापना चाहते थे, जो देश को विनाश के गर्त से बचाकर उसको सही रास्ते पर ले जा सके। अतएव, विनाशकारी तत्वों से लोहा लेने के लिए वे प्रतिरोधी संगठन की स्थापना करने लगे। कुछ ही दिनों में यह आंदोलन अत्यंत सशक्त हो गया और इटली में फासीवाद का बर्चस्व हो गया।
Question : 1945-49 के वर्षों में चीन की परिस्थितियों की समीक्षा कीजिये। संयुक्त राज्य (अमेरिका) ने वहां राष्ट्रवादियों एवं साम्यवादियों के मध्य संघर्ष को सुलझाने के लिए क्या उपाय किये?
(2002)
Answer : जब द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हुआ, तो चीन में तीन तरह की सरकारें थी। मंचुरिया में एक स्वतंत्र व पृथक राज्य था, जिसे मंचूकाओं कहा जाता था। यह राज्य जापान के प्रभाव में था और नानकिंग को राजधानी बनाकर वहां एक स्वतंत्र चीनी सरकार की स्थापना हो चुकी थी। दूसरी चीनी सरकार महासेनापति च्यांग काई शेक के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार कहलाती थी, उसकी राजधानी चुंगकिंग थी। तीसरी सरकार साम्यवादियों की थी, जिसकी राजधानी चेयान थी। इसका नेतृत्व माओत्से तुंग कर रहा था। अगस्त 1945 में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और द्वितीय महायुद्ध का अन्त हो गया। जापान की पराजय के कारण नानकिंग की उस सरकार का स्वयमेव अन्त हो गया, जो वागचिंग वेई के नेतृत्व में स्थापित की गयी थी। महायुद्ध की समाप्ति पर यह समस्या उत्पन्न हुई कि नानकिंग सरकार द्वारा अधिकृत प्रदेशों पर अब किसका अधिपत्य हो-चुंगकिंग की कुओमिंगतांग सरकार का या चेयान की साम्यवादी सरकार का।
दिसम्बर, 1945 में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रमेन ने जनरल मार्शल को विशेष रूप से चीन इसी उद्देश्य से भेजा था कि वह चीन के दोनों प्रमुख दलों में समझौता कराये। उन्हें यह भी कार्य सौंपा गया कि वे चीन के दोनों दलों को वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए तैयार करें। जनरल मार्शल 10 जनवरी, 1946 को एक संधि कराने में सफल हुए, जिसमें यह तय किया गया कि दोनों पक्षों की सेनाएं आपसी संघर्ष समाप्त कर दे और चीन का जो प्रदेश जिस सेना के अधिकार में हैं, वह उसी सेना के अधिकार में रहेगा। साम्यवादियों ने संचार साधनों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया और मंचूरिया पर सरकार द्वारा पुनः कब्जा करने का अधिकार स्वीकार किया। इस प्रकार अमेरिका के प्रयत्न से चीन का यह युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित हो गया, किन्तु 10 जनवरी, 1946 के समझौते से चीन की वास्तविक समस्या का हल नहीं हुआ था। चीन में स्थायी शांति के लिए यह आवश्यक था कि वहां ऐसी सरकार स्थापित हो जो लोकतंत्रवाद के सिद्धान्तों पर आधारित राजनीतिक दलों की सेनाओं के स्थान पर एक राष्ट्रीय सेना का पुनर्गठन किया जाये, जिसका किसी भी दल से कोई सम्बन्ध न हो, किन्तु इन बातों को क्रियान्वित करना असम्भव था। अमेरिका के अथक प्रयासों के बावजूद भी कुओमिंगतांग और साम्यवादियों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। किन्तु जापान के आत्मसमर्पण करते ही जब उत्तरी व पूर्वी चीन पर पुनः अधिकार स्थापित करने का प्रश्न उत्पन्न हुआ, तो चुंगकिंग और चेयान सरकारों के पारस्परिक विरोध ने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया। कुछ ही समय बाद दोनों दलों की सेनाओं में गृह युद्ध आरम्भ हो गया और इस गृह युद्ध में साम्यवादियों को सफलता प्राप्त हुई। चीन में साम्यवादी सेनाएं अधिक संगठित तथा व्यवस्थित थी।
अमेरिका नहीं चाहता था कि चीन में गृह युद्ध जारी रहे। 1946 में च्यांग काई शेक ने देश के लिए नये शासन का निर्माण करने के लिए एक राष्ट्रीय महासभा का आयोजन किया, किन्तु साम्यवादी दल ने इसका बहिष्कार किया। इसी बीच साम्यवादी सेनाएं उत्तरी व पूर्वी चीनके अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर चुकी थी। जिन स्थानों को रूसी सेनाओं ने मंचूरिया और कोरिया में खाली किया था, उन स्थानों पर अब साम्यवादी सेनाओं ने अधिकार कर लिया था। इस प्रकार चीन के एक विस्तृत भू-भाग पर साम्यवादी सेनाओं का अधिकार था। अब चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए च्यांग काई शेक के सम्मुख दो ही उपाय थे। प्रथम तो यह कि वह साम्यवादियों से समझौता कर चीन में लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास करे, दूसरा यह कि साम्यवादियों को युद्ध में परास्त कर उनके अधीनस्थ स्थानों पर अपना अधिकार कर ले। 1948-49 ई- में दोनों दलों के बीच समझौते का प्रयास चलता रहा। 14 जनवरी 1949 को साम्यवादियों ने कुछ शर्ते प्रस्तुत की। शर्त के अनुसार च्यांग काई शेक और लीत्सुंग चेन को अपना पद छोड़ना था। युद्ध बन्द करने और नया संविधान बनाने तथा युद्ध के लिए दोषी चीनी नेताओं को दण्डित करने की बात की गयी थी। यह बात स्पष्ट थी कि च्यांगकाईशेक इन शर्तो को स्वीकार नहीं कर सकता था, किन्तु इस समय चीन में च्यांग काई शेक की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी थी। साम्यवादियों के विरूद्ध संघर्ष मेंवह अमेरिका से पूर्ण सहायता प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ।
अमेरिका भी इस समय इस स्थिति में नहीं था कि चीन के गृह युद्ध में खुले रूप से सहायता दे सके क्योंकि उसे रूस द्वारा साम्यवादियों का पक्ष लेने का भय था। इस दशा में अमेरिका ने प्रायः तटस्थता की नीति का अनुसरण किया और इस कारण च्यांग काई शेक की राजनीतिक स्थिति बहुत कुछ डांवाडोल हो गयी। इन विकट परिस्थितिओं में च्यांग काई शेक ने 12 जनवरी, 1949 को अपनी सरकार का कार्यभार उपराष्ट्रपति लीत्सुंग येन को सौंप दिया। नानकिंग की सरकार का संचालन जनरल ली के पास आ गया था। इस समय नानकिंग सरकार का प्रधानमंत्री सन-फ्रो साम्यवादियों से समझौते के पक्ष में था, पर उसे अपने उद्देश्यों में सफलता नहीं मिली। युद्ध यथावत चलता रहा।
जनवरी, 1949 में समझौते की बातचीत शुरू होने से पहले साम्यवादी सेनाएं तिन्तसिन और पीकिंग पर अधिकार स्थापित कर चुकी थीं। समझौते की असफलता पर अप्रैल, 1949 में साम्यवादी नेताओं ने यांग्त्से नदी को पार कर लिया था और नानकिंग और शंघाई पर साम्यवादियों का अधिकार स्थापित हो गया था। अक्टूबर, 1949 तक हेन्को तथा केंटन पर भी उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया था। अब कुओमिंगतांग सरकार के पास केवल श्नेचुआन, ह्नांग्सी, फार्मूसा द्वीप तथा हैनान द्वीप बचे थे। कुओमिंगतांग को अमेरिका द्वारा बराबर हर सम्भव सहायता दिये जाने के कारण चीन के गृह-युद्ध को एक अन्तर्राष्ट्रीय महत्व प्राप्त हुआ। अमेरिका ने बहुत प्रयास किया कि इन दोनों में समझौता हो जाये किन्तु अमेरिका का यह समझौता प्रयास असफल रहा।
Question : सोवियत संघ के निपात के लिए उत्तरदायी मुख्य कारकों की विवेचना कीजिये।
(2002)
Answer : सोवियत संघ का विघटन आधुनिक इतिहास की कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। वस्तुतः स्वयं अर्थव्यवस्था के स्वरूप में ही विघटन के तत्व अन्तर्निहित थे। यदि सोवियत संघ के इतिहास पर दृष्टिपात किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि मार्क्सवादी अर्थव्यवस्था का, जो स्वरूप वहां विकसित किया गया था वह आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने के उद्देश्य से बनाया गया था, परन्तु वह स्वयं अर्थव्यवस्था के विकास के लिये आवश्यक स्वतंत्र बाजारू प्रतियोगिता के सिद्धान्त के विरुद्ध था। स्वयं लेनिन ने NEP लागू करके इस बात की ओर संकेत दिया कि प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण एवं प्रशासन की केन्द्रीयता व्यक्तिगत असंतोष का कारण बन सकता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि सोवियत संघ के अन्तर्गत आने वाले सभी प्रमुख राज्य के आपसी सहयोग के दो ही प्रमुख आधार थे। प्रथमतः ये सभी राज्य आर्थिक विकास के मुद्दे पर एकजुटता के पक्षधर थे। द्वितीयक रूप से उनकी एकता का आधार था - सैन्य सुरक्षा की आवश्कता। यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि स्टालिन द्वारा अपनायी गयी योजनाबद्ध विकास की नीति का रुसी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव अत्यंत सकारात्मक था एवं 1929-30 के महामंदी जैसी स्थिति में भी रूसी अर्थव्यवस्था अपनी सामान्य स्थिति को बनाये रखा था। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य था कि रूस का अभ्युदय विश्व क्षितिज पर एक विश्व महाशक्ति के रूप में हुआ था। विश्व के कम्युनिस्ट राष्ट्रों का ध्रुवीकरण भी रूस के पक्ष में था। ये वैसे महत्वपूर्ण तथ्य थे, जिसने रूस की एकता एवं यू-एस-एस-आर के रूप में संघवादी ढांचे को बनाये रखने में सक्षम थे।
परन्तु कालान्तर में ये सब परिस्थितियां बदलती विश्व अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक साबित होने लगी। सैन्य प्रतिस्पर्द्धा एवं सैन्य गुटबाजी पर आने वाले खर्चभार को अजरबैजान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान आदि क्षेत्रों को भारी खर्च उठाकर करना पड़ रहा था। पुनः विश्व बाजार व्यवस्था में अपने स्थान को बनाये रखने के लिए दो बातें यथा स्वतंत्र उद्यमों का विकास एवं विश्व बाजार में उनकी प्रतिभागिता दोनों ही आवश्यक होती है। सोवियत संघ के अत्यंत ही केन्द्रीकृत ढांचे में ये दोनों ही कार्य सर्वथा असंभव थे। जहां उदारीकरण के दौर में बाह्य उत्पादों की उपार्दयता के आधार पर वस्तु को खरीदने के लिये क्रेता स्वतंत्र होता है, वहीं एक कम्युनिस्ट ढांचें में वह महंगे राष्ट्रीय उत्पादों को खरीदने को बाध्य थे।
सम्पूर्ण सोवियत संघ में वस्तुतः ऐसी ही स्थिति थी। रूस में समय के साथ विकास के नाम पर क्षेत्रीय विषमता पैदा हो गयी थी। सामान्यतः केन्द्रीय एशियाई गणतंत्र, जो खनिज पदार्थों के दृष्टिकोण से सम्पन्न थे, उनके लिये रूस के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र ज्यादा विकसित थे। साथ ही वे अपने प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से संपन्नता को नये बाजार व्यवस्था व उसके उदारीकृत स्वरूप के विषय में लाभकारी मानकर अपनी स्वतंत्र स्थिति ज्यादा बेहतर समझते थे।
यह भी महत्वपूर्ण विषय था कि धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कई प्रान्तों की एक अपनी अलग-अलग पहचान थी। सोवियत ढांचे का मार्क्सवादी सिद्धान्त धर्म गत पहचान को प्रमुखता नहीं देता था। वर्षों के प्रयत्न के बावजूद सोवियत रूस के विविध राज्य अपनी सांस्कृतिक स्वरूप एवं संघीय रूस के गठन के पूर्व अपनी स्थिति को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे। यदि रूस की वास्तविक राजनीतिक, आर्थिक स्थिति का अवलोकन किया जाये, तो यह स्पष्ट होता है कि 1980 के पश्चात् सोवियत संघ आधुनिक औद्योगिक राज्य की आवश्कयताओं एवं विश्व महाशक्ति के मानदण्डों को बनाये रखने में असफल साबित हो रहा था। इस संदर्भ में सर्वाधिक परिचर्चायें एवं विवाद गोर्वाच्योव की सुधारवादी नीतियों को लेकर रही हैं। गोर्वाच्योव की नीतियों के तीन प्रमुख अंग थे पेरेस्त्रेइका, गलासनोश्त एवं डेमोक्रेटिका। अपने इन सुधारों को क्रियान्वित करने के लिए गोर्वाच्योव को अलग-अलग शक्तियों से संघर्ष करना पड़ रहा था।
अपनी पार्टी व्यवस्था से ऊपर आने के कारण, उन्हें अपनी पार्टी में विश्वसनीयता को बनाये रखना था। गोर्वाच्योव को इस बात की आवश्यकता ख्रुश्चेव कालीन घटनाओं से भी महसूस हुई थी। गोर्वाच्योव के लिये दूसरी समस्या स्वयं वहां का प्रशासनिक ढांचा था। स्वयं गोर्वाच्योव ने वहां की प्रशासनिक ढांचा को आलोचित करना प्रारंभ किया। वे प्रशासनिक तंत्र को आर्थिक सुधार में बहुत बड़ा बाधक मानते थे। सोवियत संघ में 18 मिलियन सुविधा परस्त लोग थे। सुधारों के दौरान जातीय समस्यायें भी खुलकर आयीं। बाल्टिक देशों ने स्वतंत्रता की मांग उठानी प्रारंभ कर दी। मार्च 1990 में लाटविया एवं इस्तोनिया से इसी प्रकार की मांगे रखी जाने लगी। पुनः राष्ट्रवादी शक्तियां यूक्रेन एवं जार्जिया में उभरने लगी एवं अन्तर्जातीय विरोध अर्मेनिया एवं अजरबेजान में उठने लगा। जातीय आधार वाला राष्ट्रवाद सोवियत संघ के लिए सर्वाधिक खतरनाक बात थी। बाल्टिक देशों के अतिरिक्त मल्दोआ, जार्जिया, अर्मेनिया, यूक्रेन आदि देशों ने विभाजन के लिए आवाज उठाने लगे। मार्च 1991 में गोर्वाच्योव के पेरेस्त्रेइका सम्बन्धी प्रस्ताव पर मुस्लिम केन्द्रीय एशियाई राज्यों ने तो समर्थन दिया, परन्तु बाल्टिक देशों ने इसका विरोध किया।
सैन्य खर्च में कटौती एवं राज्य द्वारा स्थापित मार्क्सवादी आदर्श के पक्ष पोषण में अब अर्थव्यवस्था और भी अधिक खराब हो रही थी। अतएव गोर्वाच्योव ने पश्चिमी राष्ट्रों से सम्बन्ध को विश्वासपूर्ण बनाने का प्रयास किया। साथ ही उसने लोकतांत्रिकीकरण को सम्पूर्ण बदलाव के लिए आवश्यक मानना प्रारंभ किया।
इसी प्रयत्न में हुए अगामी चुनाव में येलत्सिन चुनाव जीतकर आये। इस चुनाव में कट्टर मार्क्सवादियों को हार का सामना करना पड़ा। वे प्रभावहीन साबित हुए एवं जिस प्रकार विघटन और भी अधिक अवश्यंभावी बन गया। गोर्वाच्योव द्वारा प्रस्तावित विरल संघ की नीति को भी नाकार दिया गया एवं स्लाव राज्यों द्वारा ब्प्ै (कॉमनवेल्थ ऑफ स्टटे्स) बनाने की घोषणा के साथ ही सोवियत संघ का विघटन हो गया।
Question : ‘पुनर्जागरण संसार और मानव की खोज थी।’
(2002)
Answer : पुनर्जागरण में प्राचीन मूल्यों की संस्थापना का प्रयत्न एवं नयी वैज्ञानिक अवधारणाओं को प्रचारित करने का संकल्प सम्मिलित था। भौगोलिक खोजों के आलोक में प्राचीन भ्रमात्मक धार्मिक विचारों का खंडन संभव हो सका एवं प्रयोग एवं परीक्षण पर आधारित नये दृष्टिकोण का सृजन भी। प्रथमतः तो मैगलन जैसे नाविक के समुद्री यात्र से क्रिश्चियन धर्म की इस अवधारणा कि विश्व एक चौड़ा भूखंड है का खंडन संभव हुआ एवं पुनः इस शंका का निवारण भी की कि समुद्रों के बाद एक महागर्त है, जिसमें जाने पर मनुष्य सदा-सर्वदा के लिए खो जाता है।
समुद्री यात्राओं का विशिष्ट महत्व आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड जैसे प्रदेशों की खोज से भी था। इन द्वीपों की खोज जेम्स कुक ने की एवं इससे अन्य मानव जातियों का जीवन प्रकाश में आया एवं प्राकृतिक संसाधनों का विकास हेतु विदोहन भी संभव हुआ। अफ्रीका से होकर भारत तक का नया व्यापारिक मार्ग भी खोज निकाला गया, जिसे यूरोपीय जन एवं सभ्यता भारत के द्वार तक पहुंच सकी। भारत के खोज प्रयत्न में ही कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज हुई, जिसे नयी दुनिया की संज्ञा दी गयी।
एक ओर वहां संसार की खोज इस युग की महान उपलब्धि थी, वहीं हम यह भी पाते है कि इस काल में मानव की भौतिक जीवन एवं उसकी सामाजिक जीवन में महत्ता आदि विषयों का उस युग की कला, साहित्य आदि में प्रकाशन हुआ। मानव के प्रति यह भाव ही मानववाद कहलाया, जो पुनर्जागरण युग की सर्वोत्तम उपलब्धि थी। जनसामान्य गीत एवं जनसामान्य की भाषा को अब साहित्य का दर्जा मिला। शिल्पकार एवं कलाकार को भी एक शिक्षित एवं सम्माननीय व्यक्ति माना गया। शिल्प को विज्ञान का दर्जा प्राप्त हुआ।
एक ओर पेटार्क, दान्ते एवं इरास्मस जैसे लोगों ने मानव की चेतना एवं भावना को साहित्य में स्थान दिया, तो दूसरी भौगोलिक खोजों ने अज्ञात द्वीपों के अस्तित्व को प्रकाश में लाया।
Question : ‘राजतंत्रीय कुशासन ने यदि फ्रांस की क्रान्ति को प्रज्ज्वलित किया, तो उच्च आदर्शों ने इसे प्रेरित भी किया और बनाए भी रखा।’
(2002)
Answer : फ्रांस की क्रांति वहां की राजनीतिक निरंकुशता के विरुद्ध एक वैचारिक प्रतिक्रिया थी। फ्रांसिसी शासक लुई चौदहवें के काल के पश्चात् सम्पूर्ण फ्रांस में शोषण एवं कदाचार की विभिन्न परिस्थितियां पैदा हो गयी थीं। लुई चौदहवें के शब्दों में ही वह स्वयं राज्य था। लुई सोहलवां भी निरंकुश राजतंत्र का समर्थक था। वह अपने द्वारा दी गयी राजाज्ञाओं को विधि की संज्ञा दे डाली। विदित हो कि इस समय तक राज्य की कुल आय राजा की व्यक्तिगत आय मानी जाने लगी थी। साथ ही राज्य में वैधानिक एकरुपता का सर्वथा अभाव था। वहां अलग-अलग क्षेत्रों में 385 प्रकार के कानून प्रचलित थे। फ्रांस में उस समय जन प्रतिनिधि संस्था के रूप में केवल स्टेटस जनरल नाम की संस्था थी, जिसका अधिवेशन भी वर्षों से नहीं बुलवायी गयी थी। पार्लमा वहां की न्यायिक संस्था थी, जिसमें राजा द्वारा ही लोग नियुक्त होते थे। फ्रांस का स्थानीय प्रशासन भी वस्तुतः राजा के हाथ में ही था तथा सम्पूर्ण शासन एवं सेवा एक कुलीनतंत्र के सिवाय कुछ भी नहीं था। वर्साय का राजमहल केवल ऐश्वर्य का साधन था। अकेले साम्राज्ञी एंत्वानेत की सेवा में सैंकड़ो अनुचर नियुक्त थे।
फ्रांस में जहां राजकीय निरंकुशता के कारण विद्रोहात्मक स्थिति पैदा हुई, वहीं वहां राजनीतिक विचारकों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी। मांटेस्क्यू ने शक्ति के पृथक्करण का सिद्धान्त दिया। वहीं रुसो ने मानव मात्र के स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकारों की वकालत की। अपनी पुस्तक सोशल कॉन्ट्रेक्ट में उसने राज्य की उत्पत्ति के दैविक सिद्धान्त का खण्डन किया एवं राज्य को सामाजिक समझौते का परिणाम माना। भू-अर्थशास्त्रियों यथा क्वेसने आदि ने भूमि को मूल राष्ट्रीय सम्पदा मानकर किसानों की दशा में सुधार की वकालत की। दिदरों एवं वाल्टेयर जैसे चिन्तकों के मानव के राजनीतिक अधिकार के साथ-साथ विधि की सर्वोच्चता की व्याख्या प्रस्तुत की। स्वयं नेपोलियन ने क्रान्ति में बुद्धिजीवियों की भूमिका को प्रमुख स्थान देते हुए कहा कि यदि रूसो नहीं होते तो क्रान्ति नहीं होती।
Question : ‘नेपोलियन ने राष्ट्रीय भावना जागृत की, लेकिन जर्मन एकता बिस्मार्क द्वारा प्राप्त की गयी।’ विवेचन कीजिये।
(2002)
Answer : जर्मनी में राष्ट्रीयता की भावना के विकास का श्रेय यदि किसी को जाता है, तो वह नेपोलियन है। नेपोलियन का सबसे ज्यादा दबाव जर्मनी ने ही महसूस किया था और यहीं उसकी सत्ता को सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। वस्तुतः जर्मनी में नेपोलियन की सरकार बनना एक दुःखद किन्तु लाभदायक घटना थी। यह स्मरणीय है कि फ्रांसीसी क्रांति से पहले जर्मनी यूरोपीय देशों में राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक विभक्त देश था, जिसमें लगभग 300 राज्य थे। नेपोलियन ने जर्मनी में 39 राज्यों का संघ बनाकर राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया।
भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से जर्मनी के राज्य भिन्न-भिन्न प्रकार के थे। मोटे-तौर पर जर्मनी के राज्यों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। यथा- उत्तरी, मध्य तथा दक्षिणी। उत्तरी भाग में प्रशां, सैक्सनी, हनोवर, फ्रेंकफर्ट आदि राज्य थे जबकि मध्य भाग में राइनलैण्ड और दक्षिण में बुर्टेम्वर्ग, बवेरिया, बादेन, पैलेटिनेट, हेस-डर्मेट-हाट आदि थे। आकार और सैन्य शक्ति की दृष्टि से प्रशासन सबसे शक्तिशाली था। उन राज्यों की सामाजिक व राजनीतिक प्रणालियां भी पिछड़ी हुई थीं। अनेक राज्यों में बंटे होने के कारण जर्मनी के आर्थिक विकास को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जर्मन राज्य राजनीतिक दृष्टि से विखंडित होते हुए भी एक दूसरे से थोड़े-बहुत जुड़े हुए थे। इसका पहला कारण यह था कि इन राज्यों में पवित्र रोमन सम्राट के प्रति सैद्धांतिक रूप से आदर की भावना थी। दूसरा प्रमुख कारण डाइट का अस्तित्व था। डाइट में विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि एक ही मंच पर एकत्र होते थे।
जर्मनी के एकीकरण प्रथा के एक प्रतिष्ठित सामंत परिवार में जन्में ओटोमन बिस्मार्क की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उसने सदैव जर्मनी की आवश्यकता व प्रतिष्ठा को अपने व्यक्तिगत सम्मान और प्रतिष्ठा के उपर समझा। बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर, जर्मन संघ से ऑस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रथा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक था कि राज्य के समस्त साधनों पर उसका अधिकार हो। उसका यह अटूट विश्वास था कि राजतंत्र का एकमुखी मार्ग ही जर्मनी की समस्या का एकमात्र समाधान है। उसने राजतंत्र के केन्द्र-बिन्दु पर ही समग्र जर्मनी की राष्ट्रीयता को एकसूत्र में बांधे रखने का प्रयत्न किया। वह स्वयं को केवल राजा के प्रति उत्तरदायी मानता था। अपने उद्देश्य प्राप्त करने के लिए बिस्मार्क को बहुत-सी आन्तरिक एवं बाह्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, किन्तु वह बड़े साहस और लगन के साथ आगे बढ़ता गया।
जर्मनी की राष्ट्रीयता के शत्रु, ऑस्ट्रिया और रुस, जिनमें पहले परस्पर मित्रता थी उनमें, क्रीमिया युद्ध के परिणामस्वरुप मनमुटाव हो गया था। बिस्मार्क ने रुस को अपनी तरफ मिलाने का प्रयत्न किया। 1862 में जब पौलैण्ड वालों ने विद्रोह किया, तो उसने विद्रोह के दमन में रूस की सहायता की थी। ऑस्ट्रिया का रुख पौलैंड लोगों के पक्ष में होने के कारण रूस और अधिक अप्रसन्न हो गया। बिस्मार्क ने फ्रांस के साथ व्यापारिक संधि करके उसकी भी मित्रता प्राप्त कर ली। श्लेसविग तथा हाल्सटाइन नामक दो रियासतें डेनमार्क के अधीन तो थीं, मगर डेनमार्क का अविभाज्य अंग नहीं थी। बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया के साथ मैत्री कर डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। वह पराजित हो गया। वियना संधि के अनुसार डेनमार्क को, श्लेसविग तथा हाल्सटाइन के साथ ही लावेनबुर्गे, ऑस्ट्रिया तथा प्रथा के संयुक्त अधिकार में छोड़ देनी पड़ी और उनकी वे जो कुछ व्यवस्था करे उसे स्वीकार करने का वचन देना पड़ा। ऑस्ट्रिया को हाल्सटाइन मिला पर वहां की जनता जर्मन थी तथा वह प्रशा की सीमा से सटा हुआ था। वह वहां की जर्मन जनता को ऑस्ट्रिया के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता था। गेस्टाइन समझौते के द्वारा ऑस्ट्रिया के साथ संघर्ष की काफी गुंजाइश रख छोड़ी थी। बिस्मार्क ने कूटनीति द्वारा ऑस्ट्रिया को मित्रहीन बनाने की नीति का अवलम्बन किया। साथ ही ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए बिस्मार्क को दो अनुकूल तत्वों की भी आवश्यकता थी। पहले तो यूरोप में जर्मनी के लिए अनुकूल वातावरण और दूसरे, अपने सम्राट का समर्थन तथा सहयोगी ऑस्ट्रिया पर जीत के बाद प्रशा ने अचानक युद्ध बंद कर दिया क्योंकि उसे प्रशा के विरुद्ध यूरोपीय गुट बनने का डर था। अब वह ऑस्ट्रिया के साथ ऐसा व्यवहार करना आवश्यक समझता था, जिससे आगे चलकर ऑस्ट्रिया अपनी पराजय जनित घृणा को भूलकर उसका मित्र बन सके।
बिस्मार्क जर्मन राज्य संघ का निर्माण करना चाहता था, पर यह सम्भव नहीं था क्योंकि दक्षिणी जर्मनी के राज्यों की इच्छा के विरुद्ध इन्हें संघ में सम्मिलित नहीं किया जा सकता था इस राज्यों पर फ्रांस का प्रभाव था। अतः उसने शेष 21 राज्यों को मिलाकर प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन संघ का गठन किया। उत्तरी जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हो गया था, किन्तु दक्षिणी जर्मनी के राज्यों यथा, बवेरिया, बुर्टमवर्ग, बादेन तथा हेस का इस संघ में सम्मिलित होना आवश्यक था। एक ओर प्रशा की ताकत बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर फ्रांस में प्रश के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन संघ बन जाने से बड़ा रोष उत्पन्न हो रहा था। कालान्तर में दोनों राष्ट्रों को युद्ध अपनी-अपनी समस्याओं के समाधान का उपाय नजर आया। लक्जमवर्ग और स्पेन की गद्दी के प्रश्न पर फ्रांस और प्रश के सम्बन्ध और अधिक बिगड़ गये। बिस्मार्क ने अपने कूटनीति द्वारा इटली को पहले ही वेनेशिया दिलवाकर फ्रांस से पृथक कर दिया। उसने इटली को आश्वासन दिया कि जब फ्रांस और प्रशा का युद्ध छिड़े, तो रोम राज्य पर अधिकार कर ले। साथ ही नेपोलियन तृतीय की यह आशा धूमिल हो गयी कि इस में युद्ध दक्षिण राज्य फ्रांस की सहायता करेंगे। सेडान युद्ध ने जर्मनी के एकीकरण के शेष भाग को पूर्ण आहूति प्रदान की। युद्ध समाप्ति से कुछ पहले बिस्मार्क ने दक्षिणी जर्मनी के राज्यों को जर्मन संघ में सम्मिलित करने की स्वीकृति ले ली थी।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जर्मनी के एकीकरण की सिद्धि रक्त और लोहा के जरिए की गयी। बिस्मार्क को अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए तीन युद्ध करने पड़े। शस्त्र प्रयोग और रक्तपात राष्ट्रीय एकीकरण के सन्दर्भ में साधन के रूप में प्रयुक्त हुए। वस्तुतः बिस्मार्क के दृंढ़ निश्चय, अदम्य साहस तथा कूटनीतिक कुशलता के सामने कोई बाधा स्थायी न बन सकी।Question : ‘विश्वव्यापी मन्दी (1929-34) के कारण आर्थिक और राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण परिणाम हुए।’
(2002)
Answer : विश्वव्यापी मन्दी के कारण उपजे आर्थिक संकट में सरकार व समाज के प्रत्येक वर्ग को कठिनाई तथा हानि हुई। सरकारी बजट में घाटा आया। इससे सरकार को करों में वृद्धि करनी पड़ी। बहुत से कारखाने बन्द हो गये, लाखों मजदूर बेकार हो गये। गोदाम वस्तुओं से भर गये, परन्तु उनका कोई खरीदार नहीं था। मध्यम वर्ग के जिन लोगों का धन कल-कारखानों में शेयरों के रुप में लगा था, वे भी परेशान थे। सरकार ने ब्याज की दर कम कर दी थी। बेराजगारों को भत्ता दिया जाने लगा, किन्तु धन के अभाव में सरकार को अपने इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती थी।
आर्थिक संकट ने विश्व के उद्योग-धन्धों को बर्बाद कर दिया था, उसका बड़ा महत्वपूर्ण परिणाम राजनीतिक क्षेत्र में हुआ। किसी भी देश की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और दोनों परस्पर एक दूसरे पर बड़ा प्रभाव डालती है। मन्दी के कारण जनता के सभी वर्गों को बेकारी, भूखमरी आदि अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, जिससे उनमें निराशा, अस्थिरता एवं असुरक्षा की भावना में वृद्धि हुई। लोकतंत्रीय सरकारें मन्दी से उत्पन्न समस्याओं को सुलझाने में सफल नहीं हो सकी। अतः जनतंत्र के स्थान पर अधिनायक तंत्र को प्रोत्साहन मिलने लगा। कई राज्यों में जनता ने सत्तारुढ़ दलों के विरुद्ध मत देकर उन्हें अपदस्थ कर दिया। इटली में मुसोलिनी एवं जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ। लोग पूंजीवाद का विरोध कर साम्यवाद की ओर आकर्षित होने लगे। इस कारण पूंजीवादी देशों ने हिटलर तथा मुसोलिनी के साथ तुष्टीकरण की नीति अपनाकर उन्हें साम्यवाद के विरोध में खड़ा किया। आर्थिक मंदी के कारण संसार के विभिन्न राज्यों में प्रशासकीय नियन्त्रण में भी वृद्धि हुई निरन्तर गिरती हुई कीमतों तथा मूल उत्पादकों की अत्यधिक निर्धनता एवं दयनीय स्थिति के कारण राज्यों को अनेक प्रकार के कानून एवं व्यवस्थाऐं बनानी पड़ी। कई राज्यों को विपणन, मूल्य नियंत्रण, पूंजी विकास एवं वितरण पर नियंत्रण स्थापित करना पड़ा।
संकुचित राष्ट्रीयता के कारण अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग एवं सौहार्द्र की भावना, जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक थी, समाप्त हो गयी। केवल अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट ही इसके अपवाद सिद्ध हुए, क्योंकि उसने अपने देश को युद्ध सीमा तक क्षति पहुंचाते हुए भी यूरोपीय अर्थव्यवस्था को बचाने का प्रयास किया था।
Question : ‘द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण परिणामों में से एक था ‘यूरोप का विभाजन’, पूर्वी एवं पश्चिमी।’
(2002)
Answer : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के इतिहास में अनेक नयी प्रवृतियों का उदय हुआ। राष्ट्रीयता की भावना के साथ-साथ अब नयी विचारधाराओं ने अपना स्थान बनाना प्रारंभ कर दिया। नये विचारधाराओं के प्रभाव में यूरोपीय समाज वस्तुतः दो अलग-अलग खण्डों में विभाजित हो गया। प्रथम विचारधारा जो पूर्वी यूरोप के क्षेत्र में प्रभावकारी रही, वह थी साम्यवाद। दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप में जो विचारधारा पल्लवित हो रही थी, वह लोकतंत्र के सैद्धान्तिक आवरण में पूंजीवाद को समर्थन देती थी।
युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर इन दो अलग-अलग विचार पद्धति को समर्थन देने वाली महाशक्तियों का उदय हुआ। दोनों देशों ने अपने विचारधारा के प्रचारार्थ अनेकानेक भ्रामक दुष्प्रचारों का सहारा लेना प्रारंभ किया। राजनीतिक ध्रुवीकरण इसका दूसरा प्रमुख पक्ष था। स्वयं संयुक्त राष्ट्रसंघ भी अमेरिका एवं रूस के मध्य चलने वाले युद्ध का अखाड़ा बन गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों का ध्रुवीकरण होने लगा एवं अविश्वास का ऐसा वातावरण सृजित हुआ कि अब NATO (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) का सुरक्षात्मक उद्देश्य से संगठन किया गया। इसके अतिरिक्त भी इस ध्रुव ने बगदाद पैक्ट द्वारा SEATO नामक संगठन बनाया। इन परिस्थितियों को देखते हुए साम्यवादी शक्तियों ने वारसा पैक्ट पर हस्ताक्षर किया। जिसका उद्देश्य भी प्रधानतः सुरक्षात्मक ही बताया गया था। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इन पैक्टों का प्रयोग सैन्य व आयुद्ध आवश्यकताओं की पूर्ति एवं बिक्री के रूप में खुलकर किया गया। साथ ही सैद्धान्तिक विरोध को आर्थिक पक्ष से जोड़ देने के कारण पूर्वी एवं पश्चिमी यूरोप में दो अलग-अलग प्रकार का अर्थतंत्र विकसित हुआ। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त सम्पूर्ण यूरोप का पृथक-पृथक रूपों में दो अलग खण्डों में विभाजन हो गया।
Question : बिस्मार्क ने लौह एवं रक्त की नीति के आधार पर नए जर्मनी का निर्माण किया।"
(2001)
Answer : जर्मनी के एकीकरण का रचयिता ओटोवॉन बिस्मार्क अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रक्त एवं लौह (सैन्यवाद) की नीति में विश्वास करता था। प्रशियन डाइट के लोकप्रिय सदन के प्रतिरोध की परवाह न करते हुए बिस्मार्क ने महत्वाकांक्षी सैन्यीकरण के कार्यक्रम को जारी रखा। इसने न केवल भारी मात्र में सैनिकों की भर्ती की अपितु उन्हें अत्याधुनिक हथियारों के प्रयोग करने तथा प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था की। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रशा की सैनिक शक्ति काफी बढ़ गयी। बिस्मार्क ने घोषित किया कि महत्वपूर्ण समस्याएं केवल बातचीत तथा जनमत द्वारा हल नहीं की जा सकतीं वे केवल युद्ध के तीव्र हथियारों तथा रक्तपात द्वारा ही हल की जा सकती हैं। इसने अपनी कूटनीति का प्रयोग न केवल अपनी जीत के लिएअपितु अपने शत्रु को अलग-थलग कर देने के लिए भी किया।
इस मुद्दे पर संतुष्ट होने के बाद कि प्रशा ऑस्ट्रिया का प्रतिरोध करने की स्थिति में है,बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया को चुनौती दी। बिस्मार्क ने शेल्सविग तथा होल्सटीन के डचीज पर नियंत्रण को लेकर जर्मनी तथा डेनमार्क के मध्य के पुराने विवाद को उठाया। प्राग की संधि ने प्रशा को अधिकार दिया कि ऑस्ट्रिया को जर्मनी के मामलों से बाहर कर दे। इस संधि ने यह भी व्यवस्था की कि अंतर्राष्ट्रीय अस्तित्व के साथ दक्षिणी जर्मनी के राज्यों के साथ-साथ मेन में शेष जर्मनी के लिए एक नये संविधान का निर्माण किया जाएगा।
इस प्रकार प्रशा का आकार बढ़ाया गया। इसके उत्तरी जर्मनी पर प्रभुत्व को मान्यता दे दी गयी। प्रशा का राजा उत्तरी जर्मन संघ का राष्ट्रपति बना तथा प्रशा का चांसलर संघ का चांसलर बना। प्रशा की सेना तथा डाक-व्यवस्था संघीय स्तंभ बने। इस प्रकार बिस्मार्क ने अपनी नीतियों का प्रतिपादन भविष्य में फ्रांस के साथ होने वाले युद्ध की संभावना को ध्यान में रखकर किया।। इसका विचार था कि इन युद्धों के द्वारा ही दक्षिणी जर्मनी के राजाओं को संघ के अंदर शामिल किया जा सकता है। फ्रांस और जर्मनी के मध्य युद्ध 1870 में प्रारंभ हुआ तथा 1871 में समाप्त हुआ। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तब दक्षिणी जर्मनी के राज्य जर्मन संघ में शामिल हो गये। इस प्रकार जर्मनी का एकीकरण पूरा हुआ।
Question : नेपोलियन के साम्राज्य का पतन उसमें अंतर्निहित त्रुटियों एवं आत्मघाती विरोधाभासों के कारण हुआ। स्पष्ट करें।
(2001)
Answer : नेपोलियन के विशाल साम्राज्य का पतन उसमें अंतर्निहित आत्मघाती विरोधाभासों का तार्किक परिणाम था। वह अपने विनाशकारी जाल में खुद फंस गया और ब्रिटिश प्रतिरोध के समक्ष उसका टिक पाना मुश्किल हो गया। 1803 से लेकर 1814 ई. में नेपोलियन के पतन तक यूरोप में कोई संधि नहीं हुई। उसने ब्रिटेन पर आक्रमण करने का असफल प्रयास किया। ट्रैफल्गर के युद्ध में ब्रिटेन की नौसैनिक क्षमता की सर्वोच्चता स्पष्ट हो गयी। इसलिए नेपोलियन ने आर्थिक अस्त्र के जरिये ब्रिटेन को मात देने हेतु महाद्वीपीयव्यवस्था लागू की।
महाद्वीपीय व्यवस्था नेपोलियन के लिए आत्मघाती कदम साबित हुआ। इंग्लैंड को अपमानित करने के लिए नेपोलियन ने उससे आर्थिक युद्ध छेड़ दिया। नेपालियन की आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम असफल हो गया और उल्टे फ्रांस की आर्थिक स्थिति चरमरा गयी। यहां तक कि आवश्यक वस्तुओं के अभाव में फ्रांस की सर्वसाधारण जनता भी नेपोलियन से विमुख हो गयी। महाद्वीपीय व्यवस्था लागू करने के प्रयास में नेपोलियन को कई क्षेत्रीय लड़ाईयां लड़नी पड़ी। इस नीति की वजह से फ्रांस तथा नेपोलियन, दोनों का दुष्परिणामों से बच पाना मुश्किल था।
नेपोलियन के निरंकुशतंत्र से स्वतंत्रता की भावना आहत हुई और उसने अपने व्यवहार से मुसीबतें खड़ी कर लीं। अपने आप को सम्राट घोषित करने के बाद उसने योग्य सलाहकारों की उपेक्षा करना प्रारंभ कर दिया जिससे उसका पतन निश्चित हो गया। यहां तक कि अखबार भी उसकी आलोचना करने से कतराने लगे। विरोध के स्वर उठाने वालों को जेल में डाल दिया गया।
अपने जीवन काल में नेपोलियन ने 40 लड़ाइयां लड़ी, उनमें से अधिकांश में उसे सफलता भी मिली। परंतु उसने मित्र के बजाय बहुत सारे शत्रु पैदा कर लिये। फ्रांस का सम्राट बनने के बाद वह विश्व विजेता बनने का स्वप्न देखने लगा। इसे भांपते हुए यूरोप के राज्यों ने उसके विरुद्ध संगठन तैयार कर लिया और इस प्रकार उसके पतन का बीजारोपण हो गया। निरंतर युद्धों से उसकी सेना थक गयी और उसके अधिकांश योग्य सेनापतियों की मृत्यु हो गयी। मास्को अभियान में पांच लाख तथा लिपजिग के युद्ध में 1 लाख 20 हजार सैनिकों का सफाया हो गया।
नेपोलियन फ्रांस की सेना में अधिक से अधिक सैनिकों की भर्ती करना चाहता था। अतः उसने अपनी सेना में अनेक विदेशियों की भर्ती की, जो उसके लिए घातक साबित हुआ। युद्ध न तो समस्याओं का हल हो सकता है और न ही अंतरजीविता का आधार। नेपोलियन के साम्राज्य का विस्तार युद्ध के दौरान हुआ। युद्ध के कारण ही यह अस्तित्व में आया और युद्ध के चलते ही इसका अंत भी हो गया।
नेपोलियन के पतन का मुख्य कारण विजित प्रदेशों की जनता में राष्ट्रीयता का संचार था। राष्ट्रीयता के कारण नेपोलियन के विदेशी अधिपत्य का प्रचंड विरोध होने लगा। नेपोलियन ने विजित देशों का शासन-भार अपने सगे-संबंधियों को सौंप दिया। उन देशों में प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव लाते हुए लोगों पर अनुचित करारोपण कर डाला। साथ ही लोगों से इंग्लैंड का आर्थिक बहिष्कार करने को कहा गया। स्पेन, पुर्तगाल, आस्ट्रिया, रूस आदि में तीव्र राष्ट्रीयता के प्रसार के कारण नेपोलियन की शक्ति कमजोर हो गयी।
1807 तक नेपोलियन की सर्वोच्चता चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। ऐसी स्थिति में उसे दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए था, लेकिन वह हमेशा गलत कदम उठाता रहा। उसने 1808 ई. में स्पेन के सम्राट चार्ल्स-ट को पदच्युत करके अपने भाई जोसेफ को वहां का शासक नियुक्त किया। ऐसा करके उसने अपने विनाश का बीज खुद बो दिया। इस युद्ध में वह तीन लाख फ्रांसीसी सैनिकों की जान गवां बैठा और स्पेन के विरुद्ध महाद्वीपीय युद्ध में जीत न सका। नेपोलियन ने स्वयं यह कहा था कि- ‘स्पेन के फोडे़ के कारण मेरा पतन हुआ।’ स्पेन-युद्ध के कारण न केवल स्पेन की, बल्कि केन्द्रीय यूरोप की समस्त जनता में राष्ट्रीयता की धारा और तीव्र हो गयी। अंततः राष्ट्रीयता की इसी भावना से ओत-प्रोत देशों के समक्ष लड़ पाना नेपोलियन के लिए दुष्कर हो गया।
नेपालियन का रूसी अभियान भी आत्मघाती साबित हुआ। वह 6 लाख 10 हजार सैनिकों के साथ मास्को की ओर बढ़ा, जिसमें से 5 लाख सैनिक मारे गये। इस अभियान से नेपोलियन की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में काफी क्षति हुई। फ्रांसीसी सेना की कमजोरी यूरोपीय देशों के सामने उजागर हो गयी औरन वे अपनी स्वतंत्रता के लिए उतावले हो उठे।
अपने सगे-संबंधियों के प्रति अत्यधिक झुकाव भी नेपोलियन के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। उसने अपने भाईयों को विभिन्न देशों का शासक नियुक्त किया। लुई नेपोलियन को हालैंड, जोसेफ को स्पेन तथा जैरिम को वेस्टफेलिया का शासक बनाया गया। उसने अपनी बहन कारलिना की शादी मुर्रा नामक अपने सेनापति से की जिसे नेपल्स का राजा बनाया गया। लेकिन विपत्ति के समय में इनमें से किसी ने भी उसका साथ नहीं दिया।
इस प्रकार, नेपालियन की आत्मघाती नीतियों की वजह से यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्र उसके विरुद्ध एकजुट होते गये। पुराने राजवंशों को कूटनीतिक तरीके से हटाकर मात्र सैन्य शक्ति के बल पर साम्राज्य की विशालता अधिक समय तक टिक नहीं सकती थी। ब्रिटेन के नेतृत्व में सभी राष्ट्रों की एकजुटता ने अंततः नेपोलियन का अंत कर डाला।
Question : "विउपनिवेशीकरण (Decoloni Sation) ने साम्राज्यों के विघटन को बढ़ावा दिया।"
(2001)
Answer : यह सत्य है कि विउपनिवेशीकरण ने अनेक साम्राज्यों के विखंडन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के 25 वर्षों के अंदर ही एशिया, अफ्रीका तथा लातिन अमेरिका के बहुत से देश जो परतंत्र थे, स्वतंत्र हो गये। अन्य जो बचे थे वे भी अगले पांच वर्षों में स्वतंत्र हो गये। विउपनिवेशीकरण ने औपनिवेशिक शक्तियों की सैनिक शक्ति के साथ-साथ आर्थिक शक्ति को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। अनेक यूरोपीय देश जो औपनिवेशिक शक्ति के रूप में विद्यमान थे, लंबे समय से गंभीर आंतरिक अशांति के दौर से गुजर रहे थे। उदाहरण के लिए फ्रांस के औपनिवेशिक युद्ध भारत-चीन तथा अल्जीरिया में हो रहे थे, जिससे उसकी राजनीतिक प्रणाली पर ही संकट के बादल मंडराने लगे थे। पुर्तगाली तानाशाही के पतन का एक बड़ा कारण अफ्रीका में चल रहे उसके औपनिवेशिक युद्ध थे। विश्व के बदले हुए राजनीतिक मौसम में साम्राज्यवाद अब और अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता था। 1945 के बाद से ही आत्म निर्णय के सिद्धांत, राष्ट्रीय संप्रभुता तथा समानता तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सहयोग आदि का विचार लोकप्रिय होने लगा था। इन विचारों के कारण आम जनता यहां तक कि औपनिवेशिक देशों के नागरिक भी अन्याय, क्रूरता, शोषण तथा अमानवीय गतिविधियों के विरोधी हो चले थे। ऐसी स्थिति में औपनिवेशिक शक्तियों का जीवित रहना मुश्किल हो गया। इस प्रकार औपनिवेशिक शक्तियों के पतन ने अनेक साम्राज्यों के विखंडन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
Question : 19वीं सदी में अफ्रीका में यूरोपीय साम्राज्यवाद के विभिन्न चरणों को रेखांकित करें।
(2001)
Answer : अफ्रीका में उपनिवेशवाद की शुरुआत 19वीं सदी में हुई। यूरोप के निकट स्थित होने के बावजूद यूरोपवासी इस महाद्वीप की भौगोलिक स्थिति से अनभिज्ञ थे। उन्हें मिस्र, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया तथा मोरक्को जैसे तटीय देशों को छोड़कर अफ्रीका के शेष भागों का ज्ञान तक नहीं था। उत्तरी तट पर फ्रांस ने 1830 ई. में अल्जीरिया को अपने संरक्षण में ले लिया। 1843 ई. में इंग्लैंड ने केप उपनिवेश तथा बाद में नाटाल पर अधिकार कर लिया।
पश्चिमी तट पर जांबिया, गोल्ड कॉस्ट, सियरा लियोन तथा लागोस पर इंग्लैंड का अधिकार था, जबकि सेनेगल, आइवरी कोस्ट तथा गैबुम फ्रांस के उपनिवेश थे। अंगोला तथा मोजाम्बिक पुर्तगाल के उपनिवेश थे, तो स्पेनिश गुयाना स्पेन के अधीन था। इस तरह अफ्रीका के 10 फीसदी हिस्से पर यूरोपीय उपनिवेश था, जबकि 90 प्रतिशत क्षेत्र से वे पूर्णतया अपरिचित थे।
अफ्रीका के काले क्षेत्रों की खोज करने में उत्साही खोजकर्ताओं तथा धार्मिक मिशनों का विशेष योगदान रहा। इस क्षेत्र में मॉर्टन स्टैनली तथा डेविड लिविंगस्टन के नाम उल्लेखनीय हैं। इन दोनों के प्रयासों के कारण यूरोपवासी अफ्रीका महाद्वीप की अकूत संपदा से अवगत हो सके। मार्टन स्टैनली को बेल्जियम नरेश लियोपोल्ड- II द्वारा आर्थिक सहायता दी गयी और वह सामुद्रिक मार्ग से कांगो बेसिन जा पहुंचा। किंग लियोपोल्ड-प्प् ने कांगो फ्री स्टेट की स्थापना की जिसमें अन्य समकालीन शक्तियों ने उसका साथ दिया। प्रारंभ में यह स्टेट स्वतंत्र एवं निष्पक्ष था और सभी देशों के व्यापारियों के लिए उसके दरवाजे खुले थे, परंतु 1907 में बेल्जियम ने इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।
जर्मनी ने भी धीरे-धीरे उपनिवेश संबंधी गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया। दरअसल जब जर्मनी का एकीकरण हुआ, तब तक विश्व के अधिकांश देशों पर अन्य यूरोपीय राष्ट्रों का अधिकार हो चुका था। अब सिर्फ अफ्रीका में ही उसकी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हो सकती थी। जर्मनी भी उपनिवेशवाद की होड़ में शामिल हो गया और उसने अपने पड़ोसियों की एक न सुनी। इस तरह टोगोलैंड तथा कैमरून पर उसने 1884 में अधिकार जमा लिया।
यूरोप के इतिहास में अफ्रीका का विभाजन एक महत्वपूर्ण घटना थी। सर्वप्रथम बेल्जियम के किंग लियोपोल्ड- II ने अफ्रीका में अपनी रुचि दिखाई। उसने वहां पर अपने साम्राज्य की स्थापना की योजना बनायी। 1876 ई. में लियोपोल्ड- II ने अपनी राजधानी ब्रुसेल्स में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करवाया ताकि अफ्रीकी अभियान को बढ़ावा मिल सके। इस सम्मेलन में सभ्यता के आलोक को अफ्रीका तक पहुंचाने का तर्क भी दिया गया। नवंबर 1884 एवं फरवरी 1885 के बीच बर्लिन में भी इसी तरह का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कांगो में व्यापारिक एवं नौसैनिक गतिविधियों की स्वतंत्रता के साथ-साथ नाइजर नदी और अन्य औपनिवेशिक समस्याओं पर बातचीत की गयी। इस सम्मेलन में स्विटजरलैंड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका को छोड़कर तकरीबन सभी देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में एक नैतिक कोड (ब्वकम वि ब्वदकनबज) जारी किया गया जिसे बर्लिन एक्ट के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार अफ्रीका की लूट-खसोट को वैधानिक मान्यता दे दी गयी।
अफ्रीका में फ्रांसीसी उपनिवेशों की स्थापना सत्रहवीं सदी के मध्य में एक भीषण एवं त्रस्त युद्ध के बाद की गयी थी। इस युद्ध में अल्जीरिया पर उसने विजय हासिल की। 1871 में फ्रांस के अल्सॉस लौरिन से 11000 लोग अल्जीरिया चले गये। धीरे-धीरे बहुत से फ्रांसीसी आप्रवासी वहां पहुंचे और शीघ्र ही अल्जीरिया फ्रांस के एक राज्य के रूप में स्थापित हो गया। फ्रांस 1881 में ट्यूनिश पर तथा 1889 में मैडागास्कर पर अधिकार करने में सफल हुआ। इसी तरह 1891 तथा 1897 में क्रमशः आइवरी कोस्ट एवं दहोमी पर फ्रांसीसी बस्तियां कायम हुईं। उसके बाद फ्रांसीसी विस्तार का रुख उत्तर की ओर दिखायी दिया। एवं 1897 में लैक चाड पर उसका कब्जा हो गया। उसे सहारा मरुस्थल पर भी नियंत्रण स्थापित करने में सफलता मिली एवं इस प्रकार अन्य सभी बस्तियों के साथ उसका सामान्य संपर्क बन गया। सेनेगल तथा मोरक्को में भी उसकी बस्तियां कायम हुई। मिस्र पर भी उसने प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन इंग्लैंड के पक्ष में उसे यह प्रभुता छोड़नी पड़ी। अन्य औपनिवेशिक शक्तियों की तुलना में पुर्तगाल, इटली तथा स्पेन को अपनी बस्तियां कायम रखने में सफलता मिली। बेल्जियम कांगो के दक्षिण स्थित अंगोला पर पुर्तगाल का अधिकार था। मोजाम्बिक भी पुर्तगाल के अधीन हो गया। इटली ने इरीट्रिया तथा पूर्व में इतालवी सोमालीलैंड पर अधिकार जमाया। उसने अबीसीनिया को भी अपने कब्जे में लेने का असफल प्रयास किया। उत्तर में लीबिया एवं ट्रिपोली पर इटली का अधिकार कायम हुआ। कनारी द्वीप समूह एवं गुयाना तट के कई अन्य द्वीपों पर स्पेनिश बस्ती बसायी गयी। 1860 में स्पेन द्वारा मोरक्को पर कब्जा करने का असफल प्रयास किया गया।
परंतु अफ्रीका के अधिकांश भागों पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हो गया। अफ्रीका के सभी दिशाओं में उसकी बस्तियां थीं। इस कार्य में ब्रिटेन के सेसिल रॉड्स का नाम सराहनीय है जिसने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश उपनिवेश बसाने का काम किया। उसी के नेतृत्व में रोडेशिया एवं न्यासालैंड पर कब्जा किया गया तथा डचों से केप कॉलोनी को छीन लिया गया। 1885 में ब्रिटेन ने बचुआनालैंड को ब्रिटिश संरक्षित राज्य होने की घोषणा की। 1886 एवं 1889 में क्रमशः गोल्ड कॉस्ट एवं सियरा लियोन पर उसका प्रभुत्व हो गया। 1890 में ब्रिटेन ने जल्दीबाजी में उत्तरी एवं दक्षिणी रोडेशिया को संगठित कर डाला। पूर्व से लेकर पश्चिम तक युगांडा, केन्या एवं नाइजीरिया में व्यापारिक कंपनियों को ब्रिटिश संरक्षण दिया गया। उसने सोमालीलैंड पर अधिकार करते हुए 1898 में सूडान पर फिर से विजय हासिल की। 1899-1900 के बोअर युद्ध में विजय के बाद ऑरेंज फ्री स्टेट एवं ट्रांसवाल भी ब्रिटिश नियंत्रण में आ गये। 1909 में इन दो उपनिवेशों को अन्य दो बस्तियों के साथ मिलाकर दक्षिणी अफ्रीकी संघ की स्थापना की गयी। इस प्रकार, 19वीं सदी के अंत तक अफ्रीका के पांच हजार मिलियन वर्गक्षेत्र पर ब्रिटेन का अधिकार था।
Question : अरब लीग के गठन के उद्देश्यों की चर्चा करें तथा अरब राष्ट्रों के हितों की रक्षा में इसकी भूमिका का मूल्यांकन करें।
(2001)
Answer : ‘अरब लीग’ की स्थापना का उद्देश्य सदस्य देशों के बीच पारस्परिक संबंधों को मजबूत करने के लिए होने वाले समझौतों को लागू करना, समय-समय पर उनकी बैठक बुलाना, राजनीतिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना, सदस्य राष्ट्रों की स्वतंत्रता तथा संप्रभुता की रक्षा करना, अरब राष्ट्रों से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करना तथा आर्थिक, सांस्कृतिक व यातायात क्षेत्र में एक-दूसरे का सहयोग करना है।
अरब लीग के मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं: सदस्य राष्ट्रों की संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना, प्रत्येक देश को अन्य देशों के साथ समझौते करने की स्वतंत्रता, बिना युद्ध विवादों का शांतिपूर्ण समाधान, सदस्य देशों के प्रशासनिक व्यवस्था का सम्मान तथा सभी सदस्य देशों के बीच एकता को बढ़ावा देना।
पश्चिम एशिया में निवास करने वाले अरब लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का उभार विश्व युद्ध के बाद के दौर की एक महत्वपूर्ण घटना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान धुरी राष्ट्रों को अरब देशों के सहयोग व सद्भाव की जरूरत पड़ी। इसके कारण अरब देशों में राष्ट्रीयता की भावना मजबूत हुई तथा उन्होंने साम्राज्यवादी शक्तियों को अरब दुनिया से बाहर करने का निश्चय किया। इसके परिणामस्वरूप अरब देश एक-एक कर स्वतंत्र होने लगे।
अरब भाईचारे को बनाए रखने तथा उसे मजबूत करने के उद्देश्य से अरब राष्ट्रों ने 22 मार्च, 1945 को काहिरा में एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसके परिणामस्वरूप ‘अरब लीग’ नामक संघ का जन्म हुआ। इसका मुख्य सचिवालय ट्यूनिशिया में है। शुरुआत में मिस्र, ईराक, सीरिया, जॉर्डन, सऊदी अरब, यमन तथा लेबनान इसमें शामिल हुए। प्रत्येक देश को पूर्ण संप्रभुता प्राप्त थी तथा ‘अरब लीग’ के निर्णय का पालन करने हेतु वे बाध्य नहीं थे।
विश्व युद्ध के बाद के दौर में अरब देशों के नेतृत्व की प्रकृति में भी बदलाव आया। पुराने बूढ़े राष्ट्रवादी नेताओं की जगह नए नौजवान नेताओं ने ले ली।
पुराने नेतृत्व ने स्वतंत्र देशों को संगठित कर अरब लीग के रूप में एक ढीले-ढाले क्षेत्रीय संगठन का गठन किया था। इसे सफलता नहीं हासिल हुई क्योंकि यह अरब राष्ट्रवादियों की आकांक्षाओं व आशाओं के प्रतिकूल था। यह केवल राजनीतिक यथास्थिति को बनाए रखने तथा विदेशी राजनीतिक ढांचे को मजबूत करने में सफल हुआ। अरब एकता की दिशा में भी यह संगठन कोई कारगर भूमिका नहीं निभा पाया। यद्यपि 1948 में धुरी राष्ट्रों की हार के बाद लीग की रही-सही प्रतिष्ठा भी खत्म हो गयी लेकिन आम मुद्दों पर बहस के लिए लीग एक मंच के रूप में कार्य करता रहा। इसके अतिरिक्त आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों ंमें लीग सदस्य देशों की महत्वपूर्ण सेवा करता रहा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व राजनीति में उत्पन्न वैचारिक मतभेद ने अरब देशों के बीच भी जगह बना ली तथा विचारधारा, आर्थिक संगठन व राज्य नीति के संदर्भ में उनमें तीव्र मतभेद उत्पन्न हुए। इसके परिणामस्वरूप संगठित होने के बजाए अरब दुनिया कई छोटे राष्ट्रों में विभाजित हो गयी जो अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के इच्छुक थे तथा उन्होंने एक वृहत्तर अरब की धारणा का विरोध किया।
अरब दुनिया को संगठित करने की संभावना एक मृगमरीचिका के समान हो गयी। अरब लीग को इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण सफलत प्राप्त नहीं हुई क्योंकि सदस्य देशों के बीच पारस्परिक विवाद, विद्वेष तथा कड़वाहट कायम थी। लीग अपने अंतर्निहित समस्याओं के कारण असफल हुआ। अरब देश अपनी प्रकृति में उच्च रूप से वैयक्तिक (Individual) हैं। कोई भी अरब देश किसी अन्य देश का प्रभाव या दबाव स्वीकारने का इच्छुक नहीं था। इनमें कई राष्ट्राध्यक्षों को परंपरागत राजवंशीय प्रतिद्वंद्वियों से खतरा बना रहता था। उदाहरण के लिए जॉर्डन के शाह हुसैन तथा सऊदी अरब के शाह फैसल जानी दुश्मन थे। अरब लीग के नेतृत्व के मुद्दे पर इनके बीच सर्वसम्मति नहीं बन पाती थी। द यूनाइटेड अरब रिपब्लिक (मिस्र) अरब राज्यों में सर्वाधिक विकसित था। अतः स्वाभाविक रूप से अरब जगत का नेता बने रहना चाहता था। लेकिन मक्का व मदीना जैसे महत्वपूर्ण स्थलों के सऊदी अरब में होने के कारण वह अरब राष्ट्रों में अपने को सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझता था। अरब देशों में आंतरिक मतभेद, संघर्ष तथा गुटबाजी बनी रही। कभी-कभी तो सदस्य देश प्रस्तावित बैठक के आयोजन स्थल व कार्यसूची को लेकर झगड़ जाते थे। कई अरब देशों में यह धारणा पनपने लगी कि लीग, यूनाइटेड अरब रिपब्लिक के राष्ट्रीय नीतियों को लागू करन का माध्यम बन गया है तथा इसे नासिर के प्रभाव से मुक्त करने के लिए अतिशीघ्र इसका मुख्यालय काहिरा से हटा कर कहीं और ले जाना चाहिए। इस प्रकार अरब देशों के बीच विद्यमान इन पारस्परिक संघर्षों ने लीग के कार्यों में बाधा उत्पन्न की।
अपने आपसी झगड़ों, शत्रुता व कड़वाहट के कारण अरब देश किसी भी मामले पर सर्वसम्मत निर्णय नहीं ले सके। अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु पश्चिमी शक्तियों ने अरबों के मतभेद का लाभ उठाया। अतः अरब लीग कभी भी मजबूत नहीं हो पाया। इजरायल के विरोध तथा उसे समाप्त करने के मुद्दे पर उनमें एकजुटता हो सकती है लेकिन इस प्रश्न पर भी उनमें काफी मतभेद हैं।
उपरोक्त सभी कमियों के बावजूद ‘अरब लीग’ अरब राष्ट्रों के गौरव का प्रतीक एक क्षेत्रीय संगठन है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी पर्यवेक्षक बना हुआ है। यह औपचारिक समझौतों पर हस्ताक्षर करता है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकांश अभिकरणों के साथ अनौपचारिक समझौते कायम करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अफ्रीकी व एशियाई देशों के सहयोग से अरब लीग ने उपनिवेश विरोधी अभियान शुरू किया तथा इसे कई अरब राष्ट्रों को औपनिवेशिक शक्तियों के चंगुल से बाहर करने में सफलता मिली। फिलीस्तीन के मुद्दे पर अरब लीग ने विश्व समुदाय के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त किया। तेल को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हुए अरब लीग ने अपने विरोधियों को परास्त किया।
Question : फ्पेरिस (शांति सम्मेलन) में केवल सिद्धांतों का ही अंतर नहीं था वरन व्यक्तित्व का भी टकराव था।"
(2001)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध के समापन के बाद पेरिस में आयोजित शांति सम्मेलन न केवल वैचारिक विरोधाभाषों से भरपूर था अपितु विश्व के महत्वपूर्ण नेताओं, अमेरिकन राष्ट्रपति वुडरो विल्सन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जार्ज, फ्रांसीसी प्रधानमंत्री क्लीमेंसू तथा इटली के प्रधानमंत्री ओरलैंडो के आपसी व्यक्तित्वों का भी संघर्ष था। वुडरो विल्सन यहां पर भेदभाव रहित तथा न्याय पर आधारित लंबी शांति की स्थापना हेतु अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल का प्रतिनिधित्व करते हुए आये थे। विल्सन एक आदर्शवादी थे, तथा इनके दो उद्देश्य थे- राष्ट्र संघ की स्थापना करना तथा आत्मनिर्णय के सिद्धांतों को स्वीकार करना। इस सम्मेलन में विल्सन के आदर्शवाद का भौतिकवाद से सीधा टकराव हुआ। अधिकतर मामलों में भौतिकवाद की ही विजय हुई।
अपने लंबे अनुभव तथा कूटनीतिक ज्ञान के कारण क्लीमेंसू न केवल फ्रांस का एक प्रभावशाली नेता था अपितु पेरिस सम्मेलन पर भी इनका जबरदस्त प्रभाव रहा। इसने अपनी आंखों से देखा था कि किस प्रकार जर्मनी ने 1870 में फ्रांस को बुरी तरह हराया था, इसलिए इसका बदला लेने की भावना इनमें विद्यमान थी। इसने आदर्शवाद को अस्वीकार कर दिया तथा विल्सन के 14 सूत्री मांगों को कोई मान्यता नहीं दी।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज ने 1918 में बदला लेने के प्रचार के बल पर ही चुनाव जीता। यह एक महान कूटनीतिज्ञ था। इसके तीन उद्देश्य थे- जर्मनी की नाविक शक्ति को कुचल देना, फ्रांस के उत्कर्ष पर नियंत्रण लगाना तथा क्षतिपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करना।
ओरलैंडो न केवल एक विद्वान व्यक्ति था बल्कि एक कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। यह विल्सन के उन वचनों को पूर्ण किये जाने के विरोध में था जो युद्ध के समय गुप्त सम्मेलनों द्वारा लिये गये थे। ये शांति सम्मेलन से कुछ समय के लिए बाहर भी चले गये।
उपर्युक्त सभी महान नेता थे तथा स्थिति पर उनकी अपनी समझ थी, जबकि विल्सन एक स्थायी शांति की स्थापना करना चाहते थे, क्लीमेंसू तथा ओरलैंडो क्रमशः फ्रांस और इटली की सीमाओं की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दे रहे थे। इस बारे में कोई संदेह नहीं था कि लॉयड जार्ज सत्य और न्याय पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना के पक्षधर थे, लेकिन ये केवल ग्रेट ब्रिटेन के हितों को सुरक्षित रखने के आधार पर शांति स्थापना का प्रयास कर रहे थे।
इस प्रकार उपर्युक्त सभी नेता अपने-अपने हितों को सामने रखकर इस सम्मेलन में भाग ले रहे थे, जिससे वैचारिक गतिरोध बार-बार उभरा।
Question : "मार्क्सवादी साम्यवाद मुख्यतया जर्मन हीगलवाद और फ्रांसीसी समाजवाद की संतान है।"
(2001)
Answer : मार्क्सवादी विचारधारा प्रमुख रूप से जर्मन की हीगलवादी विचारधारा तथा फ्रांसीसी समाजवादी विचारधारा की संतान है। कार्ल मार्क्स 19वीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में उपजे बौद्धिकवादी तथा आदर्शवादी विचारधाराओं से प्रभावित था। इस बौद्धिक विचारधारा में समाजवादी रुझान तथा फ्रांसीसी क्रांति के नारे तथा हीगल के दर्शन का समावेश था।
बर्लिन विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन के दौरान कार्ल मार्क्स पर हीगल के दर्शन का गंभीर प्रभाव पड़ा। मार्क्स हीगल के दर्शन के इतिहास तथा तर्कशास्त्र के विज्ञान से प्रभावित हुआ। यह युवा हीगलवादी के रूप में इस दार्शनिक संघ में शामिल हो गया। यद्यपि यह हीगलवादी संघ का सबसे छोटा सदस्य था। इसने उनके विश्वास, सम्मान तथा यहां तक कि प्रशंसा को अभिप्रेरित किया। वे इसे शक्तिशाली हीगलवादी विचारधारा के विरोधी की जगह एक नये हीगलवादी के रूप में देखने लगे।
प्रजातंत्र में राजनीतिक समानता स्थापित करने की इच्छा तथा मानवों में आर्थिक समानता स्थापित करने के लक्ष्यों को लेकर फ्रांसीसी समाजवाद की उत्पत्ति हुई थी। सामाजिक स्तरीकरण की विद्यमानता ने मजदूर वर्गों के संकटों को और अधिक बढ़ा दिया था। ऐसे समय में सुधारकों तथा विचारकों का एक नया वर्ग अस्तित्व में आया, जिसने मानवों को स्वार्थी बनने की जगह सामाजिक बनने का आग्रह किया। इनमें से कुछ समाजवादी जैसे रॉबर्ट ऑवेन, संत सिमॉन, चार्ल्स फौरिअर, मार्क्स से प्रभावित थे। हीगल की ही तरह मार्क्स ने स्वीकार किया कि मानवता का इतिहास केवल एक है तथा यह बार-बार दुहराई जाने वाली प्रक्रिया नहीं है। इसके साथ ही इसने यह भी स्वीकार किया कि ऐतिहासिक प्रक्रिया के कानूनों की खोज की जानी चाहिए।
लेकिन मार्क्स हीगल के दर्शन तथा फ्रांसीसी समाजवाद से विचलित भी होता है। समाजवाद में निश्चित नियमों का अभाव होता है। मार्क्स ने समाजवाद की इस कमी को दूर किया तथा इसे नया दर्शन तथा एक निश्चित दिशा दी। इसके द्वारा 1948 में जारी ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में स्पष्ट रूप से कहा गया था ‘आधुनिक समाजवाद की चीत्कार।’ आर्थिक विकास का इतिहास तथा वर्ग संघर्ष मार्क्सवादी साम्यवाद के दो प्रमुख सिद्धांत हैं। इसने ऐतिहासिक भौतिकवाद, अपहरण, उत्पादन की पद्धति तथा वर्ग संघर्ष के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया तथा समाज के दो वर्गों के मध्य संघर्ष के बिंदुओं का मूल्यांकन किया। इसने निष्कर्ष निकाला कि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के बाद समाज अनिवार्य रूप से साम्यवाद के चरमोत्कर्ष पर पहुंच जायेगा जैसे वर्गविहीन समाज। मार्क्स के अनुसार साम्यवाद एक व्यवस्था है जिसमें संपत्ति सभी की है तथा सभी के द्वारा स्वीकार किया जा सकता है।
वह काल जिससे मार्क्स संबंधित था, तब फ्रांसीसी क्रांति की शुरूआत हो रही थी। लेकिन इसका ऐतिहासिक तथा दार्शनिक आकार औद्योगिक तथा सामाजिक क्रांतियों के समय प्राप्त हुआ। यही कारण है कि उसके सिद्धांतों को इसी समय में निश्चित आकार प्राप्त हुआ।
Question : विश्वयुद्धों के बीच की अवधि में नये यूरोपीय समाज के उत्थान और विकास का विवरण दीजिये।
(1999)
Answer : प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के बीच के 20 वर्ष का काल दुनिया भर में जबर्दस्त परिवर्तनों का दौर था। यूरोप में ऐसी अनेक घटनाएं हुईं, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया। इस काल में एक व्यापक आर्थिक संकट आया जिसने दुनिया के लगभग सारे भागों और खासकर पश्चिम के सबसे उन्नत पूंजीवादी देशों को प्रभावित किया। इस काल में हुए परिवर्तन और विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के कारणों को ही नहीं बल्कि युद्ध के बाद उभरने वाली विश्व को समझने के लिए भी आवश्यक है। इस तरह आज के विश्व को समझने में उनका केन्द्रीय महत्व है।
प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में जर्मनी में एक क्रांति हुई जिसके कारण जर्मनी का सम्राट देश छोड़कर भाग गया और जर्मनी गणतंत्र बन गया। गणतंत्र की घोषणा से जर्मनी के क्रांतिकारी संतुष्ट नहीं हुए और जनवरी 1919 में उन्होंने एक और विद्रोह आरंभ कर दिया परंतु विद्रोह को कुचल दिया गया। जर्मन क्रांतिकारी आंदोलन के दो नेताओं-कार्ल लाइबनेख्ट और रोजा लक्जम्बर्ग की हत्या कर दी गयी। हंगरी में भी एक क्रांति हुई परन्तु जो क्रांतिकारी सरकार अस्तित्व में आयी वह कुछ ही महीनों बाद उलट दी गयी। रूसी क्रांति से प्रेरित होकर यूरोप के अनेक दूसरे राज्यों में भी क्रांतियां हुईं, जैसे फिनलैंड और तीन बाल्टिक राज्यों (लात्विया, एस्तोनिया और लिथुआनिया) में, जो पहले रूसी साम्राज्य के भाग थे। परन्तु ये सभी क्रांतियां कुछ ही समय के बाद कुचल दी गयी। यूरोप के लगभग हरेक देश में समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियां उभरी परन्तु, यूरोप के अनेक देशों में कुछ ही वर्षों में समाजवादी आंदोलन को हार का सामना करना पड़ा और वहां तानाशाही सरकारें सत्ता में आयीं। इन सरकारों ने केवल समाजवादी आंदोलनों को ही नहीं कुचला बल्कि लोकतंत्र को भी समाप्त कर दिया। इस काल में यूरोप में तानाशाही सरकारों की स्थापना से यूरोप की जनता पर ही नहीं बल्कि पूरे विश्व पर घातक प्रभाव हुए। सबसे भयानक घटना जर्मनी और इटली में फासीवाद की विजय थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
इटली में 1921 में चुनाव हुए परन्तु, किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कोई स्थायी सरकार नहीं बनायी जा सकी। चुनाव में अपनी खराब प्रदर्शन के बावजूद मुसोलिनी ने 28 अक्टूबर, 1922 को रोम पर धावा बोला और रोम की सत्ता पर अधिकार कर लिया। सरकार पर फासीवादियों के कब्ज़े के बाद इटली में आतंक का राज्य कायम हो गया। 1926 में मुसोलिनी ने अपनी पार्टी को छोड़कर शेष सभी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया। इटली में फासीवाद की विजय ने न केवल लोकतंत्र को नष्ट किया और समाजवादी आंदोलन का दमन किया बल्कि युद्ध की तैयारियां भी होने लगीं। उन्होंने खुलकर विस्तारवाद की नीति की पैरवी की और कहा कि अपना विस्तार न करने वाले राष्ट्र बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकते। इटली में फासीवादियों द्वारा सत्ता हथियाने के ग्यारह वर्षों के भीतर ही जर्मनी में नाजीवाद की विजय हुई। एडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में नाजियों ने आधुनिक युग की सबसे बर्बर तानाशाही स्थापित की। हिटलर का सत्ता में आना राजनीतिक षड्यंत्रों का परिणाम था। चुनावों में
विफलता के बावजूद राष्ट्रपति ने उसे 30 जनवरी, 1933 को जर्मनी का चांसलर नियुक्त कर दिया। उसके सत्ता में आने के कुछ ही सप्ताह के अंदर जर्मनी में लोकतंत्र का ढांचा बिखर कर रह गया। समाजवादियों और कम्युनिस्टों के अतिरिक्त यहूदियों को भी अपमान और हिंसा के संगठित अभियानों का शिकार बनाया गया। कुछ ही वर्षों में पूरी तरह उनका अस्तित्व समाप्त कर देने का विचार था। साथ ही सैन्यीकरण का एक विशाल कार्यक्रम तैयार किया गया और युद्ध की तैयारियां होने लगीं। नाजीवाद की विजय जर्मन जनता के लिए ही नहीं बल्कि संसार के दूसरे भागों के लिए भी विनाशकारी सिद्ध हुई। उसी ने दूसरे विश्व युद्ध का आरंभ किया।
यूरोप के दो प्रमुख देश ब्रिटेन और फ्रांस - फासीवादी आंदोलनों के सामने नहीं झुके, हालांकि उस समय इन दोनों देशों को गंभीर
आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। गंभीर आर्थिक समस्याओं से निबटने के लिए ब्रिटेन के राष्ट्रीय सरकार ने कुछ कदम उठाये, पर बेरोजगारी की समस्या विकट ही बनी रही। जर्मनी में फासीवादी नीति की विजय के बाद ब्रिटेन में भी एक फासीवादी आंदोलन शुरू हुआ पर वह कोई खास सफलता हासिल न कर सका। ब्रिटेन लोकतांत्रिक देश बना रहा।
फ्रांस की सरकार पर अनेक वर्षों तक बड़े बैंकरों और उद्योगपतियों का दबदबा बना रहा। आर्थिक संकट के कारण राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गयी और देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। इस दौरान पापुलर फ्रंट नामक सरकार ने फ्रांस में अनेक आर्थिक सुधार कर लोकतंत्र को बचाये रखने में सफल रहे, फिर भी इन देशों की विदेश नीति यूरोप के दूसरे भागों में जनतंत्र को बनाये रखने और युद्ध को रोकने में सहायक नहीं हो सकी। इसी समय विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का दौर भी आरंभ हुआ और 1931 तक यह मंदी यूरोप के सभी पूंजीवादी देशों तक फैलने लगी। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, उत्पादन में कमी निर्धनता और भूखमरी इस मंदी के परिणाम थे। इस आर्थिक संकट के गंभीर राजनीतिक परिणाम हुए। 1929-33 के आर्थिक संकट से प्रभावित न होने वाला अकेला देश सोवियत संघ था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के काल में सोवियत संघ प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा और विश्व के मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा। 1921 में वहां नई आर्थिक नीति लागू की गयी। कुछ वर्षों के बाद 1929 में सोवियत संघ ने जब अपनी पहली पंचवर्षीय योजना का आरंभ किया तो आर्थिक पुनर्रचना और औद्योगीकरण का एक जोरदार कार्यक्रम आरंभ हुआ। कुछेक वर्षों में ही सोवियत संघ प्रमुख औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरा। 1922 में सोवियत संघ में शामिल गणराज्यों की संख्या पांच थी। 1936 में एक नया संविधान लागू किये जाने के समय उसकी संख्या ग्यारह थी। बाद में सोवियत संघ में सोवियत समाजवादी गणराज्यों की संख्या पंद्रह हो गयी। अधिकांश यूरोपीय शक्तियों एवं अमेरिका ने लम्बे समय तक सोवियत संघ को मान्यता नहीं दी। उसे पेरिस शांति सम्मेलन एवं राष्ट्र संघ में प्रतिनिधित्व भी नहीं दिया गया। वह अपने से खुली दुश्मनी वाले देशों से घिरा रहा फिर भी उसकी बढ़ती शक्ति के कारण उसे अनदेखा नहीं किया जा सका और एक के बाद दूसरे देश ने धीरे-धीरे मान्यता दे दी। सोवियत संघ के प्रति अपनी शत्रुता के कारण यूरोपीय देशों ने फासीवादी शक्तियों के तुष्टिकरण की नीति अपनायी और इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।
1936 में स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ गया। जनरल फ्रांको के नेतृत्व में सेना के एक हिस्से ने विद्रोह कर दिया जिसे इटली एवं जर्मनी का सशस्त्र समर्थन मिला। स्पेन की गणतांत्रिक सरकार ने फासीवादियों के विरुद्ध सहायता की मांग की परन्तु उसकी मदद के लिए केवल सोवियत संघ आया। ब्रिटेन और फ्रांस ने हस्तक्षेप न करने की पैरवी की फिर भी गणतंत्रवादियों को विश्वव्यापी समर्थन मिला। अंततः फ्रांको के नेतृत्व में फासीवादी शक्तियां 1939 में गणतंत्र को नष्ट करने में सफल हो गयीं। अधिकांश पश्चिमी शक्तियों ने फौरन ही नई सरकार को मान्यता दे दी। फासीवाद की विजय का कारण उसके प्रति पश्चिमी देशों की तुष्टिकरण की नीति थी जिसके फलस्वरूप फासीवादी देश अधिकाधिक आक्रामक होते गये। जब फासीवादी देशों ने आक्रामक गतिविधियां आरंभ कीं तो सोवियत संघ ने उसके खिलाफ कार्रवाई करने पर जोर दिया मगर पश्चिमी देशों ने सोवियत प्रस्ताव को नहीं माना। वे सोवियत संघ को अपने लिए खतरा मानते थे और आशा करते रहे कि फासीवादी देश उसे नष्ट कर देंगे। परन्तु फासीवादी देशों की महत्वाकांक्षाएं संतुष्ट नहीं हुईं थी ये देश विश्व के नए सिरे से बंटवारे की योजना बना रहे थे और इसलिए स्थापित साम्राज्यवादी शक्तियों से उनका टकराव अवश्यंभावी था। इन्हीं परिस्थितियों के संदर्भ में द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि को देखा जाना चाहिए।
Question : फ्स्टालिन का रूस एक निरंकुश शासन का देश था।" इस विचार का आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षण कीजिये।
(1999)
Answer : 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद अपनायी जाने वाली नीतियों को लेकर शासक कम्युनिस्ट पार्टी में अनेक गंभीर मतभेद उभरे जो अस्तित्व में रहने वाली अकेली राजनीतिक पार्टी थी। विभिन्न समूहों और अलग-अलग नेताओं के बीच सत्ता के लिए गंभीर संघर्ष भी चल रहे थे। इस संघर्ष में स्टालिन की विजय हुई। 1927 में ट्राटस्की को, जिसने क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी और लाल सेना का गठन किया था, कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया। 1929 में उसे निर्वासित कर दिया गया। 1930 के दशक में लगभग वे सभी नेता खत्म कर दिये गये, जिन्होंने क्रांति में और उसके बाद के वर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थीं। उनके खिलाफ झूठे आरोप लगाये गये और दिखावटी मुकदमों के बाद उन्हें फांसी दे दी गयी। राजनीतिक लोकतंत्र तथा भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता नष्ट हो गयी। पार्टी के अंदर भी मतभेदों को बर्दाश्त नहीं किया जाता था। स्टालिन कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव था। 1953 में अपनी मृत्यु तक वह तानाशाही व्यवहार करता रहा। इन घटनाओं का सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और इसमें ऐसी विशेषताएं उभरीं जो मार्क्सवाद और क्रांति के मानवतावादी आदर्शों के विपरीत थीं। स्वतंत्रता के सीमित हो जाने के कारण कला और साहित्य के विकास पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा। स्टालिन ने रूस पर 1953 तक दृढ़तापूर्वक शासन किया। उसके नेतृत्व में रूस की सेनाओं ने द्वितीय विश्वयुद्ध में विजय प्राप्त की। तीन पांच वर्षीय योजनाओं द्वारा उसने रूस को शक्तिशाली देश बना दिया। 1942 तक स्टालिन ने सरकार में कोई पद ग्रहण न किया। वह केवल रूस के साम्यवादी दल का महासचिव था और पोलित ब्यूरो का मुख्य सदस्य था।
स्टालिन और उसके साथियों के सामने मुख्य कार्य यह था कि किस प्रकार रूस में समाजवादी व्यवस्था स्थापित की जाये। रूस के बोल्शेविक ने कृषि, उद्योग और व्यापार से पूंजीवादी तत्त्वों को निकालने के लिए योजनायें बनायीं। कृषि के क्षेत्र में उनके हमले का निशाना कुलक थे जिनके पास हल चलाने के लिए मशीनरी थी और जो काम के लिए मजदूर रखते थे। उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में मुनाफा रखने वाले लोगों पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाये गये। उसका परिणाम यह हुआ कि तीन लाख से अधिक अमीरों का दिवाला निकल गया परन्तु प्रतिबंधों के बावजूद निजी व्यापार वाले लोग बच गये।
जब स्टालिन सत्तारूढ़ हुआ, उस समय रूस की आर्थिक समस्याओं को सुलझाने का प्रश्न सामने आया। यह ठीक है कि लेनिन द्वारा चलायी गयी नई आर्थिक नीति के फलस्वरूप देश का कृषि और औद्योगिक उत्पादन 1913 के स्तर पर पहुंच गया था परन्तु वह पर्याप्त न था। उससे आम लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति न की जा सकती थी और रूस संसार में साम्यवाद का नेता नहीं बन सकता था। उसे पूंजीवादी देशों के संगठित आक्रमण का भी भय था। रूस अपनी सैन्य शक्ति द्वारा ही संसार में साम्यवाद का प्रसार कर सकता था। उसके लिए यह आवश्यक था कि वह अधिक से अधिक युद्ध सामग्री और शस्त्रस्त्रें को बड़ी मात्र में पैदा करे। यह तभी हो सकता था यदि रूस में भारी उद्योग स्थापित किये जायें। उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह आवयक था कि रूस के प्राकृतिक साधनों का पूरा-पूरा विकास और उपयोग किया जाये और देश का आर्थिक विकास सरकार की देख-रेख में ठीक ढंग से किया जाये। 1925 में 11 सदस्यों के एक राज्य योजना आयोग की नियुक्ति की गयी और सारे देश के आर्थिक विकास के लिए योजना तैयार करने का काम सौंपा गया। उस आयोग ने 1925 से 1928 तक कठिन परिश्रम करके प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की। तीन पंचवर्षीय योजनाओं के फलस्वरूप सोवियत रूस में इतनी औद्योगिक उन्नति हुई कि जब नाजियों ने रूस पर 1941 में हमला किया तो रूस का उस समय का उत्पादन 1913 की तुलना में 9 गुना था और में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या 1913 से तीन गुना थी। पहले रूस आर्थिक रूप से पिछड़ा था परन्तु अब वह औद्योगिक देश बन गया।
रूस के किसानों ने कृषि का आधुनिकीकरण कर लिया। नये शहर बनाये गये। नए उद्योग चलाये गये। निम्न वर्ग के लोगों से सरकार ने अच्छा व्यवहार किया और उनकी शिक्षा और रहने का प्रबंध भी किया। विज्ञान की बड़ी उन्नति हुई। श्रमिकों को नौकरी की चिंता न रही। राजनीतिक अपराधों को छोड़कर न्याय पद्धति सुधार दी गयी। बोल्शेविक नेताओं ने साधारण लोगों के जीवन को सुधारने के लिए बहुत काम किया। सोवियत संघ विश्व में शक्तिशाली बन गया और वहां के लोगों में आत्मविश्वास आ गया। परन्तु इस सफलता के लिए रूस के लोगों को त्याग भी करना पड़ा। उन्होंने वही कुछ किया जो उनके नेताओं ने आदेश दिये। जिन लोगों ने नेताओं की नीति को न माना और उसका विरोध किया, उनको बहुत कड़ी यातनायें भुगतनी पड़ी। उनको समानता तो मिली परन्तु स्वतंत्रता नहीं। उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का इसलिए बलिदान कर दिया ताकि उनका देश महान और शक्तिशाली बन सके और साधारण लोग सुख से रह सकें।
1935-38 के काल में रूस के नेताओं के विरुद्ध बहुत से मुकदमे चलाये गये। बोल्शेविक दल के पुराने कार्यकर्ता और लाल सेना के जनरलों के विरुद्ध देशद्रोह के आरोप लगाये गये। जनवरी 1935 में ‘जिनोनीव’ और ‘कामेनिव’ को गिरफ्रतार किया गया और उनके खिलाफ यह अभियोग लगाया गया कि उन्होंने जर्मनी की गुप्त पुलिस की मदद से स्टालिन को मारने का षड्यंत्र रचा था। पांच दिनों में उन्हें दोषी ठहराया गया और 24 घंटे में उन्हें गोली से उड़ा दिया गया। वैसे ही मुकदमे 1937 में चलाये गये। अपराधियों के नाम थे- कार्ल रेडिक, ग्रीगोरी सोकोलनिकोव और ग्रीगोरी पायताकव। उनके खिलाफ यह अभियोग था कि उन्होंने सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में जर्मनी और जापान की सहायता करना स्वीकार कर लिया था। सारे 17 अपराधियों ने अपने अपराध मान लिये और उनमें से 13 को गोली से उड़ा दिया गया। केवल चार को थोड़ी सजायें दी गयीं ऐसा ही नरसंहार 1939 के प्रारंभ में हुआ। उस समय इन रूसी अफसरों को या तो साम्यवादी दल से निकाल दिया गया या उन्हें मरवा दिया गया। उनके खिलाफ यह आरोप था कि वे चाहते थे कि रूस और जर्मनी का परस्पर सहयोग हो और मित्रता बढ़े। उसका यह परिणाम हुआ कि फ्रांस के अधिकारी भी फ्रांस और सोवियत सेनाओं के परस्पर सहयोग की बात करने में संकोच करने लगे और यही कारण था कि फ्रांस और सोवियत संघ की सेनाओं के अध्यक्ष बातचीत न कर सके।
यह कहा जाता है कि 1935-38 के नरसंहारों का यह कारण था कि स्टालिन और उसके सहयोगी देश की सारी शक्ति अपने हाथों में केंद्रित करना चाहते थे और वह यह नहीं चाहते थे कि उनका कोई विरोधी अथवा प्रतिस्पर्धी उनके हाथों से राज्य की सत्ता छीन लें। इसलिए उन्होंने या तो उनको मार डाला अथवा उनको देशद्रोही कहकर देश से निकाल दिया। रूस के प्रत्येक नागरिकों का कर्त्तव्य था कि वह रूस के संविधान को माने, कानून का पालन करे, श्रमिक अनुशासन को कायम रखे, सार्वजनिक कर्तव्यों को ईमानदारी से निभायें और समाजवादी मेलजोल के नियमों का आदर करे। देश की रक्षा करना प्रत्येक नागरिकों का प्रथम कर्त्तव्य था। देश-द्रोह, निष्ठा की शपथ का उल्लंघन सबसे घृणित और नीच काम समझा जाता था और अपराधी को कठोर दंड दिया जाता था। वस्तुतः स्टालिन की तानाशाही नीति ने सोवियत रूस को एक बीमार देश से विश्व शक्ति की पंक्ति में ला दिया था परन्तु वहां मानवाधिकार की सदैव उपेक्षा ही की गयी थी।
Question : द्वितीय विश्व युद्ध के उत्तरवर्ती परिदृश्य में महायुद्ध के दौरान के मित्र, शांतिकाल में मित्र नहीं रह गये। अपने अध्ययन की कालावधि के दौरान इस मत की सत्यता का परीक्षण कीजिये।
(1999)
Answer : द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् विश्व के राजनीतिज्ञों व नागरिकों को यह आशा थी कि संसार में अब दीर्घकालीन शांति स्थापित हो जायेगी और विजयी मित्र राष्ट्र युद्धकालीन मित्रता एवं सहयोग को बनाये रखकर युद्धोत्तर कालीन जटिल समस्याओं को भी आपसी सूझबूझ से सुलझा लेंगे। किन्तु लोगों की यह आशा फलीभूत न हो सकी। यह सत्य है कि हिटलर को परास्त करने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका ने रूस से सहयोग किया था किन्तु युद्ध के समाप्त होते ही युद्धकाल के साथी भिन्न-भिन्न दिशाओं में भटकने लगे। इन सब में परस्पर तनाव बढ़ता गया। युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर रूस और अमेरिका जैसी दो महाशक्तियों का उदय हुआ। ये दोनों दो अलग-अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे। अतः दोनों देशों के बीच विभिन्न समस्याओं के संबंध में शीघ्र ही तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गया। इन मतभेदों ने इतना तनाव और वैमनस्य उत्पन्न कर दिया कि सशस्त्र संघर्ष के न होते हुए भी दोनों के बीच आरोपों, प्रत्यारोपों एवं परस्पर विरोधी राजनीतिक प्रचार का युद्ध आरंभ हो गया जो अनेक वर्षों तक चलता रहा। इस प्रकार परस्पर विरोधी राष्ट्रों के बीच कटनीतिक संबंध तो बने रहे और कोई प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हुआ किन्तु उनका पारस्परिक व्यवहार शत्रुतापूर्ण बना रहा। यह शीतयुद्ध धीरे-धीरे और तीखा होता गया और दुनिया दो खेमों में बंट गयी। इनमें से एक खेमा अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों का था और दूसरा खेमा सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों का।
इस शीतयुद्ध के छिड़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारण कम्युनिज़्म के प्रति पश्चिमी देशों का भय था। सोवियत संघ की ताकत बढ़ी थी, पूर्वी और मध्य यूरोप के देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का शासन स्थापित हुआ था और दुनिया के कई भागों में कम्युनिस्ट पार्टियों का असर बढ़ा था। इन सब बातों ने अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी यूरोपीय देशों की सरकारों को डरा दिया। चीन में दो दशकों से जारी गृहयुद्ध में 1949 में कम्युनिस्टों की विजय हुई तो यह डर और भी बढ़ गया। अमेरिका ने खुली घोषणा की कि उसका उद्देश्य कम्युनिज़्म के विस्तार को रोकना है। पश्चिमी यूरोप के देशों को अमेरिका ने जो आर्थिक सहायता दी उसका एक उद्देश्य कम्युनिज़्म को फैलने से रोकना भी था। ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप के देश अमेरिका के साथ हो गये और वे भी ऐसी नीतियां अपनाने लगे जिनका उद्देश्य कम्युनिज़्म के प्रसार को रोकना था। लोकतंत्र तथा उपनिवेशों के स्वतंत्रता आंदोलनों पर इसके विपरीत प्रभाव पड़े। लोगों की स्वतंत्रता कम कर दी गयी। जो देश खुद उपनिवेशवादी न थे परन्तु औपनिवेशिक शक्तियों के साथ थे, वे अनेक देशों के स्वाधीनता आंदोलनों को विरोध की दृष्टि से देखने लगे। जो देश स्वतंत्र नीति अपनाना और सोवियत संघ के साथ अच्छे संबंध बनाना चाहते थे, उनको शंका की दृष्टि से देखा जाने लगा। इन सभी कारणों से अंतर्राष्ट्रीय स्थिति तनावपूर्ण हो गयी। इसके कारण कुछ क्षेत्रों में युद्ध भड़वेफ़ और अनेक दूसरे क्षेत्रों में टकराव लंबे खिंच गये।
सैनिक गुटों की स्थापना के कारण विश्व में बढ़ रहे तनाव और भी भयानक हो गये। सोवियत संघ से रक्षा के लिए 1949 में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना हुई। एक नाटो सेना का गठन किया गया और यूरोप के अनेक देशों में उसके अड्डे बनाये गये। दुनिया के दूसरे भागों में भी अमेरिका और ब्रिटेन ने ऐसे ही सैनिक संगठन बनाये। 1954 में दक्षिण-पूर्वी एशिया संधि संगठन (सीटो) बनाया गया। अमेरिका ने तथाकथित कम्युनिस्ट आक्रमण के खतरे के मुकाबले के लिए दुनिया भर में अपने सैनिक अड्डे बनाये। इन संगठनों और सैनिक अड्डों की स्थापना ने पहले से ही तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को और भी बिगाड़ा। जो देश इन संगठनों के सदस्य न थे, वे इन संगठनों और सैनिक अड्डों को शांति और स्वाधीनता के लिए खतरा समझने लगे। इन संगठनों के कुछ सदस्य देशों में ये संगठन बहुत ही बदनाम हुए। इन पश्चिमी संगठनों या पश्चिमी देशों द्वारा प्रायोजित संगठनों के मुकाबले सोवियत संघ और समाजवादी देशों ने ‘वारसा पैक्ट’ की स्थापना की। इस संधि के अनुसार सोवियत संघ ने इन देशों में अपनी सेनायें नियुक्त कीं। मगर सोवियत संघ या वारसा संधि के देशों ने दुनिया के दूसरे भागों में सैनिक अड्डे नहीं बनाये। सोवियत संघ ने चीन के साथ मित्रता और पारस्परिक सहयोग की संधियां भी कीं।
सैनिक अड्डों की स्थापना के साथ विनाशकारी हथियारों की दौड़ भी शुरू हो गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध के लगभग चार वर्षों तक अमेरिका परमाणु शक्ति वाला एकमात्र देश था परंतु 1949 में रूस ने भी अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया। कुछ ही वर्षों में ऐसे नाभिकीय हथियार विकसित हो गये जो जापान पर गिराये गये बमों से हजारों गुना अधिक विनाशकारी थे। इन बमों के मात्र परीक्षण से ही जीवन के लिए गंभीर खतरे उत्पन्न हो गये। नाभिकीय हथियारों के परीक्षण और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने के लिए दुनिया के सभी भागों में अनेक आंदोलन उठ खड़े हुए फिर भी दुनिया में नाभिकीय हथियारों का जखीरा बढ़ता ही गया। आज दुनिया में इतने अधिक नाभिकीय बम हैं कि पूरी दुनिया को एक नहीं कई बार नष्ट किया जा सकता है। नाभिकीय बमों तथा दूसरे हथियारों के साथ-साथ नये-नये बमवर्षकों, पनडुब्बियों और प्रक्षेपास्त्रें का भी विकास हुआ है जो इन हथियारों को हजारों मील दूर तक ले जा सकते हैं। हथियारों की यह दौड़ शीतयुद्ध के अंग के रूप में आरंभ हुई, आज स्वयं मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बन गयी है। इन हथियारों के विकास पर बेतरह धन खर्च किया गया है। अगर इन संसाधनों को शांतिमय कार्यों में खर्च किया जाता तो पूरी दुनिया में अभाव और गरीबी के मारे करोड़ों लोगों का जीवन सुखमय बनाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता था।
Question : दुनिया की खोज के अग्रणी देश, पुर्तगाल और स्पेन समुद्र पार स्थित देशों को जीतने की दौड़ में भी प्रथम थे।
(1999)
Answer : भौगोलिक खोजों का आधुनिक विश्व के इतिहास में अद्वितीय स्थान है। यूरोपीय देशों की सुदूर सामुद्रिक यात्राओं की महत्वपूर्ण उपलब्धियों के परिणाम स्वरूप विश्व के इतिहास में एक नये युग का आरंभ हुआ। यूरोपवासियों की निरंतर बढ़ती हुई आर्थिक आवश्यकताएं भौगोलिक खोजों का महत्वपूर्ण कारण थी। इस स्थिति में पश्चिम यूरोप के देश विशेष रूप से पुर्तगाल एवं स्पेन ऐसे सुलभ जलमार्गों की खोज करने के लिए अत्यधिक व्यग्र थे जिससे उनको अरब तथा इटली के व्यापारियों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। इसके अतिरिक्त इन दोनों नवोदित राज्यों के शासकों को राज्य के बहुमुखी विकास, समृद्धि, संपन्नता, वैभव, ऐश्वर्य, उपनिवेशों की स्थापना, साम्राज्य विस्तार की प्रबल महत्त्वाकांक्षा, धर्म प्रचार तथा राष्ट्रीय गौरव में वृद्धि हेतु धन के अतिरिक्त स्रोतों की अत्यधिक आवश्यकता थी जिसके लिए नए-नए देशों की खोज करते हुए उन्हें जीतना भी जरूरी था। इसलिए स्पेन एवं पुर्तगाल के शासकों ने अपने देश के अदम्य उत्साही एवं साहसी नाविकों को जल मार्गों की खोज के लिए धन एवं अन्य आवश्यकअवयवों द्वारा प्रोत्साहित किया। 15वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में विकास प्रक्रियाओं को देखते हुए कैथोलिक चर्च के धर्माध्यक्ष ने अपने एक आदेश के द्वारा विश्व को दो भागों में विभाजित कर दिया और पूर्वी देशों का दायित्व पुर्तगाल को तथा पश्चिमी देशों का दायित्व स्पेन को दे दिया। इन दोनों देशों की औपनिवेशीकरण में विशेष रुचि थी। इन देशों ने अपने औपनिवेशिक अभियानों में ‘माया’, ‘इंका’ एवं ‘एजटेक’ की विख्यात सभ्यताओं को नष्ट कर दिया। यद्यपि 15वीं शताब्दी में विश्व में यूरोपीय विस्तार का नेतृत्त्व पुर्तगाल एवं स्पेन ने ही दिया परन्तु 16वीं शताब्दी में इन दोनों को गंभीर आघात पहुंचा। स्पेन ने लैटिन अमेरिकी देशों में अपने उपनिवेश कायम किये। ये उपनिवेश 1823 में प्रसिद्ध मुनरो सिद्धांत तक स्पेन के नियंत्रण में रहे। पुर्तगाल ने भी ब्राजील में अपने उपनिवेश कायम किये। इन दोनों देशों ने अफ्रीकी महाद्वीप में भी कुछ उपनिवेश स्थापित किये और 1960 तक इन देशों का अपने उपनिवेशों पर नियंत्रण रहा।
Question : कुछ सीमा तक अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने फ्रांस की राज्य क्रांति को प्रेरित किया।
(1999)
Answer : अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने यूरोप के अन्य राष्ट्रों की आंखें खोल दीं। अमेरिका वासियों के स्वतंत्रता संग्राम और उनकी सफलता ने फ्रांस की जनता पर गहरा प्रभाव डाला और फ्रांस की राज्य क्रांति के नेताओं को जन्म दिया। फ्रांस ने अमेरिका को इंग्लैंड के विरुद्ध धन-जन से सहायता की। अमेरिका में फ्रांसीसी सैनिक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े भी। उपनिवेशवासी इस युद्ध में सफल रहे। उनकी सफलता ने फ्रांसीसियों को भी प्रेरित किया कि वे भी क्रांति कर अपने को राजाओं की स्वेच्छाचारिता, सामंतों के अत्याचारों एवं पुरोहितों के प्रतिबंधों से मुक्त कराये। वास्तव में अमेरिकी क्रांति से सर्वाधिक प्रभावित फ्रांस ही हुआ। अमेरिका से लौटकर आने वाले फ्रांसीसी अधिकारियों ने अमेरिका के अनुभवों को लिखा। ‘लाफायत’ ने विशेष रूप से अमेरिकी क्रांति की भावना फ्रांसीसी जनमानस तक पहुंचाई। अमेरिकी लेखक एवं दार्शनिक फ्रैंकलिन की लेखनी ने फ्रांस के दार्शनिकों को प्रभावित किया। वे भी अब अमेरिकियों के समान स्वतंत्र होना चाहते थे। फ्रांसीसी क्रांति के मुख्य सिद्धांत- स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का मूल अमेरिकी संघर्ष में निहित है। अमेरिकी क्रांति में योगदान देने के कारण फ्रांस, जो पहले से ही आर्थिक संकट में था, आर्थिक दृष्टि से और अधिक क्षतिग्रस्त हुआ जिसके कारण उसकी कठिनाइयां बढ़ीं। इन कठिनाइयों ने फ्रांसीसी क्रांति को अवश्यंभावी बना दिया। इस प्रकार अमेरिकी क्रांति ने फ्रांस के सम्मुख एक उच्च आदर्श प्रस्तुत किया, जिससे प्रेरित होकर फ्रांस की जनता ने अपने शासक के विरुद्ध अधिकारों की प्राप्ति के लिए शस्त्र धारण करना उचित समझा।
Question : जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण को पूरी तरह बिस्मार्क ने अंजाम दिया।
(1999)
Answer : जर्मनी के एकीकरण का सूत्रधार बिस्मार्क ही था। बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्यप्रशा को शक्तिशाली बनाकर, जर्मन संघ से आस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बिस्मार्क को बहुत-सी आंतरिक एवं बाह्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु वह बड़े साहस और लगन के साथ आगे बढ़ता गया। प्रशा के कंधों पर जर्मनी के एकीकरण का जो भार था, उसको बिस्मार्क ने पूरी ताकत के साथ उठाया। विलियम प्रथम के सिंहासन पर बैठने के साथ जब बिस्मार्क चांसलर बना तभी जर्मनी का एकीकरण में प्रशा के हित सर्वोपरि रखे। संयुक्त राज्य जर्मनी के निर्माण के दौरान उसने इस बात का पूर्ण ध्यान रखा कि कहीं प्रशा का अस्तित्व जर्मन राष्ट्र में विलीन न हो जाए। अनुकूल परिस्थितियों का बिस्मार्क लाभ उठाने से नहीं चूका। जर्मनी के एकीकरण की सिद्धि ‘रक्त और लोहे’ के जरिये की गयी। बिस्मार्क को अपने उद्देश्य के लिए तीन युद्ध करने पड़े। शस्त्र प्रयोग और रक्तपात राष्ट्रीय एकीकरण के संदर्भ में साधन के रूप में प्रयुक्त हुए। बिस्मार्क के दृढ़ निश्चय, अदम्य साहस तथा कूटनीतिक कुशलता के आगे कोई बाधा स्थायी न बन सकी। यूरोपीय शक्तियां अपनी बनायी हुई व्यवस्था को भंग होते हुए देखते रही परंतु कोई बिस्मार्क को रोक न सका। कूटनीति का सहारा लेकर बिस्मार्क युद्ध करने से पूर्व ही युद्ध जीत लेता था। उसने सदैव जर्मनी की आवश्यकता व प्रतिष्ठा को अपने व्यक्तिगत सम्मान और प्रतिष्ठा के ऊपर समझा। इस प्रकार बिस्मार्क ने उपयुक्त परिस्थितियों का अपनी बुद्धि, दूरदर्शिता और कौशल से लाभ उठाकर शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया।
Question : 1911 में नानकिंग में एक चीनी गणराज्य की घोषणा, जिसके राष्ट्रपति सन-यात-सेन थे, के साथ फ्पुराना चीन तेजी से निस्तेज होता चला गया।"
(1999)
Answer : चीन में 1911 का वर्ष ऐतिहासिक है। इस वर्ष में सदियों से चले आ रहे राजतंत्र की समाप्ति कर गणतंत्र की स्थापना की गयी जो चीन के इतिहास की पहली क्रांतिकारी घटना थी। इसके बाद चीन की पारंपरिक राजव्यवस्था धीरे-धीरे परिवर्तित होती चली गयी। डॉ- सनयात सेन जैसे ख्याति प्राप्त राष्ट्र नेता इस गणराज्य के अध्यक्ष बने। डॉ सनयान सेन प्रखर राष्ट्रवादी नेता एवं उच्च चरित्र के व्यक्ति थे। उनके चिंतन पर पश्चिमी राजनीतिक प्रजातंत्र का गहरा प्रभाव था। उन्होंने राष्ट्रवाद के साथ प्रजातंत्र के सिद्धांतों एवं आर्थिक स्वतंत्रता को जोड़ा और आर्थिक स्वतंत्रता के अंतर्गत अनिवार्यतः नागरिकों के जीविकोपार्जन के साधनों को सम्मिलित किया। उन्होंने जनशक्ति को सुदृढ़ करने के लिए जनता का आह्नान किया। उन्होंने राष्ट्रवाद और जातीय एकता में संतुलन स्थापित किया तथा जातीय एकता को नस्ल, भाषा, धर्म एवं रीति-रिवाजों की एकरूपता माना। उनका मत था कि जनतंत्रीय सरकार शासन का एक अंतिम प्रकार है जो शक्ति, धर्म सापेक्षता एवं राजतंत्र की अवस्थाओं से गुजरने के उपरांत प्राप्त होता है। वे जमीन के वितरण एवं पूंजी पर नियंत्रण रखने में विश्वास रखते थे। वे राष्ट्रीय जीवन पर चंद व्यक्तियों के वर्चस्व के विरुद्ध थे। इस प्रकार लगभग अर्द्धशताब्दी के प्रयासों के उपरांत चीन के नागरिको ने राष्ट्रीयता की भावना के आधार पर चीन को संगठित किया। गणतंत्र की स्थापना ने 1911 की क्रांति पर सफलता की मुहर लगा दी। सनयात सेन का सपना साकार हुआ। अयोग्य तथा निर्बल मंचू सम्राटों के हाथ से सत्ता छीन ली गयी। लोगों में एक नया उत्साह पैदा हुआ। लोग चीन के उज्जवल भविष्य के प्रति आशावान हो गये। इस प्रकार चीनी क्रांति (1911) ने चीन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।
Question : रूस में लेनिन को ‘‘समाजवाद का पिता, क्रांति का संगठक और नये रूसी समाज का संस्थापक कहा गया है।’’ इस कथन का परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : 1917 में साम्यवादी शासन व्यवस्था के अंतर्गत रूसी जनता में जो असंतोष व्याप्त था, वह 1920-21 से एक के बाद एक कृषक विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ। असंतोष इतना व्यापक था कि क्रानस्टाट में स्थित सोवियत बेड़े के नाविकों तक ने, जो क्रांति के समर्थक थे, विद्रोह कर दिया और नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का निर्वाचन कराने और मुक्त व्यापार फिर से आरंभ करने की मांग की। ऐसी स्थिति में अपनी इच्छा शक्ति और दूरदृष्टि से लेनिन ने जो कार्य किया, उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। यह कहना उचित ही है कि रूस में लेनिन को ‘‘समाजवाद का पिता, क्रांति का संगठक और नये रूसी समाज का संस्थापक कहा गया है।’’
उसमें एक प्रेरक शक्ति तथा दृढ़ इच्छा शक्ति थी और उसे साम्यवाद में घोर विश्वास था। साथ ही, राजनीतिक स्थिति को समझने की शक्ति भी थी। रूस की विशेष स्थिति के योग्य मार्क्सवाद को बनाने की योग्यता, उसे रूस के अन्य साम्यवादी नेताओं से अलग किया और उनसे ऊंचा दर्जा दिलाया। उसने यह विचार दिया था कि बगैर क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांति नहीं हो सकती है और नीतियों, संगठन तथा क्रांतिकारी संघर्ष की रणनीति बनाने के लिए उसने अपना एक विचार दिया, जिसे लेनिनवाद कहा जाता है।
उसका विचार था कि मजदूर स्वयं ही आवश्यक राजनीतिक चेतना विकसित नहीं कर सकता है। इसके लिए उन्हें एक संगठन की आवश्यकता होगी। उसने क्रांतिकारी परिवर्तन को लागू करने के लिए पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया। उसका दृष्टिकोण था कि बगैर किसी समाजवादी संगठन तथा दिशानिर्देश के मजदूर आंदोलन छोटा रह जायेगा और अंततः बुर्जआ हो जायेगा। उसका मानना था कि समाजवाद बुर्जुआ पूंजीवादी समाज से जन्म ले सकता है क्योंकि यह समाज इसके लिए पूर्व निर्धारित कारकों-भौतिक, आर्थिक और सामाजिक- का निर्माण करते हैं। लेकिन लेनिन का विचार था कि समाजवाद का लक्ष्य छोटे रास्ते द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि रूस में बुर्जुआ वर्ग स्वयं ही बहुत कमजोर है। वह इतना सक्षम नहीं है कि स्वयं बुर्जुआ आंदोलन को जन्म दे सके, इसलिए रूस में समाजवाद की प्राप्ति मजदूर और किसानों को एक साथ लाकर ही हो सकती है। अतः उसने क्रांति लाने में किसानों की क्षमता को स्वीकार किया था। लेनिन ने न सिर्फ मार्क्सवादी विचारों में परिवर्तन किया था, बल्कि उसे तात्कालिक समय की आवश्यकता के अनुरूप भी बनाया था। दूसरे शब्दों में, उसने मार्क्सवाद का घरेलूकरण कर दिया था। उसे इस तरह परिवर्तित कर दिया था कि वह रूस की तत्कालीन परिस्थिति को सुलझाने में सक्षम हो सकता था।
हालांकि उस समय रूस में ऐसी परिस्थितियां विद्यमान थीं, जिसमें स्वयंमेव क्रांति हो सकती थी। लेकिन इन परिस्थितियों और व्यक्तियों को यदि किसी ने नियंत्रित क्रांति के लिए प्रेरित किया, तो वह लेनिन ही था। अगर लेनिन नहीं रहता तो भी क्रांति होती ही और जार निकोलस प्प् की सत्ता समाप्त हो जाती, मगर तब बोल्शेविक क्रांति नहीं होती और अफरातफरी मच जाती। समय को समझने की उसकी क्षमता, यथार्थता को समझने की समर्थता और तत्कालीन परिस्थितियों को समझ कर उसके लिए प्रतिक्रिया देने की उसकी क्षमता ने क्रांति को रूस के दरवाजे पर ला खड़ा करने में बहुत बड़ा योगदान दिया।
उसने रूस को एक ऐसा राजनीतिक संगठन दिया, जो पूंजीवाद को पूर्णरूपेण और हमेशा के लिए उखाड़ फेंकने के लिए तैयार था और लेनिनवादी विचारधारा को मानने वाले ऐसे लोगों की जमात खड़ी कर दी थी, जो उसके निर्णयों को मानने के लिए तैयार थे। उसने ‘अप्रैल सिद्धांत’ नामक एक स्पष्ट कार्यक्रम का निर्माण किया था, जिसमें मेनसेविकों का कोई समर्थन नहीं करना और उनसे नहीं जुड़ना, सभी शक्तियां सोवियत संघ को हस्तांतरित हो जाना और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाना शामिल था।
यह कार्यक्रम अंततः प्रांतीय सरकारों के अंत और बोल्शेविकों की लोकप्रियता का कारण बना। इतिहास में किसी भी काल में कोई भी अकेला व्यक्ति इतनी विशाल क्रांति का कारण नहीं बना, जैसा कि रूसी क्रांति के लिए लेनिन बन सका। लेनिन जानता था कि वह क्रांति ला सकता है और इसके लिए उसने हर कदम के लिए योजना बना रखी थी। जर्मनी के लोगों को उस पर बेहद विश्वास था। उस समय जब लेनिन देश निर्वासन की स्थिति में स्विट्जरलैंड में रह रहा था तब जर्मनी की सरकार ने उसे अपने यहां आने की अनुमति दी थी। रूस तक लेनिन द्वारा की जाने वाली यात्र को गुप्त रखने के लिए जर्मनी ने उसे एक सीलबंद ट्रेन से रूस की सीमा तक पहुंचाया था और रूस जाकर लेनिन ने जर्मनी द्वारा जताये गये इस विश्वास को पूरा भी किया था।
सही मायने में, रूसी क्रांति एक पाठ्य पुस्तक में वर्णित क्रांति की तरह थी, लेकिन लेनिन इस पाठ्य पुस्तक में समय की जरूरत के अनुसार हमेशा परिवर्तन करता रहा। उस दिन से, जब अवशेरा नामक एक नौ जहाज ने लेनिनग्राद पर पहला तोप दागा और उस दिन तक जब 1928 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई, क्रांति के नेताओं ने लेनिन द्वारा बनाये गये मार्क्सवाद से ही दिशा निर्देशित होते रहे। उसने कठोर पुरातन सिद्धांत को व्यवहार में सर्वाधिक लचीले सिद्धांत के साथ जोड़ दिया था और इस तरह क्रांति के लिए जो उचित विचार और दिशा थी, उसे प्रदान कर सका था।
जब एक बार क्रांति हो गयी और वह सत्ता में आ गया, तब लेनिन ने रूस की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया। गृहयुद्ध के समय इस बात को निश्चित करने के लिए कि उद्योग-धंधे युद्ध के लिए आवश्यक साज-सामान को उचित मात्र में उत्पादित करें, उसने एक कठोर नीति बनायी थी, जिसे ‘युद्ध साम्यवाद’ के नाम से जाना जाता है। उद्योगों में सैनिक अनुशासन लागू किया गया और इस लौह अनुशासन में अगर कोई मजदूर हड़ताल पर चला जाता था या लगातार अपने कार्य से अनुपस्थित रहता था, तो उसे मौत की सजा दी जाती थी। इस नीति में किसानों के साथ भी कठोरता का व्यवहार किये जाने की व्यवस्था थी।
लेनिन यह समझ गया था कि अगर बोल्शेविकों को सत्ता में बनाये रखना है, तो नीति में परिवर्तन करना ही होगा। फलतः मार्च 1921 में उसने अपनी नयी आर्थिक नीति को लागू किया। छोटे स्तर पर निजी उद्यम को अनुमति दी गयी और राष्ट्रीयकरण सिर्फ बड़े उद्योगों तथा सार्वजनिक जरूरतों पर ही लागू किया गया। तरल पूंजी की प्राप्ति के लिए उसने विदेशी पूंजी को लाभ बंटवारे के आधार पर रूस में बड़े पैमाने की कृषि और अभियांत्रिकी उत्पादों में पूंजी लगाने की अनुमति दी। पुरानी मुद्रा को नयी मुद्रा रूबल द्वारा हटा दिया गया।
यह नीति मार्क्सवादी साम्यवाद से बहुत दूर हटने की सूचक थी और यह समाजवाद तथा पूंजीवाद के बीच एक समझौता था। लेनिन और अन्य नेता इस नीति को एक अस्थायी व्यवस्था ही मानते थे। इसमें कोई शक नहीं कि इस नीति ने उत्पादन को बढ़ाया और इसे युद्ध पूर्व के स्तरों पर ला दिया। पूर्व में किये गये साम्यवादी प्रयोगों की असफलताओं को ध्यान में रखते हुए नयी आर्थिक नीति ने एक नयी नीति का शुभारंभ किया। अतः लेनिन ने अपनी इस नयी नीति द्वारा नये रूस की नींव रखी, जिसने रूस के आर्थिक एवं राजनीतिक विकास को सुनिश्चित किया। लेनिन के इन कार्यों ने ही उसे साम्यवादियों की नजर में देवता बना दिया और मास्को में स्थापित उसका मकबरा लोगों के लिए एक मंदिर बन गया।
Question : 15वीं सदी की भौगोलिक खोजों का एक महान प्रभाव यह था कि "यूरोप के लोगों में यह धारणा बढ़ने लगी कि अमेरिका, एशिया तथा अफ्रीका का व्यापक प्रयोग उन्हीं (यूरोप के लोगों) के लाभ के लिए किया जाना चाहिए।"
(1998)
Answer : 15वीं शताब्दी में हुए भौगोलिक खोजों के पीछे कई शक्तियां एक साथ काम कर रही थीं। पुनर्जागरण के लोगों ने मस्तिष्क को मध्ययुगीन विचारों के प्रभाव से मुक्त कर दिया था और लोगों को नये खोज करने के लिए भी प्रेरित किया था। भौगोलिक खोजों के लिए की गयी लम्बी-लम्बी समुद्री यात्राओं को इसी पुनर्जागरण की बाह्य अभिव्यक्ति माना जा सकता है। साथ ही, उस समय की व्यापारिक जरूरतों तथा भूमध्यसागर के रास्ते नये समुद्री मार्गों को खोजने की मजबूरी की भी अभिव्यक्ति माना जा सकता है। इन भौगोलिक खोजों ने कई परिणामों को पैदा किया, जिनमें से कुछ तो तुरंत फायदे पहुंचाने वाले थे। इन परिणामों ने वाणिज्यिक क्रांति को जन्म दिया और व्यापार मार्गों की पद्धतियों एवं विश्वासों को ही बदल डाला।
उपनिवेशों के विकास के लिए सस्ते श्रम की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता ने ही शर्मनाक दास व्यापार को बढ़ाया। वाणिज्यवादियों ने उपनिवेश बनाने की नीति का समर्थन किया, क्योंकि इससे अपने मातृ देश के विकास में काफी मदद मिलती है। इनका मानना था कि उपनिवेशों में चाय और गन्ना उपजाया जा सकता है, जिसकी यूरोपीय देशों में आवश्यकता है और साथ ही इन उपनिवेशों में अपने यहां उत्पादित- विनिर्मित वस्तुओं को बेचा जा सकता है। उनका यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से वणिकवादी विचार था, क्योंकि इस विचार के अनुसार उपनिवेशों को कच्चे मालों के स्रोत और अपने यहां विनिर्मित वस्तुओं के बाजार के रूप में इस्तेमाल करके अर्थात् शोषण करके अपने मातृदेश के विकास को प्राप्त करना था। उपनिवेशों में विनिर्माण करने की मनाही थी और इन उपनिवेशों में उपनिवेशवादी शक्तियों का व्यापार पर एकाधिकार होता था।
अतः सभी भौगोलिक खोजें, क्रिस्टोफर कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज या वास्को डी गामा द्वारा भारत की खोज या फिर मैगलन द्वारा समुद्र के रास्ते दुनिया का चक्कर लगाना आदि प्रत्यक्ष रूप से इसी विश्वास पर आधारित था कि विश्व के सभी क्षेत्रों पर यूरोपीय शक्तियों का ही प्रभुत्व हो और अमेरिका, अफ्रीका तथा एशिया का उपनिवेशीकरण तथा वाणिकीकरण (वाणिज्यीकरण) करके इनका शोषण किया जाये जिससे यूरोप का विकास हो सके।
Question : अमेरिकी स्वतंत्रता के युद्ध ने ‘‘ग्रेट ब्रिटेन को एक साम्राज्य से तो वंचित कर दिया, लेकिन एक दूसरे साम्राज्य की नींवों को मजबूत किया।’’
(1998)
Answer : अमेरिकी स्वतंत्रता के युद्ध का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि अमेरिका, ब्रिटेन की गुलामी से स्वतंत्र हो गया और ब्रिटेन की सत्ता यहां से समाप्त हो गयी। यह घटना ब्रिटेन के लिए एक सबक थी कि किस तरह एक उपनिवेश का प्रशासन चलाया जाना चाहिए। अपने इस अनुभव से उन्होंने यह जाना कि उनसे अमेरिका में क्या गलतियां और भूलें हो गयी थीं और ऐसी गलतियों को अपने अन्य उपनिवेशों, विशेषकर भारत में नहीं दोहराना है।
उन्होंने यह समझ लिया कि आंदोलन उसी उपनिवेश में जन्म लेता है, जहां सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन आ चुका है, मगर राजनीतिक आधुनिकीकरण पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाता है अर्थात् राजनीतिक आधुनिकीकरण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन से पिछड़ गया हो। अमेरिकी समाज बहुत हद तक विकसित हो चुका था और वहां ब्रिटिश सत्ता के अधीन ही एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था का विकास हो चुका था। आधे-अधूरे मन से राजस्व और करारोपण की जो नीति ब्रिटिशों द्वारा अपनायी गयी थी, उसने भी अमेरिकी लोगों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भावना उभारने में काफी योगदान दिया। अतः अमेरिका में की गयी अपनी गलतियों एवं भूलों से सीख लेते हुए ब्रिटिश सत्ता ने भारत में अपनी उपनिवेशी व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे और मजबूती से किया। इसके अलावा अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत ब्रिटेन ने अपना पूरा ध्यान भारत पर लगाया। इस तरह यह कहना सही ही है कि अमेरिकी स्वतंत्रता के युद्ध ने "ग्रेट ब्रिटेन को एक साम्राज्य से तो वंचित कर दिया, लेकिन एक दूसरे साम्राज्य की नीवों को मजबूत किया।" यह दूसरा साम्राज्य भारत में स्थापित ब्रिटिश सत्ता थी, जो लगभग 200 वर्षों तक मजबूती से चलती रही।
Question : यूरोप के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में औद्योगिक क्रांति द्वारा महान परिवर्तन हुए। स्पष्ट कीजिये?
(1998)
Answer : आधुनिक युग के आरंभ में यूरोप में हुए पुनर्जागरण ने समाज में मध्य वर्ग और मध्यवर्गीय मूल्यों की स्थापना करके एक नये युग का आरंभ किया था, लेकिन लम्बे समय तक मध्यवर्ग की शक्ति उजागर नहीं हो पायी थी। औद्योगिक क्रांति ने इस वर्ग की शक्ति को अभिव्यक्त किया। अब वैज्ञानिकों, कुशल शिल्पियों, प्रबंधकों आदि का प्रभाव बढ़ गया।
औद्योगिक क्रांति ने मजदूरों की संख्या में भारी वृद्धि की। श्रमिकों को अमानुषिक एवं निराशाजनक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था और इन पर उद्योगपतियों का शोषण बढ़ता गया। उन्हें दुर्गन्ध भरे वातावरण में रहना पड़ता था और कोई छुट्टी नहीं दी जाती थी। 1853 की इंग्लैंड की पार्लियामेंट रिपोर्ट में यह बताया गया कि अस्वास्थ्यप्रद वातावरण में काम करने के कारण ही श्रमिकों के स्वास्थ्य में गिरावट हुई थी। उनका वेतन भी कम था और उनके परिवार की स्थिति भी चिंताजनक भी। इन सभी तथ्यों के मद्देनजर इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक वर्षों में श्रमिकों की दशा शोचनीय थी।
18वीं शताब्दी के मध्य से उन्नीसवीं सदी के अन्त तक यूरोप की जनसंख्या में तीन गुनी वृद्धि हुई। जनसंख्या में हुई इस वृद्धि को औद्योगिक क्रांति का परिणाम कहा जा सकता है। चिकित्सा के क्षेत्र में हुई महत्वपूर्ण खोजों के कारण मृत्यु दर में कमी होने से भी जनसंख्या में वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त 19वीं सदी के आरंभ तक इंग्लैंड में और फिर यूरोप में जो कृषि क्रांति हुई थी, उसके कारण अधिकांश लोगों को पर्याप्त मात्र में भोजन मिलने लगा और वे अधिक स्वस्थ रहने लगे। इस तथ्य पर इतिहासकार डेविड थामसन ने प्रकाश डाला है। जनसंख्या में वृद्धि से अनेक नयी सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हुईं। जनसंख्या के नगरों में केन्द्रित होने से आवास समस्या बढ़ी। प्रदूषित वातावरण, गंदी बस्तियों तथा शुद्ध पेयजल की व्यवस्था न होने से अनेक रोगों का प्रकोप बढ़ा।
इतिहासकार सी.डी.एम.केटलबी के अनुसार, औद्योगिक क्रांति ने निश्चित रूप से ऐसे साधन उत्पन्न कर दिये थे, जिनसे कुछ विशेषाधिकार और शक्तियां एक वर्ग के हाथों में केन्द्रित हो गयीं। दूसरी ओर ऐसे मनुष्यों का वर्ग था, जो पैसे पर अपना श्रम बेचता था, जो अपनी जीविका और अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अथवा पूंजी लालसाओं, साहस और औद्योगिक प्रशिक्षण के कारण दूसरों की आर्थिक अधीनता में रहने के लिए मजबूर था। श्रमिक अपनी स्थिति से उबरने के लिए ट्रेड यूनियन बनाने के लिए बाध्य हुए और इस तरह पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच विवाद से समाज की सोच में भी परिवर्तन आया। समाज सुधारकों एवं उदारवादियों के प्रयत्न से अब स्त्रियों को भी समाज में पुरुषों के बराबर अधिकार दिये जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई।
औद्योगिक क्रांति के आर्थिक प्रभाव में प्रथम प्रभाव उत्पादन पर पड़ा। यंत्रों द्वारा कम समय में अधिक वस्तुओं का निर्माण होने लगा। इंग्लैंड में औद्यागिक उत्पादन में इस वृद्धि में कपड़ा उद्योग का बहुत बड़ा भाग था। उत्पादन बढ़ जाने से इंग्लैंड, फ्रांस आदि देश अधिकाधिक माल का निर्यात करने लगे। औद्योगिक क्रांति से पहले सभी व्यवसाय एवं उद्योग घरेलू प्रणाली के आधार पर संगठित थे। इस पद्धति के अंतर्गत प्रत्येक कारीगर अपने घर पर अपनी ही पूंजी से इच्छानुसार वस्तुएं बनाता एवं बेच कर मुनाफा कमाता था। किन्तु, यंत्रों का आविष्कार हो जाने पर कारखाने स्थापित होने लगे, जिनसे सस्ता माल सुलभ हुआ। परिणामतः स्वतंत्र कारीगर उनसे प्रतियोगिता न कर सके। इस प्रकार, पुरानी कुटीर उद्योग पद्धति का स्थान कारखाना उद्योग ने ले लिया। धीरे-धीरे बड़े कारखानों में फैक्ट्री पद्धति अपनायी गयी।
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप लोग रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर भागने लगे। बड़े-बड़े कृषि फार्मों की स्थापना के कारण छोटे किसानों को गांव छोड़ कर काम की तलाश में कारखानों में आना पड़ा, जिससे औद्योगिक केन्द्रों की आबादी बढ़ने लगी। औद्योगिक केन्द्रों के आस-पास नवीन नगरों का विकास हुआ। इंग्लैंड में मैनचेस्टर, लिवरपूल, लीड्स आदि बड़े नगरों के रूप में उभरे। गांवों के उजड़ने एवं नवीन नगरों के बसने से अर्थव्यवस्था का आधार ही बदल गया। पहले गांव ही अर्थव्यवस्था के आधार होते थे। औद्योगिक क्रांति के कारण अब शहर अर्थव्यवस्था के आधार बन गये।
औद्योगिक क्रांति के बाद प्रत्येक औद्योगिक देश के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह अपने राष्ट्रीय बाजार को संरक्षित करे। अन्य देशों की निर्मित वस्तुओं पर भारी कर लगा कर राष्ट्रीय उत्पादकों को महत्व दिया जाने लगा। परन्तु, उत्पादित माल को जब अपने ही देश में खपाना मुश्किल हो गया, तब अविकसित एवं पिछड़े देशों में मंडियों एवं बाजारों की तलाश करनी पड़ी। बाजारों की आवश्यकता ने सरकारों को उपनिवेश प्राप्ति की ओर प्रेरित किया। वृहत् स्तर पर उत्पादन, असमान वितरण और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों से उत्पादकों और उपभोक्ताओं का प्रत्यक्ष संबंध समाप्त हो गया और उत्पादन तथा उपभोग में असंतुलन होने से व्यापार-चक्रों की पुनरावृत्ति होने लगी। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट एक अनिवार्य अंग के रूप में सामने आया।
औद्योगिक क्रांति ने एक नये प्रकार के पूंजीवाद-औद्योगिक पूंजीवाद को जन्म दिया। यह ठीक है कि औद्योगिक क्रांति के बहुत पहले से ही यूरोप में पूंजीवाद का जन्म हो चुका था, परन्तु उस काल का पूंजीवाद व्यापारिक पूंजीवाद था, जिसमें पूंजी का उपयोग व्यापार विस्तार के लिए हुआ। उस काल के पूंजीवाद से सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था, परन्तु औद्योगिक पूंजीवाद ने आर्थिक ढांचे में व्यापक परिवर्तन किये। इस नवीन औद्योगिक व्यवस्था में वही लोग ठहरे, जिनके पास अधिक पूंजी थी। अधिक पूंजी की आवश्यकता ने संयुक्त स्कंध कंपनियों एवं औद्योगिक निगमों को जन्म दिया। इस नयी व्यवस्था में पूंजीपति का काम उद्योग के लिए धन जुटाना और अंत में लाभ प्राप्त करना रह गया। इस तरह औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यूरोप के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में महान परिवर्तन हुए या यह कहा जाये कि इससे आधुनिक सामाजिक तथा आर्थिक जीवन की नींव पड़ी।
Question : लॉर्ड बीकन्ज़फील्ड ने बर्लिन सम्मेलन (1878) से लौटने पर यह दावा किया कि उन्होंने ‘‘सम्मानपूर्वक शांति की स्थापना की है।’’
(1998)
Answer : लॉर्ड बीकन्ज़फील्ड ने बर्लिन सम्मेलन (1878) से लौटने पर यह दावा किया कि उन्होंने ‘सम्मानपूर्वक शांति की स्थापना की है।’ इसमें कोई शक नहीं है कि इस सम्मेलन में की गयी संधि के आधार पर कुछ समय तक शांति बनी रही, मगर यह सम्मानपूर्वक संधि थी, यह कहना शायद गलत था। उसने रशिया (रूस) द्वारा व्यक्तिगत प्रभाव के अधिकार की मांग को अस्वीकार कर दिया था और उसे शक्तिशाली देशों की सामूहिक सत्ता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया था।
रूस पर इंग्लैंड के स्वार्थ के लिए नियंत्रण लगा दिया गया था और आस्ट्रिया और तुर्की को सेन स्टेकानों में अपने खोये हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने की व्यवस्था की गयी थी। लेकिन इस संधि में की गयी व्यवस्था के सूक्ष्म अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह व्यवस्था क्षणिक थी। वस्तुतः रूस ने उन सभी हिस्सों को पुनः प्राप्त कर लिया था, जो उसने क्रीमिया युद्ध के समय खो दिया था। रूस के प्रभाव वाले क्षेत्र, जिनके ब्रिटेन के फायदे के लिए छोड़े जाने की व्यवस्था थी, उसे यूरोप से एशिया में स्थानांतरित कर दिया गया था और वहीं समाप्त किया गया।
अतः इस संधि ने रूस को कमजोर करने एवं तुर्की को मजबूत बनाने की सोच को पूरा नहीं किया। संधि इंग्लैंड के लिए सम्मानजनक है, यह कहना लॉर्ड बीकन्ज़फील्ड का बड़बोलापन ही था। ऑटोमन साम्राज्य की एकता की वकालत करने वाले लोगों ने ही ऐसी व्यवस्था की थी। तुर्की से साइप्रस, बोस्निया और हर्जेगोविना छीन लिया गया, जो यह एक तरह की चोरी थी। बर्लिन के कूटनीतिज्ञों में दूरदृष्टि की कमी थी। उन्होंने भविष्य को जानने में कमजोरी दिखायी थी। उन्होंने एक शक्ति रूस पर नियंत्रण पाने के चक्कर में एक शक्ति, आस्ट्रिया को खुला छोड़ दिया था। अतः बर्लिन की संधि बाल्कन युद्धों एवं 1914 के महान युद्ध के लिए उत्तरदायी रही। इसलिए इस संधि को सम्मानपूर्ण शांति की स्थापना करने वाली संधि कहना उचित नहीं था।
Question : 1853 के वर्षों में जापान का रूपांतर हुआ। स्पष्ट कीजिये।
(1998)
Answer : 1894 तक जापान अपने इतिहास के रूपांतरण काल को पूर्ण कर चुका था। उसने सरकार को स्वीकार कर लिया था और विस्तृत नौकरशाही व्यवस्था को स्थापित कर लिया था। स्वीकृत पश्चिमी नमूनों के आधार पर एक संविधान को स्थापित कर लिया गया था। पश्चिमी आधार पर शिक्षा पद्धति स्थापित कर ली गयी थी और इसके परिणाम भी अच्छे मिलने लगे थे। औद्योगीकरण का विकास अच्छी गति से हो रहा था और व्यापार एवं वाणिज्य की गति भी परिलक्षित हो रहा था।
आंतरिक रूपांतरण, जिसके द्वारा जापान के नये युग का आरंभ होना था, के लिए प्रारंभिक कदम शोगुन साम्राज्य की व्यवस्था को समाप्त करने के साथ उठाया गया। इस कदम ने सत्ता के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ की, जो किसी भी राज्य की पहली जरूरत होती है। केन्द्रीयकरण की दिशा में अगला कदम सामंतवाद को समाप्त करना था। चार शक्तिशाली पश्चिमी लॉर्डों, जिन्हें डैमाइओस कहा जाता था और जिन्होंने स्वैच्छिक रूप से नयी व्यवस्था की स्थापना में भाग लिया था, ने स्वयं ही क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अधिकारों को अर्पित कर दिया। प्राचीन योद्धा वर्ग समुरई ने भी अपनी वर्ग सहूलियतों को छोड़ दिया। जमींदारियों के अर्पण के साथ-साथ 1871 में एक साम्राज्यवादी उद्घोषणा द्वारा सामंतवाद को समाप्त कर दिया गया। प्राचीन सामंती सेना को भंग कर दिया गया और समाज के सभी वर्गों से लोगों को नियुक्त कर एक राष्ट्रीय सेना निर्मित की गयी।
सेना के राष्ट्रीयकरण के परिणामस्वरूप एक महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन सामने आया। योद्धा वर्ग और साधारण लोगों के बीच जो प्राचीन काल से चला आ रहा विभेद था, वह लुप्त हो गया। जापान के समाज में पहले दलित वर्गों का अस्तित्व था, जिन्हें वंशानुक्रम से अनादर प्राप्त होता था। यह क्रूर सामाजिक व्यवस्था, जिसमें हर व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति निर्धारित थी, को अब समाप्त कर दिया गया और अब सभी लोगों को सम्राट की नजर में बराबर प्रस्थिति प्रदान की गयी और कानून की नजर में सभी लोगों को बराबर माना गया।
शोगुन व्यवस्था की समाप्ति के बाद, पश्चिमीवादी, पश्चिमी पद्धति के अनुसार सुधारों की वकालत कर ताकतवर हो गये थे। उनकी आधिकारिक नीति यह थी कि जापान को पुरातन सभ्यता और व्यवस्था से बाहर निकाल कर पश्चिमी सभ्यता और व्यवस्था के आधार पर सुदृढ़ किया जाये। उन्होंने अपने देश के तीव्र रूपांतरण के अपने लक्ष्य में चमत्कारिक रूप से सफलता पायी।
राजशाही सत्ता की पुनर्स्थापना के साथ ही एक संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए एक ताकतवर आंदोलन आरंभ हो गया। परिणामस्वरूप, सम्राट द्वारा 1889 में एक नये संविधान को स्वीकार किया गया। विस्तृत जांच-पड़ताल के उपरांत राजकुमार इटो द्वारा संविधान बनाया गया, जो पर्शिया के संविधान पर आधारित था। संविधान इस तरह बनाया गया था कि उसमें अत्यधिक लोकतंत्र को अस्वीकृत किया जा सके और समाज के सभी वर्गों के प्रतिभाशाली लोगों को राज्य की सेवा में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। नयी सरकार ने फ्रांस और पर्शिया में लागू विधि के आधार पर जापान में विधि व्यवस्था स्थापित की। पुरानी विधि के विरोध के लायक उपबंधों को हटा दिया गया और नयी विधि व्यवस्था में इस बात का प्रयत्न किया गया कि शिकायत के लिए कोई कमी न रहे। इस तरह जापान ने अलौकिक विधि व्यवस्था को समाप्त करने की तरफ कदम बढ़ा दिया था।
नये जापान की आत्मा नयी सरकार द्वारा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए उठाये गये कदम में प्रकट होती है। 1872 में ही जापानियों ने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सिद्धांत को लड़कों एवं लड़कियों दोनों के लिएस्वीकार कर लिया था। विश्वविद्यालयों एवं तकनीकी विद्यालयों की स्थापना राज्य के अधीक्षण में की गयी थी और व्यावहारिक प्रशिक्षण और शिक्षा पर अधिक बल दिया गया था। विदेशी शिक्षकों को देश में आमंत्रित किया गया था और स्कूलों के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य बना दिया गया था। समाचार पत्रों का प्रकाशन बड़ी संख्या में किया जाने लगा और विदेशी किताबों का जापानी भाषा में अनुवाद किया गया। इस बात पर अधिक ध्यान दिया गया कि शिक्षा जापानियों को सर्वाधिक विकसित पश्चिमी देशों के समकक्ष पहुंचने में मदद कर सके और देश का तीव्र आर्थिक विकास हो सके।
नयी सरकार के अंतर्गत सैनिक संगठन को पूरी तरह सुधारा गया। सेना का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और अनिवार्य सैनिक सेवा की शुरुआत की गयी। सेना को आधुनिकतम हथियारों से सजाया-संवारा गया और उसे जर्मन सेना के आधार पर पुनर्संयोजित किया गया। नौ सेना के संगठन के लिए भी कदम उठाये गये और इसे ब्रिटिश नमूने पर संगठित किया गया।
देश के विकास के लिए अन्य क्षेत्रों के विकास एवं सुधार के लिए भी पूरा-पूरा प्रयास किया गया। काफी कम समय में जापान खुद को रेलवे, टेलीग्राफ, डाक व्यवस्था, वाष्प जहाजों, और बंदरगाहों से विकसित कर चुका था। खानों को विकसित किया गया और मशीनों पर आधारित उद्योगों और बड़े पैमाने पर उत्पादन को आरंभ किया गया। विदेशी वाणिज्य शुरू हुआ और 1887 के बाद के 36 वर्षों में यह 27 गुना विकसित हो गया था। जापानी पूंजीवाद के विकास की कुछ मुख्य विशेषताएं थीं, जैसे-पूंजीगत वस्तुओं के लिए पूंजी संचय के निवेश में सरकार का बहुत बड़ा योगदान होता था, बैंकों पर राज्य नियंत्रण और विदेशी व्यापार बढ़ाने के लिए राज्य द्वारा निर्देशन, उपभोग वस्तुओं पर कम खर्च और किसी भी तरह की सामाजिक सेवा का लगभग अनुपस्थित होना।
वैसे लोग जो 19वीं शताब्दी के मध्य तक सम्पूर्ण विश्व से अलग-थलग रहे, जिनका समाज सामंती था और जिनका जीवन के
प्रति दृष्टिकोण बेहद ही पुरातनवादी था, शताब्दी का अंत होते-होते पूर्णरूपेण आधुनिक हो गये थे। विदेशी संस्कृति को अपने देश में स्थापित कर जापान के लोगों ने जो सुधार किया, वह विश्व के इतिहास में एक अद्वितीय घटना है।
Question : द्वितीय विश्व युद्ध का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण परिणाम था ‘यूरोप का विभाजन’, पूर्वी एवम् पश्चिमी।
(1998)
Answer : दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सोवियत सेना 1995 के आरंभ में फिनलैण्ड को हराने के पश्चात् जर्मनी द्वारा हस्तगत किये गये कई देशों, प्रमुखतया पूर्वी यूरोप के देशों पोलैण्ड, रूमानिया, बुल्गारिया, हंगरी एवं चेकोस्लोवाकिया को आजाद कराने में सफल हो गयी थी। इन देशों में जर्मनी की शह पर फासिस्ट सरकार की स्थापना हो चुकी थी, जो सत्ता पर एकाधिकार की समर्थक थी। जब सोवियत सेना ने इन देशों को जर्मनी के प्रभाव से मुक्त किया, तो यहां स्थापित फासिस्ट सरकारें भी हटा दी गयीं। सोवियत संघ के समर्थन से इन देशों में साम्यवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार आरंभ हुआ और साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई। इसी के साथ दूसरी तरफ पश्चिमी यूरोप के देशों पर अमेरिका का प्रभाव बढ़ता गया, क्योंकि अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों, यथा- ब्रिटेन, फ्रांस आदि ने इस क्षेत्र के देशों को इटली एवं जर्मनी के प्रभाव से मुक्त किया था। अमेरिका के प्रभाव का परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी यूरोप में पूंजीवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा और अधिकांश देशों में पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना हुई।
दूसरे विश्व युद्ध के उपरांत विश्व व्यवस्था पर पकड़ बढ़ाने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी विचारधारा और सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी विचारधारा के बीच शीत युद्ध (Cold War) आरंभ हो गया। इस कारण यूरोप भी विचारधारा के आधार पर दो भागों में बंट गया। एक तरफ जहां पूर्वी यूरोप पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव था, तो वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी यूरोप पर पूंजीवादी विचारधारा का। यह विभाजन उस समय और अधिक स्पष्ट हो गया, जब पूंजीवादी खेमे ने अपने प्रभाव वाले जर्मनी को साम्यवादी विचार से प्रभावित जर्मनी से अलग करने के लिए एक दीवार 1948 में बनवा दिया। इस तरह यह कहना उचित ही है कि द्वितीय विश्व युद्ध का एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम था- ‘यूरोप का विभाजन’, पूर्वी एवम् पश्चिमी में।
Question : "वेस्टफेलिया की संधि ने यूरोपीय मन पर धर्मदर्शन के शासन को समाप्त कर दिया और यद्यपि इसने मार्ग को बाधापूर्ण छोड़ दिया, परन्तु वह तर्क बुद्धि के अन्वेक्षकों के लिए सुगम बन गया।"
(1997)
Answer : तीस वर्षीय युद्ध की समाप्ति पर हुई वेस्टफेलिया की संधि द्वारा लम्बे धार्मिक संघर्ष की समाप्ति हुई तथा सभ्यता और संस्कृति के दूसरे क्षेत्रों में प्रगति आरंभ हुई। वास्तव में पुनर्जागरण के कारण जो प्रगति आरंभ हुई थी, उसे धार्मिक झगड़ों ने गतिहीन कर दिया था। वेस्टफेलिया की संधि ने प्रगति को नवआयाम प्रदान किया। इस संधि के पश्चात् यूरोप में धार्मिक युद्ध सदा के लिए समाप्त हो गये और उनके स्थान पर राजनैतिक युद्ध लड़े जाने लगे। संधि के साथ ही व्यापक धार्मिक कलह के युग का अन्त सा हो गया। एक-दूसरे के अस्तित्व का विरोध करने के स्थान पर सह-अस्तित्व का सिद्धांत धर्म के क्षेत्र में मान्य होने लगा। यद्यपि यह सिद्धांत ईसाई संप्रदायों तक ही सीमित रहा और यहूदियों के प्रति अभी घृणा एवं संदेह की भावना बनी रही। लेकिन सीमित क्षेत्र में ही सही, धर्म के नाम पर संघर्ष और युद्ध समाप्त हो गये। संधि की सर्वाधिक उपलब्धि विभिन्न देशों और यूरोपीय शक्तियों के मध्य हुए प्रादेशिक समायोजनों में नहीं है बल्कि इस तथ्य में है कि इससे सांप्रदायिक संघर्षों का सद्भावनापूर्ण समाधान निकाला जा सका। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता की अवधारणा हालांकि दूर की बात रही, लेकिन संधि से उस दिशा में एक कार्यप्रणाली अवश्य तैयार हो गयी। पोप ने इस संधि को ‘अकृत और शून्य’, ‘अवैध और पक्षपातपूर्ण’ तथा ‘अनुचित और निदंनीय’ करार दिया। उसने एक आदेश द्वारा संधि को ईसा विरोधी करार दिया किन्तु अब पोप का विरोध विशेष मायने नहीं रखता था।
धर्म के गौण हो जाने से राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित होने लगे। राज्य की बराबरी का सिद्धांत सर्वमान्य हो गया। हर राज्य का प्रतिनिधि बराबर समझा जाने लगा।
कूटनीतिक संबंधों के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का सूत्रपात हुआ। किसी भी पूर्व संधि से अधिक वेस्टफेलिया की संधि ने आधुनिक यूरोप के नक्शे की आवश्यक विशेषताओं को आकार प्रदान किया। राज्य विशेष के संदर्भ में इसके प्रावधान भावी शताब्दी के इतिहास की रूपरेखा के लिए महत्वपूर्ण संकेत थे। इस संधि के बाद मानवतापूर्ण अंतर्राष्ट्रीय विधान के निर्माण हेतु सोच की शुरुआत हुई।
Question : "राजतंत्रीय कुशासन ने यदि फ्रांस की क्रांति को प्रज्जवलित किया तो उच्चादर्शों ने उसे प्रेरित और प्रोत्साहित किया।"
(1997)
Answer : किसी भी देश में होने वाली क्रांति के बीज उस देश की जनता की स्थिति और मनोदशा में निहित रहते हैं। असंतोष को जन्म देने वाली भौतिक परिस्थितियां क्रांति हेतु आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार करती है तथा बौद्धिक चेतना बहुजन को उन परिस्थितियों से मुक्ति पाने हेतु प्रेरित करती है।
फ्रांस में वंशानुगत निरंकुश राजतंत्र था तथा राजा स्वयं को पृथ्वी पर परमेश्वर का प्रतिनिधि मानता था। लुई सोलहवां (1774-1793) कहा करता था कि "यह चीज इसलिए कानूनी है कि मैं यह चाहता हूं"। राजा ही नहीं उसका कोई भी कृपापात्र इस अधिकार का उपभोग कर सकता था। राजा के स्वेच्छाचारी एवं असीमित शक्तियों पर अंकुश लगाने वाली कोई संस्था नहीं थी।
क्रांति से पूर्व फ्रांस की शासन प्रणाली अक्षम, अव्यवस्थित भ्रष्ट और खर्चीली थी। एकरूपता का अभाव फ्रांस की शासन व्यवस्था की बहुत बड़ी कमजोरी थी। फ्रांस में स्थानीय स्वशासन का कोई अस्तित्व न था। शासन के अन्य अंगों की भांति कानून और न्याय के क्षेत्र में अव्यवस्था एवं भ्रष्टाचार व्याप्त था।
देश में कानूनों की कोई एक प्रमाणिक संस्था नहीं थी। ऐसी गतिविधियों ने जनसाधारण को विद्रोही बनाने में भूमिका निभाई, लेकिन देश में व्याप्त बुराइयों को पर्दाफाश करने का कार्य फ्रांस के प्रबुद्ध वर्ग ने किया, जिनमें मांटेस्क्यू, रूसो, वाल्टेयर, दिदरो, क्वेसने, तुर्गो, डी एलम्बर्ट आदि प्रमुख थे। इन लोगों की लेखनी ने असमानता, शोषण, अत्याचार, धार्मिक असहिष्णुता, भ्रष्ट तथा निरंकुश राजतंत्र, आर्थिक नियंत्रण, निम्नवर्ग की विपन्नता, प्रशासनिक एवं न्यायिक दोषों को उजागर किया। इन्होंने विशेषाधिकारों एवं अन्याय पर आधारित धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाओं पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े किये गये। मानव मस्तिष्क को पुराने विचारों से मुक्त करने का आह्नान इन लेखकों द्वारा किया जा रहा था और उन लोगों ने अधिकांश लोगों की यह मानसिकता बना ही दी कि फ्रांस में जो है वह अपर्याप्त और त्रुटिपूर्ण है।
Question : "राजतंत्रीय कुशासन ने यदि फ्रांस की क्रांति को प्रज्जवलित किया तो उच्चादर्शों ने उसे प्रेरित और प्रोत्साहित किया।"
(1997)
Answer : किसी भी देश में होने वाली क्रांति के बीज उस देश की जनता की स्थिति और मनोदशा में निहित रहते हैं। असंतोष को जन्म देने वाली भौतिक परिस्थितियां क्रांति हेतु आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार करती है तथा बौद्धिक चेतना बहुजन को उन परिस्थितियों से मुक्ति पाने हेतु प्रेरित करती है।
फ्रांस में वंशानुगत निरंकुश राजतंत्र था तथा राजा स्वयं को पृथ्वी पर परमेश्वर का प्रतिनिधि मानता था। लुई सोलहवां (1774-1793) कहा करता था कि "यह चीज इसलिए कानूनी है कि मैं यह चाहता हूं"। राजा ही नहीं उसका कोई भी कृपापात्र इस अधिकार का उपभोग कर सकता था। राजा के स्वेच्छाचारी एवं असीमित शक्तियों पर अंकुश लगाने वाली कोई संस्था नहीं थी। क्रांति से पूर्व फ्रांस की शासन प्रणाली अक्षम, अव्यवस्थित भ्रष्ट और खर्चीली थी। एकरूपता का अभाव फ्रांस की शासन व्यवस्था की बहुत बड़ी कमजोरी थी। फ्रांस में स्थानीय स्वशासन का कोई अस्तित्व न था। शासन के अन्य अंगों की भांति कानून और न्याय के क्षेत्र में अव्यवस्था एवं भ्रष्टाचार व्याप्त था।
देश में कानूनों की कोई एक प्रामाणिक संस्था नहीं थी। ऐसी गतिविधियों ने जनसाधारण को विद्रोही बनाने में भूमिका निभाई लेकिन देश में व्याप्त बुराइयों को पर्दाफाश करने का कार्य फ्रांस के प्रबुद्ध वर्ग ने किया, जिनमें मांटेस्क्यू, रूसो, वाल्टेयर, दिदरो, क्वेसने, तुर्गो, डी एलम्बर्ट आदि प्रमुख थे। इन लोगों की लेखनी ने असमानता, शोषण, अत्याचार, धार्मिक असहिष्णुता, भ्रष्ट तथा निरंकुश राजतंत्र, आर्थिक नियंत्रण, निम्नवर्ग की विपन्नता, प्रशासनिक एवं न्यायिक दोषों को उजागर किया। इन्होंने विशेषाधिकारों एवं अन्याय पर आधारित धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाओं पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े किये गये। मानव मस्तिष्क को पुराने विचारों से मुक्त करने का आह्नान इन लेखकों द्वारा किया जा रहा था और उन लोगों ने अधिकांश लोगों की यह मानसिकता बना ही दी कि फ्रांस में जो है वह अपर्याप्त और त्रुटिपूर्ण है।
Question : "इटली के एकीकरण ने यूरोपीय व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया।"
(1997)
Answer : वियना व्यवस्था (1815) इटली के संदर्भ में एक राष्ट्रीय तथा सामाजिक हितों के विरुद्ध एक निर्णय था। 1848 में इटली में हुई क्रांति का उद्देश्य उदारवादी आर्थिक सुधार एवं संवैधानिक प्रशासन लागू करना था तथा येन-केन-प्रकारेण एकीकरण तथा स्वतंत्रता प्राप्त करना था।
कहा गया है कि क्रीमिया के कीचड़ से इटली का जन्म हुआ है और क्रीमिया युद्ध ने ही पारंपरिक यूरोपीय व्यवस्था को ध्वस्त करने की नींव रख दी, जबकि ऑस्ट्रिया और इटली के प्रतिनिधियों को बराबरी का दर्जा मिला। बाद में हुए आस्ट्रिया-सार्डीनिया युद्ध (1859), प्रशा-आस्ट्रिया युद्ध (1866) एवं प्रशा-फ्रांस युद्ध (1870) ने ही इटली का पूर्ण एकीकरण किया। उपरोक्त तीनों घटनाओं ने यूरोपीय राजनीति को अत्यधिक प्रभावित किया।
पीडमान्ट जैसे छोटे देश ने स्वतंत्रता की मशाल जलाई थी, किन्तु इटली का एकीकरण जैसे वरदान स्वरूप ही प्राप्त हुई थी। इटली के एकीकरण के पश्चात् उसका उन्नयन होना चाहिए था किंतु ऐसा नहीं हुआ। एकीकरण के पश्चात् से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक इटली का इतिहास उसके पतन का इतिहास है। देखने भर को बाहरी एकता स्थापित की थी। इटली की भूमि से उच्च उद्देश्य पलायन कर गये थे। वास्तव में इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का इतिहास उस कूटनीति की कहानी है जिसमें दूसरों के झगड़ों का लाभ उठाया गया। इस महती घटना का मुख्य नायक कावूर था, जिसने अनैतिक कार्यों का सहारा लेकर कुछ अंशों में इटली की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया। इन सबका दुष्परिणाम यह निकला कि 50 वर्षों के पश्चात् इटली में फासिस्टों का उदय हुआ और उसने संपूर्ण यूरोप को ऐसी दिशा में बढ़ने को प्रेरित किया जहां सिर्फ युद्ध एवं आतंक का ही साम्राज्य था।
Question : फ्रांस को अलग-थलग कर देना बिस्मार्क की विदेश नीति का मूलाधार था। व्याख्या कीजिये।
(1997)
Answer : बिस्मार्क प्रशा का एक भूस्वामी था। फ्रैंकफर्ट संसद (1848) के अधिवेशन में उन्होंने पहली बार राजनीति में भाग लिया। वहां उन्होंने प्रशा का प्रतिनिधित्व किया था। इस अधिवेशन में बिस्मार्क ने अपने आपको एक निर्मम एवं दृढ़ प्रतिज्ञ कूटनीतिज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित किया।
बिस्मार्क का जन्म 1 अप्रेल, 1812 को ब्रैडनवर्ग में हुआ था। इनका चरित्र विचित्र था। उनकी नीतियों से प्रशा के उत्कर्ष में वृद्धि होने का सूत्रपात हुआ था। वास्तव में बिस्मार्क जर्मनी की आवश्यकता को पूरी करने के लिए कोई भी नीति या मार्ग अपनाने में नहीं हिचकिचाये। जब उन्होंने देखा कि उदारवाद से जर्मनी का एकीकरण सफल नहीं हो सकता तब उन्होंने प्रशा के नेतृत्व में बलपूर्वक एकीकरण करना ही एकमात्र उपाय समझा। जर्मन राष्ट्रीयता की शक्ति का प्रयोग कर उन्होंने सफलता प्राप्त की। वे हमेशा जर्मनी की आवश्यकता व प्रतिष्ठा को व्यक्तिगत सम्मान और प्रतिष्ठा से ऊपर समझते थे।
जर्मनी के एकीकरण के पश्चात् बिस्मार्क ने नीति निर्धारण के तौर पर घोषित किया कि जर्मनी तुष्ट राज्य है और क्षेत्रीय प्रसार में इसकी कोई रूचि नहीं है। फिर भी सेडान युद्ध के बाद अल्सास लारेन को फ्रांस से लेकर उसने जो भूल की थी उसके लिए उन्होंने सावधान रहना जरूरी समझा; क्योंकि उन्हें विश्वास था कि फ्रांसीसी अपनी 1870-71 की पराजय और अल्सास-लारेन को नहीं भूलेंगे। अतः उसकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को यूरोप में मित्रहीन रखना था, जिससे कि वह एल्सास-लारेन को प्राप्त करने के लिए जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में नहीं आ सके।
सर्वप्रथम बिस्मार्क ने आस्ट्रिया और रूस से दोस्ती करनी चाही। वास्तव में प्रशा की रूस से दोस्ती की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही थी, जब प्रशा क्रीमिया युद्ध में रूस के खिलाफ शामिल नहीं हुआ था और पोलैंड के विद्रोह में रूस का साथ दिया था। इसके अलावा रूस का जार जर्मनी के सम्राट विलियम प्रथम का संबंधी भी था। आस्ट्रिया से मधुर संबंध बनाने के लिए बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सम्राट को बर्लिन आने का निमंत्रण दिया, जिसमें रूस के जार ने भी भाग लेने की इच्छा प्रकट की। फलतः 1872 ई- में बर्लिन में रूस, जर्मनी और आस्ट्रिया के सम्राट मिले और उन्होंने निश्चय किया कि यूरोप में शांति बनाये रखने तथा समाजवादी आंदोलन से निपटने के उद्देश्य से वे एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं विचार-विनिमय करते रहेंगे। इसी आधार पर तथाकथित ‘तीन सम्राटों के संघ’ का निर्माण हुआ। हालांकि इस संघ का शीघ्र ही अंत हो गया और जर्मनी तथा आस्ट्रिया ने पारस्परिक संधि कर ली कि रूस अथवा फ्रांस से आक्रमण की स्थिति वे दोनों आपस में सहयोग करते रहेंगे। इस नीति को 1879 के द्विगुट संधि से क्रियान्वित की गयी लेकिन पुनः 1881 में वे तीनो रूस, आस्ट्रिया और जर्मनी आपस में मिलकर एक फ्त्रि-सम्राट संधि" को जन्म दिया। यह संधि बिल्कुल गुप्त और रक्षात्मक थी।
बिस्मार्क इटली से दोस्ती कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में बिल्कुल अकेला कर देना चाहता था। इसी समय फ्रांस और इटली ट्यूनिस पर अधिकार करने को इच्छुक थे। आरंभ में जर्मनी ने फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने को प्रोत्साहित किया ताकि इटली के असंतोष को भुनाया जा सके। 1881 में फ्रांस द्वारा ट्यूनिस पर अधिकार कर लेने पर इटली की क्षुब्धता से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने उसे त्रिगुट ‘जर्मनी, आस्ट्रिया और इटली’ बनाने को कहा। बिस्मार्क ने इटली को समझाया कि बिना दूसरे देशों की सहायता के इटली साम्राज्य नहीं कायम कर सकता और इटली ने भी महसूस किया कि जर्मनी और आस्ट्रिया से संधि किये बगैर साम्राज्यवाद का विस्तार नहीं किया जा सकता। अतः 1882 में इटली, जर्मनी और आस्ट्रिया के बीच एक पारस्परिक संधि हुई जिसे त्रिगुट संधि के नाम से जाना जाता है। इस संधि के अनुसार इटली, जर्मनी और आस्ट्रिया ने यह निश्चय किया कि यदि फ्रांस इटली पर आक्रमण करे तो जर्मनी और आस्ट्रिया उसकी सहायता करेंगे। यदि फ्रांस जर्मनी पर आक्रमण करे तो इटली जर्मनी की सहायता करेगा तथा यदि अन्य दो राज्य फ्रांस और रूस त्रिगुट में शामिल किसी राज्य पर आक्रमण करें तो तीनों मिलकर उसका मुकाबला करेंगे। यह संधि पांच साल के लिए की गयी थी लेकिन समय-समय पर इसको दुहराया जाता रहा और यह 1915 ई- तक कायम रही। संधि की सभी शर्तें गुप्त रखी गयीं।
त्रिगुट संधि बिस्मार्क की सफल कूटनीति का परिणाम थी। अब जर्मनी को फ्रांस से बिल्कुल भय नहीं था। इसके अलावा बिस्मार्क ने इंग्लैंड और फ्रांस के मतभेदों से भी फायदा उठाना चाहा और इस दिशा में कई कार्य भी किये गये। बिस्मार्क रूस की दोस्ती खोना नहीं चाहता था और उसे भय था कि ऐसी हालत में रूस और फ्रांस में दोस्ती हो सकती है। अतः उसने आस्ट्रिया को बिना बताये ही रूस से एक गुप्त संधि कर ली, जिसे ‘पुनराश्वासन संधि’ कहते हैं। इस संधि के अनुसार रूस और जर्मनी के बीच यह तय हुआ कि यदि उसमें से कोई एक किसी तीसरे देश से युद्ध में फंस जाये तो दूसरा उस युद्ध में तटस्थ रहेगा। इससे जर्मनी को यह लाभ हुआ कि रूस और आस्ट्रिया दोनों उनके मित्र भी बने रहे और फ्रांस अलग-अलग पड़ने लगा।
इन संधियों के द्वारा बिस्मार्क ने फ्रांस को मित्रहीन कर दिया। आस्ट्रिया और रूस के हित परस्पर बाल्कन प्रायद्वीप में टकराते थे और आस्ट्रिया को इटली को मनमुटाव था, फिर भी बिस्मार्क ने ‘पुनराश्वासन संधि’ के द्वारा रूस से मित्रता कायम की और त्रिगुट संधि के द्वारा आस्ट्रिया और इटली से। अब उसे जर्मनी पर फ्रांस का भय नहीं रहा। वास्तव में बिस्मार्क अपने युग का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था और अपनी इन कूटनीतिक संधियों का जाल केवल वहीं संभाल सकता था। बिस्मार्क ने कूटनीतिक जाल फैलाकर जर्मनी का एकीकरण किया और फ्रांस से अल्सास लारेन ले लिया। फ्रांस के आक्रमण से बचने के लिए उसने रूस, आस्ट्रिया और इटली से संधि कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में मित्रविहीन बनाये रखा। संभव था कि वह रहता तो फ्रांस को अलग-अलग बनाये ही रखता लेकिन 1890 में विलियम द्वितीय ने बिस्मार्क को चांसलर पद से हटाकर एक भयंकउर भूल की, क्योंकि कोई भी दूसरा व्यक्ति बिस्मार्क द्वारा स्थापित संधियों को कायम रखने में सक्षम नहीं था। परिणामस्वरूप फ्रांस, रूस तथा ग्रेट ब्रिटेन से संधि करने में सफल हो गये।
Question : राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट की न्यूडील में फ्राजनीतिक अर्थव्यवस्था को एक नयी और अधिक आशापूर्ण दिशा में प्रेरित करने की विचार शक्ति थी।" क्या आप सहमत हैं?
(1997)
Answer : अमेरिकी इतिहास में राष्ट्रपति एफ-डी- रूजवेल्ट का कार्यकाल (1933-45) एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। रूजवेल्ट के पदासीन होने के समय देश पर आर्थिक मंदी छाई हुई थी और रूजवेल्ट ने अपना प्रथम कर्तव्य इस मंदी का निराकरण करना ही समझा। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसने न्यूडील की नीति चलाई यह योजना ‘नयी व्यवस्था’, ‘नयी सामाजिक एवं आर्थिक पद्धति’, ‘नया संदेश’ जैसे नामों से भी जानी जाती है। यह एक चतुर्मुखी योजना थी, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय जीवनोत्थान के सभी पहलू निहित थे।
वास्तव में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट की न्यूडील में राजनीति अर्थव्यवस्था को एक नयी और अधिक आशापूर्ण दिशा में प्रेरित करने की विचार शक्ति थी। न्यूडील का मुख्य उद्देश्य अधिक टिकाऊ समृद्धि की स्थापना करना था। इस समृद्धि को प्राप्त करने के लिए राजकीय नियंत्रण और हस्तक्षेप में वृद्धि करके आर्थिक मंदी के परिणामों को मिटाना था। न्यूडील के उद्देश्यों का सार स्वयं राष्ट्रपति रूजवेल्ट के इन शब्दों में व्यक्त होता है- हम अपनी अर्थव्यवस्था द्वारा कृषि और उद्योगों में संतुलन लाना चाहते हैं, हम मजदूरी करने वालों, रोजगार देने वालों और उपभोक्ताओं के बीच संतुलन कायम करना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य यह भी है कि हमारे आंतरिक बाजार समृद्ध और विशाल बने रहें और अन्य देशों के साथ हमारा व्यापार बढ़े।"न्यूडील के अंतर्गत जो औद्योगिक, कृषि संबंधी और आर्थिक प्रत्युत्थान की नीतियां अपनायी गयी, उसका उद्देश्य था संविधान के अंतर्गत सभी के हितों का संतुलन तथा संपत्ति, मानव समाज और स्वधीनता को सुरक्षित रखना। इस ‘नए कार्यक्रम’ का दर्शनशास्त्र प्रजातांत्रिक था और इसका व्यावहारिक रूप विकासवादी था क्योंकि पिछले पंद्रह वर्षों से सुधारों के जो प्रस्ताव व विधेयक पड़े हुए थे, उन्हें एक साथ पारित किये गये, इससे देश में आशा की एक लहर सी आ गयी। रूजवेल्ट ने शीघ्र ही सार्वजनिक कार्यों का विस्तृत कार्यक्रम आरंभ किया, जिसमें मकान, रेलमार्ग, सड़क, पुल और स्थानीय विकास कार्यों के लिए ऋण दिये गये ताकि व्यवसाय पनप सकें और लोगों को रोजी मिल सकें। बेकारी निवारण के लिए एक विशाल सहायता कार्यक्रम अपनाया गया।
विभिन्न सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर खर्च किये गये। इस कार्यक्रम ने विशाल पैमाने पर राष्ट्रीय भौतिक-ड्डोतों के दीर्घकालीन दोहन की नीति को जन्म दिया तथा तीस लाख लोगों को इसके अंतर्गत काम पर लगाया गया। कृषि और उद्योग में दीर्घकालीन सुधार कार्यक्रम आरंभ किये गये। रूजवेल्ट का मानना था कि शोषित एवं पीडि़तों की समस्याओं का समाधान करना सरकार का कर्तव्य है। इसीलिए वह अपने कार्यक्रमों के द्वारा किसानों, बेकारों तथा छोटे-छोटे दुकानदारों तथा व्यावसायियों को सहायता देने के लिए कृतसंकल्प था। इस नए कार्यक्रम में आर्थिक विपन्नता के शिकार लेखकों, कलाकारों व संगीतकारों को भी सहायता दी गयी और इस तरह राष्ट्र के कलात्मक जीवन को विकसित एवं समृद्ध किया गया।
न्यूडील की नीति के अंतर्गत जो विभिन्न नीतियां अपनाई गयी उसे कई भागों में वर्गीकृत किया गया है; जैसे-औद्योगिक नीति, कृषि संबंधी नीति, सामाजिक-आर्थिक प्रत्युत्थान की नीति, मुद्रा एवं साख नीति, परिवहन नीति आदि। वस्तुतः नवीन अर्थनीति का उद्देश्य कुछ सुधारों द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखना था।
औद्योगिक क्षेत्र में आर्थिक संकट पर विजय प्राप्त करने के लिए न्यूडील का सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट अधिनियम 1933 का राष्ट्रीय औद्योगिक पुनरुत्थान अधिनियम था। इस अधिनियम का उद्देश्य व्यापार और उत्पादन का नियमन, मजदूरी में वृद्धि आदि थे। इस अधिनियम से आशा की जाती थी कि जनता की क्रयशक्ति में वृद्धि होगी और अधिाक रोजगार के अवसरों का सृजन होगा।
न्यूडील के अंतर्गत कृषि संबंधी कार्यक्रमों के तीन प्रमुख उद्देश्य रखे गये। प्रथम, किसानों की क्रय शक्ति तथा सामान्य आर्थिक स्थिति को युद्ध के पूर्व स्तर तक ले जाना था अर्थात् कृषि पदार्थों तथा निर्मित वस्तुओं के मूल्य में समता स्थापित करना था। दूसरा उद्देश्य ग्रामीण कर्ज में कमी तथा मूल्य में अतिशय वृद्धि के विरुद्ध किसानों को सुरक्षा प्रदान करना था। तीसरा उद्देश्य किसानों के खेतों को गिरवी रखने से उन पर जो दबाव पड़ा उसे कम करना था। न्यूडील ने सामाजिक सुरक्षा के सिद्धांत को अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया था। इसके अंतर्गत सामाजिक सुरक्षा करना, बेरोजगारी दूर करने के प्रयास करना, आवास की व्यवस्था करना तथा टेनेसी घाटी परियोजना को संचालित किया जाना था। न्यूडील की सर्वाधिक प्रमुख व्यवस्था मुद्रा एवं साख से संबंधित थी। न्यूडील के इस कार्यक्रम के तीन उद्देश्य थे- मुद्रास्फीति, बैंकिग व्यवस्था में सुधार तथा प्रतिभूतियों एवं वस्तु बाजारों का निरीक्षण करना था।
न्यूडील के अंतर्गत बनी योजनाएं जनकल्याणकारी और उपयोगी सिद्ध हुईं। जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती गयीं और नयी आवश्यकताएं एवं समस्याएं सामने आती गयीं, उनको सुधारने के लिए योजनाओं की रूपरेखा में परिवर्तन होता गया। किन्तु ध्येय निरंतर एक ही रहा और वह था शोषित का उत्थान करना। इसमें राष्ट्रपति को आशाजनक ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक सफलता मिली, कृषि उत्पादन बढ़ा, शेयर बाजार में नियंत्रित सट्टेबाजी की उन्नति हुई और ऋण प्रतिबंध के फलस्वरूप संघ के व्यय में कमी हुई। मंदी के पुनरागमन को रोकने के लिए कृषि अधिनियमों में संशोधन किया गया। बाल श्रम की प्रथा को समाप्त किया गया, न्यूनतम मजदूरी दर और अधिकतम काम के घंटे निश्चित किये गये तथा भाव निर्णय के एकाधिकार को तोड़ने के लिए न्याय विरोधी कानूनों को संशोधित किया गया।
वस्तुतः रूजवेल्ट की नीति ने आर्थिक मंदी के कुप्रभावों को बड़ी सीमा तक दूर किया और अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अनेक नए सुधारों का समावेश किया। न्यूडील ने नयी नीतियों की खोज कर देश की वित्तीय व्यवस्था के अनुकूल बैंकिग तथा मौद्रिक प्रणाली को समायोजित किया। इसने नवीन आर्थिक दर्शन को एक व्यावहारिक रूप दिया गया। इसके फलस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में राजकीय नियंत्रण की उपयोगिता में लोगों का विश्वास बढ़ा।
Question : विश्व युद्धों के बीच के वर्षों में जापान में हुए सैन्यवाद के विकास का विवेचन कीजिये? इससे किस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया को बढ़ावा मिला?
(1997)
Answer : 1915-19 की सक्रिय अवधि के बाद जापानी साम्राज्यवाद शांत सा हो गया था। लेकिन शीघ्र ही वह साम्राज्यवाद की राह पर चल पड़ा। फरवरी 1917 में जापान और ब्रिटेन के बीच एक गुप्त संधि हुई। जापान ने चीन से आश्वासन प्राप्त कर लिया कि वह प्रथम विश्व युद्ध के बाद शांतुंग प्रदेश तथा प्रशांत महासागर में स्थित द्वीपों पर जापानी अधिकारों का समर्थन करेगा। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जापान पूर्वी एशिया की राजनीति में एक कदम और बढ़ गया।
1920 से 1930 की अवधि तक जापान शांत रहा। लेकिन 1930 से जापान की नीति में एक नया मोड़ आया और जापानी साम्राज्यवाद का दूसरा चरण आरंभ हो गया। इस जापानी सैन्यवाद का आधार उसका विकृत राष्ट्रवादी तत्त्व था। जापानी पूंजीपति वर्ग सैनिकशाही का प्रबल समर्थक था।
इस बार जापान ने अपना लक्ष्य मंचूरिया को बनाया। आर्थिक कारण इसके प्रेरक तत्त्व थे। मंचूरिया में जापानी लोगों को बसाकर बढ़ती समस्या का हल हो सकता था। मंचूरिया का बाजार जापान के लिए आकर्षण था। वहां कोयला, लोहा, सोना, सोयाबीन, धान, आदि प्रचूर मात्र में उपलब्ध थे। ये सभी वस्तुएं जापानी उद्योग के लिए काफी महत्वपूर्ण थी। इस वातावरण में चीन और जापान का आपसी संबंध निरंतर बिगड़ता जा रहा था। कई तत्कालिक घटनाओं ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। अक्टूबर 1931 में जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण कर दिया और उस पर कब्जा कर लिया। इस घटना की प्रतिक्रिया सारे विश्व में हुई।
राष्ट्रसंघ ने इस जापानी आक्रमण की कटु निदा की और एक प्रस्ताव द्वारा जापान को मंचूरिया छोड़ने के लिए कहा गया। लेकिन जापान पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। चीन में प्रसार के लिए जापान मंचूरिया में नियंत्रण बढ़ाता गया। राष्ट्रसंघ में केवल तर्क-वितर्क होता रहा और समस्या सुलझाने में राष्ट्रसंघ असफल रहा।
जापान ने मंगोलिया में भी पैर फैलाना शुरू किया और इसके लिए 1933 में उसने चीन पर आक्रमण कर दिया। इटली और जर्मन सैन्यवाद की तरह जापानी सैन्यवाद भी विश्व के लिए शंका का कारण बन गया। सितंबर 1937 में चीन ने इस आक्रमण की शिकायत राष्ट्रसंघ में किया परंतु, उसका कोई भी सार्थक परिणाम नहीं निकला। जापानी सेनाओं ने चीन में निष्ठुरता के साथ दमन की नीति को कार्यान्वित किया।
1934 और 1937 के बीच जापानी सैन्यवाद की प्रगति में ठहराव की स्थिति रही । इस बीच मंचूरिया में वह अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाता रहा। वहां वह रेलपथों का निर्माण करता रहा, विकास के लिए घन उड़ेलता रहा तथा जापानी आप्रवासियों को वहां बसाता रहा। 1936-37 में जापान और इटली ने सोवियत संघ के विरुद्ध एक कॉमिण्टर्न विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किया इसके शीघ्र बाद जापान ने चीन के खिलाफ निर्लज्जतापूर्ण सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी, जिसका उद्देश्य चीन में प्रभुता और विजय हासिल करना था। उसने उत्तरी चीनी प्रातों के अधिकांश भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमा लिया। उसने कोरिया से हिन्द-चीन तक के चीनी तट पर के प्रमुख बंदरगाहों को अपने कब्जे में ले लिया। उसने चीन की गणतांत्रिक सरकार को यांग्त्सी नदी के पश्चिम के पार भगा दिया।
1941 ई- में पूर्वी एशिया पर जापानी आधिपत्य की संभावनाएं उतनी ही उज्ज्वल थी जितनी यूरोप पर जर्मन आधिपत्य की। जापान 1938 में पारसल द्वीपों और 1939 में हैनियन और स्ट्राटली द्वीप समूहों पर कब्जा कर चुका था। दिसंबर 1941 में जापान उस समय अमेरिका के साथ युद्धों में कूद पड़ा जब जापानी स्थल, जल तथा वायु सेनाओं ने पर्ल हार्बर में अमेरिकी नौ सेना बेड़े को डुबा दिया और प्रमुख अमेरिकी हवाई ठिकानों को नष्ट कर दिया।
यह घटना इतिहास में ‘पर्ल हार्बर का विद्युत प्रहार’ के नाम से जानी जाती है। पर्ल हार्वर हवाई द्वीप समूह में अमेरिका नौ शक्ति का प्रमुख केन्द्र था। जापान ने दक्षिण-पूर्व एशिया पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया और जनवरी 1942 में उसने मनीला पर अधिकार कर लिया। इसी वर्ष के मध्य से जापान को अमेरिका से टकराने के लिए तैयार हो जाना पड़ा एवं जापान तथा अमेरिका एक दूसरे के विरुद्ध द्वितीय महायुद्ध में कूद पड़े। जापान के साथ अमेरिका का संघर्ष वर्षों तक चलता रहा। विश्व की महानतम नौसैनिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर जापान को एक प्रकार से विश्वास हो गया था कि वह मनचाहे प्रदेशों पर प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो जायेगा। विश्व युद्धों के बीच के वर्षों में जापान में हुए सैन्यवाद के विकास ने संपूर्ण विश्व को झकझोर दिया।
जापानी सैन्यवाद ने राष्ट्रमंडल को निष्क्रिम बनाने में मुख्य भूमिका निभायी। छोटे राष्ट्रों का राष्ट्रमंडल पर से विश्वास उठता चला गया। उसी दौरान यूरोप में सर्वसत्तावादी शक्तियों का विकास होता जा रहा था। जर्मनी में नाजीवाद एवं इटली में फासीवाद के विकास एवं विस्तार में जापानी सैन्यवाद ने मदद पहुंचाई। इसी सैन्यवादी नीतियों के तहत बाद में रोम-बर्लिन-टोकियो धूरी की भी नींव डाली गयी। ऐसी गतिविधियों से सभी मित्र राष्ट्र चितित हुए और उनमें एकजुटता का प्रसार हुआ। ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका आदि ने इन सैनिक शासकों को पराजित करने का प्रयास किया और अंततः सर्वसत्तावादी शक्तियों को पराजित करने में सफलता मिली। परमाणु बमों के विस्फोट से जापानी सैन्यवाद की महत्वकांक्षाओं का अंत हो गया।
Question : ‘पुनर्जागरण द्वारा संसार और मानव के प्रति जो रुचि जगी उसी का दूसरा पक्ष था खोजों और अनुसंधानों का युग।’
(1996)
Answer : पुनर्जागरण के लौकिक दृष्टिकोण का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण आधार था, मानवतावाद। मानवतावाद में ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को प्रमुखता दी जाती है और इसलिए परलोक के स्थान पर इस संसार में रुचि अधिक होती है। पुनर्जागरण के द्वारा लोगों ने यह शिक्षा ली कि जीने में अपने आप में ही विशेष प्रकार का सुख है, जिसका परलोक के नाम पर त्याग करना उचित नहीं है। पुनर्जागरण के अधिकांश विद्वानों एवं वैज्ञानिकों ने मानव संसार को अधिक सुन्दर एवं समृद्ध बनाने की शिक्षा दी जिससे भौतिकवादी दृष्टिकोण का विकास हुआ।
इस संसार और मानव के प्रति जो रूचि जगी, उसी के अनुरूप भौगोलिक खोजें और मनुष्य की सुख-सुविधा के लिए कोशिशें शुरू हो गयीं। जिज्ञासा और व्यापार में अधिक मुनाफा के प्रेरक तत्त्वों ने साहसी नाविकों को नये भौगोलिक क्षेत्रों एवं देशों को ढूंढने के लिए प्रोत्साहित किया। बर्थोलोमियो डायज, वास्को-डि-गामा, कोलंबस, अमेरिगो वेस्पुसी, मैगलन, कैबट, कार्टियर एवं फ्रांसिस ड्रेक कुछ ऐसे नाविक थे जिन्होंने विश्व के प्रमुख भागों की खोज की। भूगोल संबंधी कई गलत मान्यताओं को सुधारा गया।
प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक और दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने अवलोकन और परीक्षण के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति की वकालत की। पौलैंड वासीविद्वान कोपरनिकस ने कहा कि पृथ्वी धुरी पर चक्कर लगाती है और सूर्य की परिक्रमा करती है। यह पुरानी परंपरा से सर्वथा भिन्न थी। इस सिद्धान्त की पुष्टि बाद में गैलीलियो ने की थी। गैलीलियो ने दूरबीन का ईजाद किया और इससे खगोल संबंधी कई तथ्य उजागर हुए। केपलर ने ग्रह की गतियों और कक्षाओं के बारे में नियम प्रस्तुत किये। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गति के नियम दिये। मानव शरीर भी इन खोजों से अछूता नहीं रहा। हार्वे ने रक्त परिसंचरण संबंधी आविष्कार किया। पुनर्जागरण काल के वैज्ञानिकों ने सवालों, प्रेक्षणों तथा प्रयोगों से सीखने की जिस विधि को अपनाया उसका आज भी वैज्ञानिक उपयोग कर रहे हैं। यह है वैज्ञानिक विधि। आज हमारे ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि के पीछे पुनर्जागरण जनित रूचि ही है।
Question : औद्योगिक क्रांति ने इंग्लैंड के चरित्र और संस्कृति को ही बदल दिया।
(1996)
Answer : इंग्लैंण्ड आज जो कुछ है वह औद्योगिक क्रान्ति की ही देन है। औद्योगिक क्रान्ति सबसे पहले इंग्लैण्ड में ही शुरू हुआ, और इसलिए इसके प्रभाव भी सबसे पहले वहीं देखे गये। इसने इंग्लैण्ड के चरित्र और संस्कृति को ऐसे बदल दिया कि पहले के इंग्लैण्ड से यह सर्वथा भिन्न हो गया। अब यह देश पूरी दुनिया का अगुवा हो गया।
औद्योगिक क्रान्ति से आये बदलाव सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक एवं विचारधारा संबंधी अर्थात् लगभग सभी क्षेत्रों में देखे गये। औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप लोग रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर भागने लगे। छोटे-छोटे किसान विभिन्न फैक्ट्रियों एवं मिलों में मजदूर के रूप में कार्य करने लगे। गावं एवं कृषि पर आधारित आर्थिक व्यवस्था के बदले नगर एवं उद्योग पर आधारित आर्थिक व्यवस्था आ गया। श्रमिक और बुर्जुआ दो नये सामाजिक आर्थिक वर्ग बने। इंग्लैण्ड में शास्त्रीय अर्थशास्त्र की बुनियाद डाली गयी जिसमें कई सिद्धान्तों में ‘लैसेज फेयर’ भी प्रमुख हैं। एडम स्मिथ ने वाणिज्यवाद की नियामक और एकाधिकारपरक अवधारणाओं की आलोचना की और सभी ने अपने निर्यात कई गुना बढ़ा लिये, जिसने उसकी समृद्धि के द्वार ही खोल दिये।
सामाजिक क्षेत्र में आये परिवर्तनों में मध्य वर्ग को मिली ताकत प्रमुख है। औद्योगिक क्रांति के बाद श्रमिकों की बढ़ती हुई शक्ति ने एक ऐसी सामाजिक चेतना को जन्म दिया जिसने व्यक्ति के सम्मान एवं एसमें मूलभूत अधिकारों की सफलतापूर्वक मांग की। संयुक्त परिवार प्रणली को आघत पहुंचा। उत्पादन की घरेलू व कुटीर प्रणाली के स्थान पर फैक्ट्री प्रणाली आने से मालिक व मजदूरों के परस्पर संघर्ष, श्रमिकों के शोषण, श्रमिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हास, औद्योगिक नगरों व केन्द्रों की जनसंख्या बढ़ने से उनमें स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गयी। सामाजिक क्षेत्र में आई कई पेचीदगियों ने समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाले।
इन पेचीदगियों के समाधान हेतु राजनीतिक क्षेत्र में कई बदलाव आये। उन्नीसवीं सदी में इंग्लैण्ड में चालीस से अधिक फैक्ट्री अधिनियम बने। अब जनतांत्रिक सुधारों को रोका जाना मुश्किल हो गया। इंग्लैण्ड में कई जनतांत्रिक संस्थाओं का उदय और विकास शासन के चारित्रिक बदलाव के फलस्वरूप हुआ।
औद्योगिक क्रांन्ति के फलस्वरूप बाजारों की आवश्यकता बढ़ने लगी और उपनिवेशों की जरूरत पड़ी। इंग्लैण्ड उपनिवेशवाद- साम्राज्यवाद के दौर में यूरोपीय देशों में सबसे आगे रहा। इंग्लैण्ड की उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी भूख ने उसके चरित्र और संस्कृति को ही पूरी तरह बलद दिया जो लाभ और उपयोगितावाद पर आधारित था।
निम्नलिखित कथनों में से किन्हीं तीन पर टिप्पणियां लिखिए, जो प्रत्येक लगभग 200 शब्दों में होनी चाहिए।
Question : फ्रांसीसी क्रांति (1789) में विद्यमान सामाजिक व्यवस्था के धार्मिक और धर्म निरपेक्ष दोनों की प्रकार के स्तंभों को उखाड़ने का यत्न किया। स्पष्ट कीजिये।
(1996)
Answer : फ्रांसीसी क्रांन्ति मुख्य रूप से विशेषाधिकार संपन्न लोगों के विरुद्ध सर्वसाधारण लोगों का प्रतिरोध था। फागे ने कहा भी है कि ‘फ्रांस की क्रांति जितनी राजंत्र के विरुद्ध नहीं थी उतनी असमानता के विरुद्ध थी। फ्रांसीसी समाज तीन वर्गों में बंटा था- पादरी, सामंत और सर्वसाधारण। इन्हें क्रम से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय एस्टेट कहा जाता था। पहले वर्ग में एक लाख तीस हजार पादरी और दूसरे वर्ग में चार लाख सामंत या अभिजात थे। उस समय की ढ़ाई करोड़ की फ्रांसीसी जनसंख्या में शेष सर्वसाधारण वर्ग से संबंधित थे; अर्थात् कुल जनसंख्या के लगभग 96 प्रतिशत लोग सर्वसाधारण वर्ग के थे। लेकिन प्रथम और द्वितीय वर्ग के लोग जिन सुख-सुविधाओं का उपयोग करते थे वह तीसरे वर्ग के लोगों से कई गुना अधिक था। उसी समय तीसरे वर्ग में बढ़ती हुई चेतना उनके अंदर असंतोष ओर विद्रोह की चिंगारी भर रही थी। मेरियट का मत है कि वास्तव में जब क्रान्ति हुई तो वह मुख्यतः राजा के निरंकुश एकतंत्र के विरुद्ध नहीं, वरन विशेषाधिकारों के युक्त वर्गोंकुलीन व पुरोहित के विरुद्ध थी और क्रांतिकारियों ने आरंभ में उन्हीं को ही समात्प किया।
प्रथम एस्टेट के पादरी फ्रांसीसी सामाजिक व्यवस्था के धार्मिक और द्वितीय एस्टेट के अभिजात धर्मनिरपेक्ष या गैर धार्मिक वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व दे रहे थे। फ्रांसीसी क्रांति से पहले वहां के दार्शनिकों ने विभिन्न गतिहीन संस्थाओं एवं विचारों के विरुद्ध आदोलन चला रखा था। धर्म एवं चर्च की बुराई करने में सबसे आगे वाल्टेयर था। वाल्टेयर के बार अन्य नास्तिक या भौतिक दार्शनिक फ्रांस में बहुत लोकप्रिय हो गये। उसका विश्वास था कि मनुष्य का भक्तित्व स्वर्ग में नहीं अपिनु इसी संसार में है। कैथोलिक धर्म की आलोचना में जो रचनाएं लिखी गयीं उन्होंने क्रान्ति की ज्वाला को अधिक तीव्र कर दिया, क्योंकि व्यर्थ निरंकख, राजतंत्र और प्राचीन सामंती व्यवस्था का समर्थन करता था। पादरियों पर जो भी प्रहार किये गये वे वास्तव में प्राचीन सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार थे।
स्टेट्स जनरल की बैठक के सवाल पर तीसरे वर्ग के प्रतिनिधियों ने विशेषाधिकार संपन्न वर्ग के विरुद्ध राष्ट्रीय सभा की घोषणा कर दी थी। राष्ट्रीय सभा ने पहले इन्ही धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष विशेषाधिकार संपन्न वर्गों के विरुद्ध कानून बनाये। फ्रांस की जनता अधिकांशतः कैथोलिक थी। पोप और पादियों का महत्व और जनजीवन पर उनका प्रभाव अत्यधिक था। वाल्तेयर की आलोचना और जागरूकता के बढ़ने के साथ धर्म विरोधी प्रकृतियां भी लोगों में बढ़ रही थी। एसेंबली में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था। वे पादरियों और पोप के महत्व को सीमित करना चाहिते थे। इसलिए एक नये विधान की घोषणा हुई। इसके अनुसार …
धर्मनिरपेक्ष प्रकार के तत्वों में सामन्त या अभिजात वर्ग के लोग थे। पेरिस में बढ़ती हुई क्रांतिकारियों की भीड़ ने राजा की तो जयकार की लेकिन इन सामन्तों की शमत आनेवाली थी। ग्रामीण क्षेत्रों में भी इन उत्पीड़कों के विरोध में विद्रोह हुए। सामन्ती करों के अभिलेखों को आग लगा दी गयी। गढ़ों को नष्ट करके उन्हें अग्नि समर्पित कर दिया गया। यह क्रम तब तक चलता रहा जबतक सामंनी व्यवस्था का अन्त नहीं हो गया।
इधर राष्ट्रीय सभा में राष्ट्र की अराजक दशा पर एक रिपोर्ट पेश की गयी थी। रिपोर्ट ने सभा के सदस्योंको सन्नाटे में डाल दिया गया था। तभी एक नाटकीय घटना के रूप में नोआइअ नामक एक कुलीन ने सभा में यह कहते हुए कि समाज में दोषों का कारण सामन्ती करों का बोझ और सामन्तों एवं कुलीनों की सम्पत्ति और विशेषाधिकार हैं, अपने विशेषाधिकरों को त्यागने की घोषणा की। एक-एक कर सभी सामन्तों ने उन्माद और आवेश में आकर अपने-अपने विशेषाधिकारों को त्यागने की घोषणा कर दी। इस क्रान्तिकारी स्थिति ने फ्रांस की सामाजिक व्यवस्था में रातोंरात जमीन-आसमान का अन्तर ला दिया। वस्तुतः इस घटना के दूसरे दिन के सुबह फ्रांस के लिए नव-प्रभात था। दोनों ही स्थितियों-पादरी और सामंत- में समर्थक और विरोधी लोग खेड़े हुए। लेकिन बढ़ते हुए घटनाक्रम के सामने क्रान्ति विरोंधियों को घुटने टेकने ही पड़े। इस तरह परम्परागत सामाजिक व्यवस्था के धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष स्तंभ ढह गये और मध्यवर्ग की बढ़ती हुई ताकत ने समाज को एक आधुनिक रूप दिया।
Question : 1870 के बाद अफ्रीका के विभाजन के विविध चरणों को चित्रित कीजिये। इसका अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों पर कैसा प्रभाव पड़ा?
(1996)
Answer : अफ्रीका की विजय ने खोजियों, व्यापारियों और धर्मप्रचारकों ने अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाई। खोजियों ने इस अनजान महाद्वीप में यूरोपीयों की दिलचस्पी जगायी। दूसरी ओर धर्म प्रचारकों ने ईसाई मत के प्रसार के लिए इस महाद्वीप को उपयुक्त पया। इन दोनों द्वारा पैदा यिके हुए प्रभाव का व्यापारियों ने जल्द ही उपयोग किया। पश्चिमी सरकारों ने सेनाएं भेजकर इन सभी हितों को सहारा दिया। इस प्रकार अफ्रीका की विजय की भूमिका तैयार हो गयी।
अफ्रीका का विभाजन भूरोपीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। सर्वप्रथम वेल्जियम के शासक सियोपोल्ड द्वितीय ने अफ्रीका में रुचि प्रदर्शित की। उसने अफ्रीका में अन्वेषण के कार्य को प्रोत्साहन देने और वहां पर सभ्यता का प्रकाश फैलाने के उद्देश्य से अपनी राजधानी ब्रुसेल्स में 1876 में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन में मध्य अफ्रीका में खोज एवं सभ्यता के विकास के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की गयी। स्टेनले को कांगो के क्षेत्र में खोज कार्य करने के लिए नियुक्त किया गयसा। स्टेनले के सहयोग से लियोपोल्ड ने कांगो का एक बड़ा प्रदेश पा लिया। बेल्जियम की इस कार्यवाही के फलस्वरूप फ्रांस, पुर्तगाल, इटली, ब्रिटेन और जर्मनी भी अफ्रीका के विभिन्न भागों की छीना-झपटी में सम्मिलित हो गये।
फ्रांस ने कांगो के दक्षिणी किनारे पर अपना प्रभाव स्थापित करना आरंभ कर दिया था। इसी समय पुर्तेगाल ने भी कांगो के कुछ प्रदेशों पर ब्रिटेन के सहयेग से अपना दावा रख दिया। बेल्जियम ने इसका विरोध किया। इधर मिस्र के मामले को लेकर इंग्लैण्ड और फ्रांस के संबंध भी बिगड़ रहे थे। फ्रांस-बेल्जियम के साथ मिलकर ब्रिटेन का विरोध किया। दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के समद्र तट पर एंग्रापिक्वेना पर जर्मनी के अधिकार को लेकर ब्रिटेन से संबंध तनावपूर्ण हो रहे थे। बिस्मार्क ने 1884 ने समस्या के हल हेतु बर्लिन में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी भाग लिया। ‘बर्लिन एक्ट’ में निम्न बातें तय की गयी-
1.कांगो फ्री-सेट, जिसमें कांगो घाटी का अधिकांश भाग सम्मिलित था, पर अन्तर्राष्ट्रीय अफ्रीकन सभा का अधिकार मान लिया गया।
2.कांगो घाटी में सभी राज्यों की व्यापार और नौ-चालन की स्वतंत्रता प्रदान की गयी।
3.कांगो नदी के यातायात और व्यापार संबंधी नियमों का पालन करने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग स्थापित किया गया।
4.नाइजर नदी के संबंध में यह निर्णय लिया कि उसके ऊपरी भाग पर ब्रिटेन और निचले भाग पर फ्रांस का नियंत्रण रहेगा।
1885 में बेल्जियम ने बर्लिन एक्ट की परवाह किये बिना अपना अधिकार कांगो पर कर लिया औरइसका नाम कांगो फ्री स्टेट रखा गया। लियाेपोल्ड का यह व्यक्तिगत राज्य बाद में बेल्जियम सरकार को सौंप दिया गया जो खुद बेल्जियम से दस गुना बड़ा था और रबड़ की दृष्टि से कांगो का सर्वोत्तम भाग था।
बर्लिन सम्मेलन में यह भी फैसला लिया गया था कि प्रत्येक देश अफ्रीका में अपने दावे को अधिसूचित कर दे। शर्त यह थी कि यह दावा तभी स्वीकार किया जायेगा जब शासक देश का प्रशसक या सेना उस दावे वाले क्षेत्र में हो। इस व्यवसाय का परिणाम यह हुआ कि वास्तविक अधिकृति के लिए अन्धदौड़ शुरू हुई। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रों का 15 वर्ष के अन्दर राष्ट्रों के मध्य बंटवारा हो गया।
पुर्तगालियों ने अंगोला तथ मोजाम्बिक के समीपवर्ती काफी क्षेत्र हथिया लिये। इटली को दो वीरान इलाकों- इटालवी सोमालीलैण्ड तथा इरीट्रिया से संतोष करना पड़ा। आगे बढ़ते हुए उसे इथियोपिया के सैनिकों के तगड़े विरोध का सामना करना पड़ा और 1896 में अडोवा के युद्ध में इटालवी बुरी तरह पराजित हुए।
जर्मनी उपनिवेशों की होड़ में देर से आया था। जर्मनी के उपनिवेश-उत्साहियों ने जर्मन ईस्ट अफ्रीका, टोगोलैण्ड, कैमरून्स तथा जर्मन दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। अधिकांश पश्चिमी अफ्रीका क्षेत्र उत्तर में अल्जीरिया से लेकर पूर्व में सूजन तक तथ वहां से गिनी तट के कई क्षेत्रों में फ्रांसीसी अधिपत्य स्थापित हो चुका था। फ्रांसीसियों ने लालसागर के तटवर्त्ती ओबोफ पर अधिकार कर लिया था तथा इथियोपिया में भी उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था। फलतः फ्रांसीसी साम्राज्य निर्माता पश्चिम में डकार से, पूरब मे ऐडेन की खाड़ी तक फ्रांसीसी सरकार की ओर से कैप्टन मार्हा को एक अभियान दल के साथ चाड झील से पूर्व की ओर भेजा गया। इस अभियान का उद्देश्य नील नदी के ऊपरी क्षेत्र में पहुंचकर सूडान के दक्षिणी भाग में फ्रांसीसी अधिपत्य की उद्घोषणा करना था। उस समय तक सूडान पर किसी यूरोपीय देश का अधिपत्य नहीं था।
इस प्रकार, अफ्रीका के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक फ्रांस तथा जर्मनी के क्रमशः उत्तर और दक्षिण में समानान्तर पट्टियों के रूप में औपनिवेश क्षेत्रों के सिलसिले स्थापित करने की योजनाएं बना रही थीं। ब्रिटने इससे भी बड़े महत्त्वाकांक्षी योजना में लगा था। उसकी योजना दक्षिण में केप ऑफ गुड होप (आशा अंतरीप) से लेकर उत्तर में काहिरा तक लगातार फैले हुए ब्रिटिश साम्राज्य की परिकल्पना थी। मिस्र 1882 ई. में ब्रिटिश संरक्षण में आ चुका था। नील नदी के ऊपरी क्षेत्र पर अपने दावे के क्रम में ब्रिटेन का पराजय का सामना करना पड़ा; साथ ही फ्रांस के विरोध का भी। ब्रिटेन और फ्रांस के बीच मिस्र में प्रभाव क्षेत्र को लेकर ‘फसोदा संकट’ खड़ा हो गया। फ्रांस इस मामले में पीछे हटने को तैयार हो गया।
सुदूर दक्षिण में एक अलग ही संकट खड़ा हो गया था। ट्रांसवाल और ऑरेंज फ्री सेट-दो छोटे यूरोपीय उपनिवेशों को ब्रिटिश आधिपत्य में लाना था। यहां पहले से डच मूल के लोग रहते थे जिन्हें बोअर कहा जाता था। दोनों पक्षों के बीच घातक युद्ध हुए। बोअरों के अन्नतः वेरीनिनिंग संधि के द्वारा अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्थन कर दिया। ब्रिटेन ने बोअरों के कुछ अधिकारों को मान्यता दी और समस्या का समाधान हो गया।
बीसवीं सदी के आरंभ तक लगभग समूचे अफ्रीका का विभाजन साम्राज्यवादी देश ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी थे। घोर आपसी प्रतिद्वन्द्विताके कारण इटली, पुर्तगाल और स्पेन जैसे छोटे उपनिवेशी देशों में फासदा उठाया। बड़े प्रतिद्वन्द्वी देश कम शक्त्शिाली देशों के हाथ उपनिवेश आ जाने को अधिक सुरक्षित मानते थे। सहारा मरुभूमि के दक्षिण के विशाल भूखण्ड पर साइबेरिया तथा इथियोपिया को छोड़कर सभी अफ्रीकी क्षेत्र यूरोपीयों के उपनिवेश बन चुके थे। अफ्रीकी तटभूमि पर पश्चिम में मोरक्को, मध्यवर्त्ती भाग में लीबिया तथा पूर्व में मिस्र महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता के कारण वह माहौल तैयार हो रहा था, जिससे प्रथम विश्व युद्ध की आग भड़कने वाली थी। मोरक्को को लेकर 1905 ई. में फ्रांस और जर्मनी आमने-सामने की स्थिति में आये। 1911 ई. में इटली ने लीबिया पर अधिकार कर लिया। बोअर युद्ध के आद अन्यत्र कोई बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है; लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय तनाव खत्म नहीं हुए थे।
Question : कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल और लीग ऑफ नेशन्स दोनों ने ही शक्ति संतुलन की समाप्ति की घोषणा कर दी।
(1996)
Answer : कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल ने 1889 में अपने द्वितीय अधिवेशन में अन्तर्राष्ट्रीय शांति और स्थिरता के विचार से एक ‘संकल्प’ पारित किया था जिसमें सैन्यवाद और युद्ध के विरुद्ध आन्दोलन पर जोर दिया गया था। लगभग 30 वर्षों बाद राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ नेशन्स) ने भी प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति और भयावहता के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय शांति की जरूरत महसूस की। अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव में वृद्धि करना, युद्ध के कारणों को मिटाना तथा विश्व में शान्ति स्थापित रखना राष्ट्रसंघ के मुख्य उद्देश्य थे।
भावना और उद्देश्य की जमीन पर दोनों के ही विचार ‘आदर्शवाद’ से ओत-प्रोत थे। पर दुर्भाग्य से इनका अन्त या परिणति दो विश्व युद्धों में हुआ अर्थात् ये अपने उद्देश्य में अन्ततः सफल नहीं हो पाये। यह महत्वपूर्ण है कि 1904-05 के दौरान जब रूस और जापान परस्पर युद्धरत थे, उस समय इन देशों के समाजवादी दल के नेताओं को संयुक्त रूप से 1904 की कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। इस प्रकार जहां इन दोनों देशों की फौजें आमने-सामने तनी हुई थीं, वहीं दोनों देशों की आम जनता समाजवादी आन्दोलन के झंडे तले युद्ध का विरोध कर रही थी। युद्ध का विरोध करते हुए यह आन्दोलन सीधे-सीधे विश्व राजनीति में उभर रही शक्ति संतुलन के प्रयास को भी रोक रही थी।
सन् 1882 में जर्मनी, इटली और उसके मित्र देश अपनी सुरक्षा के विचार से ‘ट्रिपल एलायंस’ नामक एक गुट का निर्माण कर चुके थे जिसके प्रत्युत्तर में 1907 में इंग्लैण्ड, फ्रांस व रूस ने ‘ट्रिपल आंतात’ का निर्माण पर डाला था। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘शक्ति संतुलन’ का यह एक अभिनव परिदृश्य था जिसमें दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर प्रभावी होने का प्रयास कर रहे थे जिससे तनावों में वृद्धि हो रही थी और युद्ध की आशंका प्रबल थी। अन्ततः 1914 में युद्ध छिड़ ही गया और अपनी बहुव्यापकता के कारण यह ‘विश्व युद्ध’ कहलाया। भयंकर तबाही और शांति की जरूरत ने ‘राष्ट्रसंघ’ को जन्म दिया। राष्ट्रसंघ ने भी ‘शक्ति-संतुलन’ को रोकने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जतायी और तदनुरूप प्रयास भी किये, किन्तु ‘सुरक्षा की तलाश’ ने जहां एक तरफ फ्रांस को पुनः गुटबन्दी की ओर धकेल दिया वहीं दूसरी तरफ जर्मनी ‘वर्साय की संधि’ के अपमान से मुक्ति की छटपटाहट में गुटबन्दी व सैन्यवाद की ओर प्रवृत्त हुआ। अंततः इन दोनों विरोधी शक्तियों व उनके गुट के मध्य पुनः मात्र 20 वर्षों के अंतराल पर 1939 में भयंकर मारकाट प्रारंभ हो गयी जो द्वितीय विश्व युद्ध कहलाया।
इस प्रकार कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल तथा राष्ट्रसंघ दोनों ही विश्व में शक्ति संतुलन को रोकने या उसे समाप्त करने की सदिच्छा से भरे होने के बावजूद इस अवधारणा की समाप्ति की घोषणा नहीं कर सके।
Question : विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के कारण राजनीतिक परिमंडल में भी महत्त्वूपर्ण परिणाम आया।
(1996)
Answer : किसी भी देश की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं में एक अन्तर्सम्बन्ध होता है जो दोनों परस्पर एक-दूसरे पर प्रभाव डालती हैं। मन्दी के कारण जनता के सभी वर्गों को बेकारी, भुखमरी आदि कष्टों का समाना करना पड़ा, जिससे उनमें निराशा, अस्थिरता तथा असुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई। लोकतांत्रिक सरकारें मंदी से उत्पन्न समस्याओं को सुलझाने में कामयाब न हो सकीं। फलतः लोकतंत्र के स्थान पर अधिनायकतंत्र को प्रोत्साहन मिलने लगा। इसी वजह से इटली में मुसोलिनी तथा जर्मनी में हिटलर जैसे तानाशाहों का उदय हुआ। कई राज्यों में जनता ने सत्तारूढ़ दलों के विरुद्ध मत देकर उन्हें अपरस्थ कर दिया। इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी की सरकार का पतन हो गया।
मंदी का दूसरा महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि लोग पूंजीवाद का विरोध कर रहे थे और साम्यवाद की ओर आकर्षित हुए। यह महत्वपूर्ण है कि जब पूंजीवादी देश अमेरिका आर्थिक मंदी से त्रस्त था उसी समय सोवियत संघ जैसा साम्यवादी देश इस हादसे से अछूता रहा और नित प्रगति के पथ पर अग्रसर था। दूसरी ओर, पूंजीवादी देशों ने साम्यवादी आंदोलन को विश्वभर में कमजोर करना आवश्यक माना और इसके लिए प्रयास किया। इन देशों ने हिटलर और मुसोलिनी के साथ तुष्टीकरण की नीति अपनाकर उन्हें साम्यवाद के विरोध में खड़ा किया।
आर्थिक मन्दी के कारण संसार के विभिन्न राज्यों में प्रशासकीय नियंत्रण में भी वृद्धि हुई। लगातारपतन की ओर अग्रसर कीमतों तथा मूल उत्पादकों की अत्यधिक निर्धनता एवं दयनीय स्थिति के कारण राज्यों को अनेक प्रकार के कानून एवं व्यवस्थाएं बनानी पड़ी। सीमा शुल्क आदि परम्परागत साधन मन्दी की स्थिति का सामना करने के लिए अपर्याप्त सिद्ध हुए। अतः कई राज्यों को विपणन, मूल्य नियंत्रण, पूंजी विकास एवं वितरण पर नियंत्रण स्थापित करन पड़ा। आर्थिक संकट ने ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ को प्रोत्साहन दिया। सभी राज्यों ने अपने राष्ट्र के उद्योग और व्यापार को समर्थन देने के लिए ऊंचे आयात शुल्क लगाये, कई वस्तुओं के आयात भी निश्चित किये गये। इस संकुचित राष्ट्रीयता की भावना ने अन्तर्राष्ट्रीयता सहयोग और सौहार्द्र की भावना को समाप्त कर दिया। विश्व बंधुत्व की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश भी व्यावहारिक स्तर पर स्वार्थ के वशीभूत होकर कार्य किये। इस मामले में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट अपवाद थे, जिन्होंने अपने देश के हित को अनदेखा करते हुए भी यूरोपीय अर्थव्यवस्था को बचाने का प्रयास किया था।
Question : कमाल पाशा के मार्गदर्शन में हुए तुर्की के पुनर्जागरण ने अनेक स्तरों पर तुर्की जीवन में क्रान्ति का दी। विशद् विवेचन कीजिये।
(1996)
Answer : आधुनिक तुर्की का जन्मदाता कमाल पाशा को माना जाता है; इसलिए लोग उसे ‘अतातुर्क’ भी कहते हैं। ‘यूरोप का मरीज’ कहा जानेवाला देश कमाल के नेतृत्व में चंगा हो गया और एक आधुनिक एवं शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। अपने दल के तीसरे अधिवेशन में कमाल ने सुधारों की एक विस्तृत योजना घोषित की। इस योजना में छः सिद्धांत निहित थे- गणतंत्रवाद, राष्ट्रवाद, समानतावाद, नियंत्रित अर्थवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद तथा क्रान्तिवाद अथवा सुधारवाद। इन छः सिद्धान्तों को आधार बनाकर कमाल सुधारों को कार्यान्वित करने में जुट गया। सुधारों का प्रमुख उद्देश्य टर्की को ‘एशिया-अरब संस्कृति और परम्पराओं’ से मुक्त कराकर उसका पश्चिमीकरण करना था। गणतंत्र और राष्ट्रवाद का विकास तब तक संभव नहीं था, जब तक देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार न किया जाय। अतः कमाल ने शिक्षा के सुधार को प्राथमिकता दी।
तुर्की में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था का आधार धार्मिक था। कमाल ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली शुरू किया और उसमें आधुनिक विषयों को सम्मिलित किया गया। प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य और निःशुल्क कर दी गयी। धन का अभाव होते हुए भी कमाल ने धैर्य से काम लिया और स्कूल-भवनों का निर्माण करवाया। इन प्रयासों में उसने व्यक्तिगत रुचि ली। उच्च शिक्षा के पुनर्गठन के लिए स्वीट्जरलैण्ड से प्रो- माल्के को बुलाया गया जिनकी योजना के आधार पर आवश्यक कदम उठाये गये। इस्ताम्बुल में एक मेडिकल कॉलेज खोला गया। विदेश से प्रोफेसरों को बुलाकर यहां शिक्षा दी जाती थी। कमाल ने प्रचलित अरबी लिपि को समाप्त कर इसके बदले लैटिन लिपि शुरू करवाया। इससे पाश्चात्य व्यवस्था पर आधारित शिक्षा आसान हो गयी। सरकार ने एक सामाचार एजेन्सी ‘अनातोलिया न्यूज एजेंसी’ की स्थापना की तथा कई समाचार पत्र प्रकाशित करना आरंभ किया। तुर्की की जनता में इन प्रयासों का बड़ा ही अच्छा प्रभाव पड़ा। उनमें बौद्धिकता का प्रवेश हुआ।
तुर्की में धर्म का अत्यधिक प्रभाव था जिसने इस समाज को गतिहीन बना दिया थ। कमाल ने खलीफा के पद को समाप्त कर दिया और खलीफा को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इस्लामी परम्पराओं की समाप्ति के बाद ही आधुनिक तुर्की की कल्पना की जा सकती थी। शरीयत का मंत्रलय बन्द कर दिया गया। मुल्ला-काजियों को बेदखल किया गया और उनके गोष्ठी-सम्मेलनों, वेश-भूषा आदि पर पाबन्दी आयद कर दी गयी। पुरुषों के लिए फेज (तुर्की टोपी) पहनना अपराध घोषित कर दिया गया और यूरोपीय टोपी पहनने का आदेश दिया गया। देश को इस्लामी राज्य के स्थान पर धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। राष्ट्रीयता के विकास के लिए नगरों के प्राचीन नाम बदल दिये गये और पुनर्नामांकन किया गया। यूरोप को कमाल ने आदर्श मानकर कांस्टेंटीनोपाल का नाम बदलकर इस्ताम्बुल रखा। ऐसे ही अन्य शहरों के नाम बदले गये।
तुर्की के समाज में स्त्रियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उन्हें राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान किये गये। पर्दा प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया। बहु-पत्नी विवाह समाप्त किये गये। लड़कियों के विवाह की आयु 17 वर्ष तय की गयी। स्त्रियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गयी। उन्हें मताधिकार प्रदान किये गये। राष्ट्रीय सभा में 17 महिला सदस्यों को इन सुधारों के कारण चुना गया।
कमाल तुर्की को आत्मनिर्भर बनाना चाहता था। रेलवे के विस्तार, बन्दरगाहों का निर्माण, सिंचाई योजनाओं के कार्यों के कार्यान्वयन तथा भूमि सुधारों के लिए 12 वर्षीय सार्वजनिक निर्माण योजना आरंभ की गयी। इसी प्रकार रूस से प्रभावित होकर पंचवर्षीय औद्योगिक योजना का सूत्रपात किया गया। विदेशों से कम-से-कम ऋण लिये गये। समस्त औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर राज्य का नियंत्रण था तथा तुर्की राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा गया। कमाल ने कृषि के विकास के लिए एक चार वर्षीय योजना प्रारंभ की। आदर्श कृषि यंत्रों का उपयोग किया गया। कृषि में सहायता पहुंचाने के लिए कृषि बैंक की स्थापना की गयी।
कमाल ने न्याय प्रणाली में आमूल परिवर्तन करके उन्हें प्रगतिशील देशों के अनुरूप बनाया। प्रचलित मुस्लिम कैलेण्डर के स्थान पर ग्रिगेरियन कैलेण्डर का प्रयोग आरंभ किया। उसने पाश्चात्य देशों में प्रचलित माप-तौल की दशमलव प्रणाली को अपनया। शुक्रवार के स्थान पर रविवार को साप्ताहिक अवकाश रखने की घोषणा की।
यह कमाल पाशा की प्रतिभा और शक्ति का ही फल था कि क्रान्तिकारी सुधार तुर्की में सफल हो सके। इस कार्य के लिए उसने निरंकुशता का भी सहारा लिया, किन्तु उसकी निरंकुशता उदारता से ओत-प्रोत थी और उसने व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी इसका दुरुपयोग नहीं किया। उसने निरंकुशता का उपयोग देश हित में किया। उसकी देशभक्ति एक मिसाल बनकर रह गयी है जिसने अपना संपूर्ण जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। आज तुर्की जो भी है, उसी की देन है।
Question : "पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन आधुनिक इतिहास में बौद्धिक और नैतिक जीवन के नवीनीकरण के लिए दो प्रतिस्पर्धी स्रोत हैं।"
(1995)
Answer : पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन दो ऐसे स्रोत हैं जिनके उत्पाद ने मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिये। इन दोनों घटनाओं से पूर्व के मनुष्यों की चिंतन और जीवन शैली अलग थी जो परंपरा और रूढि़वादिता पर आधारित कही जा सकती है। लेकिन इन घटनाओं के बाद मानव जीवन में आये परिवर्तन ऐसे हैं जो आधुनिकता का श्रीगणेश करने के लिए जिम्मेदार माने जा सकते हैं। पुनर्जागरण ने मानव जीवन में बौद्धिकता का प्रवेश कराया, जबकि धर्मसुधार आन्दोलन ने नैतिकता का।
पुनर्जागरण की विचारधारा की मुख्य विशेषता थी-मानवतावाद। यह एक ऐसी विचारधारा थी, जिसमें मानव का गुणगान किया गया, उसकी अपार सृजन-शक्ति में अटूट आस्था व्यक्त की गयी और व्यक्ति के स्वातंत्र्य तथा व्यक्ति के अहरणीय अधिकारों की घोषणा की गयी। इसने दैवी तथा पारलौकिक के स्थान पर मानवीय तथा प्राकृतिक को गौरवान्वित किया। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि मानव ने पुनर्जागरण द्वारा मानव को ढूंढ लिया।
इस काल में विचारकों और लेखकों की भीड़-सी आ गयी, जिन्होंने मानवतावादी सोच के आधार पर साहित्यों की रचना की और विचारों की झड़ी लगा दी। नित नए सोच एवं विचार सतह पर आते रहे। यह बौद्धिकता की बाढ़ थी। इस बौद्धिकता का प्रकटीकरण विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है, जैसे- कला और स्थापत्य के क्षेत्र में नवीन प्रयोग, आधुनिक विज्ञान का आरंभ आदि।
धर्मसुधार आन्दोलन द्वारा कैथोलिक चर्च की बुराइयों पर आघात किया गया। चर्च के पुरोहित और धर्माधिकारी स्वयं भ्रष्ट हो चुके थे। जीवन संबंधी दर्शन उनसे नहीं सीखा जा सकता था। चर्च की व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन हुए। ये आन्दोलन प्रोटेस्टेंट, काल्विनवाद, एंग्लीकनवाद आदि रूपों में प्रकट हुए। धर्म में आये अनैतिक तत्त्वों का पर्दाफाश किया गया, मानव जीवन में नैतिकता के महत्व को स्थापित किया गया।
Question : अमेरिकी क्रांति "एक वयस्क होते उपनिवेशी समाज के इतिहास में एक प्राकृतिक और अपेक्षित घटना थी।"
(1995)
Answer : 1776 ई. के पूर्व डेढ़ सौ साल के दौरान अमेरिकी समाज ब्रिटिश और यूरोपीय समाजों से भिन्न और अलग हो चुका था। 1776 ई. के बहुत पहले ही अमेरिका में स्वतंत्र होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी, क्रांति तो इस प्रक्रिया की परिणति थी। अमेरिकनों में यूरोप से भिन्न दुनिया में रहने का सबसे स्पष्ट लक्षण था- उनकी जीवन्त अर्थव्यवस्था, जो अमेरिका के बीहड़ों में विकसित हुई।
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ विविधतापूर्ण कृषि व्यवस्था थी। न्यू इंग्लैण्ड और मध्यवर्त्ती उपनिवेशों में छोटे और व्यक्तिगत फार्म थे तो दक्षिण में बड़े-बड़े बागान, जिनमें गुलामों द्वारा खेती करवाई जाती थी। फसल इतनी होती थी कि तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को खिलाने के बाद भी निर्यात के लिए अतिरिक्त बच जाती थी। पश्चिम में बहुत बड़ा भू-भाग खाली था, जिसने यहां के लोगों को महान आर्थिक अवसर प्रदान किया।
अमेरिकावासियों के वाणिज्य और उद्योग भी काफी बढ़े-चढ़े थे। निर्यातित माल का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक कच्चा माल, जैसे- तम्बाकू व इमारती लकड़ी था, जो तैयार माल और दालों के बदले ब्रिटेन और यूरोप को भेजा जाता था। निस्संदेह, उपनिवेशवासी आत्मनिर्भर नहीं कहे जा सकते, परन्तु वे ब्रिटेन और यूरोप पर निर्भर भी नहीं थे।
अमेरिकी समाज में अभिजात वर्ग और विशाल उद्यमशील वर्ग मौजूद थे। अभिजाततंत्र रक्त पर आधारित न होकर सम्पत्ति पर आधारित था। निचले वर्ग के उद्यमी और सौभाग्यशाली लोगों के लिए परिश्रम से प्राप्त ऐश्वर्य द्वारा अभिजात वर्ग का दर्जा प्राप्त करना संभव था। इस तरह समाज के बंधन ढीले थे।
अमेरिकी उपनिवेशों की अपनी-अपनी सरकारें थीं। ये सरकारें व्यापक स्वतंत्रता की अभ्यस्त हो चुकी थीं और उपनिवेशवासियों ने अधिकाधिक तौर पर महसूस करना शुरू कर दिया था कि अपने राजनीतिक भाग्य का फैसला करने का उन्हें अधिकार है। अमेरिका में रहने वाले उपनिवेशवादी दरअसल क्रान्ति के लिए आवश्यक प्रौढ़ता प्राप्त कर रहे थे और इसलिए अमेरिकी क्रान्ति एक अपेक्षित और प्राकृतिक घटना मानी जाती है।
Question : सेडान के युद्ध (1870) की समाप्ति पर "यूरोप ने एक स्वामिनी को खो दिया और एक स्वामी को प्राप्त कर लिया।"
(1995)
Answer : प्रशा और फ्रांस के बीच सेडान के युद्ध (1870) की जर्मनी के एकीकरण में निर्णायक भूमिका है। बिस्मार्क कहता था कि फ्रांस से युद्ध तो इतिहास की तर्कसंगत परिणति है। बिस्मार्क ने अपनी कूटनीतिक चालों से विश्व की प्रमुख ताकतों इंग्लैंड, रूस, आस्ट्रिया आदि को तटस्थ बना दिया। नेपोलियन बोनापार्ट के समय से यूरोप की लगभग सभी प्रमुख-अप्रमुख घटनाओं पर फ्रांस का प्रभुत्व चलता आ रहा था और इसलिए वह यूरोप की स्वामिनी कही जा सकती थी। परन्तु, अब फ्रांस मित्रविहीन बना दिया गया था और इसलिए यूरोप में उसकी भूमिका भी समाप्त होने वाली थी।
1 सितम्बर, 1870 को हुए सेडान के महत्वपूर्ण युद्ध में फ्रांस के राजा नेपोलियन तृतीय ने 83,000 सैनिकों के साथ प्रशा के सेनापति वॉन मोल्टके के सामने आत्मसमर्पण किया। फ्रांस में राजतंत्र सदा के लिए समाप्त हो गया और गणतंत्र की स्थापना हुई। जर्मनी का एकीकरण भी पूरा हो गया। फ्रैंकफर्ट में एक संधि हुई, जिसके अनुसार फ्रांस को मेज व स्ट्रासबर्ग सहित अल्सास व लौरेन के प्रदेश जर्मनी को देने पडे़। इससे फ्रांस का पूर्वी सीमान्त कमजोर हो गया। फ्रांस ने पांच अरब फ्रांक हर्जाने के रूप में देने का वादा किया। जब तक हर्जाना प्राप्त न हो जाये प्रशा की सेना फ्रांस में मौजूद रहती। जर्मनी के सम्राट विलियम प्रथम का राज्याभिषेक समारोह वर्साय के विख्यात महल में कराकर बिस्मार्क ने जर्मनी के सम्मान में चार चांद लगा दिये। केटलबी कहते हैं, "फ्रैंको-जर्मन युद्ध के फलस्वरूप जर्मनी सारे यूरोप का प्रतिष्ठित और सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन गया।"
इस युद्ध के बाद यूरोप की सभी घटनाओं में बिस्मार्क को भूमिका निभानी थी। इटली का एकीकरण भी सेडान के युद्ध में फ्रांस की पराजय से संभव हो सका। फ्रांस निस्तेज हो गया और यूरोप को जर्मनी के रूप में एक दूसरा स्वामी प्राप्त हो गया।
Question : इटली और जर्मनी के एकीकरण अपने प्रभावी मार्गों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपने दीर्घकालीन प्रभावों की दृष्टि से विषमता द्योतक थे। व्याख्या कीजिये।
(1995)
Answer : इटली और जर्मनी के एकीकरण को प्रेरणा देने वाले तत्त्वों में विषमताओं की कमी नहीं है। यह सच है कि इटली और जर्मनी दोनों ही एकीकरण के पहले तक भौगोलिक शब्दावली के विषय बने हुए थे। नेपोलियन बोनापार्ट ने अनजाने में ही 300 राज्यों में बंटे जर्मनी को 39 राज्यों के परिसंघ में तब्दील कर दिया था। इटली के विभिन्न प्रदेशों में भी अपने संबंधियों को राजा बनाकर एकता के सूत्र में बांध दिया था। इटली और जर्मनी दोनों के एकीकरण के मूल में फ्रांस विरोधी तत्त्व ने भी कार्य किया।
इटली भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक पूर्ण इकाई था। इटली का समृद्ध और गरिमामय प्राचीन इतिहास था। लातिनी भाषागत एकता थी और धार्मिक स्तर पर सभी कैथोलिक थे। इस प्रकार इटली में हर तरह से एक सुसंगठित इकाई के तत्त्व मौजूद थे।
इटली के एकीकरण में प्रमुख बाधाएं आस्ट्रिया और फ्रांस थे। इटली में देशभक्त एवं लोकतंत्र समर्थक लोगों की एक फौज खड़ी हो रही थी, जिसने स्वतंत्रता और उदारवाद की प्राप्ति के लिए कई गुप्त संस्थाओं का निर्माण किया। इनमें से कार्बोनरी प्रमुख था।
अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक इटली आर्थिक दृष्टि से एक पिछड़ा हुआ देश था। यहां की 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि में लगी हुई थी। उद्योग का स्तर दस्तकारी से अधिक न था। व्यापार एवं बैंकिंग की स्थिति भी कोई अच्छी न थी। आर्थिक विचारकों ने इटली में आर्थिक सहयोग और एकता की भावना के विकास को इटली की आर्थिक समस्या का समाधान माना। आर्थिक उत्प्रेरक ने जनता के बीच एकता के सूत्र बांधे।
जर्मनी के एकीकरण में आर्थिक तत्त्व ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस एकीकरण का श्रेय हालांकि बिस्मार्क के ‘रक्त और लोहे’ की नीति को दिया जाता है, परन्तु इतिहासकारों का एक वर्ग इससे अधिक ‘कोयला और लोहा’ के तत्त्व को महत्व देते हैं। 1815 और 1848 की कालावधि में जर्मनी में औद्योगीकरण की आधारभूमि तैयार हुई। फलस्वरूप रूर अंचल से नयी तकनीक के प्रयोग से कोयला निकालने का कार्य शुरू हुआ। साथ ही इस्सेन के क्रुप औद्योगिक संस्थान में उच्च कोटि का इस्पात उत्पादित होने लगीं। समूचे जर्मनी में रेल लाइनें बिछाई जाने लगीं। इसने एकीकरण की भौगोलिक बाधा को दूर किया, साथ ही समृद्धि के मार्ग में उन्हें परस्पर एकता के सूत्र में भी बांधा।
जर्मनी के हर प्रान्त की सीमा पर लगने वाली चुंगी से निजात पाने के लिए प्रशा के नेतृत्व में ‘शोलवरिन’ की स्थापना हुई। लगभग सभी राज्यों ने इसकी सदस्यता प्राप्त कर राजनीतिक एकता के मार्ग प्रशस्त कर दिये। इधर, विश्वविद्यालय के छात्रों ने राष्ट्रीय एकता प्राप्त करने हेतु ‘बर्शेनशाफ्रटेन’ नामक समिति स्थापित कर ली थी। हरडर, फिक्टे और हीगेल जैसे विचारकों ने भी राष्ट्रवादी चेतना को बढ़ाया।
इस तरह जहां इटली के एकीकरण में सांस्कृतिक एकता और विदेशी ताकतों के विरुद्ध सभी राज्यों में समान घृणा की भावना प्रमुख थी, वहीं दूसरी ओर जर्मनी के एकीकरण में आर्थिक तत्त्व ने सर्वप्रमुख भूमिका निभाई।
इटली और जर्मनी दोनों ही राज्यों का एकीकरण एक ही साथ 1870 ई. में संपन्न हो गया। लेकिन दोनों ही देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अपने दीर्घकालीन प्रभावों की दृष्टि से अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। जहां जर्मनी ने बिस्मार्क के नेतृत्व में काफी शक्ति एवं सम्मान अर्जित कर लिया, वहीं इटली का एकीकरण उसे वही शक्ति और सम्मान न दिला सका। दरअसल एकीकरण के पश्चात् से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इटली का इतिहास उसके पतन का इतिहास है। इटली की भूमि से उच्च उद्देश्य पलायन कर गये थे। देखने भर को बाहरी एकता स्थापित हुई थी। वास्तव में इटली का एकीकरण यकायक एक झोंके में स्थापित हो गया था, जबकि इटली के लोग शताब्दियों से विभक्त और अलग-अलग रहने और सोचने के आदी थे। इटली को यह एकता लोगों के परिश्रम और साहस के फलस्वरूप प्राप्त नहीं हुई थी, वरन् ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली थी। यह भी कहा जाता है कि इटली का एकीकरण और स्वतंत्रता का इतिहास उस कूटनीति की कहानी है जिसमें दूसरों के झगड़ों का लाभ उठाया गया। एकीकरण के बाद इटली सशक्त न हो सका और उसकी इस कमजोरी को अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की भागीदारी में भी देखा जा सकता है। अफ्रीका में उपनिवेश प्राप्त करने के दौर में उसे अबीसीनिया के हाथों मुंह की खानी पड़ी। इसी के साथ उसे वर्षों तक उपनिवेश प्राप्ति के दौर से बाहर निकल जाना पड़ा। प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने पर मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेने के पीछे उसकी उपनिवेश प्राप्त करने की नीति ही थी। दुर्भाग्य से उसे फिर मनोवांछित हिस्सा न मिल सका। अपने संसाधनों से इटली मजबूत न हो सका और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वह अन्य राज्यों का मोहताज बना रहा।
दूसरी ओर, बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी ने अपने निर्माण और सुरक्षा की दिशा में काफी सफलता पायी। बिस्मार्क उपनिवेशों की दौड़ में शामिल होने से बेहतर राष्ट्र निर्माण और उसकी सुरक्षा को मानता था। उसने देश के अन्दर आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को शुरू किया। दूसरी ओर, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वह फ्रांस को एकाकी बनाने के प्रयास में लगा रहा। आस्ट्रिया से सांस्कृतिक निकटता होने के कारण निकट संबंध बनाना उचित था। अगर वह ऐसा नहीं करता तो आस्ट्रिया के फ्रांस के खेमे में जाने का भी डर था। इंग्लैण्ड और जर्मनी के हित अलग-अलग थे, इसलिए भी इंग्लैण्ड के किसी मामले में न टकराने की नीति अपनायी गयी। बिस्मार्क ने आस्ट्रिया और रूस के सम्राटों को जर्मन सम्राट के साथ मिलाकर एक संघ ‘ड्राइकैजरवुंड’ बनाया। जर्मनी ने बाद में आस्ट्रिया और इटली के साथ मिलकर ‘ट्रिपल एलायंस’ का निर्माण किया। जर्मनी ने इतनी शक्ति हासिल कर ली कि वह फ्रांस और इंग्लैण्ड के लिए खतरा बन गया। प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के पीछे जर्मनी की कूटनीतिक चालें और प्रभाव क्षेत्र में उसकी वृद्धि के प्रयास ही मुख्य थे। इटली ने ट्रिपल एलायंस का सदस्य होते हुए भी फ्रांस खेमे में जाना उचित समझा। इटली और जर्मनी दोनों एकीकरण के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपने अलग-अलग प्रभाव छोड़ते रहे।
Question : विदेशी शक्तियों द्वारा प्रभाव क्षेत्रों में विभाजित चीन 19वीं सदी में एक खेदयुक्त दृश्य था। चीन ने इसके प्रति किस प्रकार प्रतिक्रिया व्यक्त की?
(1995)
Answer : दो अफीम युद्धों के बाद चीन में पश्चिमी शक्तियों के हस्तक्षेप एवं प्रभाव बढ़ते ही चले गये, जिसकी परिणति ‘चीनी तरबूज’ के बंटवारे के रूप में हुई। इन पश्चिमी देशों की प्रारंभिक रुचि व्यापार में थी, जो देखते-ही-देखते राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र बनाने में बदल गयी। नानकिंग की संधि द्वारा ब्रिटेन ने कैण्टन, अमोय, फुचाऊ, निगपो और शंघाई के पांच बन्दरगाह अपने व्यापारियों के लिए प्राप्त कर लिये। हांगकांग द्वीप भी हमेशा के लिए ब्रिटेन को मिल गया। ब्रिटेन को मिली सुविधा से प्रभावित होकर अन्य पश्चिमी देशों ने भी चीन से पृथक्-पृथक् सन्धि करनी शुरू कर दी। अमेरिका ने चीन से ‘क्षेत्रधिकार अधिकार’ प्राप्त कर लिया, जिसके अनुसार अमेरिकी नागरिक पर चीन में कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती थी। यह चीन की संप्रभुता का अतिक्रमण था। फ्रांस ने कैथोलिक मिशनरियों के लिए चीन में प्रचार-प्रसार करने की छूट प्राप्त की। तिनत्सिन की संधि के अनुसार चीन के 11 और बन्दरगाह पश्चिमी देशों के लिए खोल दियेगये। जर्मनी ने चीन पर आक्रमण कर क्याऊचाओ प्रदेश पर कब्जा जमा लिया।
सन् 1895 ई. तक चीन में पश्चिमी राष्ट्रों की मुख्य दिलचस्पी वाणिज्य के लिए ही थी। लेकिन जिस तरह से पश्चिमी देशों में चीन में अपने प्रभाव क्षेत्र बनाने की होड़ लगी हुई थी, वह चीन के अस्तित्व को ही समाप्त करने पर आमादा था। चीन अब ‘एशिया का मरीज’ के रूप में प्रकट हुआ। पश्चिमी राज्यों के मुंह से लार टपकने लगा। उन्होंने चीन के विभिन्न हिस्सों पर अपने-अपने दावे कर दिये। देखते-ही-देखते चीन विविध प्रभाव क्षेत्रों में बंट गया। इसे इतिहास में ‘चीनी तरबूज काटने’ की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। कई कारणों से अब चीन पर पाश्चात्य देशों का शिकंजा कसता गया और वे सब नयी-नयी सुविधाओं की मांग करने लगे। इसे लेकर उनके बीच आपसी होड़ आरंभ हो गयी, जिसे ‘सुविधाओं का युद्ध’ कहते हैं। इसका प्रभाव चीन की प्रादेशिक एकता पर बड़ा घातक सिद्ध हुआ। चीन के भू-भाग धीरे-धीरे केन्द्रीय सरकार के अधिकार से निकलने लगे और उन पर विदेशियों का आधिपत्य कायम होता गया। चीन की लूट-खसोट की असली प्रक्रिया अब शुरू हुई।
चीन-जापान युद्ध के बाद शिमोनोस्की संधि में लियाओतुंग प्रायद्वीप चीन के हाथ से छूटता जा रहा था, जिसे फ्रांस, जर्मनी और रूस के हस्तक्षेप सेबचाया जा सका। चीन ने जापान को इस युद्ध के लिए क्षतिपूर्ति इन्हीं तीनों देशों से ऋण लेकर की थी। इस एहसान का बदला इन देशों को चाहिए था। चीन द्वारा जापान को जो युद्ध का हर्जाना देना था, उसके लिए जुलाई 1895 में फ्रांस ने ऋण जारी किया, जिसकी गारण्टी रूस ने ली। फ्रांस ने इसके बदले हैनान द्वीप अपने लिए सुरक्षित करा लिया। विभिन्न खानों की खुदाई, रेलवे के विस्तार का अधिकार, फ्रांसीसी माल पर चुंगी कम करना कुछ ऐसी सुविधाएं थीं जो फ्रांस ने प्राप्त किये। दक्षिणी चीन के इलाकों को फ्रांस ने अपने प्रभुत्व क्षेत्र में लाने का यत्न किया।
रूस ने चीन में एक बैंक स्थापित कर अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की शुरुआत की। रूस ने मंचूरिया होकर ट्रांस-साइबेरियन रेल लाइन बिछाने का ठेका प्राप्त कर लिया। 1898 ई- में जर्मनी ने चीन के साथ एक राजनयिक सन्धि की, जिसके अनुसार निन्यानवे वर्ष के लिए त्सिंगताओ, कियाओ चाओ की खाड़ी और त्सिंगताओ के निकटस्थ प्रदेश जर्मनी को दे दिये गये। इसी प्रकार शान्तुंग के रेलमार्ग तथा खान खुदाई संबंधी कार्य का अधिकार भी जर्मनी को मिला।
चीन का द्वार खोलने का श्रेय ब्रिटेन को ही था। जब उत्तर में रूस और जर्मनी ने अपने पैर जमाये और दक्षिण में फ्रांस ने अपना अधिकार कायम किया, तब ब्रिटेन के लिए मध्य चीन में यांगत्सी की घाटी के अलावा और कुछ भी न बचा। फरवरी 1898 में ब्रिटेन ने चीन से यह वचन लिया कि वह इस इलाके में अपने अलावा किसी अन्य देश का अधिकार नहीं होने देगा। उसने केलून से लगे प्रायद्वीप का निन्यानवे साल का पट्टा ले लिया और हांगकांग के सामने के कुछ इलाकों पर भी दावा किया।
चीन के विदेशी व्यापार का दो-तिहाई भाग अंग्रेजों के हाथ में था। इसलिए उन्होंने यह मांग की कि चीन में जहाजी चुंगी का प्रधान निरीक्षक हमेशा कोई अंग्रेज नागरिक ही हो। चीन ने ब्रिटेन की इन सभी मांगों को स्वीकार कर लिया और इस तरह वहां ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र कायम हो गया। पश्चिमी देशों की बंदरबांट में जापान ने भी फुकियेन प्रदेश को, जो फारमोसा के निकट था, अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लिया। इटली तक ने समुद्री अड्डे की मांग की। लेकिन अब इस बंदरबांट को चुपचाप बर्दाश्त करना चीन के लिए संभव न था।
चीन में विदेशी लोगों का प्रभाव जिस ढंग से बढ़ रहा था, उसी के कारण विविध चीनी देशभक्तों में अपने देश में सुधार की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हुई थी। किन्तु सुधार के पक्षपातियों को सफलता नहीं मिल सकी, यद्यपि इससे विदेशी लोगों के प्रति विरोध व विद्वेष की भावना कम नहीं हुई। इस स्थिति में यह सर्वथा स्वाभाविक था कि विदेशियों के प्रति विद्वेष की भावना एक विद्रोह के रूप में प्रकट हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चीन में एक समिति या दल का गठन हुआ, जिसे अंग्रेजी में ‘बॉक्सर’ कहते हैं। इस दल में सम्मिलित लोग अपनी बंद मुट्ठी या कसे हुए मुक्के की शक्ति में विश्वास रखते थे और इसी का प्रयोग कर चीन के विविध प्रदेशों में विदेशियों पर आक्रमण आरंभ कर दिये। उसी समय पीकिग में एक जर्मन राजदूत की हत्या भी कर दी गयी। अब विदेशियों के पास आत्मरक्षा के लिए पीकिग के दूतावास में एकत्रित होने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। वर्ष 1900 के मध्य तक विदेशियों की एक सुसंगठित सेना पीकिग पहुंची और वहां उसने बॉक्सर लोगों से अपने दूतावासों की रक्षा की। इस प्रकार विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध चीनी लोगों ने जो विद्रोह किया था, वह सफल नहीं हो सका। इस असफलता के लिए लोग मंचू वंश को दोषी मानते थे। अब चीनी लोगों का विश्वास था कि उन्हें भी पाश्चात्य देशों की तरह सुधार करके चीन में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहिए। डॉ. सनयात सेन के नेतृत्व में राष्ट्रवादियों द्वारा आन्दोलन चलाया गया, जिसकी परिणति चीन में गणतंत्र की स्थापना के रूप में हुई।
Question : हिटलर की विदेश नीति में एक व्यवस्था का अण्वंश था… उसका दृष्टिकोण महाद्वीपीय था।"
(1995)
Answer : हिटलर की विदेश नीति आक्रामकता पर आधारित थी। जर्मनी की दुरावस्था के लिए वह वर्साय की संधि को उत्तरदायी समझता था। उसका मानना था कि यह संधि अन्यायपूर्ण है; इसलिए उसकी विदेश नीति का पहला कार्य वर्साय की संधि के विभिन्न शर्तों की धज्जियां उड़ाना था। सत्ता पर काबिज होते ही उसने जर्मनी को राष्ट्रसंघ, निरस्त्रीकरण सम्मेलन और श्रम संगठन से अलग कर दिया था। उसकी विदेश नीति की दूसरी विशेषता सर्व-जर्मनवाद थी, यानी सभी बिखरे हुए जर्मनों को एक साथ मिलाकर एक शुद्ध जर्मन साम्राज्य कायम करना। उसके मस्तिष्क में तीसरे ‘रीख’ अथवा साम्राज्य कायम करने की योजना थी। इस योजना का अर्थ आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया एवं पोलैण्ड के जर्मनवासी क्षेत्रों का नये अथवा विशाल साम्राज्य में विलय था। पूर्वी यूरोप में स्लाव प्रजाति को मिटाकर जर्मन साम्राज्य का विस्तार करना उसकी विदेश नीति का तीसरा लक्ष्य था। इस प्रकार वह यूरोपीय महाद्वीप के एक विशाल भाग को जर्मन साम्राज्य का अंग बनाना चाहता था।
यूरोप में अधिनायकवाद या सर्वसत्तावाद की समस्या विकराल होती जा रही थी। इटली, स्पेन, रूस आदि सभी देशों में अधिनायकतंत्र का ही विकास हो रहा था और जर्मनी भी इससे अछूता नहीं था। दूसरी ओर, समूचे महाद्वीप में साम्यवाद को खतरा माना जा रहा था। अतः साम्यवादियों का दमन सभी राज्यों की प्रमुख नीति बनी हुई थी। जर्मनी भी इन राज्यों की तरह ही साम्यवादियों के दमन में लगा हुआ था। जर्मनी और जापान के बीच जब अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म का विरोध करने के लिए कॉमिंटर्न विरोधी समझौता हुआ तो इटली भी इसमें शामिल हो गया। कम्युनिज्म का विरोध इंग्लैंड, फ्रांस जैसे लोकतंत्रीय देशों में भी था। हिटलर की विदेश नीति में कम्युनिज्म विरोध इसी व्यवस्था का एक अंश जानपड़ता है।
Question : मुसोलिनी का अपने देश की राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं का प्रति उत्तर ‘समवेत राज्य’ (Corporate State) था। व्याख्या कीजिये।
(1995)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध में इटली मित्र राष्ट्रों की ओर से लड़ा था, फिर भी युद्धोत्तर शान्ति सम्मेलन में हुई लूट में उसे अपेक्षाकृत कम ही प्रादेशिक लाभ प्राप्त हुए। इससे इटली के नेता निराश और क्षुब्ध थे। नैराश्य की इस भावना के साथ ही एक घोर आर्थिक संकट भी जुड़ गया। युद्ध में इटली का काफी नुकसान हुआ था और उस पर विदेशी कर्ज का भारी बोझ लद गया था। देश के उद्योग धंधे तथा व्यवसाय ठप्प पड़ गये थे तथा बेकारी की समस्या ने प्रचण्ड रूप धारण कर लिया था। आर्थिक संकट ने उसकी दुर्दशा कर दी थी। देश में चारों ओर सामाजिक अशान्ति और नैतिक पतन की ज्वाला भड़क रही थी। ऐसे में कई राजनीतिक दल सक्रिय हो उठे जो मजदूरों को गुटबन्द करके कारखानों में तोड़फोड़ और हड़ताल करवा रहे थे। इस अराजक परिस्थिति में मुसोलिनी घोर राष्ट्रवादी विचारों के साथ राजनीतिक क्षितिज पर उभरा और देखते-देखते इटली के आकाश पर छा गया। उसके काम करने के तरीवेफ़ और विचार को फासीवाद कहा जाता है।
इटली की फासिस्ट सरकार ने अपने सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर नयी आर्थिक व्यवस्था को आरंभ किया। उनका मानना था कि प्रत्येक आर्थिक मामले में हस्तक्षेप करना व उत्पत्ति के साधनों पर नियंत्रण रखने का राज्य को पूरा अधिकार है। वे साम्यवादियों की तरह व्यवसायों को सीधे राज्य के नियंत्रण में लेना पसन्द नहीं करते थे। किन्तु देश की रक्षा के लिए उपयोगी व्यवसाय पर राज्य का सीधा अधिकार वे आवश्यक समझते थे। इसी उद्देश्य से रेलवे, लोहे के कारखाने व इसी तरह के अन्य व्यवसाय सीधे राज्य के नियंत्रण में ले लिये गये। अन्य व्यवसायों का संचालन पूंजीपति करते थे, पर उनके लिए यह आवश्यक था कि वे मजदूरों का पूरा सहयोग प्राप्त करें और नीति निर्धारण व महत्वपूर्ण बातों का फैसला करने के लिए मजदूरों के प्रतिनिधियों से परामर्श करते रहें। फासिज्म, श्रेणी संघर्ष के विरुद्ध था। इसलिए उन्होंने यह व्यवस्था की कि पूंजीपति अपनी एक सिडीकेट बनायें और मजदूर लोग दूसरी सिडीकेट बनायें। किसी भी समस्या के समाधान के लिए दोनों सिडीकेट निर्णय करें। इस संघवाद से उन लोगों का सामूहिक हित होता है जो उत्पादन के काम में लगे हुए हैं अर्थात् मालिक और मजदूर दोनों का। इसमें समस्त सामाजिक वर्गों के हितों का समन्वय होता है और सभी की समान रक्षा होती है। इसके साथ ही आर्थिक क्षेत्र में भी अनुशासन बना रहता है।
1922 ई- में सभी फासिस्ट सिडीकेटों को पांच निगमों के अन्तर्गत संगठित किया गया। कुछ समय पश्चात् ‘निगमित फासिस्ट सिडीकेटों का संघ’ बनाया गया। 1926 ई- में मुसोलिनी ने सिडीकेट व्यवस्था को राष्ट्रव्यापी रूप दिया। कुल 13 राष्ट्रीय सिडीकेट स्थापित किये गये, जो पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में कार्य करते थे। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य उद्योगपतियों एवं श्रमिकों के बीच वर्ग संघर्ष को समाप्त करना था।
सन् 1927 ई- तक नयी आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की गयी और 1928 ई- में उसका राजनीतिक व्यवस्था के साथ संबंध भी जोड़ दिया गया। 1928 ई- में एक कानून द्वारा चैम्बर ऑफ डेपुटीज के निर्वाचन की पद्धति बदल दी गयी और केवल फासिस्ट दल की सूची पर ही मत लिया जाने लगा। इस प्रकार, इटली के राष्ट्रीय विधानमंडल का गठन विभिन्न व्यावसायिक हितों के प्रतिनिधित्व के आधार पर किया जाता था।
बढ़ती हुई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के कारण उत्पन्न कठिनाइयों को देखकर, मुसोलिनी ने 1933 ई- के अन्त में राज्य की संपूर्ण अर्थव्यवस्था को पूर्ण रूप से निगमित ढांचे में ढालने का प्रयास किया। उसने समस्त राष्ट्रव्यापी आर्थिक व्यवस्थाओं के लिए एक ‘निगम’ (Corporation)की स्थापना की, जिसमें मालिकों और मजदूरों के बराबर प्रतिनिधि रखे गये। ऐसे 22 निगम स्थापित किये गये- 8 कृषि के लिए, 8 उद्योग-धंधों के लिए और 6 यातायात, विभिन्न व्यावसाय आदि अन्य सेवाओं के लिए। ये निगम, उत्पादन चक्रों पर आधारित थे। प्रत्येक निगम, उत्पादन से वितरण एवं विक्रय तक की संपूर्ण प्रक्रिया को नियंत्रित करता था।
प्रत्येक निगम की एक पृथक् कार्यकारिणी समिति होती थी, जिसकी सदस्य संख्या उसके कार्यक्षेत्र के अनुसार निर्धारित की गयी थी। प्रत्येक समिति का अध्यक्ष निगम मंत्री या शासनाध्यक्ष मुसोलिनी होता था। सभी निगमों की कार्यकारिणी समितियों को मिलाकर राष्ट्रीय निगम परिषद् का गठन किया गया था, इसमें 500 सदस्य होते थे। राष्ट्रीय निगम परिषद् की एक ‘केन्द्रीय निगम समिति’ होती थी। इस समिति में प्रमुख मंत्री, फासिस्ट दल के महासचिव, सिडीकेट संघों के अध्यक्ष आदि होते थे। ड्यूस मुसोलिनी ‘राष्ट्रीय निगम परिषद’ का अध्यक्ष होता था।
1938 ई- के अन्त में मुसोलिनी ने अन्तिम कदम उठाया, जिसके द्वारा चैम्बर ऑफ डेपुटीज को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर फासियों और निगमों की सभा की स्थापना की गयी। इसमें 682 सदस्य रखे गये। इन सदस्यों में से 40 से अधिक सदस्य तो निगमों के प्रतिनिधि होते थे और शेष सदस्य फासिस्ट दल के प्रधान कर्मचारी होते थे। इस प्रकार मुसोलिनी ने देश में उत्पन्न राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को प्रमुखता दी। यह व्यवस्था फासिस्टवादी व्यवस्था का ही एक अंग बन गया था।