Question : उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों के दौरान अंग्रेजों ने किस प्रकार महाराष्ट्र में अपना नियन्त्रण स्थापित किया? मराठा चुनौती अंततः विफल क्यों हुई?
(1994)
Answer : मुगल साम्राज्य के खण्डहरों पर मराठों ने अपना साम्राज्य बनाया। उन्हीं परिस्थितियों से अंग्रेजों ने भी लाभ उठाया। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करते थे। मराठे शेष भारतीय शक्तियों में सबसे शक्तिशाली तथा अंग्रेजी कम्पनी शेष यूरोपीय कम्पनियों में सर्वश्रेष्ठ के रूप में उभर कर सामने आयी।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के प्रथम दौर का कारण मराठों के आपसी झगड़े तथा अंग्रेजों की महत्त्वाकांक्षाएं थीं। रघुनाथ राव से सूरत की सन्धि (1775) करके अंग्रेजों ने महाराष्ट्र में भी बंगाल की तरह शासन स्थापित करना चाहा, परंतु प्रयत्न असामयिक सिद्ध हुए। 17 वर्ष तक चले युद्ध में कोई पक्ष सफल नहीं हुआ। अन्त में सालबाई की सन्धि (1782) से युद्ध समाप्त हो गया। विजित क्षेत्र लौटा दिये गये। यह शक्ति परीक्षण अनिर्णायक रहा और अगले 20 वर्ष तक शान्ति रही।
आंग्ल-मराठा संघर्ष का दूसरा दौर (1803-6) फांसीसी भय से संलग्न था। वेलेजली फ्रांसीसी प्रभाव एवं शक्ति को कम करने के लिए सहायक संधि के तहत सभी भारतीय राज्यों को लाना चाहता था। मराठों ने इस जाल से बचने का प्रयत्न किया, परन्तु आपसी झगड़ों के कारण वे असफल रहे। मार्च 1800 में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ-ही मराठों में सूझ-बूझ का भी अंत हो चुका था। नाना अंग्रेजी हस्तक्षेप के परिणाम को समझते थे, परन्तु अन्य मराठे सरदार इसे नहीं समझ पाये। पेशवा बाजीराव द्वारा अपनी शक्ति पुनः प्राप्त करने की लालसा एवं दौलत राव सिंधिया तथा जसवन्त होल्कर का पूना पर अधिकार जमाने की चेष्टा ने अंग्रेजों को मराठा प्रदेश में शक्ति जमाने का सुनहरा अवसर प्रदान किया। बाजीराव द्वितीय ने 1802 में अंग्रेजों से बसीन की सन्धि कर अंग्रेजों के संरक्षण को स्वीकार ही नहीं किया, वरन् प्रशासन के हरेक क्षेत्र में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को भी मान्यता दे दी।
यह तो सत्य है कि पेशवा की शक्ति शून्य के बराबर थी, परन्तु इससे अंग्रेजों को बहुत से राजनैतिक लाभ हुए। पूना में प्रभुत्व बना और मराठा संघ का प्रमुख नेता सहायक संधि के बन्धन में बंध गया, जिससे उसके अधीनस्थ नेताओं की वस्तुस्थिति में कमी आई। यद्यपि इस सन्धि से अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता स्थापित नहीं हुई, परन्तु यह उसी दिशा में उठा एक पर्याप्त कदम था। सिडनी ओवन के इस कथन में कि इस सन्धि के फलस्वरूप कम्पनी को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से भारत का साम्राज्य मिल गया, कुछ अतिशयोक्ति तो है, परन्तु है वस्तुतः सत्य।
इस अपमान का बदला लेने के लिए होल्कर ने अंग्रेजों को ललकारा, मगर वे शीघ्र ही परास्त हो गया। देवगांव की सन्धि (1803) से भोंसले ने कटक और वर्धा नदी के पश्चिमी भाग अंग्रेजों को दे दिये, सिंधिया ने सुर्जी-अर्जन गांव की संधि (1803) से गंगा तथा यमुना के मध्य के क्षेत्र कम्पनी को दे दिये तथा जयपुर, जोधपुर तथा गोहद की राजपूत रियासतों पर अपना प्रभुत्व छोड़ दिया। अहमदनगर का दुर्ग, भड़ौंच, गोदावरी और अजन्ता घाट भी कम्पनी को दे दिये। दोनों राजाओं ने रेजिडेन्ट रखना भी स्वीकार कर लिया। 1804 में होल्कर ने अंग्रेजों से युद्ध में परास्त हो राजपुर घाट की सन्धि (1805) के तहत चम्बल नदी के उत्तरी प्रदेश, बुन्देलखण्ड छोड़ दिये तथा पेशवा तथा कम्पनी के अन्य मित्रों पर भी अपना अधिकार छोड़ दिया।
हेस्टिंग्ज के पिण्डारियों के विरुद्ध अभियान से मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली, अतएव दोनों दल युद्ध में खिंच आये। इस सुव्यवस्थित अभियान के कारण हेस्टिंग्ज ने नागपुर के राजा को मई 1816 में, पेशवा को जून 1817 में तथा सिन्धिया को नवम्बर 1817 में बहुत अपमानजनक सन्धियां करने पर बाध्य किया। विवश होकर पेशवा ने दासत्व बन्धन तोड़ने का एक अन्य प्रयत्न किया। दौलत राव सिन्धिया, नागपुर के अप्पा साहिब, मल्हार राव होल्कर द्वितीय ने युद्ध की ठान ली। तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18) में पेशवा को किर्की के स्थान पर, भोंसले को सीताबर्डी के स्थान पर तथा होल्कर को महीदपुर के स्थान पर पराजय मिली। मराठों की समस्त सेना अंग्रेजी सेनासे हार गयी। बाजीराव द्वितीय का पूना का प्रदेश विलय कर लिया गया। शेष छोटे-छोटे राज्य ही रह गये और वे कम्पनी के अधीन हो गये।
यद्यपि मराठे मुगलों से अधिक शक्तिशाली थे, परन्तु ये अंग्रेजों से सैनिक व्यवस्था, नेतृत्व, कूटनीति तथा साधनों में बहुत पीछे थे। वास्तव में मध्ययुगीन सभ्यता के पूर्वी लोग पुनर्जागरण, विज्ञान तथा आधुनिक अस्त्रें से लैस अंग्रेजों के सम्मुख नहीं ठहर पाये। इनकी पराजय के मुख्य कारणों में से प्रथम था- मराठों में अयोग्य नेतृत्व। बाजीराव द्वितीय तथा दौलतराव होल्कर जैसे अयोग्य नेतृत्व एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों के रहने से भी मराठों की हार हुई। सर यदुनाथ सरकार के अनुसार मराठा राज्य में कुछ स्वाभाविक दोष थे। उन्होंने किसी भी समय कोई सामुदायिक विकास, विद्या प्रसार अथवा जनता के एकीकरण के लिए प्रयत्न नहीं किया। मराठों के राज्य के लोगों की एकता कृत्रिम थी जो दबाव पड़ने पर बिखर गयी। मराठों की एक स्थिर आर्थिक नीति का नहीं होना भी उनकी पराजय का एक कारण था। पेशवा के अधीन मराठा राजनैतिक व्यवस्था का एक ढीला-ढाला संघ ही था, जिसमें कोई किसी की नहीं सुनता था, सब अपने स्वार्थ के लिए संघ के अन्य सदस्यों पर हमला करने से भी नहीं चूकते थे। इसी कारण वे एक होकर अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर पाये। मराठों की घटिया सैनिक प्रणाली को भी उनकी हार का एक कारण माना जाता है। मराठा सेना में शामिल विदेशी काफी लालची थे और वे पैसों के लिए कुछ भी कर सकते थे। विकसित सैन्य पद्धति का अभाव भी मराठों की कमजोरी का कारण था। उस काल में अंग्रेज प्रगतिशील दृष्टिकोण से भरे हुए थे और उनका नेतृत्व एवं सैन्य साधन भी काफी विकसित एवं उन्नत अवस्था में था। इसलिए उन्हें मराठों के परंपरागत नेतृत्व एवं सेना को हराने में ज्यादा कठिनाई नहीं उठानी पड़ी।
Question : ब्रिटिश राज का एक घोर नस्लवादी पक्ष था और वह अन्ततः औपनिवेशिक शोषण का ही पोषक बना।"
(1994)
Answer : सम्पूर्ण ब्रिटिश राजकाल (1765 से 1947) को एक सरसरी निगह से देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उस राज का एक घोर नस्लवादी पक्ष था। भारतीय को बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता था। कार्नवालिस, लिटन एवं कर्जन जैसे वायसराय तो प्रत्येक भारतीय को भ्रष्ट एवं अयोग्य ही मानते थे। भारतीय जनपद सेवा (I.C.S.) में नियुक्ति प्रणाली की व्यवस्था इस तरह की गयी थी कि शायद कोई बिरला भारतीय व्यक्ति ही इस पद तक पहुंच पाता। प्रशासन के सभी क्षेत्रों में सभी महत्वपूर्ण पद ब्रिटिश राजकाल के अंतिम दिनों को छोड़ कर मूलतः अंग्रेजों के पास ही रहे। आर्थिक क्षेत्र में राज द्वारा अंग्रेजों को अधिक-से-अधिक फायदा पहुंचाने का प्रयास किया जाता था और व्यापारिक छूट दी जाती थी। कुछ एक उदाहरण को छोड़ दिया जाये तो सारा बैंकिंग प्रणाली ‘अंग्रेजों का, अंग्रेजों द्वारा और अंग्रेजों के लिए’ की तर्ज पर ही स्थापित था। सर जॉन शोर के शब्दों में, अंग्रेजों की नीति यह थी कि अंग्रेजों को लाभ पहुंचाया जाये तथा भारतीयों को केवल वही पद दिया जाये, जिसके लिए अंग्रेज उपलब्ध न हों। रिपन के वायसराय काल में 1881-82 में घटित हुआ इल्बर्ट बिल विवाद इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि अंग्रेज अपनी प्रजातीय सर्वोच्चता बनाए रखने के प्रति कितने सजग थे। 1858 ई. के बाद कई अंग्रेज लेखकों ने भारत पर अंग्रेजों का शासन ‘श्वेत प्रजाति पर भार’ की संज्ञा दी, जिसके अनुसार इस अविकसित देश को विकसित बनाने का भार श्वेतों अर्थात् अंग्रेजों पर है। ब्रिटिश राज में व्याप्त इस घोर नस्लवादी पक्ष ने उस राज को सदा भारत के आर्थिक दृष्टि से शोषण करने के लिए ही प्रेरित करती रही। भारत उनके लिए काले एवं अविकसित लोगों का ऐसा उपनिवेश था जो उनके (श्वेतों एवं विकसित लोगों) लिए सुख-सुविधा ही मुहैया कराता था और कुछ नहीं।
Question : भारत में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान व्यावसायिक उद्यम के उद्भव एवं विकास की व्याख्या आप किस प्रकार कीजियेगा?
(1994)
Answer : भारतीय पूंजीपतियों की राजनीतिक स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति और विकास के स्तर से जुड़ी हुई थी। औपनिवेशिक काल में, विशेषतः 20वीं शताब्दी में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास दूसरे औपनिवेशिक देशों से महत्वपूर्ण अर्थों में भिन्न था। इसी के आधार पर भारतीय पूंजीपतियों की साम्राज्यवाद संबंधी स्थिति की व्याख्या की जा सकती है। इस विकास की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है:
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं पश्चात् ऊपर बतायी गयी प्रक्रियाओं के कारण भारतीय पूंजीपति वर्ग का विकास बहुत तेजी से हुआ। ऐसा करना उसके लिए तब संभव हो पाया जब उसने:
भारतीय पूंजीपतियों ने सूती वस्त्रें और इस्पात उद्योग के क्षेत्र में आयात प्रतिस्थापन प्रारम्भ किया और धीरे-धीरे बैंकिंग, जूट, विदेश व्यापार, कोयला और चाय जैसे क्षेत्रों को अधिग्रहीत करना शुरू किया, जहां पारंपरिक रूप से अभी तक विदेशी पूंजी का प्रभुत्व बना हुआ था। इसी तरह 1920 के दशक से उन्होंने शक्कर, सीमेंट, कागज, रसायन, लोहा और इस्पात के क्षेत्र में नया निवेश प्रारम्भ किया। इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के आगमन पर भारतीय बाजार के 72 प्रतिशत हिस्से पर भारतीय उद्योगों का अधिकार हो चुका था। इसी तरह वित्तीय क्षेत्र में भी भारतीय पूंजी ने व्यापक स्तर पर काम किया। उदाहरणस्वरूप, 1914 में भारतीय बैंकों का कुल जमा राशि में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा था, जो कि 1947 में बढ़कर 80 प्रतिशत हो गया। इसी तरह भारतीय कंपनियां बीमा व्यवसाय में भी बहुत तेजी से आगे बढ़ीं। 1945 तक उन्होंने जीवन बीमा का 79 प्रतिशत और सामान्य बीमा का 75 प्रतिशत व्यवसाय अपने हाथों में ले लिया था। 1945 में भारत के तीन शीर्षस्थ व्यापारिक घरानों की कुल परिसंपत्ति तीन शीर्षस्थ गैर-भारतीय कंपनियों की कुल परिसंपत्ति से बहुत ज्यादा थी।
ऊपर के विश्लेषण से निकले निष्कर्ष के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग का विकास साम्राज्यवाद से स्वतंत्र और उसके विरुद्ध हुआ था और इसलिए उसने अपने दीर्घकालिक वर्गीय हितों को साम्राज्यवाद के साथ जोड़कर नहीं देखा। भारतीय पूंजीवाद के स्वतंत्र और द्रुतगामी विकास की वजह से पूंजीपतियों में साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण अपनाने की दृढ़ता आयी। लोकप्रिय वामपंथी आंदोलनों से भयभीत होकर पूंजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद से सहयोग या समझौता नहीं किया। पूंजीपति वर्ग के सामने मुद्दा यह नहीं था कि साम्राज्यवाद का विरोध किया जाये या नहीं, बल्कि यह था कि साम्राज्यवाद से संघर्ष का रास्ता ऐसा हो, जिससे स्वयं पूंजीवाद को ही खतरा न हो जाये।
Question : अनेक दृष्टियों से विधवा पुनर्विवाह अधिनियम सती प्रथा की समाप्ति का तार्किक परिणाम था।"
(1994)
Answer : सती प्रथा अर्थात् विधवा स्त्री का अपने पति के शव के साथ पति की चिता में जल जाना। सती प्रथा एक अभिशाप की तरह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सदियों से चली आ रही थी। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध राजा राममोहन राय जैसे लोगों के सबल एवं गंभीर विरोध से प्रभावित होकर गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने 1829 में सती प्रथा अर्थात् सती होना, सती होने के लिए प्रेरित करना जैसे कार्यों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और सती प्रथा को समाप्त करने की घोषणा की।
विधवाओं को जलकर मरने से तो रोक दिया गया, लेकिन हिन्दू समाज में चले आ रहे विधवा शोषण अर्थात् विधवाओं पर तरह-तरह के अमानवीय अत्याचार तो खत्म नहीं हो सके। सती न हो रही विधवाओं के लिए तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था काफी कष्टकारी थी। अगर अधिक उम्र में कोई स्त्री विधवा होती तो एक बात थी। बहुत-सी स्त्रियां तो जवानी में ही विधवा हो जाती थीं, इन्हें उम्र भर विधवाओं के कष्ट झेलते रहना भी एक सामाजिक अभिशाप ही था। इनको इस कष्ट से छुटकारा सिर्फ पुनर्विवाह करके ही प्राप्त हो सकता था। इसलिए विद्यासागर, केशव चन्द्र सेन आदि समाज सुधारकों ने विधवा पुनर्विवाह कानून बनाने की मांग शुरू की और इसी मांग के फलस्वरूप 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून बना, जो सही मायने में सती प्रथा के अंत का एक तार्किक परिणाम ही था।
Question : 1857 के विद्रोह के पश्चात् भारत में ब्रिटिश गतिविधियों के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में सतर्कता एवं रूढि़वाद का नया दृष्टिकोण खोजा जा सकता है।"
(1994)
Answer : 1857 के व्रिदोह के कारणों के बारे में समीक्षा करने पर अंग्रेजों ने पाया कि राज्यों को हड़पने की नीति, भारतीयों के सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप करने (1829 की सती प्रथा निषेध कानून एवं 1856 की विधवा पुनर्विवाह कानून), सेना में अवध के सैनिक का अधिक होना, सेना में अंग्रेजी-भारतीय सैनिकों के अनुपात में बहुत अधिक अंतर होना एवं मुस्लिमों की साजिश आदि कारण थे। अतः 1858 से अंग्रेजों ने अपनी गतिविधियों के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में सतर्कता एवं रूढि़वाद का नया दृष्टिकोण अपनाया। सर्वप्रथम तो 1858 के अधिनियम में राजाओं को अपनी तरफ बनाये रखने के लिए राज्यों को हड़पने की नीति को समाप्त किया गया और तालुकदारों (भूमिपतियों) की बहुत-सी भूमियों को वापस किया गया। साथ ही 9 लाख मूल्य वाली भूमि का वितरण कर नये तालुकदारों का निर्माण किया गया। ये सभी अंग्रेजों के अच्छे सहयोगी सिद्ध हुए। सेना में सुधार लाने के क्रम में अवध के सैनिकों को कम किया गया और सिख, गोरखा और पठान को युद्ध जाति घोषित कर बहुतायत में सेना में शामिल किया गया। 12 जनवरी, 1859 तक जिन लोगों ने आत्मसमर्पण कर दिया, उन्हें माफ कर दिया गया, केवल उन लोगों को छोड़कर जिन पर किसी अंग्रेज की हत्या में सीधा शामिल होने का आरोप था। सरकारी नौकरी को सबके लिए उपलब्ध एवं सुलभ बनाया गया। भारत की प्राचीन परंपराओं और रीति-रिवाजों को सम्मान दिया जाने लगा और इनमें हस्तक्षेप की नीति त्याग दी गयी। मुसलमानों की अधिक उपेक्षा की गयी। अतः सैयद अहमद खां ने ‘कौन थे वफादार मुसलमान’ और विलियम हंटर ने ‘इण्डियन मुसलमान’ नामक पुस्तक लिख कर इस विचार को कम करने का प्रयास किया। इस तरह 1857 के बाद ब्रिटिश शासन फूंक-फूंक कर कदम उठाने लगा।
Question : भारत में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान व्यावसायिक उद्यम के उद्भव एवं विकास की व्याख्या आप किस प्रकार कीजियेगा?
(1994)
Answer : भारतीय पूंजीपतियों की राजनीतिक स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति और विकास के स्तर से जुड़ी हुई थी। औपनिवेशिक काल में, विशेषतः 20वीं शताब्दी में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास दूसरे औपनिवेशिक देशों से महत्वपूर्ण अर्थों में भिन्न था। इसी के आधार पर भारतीय पूंजीपतियों की साम्राज्यवाद संबंधी स्थिति की व्याख्या की जा सकती है। इस विकास की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार हैः
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं पश्चात् ऊपर बतायी गयी प्रक्रियाओं के कारण भारतीय पूंजीपति वर्ग का विकास बहुत तेजी से हुआ। ऐसा करना उसके लिए तब संभव हो पाया जब उसनेः
भारतीय पूंजीपतियों ने सूती वस्त्रें और इस्पात उद्योग के क्षेत्र में आयात प्रतिस्थापन प्रारम्भ किया और धीरे-धीरे बैंकिंग, जूट, विदेश व्यापार, कोयला और चाय जैसे क्षेत्रों को अधिग्रहीत करना शुरू किया, जहां पारंपरिक रूप से अभी तक विदेशी पूंजी का प्रभुत्व बना हुआ था। इसी तरह 1920 के दशक से उन्होंने शक्कर, सीमेंट, कागज, रसायन, लोहा और इस्पात के क्षेत्र में नया निवेश प्रारम्भ किया। इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के आगमन पर भारतीय बाजार के 72 प्रतिशत हिस्से पर भारतीय उद्योगों का अधिकार हो चुका था। इसी तरह वित्तीय क्षेत्र में भी भारतीय पूंजी ने व्यापक स्तर पर काम किया। उदाहरणस्वरूप, 1914 में भारतीय बैंकों का कुल जमा राशि में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा था, जो कि 1947 में बढ़कर 80 प्रतिशत हो गया। इसी तरह भारतीय कंपनियां बीमा व्यवसाय में भी बहुत तेजी से आगे बढ़ीं। 1945 तक उन्होंने जीवन बीमा का 79 प्रतिशत और सामान्य बीमा का 75 प्रतिशत व्यवसाय अपने हाथों में ले लिया था। 1945 में भारत के तीन शीर्षस्थ व्यापारिक घरानों की कुल परिसंपत्ति तीन शीर्षस्थ गैर-भारतीय कंपनियों की कुल परिसंपत्ति से बहुत ज्यादा थी।
ऊपर के विश्लेषण से निकले निष्कर्ष के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग का विकास साम्राज्यवाद से स्वतंत्र और उसके विरुद्ध हुआ था और इसलिए उसने अपने दीर्घकालिक वर्गीय हितों को साम्राज्यवाद के साथ जोड़कर नहीं देखा। भारतीय पूंजीवाद के स्वतंत्र और द्रुतगामी विकास की वजह से पूंजीपतियों में साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण अपनाने की दृढ़ता आयी। लोकप्रिय वामपंथी आंदोलनों से भयभीत होकर पूंजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद से सहयोग या समझौता नहीं किया। पूंजीपति वर्ग के सामने मुद्दा यह नहीं था कि साम्राज्यवाद का विरोध किया जाये या नहीं, बल्कि यह था कि साम्राज्यवाद से संघर्ष का रास्ता ऐसा हो, जिससे स्वयं पूंजीवाद को ही खतरा न हो जाये।
Question : फ्कांग्रेस की शक्ति का गौरव-गान करना और लीग की शक्ति को नकारना अंधापन है।"
(1994)
Answer : उपरोक्त वक्तव्य तत्कालीन परिस्थितियों का एक उचित आकलन प्रस्तुत करता है। 1935 के एक्ट के तहत 1937 में हुए आम चुनाव में जहां कांग्रेस को लगभग 6 राज्यों में बहुमत प्राप्त हुआ था, वहीं मुस्लिम लीग को मुसलमानों के 485 आरक्षित स्थानों में से केवल 110 स्थान मिले थे। साथ ही विश्व युद्ध (द्वितीय) की शुरुआत होने पर भारत का इस युद्ध में शामिल होने के ब्रिटिश सरकार के एकतरफा निर्णय के बाद कांग्रेस मंत्रिमंडलों का इस्तीफा दे देने एवं 1942 की अभूतपूर्व जन क्रांति ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस का प्रभाव बेहद बढ़ गया था। इस प्रभाव से प्रभावित लोग कांग्रेस की शक्ति का गौरव-गान करने में लगे थे और मानने लगे थे कि देश को स्वतंत्रता कांग्रेस ही दिलायेगी। लेकिन पी.सी. जोशी ने उचित ही कहा है कि लीग की शक्ति को नकारना अंधापन था। लीग ने 1937 से 1939 के बीच कांग्रेस सरकार के खिलाफ मुस्लिमों में जहर भरने का प्रयास किया और कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रचारित करना शुरू किया। जब 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने युद्ध के प्रश्न पर त्यागपत्र दे दिये तो लीग ने ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। 1940 में लीग ने भारतीय समस्या का हल विभाजन घोषित कर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की मांग शुरू की। 1942 के क्रिप्स मिशन को नकार कर एवं जून-जुलाई 1945 में वेवेल योजना पर वीटो (टमजव) लगा कर लीग ने अपनी शक्ति और मुसलमानों की एकमात्र पार्टी होने का दावा स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दिया था। लीग की शक्ति इतनी नहीं थी कि वह देश को स्वतंत्र करा सकती, मगर उसकी शक्ति इतनी जरूर थी कि वह मुसलमानों को भड़का सकती थी, दंगा भड़का सकती थी और विभाजन करवा सकती थी, जिसे उसने 1947 में करवा भी दिया। इसलिए कांग्रेस की शक्ति जहां सकारात्मक थी,
लीग की शक्ति नकारात्मक थी और दोनों की ही उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
Question : गांधी ने जनान्दोलनों पर अंकुश लगाते हुए भी अपनी लोकप्रियता बनाये रखी। इस विरोधाभास की व्याख्या आप कैसे करेंगे?
(1994)
Answer : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का 1919-47 का काल गांधी युग के रूप में जाना जाता है। इस युग में महात्मा गांधी ही सबसे प्रमुख नेता थे। उन्होंने भारतीय राजनीति में नयी विचारधारा का सूत्रपात किया। गांधी ने छिपकर षडयन्त्रों की नीति की निन्दा की और अन्याय का स्पष्ट और सामने से विरोध करने का आह्नान दिया। उन्होंने ‘सत्याग्रह’ (सत्य के प्रति आग्रह) अर्थात् सरकार के प्रति अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई। गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस आन्दोलन एक सार्वजनिक आन्दोलन बन गया। कांग्रेस का उद्देश्य भारतीय समाज का सर्वांगीण विकास करना था। इस युग में स्वतंत्रता की लौ को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य गांधी ने सफलतापूर्वक किया। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कौन से गुण थे, जिनकी वजह से गांधी ने जनान्दोलनों पर अंकुश लगाते हुए भी अपनी लोकप्रियता बनाये रखी।
कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों ने गांधी द्वारा अफ्रीका एवं भारत में (चम्पारण, खेड़ा, अहमदाबाद- 1919, खिलाफत आंदोलन, असहयोग आन्दोलन- 1920-21, सविनय अवज्ञा आंदोलन-1930-34) चलाये गये आंदोलन को, बीच में ही समाप्त करने की गांधी की घोषणा को उमड़ते जनभावना से डर एवं शासक-पूंजीपति वर्ग को अधिक नुकसान न हो, इससे प्रेरित बताया है। इस स्कूल के इतिहासकारों के अनुसार गांधी ने अपने राजनीतिक वजूद को महत्वपूर्ण बनाये रखने के लिए जनांदोलनों का सहारा लिया, लेकिन जैसे ही उन्हें यह महसूस हुआ कि यह आंदोलन उनकी पकड़ से बाहर जा रहा है, उन्होंने झट आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी।
कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों के तर्कों को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता है। चम्पारण, खेड़ा एवं अहमदाबाद के आंदोलनों को पूर्व निर्धारित मांगों से कम पर ही समाप्त कर दिया गया था। असहयोग आंदोलन जब अपने चरमोत्कर्ष पर था, तो 1922 में उत्तर प्रदेश के चौरीचौरा (गोरखपुर जिले में) गांव में जनता द्वारा एक हिंसक वारदात करने के कारण बीच में वापस ले लिया गया। कई इतिहासकार मानते हैं कि गांधी ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि उन पर जमींदारों का दबाव पड़ रहा था कि आंदोलन वापिस ले लिया जाये, क्योंकि आने वाले दिनों में असहयोग आंदोलन में ‘लगान नहीं देना’ कार्यक्रम शामिल होने वाला था। इसी तरह 1930-31 का सविनय अवज्ञा आंदोलन भी बीच में ही सरकार से ऐसे समझौते के बाद समाप्त कर दिया गया जो आंदोलन के मूलभूत मांगों से बेहद ही कम थे। इतिहासकारों का यह भी मानना है कि निम्न स्तर से पड़ने वाले दबाव के कारण ही गांधी 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के लिए तैयार हुए थे वरना उनकी इच्छा सरकार को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तंग नहीं करने की थी। सुमित सरकार का मानना है कि इस आंदोलन की शुरुआत इस डर से की गयी थी कि कहीं उमड़ती जनभावना से अलग रहने से कांग्रेस का अस्तित्व ही खत्म न हो जाये। उस समय जनता ब्रिटिश शासक की परेशानी से फायदा उठाकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक गंभीर प्रयास करने के मूड में थी।
इतिहासकार विपिन चन्द्र गांधी द्वारा जनांदोलनों को बीच में ही वापस लेने की नीति के आलोचकों का जवाब देने के क्रम में कहते हैं कि गांधी एक सफल दिग्द्रष्टा थे, जो आने वाली परिस्थितियों को पहले से ही भांप लेता था। चम्पारण, खेड़ा, अहमदाबाद, असहयोग एवं सविनय अवज्ञा आंदोलनों को बीच में ही वापस इसलिए लिया गया था, क्योंकि गांधी यह समझ गये थे कि इन आंदोलनों का चरम अब आ गया है और इसके बाद अब आंदोलन में कमजोरी आयेगी, इसलिए कमजोरी आने से पहले ही आंदोलन को इज्जत के साथ वापस ले लिया गया। वैसे अन्य इतिहासकार विपिन चन्द्र के विचारों से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अहसयोग आंदोलन जब समाप्त किया गया, तब उसमें कमजोरी का लक्षण कहीं नहीं दिखायी दे रहा था। विपिन चन्द्र का तर्क है कि गांधी की नीति संघर्ष-समझौता-संघर्ष के सिद्धान्त पर आधारित थी। संघर्ष के दौरान जनता को संघर्ष में अधिक से अधिक जोड़ा जाता था, जिससे कि समझौता करते वक्त जन-समर्थन का दबाव सरकार पर बनाया जा सके और आगे अधिक बड़े संघर्ष की तैयारी की जा सके। विपिन चन्द्र का मानना है कि इसी नीति के कारण धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार कांग्रेस से बराबरी पर बात करने के लिए मजबूर हुई।
विपिन चन्द्र का एक तर्क यह भी है कि गांधी जी जानते थे कि हमारे देश की अधिकतर जनता निरक्षर, शस्त्रहीन एवं भीरु स्वभाव की है, जो सरकार के दमनकारी रवैये का बहुत दिनों तक सामना नहीं कर सकती थी। अतः जनता को लगातार आंदोलनों से जोड़े रहने के लिए आवश्यक था कि आंदोलन अहिंसात्मक हो और कष्टकारी कम हो। गांधी की सफलता इसी बात में छुपी हुई थी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को एक जनमानस के आंदोलन में तब्दील कर दिया। इसीलिए तो जब भी गांधी का आ“वान आया, जनता तुरंत ही उठ खड़ी हुई।
सुमित सरकार का मानना है कि जनांदोलनों पर अंकुश लगाने के बाद भी गांधी की लोकप्रियता के पीछे कई कारण थे। प्रथम, गांधी ही उस समय ऐसे एकमात्र नेता थे, जिन्हें सम्पूर्ण भारत में सम्मान प्राप्त था, इसलिए सभी ने गांधी जी का समर्थन किया क्योंकि राष्ट्र को एक साथ लेकर चलने की क्षमता उस वक्त सिर्फ गांधी के पास ही थी। द्वितीय, गांधी ने जनांदोलनों की वापसी के बाद शांत बैठने के बजाये रचनात्मक कार्यों, यथा- महिला उद्धार, हरिजन उद्धार, छुआ-छूत विरोध, चर्खा-हथकरघा का प्रचार-प्रसार आदि में लगे रहे, जिसके कारण भारत की भावुक जनता ने उन्हें कभी भी अपने से अलग नहीं समझा और इन कार्यों से विभिन्न वर्गों में उनकी लोकप्रियता बनी रही, जो दूसरे नेताओं को प्राप्त नहीं थी। तृतीय, मातृभाषा का प्रयोग, हिन्दी को समर्थन, हिन्दू धर्म प्रतीकों का इस्तेमाल, सादगीभरा जीवन, संत-महात्मा सा रहन-सहन आदि ने लोगों को उनका दीवाना बना दिया था। लोग उन्हें संत, महात्मा, महर्षि एवं मसीहा समझते थे, उनके हर गलत-सही कार्यों को प्रशंसा की दृष्टि से ही देखते थे। चौथा, हर जनांदोलनों की वापसी के बाद गांधी द्वारा उपवास आदि पर बैठ जाने से जनता में जो क्रोध होता था, वह भी शांत हो जाता था, इससे उनकी लोकप्रियता कम नहीं हो पाती थी।
अंत में, जनांदोलनों पर अंकुश लगाने के बावजूद अपनी लोकप्रियता गांधी इसलिए बरकरार रख सके, क्योंकि वह भारत, भारत के समाज एवं भारतीय लोगों की नब्ज को बहुत अच्छी तरह से पढ़ सकते थे। उन्होंने सभी आंदोलनों को उस स्थिति तक ही बढ़ने दिया जहां लोगों को सरकार के दमन को कम से कम झेलना पड़ा। इस कारण हर अगले आंदोलन के लिए उनके पास जनसमर्थन हर पल बना रहता था, खासकर महिलाओं एवं निम्नवर्ग के लोगों में उनकी पैठ बहुत ही गहरी थी। अतः यह कहा जा सकता है कि गांधी की सफलता का राज जनभावना को समझने की क्षमता में था।
Question : बसीन की सन्धि ने अपनी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संक्रियाओं से कम्पनी को भारत का साम्राज्य दिलाया।"
(1993)
Answer : जसवन्त राव होल्कर के पूना पर आक्रमण करने के बाद बाजीराव द्वितीय ने भाग कर बसीन में शरण ली और 31 दिसम्बर, 1802 को अंग्रेजों से एक सन्धि (बसीन की सन्धि) की, जिसके अनुसार पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की एक सेना पूना में रखना, विदेशी मामले कम्पनी के अधीन कर देना आदि शर्तों को स्वीकार किया। इसी सन्धि में पेशवा ने गुजरात, ताप्ती तथा नर्मदा के मध्य क्षेत्र तथा तुंगभद्रा नदी के सभी समीपवर्ती प्रदेश, जिनकी आय 26 लाख रुपये थी, कम्पनी को दे दिये, सूरत नगर कम्पनी को दे दिया एवं निजाम तथा गायकवाड़ के मध्य झगड़े में कम्पनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली। इस सन्धि में पेशवा ने निजाम एवं गायकवाड़ के विरुद्ध अपने सारे अधिकारों की भी तिलांजलि दे दी थी।
इस संधि का महत्व इस बात में है कि इस संधि की शर्तों ने उस समय भारत के सबसे शक्तिशाली पक्ष, पेशवा के पतन की नींव ही नहीं रखी, बल्कि यह घोषणा भी कर दी कि अब अंग्रेजों का मुकाबला करने का दम रखने वाली कोई शक्ति हिन्दुस्तान में अस्तित्व में नहीं है। मराठों के क्षेत्रों में प्रवेश करने और उन पर अपने अधिकार जमाने के अवसर मिलने से यह लगभग तय हो गया कि अब भारत पर किसका शासन होगा। बसीन की सन्धि ने अपनी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संक्रियाओं में सही ही कंपनी को भारत का साम्राज्य दिलवाया।
Question : भारतीय राज्यों की ब्रिटिश इण्डिया के साथ ‘अधीन संघ’ की 1858 से 1905 तक की ब्रिटिश नीति की व्याख्या कीजिये। इस काल में भारत सरकार ने इस नीति का क्रियान्वयन किस प्रकार किया?
(1993)
Answer : भारतीय राज्यों के साथ भारत सरकार के सम्बन्धों के इतिहास में विद्रोह (1857 का) एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह बात मानी गयी कि विद्रोह के महत्वपूर्ण कारणों में से एक कारण डलहौजी की वह नीति थी, जिसके अधीन वह किसी न किसी बहाने भारतीय रियासतों को ब्रिटिश राज्य में सामूहिक रूप से मिलाना चाहता था। विद्यमान परिस्थितियों का प्रतिकार करने के लिए यह आवश्यक समझा गया कि भारतीय रियासतों के सम्बन्ध में भारत सरकार की नीति में परिवर्तन किया जाये। परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्ञी की 1858 की उद्घोषणा में यह कहा गया कि ब्रिटिश सरकार भविष्य में भारतीय रियासतों को अपने राज्य में नहीं मिलाएगी। भारतीय शासकों को गोद लेने का अधिकार देने की व्यवस्था की गयी, यदि उनके पश्चात् उनका कोई पुत्र न हो। किसी रियासत को ब्रिटिश राज्य में इस कारण मिलाए जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी कि शासक का कोई पुत्र न हो। भारतीय रियासतों को सनदें देने का निश्चय किया गया। भारतीय शासकों को 160 सनदें दी गयीं और आश्वासन दिया गया कि अगर वे साम्राज्ञी के आज्ञाकारी रहें और सभी सन्धियों का पालन करें, तो उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचाई जायेगी। लेकिन कैनिंग ने यह स्पष्ट कर दिया कि रियासतों की अनुचित अवस्था, दंगे आदि के समय ब्रिटिश सरकार कदम उठाने और हस्तक्षेप करने से नहीं चूकेगी। अगर वे सन्धियों या समझौतों का उल्लंघन करेंगे तो सरकार उनकी रियासतों की सम्पत्ति तक जब्त कर लेगी।
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी सरकार समझ गयी कि उन्हें भारतीय रियासतों के प्रति पुराने द्वेष तथा सन्देह की नीति छोड़ देनी चाहिए। उन्हें अलग रखने के स्थान पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें इकट्ठा करने का प्रयत्न किया, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि भारतीय रियासतों को पूर्व की अपेक्षा कार्य करने की अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी। कई अवसरों पर ब्रिटिश सरकार ने भारतीय रियासतों पर अपने प्रभुत्व के सम्बन्ध में घोषणा की। कैनिंग ने उन्हें ‘विद्रोह रूपी तूूफान या बाढ़ को रोकने वाला बांध’ बताया। कैनिंग ने 1858 में घोषणा की कि,इंग्लैंड का साम्राज्य सारे भारत में एक ऐसा शासन है, जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का प्रश्न नहीं किया जा सकता तथा जो सारे भारत में प्रभुत्वशाली शक्ति है। इंग्लैंड के प्रभुत्व में एक वास्तविकता है, जो पहले कभी विद्यमान नहीं रही तथा जिसके सम्बन्ध में अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु जिसे राजा लोग उत्सुकतापूर्वक स्वीकार करते हैं।" इसी प्रकार के वक्तव्य लॉर्ड मेयो, लॉर्ड लिटन, लॉर्ड लैंस डाउन, लॉर्ड मिण्टो, लॉर्ड कर्जन तथा लॉर्ड रीडिंग ने भी दिये। कर्जन ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे लेकिन विदेशी, संचार, सुरक्षा एवं आर्थिक मामलों पर ब्रिटिश सत्ता का नियन्त्रण रहेगा। यह व्यवस्था एक तरह से ‘अधीनस्थ संघ’ को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है।
1858 से 1905 के बीच ब्रिटिश सत्ता सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोच्च थी तथा भारतीय रियासतें उसके अधीन थीं। 1877 की एक अधिकृत घोषणा में कहा गया कि फ्प्रभुत्व एक धीरे-धीरे विकासशील वस्तु है….. जिसका रूप आंशिक रूप से विजय, आंशिक रूप से सन्धि से तथा आंशिक रूप से व्यवहार से बनता हो…..।"
भारतीय सरकार ने अपने प्रभुत्व के सम्बन्ध में कई अन्य अवसरों पर भी विचार व्यक्त किया। 1816 में मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की मृत्यु के बाद साम्राज्ञी विक्टोरिया द्वारा ‘कैसरे-हिन्द’ की उपाधि धारण करना इसका अच्छा उदाहरण है। इस तरह कहा जा सकता है कि 1858 से 1905 के बीच ब्रिटिश सरकार एवं भारतीय रियासतों के बीच अधीनस्थ संघ का सम्बन्ध था, जिसमें ब्रिटिश सरकार सर्वश्रेष्ठ प्रभुता थी। आंतरिक मामलों में कुछ हद तक छोड़कर अन्य सारे मामलों में भारतीय रियासतें, ब्रिटिश भारतीय सरकार के अधीन थीं।
Question : ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन भारत में किस प्रकार के प्रशासनिक सुधार प्रस्तुत किये गये?
(1993)
Answer : वर्ष 1765 के बाद, क्लाइव के समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक संस्था के साथ-साथ एक राजनैतिक संस्था भी बन गयी थी। अपनी राजनैतिक शक्ति को एक मजबूत आधार देने के लिए कम्पनी ने ब्रिटिश पद्धति पर आधारित प्रशासकीय नियमों को लागू किया, जो भारत में पहले से चली आ रही प्रशासकीय पद्धतियों से काफी अलग थे। क्लाइव ने 1765 के बाद यह प्रयास किया कि कम्पनी के अधिकारी भारतीय शासकों से उपहार न लें, व्यापार न करें और भ्रष्ट आचरण से बचे रहें। पर्सीवल स्पीयर ने क्लाइव के विषय में कहा है कि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य तो बन ही जाता परन्तु उसका स्वरूप भिन्न होता तथा उसमें समय भी अधिक लगता।" उसके अनुसार, क्लाइव भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का निर्माता ही नहीं, अपितु भविष्य का अग्रदूत भी था।
क्लाइव के कार्यों को आगे बढ़ाते हुए वारेन हेस्टिंग्ज के समय बंगाल में द्वैध प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और 1772 ई. के बाद बंगाल की वास्तविक शासक कंपनी हो गयी। कंपनी ने पहले से चले आ रहे सिद्धान्त, कि राजतन्त्र व्यवस्था में राजा ही सर्वोच्च शासक होता है, को 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट से समाप्त किया। अब बंगाल का शासक गवर्नर जनरल होता था, जिसके प्रशासन मंडल में चार पार्षद होते थे, जो कम शक्ति होने के बावजूद गवर्नर जनरल की शक्ति पर नियंत्रण रखते थे। गवर्नर जनरल पर कंपनी के डायरेक्टरों का भी नियन्त्रण रहता था। कंपनी के शासन काल में पास हुए सभी अधिनियमों में गनर्वर जनरल की शक्ति तो बढ़ी, मगर इसके प्रशासक मंडल को भी आहिस्ता-आहिस्ता शक्ति दी जाती रही। यह व्यवस्था ही आने वाले दिनों में मंत्रिमंडलीय व्यवस्था के रूप में विकसित हुई।
भारतीय राज्यों के एकीकरण की प्रक्रिया में 1833 का चार्टर एक्ट महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बंगाल का गवर्नर भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया और सपरिषद् गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिकउ कार्य का नियंत्रण, निरीक्षण तथा निदेश सौंप दिया गया।
इस तरह भारत के प्रशासन का केन्द्रीकरण कर दिया गया। बम्बई, मद्रास तथा बंगाल एवं अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियंत्रण में दे दिया गये। संक्षेप में, प्रशासन तथा वित्त की सभी शक्ति सपरिषद गवर्नर जनरल के हाथ में दे दी गयी।
सम्भवतः अंग्रेजी राज्य का सबसे स्थायी प्रभाव विधि के क्षेत्र में है। आरम्भ में कंपनी ने मुगल न्याय व्यवस्था को ही अपनाने का प्रयास किया, लेकिन 1773 के एक्ट के द्वारा सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के साथ ही भारत में अंग्रेजों की तरह न्याय व्यवस्था की शुरुआत की। अंग्रेजों ने अपने प्रदेशों में ‘विधि का शासन’ लागू किया। हीनतम व्यक्ति को भी निजी स्वतन्त्रता दी। अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी इस न्याय व्यवस्था ने पहले से चले आ रहे कुछ जाति, वर्ग एवं लोगों को मिले न्यायिक विशेषाधिकार को खत्म कर, एक आधुनिक न्याय प्रणाली को लागू किया जो आज तक चल रहा है। इसी प्रक्रिया के तहत 1859 में व्यवहार संहिता (Civil Procedure Code) तथा 1861 में दण्ड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) में स्पष्ट तथा निश्चित शब्दों में विधि लिख दी गयी और वह सभी बड़े-छोटे लोगों पर जाति, वर्ग तथा धर्म के भेदभाव रहित समान रूप से लागू कर दी गयी।
कंपनी ने अपने शासन के दौरान लिखित अधिनियमों पर आधारित प्रशासन व्यवस्था की शुरुआत कर जहां प्रशासन को विधि सम्मत बनाया, वहीं जनता को भी यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह विनियमित सिद्धान्तों से बाहर जा रहे प्रशासन की शिकायत कर सके। कंपनी के शासन काल के दौरान प्रशासन को अधिक सक्षम एवं कार्यकुशल बनाने के लिए लॉर्ड कॉर्नवालिस ने जिला प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त करने का प्रयास किया। कार्नवालिस ने ‘शक्तियों के पृथक्करण’सिद्धान्त के तहत जिला प्रमुख, जिसे समाहर्त्ता कहा जाता था, को राजस्व एवं प्रशासन का अधिकार दिया। दूसरी तरफ पुलिस संस्था का गठन कर, जमींदारों द्वारा गांवों की रक्षा करने के पहले से चले आ रही व्यवस्था को सुधारा। अब शहरों की रक्षा का भार पुलिस पर था, जिसके अपने अधिकारी एवं कर्मचारी होते थे। दीवानी न्यायालयों में कार्य के लिए एक नये अधिकारियों की श्रेणी जिला न्यायाधीशों की गठित की गयी। इनको फौजदारी तथा पुलिस के कार्य भी दे दिये गये। जिला से केन्द्र तक दीवानी अदालतों की क्रमिक कड़ी स्थापित की गयी।
राजस्व प्रशासन में भी काफी सुधार किया गया। जिला प्रमुख (कलेक्टर) को राजस्व प्रशासन सौंप दिया गया। जमींदारों के क्षेत्रों में स्थित शुल्क गृह बन्द कर दिये गये। अब केवल 5 शुल्क गृह-कलकत्ता, हुगली, मुर्शिदाबाद, ढाका तथा पटना में रह गये। शुल्क ढ़़ाई प्रतिशत रह गया जो सभी को देना होता था। वारेन हेस्टिंग्ज ने कम्पनी के अधिकारियों द्वारा छूट देने के पत्र बन्द कर दिये, विशेषकर उनके निजी व्यापार के लिए। भूमि-लगान के क्षेत्र में कंपनी ने बंगाल में जमींदारी प्रथा या स्थायी व्यवस्था (जमींदारों से लगान वसूली), मद्रास के आस-पास रैयतवाड़ी प्रथा (रैयतों से सीधे लगान वसूली) एवं पंजाब के आस-पास महालवाड़ी प्रथा (गांव अर्थात महाल प्रमुख से संग्रहीत लगान की वसूली) लागू किया। वैसे उपरोक्त सारी लगान प्रथायें किसानों का शोषण करने वाली ही थीं। लेकिन इन्हीं प्रथाओं के बीच से भारत में एक आधुनिक लगान व्यवस्था का आरंभ हुआ। कुछ भी हो अंग्रेजों ने जमींदारों आदि के वंशानुगत अधिकार को तो समाप्त करने का प्रयास किया ही, जो एक बहुत बड़ा प्रयास था।
कंपनी द्वारा किये गये प्रशासनिक सुधार में सबसे बड़ा कार्य भारतीय लोक सेवा (Indian Civil Service) का गठन और कार्य था। यह एक विशेष पद्धति के अनुसार ही चलता था और इसकी दक्षता तथा निष्पक्षता मशीन की तरह थी, जो कि अंग्रेजों के पूर्व के भारतीय राजाओं, गवर्नरों, न्यायाधीशों की भांति स्वेच्छा पर निर्भर नहीं थी। 1833 के चार्टर एक्ट में एक बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया गया, जो भारत में पहले से चले आ रहे जाति, रंग, धर्म आधारित विशेषाधिकार को जड़ से उखाड़ने का एक प्रयास था। 1833 के एक्ट की धारा संख्या 87 में वर्णित था कि फ्किसी भी भारतीय अथवा क्राउन की देशज प्रजा को अपने धर्म, जन्म स्थान, वंशानुक्रम, वर्ग अथवा इनमें से किसी एक के कारणवश कम्पनी के अधीन किसी स्थान, पद अथवा सेवा के अयोग्य नहीं माना जा सकेगा।" इस दिशा में अगला कदम 1853 के एक्ट में उठाया गया, जब आई.सी.एस. परीक्षा के लिए प्रतियोगिता की शुरुआत की गयी। इसी के साथ भारत में चला आ रहा वंशानुक्रम या पक्षपात से नौकरी प्राप्त करने की प्रणाली का अंत हुआ और एक आधुनिक एवं योग्यता आधारित व्यवस्था की शुरुआत हुई।
कंपनी ने प्रशासनिक कार्यों को जनकार्यों एवं सामाजिक कार्यों से भी जोड़ने का प्रयास किया। इसके तहत स्थानीय प्रशासन को मजबूत बनाया गया। 1813 से शिक्षा में सरकार की भागीदारी शुरू की गयी। सती प्रथा, नर बलि प्रथा एवं ठगी जैसी कुरीतियों को खत्म किया गया। कंपनी द्वारा किये गये प्रशासनिक सुधार वैसे तो मूलतः कंपनी के स्वयं के हित के लिए लागू किये गये, लेकिन इन्हीं सुधारों के बीच से आधुनिक भारतीय प्रशासन का भी जन्म हुआ।
Question : बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त, श्रेष्ठतम मन्तव्यों से प्रारम्भित होने पर भी, एक दुःखद भयंकर भूल का मामला था।"
(1993)
Answer : बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त प्रारम्भ करने के पीछे कार्नवालिस का उद्देश्य था, फ्कृषि तथा व्यापार नष्ट हो रहा है, जमींदार तथा खेतिहर मजदूर व किसान दिन-प्रतिदिन और अधिक निर्धन होते जा रहे हैं तथा जाति में केवल साहूकार ही समृद्धिशाली हैं" को खत्म करना। कार्नवालिस के मतानुसार स्थायी बन्दोबस्त के बहुत-से लाभ थे। इनमें से एक था-इससे जमींदारों को न केवल अपनी भूमि के विकास में बल्कि बंजर भूमि को जोतने में भी प्रोत्साहन मिलेगा। उस समय समस्त प्रांत के एक बड़े भाग में बंजर भूमि फैली हुई थी। लेकिन सही मायने में स्थायी बन्दोबस्त न तो किसानों के लिए, न तो जमींदारों के लिए और न ही खुद अंग्रेजों के लिए ही लाभकारी सिद्ध हो सका। स्थायी बन्दोबस्त हो जाने के बाद जमींदारों द्वारा गरीब किसानों का भयंकर शोषण किया जाने लगा, अनाप-शनाप लगान लिये जाने लगे और इसी समय से बदहाल भारतीय ग्रामों की नींव पड़ी जो अब तक पूरी तरह से दूर नहीं की जा सकी है। दूसरी तरफ, जमींदारों को भी राहत नहीं था। ईस्ट इंडिया कम्पनी को अगर निर्धारित तिथि को लगान नहीं पहुंचाया जाता था तो उनकी जमींदारी छिन जाती थी, इसलिए साहूकारों की बनी रही। इस व्यवस्था ने परंपरागत भारतीय ग्रामीण समाज को पूरी तरह झकझोर दिया था। स्थायी बन्दोबस्त में राजस्व निश्चित हो जाने से अंग्रेजों को कृषि में आये विकास से लाभ नहीं हो पाया और वे पूर्व निर्धारित राजस्व ही प्राप्त करते रहे। अतः उन्हें भी घाटा हुआ। हां, अंग्रेजों को एक लाभ यह हुआ कि उन्हें जमींदारों के रूप में नये समर्थक प्राप्त हुए, जो भविष्य में भारतीय समाज के शोषण में उनके साथी बने रहे।
Question : सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्रियों की मुक्ति में किस सीमा तक योगदान दिया?
(1993)
Answer : भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति विभिन्न कालों और विभिन्न वर्गों, धर्म और मानव जातीय समूहों में बदलती रही हैं। 19वीं शताब्दी में स्त्रियों से संबंधित बहुत-सी सामाजिक बुराइयां फैली हुई थीं। इनमें से प्रमुख थीं-सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर निषेध, बहुविवाह इत्यादि। यही समस्याएं वाद-विवाद का विषय बनी हुई थीं।
19वीं शती में ब्रिटिश काल के दौरान अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार और भारतीयों के बीच पश्चिमी स्वतन्त्र विचारधारा के प्रभाव और ईसाई मिशनरी क्रियाकलापों के प्रभाव के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक सुधारों के लिए बहुत से आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों के प्रमुख उद्देश्य थे-जाति सुधार, स्त्रियों की मान प्रतिष्ठा में सुधार, स्त्री शिक्षा का प्रसार और विभिन्न समुदायों में फैली हुई सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करना, जिनकी जड़ें सामाजिक और वैधानिक तथा धार्मिक परम्पराओं से जुड़ी थीं। 19वीं शताब्दी में समाज सुधार की प्रकृति का केवल सामाजिक सुधार आन्दोलनों द्वारा ही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है, जिन्होंने व्यापक परिणामों वाले अनेक समाज सुधार किये, बल्कि समाज के प्रगतिशील वर्ग ने जिस उत्साह से विभिन्न सामाजिक समस्याओं को उठाया और जटिल विषमताओं के विरुद्ध संघर्ष अभियान चलाये, वे भी उल्लेखनीय हैं।
19वीं शताब्दी में प्रायः सभी समाज सुधार आन्दोलन मुख्यतः स्त्रियों एवं निम्न अस्पृश्य जातियों की समस्याओं पर ही केंद्रित रहे। आरम्भ में ये समाज सुधार सुधारकों (राजा राममोहन राय, केशव चंद्र, विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, रानाडे, विवेकानन्द आदि) द्वारा प्रारम्भ किये गये थे। बाद में इन्हें वैधानिक रूप से अनुपालित कराया गया। विधायिका द्वारा पारित प्रारम्भिक समाज सुधारों में सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम 1829 में पारित किया गया। सती प्रथा के विपरीत ‘कन्या वध’ को कोई वास्तविक या लोकप्रिय धार्मिक स्वीकृति प्राप्त नहीं थी। ब्रिटिश भारत में इस प्रथा पर 1802 के विनियम (VI) द्वारा रोक लगायी गयी।
हिन्दू स्त्रियों की दशा में क्रमिक सुधार लाने की एक युगान्तकारी घटना हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 था। इसके द्वारा विधवाओं के पुनर्विवाह को विधि सम्मत बनाया गया। किन्तु जब इस अधिनियम के बाद भी हिन्दू विधवाओं के पुनर्विवाह की समस्या का कोई ठोस समाधान प्राप्त न हो सका, तो बंगाल में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर तथा पश्चिमी भारत में विष्णु शास्त्री ने इस सुधार को कारगर रूप देने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार किया। 1866 में बम्बई में विधवा पुनर्विवाह संघ की स्थापना हुई। 1896 में घोंदो केशव कर्वे ने पूना में विधवा आश्रम की स्थापना की।
1807 से प्रारम्भ अनेक कानूनों द्वारा दासता तथा दास प्रथा पर रोक लगाई गयी। 1872 में ब्रह्म समाज की प्रेरणा से एक दूसरा अधिनियम पारित हुआ। इसमें बहुविवाह तथा 14 वर्ष से कम आयु की अवयस्क कन्याओं के बाल विवाह की प्रथा पर रोक तथा अन्तर्जातीय विवाह और विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान की गयी। बढ़ती हुई सामाजिक चेतना के फलस्वरूप देवदासी प्रथा जैसी कुछ सामाजिक बुराइयां समाप्त हो गयीं।
स्त्री शिक्षा की दिशा में भी अनेक ठोस कदम उठाए गये। इस दिशा में ईसाई धर्म प्रचार संस्थाओं का योगदान अग्रणी रहा। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में 1857-58 में लगभग 35 विद्यालयों की स्थापना की। प्रो. कर्वे ने महाराष्ट्र में अनेक शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की। इनमें 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बम्बई में स्थापित भारत का प्रथम महिला विश्वविद्यालय अत्यन्त उल्लेखनीय है। स्त्री शिक्षा के प्रसार के कारण अनेक व्यापक महत्व के समाज सुधार कार्यक्रम सम्पन्न हुए। इनमें पर्दा प्रथा की समाप्ति ने स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की भागीदारी को सुलभ किया। इस क्षेत्र में आर्य समाज का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा है। मुस्लिमों में सैयद अहमद खां और पारसियों में बहरामजी मालाबारी एवं दादा भाई नौरोजी आदि ने स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस तरह, कहा जा सकता है कि 19वीं शताब्दी में समाज सुधारकों ने स्त्रियों की स्थिति में सुधार का जो आंदोलन शुरू किया था, वह कई बाधाओं के बावजूद कई मामलों में सफल रहा था। इसने भविष्य में इस दिशा में और सुधार होने के लिए एक मजबूत आधार उपलब्ध कराया था।
Question : आजादी के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक आन्दोलन, यथा असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन और उनका नेतृत्व कृषकों पर बहुत अधिक निर्भर थे।"
(1993)
Answer : वैसे तो काफी पहले से ही भारतीय किसान धीरे-धीरे अपनी समस्याओं के लिए लामबंद होने लगे थे, लेकिन 1920 से आरम्भ होने होने वाले दशक में बंगाल, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में किसान सभाओं का गठन हुआ। अखिल भारतीय किसान सभा का गठन 1936 में हुआ। आजादी के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन, यथा असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन और उनका नेतृत्व कृषकों पर बहुत अधिक निर्भर इसलिए था, क्योंकि प्रथमतः भारतीय जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा किसानों का ही था, अतः एक जन आंदोलन चलाने के लिए किसानों का साथ होना आवश्यक था। दूसरा, असहयोग या सविनय आंदोलन का एक पक्ष सरकार पर दबाव डालना था, उस समय सरकार की आय के सबसे प्रमुख साधन भू-राजस्व को कम करने के लिए किसानों का सहयोग जरूरी था। अगर किसान साथ देते तो सरकार पर काफी दबाव पड़ सकता था। 1921-22 में पंजाब के राजस्व में गिरावट या 1931-32 में बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, मद्रास, बम्बई आदि क्षेत्रों में राजस्व की कमी आने से सरकार को काफी बड़ा झटका लगा था। तृतीय, अधिकतर जनआंदोलन स्वदेशी की धारणा और विदेशी वस्तुओं का विरोध करने की भावना से भरपूर होती थी, अतः आवश्यक था कि भारतीय किसान भारतीय लोगों की जरूरतों को पूरा करने में तन-मन से लगे रहें। गांधी, नेहरू, पटेल, लाजपत राय, तिलक आदि सभी महत्वपूर्ण नेताओं का किसान आंदोलनों से जुड़ना इस बात का प्रमाण था कि वे सभी जानते थे कि भारत में कोई भी आंदोलन बगैर किसानों की मदद के नहीं चलाया जा सकता था।
Question : अतः माउण्टबेटन का कार्य लीग द्वारा मांगे और ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों के द्वारा स्वीकृत विभाजन के लिये ब्यौरों का निर्धारण और उसका क्रियान्वयन करना मात्र था, और इसे करने के लिये नये वायसराय ने अधिकारपूर्वक आरम्भ किया।"
(1993)
Answer : मुस्लिम लीग ने मंत्रिमण्डलीय शिष्टमण्डल की योजना से अपनी स्वीकृति वापस ले ली और 16 अगस्त, 1946 को ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ मनाया। यह सीधी कार्यवाही अंग्रेजों के विरुद्ध पाकिस्तान लेने के लिए नहीं की गयी, अपितु हिन्दुओं के विरुद्ध इसी उद्देश्य से की गयी। परिणामस्वरूप सारे देश में दंगा भड़का। इस विषम स्थिति में कांग्रेस द्वारा गठित अंतरिम सरकार में ना-नुकर के बाद शामिल होकर और वह भी इसे अन्दर से तोड़ने के लिए लीग ने प्रत्यक्षतः घोषणा कर दिया था कि उसे देश का विभाजन चाहिए। मार्च 1947 में माउण्टबेटन के भारत आने से पहले भारत में बनती विपरीत स्थिति के मद्देनजर ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 को यह घोषणा कर दी कि जून 1948 तक अंग्रेज भारत को प्रभुसत्ता का हस्तान्तरण कर देंगे। इसलिए जब माउण्टबेटन यहां आये तो यहां पहले से ही ऐसा माहौल बना हुआ था, जिसमें लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग करने के कारण सारी व्यवस्था छिन-भिन्न हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में इस उपमहाद्वीप में पुनः शान्ति स्थापित करने के लिए कांग्रेस और ब्रिटिशों ने लीग की मांग मानना ही मजबूरी समझा और विभाजन को स्वीकार कर लिया गया। अतः मार्च 1947 के अपने भारत आगमन के बाद माउण्टबेटन विभाजन के मसौदे तय करने में ही लगे रहे और अन्ततः 3 जून, 1947 की अपनी घोषणा में उन्होंने देश का बंटवारा स्वीकार करने और बंटवारे की प्रक्रिया की घोषणा कर ही दी।
Question : भारत में अंग्रेजी भू-राजस्व नीति को रूप प्रदान करने वाले प्रमुख कारकों का परीक्षण कीजिए। उसका भारतीय समाज पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ा था।
(2007)
Answer : प्रारंभ से ही ब्रिटिश कंपनी भारत में भू-राजस्व के अधिकतम संग्रह में विश्वास रखती थी। उस समय कंपनी को वाणिज्य-व्यापार में निवेश, प्रशासनिक खर्च एवं भारत में साम्राज्यवादी प्रसार के लिए अधिकतम राशि की आवश्यकता थी। अतः सारा अधिभार कृषकों पर लाद दिया गया। प्रारंभ से ही ब्रिटिश सरकार का मुख्य बल भू- राजस्व में वृद्धि पर था। 1722 ई॰ में भू-राजस्व की राशि 14 लाख 29 हजार थी, जो 1765 ई. में बढ़ाकर 81 लाख 80 हजार कर दिया गया। भू-राजस्व में वृद्धि ब्रिटिश वाणिज्य एवं व्यापार की आवश्यकताओं से परिचालित थी। बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के बाद ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर’ ने गवर्नर को लिखा कि कंपनी का निवेश उसकी अधिकतम सीमा तक पहुंचाया जाना चाहिए।
लार्ड क्लाइव के काल में एवं उसके बाद सामान्यतः परंपरागत भू-राजस्व पद्धतियां ही चल रही थीं एवं 1771 ई. में भू-राजस्व की राशि 2 करोड़ 34 लाख तक बढ़ाकर निर्धारित कर दी गई थी। पहली बार वारेन हेस्टिंग्स ने 1971 ई. में पांच वर्षों के लिए भू-राजस्व का प्रबंधन किया। उस व्यवस्था से जमींदारों को बाहर रखा गया। कम्पनी को व्यापार एवं विस्तारवादी युद्धों के लिए अधिकतम राशि की आवश्यकता थी। अतः भू-राजस्व संग्रह की नीलामी की गई। लेकिन इस व्यवस्था के अन्तर्गत देखा गया कि कृषकों का अत्यधिक शोषण हो रहा है एवं पर्याप्त लाभ भी प्राप्त नहीं हो रहा है। अतः 1775 में वारेन हेंस्टिग्स ने इसे रद्द कर एकवर्षीय प्रबंधन लागू किया। इस प्रकार वारेन हेंस्टिंग्स प्रयोग की प्रक्रिया से ही गुजरता रहा।
स्थायी बंदोबस्त व्यवस्थाः 1772 ई. में एक निबंध में हेनरी पालूटो ने स्थायी बंदोबस्त की अनुशंसा की थी। आगे चलकर फिलिप फ्रांसिस ने भी इस व्यवस्था की वकालत की। साथ ही रणजीत गुहा जैसे विद्वान ने भी इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि जमींदारी व्यवस्था पर फ्रांसीसी प्रकृतितंत्रवादियों का प्रभाव था। उपरोक्त विद्वान एवं फ्रांसीसी प्रकृतितंत्रवादियों का स्पष्ट विचार था कि समाज की समृद्धि एवं स्थायित्व के लिए भू-संपत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व होनी चाहिए। यह स्थायी बंदोबस्त की वैचारिक पृष्ठभूमि थी, किन्तु ब्रिटिश अधिकारियों ने अन्य हितों एवं कारकों से परिचालित होकर इस व्यवस्था में कई संशोधन किए। तीन दशकों के प्रयोगों ने भी स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के स्वरूप को निर्धारित किया। अब ऐसा विश्वास किया जाने लगा था कि भू-राजस्व व्यवस्था सुदृढ़ बनाने के लिए भूमि में व्यक्तिगत संपत्ति की परिकल्पना अनिवार्य है। अतः 1790 ई. में लार्ड कार्नवालिस ने भू-राजस्व में एक व्यवस्था को जन्म दिया, जो जमींदारी व्यवस्था के नाम से जाना जाता है। 1793 में इसे स्थायी बंदोबस्त बना दिया गया। स्थायी बंदोबस्त की दो मूलभूत विशेषताएं थीं-
रैयतवाड़ी व्यवस्थाः रैयतवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था 1792 एवं 1822 ई. में दक्षिण एवं पश्चिम भारत में प्रारंभ की गई थी। इस व्यवस्था को क्रियान्वित करने के पीछे निम्न कारक थेः स्थायी बंदोबस्त से सरकार को आशानुरूप लाभ प्राप्त नहीं हो रहा था। अब सरकार एक ऐसी व्यवस्था के पक्ष में थी, जिसका समय-समय पर पुनर्निर्धारण किया जा सके। दूसरे, दक्षिण एवं पश्चिम भारत में की स्थिति बंगाल से भिन्न थी। यहां कोई स्पष्ट जमींदार वर्ग नहीं था, जिसके साथ बंदोबस्त किया जा सकता। जमींदारी व्यवस्था में रैयतों का भरपूर शोषण हुआ था, अतः रैयतों को सुरक्षा देने के लिए भी इस व्यवस्था को लाया गया।
ब्रिटिश अधिकारियों का दृष्टिकोण भी रैयतवाड़ी व्यवस्था के पीछे एक उत्तरदायी कारक था। मुनरो एवं एलफिंस्टन पितृसत्तावादी थे। उनका मानना था कि रैयतवाड़ी व्यवस्था ही भारतीय परिस्थितियोंके अधिक अनुकूल है। रैयतवाड़ी व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत किसान को भू-स्वामी मान लिया गया। यहां भी भूमि को बिक्री योग्य बना दिया गया एवं इसी पंजीकृत किसान के साथ रैयतवाड़ी बंदोबस्त किया गया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार 50 से 80 प्रतिशत तक भू-राजस्व का पुनर्निर्धारण किया जाता था। यह व्यवस्था बंबई एवं मद्रास प्रेसीडेन्सी समेत तत्कालिक ब्रिटिश भू-भाग के 51 प्रतिशत क्षेत्र पर क्रियान्वित की गई थी।
महलवाड़ी पद्धतिः 19वीं सदी के पूवार्द्ध में ब्रिटिश अधिकारियों के दृष्टिकोण में उपयोगितावादी विचारधारा के प्रभाव से परिवर्तन होने लगा। महलवाड़ी पद्धति पर रिकार्डां के लगान सिद्धान्त और माल्थस के अर्थशास्त्र का प्रभाव था। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हो गई थी। अतः सरकार को निवेश के लिए अधिक धन की आवश्यकता थी। बढ़े हुए राजस्व द्वारा इसे पूरा किया जा सकता था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए महलवाड़ी व्यवस्था लाई गई। 1822 ई. में हॉल्ट मैकेंजी ने इस व्यवस्था को जन्म दिया। महलवाड़ी व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण गांव या महाल से किया जाता था। इस पद्धति में भी समय-समय पर भू-राजस्व का निर्धारण किया जाता था। इस व्यवस्था में भू-राजस्व अधिकतम रूप से निर्धारित की गई थी।
इसे बढ़ाकर कुल उपज का 95 प्रतिशत तक कर दिया गया था। भू-राजस्व के सुरक्षार्थ यह व्यवस्था मुख्यतः गंगा घाटी, मध्य भारत, उत्तर-पश्चिमी प्रांत एवं पंजाब में लागू की गई थी। यह कुल भू-भाग के 30 प्रतिशत क्षेत्र पर लागू था।
भू-राजस्व व्यवस्था का समाज पर प्रभावः ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था में भूमि को व्यक्तिगत स्वामित्व के अधीन एवं बिक्री योग्य बना दिया गया। इसके परिणामस्वरूप समाज का आर्थिक विभाजन बढ़ गया। धनी और भी धनी और गरीब और भी गरीब होते चले गए कृषकों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब हो गई। वे भू-राजस्व की राशि को पूरा करने के साथ ही अपने पारिवारिक खर्चों को पूरा करने के लिए कर्ज के लिए महाजनों के चंगुल में फंसते चले गए। स्वाभाविक रूप से महाजनी कृषक शोषण में एक उत्पीड़क यंत्र बन गई। विशेषकर रैयतवाड़ी क्षेत्रें में महाजनी व्यवस्था एक प्रमुख समस्या बनकर उभरी। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने किसानों को नकदी फसल उपजाने के लिए विवश किया, क्योंकि नकदी फसल के उत्पादन के बाद ही वे भू-राजस्व की राशि चुकता कर सकते थे। परिणामतः ज्वार-बाजरा जैसे सस्ते अनाजों का, जो गरीबों का अनाज कहलाता था,उत्पादन कम हो गया। आगे भारत में अकाल का यह एक महत्वपूर्ण कारण बन गया। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने ग्रामीण गरीबी एवं ग्रामीण ट्टण-ग्रस्तता को भी जन्म दिया। अधिकांश कृषक महाजनों के चंगुल में पहुंच गए थे। ग्रामीण ट्टणग्रस्तता ब्रिटिश भारत की एक ज्वलंत समस्या हो गई। आगे चलकर कृषकों एवं महाजनों के बीच तनाव एवं कृषकों का विद्रोह इसका एक स्वाभाविक कारण बना। आथिर््ाक विभेद के कारण किसानों की क्रय शक्ति घट गई। अतः भारतीय कृषि उद्योगों के लिए एक बाजार नहीं प्रदान कर सका। आगे इसने भारत में औद्योगीकरण को बहुत धक्का पहुंचाया नई भू-राजस्व नीति के कारण अनुपस्थित भू-स्वामित्व समाज में नए जमींदार एवं धनाढ्य वर्ग का उत्थान आदि अन्य प्रभाव भी उपस्थित हुए।
Question : “उन्नीसवीं शताब्दी में जिन बुराइयों ने भारतीय समाज को जंग लगा दिया था, संभवतः वे बुराइयां वो थीं, जिन्होंने उसके नारीत्व को अवरूद्ध कर दिया था।”
(2007)
Answer : कहा जाता है जिस देश में महिलाएं उपेक्षित हों, वह देश या समाज सभ्यता के क्षेत्र में कभी उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकता। दुर्भाग्य से 19वीं शताब्दी में भारतीय सामाजिक जीवन के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। वैसे तो 19वीं शताब्दी में सामाजिक जीवन में विकृतियां चरम पर थीं। जाति प्रथा, अंधविश्वासों की प्रधानता, अज्ञानता एवं अशिक्षा, सामाजिक-आर्थिक शोषण, धार्मिक-कट्टरता आदि बुराइयों से भारतीय समाज जकड़ी हुई थी। लेकिन महिलाओं की दशा एक ऐसा मुद्दा था, जहां सर्वाधिक सुधारक प्रयासों की आवश्यकता थी। इस समय लड़की का जन्म दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता था, यहां तक कि कई इलाकों में पैदा होते ही लड़की को मार दिया जाता था। पुनः बाल विवाह आम प्रचलन में था एवं विधवा स्त्रियों की दशा तो अत्यंत बुरी थी। अब भी समाज में सती-प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा प्रचलित थी। स्त्री शिक्षा लगभग वर्जित थी। बहुविवाह, पर्दा प्रथा, स्त्रियों का क्रय-विक्रय आदि तो प्रचलित थी ही सम्पति में एवं अन्य परिवारिक-सामाजिक मामलों में स्त्रियों को लगभग नगण्य अधिकार प्राप्त थे।
यह स्थापित सत्य है कि परिवारिक स्थितियों को सुधारे बगैर कोई भी सामाजिक सुधार नहीं हो सकता क्योंकि परिवार ही वह पाठशाला है, जहां व्यक्ति का शुरुआती समाजीकरण होता है एवं जहां व्यक्ति सामाजिक होना सीखता है। इसमें महिलाओं की बहुत ही अहम भूमिका होती है। इसलिए महिलाओं की स्थिति सुधारे बगैर किसी समाज में सुधार की बात सोची नहीं जा सकती। उन्नत महिलाओं के बगैर उन्नत पुरुषों और उन्नत घरों और अंततः उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। चूंकि जैसा कि वर्णित किया जा चुका है, 19वीं शताब्दी में महिलाओं की दशा अत्यंत खराब थी, स्वाभाविक रुप से इस दशा में सामाजिक स्थिति भी पतन के गर्त में समा रही थी।
तात्कालिक सुधारवादियों ने इस तथ्य को गंभीरता से महसूस किया। यही कारण है कि 19वीं शताब्दी के समाज सुधारकों का जोर प्रारंभ से ही महिलाओं की दशा में सुधार पर रहा। राजा राम मोहन राय ने सतीप्रथा के विरुद्ध मोर्चा खोला एवं इसके साथ ही वास्तविक सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। आगे हम देखते हैं कि ईश्वर चन्द्र विद्यासागर से लेकर केशवचन्द्र सेन तक और महादेव गोविन्द राणाडे से लेकर डी-के-कर्वे एवं वीरेशलिंगम पुंतलु तक समाज सुधारकों का वास्तविक प्रयास नारियों की दशा में उत्थान से संबंधित रहा। उनके प्रयासों के फलस्वरुप स्त्री शिक्षा में प्रचार के प्रयास हुए। विधवा विवाह एवं बाल विवाह से संबंधित कानून बनाए गए एवं महिलाओं को अन्य प्रकारों से अधिकार सम्पन्न बनाने हेतु पहल किए गए। बावजूद इसके 19वीं शताब्दी में महिलाओं की दशा में आंशिक रूप से ही सुधार दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता थी।
Question : “1857 का विद्रोह अंग्रेजों की उपस्थिति पर ही प्रश्न चिह्न लगाता हुआ प्रतीत होता था। उसने जो नहीं किया, वह था इन परिवर्तनों को उलट देना।”
(2007)
Answer : भारत में ब्रिटिश राज्य के तेजी से विस्तार के बाद भारतीय शासन प्रणाली एवं जीवन के विविध क्षेत्रें में कई परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों ने भारतीय जीवन की परम्परागत शैली को झकझोर दिया तथा समाज के विभिन्न वर्गों एवं समुदायों के बीच हलचल पैदा कर दी। भले ही 1857 के विद्रोह के स्वरूप एवं प्रकृति को लेकर विभिन्न राय हो, लेकिन इतना तय है कि 1857 का विद्रोह भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति एवं उनकी नीतियों के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया थी।
यदि हम सैन्य असंतोष संबंधी कारणों को अलग भी कर दें, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि आथिर््ाक, सामाजिक, प्रशासनिक-राजनैतिक एवं सांस्कृतिक मोर्चों पर भी यह अंग्रेजी नीतियों के प्रति अस्वीकृति एवं आक्रोश की परिचायक थी। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था एवं कृषकों का शोषण, शिल्पकारों-दस्तकारों एवं भारतीय उद्योगों की बर्बादी साथ ही जागीरदारों एवं अभिजात्य वर्ग से अधिकारों को छीनना ऐसे कारक थे, जिन्होंने आर्थिकस्तर पर जनता के बड़े वर्ग को अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तेजित करने वाले कारक की भूमिका निभाई थी। व्यपगत सिद्धान्त एवं अन्य उपायों से भारतीय राज्यों के अधिग्रहण के कारण पूर्व शासकों का एक वर्ग ब्रिटिश को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध था। सामाजिक-धार्मिक मामलों में ब्रिटिश द्वारा हस्तक्षेप एवं ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों ने जनता को उद्वेलित कर दिया।
विद्रोहियों ने कुछ समय के लिए अंग्रेजों के लिए वास्तविक चुनौती खड़ी कर दी एवं कई क्षेत्रें से अंग्रेजों के पैर भी उखड़ने लगे थे। आन्दोलनकारियों के सामने वास्तविक लक्ष्य एवं उद्देश्य अस्पष्ट थे, लेकिन इस समय उतना स्पष्ट था कि वे अंग्रेजों को भारत से किसी कीमत पर खदेड़ना चाहते थे एवं उन्होंने अंग्रेजी नीतियों मूल्यों एवं व्यवस्था को पूर्णतः अस्वीकृत कर दिया था। बहादुरशाह जफर को पुनः एक बार सम्राट घोषित करना ही उस तथ्य को स्पष्ट करता है कि यह विद्रोह अंग्रेजों द्वारा लाए गए परिवर्तनों के स्थान पर पूर्वास्थिति को बहाल करना कहीं अधिक उपयुक्त समझता था। लेकिन यहां यह याद रखने की आवश्यकता है कि विद्रोह का प्रभाव क्षेत्र उतना अधिक विस्तृत नहीं था कि उपरोक्त लक्ष्य समस्त देश के संदर्भ में एक सामन प्रभाव रखते हों । पुनः विद्रोह से ग्रस्त क्षेत्रें में भी जनता के सभी वर्गों की भागीदारी उसमें नहीं थी। उसी प्रकार विद्रोह को कुछ प्रयासों के बाद नियंत्रित भी कर लिया गया अर्थात् विद्रोह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ।
विद्रोह के बाद अंग्रेजी व्यवस्था (शासन प्रणाली) में आवश्यक संशोधन किए गए, जो भारत में अंग्रेजों को स्थायी आधार प्रदान करने के लिए आवश्यक थे। हां, इतना अवश्य है कि 1857 के विद्रोह ने भारत में अंग्रेजों के समक्ष एक वृहद् संकट की स्थिति पैदा जरूर कर दी थी, जो भारतीयों के अंग्रेजों की भारत में उपस्थिति एवं उनकी शोषक नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया को प्रदर्शित करती है।
Question : उन परिस्थितियों को स्पष्ट कीजिए जिनके परिणाम स्वरूप खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के बीच संबंध हुआ था। कांग्रेस के लिए क्या यह राजनीतिक समझदारीपूर्ण कदम था?
(2007)
Answer : खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन का तीसरा चरण शुरू हुआ। इस चरण की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इस चरण में हिन्दू-मुस्लिम सहयोग स्थापित हुआ एवं व्यापक जन आन्दोलन छेड़े गए तथा आन्दोलन को गांधीजी का सशक्त नेतृत्व मिला। खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के बीच संबंध स्थापित होने की पृष्ठभूमि में कई कारक थे एवं तात्कालिक परिस्थितियों के मांग के अनुरूप दोनों दलों के नेताओ ने निर्णय लिये। यद्यपि खिलाफत को समर्थन देने संबंधी कांग्रेस के निर्णय के औचित्य को लेकर सदैव विवाद की स्थिति रही है।
खिलाफत एवं असहयोग के बीच सहबंध की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार होने लगी थी। जैसा कि स्पष्ट है, 1910 के बाद मुस्लिम लीग की राजनीति में परिवर्तन आया। मुस्लिम लीग पर युवा वर्ग का वर्चस्व स्थापित हुआ। युवा वर्ग का रूझान राष्ट्रवाद की ओर था। आगे मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादियों ने लीग की नीतियों को प्रभावित करना शुरू किया। इस युवा वर्ग के प्रभाव में 1913 ई- में स्वराज का प्रस्ताव पारित किया। इस लक्ष्य में मुस्लिम लीग कांग्रेस के निकट आ गई। इसकी स्वाभाविक परिणति थी 1916 में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौता।
इस समझौते के अन्तर्गत कांग्रेस पृथक् मताधिकार को मानने एवं मुस्लिम अल्पसंख्यक को अतिरिक्त महत्व देने को सहमत हो गईं। उस समय जिन्ना और तिलक दोनों ने महसूस किया कि भारत को तभी स्वराज का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त हो सकता है, जब हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हो। कुल मिलाकर इस वक्त तक कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग में सहयोग का वातावरण तैयार हो गया था। यद्यपि यहां याद रखा जाना आवश्यक है कि पृथक् निर्वाचन जैसे मुद्दे पर सहमति जताकर कांग्रेस ने भविष्य में साम्प्रदायिकता के उदय के लिए मार्ग खुला छोड़ दिया।
सेव्र की सन्धि के प्रकाशन के बाद ही खिलाफत का मुद्दा उभर आया था। देश के मुसलमानों में पवित्र खलीफा के प्रति एवं तुर्की के विरुद्ध तीव्र आक्रोश की लहर थी। मोहम्मद अली द्वारा पेरिस में रखी गई मांगों को अस्वीकार करने एवं अली बंधुओं के नजरबंदी के बाद एक व्यापक आन्दोलन अवश्यम्भावी था। अली बंधुओं की रिहाई के बाद मुस्लिम लीग के जुझारू तत्वों ने देशव्यापी हड़ताल करने का निर्णय लिया। खिलाफत नेता इस समय हिन्दू- मुसलमान एकता के लिए बहुत उत्सुक थे, क्योंकि खिलाफत आन्दोलन के तहत जो असहयोग की नीति अपनाई गई थी उसके लिए सेवाओं और काउंसिलों का बहिष्कार करना जरूरी था, जो हिन्दुओं के सहयोग के बिना संभव नहीं था।
गांधी जी ने इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का सर्वश्रेष्ठ समय समझा। ‘ज्यूडिथ ब्राउन’ का कहना है कि आरंभ में दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा करके गांधीजी ने अपने-आप को दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बना लिया। खिलाफत नेताओं के लिए वे हिन्दू-राजनीतिज्ञों से संपर्क की महत्वपूर्ण कड़ी थे। साथ ही रिचर्ड गार्डन एवं ज्यूडिथ ब्राउन जैसे इतिहासकार खिलाफत के मुद्दे पर गांधीजी के प्रयासों को ‘शक्ति प्राप्त करने’ तथा ‘राष्ट्रीय नेतृत्व का अधिग्रहण’ करने की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं।
लेकिन महत्वपूर्ण है कि इस समय गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक जनाधार वाला एवं अधिक जुझारू आन्दोलन बनाने के लिए प्रयासरत था। एक ऐसे में खिलाफत के मुद्दे पर मुस्लिम लीग को समर्थन देने का तात्पर्य था, विशाल मुस्लिम सम्प्रदाय को राष्ट्रीय आन्दोलन के मुख्यधारा की ओर आकर्षित कर लेना।
जैसा कि गांधी जी ने कहा था फ्खिलाफत आन्दोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बांधने का ऐसा सुअवसर है, जो सैंकड़ों वर्षों में एक बार आता है।य् इसलिए स्पष्ट है कि उपरोक्त कारण कांग्रेस के खिलाफत से सहयोग का एक ठोस आधार था। यह नीचे का दबाव अर्थात् जन सामान्य की प्रतिक्रिया ही थी जिसके कारण असहयोग-खिलाफत सहबंध आकार ले सका। रॉलेट एक्ट के दमनकारी प्रयासों एवं पंजाब में हुए अत्याचार के बाद जन सामान्य में रोष चरम पर था। खिलाफत के मुद्दे पर मुसलमान ब्रिटिश के विरुद्ध उग्र हो रहे थे। साथ ही अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला के ब्रिटिश-विरोधी रुख एवं प्रचार कार्य ने भी मुसलमानों की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को जगाने में प्रमुख भूमिका निभाई। श्रमिकों में असंतोष व्याप्त था एवं यह समय किसान जागरण का भी था। अतः कांग्रेस इस समय उस जन असंतोष की अनदेखी नहीं कर सकता था। पुनः खिलाफत-असहयोग रूपी एक व्यापक आन्दोलन न केवल जनशक्ति के आक्रोश का ब्रिटिश के विरुद्ध उपयोग का एक सुअवसर था, बल्कि कांग्रेस एवं लीग दोनों एक व्यापक आन्दोलन के द्वारा जनता से जुड़ी कुछ आंतरिक समस्याओं का समाधान भी प्राप्त कर सकते थे। अतः उपरोक्त परिस्थितियां ऐसी थीं जिसके अन्तर्गत असहयोग-खिलाफत सहबंध अवश्यम्भावी था।
कांग्रेस द्वारा खिलाफत आन्दोलन को सहयोग प्रदान करने संबंधी निर्णय को लेकर कोई एक राय नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के इस निर्णय के बाद मुसलमान राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हुए तथा राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े।
उन दिनों देश में जो राष्ट्रवादी उत्साह एवं उल्लास का वातावरण था, उसे बनाने में काफी हद तक इस आन्दोलन का योगदान था। हिन्दू-मुस्लिम एकता के दृष्टिकोण से भी यह महत्वपूर्ण निर्णय था। बाद के वर्षों में हम देखते हैं, मुस्लिम लीग की राजनीति से अलग हटकर भी एक मुसलमान राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुड़ रहे। अतः इसमें कोई शक नहीं है कि निःसन्देह अब राष्ट्रीय आन्दोलन का आधार कहीं अधिक विस्तृत हो गया था।
लेकिन कांग्रेस द्वारा खिलाफत के मुद्दे पर समर्थन के निर्णय संबंधी दूसरा पक्ष भी है। माना जाता है कि 1916 में कांग्रेस ने लीग के पृथक् निर्वाचन संबंधी शर्त को मानकर पहली गलती की थी। 1919 में खिलाफत के मुद्दे का समर्थन कांग्रेस की दूसरी गलती थी। क्योंकि कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति का आधार छोड़कर एक धार्मिक मुद्दे को समर्थन प्रदान किया था।
उसके फलस्वरूप आगे चलकर साम्प्रदायिक राजनीति का मार्ग प्रशस्त हो गया। पुनः 1919-22 की अविध में जो हिन्दू-मुस्लिम एकता प्रगाढ़ होती दिखाई दे रही थी, वह अल्पकालिक सिद्ध हुई, जैसा कि 1922-30 की अविध में होने वाले अनेकानेक साम्प्रदायिक दंगों से भी स्पष्ट होता है। सबसे बढ़कर अनुदार एवं प्रतिक्रियावादी तत्वों को अपनी राजनीति करने का अवसर प्राप्त हो गया एवं वे कांग्रेस पर अब आरोप लगा सकते थे कि कांग्रेस वास्वत में छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का पोषण करती है। इस दृष्टिकोण से कांग्रेस का निर्णय उचित प्रतीत नहींहोता है।
लेकिन उस समय जरूरी था कि समाज के विभिन्न अंग अपनी विशिष्ट भागों और अनुभवों द्वारा स्वतंत्रता की आवश्यकता को समझे। इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुसलमानों में साम्राज्यवादी विरोधी भावनाओं का प्रचार हुआ।
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उस आन्दोलन ने खलीफा के प्रति मुसलमानों की चिंता से भी अधिक साम्राज्यवाद विरोधी भावना का ही प्रतिनिधित्व किया और इसे ठोस अभिव्यक्ति दी। पुनः उस समय कोई अन्य ऐसा मुद्दा भी नहीं था जो मुसलमानों को इस सीमा तक राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ पाता। अतः कांग्रेस द्वारा खिलाफत के मुद्दे पर मुस्लिम लीग को समर्थन संबंधी निर्णय में कुछ खामियों के होते हुए भी उसके उज्ज्वल पक्ष को ही देखा जाना चाहिए।
Question : “1931 में कराची में कांग्रेस ने पारिभाषित किया कि आम जनता के लिए स्वराज का क्या अर्थ होगा।”
(2007)
Answer : वैसे तो कांग्रेस अपने जन्म से ही जनता के आर्थिक हितों, नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ती जा रही थी, लेकिन कराची कांग्रेस पहला अवसर था, जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज को वास्तव में पारिभाषित किया और बताया कि जनता के लिए पूर्ण स्वराज का अर्थ क्या है।
वास्तव में कराची कांग्रेस में पारित प्रस्ताव पहली बार भारतीय जनता के लिए उन अधिकारों एवं शक्तियों की वकालत कर रहे थे, जो किसी भी आधुनिक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत जनता को प्रदान किए जाते हैं। वास्तव में कराची सत्र एक यादगार सत्र था। इसी सत्र में (1931 ई.) कांग्रेस ने मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों से संबद्ध प्रस्ताव पारित किए।
कांग्रेस ने यह महत्वपूर्ण घोषणा की कि जनता के शोषण को समाप्त करने के लिए राजनीतिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक आजादी भी जरूरी है। कराची प्रस्ताव में अभिव्यक्ति की आजादी, प्रेस की आजादी, संगठन बनाने की आजादी, जाति, लिंग, धर्म इत्यादि से परे कानून के समक्ष समानता का अधिकार, सभी धर्म के प्रति राज्य का तटस्थ भाव, सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव एवं स्वतंत्र एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की गारंटी दी गई थी।
प्रस्ताव में मजदूरों एवं कृषकों के हितों के रक्षार्थ आवश्यक प्रावधानों को शामिल किया गया था, यथा लगान और मालगुजारी में उचित कटौती, जोतों में लगान से मुक्ति, कृषकों को ट्टण से राहत, सूदखोरी पर नियंत्रण, मजदूरों के लिए बेहतर सेवा शर्तें, काम के घंटों का निर्धारण, मजदूरों-कृषकों को यूनियन बनाने की आजादी और प्रमुख उद्योगों, खदान और परिवहन को सरकारी स्वामित्व में रखने का वादा किया गया। अल्पसंख्यकों व विभिन्न भाषाई क्षेत्रौ की संस्कृति, भाषा और लिपि की सुरक्षा का भी वादा किया गया। कराची प्रस्ताव वास्तव में कांग्रेस की मूलभूत राजनीतिक एवं आर्थिक नीतियों का दस्तावेज था।
कराची कांग्रेस द्वारा जनता के समक्ष स्पष्ट किया गया कि वांछित स्वराज वास्तव में जनता के हितों पर आधारित, जनता द्वारा संचालित व्यवस्था होगी। हालांकि कराची में पारित प्रस्तावों की कुछ विद्वानों द्वारा आलोचना की गई है।
लेकिन वास्तव में ये प्रस्ताव भावी लोकतांत्रिक व्यवस्था की निर्देशक थी एवं भविष्यगामी लोक कल्याणकारी राज्य की आधारशिला को रखने वाली थी। वास्तव में स्वतंत्रता के उपरान्त कराची कांग्रेस के प्रस्तावों के अनुरूप ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का क्रियान्वित किया जाना, इसके महत्व को स्पष्ट करता है।
Question : ‘‘न तो सिकन्दर महान और न ही नैपोलियन, आधार के तौर पर पांडीचेरी से शुरू करके और एक ऐसी शक्ति के साथ उलझ कर, जो बंगाल और समुद्र की बागडोर संभाले हुए थी, भारत के साम्राज्य को जीत सकते थे’’।
(2006)
Answer : ऐंग्लो-फ्रेंच प्रतिस्पर्धा में अंततः फ्रांसीसी सेना पराजित हो गई। 1760 ई. में वांडीवाश के स्थान पर सर आयरकूट ने फ्रांसीसियों को बुरी तरह पराजित किया। पाण्डिचेरी, माही तथा जिंजी पर भी अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया तथा भारत से फ्रांसीसियों का पत्ता कट गया। फ्रांस की असफलता के अनेक कारण थे, जैसे- फ्रांसीसियों का यूरोप में उलझना, दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नता आदि। फ्रांसीसी कम्पनी तम्बाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे चलती रही। ऐसी कम्पनी डूप्ले की महत्वाकांक्षा तथा युद्धोंके आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकती थी। इसके विपरीत अंग्रेजी कम्पनी अपने युद्धों के लिए पर्याप्त धन स्वयं अर्जित कर लेती थी।
अंग्रेजों द्वारा बंगाल के विजय से न केवल उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी, बल्कि बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति भी प्राप्त हो गई। दक्कन तथा पांडीचेरी इतना धनी नहीं था। कि डूप्ले तथा लाली की महत्वाकाक्षांओं को साकार कर सकता जिस समय काउट लाली को अपनी सेना को वेतन देने की चिन्ता थी, बंगाल कर्नाटक में धन तथा जन दोनों भेज रहा था। जल सेना में भी फ्रांसीसी अंग्रेजों से बहुत पीछे थे। अतः वी-ए-स्मिथ ने‘ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में फ्रांसीसियों के विरूद्ध अंग्रेजों की वित्तीय तथा नौसैनिक वरिष्ठता के महत्व को दर्शाते हुए इन पंक्तियों का उल्लेख किया है। निश्चय ही बंगाल के संसाधनों तथा श्रेष्ठ नौसेना के द्वारा अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को पराजित कर दिया। मेरियट ने ठीक ही कहा है कि ‘डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निष्फल प्रयत्न किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी और प्राप्त कर ली।’ यह कहा जा सकता है कि डूप्ले तथा बुस्सी के लिए जल में वरिष्ठ तथा बंगाल के संसाधनों से युक्त अंग्रेजों से उलझ कर भारत का साम्राज्य जीतना असंभव था।
Question : उन परिस्थितियों का परीक्षण कीजिए, जिनके फलस्वरूप तृतीय मैसूर युद्ध हुआ। क्या कार्नवालिस उसको टाल सकता था?
(2006)
Answer : द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध के समय मराठों, निजाम तथा फ्रांसीसियों से हैदरअली ने समझौता कर अरकाट पर विजय प्राप्त कर ली थी तथा हैक्टर मुनरो की सेना को परास्त कर दिया था। इस समय कम्पनी को मराठों तथा मैसूर दोनों से परास्त होना पड़ा था। सर अल्फ्रेड लॉयल ने लिखा है कि 1780 के ग्रीष्मकाल मेंकम्पनी की साख अपने न्यूनतम स्तर पर थी। यद्यपि वारेन हेसि्ंटग्स ने स्थिति को बड़ी मुश्किल से संभाल लिया, तथापि जनरल बुस्सी ने हैदरअली की सहायता के लिए 3000 सैनिक भेजे थे। हैदरअली की सहायता का प्रयत्न फ्रांस से भेजे गए एडमिरल सफरिन ने भी किया था, परन्तु अंग्रेजों द्वारा सिंधिया से समझौता, हैदरअली की दिसम्बर 1782 में मृत्यु तथा एडमिरल सफरिन की वापसी के फलस्वरूप मार्च 1784 में मंगलौर की सन्धि पर हस्ताक्षर हुए।
इस संधि से युद्धबन्दी हो गई तथा विजित प्रदेश लौटा दिये गए। तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध को उपर्युक्त घटनाओें की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। अंग्रेजों ने इस सन्धि को आने वाले आक्रमण के लिए केवल सांस लेने का समय ही माना। टीपू को पराजित किए बिना भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जड़ों को सिंचित करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य था। भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्य उद्देश्य था- युद्ध कर विजय प्राप्त करना। फिर आने वाले युद्ध के लिए तैयार होने के लिए शांति की नीति का पालन करना।
टीपू सुल्तान एक दूरदर्शी शासक था। टीपू को भी अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध अवश्यम्भावी प्रतीत होता था। अतः तुर्कां से सहायता प्राप्त करने के लिए उसने 1784 तथा 1785 ई. में कुस्तुनतुनिया में अपना राजदूत भेजा। 1787 ई. में उसने एक दूत मंडल फ्रांस भी भेजा। टीपू के इन कार्यों से कम्पनी शंका की दृष्टि से उसे देखने लगी। निजाम तथा मराठे भी टीपू विरोधी भावनाओं से इस समय भरे हुए थे। अतः उपयुक्त अवसर पाकर कार्नवालिस ने 1790 ई. में निजाम तथा मराठों के साथ मिलकर त्रिदलीय संगठन की रचना कर ली। अतः यह कहा जा सकता है कि द्वितीय मैसूर युद्ध के विपरीत परिस्थितियां अब अंग्रेजों के पक्ष में थीं। टीपू तुर्की तथा फ्रांस से सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न तो करता रहा, परन्तु देशी शक्तियों के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में असफल रहा। तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के लिए ये परिस्थितियां सशक्त कारण सिद्ध हुईं।
टीपू तथा त्रवणकोर के महाराजा के झगड़े ने कार्नवालिस को शीघ्र ही अवसर प्रदान कर दिया। महाराजा ने कोचीन रियासत में स्थित जैकाटै तथा क्रगानूर मोल लेने का प्रयत्न किया। टीपू ट्रावणकोर के इस प्रयत्न को अपनी सत्ता में हस्तक्षेप मानता था, क्योंकि कोचीन रियासत को वह अपने अधीन समझता था। टीपू सुल्तान ने अप्रैल, 1790 ई. में ट्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों ने ट्रावणकोर के राजा का पक्ष लिया। तर्क यह था कि 1784 ई. में त्रवणकोर तथा अंग्रेजों के बीच इस आशय की सन्धि हुई थी। कार्नवालिस ने एक बड़ी सेना की सहायता से टीपू पर आक्रमण कर दिया और वैल्लोर तथा अम्बूर से होता हुआ वह बंगलोर तक तथा अंततः श्रीरंगपट्टनम तक पहुंच गया। इस युद्ध में मराठा तथा निजाम ने अंग्रेजों की सहायता की। टीपू ने कठिन संघर्ष किया, परन्तु अंततः उसे श्री रंगपट्टनम की संधि (1792 ई.) करने के लिए विवश होना पड़ा।
श्री रंगपट्टनम की संधि के परिणामस्वरूप टीपू को मैसूर राज्य का लगभग आधा प्रदेश विजेता मित्र-शक्तियों को समर्पित करना पड़ा। अंग्रेजों को बारामहल, डिंडीगुल तथा मालाबार मिला, मराठों को तुंगभद्रा के उत्तर का भाग तथा निजाम को पन्नार तथा कृष्णा नदी के बीच का भाग मिला।
टीपू को 3 करोड़ रुपया युद्धक्षति के रूप में अंग्रेजों के पास रहे। टीपू अपने राज्य को पूर्णतया समाप्त होने से बहुत मुश्किल से बचा सका।
निश्चय ही परिस्थितियां टीपू सुल्तान के विपरीत थीं। इस युद्ध के पूर्व टीपू ने आन्तरिक शासकीय सुधारों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। हैदरअली ने शाही उपाधि सार्वजनिक रूप से कभी धारण नहीं की थी और मैसूर राजवंश के प्रति उसका दृष्टिकोण वैसा ही था जैसा शाहू के प्रति पेशवा का, परन्तु टीपू ने राजा को राजसिंहासन से हटा दिया तथा 1786 ई. में उसने खुलेआम सुल्तान की उपाधि धारण की। टीपू के अधीन मैसूर की बढ़ती शक्ति ने निजाम और मराठों को आशंकित कर दिया था।
मराठों के विरूद्ध एक सैनिक अभियान के दौरान टीपू ने उफनती हुई तुंगभद्रा को टीकरीनुमा नावों और लकड़ी के लट्ठों से निर्मित बेड़ों में बैठकर पार किया और विस्मयकारी कौशल का परिचय दिया था तथा निजाम-मराठा संघ को पराजित किया था। इस संघ ने अंततः तृतीय मैसूर युद्ध को जन्म दिया, जिसमें अंग्रेजों ने निजाम तथा मराठों को समर्थन किया। 1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट में यह स्पष्ट किया गया था कि कम्पनी कोई नया प्रदेश जीतने का प्रयत्न नहीं करेगी।
इसके बावजूद कार्नवालिस ने तृतीय मैसूर युद्ध निजाम तथा मराठों के साथ त्रिदलीय संगठन बनाया। निजाम तथा मराठों की टीपू विरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर उसने इस अवसर का लाभ उठाया तथा पिट्स इण्डिया एक्ट की धारा 34 के विपरीत तृतीय मैसूर युद्ध किया। संभवतः कार्नवालिस टीपू सुल्तान की उभरती हुई शक्ति को शीघ्र कुचल देना चाहता था। कार्नवालिस शासन की नीति युद्ध करने की थी। टीपू ने ट्रावणकोर पर आक्रमण किया तो कार्नवालिस ने ट्रावणकोर के राजा का पक्ष इस आधार पर लिया कि उसके और ट्रावणकोर के बीच सहयोग की संधि हुई है।
इसके पूर्व अंग्रेजों ने अनेक बार ऐसी संधियों का उल्लंघन किया था। मद्रास ने संधि (1769) में भी अंग्रेजों ने हैदरअली से भयभीत होकर वचन दिया था कि आक्रमण के समय वे हैदरअली की सहायता करेंगे, परन्तु जब मराठों ने 1771 ई. में हैदरअली पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की। यह कहा जा सकता है कि ऐसी संधियों का इस्तेमाल अंग्रेज सिर्फ अपने हित में किया करते थे। कार्नवालिस ने भी यही किया।
कार्नवालिस ने कहा भी था कि-‘हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढ़ंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं बनने दिया।’ अर्थात् कार्नवालिस की नीति थी हर हाल में टीपू को पंगु बना देना। अतः उसने तृतीय मैसूर युद्ध को टालने का प्रयत्न नहीं किया यद्यपि वह ऐसा कर सकता था।
Question : आदिम हल और बैल-शक्ति के द्वारा चलाई जा रही कृषि और सरल उपकरणों के द्वारा चलाए जा रहे हस्तशिल्पों पर आधारित आत्मनिर्भर गांव ही ब्रिटिश-पूर्व भारतीय अर्थ-व्यवस्था का एक बुनियादी अभिलक्षण था।
(2006)
Answer : औपनिवेशिक काल से पूर्व भारतीय अर्थवस्था प्रमुख रूप से कृषिजन्य अर्थव्यवस्था थी। तत्कालीन ग्रामीण कृषि का मुख्य उद्देश्य गांव के उपभोग के लिए उत्पादन करना था। भारतीय ग्राम अपने आप में छोटे संसार की तरह काम करते थे। भारतीय ग्राम-अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि ग्रामों में आत्मनिर्भर तथा आत्मशासी समुदाय रहते थे। नमक तथा लोहे के अतिरिक्त इस आत्मनिर्वाही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बाह्य जगत से कुछ अधिक नहीं लेना होता था। इस अर्थव्यवस्था में सरल उपकरणों द्वारा चलाए जा रहे हस्तशिल्प तथा कृषि का आपसी समन्वय भी था। परम्परागत पद्धति पर आधारित कृषि तथा हस्तशिल्प होने के बावजूद भूमि पर अधिक दबाव नहीं था।
ग्राम की भूमि कृषक समाज की होती थी तथा प्रत्येक कृषक कुटुम्ब के पास कुछ-न-कुछ भूमि होती थी। राजनीतिक उथल-पुथल ग्राम समाज को विक्षिप्त नहीं करती थी। कार्ल मार्क्स ने भूमि के इस सामाजिक स्वामित्व को एक प्रकार का भारतीय साम्यवाद कहा है, परन्तु ब्रिटिश शासन के पचास वर्षों के भीतर ही भारत में भू-स्वामित्व के स्वरूप और अंग्रेजों द्वारा भारत में भू-राजस्व निर्धारण और संग्रहण के नए तरीके लागू करने से ब्रिटिश-पूर्व कृषि प्रणाली और भारतीय ग्रामीण समाज की आत्मनिर्भरता नष्ट हो गई। कृषि वाणिज्यीकरण के फलस्वरूप परम्परागत कृषि तथा हस्तशिल्प आधारित उद्योगों का पतन हो गया। फलतः ग्रामीण ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई।
Question : भारतीय कृषि के वाणिज्यीकरण से आप क्या समझते हैं? उसके परिणामों पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : कृषि वाणिज्यीकरण में कई बातें शामिल होती हैं जैसे- नई नकदी फसलों का प्रचलन, ग्रामीण समृद्धि, कृषकों के स्तर में विभेद, कृषि अधिशेष में वृद्धि आदि। परन्तु भारतीय किसानों के लिए यह एक थोपी गई प्रक्रिया थी। यह एक विदेशी कम्पनी द्वारा प्रेरित तथा साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति से जुड़ा हुआ था। कृषि का वाणिज्यीकरण भारत में किसी नई घटना को नहीं बताता है, परन्तु औपनिवेशिक काल में इसका स्वरूप नया था। ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्य उद्देश्य भारतीय वस्तुओं को प्राप्त करना तथा निर्यात के माध्यम से लाभांश अर्जित करना था।
कृषि उत्पादों का निर्यात कृषि वाणिज्यीकरण का महत्वपूर्ण पहलू है, परन्तु ब्रिटेन में उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता पूर्ति के अन्तर्गत कृषि वाणिज्यीकरण को समझा जा सकता है। कम्पनी ने कृषि के नियंत्रित वाणिज्यिीकरण को बढ़ावा दिया, ताकि भारत तथा चीन तथा ईस्ट पक्ष में वाणिज्यीकरण के प्रभाव को नियंत्रित किया जा सके। चीन तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य व्यापार में व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में था।
कम्पनी ने इसे अपने पक्ष में करने के लिए चाय का चीन से आयात कम किया तथा भारत में ही चाय की खेती को प्रोत्साहन दिया।
भारत में अफीम की खेती को बढ़ावा देकर इसका निर्यात चीन को किया जाता था। इस प्रकार एक त्रिकोणीय व्यापार विकसित हुआ। भारत, चीन तथा ब्रिटेन इसमें सम्मिलित थे। कम्पनी ने कृषि के वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत कुछ विशेष प्रकार के फसलों के उत्पादन को ही प्रोत्साहित किया। काली मिर्च, जूट, तिलहन, नील, चाय, रेशम, अफीम इसमें प्रमुख थे। वाणिज्यीकरण से नकदी फसलों के उत्पादन क्षेत्र में विस्तार हुआ। कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रभाव से ग्रामीण क्षेत्रें में नकदी अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। इसके दूरगामी परिणाम हुए। ग्रामीण क्षेत्रें में पूंजी का प्रवेश हुआ, उत्पादन अधिशेष की संभावना बढ़ी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई तथा कुछ लोगों में समृद्धि भी आई। वाणिज्यीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी स्वरूप के परिर्वतन को संभव बनाया तथा पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के आधार के निर्माण में योगदान दिया। वाणिज्यीकरण के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्र आपस में जुड़ गए। कुछ सीमाओं के अन्दर इसने उत्पादन को बढ़ावा दिया।
कुछ विशेष फसलों के उत्पादन तथा वितरण को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया। कृषक समस्याओं की प्रकृति अब स्थानीय या क्षेत्रीय न होकर राष्ट्रीय हो गयी। परन्तु कृषि वाणिज्यीकरण से उन तत्वों को लाभ नहीं मिला जिनके त्याग पर यह प्रक्रिया शुरू की गई थी। अर्थात् कृषकों को इससे लाभ नहीं मिला। इस व्यवस्था से बिचौलियों को लाभ प्राप्त हुआ। बिचौलिए आर्थिक खतरों से बचे रहते थे तथा हानि कृषकों को सहनी पड़ती थी। वस्तु की मांग कम होने पर व्यापारी उसकी खरीद कम कर देते थे और कृषक कम मूल्य की समस्या का सामना करते थे। कृषि वाणिज्यीकरण से कृषि का आधुनिकीकरण नहीं हो सका, क्योकि जिन्हें लाभ प्राप्त होता था, उनकीं रूचि आधुनिकीकरण में नहीं थी। वाणिज्यीकरण एक वाणिज्यिक क्रांति को बताता है।
लेकिन इसे किसी प्रौद्योगिकी क्रांति को समर्थन नहीं मिला। गहन कृषि व्यवस्था विकसित नहीं हुई तथा कृषि के वैज्ञानिक तरीकों के प्रयोग का विकास भी नहीं हो पाया। वाणिज्यीकरण का कृषकों पर एक प्रतिकूल प्रभाव यह पड़ा कि साहूकारों तथा बिचौलियों पर उनकी निर्भरता बढ़ गयी।
आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप कृषक अपने बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए महाजनों के ऋणजाल में फंसते चले गए। वाणिज्यीकरण के फलस्वरूप खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी आयी तथा नकदी फसलों के उत्पादन को बल मिला। इससे कृषकों की स्थिति प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई। व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति के स्थान पर बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति से वे जुड़ गए थे। व्यावसायिक फसलों का उत्पादन किसानों की मजबूरी थी।
लगान तथा कर्ज चुकाने के लिए नकद राशि की उन्हें आवश्यकता थी। फलतः नकदी फसलों के उत्पादन का क्षेत्र विस्तृत तथा खाद्यान्न फसलों का क्षेत्र संकुचित होता रहा। परिणामतः ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे अनाजों का उत्पादन कम हो गया। फलतः अकाल, भूखमरी आदि समस्याओं का जन्म हुआ। कृषि वाणिज्यीकरण ने सुदृढ़ एवं समृद्ध कृषक व्यवस्था के निर्माण में सहयोग नहीं दिया। कृषि वाणिज्यीकरण कृषक व्यवस्था के क्रमिक पतन को बताता है।
इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता प्रभावित हुई तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था पतन की ओर अग्रसर हुई। वाणिज्यीकरण ने कृषि उद्योग के बीच के परम्परागत संबंधों को प्रभावित किया। भारत में परम्परागत उद्योगों तथा कृषि के मध्य पुरातन संबंध स्थापित था, जिसे वाणिज्यीकरण ने प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। परंपरागत संबंधों के अंतर्गत दोनों क्षेत्र एक दूसरे के विकास में पूरक थे।
कृषि के व्यवसायीकरण से किसानों में समृद्धि तो आई किन्तु आर्थिक विभेदीकरण हो गया। ग्रामीण गरीबी का जन्म हुआ तथा किसानों की क्रयशक्ति में कमी आई। अतः भारत में पूंजीवाद के विकास की संभावना रूक गई। अतः यह कहा जा सकता है कि कृषि वाणिज्यीकरण ने कुछ क्षेत्रें में समृद्ध किसानों का एक वर्ग पैदा तो किया, परन्तु अधिकांश क्षेत्रें में कृषकों को अकारण कष्ट भोगना पड़ा। कृषि वाणिज्यीकरण मूलतः औपनिवेशिक हितों से जुड़ा था। यह एक थोपी गई प्रक्रिया थी, जिसने विकास को बिना प्रोत्साहित किए आर्थिक विभेदीकरण कर दिया।
Question : ‘जब तक लाखों-लाखों लोग भूख और अज्ञान का जीवन जीते रहेंगे, मैं प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूं, जो उनकी बदौलत शिक्षा तो पा गया है लेकिन जो उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता है’।
(2006)
Answer : विवेकानन्द के सामाजिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक विचारों की आत्मा मानवतावाद थी। मैं समाजवादी हूं’ नामक अपनी पुस्तक में भारत के उच्च वर्ग से अपने पद और सुविधाओं का परित्याग करते हुए निम्नवर्ग के साथ हिल-मिल जाने का उन्हाेंने आह्वान किया। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार गरीबों तथा पददलितों के परिश्रम से ही उच्च वर्गों के लोग शिक्षा पाते हैं। अतः शिक्षित वर्ग के लोगों का यह दायित्व है कि भारत के लाखों गरीब तथा अशिक्षित लोगों का ध्यान रखे तथा उनकी अशिक्षा तथा गरीबी को दूर करने का प्रयत्न करे।
उनके विचार से नए भारत का जन्म किसानों के हल, कुम्भकारों के अलावा, जंगलों, किसानों तथा कामगार वर्गों के उत्थान से होगा। उनका विश्वास था कि जनमानस के उत्थान से ही देश का विकास होगा। उनका तर्क था कि शिक्षा ही सभी बुराइयों को दूर करने का सशक्त माध्यम है। अतः सच्चा देशभक्त वही है, जो भारत की लाखों जनता की भूख और अज्ञानता को दूर करने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः दरिद्रनारायण की धारणा जिसे बाद में महात्मा गांधी द्वारा लोकप्रियता प्राप्त हुई के जन्मदाता विवेकानन्द ही थे। वे भारत की गरीबी तथा अशिक्षा से बहुत दुखी थे तथा नए भारत के उदय के लिए शिक्षित युवा वर्ग का आह्नान कर रहे थे। उन्होंने युवा वर्ग को एक चुनौती दी कि उठो और जागरूक होकर भारतीय जनमानस के कल्याण के लिए कार्य करो। यही भारत की सच्ची सेवा होगी।
Question : कांग्रेस के बीच वाम स्कंध के उद्भव के कारण बताइए। उसने कांग्रेस के कार्यक्रम एवं नीति को किस सीमा तक प्रभावित किया था?
(2006)
Answer : आरंभ में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्ष्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता था, परन्तु बीसवीं सदी के दूसरे दशक में सामाजिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता की मांगें जोर पकड़ने लगी। फलतः कांग्रेस के अंदर एक शक्तिशाली वामपंथ का उदय हुआ। वामपंथी कांग्रेस के साथ रहते हुए भी अलग ढंग से सरकार का विरोध करते थे। वाम स्कंध के उद्भव में अनेक परिस्थितियां सहायक सिद्ध हुईं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, औपनिवेशिक शासन द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण, साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद का घिनौना रूप, आधुनिक उद्योगों के विकास से श्रमिक वर्ग का उदय, असहयोग आन्दोलन की असमय समाप्ति आदि अनेक कारण वाम स्कंध के उद्भव में सहायक बने। यही नहीं, मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों तथा रूस में साम्यवाद के अविर्भाव ने भी भारतीय जनमानस को अभिप्रेरित किया। परिणामस्वरूप एक नयी विचारधारा का जन्म हुआ, जिसे वामपंथ के नाम से जाना गया। दो ताकतवर दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेस समाजवादी पार्टी, दोनों ने कांग्रेस की नीतियों को प्रभावित किया।
भारत का युवा वर्ग बीसवीं सदी के तृतीय दशक में समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होने लगे। बम्बई में श्रीपाद अमृत डांगे ने द सोशलिस्ट, पंजाब में गुलाम हुसैन ने इंकलाब तथा बंगाल में मुजफ्रफर अहमद ने नवयुग के माध्यम से समाजवादी विचारधारा का प्रचार किया। जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस ने संपूर्ण देश का दौरा कर समाजवादी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाया। भगत सिंह तथा चन्द्रशेखर आजाद ने भी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद तथा समाजवाद जिंदाबाद के नारे लगाए। आर्थिक मंदी ने समाजवादी अर्थव्यवस्था की शक्ति तथा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की कमजोरी को उद्घाटित कर दिया। 1919 की विश्व आर्थिक-मंदी का रूस पर कोई असर नहीं पड़ा था।
कांग्रेस में समाजवादी विचारधारा वाले युवकों में जवाहर तथा सुभाष प्रमुख थे। जवाहर ने 1929 में लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता करते हुए अपने-आप को समाजवादी घोषित किया। 1927 ई. में उन्होंने ब्रुसेल्स कांग्रेस की अध्यक्षता की। अतः विदेश नीति में भीसाम्राज्यवाद विरोधी नीति का पालन किया गया।
प्रारंभ में कम्यूनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस के साथ सहयोग की नीति अपनाई। इसके सदस्यों को कांग्रेस का भी सदस्य बनने के लिए कहा गया, ताकि कांग्रेस को क्रांतिकारी तथा जनाधार वाला संगठन बनाया जा सके। यद्यपि कम्यूनिस्टों ने कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस से निर्देशित होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। परन्तु समाजवाद का प्रादुर्भाव कांग्रेस के अन्तर्गत ही हुआ। समाजवादियों का उदेश्य था भारत में प्रजातांत्रिक साधनों द्वारा समाजवादी समाज की स्थापना करना।
परन्तु वे वर्ग संघर्ष और हिंसा में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने कांग्रेस के अन्दर रहते हुए मजदूरों तथा किसानों का संगठन बनाया और उनके हितों की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहे। अनेक विद्वान राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्दर वाम स्ंकध के उद्भव तथा विकास के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा 19वीं सदी में पारित समाज कल्याण अधिनियम को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। यह अधिनियम उदारवादी आंदोलन की भावनाओं को साकार रूप प्रदान करने का प्रयास था। यथार्थ में कांग्रेस में वाम स्कन्ध का उदय 1992 में असहयोग आन्दोलन की वापसी के बाद उत्पन्न निराशा का परिणाम था। कांग्रेस में वामस्कंध का उदय एवं विकास गांधीजी के दर्शन तथा राष्ट्रीय संघर्ष की उनकी तकनीक के विरूद्ध बुद्धिवादी विद्रोही के रूप में भी हुआ।
कांग्रेस के अन्दर समाजवादी विचारधारा लाने का श्रेय नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस को जाता है। समाजवाद के प्रचार तथा विकास में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। वाम-स्कंध ने कांग्रेस के कार्यक्रम तथा नीतियों को बहुत अधिक प्रभावित किया। कांग्रेस के वैचारिक परिवर्तन में वाम-स्कन्ध के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। इनके प्रभावस्वरूप कांग्रेस मजदूरों तथा किसानों की पार्टी हो गई और कांग्रेस का नेतृत्व परिवर्तित हो गया ऐसा नहीं था, बल्कि वाम स्कंध ने कांग्रेस को समाजवादी झुकाव प्रदान किया।
कांग्रेस ने निम्नवर्गीय तबके को संगठित करने का प्रयास किया तथा कई मुद्दों पर क्रांतिकारी तथा परिर्वतनवादी विचार अपनाए। कृषकों तथा श्रमिकों के प्रति कांग्रेस संवेदनशील हुई। गांधीजी ने भी वाम पंथियों से प्रभावित होकर पूंजीतियों एवं जमींदारों द्वारा जनता के शोषण की निंदा की। कांग्रेस ने देशी रियासतों की जनता के प्रति सहानुभूति दिखाई तथा वहां के प्रजातांत्रिक आंदोलन को भी समर्थन दिया गया। कांग्रेस संगठन में भी समाजवादी विचारधारा के लोगों का प्रभाव बढ़ा। उदाहरणार्थ नेहरू, सुभाष आदि लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे, नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण आदि कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य चुने गए।
वाम स्कंध से प्रभावित होकर कराची अधिवेशन में आर्थिक कार्यक्रम तथा मूल अधिकारों को अपनाया गया। फैजपुर में कृषि कार्यक्रमों को स्वीकार किया गया तथा प्रथम बार कांग्रेस का अधिवेशन गांव में हुआ। फैजपुर अधिवेशन में कृषि बोझ में कमी लाना, सामंती लगानों की समाप्ति, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति, भू-पति का समय निश्चित किया जाना, कृषि मजदूरों की मजदूरी तय किया जाना आदि कार्यक्रम बनाए गए।
1936 तथा 1945-46 के चुनावी घोषणापत्रें में भी कांग्रेस की नीतियों पर वाम स्कंध का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 1937 में कांग्रेस मत्रिमण्डलों ने समाजवादी विचारों के अनुरूप कई विधेयक पास किये।किसानों एवं मजदूरों की स्थिति सुधारने के प्रयास किये गये। 1933 में राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया गया तथा जवाहर लाल नेहरू इसके अध्यक्ष बने। आधुनिक भारत में योजनाबद्ध विकास की तरफ यह पहला कदम था।
1945 में कांग्रेस कार्यसमिति ने जमींदारी उन्मूलन को आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया। कृषक बिचौलियों को हटाने का कार्यक्रम स्वीकार किया।
आर्थिक तथा वर्गीय मुद्दों पर गांधीजी के विचारों में क्रमशः हुए परिवर्तनों में भी वाम स्कंध का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। परन्तु वामपंथी राष्ट्रीय आन्दोलन में तथा कांग्रेस में अपने विचारों तथा अपने दल का वर्चस्व स्थापित नहीं कर सके।
संघर्ष की गांधीवादी रणनीति एवं जनता के संघर्ष करने की क्षमता को वे समझ नहीं पाए। कांग्रेस के प्रभावशाली नेतृत्व के साथ वाम स्कंध की लड़ाई में जब तनाव बिखराव के बिंदु तक पहुंचता था तब वाम स्कंध उनके पीछे चलने को बाध्य होता था तथा कई बार आंदोलन में अलग-थलग पड़ जाता था।
तथापि 1939 में वामपंथियों के कांग्रेस अध्यक्ष के लिए प्रत्याशी सुभाषचन्द्र बोस की सीता रमैया पर जीत कांग्रेस में वाम स्कंध के प्रभाव को प्रदर्शित करता है।
Question : “ किसी कवि व दार्शनिक द्वारा अपने देशवासियों के रूप को भाग्य देने में ऐसे चमत्कार कर देने का मानव-जाति के इतिहास में कोई अन्य उदाहरण नहीं है।” (मो॰ इकबाल के सन्दर्भ में)
(2006)
Answer : मोहम्मद इकबाल उर्दू के प्रख्यात शायर एवं दार्शनिक थे। मोहम्मद इकबाल उन प्रारंभिक मुस्लिम राष्ट्रवादियों में थे जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के महत्व को समझा एवं ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष के आह्वान को प्रेरित किया।
मोहम्मद इकबाल ने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल जन सामान्य में राष्ट्रीय चेतना की भावना को जागृत किया, बल्कि आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों से जनता को प्रशिक्षित कराने की दिशा में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा।
उन्होंने अपनी रचनाओं से लोगों में स्वाभिमान एवं राष्ट्रप्रेम को जागृत करने का प्रयास किया।
‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ गीत उनकी वह अमर कृति है जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान क्रान्तिकारियों एवं जन सामान्य के लिए प्रेरणा स्रोत रहा। उन्होंने ‘नाल-ए-जीबराल’ एवं ‘दर्द-ए-दिल’ जैसे पुस्तकों की रचना की एवं उनके माध्यम से ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को प्रोत्साहित किया। लेकिन यह भी सत्य है कि कालांतर में उनका रूझान पृथक राष्ट्रवाद की ओर हो गया।
उन्होंने 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन की अध्यक्षता की, जिसमें उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत में पृथक् मुस्लिम राज्य का विचार सर्वप्रथम प्रस्तुत किया और यहीं से पृथक पाकिस्तान संबंधी विचारधारा को बल प्राप्त हुआ। आगे चलकर मो॰ इकबाल इस दिशा में सतत् प्रयासरत रहे एवं मुस्लिमों की मानसिकता
इस ओर प्रवृत्त करने में एवं उन्हें संघर्ष के लिए प्रोत्साहित करने में उन्होंने सबसे अहम् भूमिका निभाई और उसकी परिणति 1947 में पाकिस्तान राष्ट्र के सृजन में हुई।
कुल मिलाकर उपरोक्त तथ्य के बावजूद राष्ट्रीय संग्राम में मोहम्मद इकबाल का अविस्मरणीय योगदान रहा। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों को प्रेरित किया एवं जन सामान्य में भावनात्मक आवेग को प्रोत्साहित किया। उनकी जादुई लेखनी एवं सम्मोहक विचार जन सामान्य के लिए सदैव प्रेरणा स्रोत रहे।
Question : ‘मैने महसूस किया कि यदि हमने विभाजन को स्वीकार नहीं किया, तो भारत अनेक टुकड़ों में बंट जाएगा और पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा’।
(2006)
Answer : मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिकता तथा पार्थक्य की नीति के चलते अंततः भारत का विभाजन अपरिहार्य हो गया। लीग की नीति के प्रतिक्रियास्वरूप हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों का भी प्रभाव बढ़ गया। भारत की अखंडता में विश्वास रखने वाली कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया।
गांधीजी ने भी विभाजन को मौन स्वीकृति दे दी। इसी के साथ भारतीय इतिहास में एक यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि क्या भारत का विभाजन रोका जा सकता था? कांग्रेस मुस्लिम जन-समूह को अपनी ओर आकर्षित कर पाने मे अक्षम रही थी। मुस्लिम सांप्रदायिकता को रोक पाना अब असंभव था। जून 1947 तक कांग्रेस के नेता महसूस करने लगे थे कि सत्ता का तुरंत हस्तांतरण ही इस साम्प्रदायिक उन्माद को रोक सकता है।
पटेल ने यह महसूस किया कि विभाजन को स्वीकार नहीं किया गया तो भारत अनेक टुकड़ों में बंट जाएगा। दो डोमिनियन राज्यों को तात्कालिक सत्ता हस्तांतरण कर देने से भारत के विखंडीकरण की आशंका नष्ट हो जाती, क्योंकि इस योजना में प्रांतों और रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने की बात नहीं थी।
रियासतें यदि अपना अलग अस्तित्व बनाए रखतीं तो भारत की एकता को विभाजन से बड़ी क्षति का सामना करना पड़ता। रियासतों को भारत में सम्मिलित करना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। अपने प्रथम एक वर्ष के मंत्री के कार्यकाल ने ही पटेल को यह विश्वास दिला दिया था कि भारत पूर्णतया सर्वनाश के मार्ग का अनुसरण कर रहा था तथा हमें एक नहीं कई पाकिस्तान मिलते। अतः इस पृष्ठभूमि में ही पटेल ने उपर्युक्त विचार व्यक्त किए थे।
Question : “बड़े कौशल और श्रेष्ठ कूटनीति के साथ एवं अनुनय और दबाब दोनों का इस्तेमाल करते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल सैकड़ों देशी राज्यों को भारतीय संघ में विलयन करने में सफल हुए।” चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : सर्वोच्चता की आसन्न समाप्ति ने रजवाड़ों के भविष्य के प्रश्न को अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया था। कुछ अधिक महत्वाकांक्षी शासक या उनके दीवान (जैसा कि हैदराबाद, भोपाल या त्रवणकोर में) ऐसी स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे थे, जिसमें वे पहले की भांति स्वेच्छाचारी बने रहे। इस समय इन देशी रियासतों की संख्या लगभग 554 थी। 3 जून, 1947 को तब एक बहुत ही जटिल परिस्थिति उत्पन्न हो गई, जब वायसराय ने घोषणा की कि 15 अगस्त से देशी रियासतें अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर सकेंगे अर्थात् या तो वे दोनों में से किसी एक अधिराज्य में विलय कर सकेंगे अथवा अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखेंगे। स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर सबसे बड़ी चुनौती भारत की राजनीतिक एकता को स्थापित करना एवं उन रजवाड़ों का विलय ही था।
इन परिस्थितियों में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देशी रियासतों संबंधी विभाग को संभाला एवं बड़े कौशल एवं कूटनीति के द्वारा देशी रियासतों के भारत में विलय को दृढ़तापूर्वक क्रियान्वित किया। सामान्यतः सरदार पटेल एवं उनके सचिव वीपी मेनन ने रजवाड़ोंके विलय के लिए जो नीति बनाई उसके अन्तर्गत तीन प्रकार के उपाय किए गए- प्रथम, रजवाड़ों को समझाने-बुझाने एवं शासकों को प्रर्याप्त सुविधाएं एवं कुछ अधिकार प्रदान करते हुए विलय को क्रियान्वित करने की नीति, द्वितीय, देशी रियासतों के जन आन्दोलनों को साधन बनाकर राजाओं से रियासतें प्राप्त करना एवं तृतीय, धमकियों एवं प्रत्यक्ष सैन्य अथवा पुलिस कार्यवाही के द्वारा रियासतों का विलय। यद्यपि उस अंतिम नीति को विशेष परिस्थितियों में ही क्रियान्वित किया गया था।
भारत में रियासतों का विलय दो चरणों में हुआ एवं दोनोंही चरणों में सरदार पटेल ने प्रलोभन और जनता के दबाव की धमकी का अत्यंत चतुराईपूर्ण उपयोग किया। 15 अगस्त, 1947 तक कश्मीर, जूनागढ़ एवं हैदराबाद के अतिरिक्त सभी रियासतें भारत के साथ विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए सहमत हो गई थीं जिसमें प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों एवं संचार के क्षेत्रें में केन्द्रीय सत्ता को स्वीकार कर लिया गया था। वस्तुतः यह सरदार पटेल की सफल कूटनीति ही थी कि उसके लिए देशी राजा पर्याप्त सरलता से मान गए थे क्योंकि उन्होंने अब तक जो कुछ समर्पित किया था, वह उनके पास भी था ही नहीं। दरअसल, उपरोक्त तीनों प्रकार्य ब्रिटिश सम्राट की सर्वोच्चता के अन्तर्गत आते थे। सरदार पटेल ने जान बूझकर उस समय देशी रियासतों की आतंरिक राजनीतिक गठन में किसी प्रकार का परिवर्तन न करने का आश्वासन दिया ताकि विलय का कार्य सरलता पूर्वक शासकों को स्वीकार्य हो। राज्यों का पड़ोसी प्रान्तों, जैसे काठियावाड़ संघ, विन्ध्य एवं मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश में विलय करने या नई इकाइयां बनाने की प्रक्रिया कहीं अधिक कठिन थी। साथ ही, उन रियासतों में आंतरिक संवैधानिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी कठिन थी, जिन्हें कुछ वर्षों तक अपनी पुरानी सीमाएं बनाए रखनी थी (जैसे मैसूर, त्रवणकोर, कोचीन आदि)।
मगर यह सब भी एक वर्ष से कुछ ही अधिक की आश्चर्यजनक रूप से अल्प अवधि में पूरा कर लिया गया। इसके लिए दिया जाने वाला मुख्य प्रलोभन था उदारतापूर्ण प्रिवीपर्स, कुछ नरेशों को गवर्नर या राजप्रमुख भी बनाया गया। पुनः राष्ट्रीय एकता एवं देश हित के मुद्दे पर भी राजाओं को विलय हेतु प्रेरित किया गया। भारत का तीव्र एकीकरण निश्चय ही सरदार पटेल की सबसे महान उपलब्धि थी, यद्यपि यह भी याद रहना चाहिए कि जनता के दवाबों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। सबसे बढ़कर पटेल एवं मेनन ने इस तथ्य का रियासतों के विलय के संदर्भ में अत्यंत कुशलतापूर्वक प्रयोग किया। 1 दिसंबर, 1947 में हठी राजाओं द्वारा गठित पूर्वी राज्यों का संघ नीलगिरि, धेनकनाल और तलचर जैसी उड़ीसा रियासत सशक्त प्रजामंडल आन्दोलनों के आगे झुकने को विवश हो गए। कांग्रेस ने, जो 1930 के दशक से मैसूर में विशेष रूप से सशक्त रही थी, सितंबर 1947 में अपने बल-बूते पर काफी-कुछ उन्मुक्त ‘मैसूर चलो’ आन्दोलन चलाया, जिसके फलस्वरूप 12 अक्टूबर को जनतंत्र की दिशा में पर्याप्त राजनीतिक परिवर्तन करने पड़े। त्रवणकोर का दीवान सी-पी- रामास्वामी अय्यर यहां निजी सत्ता बनाये रखने का प्रयास कर रहा था।
पटेल एवं मेनन ने उसे ‘मक्यूनिस्ट खतरे’ का डर दिखाया। फलतः त्रवणकोर को भी विलय हेतु तैयार होना पड़ा। भारतीय संघ में शामिल किए जा रहे देशी रियासतों का गठन अत्यंत सावधानीपूर्वक करने की आवश्यकता थी। 216 के लगभग छोटी रियासतों को पृथक् इकाई के रूप में समाप्त कर दिया गया और उन्हें पड़ोसी राज्यों-प्रान्तों में शामिल कर लिया गया। देश के कुछ भागों में एक-दूसरे के निकट एवं एकसम बड़ी रियासतें थीं, जिनकी संख्या 275 थी, उन्हें आपस में जोड़कर पांच नए संघीय राज्य बनाए गए और उन्हीं रियासतों के किसी राजा को नवगठित राज्यों का राजप्रमुख बनाया गया। तीसरी श्रेणी में 61 रियासतें थीं, उनमें कोई भी व्यवस्था सामरिक एवं अन्य कारणों से समुचित प्रतीत नहीं हुई, अतः उन्हें पृथक इकाइयों या कुछ को आपस में जोड़कर समेकित खण्डों के रूप में सीधे केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत लाया गया।
जूनागढ़, हैदराबाद एवं कश्मीर ये तीन रियासतें ऐसी थीं, जिनका विलय भारत में स्वतंत्रता पूर्व नहीं हो सका था। कठियावाड़ तट पर स्थित जूनागढ़ एक हिन्दू जनसंख्या बहुल, पर मुसलमान नवाब द्वारा शासित देशी रियासत था। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में विलय चाहता था। सरदार पटेल ने यहां जन आन्दोलन एवं पुलिस कार्रवाई की मिली-जुली नीति के द्वारा समस्या का समाधान किया। फरवरी, 1948 में जनमत संग्रह के बाद जूनागढ़ का विलय भारत में हो गया।
स्वतंत्रता के बाद हैदराबाद का निजाम अपने राज्य की स्वतंत्रता चाहता था। परन्तु सामरिक दृष्टि से भारत सरकार इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र को स्वतंत्र एवं संवभतः भारत विरोधी रखना देश के लिए घातक समझती थी। निजाम भारत के साथ अपने राज्य के विलय प्रस्तावित आकर्षक शर्तों को मानने से इंकार करते हुए ढुलमुल नीति अपनाता रहा। इस समय तेलंगना में निजाम के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह भी चल रहा था। पटेल ने अप्रत्यक्ष रूप से इस विद्रोह को समर्थन दिया। इसी बीच निजाम ने रजाकार नामक एक धार्मिक उग्रवादी संगठन को प्रोत्साहित कर सत्ता पर नियंत्रण प्राप्त करना चाहा।
यह सरदार पटेल के लिए हैदराबाद के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई का अच्छा बहाना था। इस कार्रवाई से निजाम को भारतीय संघ के साथ हैदराबाद के विलय हेतु बाध्य होना पड़ा। अंत में, कश्मीर शेष रह गया था। कश्मीर का शासक हिन्दू था लेकिन अधिसंख्य जनसंख्या मुसलमान थी। कश्मीर सीमावर्तीराज्य था जो भारत एवं पाकिस्तान किसी में भी मिल सकता था। लेकिन कश्मीर का राजा हरिसिंह संभवतः स्वतंत्र रहने की आकांक्षा रखता था। उसी बीच कश्मीर पर पाकिस्तान समर्थित कबायलियों का आक्रमण हो गया। घबराकर कश्मीर के महाराजा ने भारत से सैन्य सहायता की प्रार्थना की। समयोचित दृष्टिकोण से सरदार पटेल ने तत्काल कश्मीर के भारत में विलय की शर्त रखी और कोई उपाय न देखकर महाराजा कश्मीर के भारत में विलय के लिए सहमत हो गये। इस प्रकार अक्टूबर 1947 में कश्मीर का भी भारत में विलय हो गया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि देशी रियासतों के भारत में विलय संबंधित अत्यंत पेचीदे कार्य को सरदार पटेल ने बखूबी अंजाम दिया और इसके लिए उन्होंने श्रेष्ठ कौशल, सफल कूटनीति, समयोचित उपयुक्त निर्णय एवं जिस दृढ़ता का प्रयोग किया वह सर्वथा प्रशंसनीय है।
Question : कुल मिलाकर, तब मेरा यह निष्कर्ष है कि बेसीन की संधि विवेकपूर्ण, उचित एवं नीति सम्मत कार्रवाई थी।
(2005)
Answer : बेसीन की संधि पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ किया था। यह संधि मराठों के आपसी झगड़ों का परिणाम था। जब नाना फड़नवीस की 1800 ई. में मृत्यु हो गई तो नाना के नियंत्रण से मुक्त हुए पेशवा बाजीराव ने अपना घिनौना रूप दर्शाया। उसने अपनी स्थिति को बनाये रखने के लिए मराठा सरदारों में झगड़े करवाए तथा षड्यंत्र रचे। इस झगड़े में वह स्वयं भी उलझ गया। दौलत राव सिंधिया तथा जसवंत राव होल्कर दोनों ही पूना में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे। इस प्रकार के अंतर्कलह के कारण पूना में परिस्थितियां काफी गंभीर हो गई। जब होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया तथा अपने पसंद के व्यक्ति विनायक राव को पेशवा बना दिया तब बाजीराव द्वितीय भागकर बसीन पहुंचा। बाजीराव ने पूना को प्राप्त करने के उद्देश्य से अंग्रेजों के साथ बसीन की संधि की जिसके अनुसार-
बेसीन की संधि अंग्रेजों के लिए काफी लाभदायक थी इससे मराठों का नेता पेशवा कंपनी के अधीन हो गया। हालांकि कुछ लोगों ने वैलेजली के इस कार्रवाई के राजनीतिक बुद्धिमता पर यह कहकर शंका प्रकट किया है कि पेशवा की शक्ति शून्य थी। इस स्थिति में बेसीन की संधि से कंपनी को कोई विशेष फायदा नहीं हुआ पर इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि पेशवा निर्बल होते हुए भी वैधानिक दृष्टिकोण से सभी मराठा सरदारों का नेता और मुखिया था। जब मुखिया ने कंपनी की अधीनता स्वीकार कर लिया तो उसके अधीनस्थ सरदार स्वयं ही कंपनी के अधीन हो गए। इसके अलावा अब यदि कोई अन्य शक्ति पेशवा के प्रभुत्व को चुनौती देती तो कंपनी को कानूनी एवं नैतिक दृष्टिकोण से हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त हो गया।
तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर भी इस संधि के महत्व का आकलन किया जा सकता है। जिस समय वैलेजली भारत आया था, उस समय नेपोलियन का भारत पर आक्रमण का भय था। यदि नेपोलियन भारत पर आक्रमण करता तो मराठे अंग्रेजों के विरुद्ध नेपोलियन का साथ दे सकता था। इसके अलावा मराठा राज्य में उपस्थित विदेशी तत्व भी अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र कर सकते थे। बेसीन की संधि ने इन आशंकाओं से निजात दिलाया। इस संधि से कंपनी को बिना वित्तीय भार के सैनिक शक्ति में वृद्धि हुई तथा कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार पेशवा की सेना को भी उपयोग कर सकती थी। एक लाभ यह भी हुआ कि कंपनी की सेना इस संधि से मैसूर, हैदराबाद, लखनऊ, पूना में तैनात कर दी गई। ये स्थान भारत के मुख्य केंद्रीय स्थान थे। यहां से कंपनी की सेना भारत के किसी स्थान पर शीघ्रता से पहुंच सकती थी। इस प्रकार यदि कंपनी के लाभों को ध्यान में रखा जाए तो इस संधि को विवेकपूर्ण, उचित एवं नीति सम्मत कहने में हर्ज नहीं है।
Question : 1876 से 1921 तक ब्रिटिश सरकार की अकाल संबंधी नीति के क्रमिक विकास का वर्णन कीजिए। क्या इससे जनता को राहत मिली?
(2005)
Answer : भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा गया है क्योंकि यह मुख्यतः मानसून पर निर्भर है, जो कभी निश्चित नहीं रही। अतः भारत में अकाल तो प्राचीन काल से ही पड़ते रहे। परंतु ऐतिहासिक साक्ष्य से स्पष्ट होता है कि यह कम ही होते थे तथा जनता के इन अकाल एवं सूखे से राहत के लिए सरकार भी राहत कार्य करती थी। जैसा कि अर्थशास्त्र से पता चलता है कि सरकार ने राहत कार्य के रूप में करों को कम करने, लोगों को भिन्न प्रदेशों में बसाने, अन्य प्रदेशों से अन्न को मंगवा कर बांटने आदि का कार्य करती थी। मुस्लिम युग में भी मुहम्मद तुगलक, अकबर, शाहजहां आदि के समय अकाल पड़े तथा इन शासकों ने राहत कार्य किए।
कंपनी के शासन काल में 12 साधारण तथा 4 बहुत ही भीषण अकाल भारत के भिन्न क्षेत्रों में पड़े। 1770 में बंगाल में ही भीषण अकाल पड़ा। इसी प्रकार 1784 में सारे उत्तर भारत में कठोर सूखे की स्थिति उत्पन्न हुई। अन्य कई भीषण एवं साधारण अकाल तथा सूखे की स्थिति उत्पन्न हुई लेकिन कंपनी के शासनकाल में अकाल राहत कार्य के लिए कोई निश्चित योजना या नीति नहीं अपनायी गयी। कंपनी की सरकार राज्य विस्तार तथा अपनी साम्राज्यवादी हितों की ओर अधिक तथा जनता के हितों की ओर कम ध्यान दिया। इस काल में कंपनी की सरकार अकाल राहत से संबंधित योजनाओं के लिए सिर्फ कर्ज देने या आर्थिक सहायता देने तक ही स्वयं को सीमित रखा। यह आर्थिक सहायता भी अत्यल्प होती थी।
जब भारत का प्रशासन क्राउन के अधीन आया तथा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रेलवे तथा अन्य संचार के आधुनिक साधनों के विकास के साथ-साथ व्यापार का विकास हुआ तो इसके परिणामस्वरूप अकाल समस्या का रूप ही बदल गया। सरकार को अब महसूस हुआ कि सिंचाई सुविधाओं का विकास करने, कृषि संबंधी कानून बनाने तथा एक सुनिश्चित अकाल नीति को बनाने तथा उसका क्रियान्वयन करने का उत्तरदायित्व उसी का है।
क्राउन के शासनकाल में 10 भीषण अकाल पड़े तथा अनेक साधारण सूखे पड़े। उड़ीसा के अकाल (1866 ई.) तक क्राउन की सरकार ने अकाल राहत के लिए कोई स्पष्ट एवं निश्चित नीति नहीं अपनायी तथा अकाल राहत का कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं पर ही छोड़ती रही तथा स्वयं को ऋण देने तक या आर्थिक सहायता तक ही सीमित रखा। इससे अकाल पीडि़तों को कोई खास राहत नहीं मिली। सर्वप्रथम उड़ीसा के अकाल में सरकार ने इस नीति को त्याग दिया कि स्वयंसेवी संस्थाएं ही राहत कार्य के लिए उत्तरदायी हैं। इस अकाल में सरकार ने स्वयं राहत कार्य चलायी तथा सरकार ने माना कि उसे रेलवे और नहर आदि का विकास कर उसमें लोगों को काम देना चाहिए तथा भूखमरी को रोकने के लिए भी सरकार उत्तरदायी है।
1876-78 ई. में 19वीं शताब्दी का भीषण अकाल पड़ा जिससे मद्रास, बंबई, पंजाब और उत्तर प्रदेश प्रभावित हुआ। सरकार ने जो राहत कार्य किया, वह पर्याप्त नहीं था तथा सरकार के प्रयत्न अनमनी ढंग की थी तथा उसके साधन भी पर्याप्त नहीं थे। परिणामस्वरूप अकाल राहत कार्य असफल रहा तथा 50 लाख व्यक्तियों को अकाल ने मौत की नींद सुला दिया। 1880 में लिटन की सरकार ने एक अकाल आयोग सर रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में गठित किया। इस आयोग को अकाल राहत तथा बचाव के लिए सरकारी नीति के संबंध में साधारण सिद्धांत निर्धारित करना था। इस आयोग ने निम्न सुझाव दिएः
सरकार स्ट्रेची आयोग की सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया तथा एक अकाल कोष की योजना बनायी गयी जिसमें प्रतिवर्ष एक करोड़ रुपये जमा होना था। इस राशि की व्यवस्था हेतु राजस्व के अन्य स्रोतों को पता लगाने का प्रयत्न किया गया। इस कोष का गठन इसलिए किया गया ताकि स्थाई रूप से अकाल राहत का कार्य चलाया जा सके। 1883 में अकाल संहिता का निर्माण किया गया। यह संहिता बाद में प्रांतीय अकाल संहिताका आधार बनी। इस संहिता में साधारण स्थिति में बचाव एवं राहत कार्यों के आरंभ करने, अकालग्रस्त जिला घोषित करने तथा अन्य सभी अधिकारियों के कर्तव्यों की सूची दी गई थी। आगे 1883 तथा 1996 के अकाल में इन संहिताओं में दिए गए सुझावों को परखा गया तथा संशोधित किया गया।
1980 तथा 1896 के बीच दो अकाल तथा सूखे पड़े। इसमें 1896-97 का अकाल एक भीषण विपत्ति था। यह अकाल ब्रिटिश भारत के लगभग सभी प्रांतों को न्यूनाधिक रूप से प्रभावित किया। इस अकाल में सरकार ने जो राहत कार्य चलाए वह मध्य प्रांत को छोड़कर अन्य स्थानों पर सफल रहा तथा अकाल के प्रभाव को कम किया। कुछ भागों में तो सहायता कार्य काफी व्यापक पैमाने पर चलाया गया और लोगों के घरों में भी सहायता पहुंचाई गई। अकाल सहायता पर बनी एक बड़ी राशि (7 करोड़ 27 लाख रुपये) खर्च की गई। एक अकाल आयोग का भी गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष पंजाब के उपगवर्नर सर जेम्स लायल को बनाया गया। इस आयोग ने 1880 के आयोग की सिफारिशों से सहमति प्रकट की। हालांकि 1880 के आयोग की सिफारिशों में थोड़े बहुत परिवर्तन किया गया जिससे समकालीन उपायों में लचीलापन आ गया।
1896-97 के अकाल के तुरंत बाद 1899-1900 में एक और बड़ा अकाल पड़ा। इस अकाल से 18900 वर्गमील क्षेत्र के करीब 4 करोड़ जनता प्रभावित हुई। इस अकाल के आरंभ में अधिकारियों ने सहायता कार्य आरंभ करने से मना कर दिया और बाद में जब सहायता कार्य आरंभ किया गया तो सहायता शिविरों में क्षमता से अधिक लोग आ गए जिससे सभी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई तथा राहत कार्य का विशेष असर नहीं हुआ। परिणामस्वरूप लाखों लोग अकाल के कारण मारे गए। हालांकि सरकार ने अकाल सहायता के कार्यों में 10 करोड़ रुपये व्यय किए। इस अकाल के पश्चात लार्ड कर्जन ने भी एक अकाल संबंधी आयोग का गठन किया। इस आयोग के अध्यक्ष सर एंटनी मैकडोनेल थे। आयोग ने अकाल के समय सहायता के स्वीकृत नियमों को संक्षिप्त रूप से वर्णन किया। इसमें कहा गया कि अकाल के समय पशुओं एवं बीजों के लिए लोगों को आर्थिक सहायता दी जाय तथा अस्थाई जल का प्रबंध करने (कुआं के माध्यम से) का सुझाव दिया। अकाल ग्रस्त क्षेत्र में एक अकाल आयुक्त को नियुक्त करने का सुझाव भी दिया। इसके अलावा सरकारी राहत कार्यों के साथ-साथ राहत के लिए गैर-सरकारी साधनों के भी उपयोग का सुझाव दिया गया। आयोग ने कृषि की स्थिति में सुधार करने, सिंचाई एवं परिवहन की व्यवस्था करने का भी सुझाव रखा। इसके अलावा आयोग की सिफारिशों में कृषि बैंकों तथा उत्तम कृषि साधनों की आवश्यकता पर बल दिया।
इस आयोग की मुख्य सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया। कर्जन ने अकाल राहत के लिए अनेक कार्य किए। उसने 1902 के भूमि प्रस्ताव के माध्यम से भूमि पर एकत्रित करने में लचीलापन उत्पन्न किया तथा उपज न होने पर उसमें छूट अथवा कम करने की व्यवस्था किया। उसने यह भी निश्चय किया कि यदि कर बढ़ाना हो तो उसे धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा। कर्जन ने सिंचाई की स्थिति की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया जिसके अध्यक्ष सर कॉलिन स्कॉट मानक्रीफ को बनाया। आयोग ने सिंचाई व्यवस्था में सुधार के लिए एक बड़ी राशि व्यय करने का सुझाव दिया। कर्जन के समय सिंचाई व्यवस्था में सुधार के तहत जेहलम नहर के कार्य को पूर्ण किया तथा अपर चिनाब, अपर जेहलम तथा लोअर बारी दोआब नहरों का कार्य शुरू किया।
इस प्रकार 1878 के पूर्व सरकार की अकाल नीति गंभीर नहीं थी तथा सरकार द्वारा जो भी राहत कार्य किया गया, वह अकाल के प्रभाव को कम करने में असफल रहा। 1878 के बाद सरकार की अकाल नीति व्यवस्थित हुई तथा अकाल राहत का कार्य बड़े पैमाने पर तथा गंभीरतापूर्वक चलाए गए जिससे लोगों को राहत मिली तथा 20वीं शताब्दी में बड़े अकालों की संख्या में कमी आई। हालांकि पूरे ब्रिटिश काल में जो आकल राहत कार्य किए गए वह कभी पूर्णतः प्रभावशाली नहीं हो सकी।
Question : ‘लोगों पर सरकार के प्रभाव का तत्वतः अर्थ था सरकार का गांव पर प्रभाव’।
(2005)
Answer : भारत की अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक जीवन को किसी भी विजेता ने इतना अधिक प्रभावित तथा परिवर्तित नहीं किया जितना कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने किया। अंग्रेज से पहले जो विजेता आए थे, उन्होंने केवल राजनीतिक दृष्टि से वंश परिवर्तन ही किया और आर्थिक व्यवस्था के सामाजिक गठन व संबंधों को पूर्णतया परंपरागत भारतीय व्यवस्था के अनुकूल ही रहने दिया। साथ ही वे स्वयं भी हिंदुस्तान में समा गए, क्योंकि सब ऐसे बर्बर विजेता थे जिन पर एक उच्चतर संस्कृति ने विजय प्राप्त कर ली। लेकिन अंग्रेज पहले ऐसे विजेता थे जिन्होंने प्रारंभिक समाज को तोड़कर, प्राचीन उद्योगों को तो समाप्त किया ही, साथ ही प्रारंभिक समाज में जो कुछ भी उच्चतर था, उसको भी समाप्त कर दिया। अंग्रेज अपने देश में सामंती व्यवस्था को समाप्त कर और पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना करके आधुनिक युग में पदार्पण कर चुके थे। नयी भौतिक व्यवस्था के अनुरूप ही वे अपने यहां सामाजिक-आर्थिक एवं नैतिक मानदडों की स्थापना कर चुके थे। निश्चय ही भारतीय सभ्यता संस्कृति व सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था उनकी तुलना में निम्नतर थी। यही कारण है कि अपने साम्राज्यवादी भौतिक हितों के अनुरूप उन्होंने परंपरागत भारतीय व्यवस्था को नष्ट करके नयी व्यवस्था को जन्म दिया।
प्राक्-ब्रिटिश भारत में गांव प्रशासनिक व आर्थिक दृष्टि से एकआत्मनिर्भर गणतंत्र था। गांव की अधिकतर आवश्यकताएं स्थानीय रूप से ही पूरी हो जाया करती थी। लेकिन ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था एवं अन्य आर्थिक नीतियों ने पूर्व प्रचलित व्यवस्थाओं एवं मान्यताओंको तोड़कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन में बुनियादी परिवर्तन किया और पुरानी ग्रामीण आत्मनिर्भरता की स्थिति को समाप्त किया। सरकार की आर्थिक नीतियों का मुख्य लक्ष्य - देश की ग्रामीण संपदा का अधिक से अधिक शोषण करना था। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भू-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन कर स्थायी, रैयतबारी तथा महालबारी बंदोबस्त के रूप में नयी व्यवस्थाओं को लागू किया गया।
इन व्यवस्थाओं ने औपनिवेशिक शोषण को आसान बना दिया। इसके कारण किसान गरीबी और ऋणग्रस्तता के शिकार हो गए। ऋणग्रस्तता ने किसानों की दरिद्रीकरण की प्रक्रिया को और तेज बना दिया। अब किसानों के पास अपनी भूमि के सुधार के लिए साधनों की कमी हो गयी। इधर सरकार तथा जमींदारों ने भी कृषि विकास में कोई रुचि नहीं लिया। इन सबका दुष्परिणाम भूमि की उर्वरता में कमी तथा औसत उत्पादन में गिरावट के रूप में हुआ। कृषि उत्पादन में गिरावट ने भारत में अकालों को जन्म दिया, जिसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया। चूंकि भारतीय समाज का मुख्य आधार गांव ही रहे हैं, इस कारण जब ब्रिटिश नीतियों ने ग्रामीण समाज के संरचनात्मक स्तर को प्रभावित किया तो उसका असर लगभग सभी लोगों ने महसूस किया।
Question : सहायक संधि प्रथा के मूलभूत सिद्धांतों का परीक्षण कीजिए। भारत में ब्रिटिश कंपनी की सर्वोच्च प्रभुत्व संपन्न सत्ता को स्थापित करने में इसका क्या योगदान था?
(2005)
Answer : 1798 में सर जॉन शोर के पश्चात भारत का गवर्नर-जनरल बना रिचर्ड वैलेजली। भारत के देशी रियासतों को अंग्रेजी राजनैतिक परिधि में लाने के लिए सहायक संधि प्रणाली का उपयोग किया। वैलेजली भारतीय राजनीति को अच्छी तरह परख चुका था। उसका मानना था कि अहस्तक्षेप की नीति से कंपनी के हितों की संरक्षा नहीं हो सकती है। भारतीय राजनीति को कंपनी के अनुकूल बनाने और कंपनी की सीमा में विस्तार करने के लिए हस्तक्षेप और सक्रिय नीति की आवश्यकता है। वैलेजली कंपनी को सर्वोच्च शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता था तथा फ्रांसीसियों के बढ़ते प्रभाव को भी समाप्त करना चाहता था। इसके लिए यह आवश्यक था कि देशी रियासतों को कंपनी के ऊपर आश्रित बनाया जाए। इसके लिए उसने सहायक संधि को लागू किया जिससे अंग्रेजी सत्ता की सर्वश्रेष्ठता स्थापित हुई तथा नेपोलियन का भय भी समाप्त हो गया। इसके अलावा इस प्रणाली से अंग्रेजों को विस्तृत साम्राज्य की प्राप्ति भी हुई।
सहायक संधि का आविष्कारक वैलेजली नहीं था। यह प्रणाली पहले से ही अस्तित्व में थी जो धीरे-धीरे विकसित हुई। सर्वप्रथमडूप्ले ने भारतीय नरेशों को धन के बदले अपनी सैनिकों को किराया पर दिया। बाद में क्लाइव एवं कॉर्नवालिस ने भी डूप्ले की नीति को अपनाया। वैलेजली ने इस प्रणाली को सुनिश्चित एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया तथा अपने संपर्क में आने वाले सभी देशी रियासतों के संबंध में इसका उपयोग किया। सहायक संधि का प्रथम रूप हम 1765 में कंपनी द्वारा अवध के साथ की गयी संधि में देखते हैं। इस संधि के अनुसार कंपनी ने धन के बदले अवध की सीमाओं की रक्षा का भार लिया तथा अवध ने लखनऊ में एक अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार किया। सहायक संधि को स्वीकार करने वाले रियासत को निम्न शर्तों को स्वीकार करना पड़ता थाः
इस प्रकार सहायक के माध्यम से कंपनी ने रियासतों के शासन, उसकी विदेश नीति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। यह प्रणाली वैलेजली की साम्राज्यवादी भूख को शांत करने का अचूक अस्त्र बन गया। बिना जोखिम एवं परिश्रम के इस संधि के द्वारा अनेक राज्योंको कंपनी ने अपना मित्र और सहायक बना लिया।
कंपनी ने अपने ‘अचूक अस्त्र’ सहायक संधि के माध्यम से सभी देशी राज्यों को शस्त्रविहीन तथा एक-दूसरे को पृथक कर दिया। चूंकि कंपनी ने रियासतों की विदेश नीतिको अपने अधीन कर लिया, अतः देशी रियासतें अब अंग्रेजों के विरुद्ध गुट या संघ नहीं बना सकते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों को एक विशाल सेना देशी राज्यों के व्यय पर प्राप्त हुआ। हालांकि कहा यह गया कि यह सेना देशी राज्यों की सुरक्षा के लिए तैयार की गई है, परंतु जब भी जरूरत पड़ी कंपनी ने इस सेना को उपयोग देशी राज्यों या अपने शत्रुओंको नष्ट करने में किया।
देशी राज्यों में सेना रखने से कंपनी को एक लाभ यह भी हुआ कि कंपनी की सैनिक सीमाएं, राजनीतिक सीमाओं से काफी आगे बढ़ गई। इसके अलावा कंपनी को सामरिक महत्व के कई स्थानों पर नियंत्रण स्थापित हुआ तथा शेष यूरोपीय शक्तियों से मुकाबला करने में सहायता मिली। इस संधि के माध्यम से फ्रांसीसियों के बढ़ते प्रभाव को रोकने में भी सहायता मिली क्योंकि संधि की शर्तों के अनुसार देशी राज्य अपने यहां तब तक किसी यूरोपीय को सेवा में नहीं रखना था जब तक कि कंपनी की सहमति न मिले। इस शर्त का सबसे बुरा प्रभाव फ्रासीसियों पर ही पड़ा तथा धीरे-धीरे फ्रांसीसियों को भारतीय राजनीति से अलग कर दिया गया। इस संधि के माध्यम से जो रेजीडेन्ट राज्यों की राजधानी में रखा जाता था, इसके द्वारा कंपनी ने राज्यों के आंतरिक प्रशासन में अपना प्रभाव स्थापित किया।
इसी प्रकार कंपनी भारतीय राज्यों के आपसी विवादों में मध्यस्थता कर उन्हें अपने अनुकूल बनाने की कोशिश की। इस संधि का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि भारत में कंपनी के विरुद्ध बढ़ते आक्रोश एवं शत्रुता की भावना को नियंत्रित करने में सहायता मिली। देशी राज्य कंपनी का संरक्षण स्वीकार कर संतुष्ट हो गए। वे विस्तारवादी योजनाएं एवं युद्ध त्याग दिए तथा राज्य में शांति-व्यवस्था के कार्य तक ही स्वयं को सीमित कर लिया। वैलेजली ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्वयं कहा - ‘इस व्यवस्था से अंग्रेज सरकार भारतीयों की महत्वाकांक्षी और हिंसा की उस भावना को अधिकार में रख सकी, जो एशिया की प्रत्येक सरकार की विशेषता थी और इससे वह भारत में शांति स्थापित रखने में समर्थ हो सकी।
सहायक संधि कंपनी को जहां मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया वहीं इसके कारण भारतीय राजाओं का मानिसक बल कम हो गया जो अंततोगत्वा उनके लिए हानिकारक सिद्ध हुई। वे शस्त्रविहीन बना दिए गए तथा उनकी विदेश नीति पर कंपनी की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। इस प्रकार वे अपनी स्वतंत्रता गंवाकर नाममात्र के शासक रह गए तथा उनकी सार्वभौम शक्ति समाप्त हो गयी। ये रियासतें अपनी आंतरिक मामले में भी स्वतंत्रता खो दी, क्योंकि उन्हें रेजिडेंट के इशारों पर ही शासन चलाना पड़ता था। धीरे-धीरे शासन का भार भी रेजीडेंटों को ही सौंप दिया तथा स्वयं को प्रशासनिक दायित्वों से मुक्त कर लिया। इसके अलावा देशी राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी इस संधि का बुरा असर पड़ा। सहायक सेना का बोझ जिसका व्यय लगातार बढ़ता ही जाता था, उठाने में ये राज्य असमर्थ रहते थे, जिसके कारण कंपनी नकद राशि के बदले राज्यों का समृद्ध प्रदेश ले लेती थी। इससे देशी राज्यों के प्रभाव में कमी आती गई। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस संधि के द्वारा देशी राज्यों को आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा की गारंटी मिल जाती थी, जिससे ये राज्य कंपनी के समर्थक एवं सहायक बन गए। उनकी राष्ट्रीयता एवं आत्मगौरव की भावना समाप्त हो गई। उनका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत होने लगा तथा प्रजा के कष्ट बढ़ने लगे। राज्यों की सेनाएं भंग कर दी गईं, जिसके कारण बर्खास्त सैनिक असामाजिक और आपराधिक गतिविधियों में भाग लेकर चारों ओर अव्यवस्था एवं अशांति फैला दिये।इस प्रकार सहायक संधि ने देशी राज्यों एवं अन्य यूरोपीय कंपनियों की शक्ति को नष्ट किया तथा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव एवं शक्तियों में वृद्धि कर भारत में सर्वोच्च शक्ति बना दिया।
Question : ‘भारतीय जनता के राष्ट्रीय प्रजातंत्रत्मक जागरण ने धार्मिक क्षेत्र में भी अभिव्यक्ति प्राप्त की।’
(2005)
Answer : अंग्रेजों ने भारत में अपने साथ आधुनिक पश्चिमी शिक्षा भी लाए। यद्यपि उन्होंने आरंभ से अंत तक आधुनिक शिक्षा का प्रसार अपनी जरूरतों के अनुसार किया। लेकिन बाद में पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने इसके महत्व को पहचान कर इस पश्चिमी ज्ञान तथा आधुनिक शिक्षा को भारतीय समाज में फैलाने की कोशिश की।इसके कारण पाश्चात्य विचारों का भारत में आगमन हुआ। आधुनिक शिक्षा तथा अंग्रेजी के ज्ञान ने भारतीयों को पश्चिम के स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र तथा राष्ट्रीयता के विचारधारा से परिचित कराया। इस आधुनिक विचारधारा से आलोकित भारतीयों का ध्यान अपने समाज एवं धर्म की कुरीतियों की ओर गया। वे भारत के पराजय तथा अंग्रेजों द्वारा भारत विजय के कारणों को भारतीय सामाजिक व्यवस्था की जड़ता में ढूंढने लगे।
अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय समाज की जड़ता ही भारत की बदहाली का कारण है तथा इस सामाजिक जड़ता का कारण धर्म ही है। इसकी प्रथम अभिव्यक्ति 19वीं शताब्दी के धार्मिक आंदोलन के रूप में हुई।
यद्यपि इस आंदोलन का ज्यादा जोर धार्मिक सुधार की तरफ ही था, क्योंकि धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक व्यवहारों के बीच अंतःसंबंध था। अतः धार्मिक सुधार के द्वारा ही सामाजिक सुधार संभव था। उस समय भारतीयों के जीवन में धर्म का दखल इतना अधिक था कि उनका खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि सभी कुछ धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं से नियंत्रित और निर्धारित होती थी। अतः धर्म को सुधारे बगैर किसी तरह के सामाजिक सुधार संभव नहीं था।
कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय जनता में आधुनिक लोकतांत्रिक विचारधारा का प्रसार तेजी से हुआ। राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की यह उतुंग लहरें अब राजनीतिक की परिधि को लांघकर धार्मिक और सामाजिक दायरे को छूने लगी थी। दलित जातियां व पिछड़े वर्ग के लोग इससे प्रभावित होने लगे थे। इसकी अभिव्यक्ति न्याय, आंदोलन, मंदिर प्रवेश आंदोलन, पालिस आंदोलन तथा अकाली आंदोलन के रूप में होती है।
जनता के इस लोकतंत्रत्मक जागरण को गांधी जी के हरिजन यात्र तथा अंबेडकर के आंदोलनों में भी देखा जा सकता है। इन राष्ट्रवादी नेताओं ने औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ चल रहे अहिंसात्मक सत्याग्रह आंदोलनों को ऐसे मुद्दों की तरफ मोड़ने लगे, जो भारतीय समाज एवं धर्म की आंतरिक संरचना को प्रभावित करते थे। देश के सामाजिक व धार्मिक संस्थानों के सुधार के लिए छिड़े इन आंदोलनों ने अक्सर सुधारवादियों को औपनिवेशिक सत्ता से भिड़ा दिया। हालांकि ये सभी आंदोलन साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के ही परिणाम थे तथा जैसे-जैसे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का सामाजिक दायरा बढ़ता गया, वैसे-वैसे धार्मिक सुधार से संबंधित आंदोलनों की संख्या में भी वृद्धि हुई। इसका कारण था कि साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन ने जनता में राष्ट्रीय प्रजातंत्रत्मक जागरण फैलाया और इसकी अभिव्यक्ति ही धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी हुई।
Question : ‘इसका मूल स्वरूप जो कुछ भी रहा हो, यह (1857 का विद्रोह) शीघ्र ही भारत में ब्रिटिश शक्ति को चुनौती का प्रतीक बन गया।
(2005)
Answer : 1857 ई. में यह विद्रोह सैनिकों द्वारा आरंभ किया गया था, अतः कुछ अंग्रेज लेखकों ट्रेविलियन,जान लारेंस, सीले आदि ने इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा दे दी। इसी तरह कुछ अन्य इतिहासकारों ने इस विद्रोह को ‘इसाईयों के विरुद्ध धर्म युद्ध’, ‘पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता का संघर्ष’, अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हिंदू और मुसलमानों का संघर्ष’ आदि कहकर इसकी व्यापकता को नकारने की कोशिश की है। इधर भारतीय इतिहासकारों ने इस विद्रोह को अपने ढंग से विश्लेषिेत कर इसके स्वरूप के संबंध में अपना मत प्रस्तुत किया है। सबसे पहले वीर सावरकर ने इस विद्रोह को सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम’ कहा। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि इस विद्रोह से पूर्व जो छिट-पुट विद्रोह हुए, वे सभी 1857 के विद्रोह का पूर्वाभ्यास था। अशोक मेहता ने इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ बताया। मार्क्स एवं एंगल्स ने भी इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहा तथा इसे अंग्रेजी राज के खिलाफ भारतीय जनता की क्रांति बताया। आधुनिक इतिहासकारों ने भी इस विद्रोह के स्वरूप के संबंध में अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं। इस संबंध में डा. आर.सी. मजूमदार का कहना है कि ‘इस निर्णय से इनकार करना कठिन है कि तथाकथित 1857 ई. का प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम था, न राष्ट्रीय था और नही स्वतंत्रता संग्राम था। दूसरी तरफ डा. एस.एन. सेन का कहना है कि ‘यह विद्रोह राष्ट्रीयता के अभाव में भी भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम था।’ इस प्रकार स्पष्ट है कि 1857 के विद्रोह का स्वरूप स्पष्ट नहीं है। इसके स्वरूप के संबंध में जितने मत दिए गए हैं, वह आलोचना की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। अतः हम किसी भी मत को पूर्णतः सही नहीं कह सकते हैं। इस कारण इस विद्रोह का निश्चित स्वरूप नहीं तय किया जा सकता है। विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर अनेक वर्गों के व्यक्तियों ने इसमें हिस्सा लिया। यद्यपि इसका आरंभ एक सैनिक क्रांति के रूप में हुआ, लेकिन जल्दी ही यह सीमित विद्रोह एवं अंग्रेजी चंगुल से मुक्ति पाने का प्रथम व्यापक प्रयास बन गया।
1959 के अंत तक इस विद्रोह को सैन्य बल से क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया, लेकिन यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह विद्रोह भारतीय इतिहास का शानदार पड़ाव बन गया। इसने राष्ट्रीय मुक्ति के लिए आधुनिक आंदोलन के विकास की आधार भूमि तैयार करने में अहम भूमिका अदा की। विद्रोहियों द्वारा प्रदर्शित वीरता तथा देशभक्ति की भावना ने राष्ट्रीय आंदोलन को हमेशा प्रेरित किया। इस विद्रोह ने शक्तिशाली ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध की एक शानदार परंपरा कायम की। इस परंपरा को भारतीय स्वतंत्रता के नायकों ने उस समय तक आगे जारी रखा जब तक कि 15 अगस्त, 1947ई. में भारत ने स्वतंत्रता नहीं प्राप्त कर ली। स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने इस विद्रोह की कमजोरियों से बहुत कुछ सीख लिया तथा अपनी पुरानी गलतियों को दुहराने से बच गए। इस प्रकार 1857 का विद्रोह तथा इसमें भाग लेने वाले वीरों की गाथाएं शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को हमेशा चुनौती देता रहा।
Question : 1930-31 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के आरंभ होने में सहायक तत्वों का विश्लेषण कीजिए। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के द्वारा उसके उद्देश्यों की पूर्ति किन अंशों में हुई?
(2005)
Answer : महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन विभिन्न कारणों से प्रारंभ किया गया। भारत की तत्कालीन परिस्थितियों एवं सरकारी रवैया ने गांधी जी को आंदोलन करने पर मजबूर कर दिया। 1922 में असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद भी राष्ट्रवाद की मशाल को देशभक्तों ने विभिन्न तरीकों से जलाए रखा तथा साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष को अपने-अपने ढंग से चलाते रहे। इस समय तक भारतीय जनता तथा साम्राज्यवाद के मध्य जो अंतर्विरोध था वह और भी तीव्र हो गया। साम्राज्यवादी सरकार की भारत विरोधी नीतियां एवं उनके शोषणकारी चरित्र को अब आम लोग भी समझने लगे थे। सरकार के वास्तविक चरित्र के संबंध में लोगों को बताकर देशभक्तों ने जन आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार किया। इस पृष्ठभूमि ने 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन को आरंभ करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने गांधीवादी रचनात्मक कार्य को भारत के दूर-दराज के गांवों तक ले गए। हालांकि ये रचनात्मक कार्य सरकार के विरुद्ध कोई संघर्ष नहीं था लेकिन इसने जनचेतना को बढ़ाकर लोगों को गांधीजी के नेतृत्व में लामबंद किया जो आने वाले संघर्ष के लिए काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इसी समय कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सी.आर. दास तथा मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर स्वराज दल का गठन किया। इस दल का मुख्य उद्देश्य 1919 के सुधार कानून की अपर्याप्तता तथा खोखलेपन को सिद्ध करना था। इस दल के लोग सरकार के सांविधानिक ढांचा को ध्वस्त करना चाहते थे। स्वराज दल अपने सभी उद्देश्यों में सफल नहीं हुए लेकिन राजनीतिक निष्क्रियता को खत्म कर भारतीयों के मनोबल बढ़ाने में काफी सफल हुए। इन्होंने ऐसे समय में राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखा, जब राष्ट्रीय आंदोलन सुस्ता रहा था। स्वराजियों ने सरकार को विधानसभा में अनेक मुद्दों पर पराजित किया जिसके कारण वह अध्यादेशों के माध्यम से शासन करने पर मजबूर हो गई। इससे सरकार की निरंकुशता जनता के सामने आई।
1927 के बाद साम्राज्यवाद विरोधी जन-उभार के साफ लक्षण दिखाई पड़ने लगे। इस जन-उभार के लिए साम्राज्यवादी नीतियां ही मुख्य रूप से जिम्मेवार थीं। नवंबर 1927 को एक आयोग की घोषणा की गई। इस आयोग के सभी सदस्य गोरे थे। इस आयोग का काम इस बात की सिफारिश करना था कि क्या भारत इस योग्य हो गया है कि यहां के लोगों को और अधिक संविधानिक अधिकार दिए जाएं और यदि दिए जाएं तो उसका रूप क्या हो? सारे भारत में इसकी तत्काल और व्यापक प्रतिक्रिया हुई कि जिस आयोग को भारत का राजनीतिक भविष्य निश्चित करना हो उसकी सदस्यता के लिए एक भी भारतीय को योग्य नहीं माना गया। यह सरकार द्वारा भारतीयों को दिया गया अयोग्यता का प्रमाणपत्र था। इससे जनता की भावना एवं आत्मसम्मान को काफी ठेस पहुंची। यह ठेस इतनी गहरी थी कि सामान्यतः सरकार परस्त के रूप में माने जाने वाले लिबरल फेडरेशन तथा मुस्लिम लीग के प्रमुख धड़े तक सभी ने कमीशन को विरोध किया। इस आयोग के (जिसे साइमन आयोग के नाम से जाना जाता है) बहिष्कार का आह्नान किया गया। कांग्रेस ने इस बहिष्कार को जनांदोलन का रूप दे दिया और इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति में एक बड़ा जन-उभार पैदा किया। इसी समय आर्थिक मंदी ने जनता के कष्टों को बढ़ाकर उन्हें सरकार विरोधी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जनउभार की यहां कारवां सरकार की सारी नृशंसताओं के अवरोध को पार करते हुए आगे ही बढ़ती गई। इस कारवां को पुलिस की डंडा भी रोकने में असफल रही। हालांकि भारतीय खून की प्यासी सरकारी मशीनरी ने भारत के महान नेता लाला लाजपत राय को मौत की नींद सुला दिया लेकिन इससे जनाक्रोश शांत होने के बजाय बढ़ता ही गया। इसके अलावा साइमन आयोग के बहिष्कार के कारण नौजवानों की पीढ़ी को राजनीतिक कार्रवाई का आरंभिक अनुभव हुआ। यद्यपि 1927 में ही समूचे देश में नौजवानों के आंदोलन ने अपना आकार ग्रहण करना आरंभ कर दिया था। लेकिन साइमन आयोग के बहिष्कार के कारण एकाएक नौजवानों के संगठन और संघ बनने लगे। आंदोलन की इस नई लहर में नौजवानों तथा छात्रों के बीच से जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस नेता के रूप में उभरे। इन लोगों ने समूचे देश का दौरा किया। हजारों नौजवान सभाओं को संबोधित किया और असंख्य बैठकों की अध्यक्षता की।
इसी दशक के दौरान (1920-30) समाजवादी विचारों का अंकुरण और प्रसार हुआ। 1927-30 के बीच वामपंथी विचारधारा ने भारतीय राजनीति में स्वयं को मजबूती से स्थापित कर लिया। कांग्रेस भी इस विचारधारा से प्रभावित हुई तथा कांग्रेस में नेहरू और सुभाषचंद्र बोस इस विचारधारा के प्रतीक थे। इस समय विभिन्न साम्यवादी गुट देश के विभिन्न भागों में किसानों एवं मजदूरों के बीच सक्रिय थी। अनेक स्थानों जैसे - बंगाल, पंजाब एवं महाराष्ट्र में वर्कर्स एंड पीजेण्ट्स पार्टियों का गठन किया गया। वामपंथ से संबंधित पार्टियों एवं गुटों ने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को जुझारू बनाया तथा इस संघर्ष में सामाजिक एवं आर्थिक अंतर्वस्तु का प्रवेश करवाया। इधर सरकार वामपंथी तथा मजदूर आंदोलनों को दमन करने के लिए 1929 में वामपंथी एवं मजदूर नेताओं पर मेरठ षड्यंत्र केस चलाया किंतु इस मुकदमे का परिणाम सरकार के अनुकूल न होकर प्रतिकूल ही रही। इसने साम्राज्यवाद विरोधी लहर को और भी तेज किया। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने सरकार की नृशंसताओं का जवाब लाला लाजपत राय के हत्यारा साण्डर्स की हत्या करके दिया। दूसरी ओर इन्हीं क्रांतिकारियों ने सरकार द्वारा मजदूरों के दमन के लिए तैयार किए गए कानूनों का जवाब साम्राज्यवाद के प्रतीक विधानसभा में बम फेंककर दिया।
1929 तक आते-आते साम्राज्यवाद विरोधी भावना काफी व्यापक एवं तीव्र हो चुकी थी। इसी समय नेहरू कमेटी ने देश के भावी संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में डोमिनियन स्टेटस की मांग की गई थी लेकिन भारतीय युवा वर्ग और उग्रवादी राष्ट्रवादियों ने जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में इसका विरोध किया तथा पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। हालांकि बाद में कांग्रेस ने समझौतावादी रुख अपनाते हुए यह प्रतिबद्धता जाहिर की कि ‘डोमिनियन स्टेट्स पर आधारित संविधान को यदि सरकार ने साल के अंत तक (31 दिसंबर, 1929) नहीं माना तो कांग्रेस न सिर्फ अपना लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य स्वीकार करेगी बल्कि इस लक्ष्य के लिए वह सविनय अवज्ञा आंदोलन भी चलाएगी। जब सरकार ने कांग्रेस की इस मांग को नहीं मानी तो कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की, लेकिन इस आंदोलन का लक्ष्य डोमिनिय स्टेट्स न होकर पूर्ण स्वराज्य था। इस प्रकार 1922 से 1930 के बीच जो घटना विकास हुआ उसने कांग्रेस नेतृत्व को सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने के लिए बाध्य किया।
ब्रिटिश सरकार सविनय अवज्ञा आंदोलन को तात्कालिक रूप से शक्ति के आधार पर दबाने में सफल तो हो गई लेकिन उसे पता था कि ताकत की नीति ज्यादा दिनों तक सफल नहीं हो सकती। अतः ‘डंडा मारो और गुड़ खिलाओ’ की अपनी पुरानी नीति के अनुरूप सरकार ने आंदोलन को कमजोर करने के लिए 1935 का सुधार अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम में कांग्रेस की पुरानीमांग डोमिनियन स्टेट्स को भी नहीं स्वीकार किया गया, पूर्ण स्वराज की बात ही अलग थी। विभिन्न प्रातों और राजाओं-महाराजाओं की रियासतों को मिलाकर भारत को एक संघ का दर्जा दिया गया। यह संघीय योजना तभी लागू होती जब निम्न दो शर्तें पूरा होतीं- पहली शर्त थी कि संघ में सम्मिलित होने वाले देशी राज्यों की आबादी देशी राज्यों की कुल आबादी की आधी हो। दूसरी शर्त यह थी कि राज्य विधायिका के उच्च सदन में देशी रियासतें कम से कम 52 प्रतिनिधि भेजने को अधिकृत हों।
चूंकि ये शर्तें पूरी नहीं हुई, अतः संघ बनाने की योजना कभी लागू नहीं हो सकी। इसके अलावा 1935 के कानून की संघीय योजना, नेहरू रिपोर्ट में मांग की गई संघीय योजना से भिन्न थी। संपन्न इकाईयों का स्वतंत्र संघ न होकर यह एक तरह से ऊपर से आरोपित व्यवस्था थी। संघ की इकाईयां क्षेत्रफल, महत्व, शासन पद्धति, सांस्कृतिक विकास आदि के स्तर पर असमान थी। यह आंशिक उत्तरदायी शासन का अनुभव रखने वाले प्रांतों तथा पूर्णतः निरंकुश रूप से शासित देशी राज्यों के मेल से बनने वाला संघ था जो कांग्रेस की मांगों के विपरीत थी।
1935 के अधिनियम के द्वारा प्रांतीय स्वायत्तता लागू किया गया। इसके तहत प्रांतीय विभागों के काम-काज निर्वाचित मंत्रियों को देखना था, परंतु यह प्रांतीय स्वायत्तता भी मात्र खोखला सिद्धांत ही सिद्ध हुआ, क्योंकि मंत्रियों के ऊपर गर्वनरों की नियुक्ति का प्रावधान था। इन गवर्नरों को इस अधिनियम के माध्यम से ऐसे विशेषाधिकार दिए गए थे कि वे प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धांत को कभी भी कुचल सकते थे। इस अधिनियम की धारा 93 के अनुसार गवर्नर जब चाहे तब प्रांतीय शासन को मंत्रियों के हाथ से अपने हाथ में ले सकता था। इस प्रकार अभी भी वास्तविक राजनीति एवं आर्थिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में ही थी तथा भारतीय जनता की प्रमुख मांग कि भारत का शासन भारतीयों को सौंपा जाय, नहीं पूरी हो सकी। इसी कारण 1935 के अधिनियम का विरोध सभी भारतीयों ने किया। कांग्रेस ने इस अधिनियम को पूरी तरह नामंजूर कर दिया तथा इसके बदले वयस्क मताधिकार के द्वारा निर्वाचित एक संविधान सभा की मांग की ताकि आजाद भारत के लिए संविधान बनाया जा सके।
Question : प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में जिन कारणों से धन का पलायन हुआ, उनकी विवेचना कीजिए।
(2004)
Answer : धन और जनसमुदाय का सहर्ष सहयोग राज्य की सफलता के दो मूल आधार हैं। भारत में ब्रिटिश शासन ने धन पर स्वयं को केन्द्रित किया। सन् 1757 में प्लासी के युद्ध तक भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका एक व्यापारिक निगम की थी। वह बाहर से वस्तुएं अथवा बहुमूल्य धातु भारत लाती थी और उनका कपड़ों, मसालों आदि भारतीय वस्तुओं से विनिमय करती थी। कंपनी भारतीय वस्तुओं को विदेशों में बेचती थी। इससे कंपनी को बहुत लाभ मिलता था। प्लासी के युद्ध के पश्चात भारत के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। अब कंपनी बंगाल के ऊपर अपने राजनीतिक प्रभुत्व का प्रयोग अपने व्यापार तथा आर्थिक लाभ के लिए करने लगी। उधर इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति से इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक नीतियों में परिवर्तन हुआ तथा नये शक्तिशाली औद्योगिक वर्ग का अभ्युदय हुआ। इस वर्ग ने अपने उत्पादों को भारत में निर्यात करने तथा कपास जैसे कच्चे माल को आयात करने पर बल दिया।
ब्रिटिश शासन के पूर्ण रूप से स्थायी हो जाने के उपरान्त ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेशवाद की विशिष्ट शैली के माध्यम से भारत की संपत्ति एवं संसाधनों का लगातार व्यवस्थित रूप से शोषण आरंभ किया। पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने तथा बाद में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संपत्ति तथा संसाधनों का शोषण किया। अंग्रेजों ने भारतीय संपत्ति और संसाधनों का अधिकांश भाग ब्रिटेन को निर्यात किया लेकिन इसके बदले में भारत को अपेक्षित आर्थिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिला। ‘संपत्ति का पलायन’ ब्रिटिश शासन की विशेषता थी।
ब्रिटिश शासन से पहले बुरी से बुरी भारतीय सरकारों ने भी जनता से चूसी गयी दौलत का उपयोग देश के अंदर ही किया था। पर अंग्रेज हमेशा विदेशी बने रहे। भारत में काम कर रहे अथवा व्यापार कर रहे अंग्रेजों का उद्देश्य केवल इतना था कि यहां से ज्यादा से ज्यादा धन कमाकर इंग्लैंड ले जायें। भारत में राजनीतिक वर्चस्व एवं प्रशासन स्थापित करने का उनका उद्देश्य भी आर्थिक रूप से ब्रिटेन को समृद्ध बनाना था। कंपनी ने जब से भारत में व्यापार करना शुरू किया एक समस्या हमेशा उलझती रही कि वह भारत से इंग्लैंड आयात होने वाले माल के बदले वह भारत को क्या दे। इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में माल खरीदने के लिए इंग्लैंड से सोना-चांदी जैसी बहुमूल्य धातुएं भारत में लानी पड़ती थी। बाद में इंग्लैंड में इसका विरोध भी हुआ। कंपनी आरंभ से ही इस रास्ते की तलाश में थी कि कैसे वह बिना कुछ दिये अथवा कम राशि देकर भारत से वस्तुएं ले जा सके। प्लासी युद्ध के बाद उन्हें यह अवसर मिल गया। सन् 1757 के बाद कंपनी के कर्मचारी भारतीय शासकों, जमींदारों, व्यापारियों और साधारण जनता से धन वसूल कर ब्रिटेन ले जाने लगे। 1758 और 1765 ई. के बीच उन्होंने लगभग 60 लाख पौंड की दौलत ब्रिटेन भेजी। यह धन उन्हें यहां से नजराना, रिश्वत, उपहार तथा व्यवहार से प्राप्त हुआ था।
1765 ई. में कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी मिल गयी और राजस्व पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया। वह यहीं के राजस्व से भारतीय माल खरीदकर निर्यात करने लगी। उदाहरण के लिए 1765 से 1770 ई. के बीच कंपनी ने मालों के रूप में लगभग 40 लाख पौंड का धन बाहर भेजा जो बंगाल के राजस्व का 33 प्रतिशत था। कंपनी ने भारत में अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए तथा इंग्लैंड में सत्ता अधिकारियों को देने के लिए ऋण लेती थी। इस ऋण का ब्याज और मूलधन को चुकाने के लिए कंपनी यहां से धन एकत्र कर इंग्लैंड भेजती थी।
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ईस्ट इंडिया कंपनी मुक्त व्यापार अर्थात ब्रिटिश माल के अबाध भारत प्रवेश की नीति अपनाई। ब्रिटेन में हुए औद्योगिक क्रांति के कारण वहां मशीनों के द्वारा ज्यादा मात्र में माल तैयार होने लगा। उन्हें खपाने तथा तैयार करने के लिए भारत अच्छा बाजार था। भारत से कच्चा माल वहां भेजा जाने लगा तथा वहां से तैयार माल यहां पहुंचने लगा। एक तरफ भारत में ब्रिटेन से आयातित माल पर कम से कम आयात शुल्क लगाये गये दूसरी तरफ ब्रिटेन में भारतीय मालों के प्रवेश पर भारी आयात शुल्क लगाये गये। परिणाम स्वरूप भारत से भारी मात्र में धन का पलायन आरंभ हो गया।
भारतीय धन का ब्रिटेन में पलायन निम्नलिखित रूपों में थाः
1.गृह व्ययः गृह व्यय उस व्यय के रूप में था जो भारत राज्य सचिव तथा उससे व्यय के रूप में था। 1857 के विद्रोह के पहले यह व्यय भारत के औसतन राजस्व का 10-13% था, 1897-1901 के बीच लगभग 24% तथा 1920-21 में यह व्यय लगभग 40% था। इस गृह व्यय के मुख्य तत्व निम्नलिखित थेः
(i)सैनिक तथा असैनिक व्ययः इसके अन्तर्गत ब्रिटेन में स्थित भारतीय प्रशासन से संबंधित कार्यालय तथा कर्मचारियों, युद्ध के सचिवालय, अंग्रेजी सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारियों के वेतन, पेंशन आदि पर व्यय सम्मिलित है।
(ii)ईस्ट इंडिया कंपनी के भागीदारों को लाभांशः 1833 के चार्टर एक्ट के द्वारा कंपनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व में से 1874 तक लगभग 6 लाख पौंड दिये जाते रहे।
(iii)विदेश में लिए गए सार्वजनिक ऋणः भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने क्षेत्र विस्तार के लिए अनेक युद्ध किए। भारत से बाहर, अफगान, वर्मा तथा नेपाल में भी अनेक युद्ध किये। इन युद्धों में हुए धन व्यय के लिए कंपनी ने ऋण लिया था। इसके अतिरिक्त भारत में रेलवे, सिंचाई के विकास तथा अन्य सार्वजनिक कार्य के लिए भी कंपनी ने ऋण लिये थे। 1900 में इस सार्वजनिक ऋण की मात्र लगभग साढ़े बाइस करोड़ पौंड थी। इस ऋण के मूलधन और ब्याज को चुकाने के लिए बड़ी मात्र मे धन का पलायन हुआ।
(iv)ब्रिटेन में भण्डार वस्तुओं की खरीदः भारत की अंग्रेजी सरकार ब्रिटेन से करोड़ों रुपये का माल सैनिक, असैनिक तथा अन्य विभागों के लिए अंग्रेजी मंडियों से खरीदती थी।
2. विदेशी बैंक, इन्श्योरेन्स तथा नौवहन कंपनियां: बैंक, इन्श्योरेन्स तथा नौवहन कंपनियों ने भारत से करोड़ों रुपयों का लाभ कमाकर विदेशों में भेजा।
3. विदेशी पूंजी निवेश पर दिया जाने वाला ब्याजः भारतीय राष्ट्रीय आय से एक अन्य महत्वपूर्ण निकास थाµ व्यक्तिगत विदेशी पूंजी निवेश पर दिया जाने वाला ब्याज और लाभ। विदेशी पूंजीपतियों ने भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में अपना पूंजी निवेश कर रखा था। वे लाभ के रूप में करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष भारत से ले जाते थे, इस लाभ के रूप में 1914 से 1945 के बीच लगभग 30-60 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष बाहर जाता था।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि प्लासी युद्ध के पश्चात भारतीय व्यापार के संतुलन प्रतिकूल होने के साथ-साथ अन्य कारणों से भी धन का पलायन तेज गति से हुआ। इस काल में इंग्लैंड का भारतीय अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार हो गया और धन का इंग्लैंड की ओर प्रवाह होने लगा।
Question : सालबाई की संधि (1782) न तो अंग्रेजों के लिए सम्मानजनक थी और न ही उनके हितों की दृष्टि से लाभदायक।
(2004)
Answer : 1782 में मराठा और अंग्रेजों के बीच ‘सालबाई की संधि’ हुई, जिसने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त किया। इस संधि के अनुसारः
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए अनिर्णायक सिद्ध हुए। अंग्रेजों को अपार क्षति उठानी पड़ी। 1775 ई. में सूरत की संधि द्वारा अंग्रेजों ने मराठा सरदार रघुनाथ राव का पक्ष लेकर मराठों की आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। वे रघुनाथ राव को पेशवा बनाने के पक्ष में थे। बदले में उन्हें रघुनाथ राव से सालसीट, बसीन और कुछ अन्य टापू तथा सूरत और भड़ौंच के राजस्व का कुछ भाग भी मिलना तय हुआ। अंग्रेजों ने यह शर्त भी रखी कि पेशवा बनने के बाद रघुनाथ राव कर्नाटक एवं बंगाल पर मराठों का आक्रमण बन्द करवा देगा। इसका उद्देश्य मराठों पर अंग्रेजी कंपनी का वर्चस्व स्थापित करना था। यह सब कुछ बंबई की अंग्रेजी सरकार ने गर्वनर जनरल की जानकारी के बिना किया। पूना के पेशवा को अंग्रेजों ने ‘अरास के युद्ध’ में परास्त कर दिया। बंबई की अंग्रेजी सरकार के इस निर्णय की कलकत्ता कॉन्सिल ने तीव्र आलोचना की। इससे अंग्रेजों के बीच आपस में ही मतभेद उत्पन्न हो गये और कलकत्ता कॉन्सिल और पेशवा के बीच 1776 ई. के पुरंदर की संधि से दोनों के बीच युद्ध बन्द हो गये। परन्तु बंबई की सरकार ने पुरंदर की संधि को अस्वीकृत कर दिया और युद्ध पुनः आरंभ हो गया। तलगांव एवं बड़गांव में अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा और बाध्य होकर 1779 में एक अपमानजनक संधि ‘बड़गांव की संधि’ करनी पड़ी। इसके अनुसार बंबई की सरकार ने 1773 ई. के पश्चात् मराठों से जीते गये सभी प्रदेश वापस करने, रघुनाथ राव का पक्ष नहीं लेने तथा भड़ौंच की आय का कुछ भाग सिंधिया को देना आदि स्वीकार किया। कलकत्ता कॉन्सिल ने इसे नहीं माना और युद्ध जारी रखा। बंगाल से आयी अंग्रेजी सेना ने कई स्थानोंपर मराठों को पराजित किया। महादजी सिंधिया के प्रयासों से मराठों एवं अग्रेजों के बीच ‘सालबाई की संधि’ हुई और युद्ध बन्द हो गया।
यद्यपि बाद के युद्ध में अंग्रेजों को अनेक विजय प्राप्त हुई। परन्तु वास्तव में अंग्रेजों को कुछ भी नहीं मिला। अंग्रेजी सेना और धन का व्यय व्यर्थ रहा। वास्तव में अंग्रेजों को अपमानजनक पुरन्दर की संधि से जो कुछ मिला था उससे अधिक इस संधि द्वारा नहीं मिला। वास्तविक रूप से अंग्रेज दक्षिण में एक वर्गमील क्षेत्र में भी अपनी सीमा नहीं बढ़ा सके। युद्ध के आरंभिक काल में अंग्रेजी सेना की हार तथा बम्बई और कलकत्ता की अंग्रेजी सरकारों के बीच मतभेद ने अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को काफी चोट पहुंचाई। इस युद्ध से अंग्रेजों को मराठों की शक्ति का अहसास हो गया और वे अगले बीस वर्षों तक उधर कदम नहीं बढ़ा सके। इस युद्ध के द्वारा अंग्रेज मराठा सरदारों को विभाजित कर देना चाहते थे परन्तु रघुनाथ राव को छोड़कर कोई भी मराठा सरदार अंग्रेजों से नहीं मिला। ‘सालबाई की संधि’ मराठा राज्य के दो शक्तिशाली नेताओं नाना जी और महादजी के सम्मिलित गठजोड़ का परिणाम था। अंग्रेजी हस्तक्षेप ने इन दोनों को एक कर दिया और इनकी सम्मिलित शक्ति ने अंग्रेजों को मराठा सीमाओं से बाहर कर दिया तथा खोए हुए प्रदेश पुनः प्राप्त करके, 20 वर्ष तक मराठा साम्राज्य की रक्षा की।
Question : रेग्यूलेटिंग अधिनियम का उद्देश्य तो अपने आप में अच्छा था, परन्तु इसके द्वारा जो प्रणाली स्थापित की गई, वह त्रुटिपूर्ण थी।
(2004)
Answer : ब्रिटिश सरकार द्वारा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी कीभारतीय गतिविधियों पर 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा नियंत्रण स्थापित किया गया। 1773 ई. के पूर्व कंपनी का अस्तित्व चार्टर पर निर्भर था जो ब्रिटिश सरकार प्रदान करती थी, परन्तु ब्रिटिश सरकार का इस पर कोई विशेष अधिकार नहीं था। 1757 से पहले कंपनी केवल व्यापारिक संस्था मानी जाती थी। किन्तु 1964 के पश्चात यह राजनीतिक संस्था का रूप धारण करती जा रही थी। लार्ड क्लाइव द्वारा बंगाल में स्थापित द्वैध शासन के कारण प्रशासन में अनेक विसंगतियां आ गई थीं। भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण कंपनी का कोष खाली हो गया था। क्लाइव ने भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास किया किंतु उसके चले जाने पर यह और भी बढ़ गया। भारतीय शक्तियों का मुकाबला करने लिए भी कंपनी ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा का उपयोग करती थी। कंपनी के प्रशासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि वह अपने अधिकारियों और कर्मचारियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने और उनके व्यवहार में सुधार लाने में असमर्थ थी। इस कुशासन और बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए तथा कंपनी के राजनीतिक अधिकारों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के कार्यों में हस्तक्षेप करना आवश्यक समझा और इन्हीं दोषों को दूर करने के लिए रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
इस एक्ट द्वारा कंपनी की भारतीय शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया जिसके फलस्वरूप भारतीय कार्यकारिणी परिषद् का जन्म हुआ। बंगाल का गवर्नर ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल कहलाने लगा तथा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए। गवर्नर जनरल के परामर्श के लिए चार सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया। इसमें बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाने थे। इसके साथ ही कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना भी की गई।
रेग्यूलेटिंग एक्ट का उद्देश्य कंपनी के शासन को सुव्यवस्थित करना था, किंतु इस एक्ट द्वारा स्थापित प्रणाली दोषपूर्ण थी। कंपनी का शासन अभी भी सुचारू रूप से नहीं चलाया जा रहा था। गवर्नर जनरल को अपनी कॉन्सिल के निर्णय को रद्द करने का अधिकार नहीं था। वह कॉन्सिल के बहुमत को स्वीकार करने के लिए बाध्य था। इसलिए गवर्नर जनरल और उसकी कॉन्सिल से निरंतर संघर्ष चलता रहता था। मद्रास और बंबई की सरकारों पर गवर्नर जनरल और उसकी कॉन्सिल का पूरा नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया, जिससे सरकार को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा था। सर्वोच्च न्यायालय तथा कार्यपालिका के कार्य क्षेत्र स्पष्ट नहीं किए गए थे, जिनसे उनमें भी टकराव उत्पन्न हो गया था। रेग्यूलेटिंग एक्ट से सर्वोच्च न्यायालय तो स्थापित कर दिया गया, परन्तु उसे कौन से कानून के अनुसार चलना है (भारतीय अथवा ब्रिटिश) यह निश्चित नहीं था। न्यायालय का अधिकार क्षेत्र भी निश्चित नहीं किया गया था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह अधिनियम अधिक अच्छा प्रशासन स्थापित करने के लिए एक प्रयत्न था, परन्तु चूंकि समस्या का पूर्ण ज्ञान नहीं था अतएव इसके द्वारा स्थापित प्रणाली से कंपनी को भ्रम का सामना करना पड़ा।
Question : स्थायी बन्दोबस्त से अनेक आशाओं पर पानी फिर गया और उसके ऐसे परिणाम निकले जिनकी कोई संभावना नहीं थी।
(2004)
Answer : बंगाल का स्थायी बंदोबस्त प्रारम्भ करने के पीछे कार्नवालिस का उद्देश्य था, ‘कृषि तथा व्यापार नष्ट हो रहा है, जमींदार तथा खेतिहर मजदूर व किसान दिन-प्रतिदिन और अधिक निर्धन होते जा रहे हैं तथा जाति में केवल साहूकार ही समृद्धिशाली हैं’ को खत्म करना। 1793 से पूर्व मालगुजारी की रकम घटती-बढ़ती रहती थी। इससे कंपनी की आय, अस्थिरता का शिकार होती रहती थी। खेती पर भी ठेकेदारी प्रथा का बुरा असर पड़ रहा था क्योंकि न तो रैयत और न ही जमींदार इसमें सुधार का उपाय करते थे। कार्नवालिस के मतानुसार स्थायी बंदोबस्त के बहुत से लाभ थे। जैसे सरकार को निश्चित रकम मिलेगी, रैयतों को लाभ पहुंचेगा, बंजर भूमि का विकास होगा आदि। मूल रूप से आर्थिक निश्चिंतता की बात थी, लेकिन इसके परिणाम कुछ और निकले।
स्थायी बंदोबस्त में जमींदारों को मालिकाना हक दिया गया था और एक निश्चित रकम सरकार को चुकाने की जिम्मेदारी दी गयी थी। इससे अधिकतर जमींदारों ने भूमि-सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उनका लक्ष्य केवल अधिकतम लगान वसूल करने पर केन्द्रित था। कृषकों की दशा सुधरने के बजाए बिगड़ती गई। वे भूमि के स्वामित्व से सदा के लिए वंचित हो गये। जमींदार अब दूर नगरों में रहने लगे और अपने कारिंदों द्वारा लगान वसूल करवाने लगे। वे दूरवर्ती शोषणकर्ता बन गए। इस प्रकार कृषकों और सरकार के बीच बहुत से मध्यस्थ उत्पन्न हो गये जिनका उद्देश्य किसानों से अधिक से अधिक लगान वसूल करना था। भूमि को बेचने की वस्तु बना दिया गया था। भूमि के स्वामित्व के बदलते रहने से कृषकों की दुर्दशा हुई और भूमि सुधार लाना असंभव हो गया। इन सब शोषणों का जिम्मेदार सरकार को माना गया।
जिस समय स्थायी बंदोबस्त किया गया उस समय लगान-दर जल्दीबाजी में तय की गई। स्थायी भूमिकर तय करते समय भूमि तथा उत्पादन के भावी मूल्य बढ़ने की ओर ध्यान नहीं दिया गया। इनके मूल्य बढ़ने पर भी सरकार की आय नहीं बढ़ाई जा सकती थी। अतिरिक्त आय का लाभ जमींदारों को मिला। वित्तीय दृष्टि से अंग्रेजी सरकार को दीर्घकालीन घाटा हुआ। जो भूमि कर 1793 में निर्धारित किया गया था, वही रकम 1947 तक चलती रही। इस प्रथा में ‘सूर्यास्त कानून’ जिसमें निश्चित तिथि के सूर्यास्त तक रकम न जमा करने पर जमींदारी छीन जाती थी, के कारण साहूकारों का अस्तित्व बना रहा। हां, अंग्रेजों को एक लाभ यह हुआ कि उन्हें जमींदारों के रूप में नये समर्थक प्राप्त हुए, जो भविष्य में भारतीय समाज के शोषण में उनके साथी बने रहे।
Question : उन्नीसवीं सदी में भारतवर्ष के सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले ब्रिटिश राज्य के प्रभाव की समीक्षा कीजिए।
(2004)
Answer : 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा भारत पर आधिपत्य ने भारतीय सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला। यह प्रभाव विभिन्न रूपों में दृष्टिगत होता है। सामाजिक जीवन पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ा। देश पर जैसे-जैसे अंग्रेजों का आधिपत्य बढ़ा, शोषण की गति तेज होती गई और देश का आधार हिलने लगा। इसका भारत के सामाजिक जीवन पर घातक प्रभाव पड़ा। ऐसी स्थिति में आर्थिक विपन्नता के साथ सामाजिक कुरीतियां, भेदभाव एवं धार्मिक अंधविश्वास बढ़ते गए। इससे सामाजिक जन-जीवन कई प्रकार से प्रभावित हुआ। एक तो अंग्रेजी राज्य ने भारतीय सामाजिक संस्थाओं की कुछ गंभीर कमजोरियों व खामियों को उभार कर सामने रख दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक व्यक्तियों और आन्दोलनों ने सामाजिक सुधार व पुनरुत्थान की दृष्टि से सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में परिवर्तन लाना शुरु किया। दूसरा अंग्रेजी राज्य के कारण पश्चिमी आधुनिक संस्कृति का भारत पर प्रभाव तेजी से बढ़ा ओर समाज में अनेक परिवर्तन हुए। तीसरा अंग्रेजी सरकार ने अनेक सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध सुधारकों को समर्थन प्रदान किया तथा अनेक सुधार कानून भी पारित किये। चौथा अंग्रेजों द्वारा भारत में शिक्षा के विकास, रेलवे-परिवहन तथा संचार के साधनों के विकास, न्याय तथा कानून की पद्धति के विकास आदि कार्यों द्वारा भारतीय समाज पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़े। इससे भारतीय समाज में व्याप्त अनेक प्रकार के अंधविश्वास और बुराईयों को समाप्त करने में सहायता मिली। अंग्रेजों के खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा तथा सोच का भी भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ा।
विदेशी शासन के प्रतिक्रिया स्वरूप उदित हुए संस्थाओं एवं व्यक्तियों ने भारतीय समाज के अंधविश्वास, अंध भाग्यवाद, कूपमंडूकता, जाति-प्रथा, ऊँच-नीच के भेदभाव, अछूत परंपरा आदि पर कठोर प्रहार किया। उन्होंने इन सब बुराईयों के विरूद्ध संगठित आंदोलन चलाया। इसका समाज पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इन सामाजिक सुधार संस्थाओं एवं व्यक्तियों पर पाश्चात्य विचारों का भी प्रभाव था। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और इसके साथ औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा के प्रचार-प्रसार ने भारतीयों को आत्मनिरीक्षण और आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित किया। 19वीं सदी में भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश और उसके साथ आए उदार विचारों ने भारतीयों को आंदोलित किया। अब श्रद्धा और विश्वास की जगह तर्क और निर्णय ने ले लिए। अंधविश्वास विज्ञान के सामने नतमस्तक हुआ, जड़ता का स्थान प्रगति ने लिया और सामाजिक रूढि़यों पर तार्किक दृष्टिकोण आरूढ़ हुआ। ये सारे सुधार सामाजिक आंदोलनों के परिणाम थे। सामाजिक सुधार आंदोलन के पक्षधर प्रमुख व्यक्ति राजा राम मोहन राय, देवेन्द्रनाथ टैगोर, केशवचन्द्र सेन, राणाडे, कर्वे आदि थे। राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने भारतीय समाज की अनेकानेक कुरीतियों तथा सती-प्रथा, बाल-विवाह, बहू-विवाह, जाति-प्रथा, अस्पृश्यता आदि का प्रबल विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह जैसे सकारात्मक कार्यों के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। प्रार्थना समाज, थियोसोफिकल सोसायटी आदि संगठनों ने इसी प्रकार योगदान दिया।
समाज सुधारकों का ध्यान सबसे पहले स्त्रियों की दशा-सुधारने की ओर गया। राममोहन राय के प्रयासों से अंग्रेजी सरकार ने 1829 में कानून द्वारा विधवाओं को जीवित जलाना बंद कर दिया तथा न्यायालयों को आदेश दिया कि वे ऐसे मामलों में हत्या का मुकद्दमा चलाएं। इससे सती प्रथा जैसी अमानवीय बुराइयों को दबाने में मदद मिली। बालिका शिशुवध की क्रूर प्रथा भी समाज के कुछ वर्गों में व्याप्त थी। इसके विरूद्ध भी सरकार ने कानून बनाया तथा शिशु हत्या को हत्या का अपराध घोषित किया गया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से 1856 ई. में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ और विधवा विवाह को वैध मान लिया गया। भारतीय समाज में यह बहुत बड़ा परिवर्तन था। समाज सुधारकों के प्रयासों से 1872 में बाल-विवाह विरोधी कानून ‘नेटिव मैरिज एक्ट’ पारित हुआ जिसमें 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित कर दिया गया तथा बहुविवाह को भी गैर-कानूनी घोषित किया गया। समाज सुधारकों के अतिरिक्त सरकार ने भी स्त्री शिक्षा के लिए कदम उठाये। 1854 ई. में चार्ल्स वुड के पत्र में भी स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया गया। यद्यपि सरकार ने नारी के उत्थान के लिए अनेक कानून बनाए परंतु इसका वास्तविक लाभ बहुसंख्यक नारियों को नहीं मिल सका। इसके बावजूद समाज में नारी उत्थान से संबंधित सुधार के प्रयासों को बल मिला।
तत्कालीन समाज में जाति प्रथा और छुआछूत बहुत गहरे तक फैला हुआ था। विभिन्न जातियों, विशेषकर ऊंची और नीची जातियों में काफी भेदभाव और वैमनस्य था और सामाजिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। आर्थिक एवं सामाजिक विकास के सभी साधन ऊंची जातियों के हाथ में थे, अतः नीची जातियों का बहुसंख्यक भाग हर दृष्टि से पिछड़ा रह गया था। अंग्रेजी शासन के दौरान कुछ ऐसी शक्तियां उत्पन्न हुईं जिन्होंने जातीय एवं अन्य सामाजिक भेदभाव की भावना पर सशक्त प्रहार किया। अंग्रेजों के आगमन के साथ-साथ आधुनिक उद्योग, शहरीकरण और यातायात के नये साधनों ने जातिप्रथा और अन्य सामाजिक भेदभावों पर घातक प्रहार किया। इन तत्वों ने सामूहिक, व्यक्तिगत संपर्क को अवश्यंभावी कर दिया। विभिन्न उद्योगों में आर्थिक लाभ के सुअवसर ने विशेषकर ऊंची जातियों को किसी भी उद्योग को शुरू करने के लिए बाध्य किया। अब पैसे के लिए ब्राह्मण भी चमड़े या जूते का व्यापार कर सकता था। अंग्रेजी प्रशासनिक व्यवस्था के साथ भारत में कानून का शासन और कानून के सम्मुख समानता के सिद्धांत का प्रवेश हुआ। इससे सामाजिक समानता को बल मिला और जातिवाद और असमानता की भावना को धक्का लगा। न्यायालयों की स्थापना ने जातीय पंचायतों के कार्य को खत्म कर दिया। दूसरी ओर अंग्रेजी सरकार की नीति से सरकारी नौकरियों और सेना के द्वार सभी जातियों के लिए खुल गये। अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी जाति बंधन को कमजोर किया। इससे नीची जातियों में जागृति आई। उन्हें मौलिक मानवाधिकार का ज्ञान हुआ और वे स्वयं अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आने लगे। इस प्रकार उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के सदियों से चले आ रहे शोषण के विरूद्ध एक शक्तिशाली आंदोलन जोर पकड़ने लगा। इन सब मुद्दों पर अंग्रेज बड़े सतर्क और लगभग चुप थे क्योंकि वे अपने समर्थक रूढि़वादी वर्ग को नाराज नहीं करना चाहते थे।
अंग्रेजों के प्रभाव से सामाजिक शिष्टाचार, पहनावा, भोजन खाने के व्यवहार, गृह उपकर, निजी स्वास्थ्य व्यवहार, आमोद-प्रमोद, क्रीड़ा तथा मनोरंजन आदि सभी में कुछ न कुछ परिवर्तन आये। ये परिवर्तन अब हमारे जीवन का अंग भी बन गये हैं। कोट, पैंट, शर्ट, टाई का प्रयोग, भोजन में मेज-कुर्सी तथा छुरी-कांटे, चम्मच का प्रयोग अंग्रेजों की ही देन है।
अंग्रेजी सरकार ने 1857 के विद्रोह के पहले सामाजिक सुधार हेतु अनेक प्रयास किये परन्तु विद्रोह के पश्चात वह भारतीयों की सामाजिक मुद्दों पर हस्तक्षेप कर भारतीयों को नाराज नहीं करना चाहती थी। वस्तुतः अंग्रेजी साम्राज्यवादी शोषण को भारत मे कायम रखने के लिए भारतीयों के पिछड़ेपन को बरकरार रखना जरूरी था। इसके बावजूद अंग्रेजों के समर्थन से तथा शोषण के प्रतिक्रिया स्वरूप समाज में अनेक परिवर्तन आये।
Question : 1947 और 1964 के बीच तटस्थता (छवद-।सपहदउमदज) की भारतीय विदेश नीति का विश्लेषण कीजिए।
(2004)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय विदेश नीति का आधार ‘गुटनिरपेक्षता’ (छवद-।सपहदउमदज) थी। 1946 में अंतरिम प्रधानमंत्री का पद संभालने के पश्चात जवाहर लाल नेहरू ने जिस विदेश नीति की घोषणा की थी वह आगे चल कर गुट-निरपेक्षता की अवधारणा के रूप में विकसित हो गई। उस काल में विश्व दो गुटों में बंटा हुआ था- एक अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी या लोकतांत्रिक गुट था तथा दूसरा सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी या पूर्वी गुट था। भारतीय विदेश नीति की गुट-निरपेक्ष अवधारणा का अर्थ था, गुटों का राजनीति से दूर रहना, दोनों गुटों के साथ मैत्री रखना, किसी के साथ भी सैनिक संधियां न करना और एक स्वतंत्र नीति का विकास करना। 1947 के पश्चात भारत ने अपने अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के संचालन में और विशेषकर दो महाशक्तियों के प्रति अपनाई गई नीतियों के परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह स्वतंत्र रहकर कार्य किया। भारत ने सदा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए कार्य किया।
तत्कालीन समय में दोनों गुटों में शीत युद्ध चल रहा था। दोनों गुट नवोदित राष्ट्रों को अपने पक्ष में कर अपनी शक्ति बढ़ाने में विश्वास रखते थे। एक लम्बे संघर्ष के पश्चात 1947 में भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति मिली थी। स्वतंत्रता संघर्ष के काल में ही भारत विदेशी राष्ट्रों की भूमिका से परिचित हो चुका था। स्वतंत्रता पश्चात भारत के समक्ष अनेक समस्यायें थीं। एक समस्या अपनी स्वतंत्रता को बचाये रखने की भी थी। बिना किसी स्वतंत्र विदेश नीति के कोई राष्ट्र गरिमापूर्ण स्थिति में नहीं रह सकता, इस तथ्य से भारत के नेतागण परिचित थे। किसी भी गुट से पूर्ण रूप से जुड़ने का अर्थ थाµ पुनः दासता के बधंन में बंधना। इससे भारत का विकास भी बाधित हो सकता था। इसी परिप्रेक्ष्य में 1947 के पश्चात भारत ने एक सकारात्मक गतिशील तटस्थता की विदेश नीति को अपनाया, जिसमें देश स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय करता है। यह बहुत ही सोच समझकर किया गया निर्णय और सुनियोजित नीति थी। इसका अंतिम उद्देश्य राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि, भारत की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता की रक्षा और भारत तथा अन्य विकासशील देशों का आर्थिक विकास करना था।
भारत की गुटनिरपेक्षता की विदेशी नीति सकारात्मक अर्थों में थी, अर्थात वह संसार की राजनीति से दूर नहीं जाना चाहता था। अपने हितों के लिए बिना गुट में शामिल हुए संसार से आवश्यकतानुसार जुड़ना चाहता था। 1947 से 1954 ई. तक भारत का झुकाव आमतौर पर अमेरिका और उसके मित्र देशों की तरफ था। भारत गणराज्य बन जाने पर भी राष्ट्र मंडल का सदस्य बने रहने का निर्णय किया था। 1949 में नेहरू अमेरिका गए और ब्रिटेन की प्रशंसा की। उस समय भारत का अमरीका की ओर झुकाव के कारण थे-रक्षा उपकरणों तथा सैन्य प्रशिक्षणों के लिए ब्रिटेन पर निर्भरता, ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली के प्रति सहानुभूति आदि। इसके अतिरिक्त एक बड़ा कारण यह था कि भारत के व्यापारिक संबंध अधिकतर पश्चिमी देशों के साथ थे और भारत अपने आर्थिक विकास के लिए पश्चिम से प्राप्त होने वाली आर्थिक सहायता पर निर्भर था। जबकि उस समय सोवियत संघ की नीति विकासशील देशों को सहायता देने के पक्ष में नहीं थी। उस समय मलाया और हिंद-चीन के साम्राज्य-विरोधी आंदोलन के प्रति भी भारत चुप्पी साधे रहा। 1950 में उत्तर कोरिया को आक्रामक घोषित करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए सोवियत संघ ने भारत की आलोचना भी की। पश्चिम की ओर भारत का झुकाव होने के बावजूद भारत की नीति आमतौर पर गुट-निरपेक्ष की ही रही। नेहरू जी के नेतृत्व में भारत ने पूर्व और पश्चिम के बीच सेतु बनाने का प्रयास किया था। भारत ने जब जिस देश को सही पाया उसका समर्थन किया। कोरिया युद्ध में भारत ने अमरीकी सेनाओं द्वारा चीन पर संभावित आक्रमण का खुल कर विरोध किया। 1949 में ही भारत ने चीन को मान्यता प्रदान कर दी। फिर भी स्टालिन के काल तक भारत और सोवियत संघ के बीच पूर्ण मैत्री नहीं हो सकी। भारत ने जब साम्यवाद-विरोधी सैन्य गठबंधन तथा दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन का सदस्य बनना अस्वीकार कर दिया तब सोवियत गुट के साथ भारत का संबंध अच्छा बनना आरंभ हुआ।
1954 के पश्चात सोवियत नेता ख्रुश्चेव के काल में भारत का संबंध सोवियत संघ से मधुर रहा। सबसे मैत्री संबंध रखने की भारत की नीति के कारण अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने गुट-निरपेक्षता की नीति का पुनः मूल्यांकन किया। 1954 में चीन के साथ भी पंचशील के प्रसिद्ध समझौते की घोषणा हुई। इस तरह चीन के साथ भी भारत का मधुर संबंध बन गया। भारत के हिन्द-चीन संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह के कारण उस देश में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए जिस आयोग का गठन किया गया, भारत को उसका अध्यक्ष बनाया गया। इसी बीच अमेरिका समर्थित दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन का पाकिस्तान द्वारा सदस्य बन जाने के कारण तथा भारत की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया। भारतीय आपत्तियों को अमेरिका ने खारिज कर दिया। इस नए सैनिक गठबंधन से भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर बढ़ गया। 1956 में जब स्वेज नहर के प्रश्न पर मिड्ड पर ब्रिटेन, फ्रांस और इजराइल ने आक्रमण कर दिया तब भारत ने इस आक्रमण की कड़ी निंदा की। वहीं जब हंगरी के विद्रोह को सोवियत संघ ने कुचल कर नई सरकार की स्थापना की, तब भारत ने सोवियत हस्तक्षेप की मामूली सी आलोचना की। भारत के इस दृष्टिकोण ने पश्चिमी देशों को असंतुष्ट कर दिया। 1961 में एक ओर भारत गुट-निरपेक्ष आंदोलन आरंभ की तैयारी कर रहा था, वहीं गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराने के लिए सैन्य कार्यवाही भी की। पश्चिमी देशों ने इस सैन्य कार्यवाही को ‘नग्न आक्रमण’ कह कर निंदा की जबकि भारत ने इसे राष्ट्रीय हित में बताया। इस आलोचना के बावजूद कि भारत के सोवियत संघ की ओर झुकाव से गुट-निरपेक्षता की नीति के साथ समझौता हुआ है, भारत पूरी निष्ठा से गुट-निरपेक्षता के मार्ग पर चलता रहा। 1955 में बांडुंग में एशिया-अफ्रीकी देशों के सम्मेलन में तथा 1961 में बेलग्रेड के प्रथम गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भारत ने प्रमुख भूमिका निभाई। 1960 में संयुक्त राष्ट्र की प्रार्थना पर कांगों में शांति स्थापना के लिए भारत ने अपनी सेना भी भेजी।
1962 में भारत पर चीन के आक्रमण से न केवल भारत की प्रतिष्ठा और विदेश नीति को धक्का लगा बल्कि इससे गुट-निरपेक्षता की नीति पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया। बहुसंख्यक गुट-निरपेक्ष देशों ने चीनी आक्रमण की निंदा नहीं की। सोवियत संघ ने भी अपेक्षित सहयोग नहीं दिया। परंतु ब्रिटेन और अमेरिका ने सहायता की पेशकश की। भारत में भी बदली हुई परिस्थितियों में गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति को चुनौती मिलने लगी। चीनी आक्रमण से स्पष्ट हो गया कि यह नीति आक्रमण को रोक नहीं सकती। इसके बावजूद नेहरू जी ने गुट-निरपेक्षता की नीति को त्यागने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि भारत इस नीति पर रहते हुए ही दोनों गुटों से आर्थिक सहायता तथा आसान शर्तों पर ऋण ले सकता है। उनकी नजर में गुट निरपेक्षता त्यागने का अर्थ स्वतंत्रता खो बैठना था। परंतु अब भारत यथार्थ की ओर झुकने लगा। भारत अब दोनों महाशक्तियों से बराबर की दूरी के सिद्धांत को छोड़कर दोनों के साथ बराबरकी निकटता के अनुसार कार्य करने लगा। अब केवल इसे राजनीतिक सिद्धांत के रूप में देखा जाने लगा।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि भारत की गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति पृथकतावाद अथवा तटस्थता की नीति नहीं थी। भारत गुट निरपेक्षता के सकारात्मक स्वरूप को अपनाया। 1947 से 1964 के काल में यह नीति भारत के लिए एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सिद्धांत के अतिरिक्त नैतिक सिद्धांत भी बनी रही। यथार्थवादी अंतराष्ट्रीय राजनीति को थोड़ा नजरदांज भी कर दिया गया। इसके बावजूद नेहरू जी की मृत्यु तक भारत गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति पर चलता रहा।
Question : अंग्रेजों की प्रारंभिक भूमि नीति का उत्तरी भारत के ‘ग्रामीण समुदायों’ पर क्या प्रभाव पड़ा था?
(2003)
Answer : अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था थी। भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे और प्राचीन ग्राम समुदाय में खेती और दस्तकारी साथ-साथ चलती थी। परंतु मुख्य व्यवसाय में कृषि कार्य ही था। राज्य तथा जनता की आय का प्रमुख साधन भू-राजस्व तथा कृषि थी। गांव के उत्पादन का मुख्य भाग राज्य के लगान के रूप में दिया जाता था और उसका एक अंश बाहर शहरों में बेचने के लिए भेजा जाता था। ग्राम एक ऐसा समुदाय था जिसमें कार्य प्रथा परंपरागत रीतियों से ही निर्धारित किये जाते थे। बिना जोती हुई भूमि बहुत मात्र में उपलब्ध होने के कारण इसका मूल्य कुछ अधिक नहीं था। शासक और ग्रामवासी दोनों ही भूमि के उपयोग में रुचि रखते थे और इनमें से किसी को भी भूमि के स्वामित्व की चिंता नहीं थी। अंग्रेजों के आने से पहले मुगल शासकों की भूमि-व्यवस्था के अनुसार मुगल सम्राट से किसी क्षेत्र के जमींदार या सामंती अधिकार सम्राट को राजस्व का वायदा करके प्राप्त किये जा सकते थे। मुगल शासकों के काल में भू-राजस्व नीति इस प्रकार निर्धारित होती थी जिससे कि कृषक जनता बिना अधिक बोझ महसूस किये लगान अदा कर सके और कृषि कार्य भी कर सके। उनका उद्दश्ेय ग्रामीण व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का नहीं होता था। क्षेत्रीय शासकों अथवा जमीदारों का उद्देश्य भी कमोबेश ग्रामीण व्यवस्था तथा कृषकों के हितों की रक्षा करते हुए ही भू-राजस्व निर्धारित करने का होता था। किंतु अंग्रेजों ने इस नीति को परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कभी भी भारत को अपना देश समझा ही नहीं। उनका उद्देश्य अधिक से अधिक धन संग्रह कर इंग्लैंड भेजना था। अतः इनके लिए जमींदारी का अर्थ अधिक से अधिक पैसे बटोरना ही था।
1759 में कलकता और 24 परगनों के नये जमींदार अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी ने जमींदारी अधिकारों की नीलामी शुरू कर दी और ये अधिकार सबसे अधिक बोली दिये जाने वालों को मिलने लगे। राजस्व की बोली अधिक होने के कारण वे किसानों का शोषण करने लगे और इस कारण कई किसान भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। इस तरह एक नये जमींदार वर्ग का उदय हुआ जिसका उद्देश्य किसानों से अधिक से अधिक धन बटोरना था।
1765 में उन्होंने मुगल सम्राट से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। चूंकि कंपनी की मांगें असीमित थीं और कम से कम समय में अधिक से अधिक धन प्राप्त करना चाहती थी। इसलिए उसने इन जमींदारियों की भी नीलामी शुरू कर दी। इसके परिणाम ग्रामीण समुदाय पर अत्यंत घातक पड़े और 1770 में बंगाल के भीषण अकाल ने ग्रामीणों की कमर तोड़ दी। अभी तक कंपनी यह राजस्व बंगाल के दीवान के द्वारा ही प्राप्त करती थी। वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता प्रेसीडेंसी का गवर्नर बनने के बाद ये अधिकार डिप्टी नवाब से छीन लिए और इस तरह 1772 से भू-राजस्व एकत्रित करने और उसकी अदायगी के लिए उत्तरदायित्व निश्चित करने की दिशा में परीक्षण और मूलसुधार की पद्धति का आरंभ किया। उसने समस्त भूमि का मालिक सरकार को माना और जमींदारों को केवल बिचौलिया। 1772 में उसने पंचवर्षीय बंदोबस्त किया। जिसका अर्थ था प्रत्येक जमींदार पर मालगुजारी पांच वर्ष के लिए निश्चित कर दी जाये और मालगुजारी वसूल करने का ठेका उसी व्यक्ति को दिया जाय जो सबसे अधिक बोली दे सके। इस प्रकार पुराने जमींदार को नये जमींदारों के स्तर पर ही रखा गया ताकि भू-राजस्व के रूप में अधिक-से-अधिक पैसा प्राप्त हो। बंगाल की अधिकतर भूमि नये लोगों को मिल गयी। इसके परिणामस्वरूप पुराने जमींदार भूमि से अलग हो गये और जमींदारों और काश्तकारों के बीच पूर्व स्थापित संबंध टूट गया। इस प्रणाली की सबसे गहरी चोट खेतिहरों के ऊपर ही है। क्योंकि अंततः अधिक कर निर्धारण और नये जमींदारों के शिकार वे ही हुए। इसका फल हुआ-किसानों द्वारा रैयतों का पूर्ण निष्कासन और दमन, कर्त्तव्यच्युत जमींदार, कृषि कार्य छोड़ते किसान और काम से भागते रैयत। यह उत्तरी भारत के ग्रामीण संगठन में पहली दरार थी।
1777 में जब इसके परिणाम हानिकारक सिद्ध हुए तो हेस्टिंग्स ने एक वर्षीय बंदोबस्त किया। लेकिन ग्रामीण जनता पर अत्याचार जारी रहे और भू-राजस्व से सरकार की आय भी निश्चित हो सकी इसलिए भूमि स्थायी बंदोबस्त की ओर कदम बढ़ाया गया। 1793 में कार्नवालिस ने स्थायी बंदोबस्त की घोषणा की। इस बंदोबस्त के द्वारा जमींदार को उसकी भूमि का स्वामी मानकर उसे भूमि के समस्त अधिकार दे दिये गये। जमींदार को पूरे लगान का 10/11 भाग सरकार को देना पड़ता था। इस व्यवस्था के अंतर्गत राजस्व की आय इतनी ऊंची थी कि जमींदारों और काश्तकारों के लिए बहुत ही कष्टकर और सरकार के लिए यह विशेष लाभदायक सिद्ध हुई। उत्तर भारत में स्थायी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था) इसके अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों में महालवाड़ी व्यवस्था भी लागू की गयी। महालवाड़ी व्यवस्था भी जमींदारी व्यवस्था का ही संशोधित रूप थी। इसमें प्रति खेत के आधार पर राजस्व निश्चित किया गया, बल्कि प्रत्येक महाल (गांव या जागीर) के अनुसार निश्चित किया गया। राजस्व वसूली का काम ग्राम प्रधानों या जमींदारों पर छोड़ दिया गया। इसमें ग्राम ही भूमि का मालिक था।
अंग्रेजों की इन प्रांरभिक भूमि नीतियों का उत्तरी भारत के ‘ग्रामीण समुदायों’ पर सम्मिलित रूप से निम्न प्रभाव पड़ाः
जमीन का हस्तांतरणीय बननाः अंग्रेजी सरकार की भूमि- नीति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि जमीन अब आसानी से एक हाथ से दूसरे के हाथों में बेची या गिरवी रखी जा सकती थी। अगर जमींदार समय पर निर्धारित रकम कंपनी को नहीं देती तब उसकी जमींदारी वाली भूमि बेचकर दूसरे जमींदारों को दे दिया जाता। उधर किसान भी राजस्व की उच्च रकम देने के बदले भूमि बेचना शुरू कर दिया। अगर ऐसी व्यवस्था नहीं होती तो सरकार के लिए लगान वसूल करना कठिन हो जाता। इससे अंग्रेजों को लाभ तो हुआ, परंतु ग्रामीण सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा। इसके चलते संयुक्त परिवार टूटने लगे और मुकदमेंबाजी का विकास हुआ।
भूमि को पूंजी विनिमय का साधन बनानाः सरकारी कृषि नीति का दूसरा महत्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि अब जमीन पर स्वामित्व प्राप्त होने से लोगों का आकर्षण जमीन की तरफ बढ़ने लगा। इस समय तक कुटीर-उद्योग विनाश के कगार पर पहुंच चुके थे। दस्तकार लोग भी अब कृषि कर्म की ओर उन्मुख होने
लगे। इससे भूमि पर दबाव बढ़ गया। महाजनों एवं साहूकारों ने अब जमीन को ठेका पर लेने लगे। वे ऋण अदा नहीं कर पाते थे। तब महाजन किसान की जमीन नीलाम करवाकर उस पर अपना कब्जा कायम कर लेता था। इस प्रकार धीरे-धीरे महाजन वर्ग, भूमिपति वर्ग बनता गया और किसान अपनी जमीन खोकर मजदूरों की श्रेणी में आ गया।
किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़नाः नयी भूमि व्यवस्था किसानों को दरिद्र बनाकर उन्हें कर्ज के बोझ तले दबा दिया। जमींदारों और सरकारी शोषणों के शिकार किसान के पास भूमि के पैदावर का बहुत कम ही अंश बच पाता था। सूखे या बाढ़ के चलते जब फसलें मारी जाती थीं तब उसकी दशा और भी दयनीय हो जाती थी। बाध्य होकर उसे कर्ज लेना पड़ता था। कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में उसे अपने मालिक की बेगारी करनी पड़ती, अपना खेत गिरवी रखना पड़ता और अंत में उसे बेचकर भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में स्थान लेना पड़ता। फलतः किसानों की अवस्था लगातार बिगड़ती चली गयी।
उत्पादन में कमी-जमीन को हस्तांतरणीय और विभाज्य बनाकर उसे विखंडित कर दिया गया। जमीन के छोटे टुकड़ों में कृषि के परिष्कृत एवं नवीन साधनों का प्रयोग संभव नहीं था। परिणामस्वरूप, उत्पादन में लगातार कमी आती चली गयी। इसका दुष्परिणाम भी किसानों को ही भुगतना पड़ा।
कृषि उत्पादनों का निर्यात-अंग्रेजी भूमि नीति के चलते सरकार को खाद्यानों एवं कच्चे मालों के निर्यात की सुविधा प्राप्त हुई। जिनकी इंग्लैंड में आवश्यकता थी। वस्तुतः सरकार जमींदारों के माध्यम से किसानों से वैसी फसल पैदा करवाती थी जिसका निर्यात कर सरकार मुनाफा कमा सकती थी या अपने यहां के उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध करा सकती थी। जैसे रूई, पटसन, नील, अफीम, चाय इत्यादि। किसान भी इन्हें इसलिए उपजाने के लिए बाध्य होता था, क्योंकि इनसे उसे तत्काल धन उपलब्ध हो जाता था जो लगान चुकाने के लिए आवश्यक था। इससे खाद्यान्न की कमी का सामना ग्रामीण समुदाय को करना पड़ता था।
भुखमरी और अकाल का बढ़ता प्रकोप: अंग्रेजी नीति ने कृषि के वाणिज्यीकरण को बढ़ावा दिया। वाणिज्यकीरण के फलस्वरूप खाद्यान्न की जगह नकदी फसल उत्पादन करने पर किसानों को मजबूर किया जाता था। दूसरी ओर कृषक भी लगान समय पर अदा करने हेतु नकदी फसल उगाने पर ही बल देते थे। ऐसे में खाद्यान्न का अभाव पैदा हुआ जिससे भुखमरी और अकाल की लंबीशृंखला शुरू हुई।
इस प्रकार अंग्रेजी भू-राजस्व नीति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के ग्रामीण समुदाय पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। समाज में जमींदार एवं साहूकार प्रधान बन गये। भूमिहीन श्रमिकों की संख्या बढ़ गयी। कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ और जमीन पर बोझ बढ़ गया। इससे देश की तत्कालीन भूमि-व्यवसथा में एक बुनियादी परिवर्तन आया। भारतीय गावों की निरंतरता टूट गयी। वस्तुतः ग्रामीण समाज का पूरा ढांचा टूटने लगा।
Question : ‘दूरवासी जमींदारी प्रथा बंगाल के स्थायी भूमि बंदोबस्त का एक परिणामी अभिलक्षण थी।’
(2003)
Answer : दूरवासी जमींदारी से तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जिसमें कोई कथित भू-स्वामी (जमींदार) अपने अधिकृत जमींदारी से दूर रहकर बिचौलिये के माध्यम से कृषि कार्य संपन्न करवाता है। यह सर्वप्रथम ब्रिटिश काल में देखा गया था। विशेषतया उन क्षेत्रों में जहां स्थायी भूमि बंदोबस्त प्रणाली लागू की गयी थी।
कार्नवालिस द्वारा 1793 ई. में स्थायी भूमि बंदोबस्त प्रथा बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में लागू किया गया था। इसमें भू-स्वामित्व जमींदारों को सौंपी गयी थी। हालांकि उन पर कई तरह के प्रतिबद्धताएं थोप दी गयी थी। यथा, जमींदारों को निश्चित लगान जो कुल का 10/11 हिस्सा होता था। तय सीमा के भीतर कंपनी को जमा कराना होता था। कंपनी का इससे कोई सरोकार नहीं होता था कि क्षेत्र विशेष में अकाल या अन्य किसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण अनाज का उत्पादन आशानुरूप नहीं हुआ है। स्थायी बंदोबस्त के तहत राजस्व की दर इतनी ऊंची रखी गयी थी कि जमींदारों और काश्तकारों के लिए उस तय रकम को निश्चित अवधि में चुका पाना कष्टकारी हो जाता था। ऐसे में इस प्रथा के सूर्यास्त नियम के तहत लगान जमा न कराने की स्थिति में उनकी जमींदारी को नीलामी कर दी जाती थी। उल्लेखनीय है कि इस नीलाम जमींदारी के क्रय करने वाले वे शहरी बनिये या व्यापारी होते थे जिनका दूर-दूर तक काश्तकारी से कोई संबंध नहीं होता था। ये दूरवासी जमींदार कृषकों की खोज-खबर उस समय लेते थे जब उन्हें लगान वसूल करना होता था। कृषकों की अवस्थिति से इनका कोई लेना-देना नहीं होता था। इनका एकमात्र उद्देश्य अपने बिचौलिये के माध्यम से तय सीमा के भीतर राजस्व वसूल कर कंपनी को जमा कराना था ताकि वे अपनी जमींदारी सुरक्षित रख सकें। परवर्ती काल में ये प्रवासी शोषक के रूप में जाने गये। क्योंकि कंपनी राजस्व का निर्धारण कृषकों से न कर दूरवासी जमींदारों से करते थे। कृषकों को इस तथ्य का पता तक नहीं चल पाता था कि यथार्थतः उन्हें कितना लगान चुकाना है। इसका लाभ जमींदार उठाते थे जो अपने गुमाश्तों के माध्यम से मनमाना रकम वसूलते थे। शुरू में कार्नवालिस दूरवासी जमींदारी को सीमित रखना चाहता था। परंतु 22 वर्ष बाद यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बंगाल की लगभग आधी भूमि कलकत्ता के व्यापारियों एवं साहूकारों के हाथ में चली गयी है।
चूंकि स्थायी भूमि बंदोबस्त प्रथा ने भूमि क्रय-विक्रय को जन्म दिया। तत्समय क्रय करने की क्षमता व्यापारी और बनियों में थी। जो कृषि क्षेत्रों से दूर शहरों में प्रवास करते थे। अतएव कहा जा सकता है कि दूरवासी जमींदारी प्रथा बंगाल के स्थायी भूमि बंदोबस्त का एक परिणामी अभिलक्षण थी।
Question : ‘उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बार-बार होने वाले दुर्भिक्षों के परिणामस्वरूप भारत को व्यथा एवं मृत्यु का सामना करना पड़ा था।’
(2003)
Answer : उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में दुर्भिक्षों की एकशृंखला देखने को मिलती है, जो प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का परिणाम था। भारत के ब्रिटिश सरकार ने ऐसी नीतियों को लागू किया जो ब्रिटिश को संपन्नता एवं भारत को विपन्नता की ओर ले गया। इसमें भू-राजस्व की ऊंची दर, कृषि का वाणिज्यीकरण, हस्तशिल्प को आघात, धन का निकास और सबसे ऊपर रेलवे की शुरुआत प्रमुख हैं। भू-राजस्व की ऊंची दर कृषकों को शाहूकारों के पास ले गयी जो ब्याज मनमाना वसूल कर उनका शोषण करते थे। कृषि के वाणिज्यीकरण के फलस्वरूप किसानों को खाद्यान्न के बदले में नकदी फसल उगाने पर मजबूर किया, वहीं हस्तशिल्पों के पतन से कृषि योग्य भूमि के विखंडीकरण के रूप में हुई। रेलवे ने अनाजों को ब्रिटिश भेजकर प्रत्यक्ष रूप से भारत के विभिन्न भागों में अकालों को जन्म दिया।
1860-61 में दिल्ली-आगरा क्षेत्र के अकाल में लगभग दो लाख लोग काल कलवित हो गये। 1865-66 में उड़ीसा के भीषण अकाल में 10 लाख लोग मारे गये। इस अकाल का अप्रत्यक्ष प्रकोप भारत के अन्य भागों में भी देखने को मिला। यथा, बंगाल, बिहार और मद्रास में भूख से तड़प-तड़पकर 10 लाख लोगों ने अपने प्राण गवांये। इसका सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि लोग अपने-अपने पालतू जानवरों को मारकर खाने को मजबूर हुए। ऐसे अकाल भारत के अन्य क्षेत्रों में भी हुए। मद्रास, बंबई, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजपूताना में फैले अकाल ने 10 लाख लोगों को अपने चपेट में ले लिया। परंतु सबसे भीषण अकाल दक्षिण भारत के अधिकांश भागों के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में 1876-78 ई. में दृष्टिगोचर हुए। मरने वालों की अनुमानित संख्या 50 लाख थी। कहा जाता है कि इसके प्रभाव में लगभग ढाई लाख वर्गमील क्षेत्र में था। उल्लेखनीय है कि इन अकालों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति केवल समिति गठित करने की ही रहती थी।
इन अकालों के परिणामस्वरूप भारतीयों को मृत्यु के अलावा कई प्रकार की व्यथाओं का भी सामना करना पड़ा। अकाल के कारण अनाज के उत्पादन न होने से भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी। दूसरी ओर चारे की समस्या पैदा हुई। चारे के अभाव में पशुओं की मौत बड़ी पैमाने पर हुई। यह विदित है कि पशु कृषि अर्थव्यवस्था का आधार होता है। वस्तुतः पशुओं की मौत अधिकांश कृषकों के लिए ऐसी क्षति थी जिसकी भरपायी मुश्किल थी। ऐसे में लगान की ऊंची दर जिसे अकाल के बावजूद माफ नहीं किया जाता था, दोहरी मार था। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बार-बार होने वाले दुर्भिक्षों के परिणामस्वरूप भारत को व्यथा एवं मृत्यु का सामना करना पड़ा था।
Question : उन कारकों को अनुरेखित कीजिए, जिनके कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 1907 में फूट पड़ गयी थी। इस बात का राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा पर क्या प्रभाव पड़ा था?
(2003)
Answer : शुरुआती दो दशकों, (1885-1905) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास हुआ। इस काल में कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का प्रभुत्व रहा। अपने पहले चरण (1885-1905) में कांग्रेस का कार्यक्रम बहुत सीमित था। उनकी मांगे हल्के-फुल्के संवैधानिक सुधारों, आर्थिक सहायता, प्रशासकीय पुनर्संगठन तथा नागरिक अधिकारों की सुरक्षा तक सीमित थी। उदारवादी नेताओं की मान्यता थी कि भारत अंग्रेजों के ‘कृपापूर्ण मार्गदर्शन और नियंत्रण’ में ही प्रगति कर सकता है। उनकी नियमबद्ध प्रगति में आस्था थी। वे विकास की धीमी गति में विश्वास करते थे और क्रांतिकारी परिवर्तन के विरुद्ध थे। ब्रिटिश राष्ट्र के सहयोग और सहायता से भारत के क्रमिक विकास में विश्वास करने वाले इन उदारवादियों ने क्रांतिकारी आकस्मिक परिवर्तन और उसकी कार्यप्रणाली को स्वीकार नहीं किया और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन्होंने वैधानिक आंदोलन का रास्ता अपनाया। इसके जरिए वे एक तरफ तो जनजागरण और जन शिक्षा का विकास कर सकेंगे और दूसरी तरफ अंग्रेजों को यह समझा सकेंगे कि भारतीय जनता की मांगें न्याय संगत हैं और इनकी पूर्ति प्रशासन का जनतांत्रिक कर्तव्य है। इनका प्रारंभिक उद्देश्य यह भी था कि भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उजागर किया जाये। लोगों में राष्ट्रीयता जागृत होने के पश्चात ही ब्रिटिश विरोध की बात सोच सकते थे। इसलिए कांग्रेस की बैठक प्रत्येक वर्ष देश के अलग-अलग भागों में कराये जाते थे। उन्होंने साम्राज्यवाद के आर्थिक पहलू की कड़ी आलोचना करके लोगों में आर्थिक चेतना जागृत करने की कोशिश की। उदारवादी वैधानिक संघर्ष में विश्वास रखते थे लेकिन ये राष्ट्रीय पैमाने पर लगातार इस संघर्ष को संगठित नहीं कर सके। सिर्फ समाचार-पत्रों के द्वारा सीमित आधार पर ही कुछ कर पाये। वे अंग्रेजी शासन के मूल चरित्र को वास्तविक रूप से समझा नहीं पाये। वे ब्रिटेन और भारत के संबंधों की वास्तविक प्रगति को भी ठीक तरह से नहीं समझ सके कि भारत ब्रिटिश पूंजीवाद का उपनिवेश था और इसलिए ब्रिटेन इस देश का मुक्त आर्थिक विकास नहीं होने देगा और भारत के आर्थिक विकास को ब्रिटिश पूंजी की आवश्यकताओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। ब्रिटिश और भारतीय स्वार्थों के बीच इस वास्तविक संघर्ष को उदारवादी लोग समझ नहीं पाये।
उदारवादियों ने सरकार द्वारा उठाये गये सभी महत्वपूर्ण कदमों और नीतियों पर अपनी राय दी और उनकी गलत नीतियों की आलोचना की तथा उनका विरोध किया। इन मांगों को हर साल दोहराया गया। किंतु सरकार ने इन पर शायद ही कभी ध्यान दिया हो। उदारवादियों के दबाव में 1892 में अंग्रेजी सरकार को इंडियन कौंसिल ऐक्ट पारित करना पड़ा, लेकिन इस ऐक्ट की धाराओं से वह कांग्रेस नेतृत्व को संतुष्ट नहीं कर सकी। उदारवादी प्रार्थना-पत्रों द्वारा अपनी मांगें सरकार के समक्ष रखते थे। कांग्रेस नेतृत्व के आवेदन-निवेदन की नीति की असफलता ने देश के अंदर और कुछ किये बगैर ब्रिटिश शासकों से कुछ मिलने वाला नहीं है। उदारवादियों की नीति की असफलता ने देश के अंदर और खुद कांग्रेस के अंदर असंतोष पैदा किया। कांग्रेस के अंदर नेताओं का एक दल उभरने लगा जिसे विश्वास था कि देश के अंदर कुछ किए बगैर ब्रिटिश शासकों से कुछ मिलने वाला नहीं है। उदारवादियों की नीति की असफलता के कारण जो परिस्थितियां उत्पन्न हुईं उनसे कई नेता उभरकर सामने आये जिनकी मांगे आमूल परिवर्तन के साथ-साथ उग्रवादी थीं। सन् 1891 के विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने वाले विधेयक को लेकर बाल गंगाधर तिलक का सुधारकों से विवाद हो गया। 1893 में अरविंद घोष ने अपना नाम दिये बिना मुंबई में प्रकाशित एक समाचार पत्र में कई लेख लिखकर कांग्रेस की नीतियों की कड़ी आलोचना की। कांग्रेस की नरमपंथी नीतियों के खिलाफ 1899 से संगठित तौर पर असंतोष व्यक्त किया जाने लगा था। ‘उदारवादियों, की नीति का विरोध करने वाले ये नेतागण गरमपंथी अथवा उग्रवादी के नाम से चर्चित हो गये। 1896 में दक्षिण सभा की स्थापना से महाराष्ट्र में नरम दल और गरम दल का पूरी तरह से अलगाव हो गया, लेकिन पूरे भारत में अभी वे एक बने हुए थे।
जहां उदारवादियों को बुद्धिजीवी तथा शहरी मध्यम वर्ग से सहयोग प्राप्त था, वहां गरमपंथी नेता निम्न मध्यम वर्ग, विद्यार्थियों आदि का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे। उदारवादी सामाजिक समानता की मांग इस आधार पर करते थे कि वे ब्रिटिश सरकार की प्रजा हैं लेकिन उग्रवादियों का मनना था कि सामाजिक समानता और राजनीतिक स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। उदारवादियों ने इंग्लैंड के निवासियों से अपील की और अपने विश्वास का आधार ब्रिटिश इतिहास और अंग्रेजी राजनीतिक विचारधारा को बनाया। लेकिन गरमपंथियों ने भारतीय संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण की और धार्मिक देश भक्ति को बढ़ावा दिया।
उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति उग्रपंथियों की दृष्टि से भिक्षावृत्ति की नीति थी। वे राजनीतिक दासता से मुक्ति पाने के लिए आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी होना अत्यंत आवश्यक समझते थे जो कि स्वदेशी, बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध से प्राप्त किया जा सकता था। इस प्रकार उदारवादियों और उग्रवादियों में अंतर न सिर्फ विभिन्न तरीके अपनाने में था, वरन् इनमें कई दृष्टियों से आधारभूत अंतर था। गरमपंथी दल के प्रमुख नेता तिलक, लाजपत राय, अरविंद घोष आदि थे। गरमपंथियों को ब्रिटिश सरकार में जरा भी विश्वास नहीं था। ये कांग्रेस संगठन पर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करने लगे जिससे कि अपनी विचारधारा का प्रसार तथा अंग्रेजों पर दबाव बनाया जा सके।
बनारस कांग्रेस अधिवेशन में प्रिंस ऑफ वेल्स (जार्ज पंचम) के भारत आगमन के समय उनके स्वागत के प्रश्न पर नरमपंथी एवं गरमपंथी नेताओं में विवाद हो गया। राष्ट्रीय आंदोलन में यह उग्रधारा उस समय और जोर पकड़ गयी, जब 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। 1906 के कलकत्ता अधिवेशन के समय ‘बहिष्कार’ के अस्त्र को भारत में लागू किया जाये या सिर्फ बंगाल में, उस प्रश्न पर दोनों मतभेद हो गया। उदारवादी बहिष्कार को केवल बंगाल तक सीमित रखना चाहते थे, जबकि उग्रवादी उसे पूरे भारत में लागू करना चाहते थे। उसी तरह उग्रवादी स्वदेशी शिक्षा पर बल देते थे जबकि उदारवादी ब्रिटिश शिक्षा को सही मानते थे। 1907 के सूरत अधिवेशन में अध्यक्ष पद के विवाद के कारण कांग्रेस स्पष्टतः दो दलों-नरम दल और गरम दल में विभक्त हो गयी।
इस विभाजन ने आगे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को विभिन्न प्रकार से प्रभावित किया। विभाजन ने भारत में उग्र राष्ट्रीयता को जन्म दिया। इसी उग्र राष्ट्रीयता से अंततः क्रांतिकारी आंदोलन का भी विकास हुआ, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लेकिन इस विभाजन से दोनों दलों को परेशानी का सामना करना पड़ा। नरमपंथियों का राष्ट्रवादियों की नयी पीढ़ी से संपर्क टूट गया। ब्रिटिश सरकार ने भी ‘बांटो और राज करो’ की नीति का खूब खेल खेला तथा गरमपंथी राष्ट्रवादियों का दमन और नरम पंथियों को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न किया। यद्यपि 1907 के विभाजन से कांग्रेस पर नरमपंथियों का वर्चस्व स्थापित हो गया और गरमपंथी दल पृष्ठभूमि में चला गया, परंतु कालांतर में नरमपंथियों को भी गरमपंथी विचारधारा को आत्मसात करना पड़ा। अंततः 1916 में दोनों दलों में एकता के बाद गरमपंथी दल का ही वर्चस्व कायम हो गया और कांग्रेस की मांगें भी अधिक क्रांतिकारी हो गयीं। यह फूट कांग्रेस के लिए भी विशेष हानिकारक थी। साथ ही साथ इसने आमतौर पर राष्ट्रीय आंदोलन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला। राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। फूट के लगभग 10 वर्ष तक नरम दल उस स्थिति में नहीं आ सका, जिससे वह अंग्रेजों का प्रभावशाली ढंग से विरोध कर सकता। नरमपंथी भी उस समय की युवा पीढ़ी को अपने साथ नहीं ले सके। नतीजा यह हुआ कि नरमपंथी राष्ट्रवादी अंग्रेजी शासकों के जल में फंस गये। 1907 के बाद कांग्रेस की एकता के बिना न तो कोई बड़ा आंदोलन छेड़ा जा सका न ही राजनीतिक मांगें मनवाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत पर दबाव डाला जा सका। ब्रिटिश सरकार ने फूट का लाभ उठाते हुए मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। यही वह समय है जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तथा उसको अप्रत्यक्ष समर्थन ब्रिटिश सरकार ने दी ताकि विभाजित कांग्रेस का दमन कर सके। 1909 में घोषित संवैधानिक सुधारों ने भी नरम पंथी और गरम पंथी दोनों को बहुत निराश किया। भारतीयों में एकता को रोकने के लिए अंग्रेजों ने एक घृणित चाल चली। निर्वाचन क्षेत्रों का बंटवारा जातीय और धार्मिक आधार पर किया गया। मुसलमानों के लिए सुरक्षित सींटे आरक्षित की गयीं। इस प्रकार अंग्रेजी शासन ने फूट का लाभ उठाते हुए तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की एकता पर प्रभाव डाला। मतभेद के कारण कांग्रेस इसका कठोरता के साथ विरोधी कदम नहीं उठा सकी।
1907 के बाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक मोड़ आया। अंग्रेजी शासन के कारनामों से विक्षुब्ध बंगाल के युवकों ने व्यक्तिगत वीरता और क्रांतिकारी आतंकवाद की राह पकड़ी। नरमपंथी राजनीति अव्यावहारिक हो चुकी थी, सरकार दमन पर उतारू थी और गरमपंथी रजानीति भी असफल सिद्ध हो रही थी। क्रांतिकारी आतंकवाद के लिए गरमपंथी राजनीति भी जिम्मेदार थी। यद्यपि राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जो नीतियां व कार्यक्रम इन्होंने निर्धारित किये, वे सही थे। इन्होंने आंदोलन को महज प्रचार व प्रतिरोध तक सीमित न रखकर उसे जुझारु रूप देने की बात कही। बहिष्कार आंदोलन को विदेशी आदालतों, शिक्षा संस्थानों एवं सरकारी पदों इत्यादि के बहिष्कार तक ले जाने की घोषणा की गयी। युवकों से बलिदान के लिए तैयार रहने की अपील की गयी, सीधी कार्रवाई करने की भी घोषणा की गयी। लेकिन इनमें से किसी पर भी नीतिगत अमल नहीं किया जा सका। गरमपंथी यह तय नहीं कर पाये कि इन पर अमल के लिए क्या तरीके अपनायें जायें। वे ऐसा कोई संगठन भी नहीं बना पाये, जो आंदोलन को आगे ले जाता। युवा ऊर्जा का वे अथवा नरमपंथी तत्कालीन समय में राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उपयोग करने में असफल रहे।
Question : 1905 से 1931 तक भारत में क्रांतिकारी आंदोलन के उदय और प्रगति के कारणों का परीक्षण कीजिए।
(2003)
Answer : 20 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत में उग्रवाद के साथ-साथ उग्र क्रांतिवाद का भी विकास हुआ। क्रांतिकारी आंदोलन के उत्थान के मुख्यतः वही कारण थे, जिनसे राष्ट्रीय आंदोलन में उग्रवाद का उदय हुआ। उग्र राष्ट्रवादियों का ही एक दल क्रांतिकारी के रूप में उभरा। भेद केवल यह था कि उग्र क्रांतिकारी शीघ्र परिणाम चाहते थे। 1905 के बंग-विभाजन के बाद सरकार का दमन कांग्रेस का आपसी संघर्ष और साथ में जनता को कुशल नेतृत्व देने में नेताओं की असफलता आदि के कारण उपजी कुंठा जैसी बातों ने क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया। बंगाल के युवकों ने शांतिपूर्ण प्रतिरोध और राजनीतिक विफलता से निराश होकर क्रांतिकारी एवं उग्रवाद की राजनीति अपनायी। अब उन्हें यह भरोसा नहीं रहा कि निष्क्रिय प्रतिरोध से राष्ट्रवादी उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। वे यह देख रहे थे कि कांग्रेस के नेता सरकार के समक्ष अपनी मांगे रखते और उसे सरकार बिना विचार किये अस्वीकार कर देती। क्रांतिकारी आतंकवाद राजनीतिक गतिविधि का एक ऐसा रूप था जिसे राष्ट्रीय युवा वर्ग की अत्यधिक प्रेरित पीढ़ी ने अपनाया था। इस वर्ग को प्रचलित राजनीतिक गतिविधियों में अपनी रचनात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला था।
गरम दल द्वारा नरम दल की राजनीतिक आलोचना ने उन्हें इस बात का विश्वास दिला दिया था कि प्रार्थना तथा तर्कों द्वारा ब्रिटिश शासकों को परिवर्तित करने का प्रयास बेकार था। 1905 के बाद हुए स्वदेशी आंदोलन में युवकों ने इस आशा और विश्वास से सक्रिय रूप से भाग लिया था कि आंदोलन के उग्र तरीकों जैसे कि बहिष्कार, सत्याग्रह आदि द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को उसके विशिष्ट खांचे से बाहर निकाला जा सकेगा और उन्हें आशा थी कि इस आंदोलन द्वारा ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर किया जा सकेगा। परंतु स्वदेशी आंदोलन जनता के बहुत बड़े हिस्से को लामबंद करने में केवल आंशिक रूप से ही सफल हो सका और बंगाल विभाजन को वापस भी नहीं करा सका। इसके कारण युवा वर्ग में अशान्ति तथा निराशा की भावना आ गयी। यह वर्ग महसूस करने लगा कि जन-जागृति के लिए शायद कुछ और अधिक नाटकीय करने की आवश्यकता थी। गरम दल द्वारा आंदोलन की कमियों का विश्लेषण करने या गतिरोध में से बाहर निकल सकने के नये रास्ते सुझाने में असफलता के कारण इस भावना को और भी बल मिला।
क्रांतिकारी आंतकवाद की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलने का एक अन्य कारण सरकार द्वारा स्वदेशी आंदोलन का क्रूर दमन भी था। बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन के दौरान विरोध कर रही जनता पर पुलिस ने काफी अत्याचार किये। सूरत में 1907 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल और नरम दल में विभाजन के बाद सरकार की दमन कार्रवाई काफी बढ़ गयी क्योंकि गरम दल के दमन से नरम दल सरकार से नाराज नहीं होता। संविधान संशोधन को वायदों के लालच से नरम दल को बहका कर सरकार ने गरम दल पर पूरी तरह हमला बोल दिया। तिलक को 6 साल के लिए बर्मा में निर्वासित कर दिया, अरविंद घोष को क्रांतिकारी षडयंत्र केस में गिरफ्रतार कर लिया गया।
इस दौर में राष्ट्रवादी युवा वर्ग की एक पीढ़ी विशेषकर बंगाल में इसलिए व्यक्तिगत वीरता की कार्यवाहियों या क्रांतिकारी आतंकवाद की ओर उन्मुख हुई। इस कार्य की प्रेरणा उन्हें आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और रूसी क्रांतिकारियों से मिली। तुरंत कार्यवाही के लिए उन्होंने जो रास्ता अपनाया, वह था- ब्रिटिश अधिकारियों, विशेषकर जो बदनाम थे उनकी हत्या। वे लोगों की उदासीनता तथा डर दूर करने, राष्ट्रीय चेतना की जागृत करने तथा अधिकारियों में दहशत फैलाने के लिए करते थे। 1905 से 1912 के बीच अनेक गुप्त संस्थाएं बनीं, बहुत सी हत्याएं हुईं तथा हथियार खरीदने के लिए ‘स्वदेशी’ डकैतियां डाली गयीं। ज्ञानेंद्र नाथ बसु ने मिदनापुर में 1902 ई. में पहला क्रांतिकारी संगठन बनाया। ज्ञानेंद्र नाथ बनर्जी, वारींद्र घोष और प्रोमोथा मित्र ने अनुशीलन समिति कठित की तथा युगांतर नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकाली। इसी तरह के बड़े आतंकवादी संगठनों की स्थापना की गयी जिसमें वी.डी. सावरकर की मित्र मेला प्रमुख थी। क्रांतिकारियों के प्रमुख कार्य क्षेत्र बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब तथा मद्रास थे। धीरे-धीरे क्रांतिकारियों ने विदेश में भी अपने केंद्र स्थापित कर लिये। युवाओं द्वारा कई क्रांतिकारी कदम भी उठाये गये। चापेकर बंधुओं द्वारा कमिश्नर रैंड व एमर्स्ट की हत्या, खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी द्वारा किंग्सफोर्ड की हत्या, लंदन में मदन लाल ढ़ींगरा द्वारा कर्जन वाडेली की हत्या तथा वायसराय हार्डिंग की हत्या का प्रयास आदि क्रांतिकारी घटनाओं के माध्यम से भारतीय युवाओं ने अपने साहस का परिचय दिया। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने इनका कठोरता से दमन भी किया।
19 वीं सदी के अंत तक शिक्षित भारतीयों की संख्या में स्पष्ट वृद्धि हुई। इसका एक बड़ा भाग प्रशासन में बहुत ही कम वेतन पर कार्य कर रहा था और दूसरे बहुत से लोग बेरोजगार घूम रहे थे। अपनी आर्थिक स्थिति के कारण ये लोग ब्रिटिश सरकार के चरित्र को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने लगे। उनमें से अनेक उग्र राष्ट्रवादी नीतियों की ओर आकर्षित हुए। शिक्षित भारतीयों की संख्या जितनी बढ़ी, उतना ही लोकतंत्र, राष्ट्रवाद और आमूल परिवर्तन के पश्चिमी विचारों का प्रभाव भी फैला। ये शिक्षित भारतीय उग्र राष्ट्रवाद और क्रांतिकारी विचारधारा के बेहतरीन प्रचारक और अनुयायी सिद्ध हुए। 20 वीं सदी के आरंभ में उग्र राष्ट्रवादियों को एक अनुकूल राजनीतिक वातावरण प्राप्त हुआ। तिलक के अलावा उग्र राष्ट्रवाद के दूसरे महत्वपूर्ण नेता विपिनचन्द्र पाल, अरविंद घोष और लाला लाजपत राय ने क्रांतिकारियों को वैचारिक प्रोत्साहन दिया। तत्कालीन समाचार-पत्रों ने भी अपने लेखों द्वारा क्रांतिकारी कार्यों को सराहा जाता था।
1896 में इथोपिया द्वारा इटली की हार तथा 1905 में जापान के हाथों रूस की पराजय ने यूरोपीय श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया। एशिया के एक छोटे से देश के हाथों यूरोप की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति की पराजय ने लोगों में नये उत्साह और आत्मविश्वास का संचार किया। आयरलैंड, रूस, मिड्ड, तुर्की और जापान के क्रांतिकारी आंदोलनों तथा दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध ने भारतीयों को विश्वास दिला दिया कि अगर जनता एकजुट होकर बलिदान के लिए तैयार हो जाये तो शक्तिशाली निरंकुश सरकारों को भी चुनौती दी जा सकती है। इसके लिए जिस बात की आवश्यकता थी वह थी देशभक्ति और आत्मबलिदान की भावना। क्रांतिकारियों को इसी आत्मबलिदान की विचारधारा से प्रेरणा मिली।
1905 के बंग विभाजन के समय भारत का वायसराम लार्ड कर्जन था। कर्जन ने भारत को कभी एक राष्ट्र नहीं माना। उसकी दृष्टि से भारतीय चरित्र का मूल्य बहुत कम था। वह भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ें मजबूत करने आया था। वह कांग्रेस और राष्ट्रीयता का दुश्मन था। उसने भारतीयों को उच्च सरकारी पदों के अयोग्य करार दिया, कलकत्ता कॉर्पोरेशन ऐक्ट द्वारा इसके सदस्यों की संख्या घटा दी, भारतीय विश्वविद्यालय ऐक्ट द्वारा उच्च शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण और बढ़ा दिया तथा ऑफिशियल सीक्रेट ऐक्ट द्वारा समाचार-पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया। इन सब कार्यों का उद्देश्य था-बंगाल में राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना। लार्ड कर्जन की इन प्रतिक्रियावादी नीतियों के कारण बंगाल में उग्रवादी और सरकार विरोधी गतिविधियों को और बढ़ावा मिला।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनकारियों को बुरी तरह कुचल दिया गया। 1908-1919 के बीच 186 क्रांतिकारी या तो मारे गये या पकड़ लिये गये। लेकिन सरकार ने 1920 के शुरू में क्रांतिकारी आतंकवादियों को आम माफी के तहत जेल से रिहा कर दिया। इसके कुछ समय बाद ही कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया और गांधीजी, सी.आर. दास व अन्य नेताओं की अपील पर जेल से रिहा क्रांतिकारी आतंकवादियों ने आतंकवाद का रास्ता छोड़ दिया।
इनमें से ज्यादातर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये। लेकिन असहयोग आंदोलन के एकाएक वापस ले लिये जाने से इन उत्साहित युवकों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। जनांदोलन की आंधी में उत्साहित होकर जिन युवकों ने पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी थी, वे अब महसूस कर रहे थे कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। अहिंसक आंदोलन की विचारधारा से उनका विश्वास उठने लगा और किसी विकल्प की तलाश होने लगी। स्वराजियों के संसदीय संघर्ष और इनके विरोधी ‘अनरिवर्तनवादी’ के रचनात्मक कार्य भी इन युवकों को आकृष्ट नहीं कर सके। इनमें से अधिसंख्यक ने अब मान लिया था कि सिर्फ हिंसात्मक तरीकों से ही आजादी हासिल की जा सकती है।
धीरे-धीरे क्रांतिकारी आतंकवाद की दो धाराएं विकसित हुईं। एक पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार में तथा दूसरी बंगाल में। ये दोनों धाराएं सामाजिक बदलाव से उपजी नयी सामाजिक शक्तियों से प्रभावित हुईं। इनमें से एक थी प्रथम विश्व युद्ध के बाद उपजा मजदूर संगठन। क्रांतिकारियों को इस वर्ग की क्षमता का अंदाज था। इसका इस्तेमाल राष्ट्रीय कांग्रेस क्रांति के लिए करना चाहते थे। दूसरी बड़ी प्रभावकारी घटना थी-रूसी क्रांति। भारत के युवा क्रांतिकारियों के लिए यह घटना बहुत प्रेरणादायक थी और वे नये समाजवादी रूस तथा उसके सत्तारूढ़ दल ‘बोलशेविक पार्टी’ से मदद लेने के इच्छुक थे। तीसरी प्रभावकारी घटना थी-नये साम्यवादी समूहों का उभरना, जो मार्क्सवाद, समाजवाद और सर्वहारा के सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे। इन सब कारकों ने क्रांतिकारियों को संगठित होने में मदद किया।
1924 में क्रांतिकारी युवकों का कानपुर में एक सम्मेलन हुआ और ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन किया गया। इसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशक सत्ता को उखाड़ फेंकना था। 1925 में कई प्रसिद्ध क्रांतिकारी गिरफ्रतार हो गये। इससे क्रांतिकारियों को आघात तो लगा लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों में रुकावट नहीं आयी बल्कि क्रांतिकारी संघर्ष के लिए और भी युवा तैयार हो गये।
क्रांतिकारी युवा व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राजनीति छोड़कर धीरे-धीरे संगठित क्रांतिकारी कार्रवाई में विश्वास करने लगे। पब्लिक सेफ्रटी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के प्रति विरोध जताने के लिए भगत सिंह और बी.के. दत्त ने सत्ता के बहरे कानों में विरोध की आवाज पहुंचाने के उद्देश्य से सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंका। इस घटना तथा अन्य घटनाओं के कारण 1931 में भगत सिंह एवं अन्य को फांसी दे दी गयी।
Question : ‘1942 की ग्रीष्म ऋतु में, गांधी की विचित्र एवं अद्वितीय रूप से आक्रमक मनःस्थिति में थे।’
(2003)
Answer : 1941 के प्रारंभ में गांधी की आक्रमक मनःस्थिति भारतीयों के साथ-साथ ब्रिटिश शासक के लिए विचित्र एवं अद्वितीय बात थी। गांधी ने इससे पूर्व किसी आंदोलन, समझौते या सम्मेलन में ऐसी आक्रमकता का परिचय नहीं दिया था जैसा कि 1942 में ग्रीष्म ऋतु में देखा गया। गांधी के कुछ कथनों या कार्यों में इस आक्रामक मनःस्थिति को ढूंढा जा सकता है। उनका ब्रिटिश सरकार से भारत छोड़ने और सत्ता भारतीयों को सौंपने की मांग तथा इससे कम पर किसी तरह का समझौता ब्रिटिश सरकार से नहीं करने का दृढ़ निश्चय आक्रामकता का द्योतक है। यही नहीं उन्होंने कांग्रेस तक को यह चुनौती दे डाली कि अगर वह भारत छोड़ो प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति नहीं देती है तब देश की बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे। अपने अगस्त भाषण में गांधी ने अपनी आक्रामकता का परिचय देते हुए भारतीयों का आ“वान किया कि आजादी के इस लड़ाई में या तो हम आजादी हासिल करेंगे अथवा अपनी जान दे देंगे। जो गांधी चोरी-चौरा के तक हिंसक घटना के कारण असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। यही 1942 के आंदोलन में बड़े पैमाने पर हुए हिंसक घटनाओं की आलोचना तक करने से इनकार कर दिया।
वस्तुतः गांधी की इस आक्रामक मनःस्थिति की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश जनित निराशा काम कर रही थी। भारतीय नेताओं के बिना सलाह लिए भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में झोंक दिया गया। गांधी चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दे दे ताकि वह युद्ध में मित्र राष्ट्रों की सहायता कर सके। किंतु ब्रिटिश सरकार द्वारा यह मांग अस्वीकार कर दिया गया। सरकार इसके बदले में क्रिप्श मिशन भेजी ताकि युद्ध में भारतीयों का समर्थन हासिल किया जा सके। पर यह मिशन भी भारतीयों के साथ समझौते करने में नाकाम रही। उधर युद्ध में भारतीय धन-जन दोनों की हानि हो रही थी। जो प्रतिकूल रूप से गांधी सहित अन्य नेताओं को आक्रामक रुख अख्तियार करने के लिए प्रेरित कर रहा था। वहीं मार्च 1942 तक विश्व युद्ध भारतीय द्वार तक आ पहुंचा था। गांधी के मन में यह धारणा बलवती रूप धारण कर रही थी कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति जापानियों को भारत पर आक्रमण का का निमंत्रण है। युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में आवश्यक वस्तुओं की कमी महसूस की जा रही थी जिसके कारण जनआस्था ब्रिटिश सरकार में घटती जा रही थी। भारतीय बैंकों से अपना पैसा निकाल रहे थे। ये सभी कारण गांधी के आक्रामक मनःस्थिति के लिए उत्तरदायी थे जो पूर्व में अनुपस्थित था।
Question : रबींद्रनाथ टैगोर की राष्ट्रीयता एक उदार अंतर्राष्ट्रीयता पर आधारित थी।
(2003)
Answer : रबीन्द्रनाथ की राष्ट्रीयता मानवतावाद से जुड़ी हुई थी। चूंकि मानवतावाद की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती, फलतः इसे राष्ट्रीयता तक सीमित नहीं रखा जा सकता। टैगोर के मतानुसार राष्ट्रवाद का संबंध जाति या संप्रदाय विशेष से न होकर सार्वभौम होनी चाहिए। उनके अनुसार राष्ट्रीयता किसी व्यक्ति का अपने राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण अंध राष्ट्र भक्ति कतई नहीं है। अगर यह राजनीतिक, जातीय, धार्मिक या सांप्रदायिक उन्माद पैदा करता है तब राष्ट्रवाद संकीर्ण हो जाता है। यही कारण है कि कई अवसरों पर उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विदेशी कपड़े जलाये जाने का विरोध किया था। वस्तुतः उन्होंने राष्ट्रीयता का विश्लेषण नया परिप्रेक्ष्य में किया था। यह नया परिप्रेक्ष्य उदार अंतर्राष्ट्रीयवाद था जो मानवतावाद पर आधारित था। इसके अनुसार विश्व के सारे मानव मनुष्यता के आधार पर एक अलग राष्ट्रवाद का निर्माण करते हैं। जिसमें जातीय या राजनीतिक वैमनस्यता का अभाव होता है। उनकी राष्ट्रीयता में सभ्यताओं के क्षेत्र का अभाव होता है। उनकी मान्यता थी कि केवल इस आधार पर अपने पड़ोसियों से द्वेष या वैर मोल नहीं लें कि उसके नामों में तथा सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं। वस्तुतः टैगोर विश्व के प्रत्येक सभ्यताओं के प्रशंसक थे, क्योंकि सभी सभ्यताओं ने अपनी क्षमता के अनुसार अपने नागरिकों को उच्च आदर्शों में ढाला। वे चाहते थे कि पूर्व तथा पश्चिम की सभी सभ्यतायें समन्वय के द्वारा विश्व हित तथा प्रकारांतर से मानव हित में कार्य करें।
टैगोर की राष्ट्रीयता का संबंध नैतिकता से भी था जो प्रकारांतर से विश्व के सभी मानवों को जोड़ती है। टैगोर के अनुरूप सभी मानव आध्यात्मिक रूप से एकता के सूत्र में बंधे हैं। विश्व भर के मानवों की सोच लगभग समान होती है क्योंकि सभी में निहित आत्मा एकमात्र परमात्मा के अंश हैं। टैगोर के इस मानवीय अंतर्राष्ट्रीय सोच में संकीर्ण राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं था। वस्तुतः उनका राष्ट्रवाद उदार अंतर्राष्ट्रयता पर आधारित था।
Question : ‘प्लासी के निर्णय को अंग्रेजों द्वारा प्राप्त बक्सर की विजय ने पुष्ट कर दिया।’
(2002)
Answer : प्लासी का युद्ध (23 जून 1757) का परिणाम नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। इस युद्ध में क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। यद्यपि यह एक छोटी सी सैनिक झड़प थी, लेकिन इसमें भारतीयों की चारित्रिक दुर्बलता उभरकर सामने आई। भारत के इतिहास में इस युद्ध का महत्व उसके राजनीतिक एवं आर्थिक महत्व के कारण है। निःसंदेह, प्लासी के युद्ध के बाद भारत में दासता के उस काल की शुरुआत हुई, जिसमें इसका आर्थिक एवं नैतिक शोषण अधिक हुआ। राजनीतिक रूप से भी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति मजबूत हुई।
बक्सर के युद्ध में एक ओर मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध का नवाब तथा मीर कासिम थे, दूसरी ओर अंग्रेजी सेना का नेतृत्व मुनरो कर रहा था। युद्ध का निर्णय तीन घंटे में ही हो गया, जिसकी बाजी अंग्रेजों के हाथ में रही। ऐसा माना जाता है कि बक्सर के युद्ध का सैनिक एवं राजनीतिक महत्व प्लासी के युद्ध से अधिक था। अंग्रेजों के सामने समस्त भारतीय शक्तियां, मराठों और सिक्खों को छोड़कर बौनी साबित हो गयी। मराठों और सिक्खों का विरोध भी बाद में समाप्त हो गया। निःसंदेह इस युद्ध ने भारतीयों की हथेली पर दासता शब्द लिख दिया, जिसे स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद ही मिटाया जा सका। प्लासी के युद्ध के बाद से अंग्रेज व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करके राजनीतिक एकाधिकार की ओर बढ़ रहे थे। बक्सर के युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने बंगाल और बिहार में शक्ति दृढ़ कर ली तथा मुगल सम्राट और अवध के नवाब को अपने संरक्षण में ले लिया। बंगाल विजय के बाद अब कोई भी विदेशी या भारतीय शक्ति कंपनी को बंगाल से हटा नहीं सकती थी। बक्सर के युद्ध और इलाहाबाद की संधि से अवध का नवाब कंपनी पर निर्भर हो गया। दिल्ली का मुगल बादशाह भी कंपनी के अधीन आ गया। इस प्रकार बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों को प्राप्त विजय ही प्लासी युद्ध के अधूरे कार्यों को पूर्ण किया।
Question : ‘ब्रिटिश साम्राज्य का उदय और प्रसार एक संयोग था न कि किसी सुनिश्चित नीति या मंसूबे का परिणाम।’ इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : ब्रिटिश इतिहासकार अक्सर लिखते हैं कि ब्रिटेन ने संयोग से भारत में साम्राज्य स्थापित किया था और भारत में ब्रिटिश राज्य स्थापित करने की ब्रिटिश सरकार की कोई निश्चित नीति नहीं थी। इस संयोग के सिद्धांत का जे-आर- सीले कृत दि एक्सपेंशन ऑफ इंग्लैंड में पहली बार जिक्र किया गया और इस दृष्टिकोण को रैम्जे म्यूर तथा अन्य ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी स्वीकार किया। रैम्जे म्यूर अपनी दि हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया नामक पुस्तक में लिखते हैं कि ‘भारत में ब्रिटिश साम्राज्य बिना किसी योजना के प्राप्त हुआ। साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी अपनी इच्छा के विरुद्ध शासक बन बैठी और जब वे शासक बने, तब उन्होंने भारतवासियों की असीमित सेवा की।’ सीले और म्यूर ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं। बालकृष्ण ने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया कि सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ से ही अंग्रेज भारत में साम्राज्य की स्थापना की योजना बना रहे थे। समाज के कुछ वर्गों के राजनीतिज्ञ तथा नीति निर्धारण करने वाले डाइरेक्टर भले ही भारत में साम्राज्य विस्तार के विरोधी रहे हों, लेकिन जो अंग्रेज भारत में आ चुके थे, वे निश्चय ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न देख रहे थे।
कुछ भारतीय इतिहासकारों जैसे आर.सी. मजूमदार, एच.सी. राय चौधरी और के.के. दत्त के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी 1600 से 1700 ई. तक एक शांतिप्रिय व्यापारी कम्पनी थी, जो प्लासी की विजय के बाद बंगाल पर आधिपत्य स्थापित करके साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षी हो गयी। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सोच-विचार कर भारत पर राजनीतिक विजय की योजना बनाई, यद्यपि शुरू में उसके भारत आने के कारण आर्थिक एवं व्यापारिक ही थे। ब्रिटिश इतिहासकार आमेंस और डाडवेल ने अक्सर वास्तविकता छिपाकर तथ्यों को गलत रूप में पेश किया और अपने इतिहास में कई महत्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज किया है। रामगोपाल ने अपनी पुस्तक हाउ दी ब्रिटिश अक्यूपाइड बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अभिलेखों, कम्पनी के कारिंदों के पत्रों तथा संस्मरणों द्वारा सच्चाई का पता लगाया है। उदाहरणार्थ सिराजुद्दौला के कम्पनी से संबंधों को ब्रिटिश इतिहासकारों ने गलत ढंग से पेश किया है। ब्रिटिश इतिहासकार जब इतिहास सीख रहे थे, तब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हो रही थी या ब्रिटिश सरकार भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावना को कुचलने का प्रयत्न कर रही थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के डाइरेक्टरों ने आक्रामक नीति का निषेध किया था, लेकिन कम्पनी के कारिंदों ने अपनी नीति को न्यायसंगत दिखाने के लिए और स्वयं को निरपराध साबित करने के लिए वास्तविकता छिपाई और ब्रिटिश सरकार को वही बताया, जो वह सुनना चाहती थी।
कम्पनी साम्राज्यवादी विचारों से हमेशा प्रेरित रही। उसकी नीतियों का उद्देश्य भारतीय राज्यों को ब्रिटिश आधिपत्य में लाना था, जिससे ब्रिटेन के राजनीतिक एवं आर्थिक हितों की वृद्धि हो। कम्पनी ने घेरे की नीति, तटस्थता और अहस्तक्षेप की नीति, सहायक संधि प्रणाली, साम्राज्य विस्तार की नीति, युद्ध द्वारा या बिना युद्ध के ही राज्य अपहरण की नीति (Doctrine of lapse) के द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की। इन सब नीतियों का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार तथा भारत का आर्थिक शोषण था और ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए क्लाइव से कैनिंग तक, हर ब्रिटिश प्रशासक कोई भी तरीका अपनाने के लिए तैयार था।
अठारहवीं शताब्दी के अंत तक भारत यूरोपीय व्यापारियों और लुटेरों के लिए आकर्षण का केंद्र था। उस समय अंग्रेजी समाज शिथिल था और भारतीय समाज का उत्कर्ष हो रहा था। वारेन हेस्टिंग्स के समय से ब्रिटेन के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया और सुधारवादी अंग्रेज भारत में दिलचस्पी लेने लगे। ईसाई धर्मप्रचारक पहले चोरी-चोरी, फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी की अनुमति से भारत में प्रवेश करने लगे। यद्यपि व्यापार में अभी भी अंग्रेज रुचि लेते थे, लेकिन बेंटिक के समय में वे अन्य भारतीय मामलों में भी रुचि लेने लगे। टॉमस मैकाले, सी.ई. ट्रेविलियन, जो धर्मप्रचार के जोश से प्रेरित थे, समाज के हर भाग को प्रभावित करके, भारतीय जीवन को अंग्रेजी प्रतिरूप में ढ़ालने की कोशिश करने लगे।
कुछ अंग्रेजों के मन में पहले से ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित करने का उद्देश्य था। ब्रिटेन में बदलती स्थिति, ब्रिटेन के यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों से संबंध और भारत की बदलती स्थिति ने ब्रिटेन में एक नए दृष्टिकोण को जन्म दिया, जिसके अनुसार भारत को ब्रिटेन के अधीन स्थायी रूप से लाना न्यायसंगत लगने लगा। यह ऐतिहासिक विडम्बना ही है कि, जो लोग भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित करने के पक्ष में आरम्भ से थे, वे ही बाद में इस विचार के विरोधी हो गए। भारत क्लाइव, हेस्टिंगस, वेलेजली और नेपियर द्वारा जीता गया, जिसे अंग्रेज भारत में अंग्रेजों के अस्तित्व को लाभ और राष्ट्रीय फायदे की दृष्टि से देखते थे। भारत में ब्रिटिश नीति उसी दिशा में जा रही थी, जिसमें ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को भारतीय संबंध से लाभ पहुंचे। ब्रिटिश विजय का मुख्य लक्ष्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना ही था। 1800 ई. के पश्चात् भारत न केवल लगान-व्यवस्था की पूर्ति का साधन मात्र ही रहा, बल्कि अंग्रेज अब भारत में न्याय व्यवस्था और प्रशासन की ओर भी ध्यान देने लगे, जिससे भारत की संभावित विस्तृत मंडी ब्रिटिश उद्योग के लिए प्राप्त की जा सके। अंग्रेजों का आर्थिक उद्देश्य एक नए उग्र दृष्टिकोण से रंग गया था। अंग्रेज मिशनरी खुलेआम भारत को ब्रिटेन में सम्मिलित करने के पक्ष में थे और भारत पर ब्रिटिश छाप चाहते थे। अंग्रेज व्यापारी भारत विजय के बाद जातीय श्रेष्ठता और अभिमान की भावना से भर उठे, जो भारत विजय के पश्चात स्वाभाविक ही था।
चूंकि अंग्रेजों का भारत आने का मूल कारण वाणिज्य था, इसलिए यह ध्येय उस हालत में असफल हो सकता था, जब अंग्रेज भारत में ब्रिटिश सभ्यता का विस्तार करते।
Question : ‘उन्नीसवीं सदी में बारम्बार पड़ने वाले दुर्भिक्ष ब्रिटिश नीति का अपरिहार्य परिणाम थे और वे ब्रिटिश प्रशासन की कृषक-वर्ग के प्रति पितृवत् चिन्ता की वास्तविक प्रकृति की पोल खोलते हैं।’ इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
(2002)
Answer : भारत में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रारम्भिक गतिविधियां सीमित थीं क्योंकि कम्पनी का मूल उद्देश्य व्यापार था। इस पर क्षेत्रीय प्रशासन का उत्तरदायित्व नहीं था। पर अपनी वित्तीय स्थिति को अधिक मजबूत करने के उद्देश्य से कम्पनी को भारतीय प्रांतों पर आर्थिक नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक प्रतीत होने लगा। अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए कम्पनी ने कठोर नीतियों को अपनाया। इन नीतियों का ही ये परिणाम था कि आम भारतीयों की स्थिति बदत्तर होती चली गयी।
1858 से लेकर 19वीं सदी के अन्त तक 20 से ज्यादा अकाल भारत में हुए। 1866-67 का उड़ीसा का अकाल सबसे भयावह था। जहां तक अकाल का कारण मानसूनी वर्षा का अभाव था, इसे एक प्राकृतिक आपदा मानकर भूला जा सकता है, किंतु राष्ट्रवादियों के इस तर्क को कैसे झुठलाया जा सकता है कि खाद्यान्न का अभाव प्राकृतिक आपदा मात्र नहीं था। रजनी पामदत्त ने तो यहां तक प्रमाण दिए हैं कि अकाल के दिनों में भी खाद्यान्न का निर्यात किया जाता रहा है। उपनिवेशवादी शासन के अधीन अकाल को प्राकृतिक आपदा मानना उचित नहीं होगा, इसे तो मनुष्य जनित घटना ही मानना होगा। वास्तव में भारत में ब्रिटेन की प्रगति का इतिहास लगातार बढ़ते जा रहे अकालों तथा उनसे अधिकाधिक प्रभावित होने वाले लोगों का इतिहास है।
ब्रिटिश नीतियों के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में ऋणग्रस्तता की समस्या विकराल रूप में सामने आयी। इसके कारण भारी पैमाने पर जमीन हस्तांरित की गयी और गिरवी रखी गयी। यद्यपि सरकार ने राहत देने के लिए कुछ कदम उठाने की बात अवश्य की, पर ये अधिकांशतः नगण्य ही साबित हुए क्योंकि शायद ही कोई प्रांत कर्ज की अदायगी स्थगित कराने का महत्वपूर्ण कदम उठाने की स्थिति में था। इसके अतिरिक्त कुछ मूल परिवर्तन न किए जाने की स्थिति में राहत देने की सारी बातें हवाई ही रह गयी, जो शायद उनका उद्देश्य भी था। अकाल की मार कम करने और भविष्य में अकाल पर रोक लगाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण समितियां यथा कैम्पबेल, मैकडोनाल्ड आदि भी नियुक्त हुईं, पर नतीजा कभी सकारात्मक नहीं रहा।
जैसे-जैसे ब्रिटिश सत्ता का विस्तार हुआ और सरकार का खर्च बढ़ा, वैसे-वैसे ही लगान की दर में भी वृद्धि हुई। उत्पादन में गिरावट का कारण कृषि-साधनों का अभाव तथा खेती पर अत्यधिक दबाव ही नहीं था वरन् उत्पादन की कमी का प्रमुख कारण किसान के पास पूंजी या धन का अभाव था। लगान की इस अमानवीय व्यवस्था ने उत्पादन को महंगा बना दिया, जिसके परिणामस्वरुप खेती के पिछड़ेपन ने आर्थिक व्यवस्था को ही नहीं बिगाड़ा, बल्कि इसे एक राजनीतिक खतरा भी बना दिया। अंग्रेज प्रशासकों ने किसान की इस ऋणग्रस्तता का कारण लगान की अधिकता नहीं बताया। इन हालात के लिए उन्होंने फिजूलखर्ची और सामाजिक उत्सवों में धन फूंकने की आदत को उत्तरदायी ठहराया, जो किसी भी रूप में सच नहीं था। सरकार की तरफ से किसान से साहूकार की दिशा में भूमि के हस्तांतरण को रोकने के लिए कुछ कानूनों का निर्माण अवश्य किया गया, लेकिन ये अधिनियम अधिक सफल नहीं हुए और किसानों की स्थिति में किसी प्रकार का सुधार नहीं हुआ।
ब्रिटेन ने भारत को अपने देश में बने माल की एक मंडी और कच्चा माल भेजने वाले एक उपनिवेश की तरह बना दिया। भारत अब एक संतुलित ग्रामीण आत्मनिर्भरता से उठकर एक कृषि प्रधान देश बन गया था। यहां उत्पादन के स्वरूप और प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन हुए। चूंकि फसलें प्रायः औद्योगिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उगाई जाती थीं, अतः खाद्यानों में भारी कमी होने लगी, जिससे अकाल पड़ने लगे। प्राक्-ब्रिटिश भारत में भी अकाल पड़ते थे, लेकिन इसका कारण धन का अभाव न होकर यातायात के साधनों का अभाव होता था। लेकिन ब्रिटिश भारत में अकाल और सूखों के प्रत्यक्ष कारण ब्रिटिश कृषि और औद्योगिक नीति थी।
Question : कांग्रेस समाजवादी पार्टी के नेतृत्व की प्रकृति और कार्यक्रम का विवेचन कीजिए?
(2002)
Answer : कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना, 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य में हुई। कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्वों के हाथों से जन नेतृत्व सरकता जा रहा था। कांग्रेस के प्रगतिशील तत्व जो की गांधीजी के हठधर्मी से असंतुष्ट था, इसके निर्माण में पहल की और दक्षिणपंथी भी तात्कालिक वातावरण से प्रभावित होते हुए इसे स्वीकार किये। कांग्रेस समाजवादी पार्टी पर सरसरी नजर डालने से पहले ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के राजनीति पक्ष का अवलोकन यहां आवश्यक है।
1929 के कांग्रेस अधिवेशन में किए गए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को कांग्रेस समाजवादी पार्टी के गठन का आधार माना जाना चाहिए। इसमें मोतीलाल नेहरू की डोमिनियिन स्टेटस की सिफारिशों को रद्द कर संपूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया। इसकी प्राप्ति के लिए अधिवेशन ने एक कांग्रेस कमेटी को यह अधिकार दिया कि वह जब भी उचित समझे, इस पर अमल करें। पर न्यूयार्क वर्ल्ड में छपा गांधी के वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि वे इस निर्णय से खुश नहीं थे। इसके उपरान्त गांधीजी ने एक 11 सूत्रीय मांग सरकार के समक्ष रखी, जिसमें सम्पूर्ण स्वराज्य को गौण कर दिया गया, परिणामतः यह मुद्दा नेपथ्य में चला गया। गौर से अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि गांधीजी सरकारी दमन और दमन के विरोध में जन आंदोलन से संबंधित हिंसा उनके लिए चिंता का विषय था। वे सरकारी हिंसा से जन आंदोलन वाली हिंसा को अधिक गलत मानते थे।
ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस के प्रगतिशील तत्वों ने एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस की, जो समाजवादी एवं प्रगतिशील रुझानों से प्रतिबद्ध हो। प्रगतिशील तत्वों की इसी इच्छा की परिणति अंततः कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना में हुई। सर्वप्रथम पंजाब में प्रोफेसर बृजलाल के नेतृत्व में 1930 के अंत में समाजवादी दल की स्थापना की। उत्तरी बिहार में इसी विचारधारा से संबद्ध समाजवादी संघ की स्थापना 1931 में हुई। 1932-33 के दौरान कारावास में बंद कुछ कांग्रेसियों ने अखिल भारतीय समाजवादी दल का खाका तैयार किया। इस तरह 1934 में पटना में कांग्रेस महासमिति की बैठक में इन सदस्यों की एक अलग बैठक हुई और अखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की औपचारिकता पूरी हुई। इसमें जिन नेताओं ने सक्रिय सहयोग प्रदान किया। उनमें सर्वश्री जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, अशोक मेहता, डॉ. राम मनोहर लोहिया, आदि प्रमुख हैं। बाद में एम.एस. नंबूदरीपाद, रजनी मुखर्जी सरीखे नेताओं ने भी इसकी सदस्यता ग्रहण की। जवाहरलाल नेहरू भी वैचारिक स्तर पर इससे काफी साम्य रखते थे, पर वे इसके सदस्य नहीं बने।
कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि वह कांग्रेस से संबद्ध रहे और उसके कार्यों का कांग्रेस पर बुरा असर न पड़े। इसका मूल उद्देश्य था कांग्रेस को समाजवादी मूल्यों से आबद्ध करना। चूंकि पार्टी के संस्थापकों की राजनीतिक विचारधारा एक नहीं थी, इसलिए इसके नीति निर्धारण और क्रियाकलापों पर इसका स्पष्ट प्रभाव पड़ा। प्रमुख रूप से जिन राजनीतिक विचारधाराओं का पार्टी में प्रतिनिधित्व था, वे हैं- मार्क्सवादी, समाजवादी, फैबियनवादी, उदारवादी समाजवादी विचारधारा तथा गांधीवाद से प्रभावित विचारधारा। दल में हमेशा कम्युनिस्ट विचारधारा और गैर-कम्युनिस्ट विचार वालों के बीच असंतोष रहा। इसी के कारण 1937 में पार्टी ने यह निर्णय लिया कि अब दल में कम्युनिस्टों को नहीं लिया जाएगा। इसी विवाद के फलस्वरूप 1939 में मसानी ने पार्टी ही छोड़ दिया। अपने इन्हीं आपसी विवाद के कारण ही पार्टी ने पहली बार अपने द्वारा घोषित लक्ष्य यथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारत को पूर्ण आजादी मिली, भारतीयों को संविधान बनाने का अधिकार मिला, स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त समाजवादी व्यवस्था की स्थापना इत्यादि को भी प्राप्त करने में असफल रही। इसके उद्देश्य को 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए नेहरु ने समर्थन किया था। बंबई महाधिवेशन में पार्टी ने संगठन एवं कार्यक्रम संबंधी कुछ महत्वपूर्ण फैसले अवश्य लिये।
कांग्रेस समाजवादी दल का अस्तित्व 1939 से 1947 तक बना रहा। इस काल में पूर्ण स्वतंत्रता का सिद्धांत, मार्क्सवादी एवं समाजवादी विचारधारा का प्रचार, समाजवादी की स्थापना आदि राष्ट्रीय मुद्दों के संदर्भ में उसकी भूमिका निर्णायक नहीं रहीं, फिर भी उसकी कुछ सकारात्मक भूमिकाएं अवश्य रही। इसका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को उन सभी लोकप्रिय राजनीतिक सिद्धांतों से संधि करना था ताकि जनआंदोलन और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व उसके हाथों में बना रहे और कोई अन्य दल उस पर अपना अधिकार न जमा ले। गांधी के निम्नवर्ग समर्थक नीतियों को इस पार्टी ने असली तौर पर अमली जामा पहनाया। ‘किसान सभा’ में इस बात को प्रचारित किया गया कि उसे कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेना चाहिए। युवा आंदोलन के नेतृत्व पर भी इस दल ने अपनी नए विचारधारा की बदौलत सकारात्मक भूमिका का निर्वाह किया।
स्थापना के प्रारंभिक काल से अंत तक पार्टी के दो मूल उद्देश्य बने रहे, प्रथम कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को यह जतलाना कि राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता हेतु यह आवश्यक है कि इसमें मजदूरों और किसानों की सहभागिता को अधिक विस्तृत किया जाए, दूसरी ओर आम जनता को यह बताना की उनकी वास्तविक समस्याओं के समाधान का प्रश्न उस राजनीति संघर्ष से जुड़ा हुआ है, जो औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध लड़ा जा रहा है और पार्टी अपने इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति में बहुत हद तक सफल रहा। अगर इसके कार्यकलापों पर गौर किया जाए, तो ज्ञात होगा कि इसका वास्तविक उद्देश्य कांग्रेस को मजबूत करना था। 1934 में जय प्रकाश नारायण ने अपने अनुयायियों से कहा था कि हम कांग्रेस के समक्ष एक कार्यक्रम रख रहे हैं और हम चाहते है कि कांग्रेस इसे मान लें, अगर ऐसा न हुआ तो हम भविष्य में इसके लिए प्रयास करते रहेंगे।
Question : ‘भारत ने पश्चिमी हथौड़ों से ही अंग्रेजों की दासता के बन्धन तोड़ डाले।’
(2002)
Answer : 19वीं सदी को भारत में धार्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण की सदी माना गया है। इस समय कंपनी की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से आधुनिक तत्कालीन युवा मन चिंतनशील हो उठा, तरुण व वृद्ध सभी भारत की बदहाली और स्वतंत्रता प्राप्ति के विषय में सोचने लगे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती काल के नेता व मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी पश्चिम की उदारवादी एवं अतिवादी विचारधारा से प्रभावित थे। यहां तक कि उग्रवादी विचारधारा वाले संगठनों ने भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिए पश्चिम के ही क्रांतिकारी ढंग का प्रयोग किया।
पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति ने राष्ट्रवादी भावना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। अंग्रेजों ने भारतीयों को सिर्फ इसीलिए शिक्षित किया कि प्रशासनिक एवं व्यापारिक फर्मों के लिए क्लर्कों की आवश्यकता को पूरा किया जा सके। परंतु यह अंग्रेजों का दुर्भाग्य सिद्ध हुआ कि भारतीयों को बर्क, मिल, ग्लैडस्टोन, ब्राइट, मैकाले जेसे लोगों के विचार को सुनने का अवसर मिला। मिल्टन, शेली, वायरन जैसे कवि, जो स्वयं ही ब्रिटेन की बर्बर नीति से जूझ रहे थे, की कविताओं को पढ़ने एवं वाल्टेयर, रूसो, मेजनी जैसे लोगों के विचारों को जानने का सौभाग्य मिला। इस तरह पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से लोगों में राष्ट्रवादी भावनायें पनपीं। पश्चिम के देशों के साथ संबंध, पाश्चात्य साहित्य, विज्ञान, इतिहास एवं दर्शन के अध्ययन से भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हुई और वे स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलित हुए।
पश्चिमी प्रभाव के कारण जनव्यापी स्वाधीनता आन्दोलन के विस्तार और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की प्रगतिशील सामाजिक दिशा में विकास को बढ़ावा मिला। इसके फलस्वरूप उसकी शक्तियों में गुणात्मक वृद्धि हुई और विजय की घड़ी निकट आई। राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय की मांग भी जोर पकड़ती गई।
Question : ‘गांधी ने जन-आन्दोलनों पर अंकुश लगाया फिर भी जनता में अपनी लोकप्रियता बनाए रखी।’
(2002)
Answer : जब कांग्रेस का नेतृत्व गांधी के हाथ में था, तब उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन का मार्गदर्शन अपनी वैचारिक पूर्व धारणाओं के आधार पर करने का प्रयत्न किया। गांधीजी की विचारधारा, खासकर वर्ग संबंधों जनांदोलनों और आधुनिक सभ्यता से संबंधित उनके विचारों में बड़ी विसंगति थी।
जहां वह एक जनांदोलन चलाने के इच्छुक थे, वहीं वे संगठित नेतृत्व के माध्यम से उसे नियंत्रित रखना चाहते थे। हालांकि नेताओं पर अधिक निर्भरता और जनांदोलनों के प्रति संदेह की भावना के परिणाम किसानों द्वारा अनेक अवसरों पर किए गए विरोध और सांप्रदायिक एकता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हुए। गांधीजी ने कांग्रेस के संगठन में महत्वपूर्ण विस्तार करवाया क्योंकि पर्याप्त रूप से विकसित संगठन के अभाव में आन्दोलन का नेतृत्व जनता के हाथों में जा सकता था। इसके अतिरिक्त जनता की स्वतः स्फूर्त उग्रता को नियंत्रित करने के लिए यह आवश्यक था कि उसे संगठन के प्रति उत्तरदायी बनाया जाए। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर स्वंयसेवक आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया ताकि वह मजबूत होकर जनता की ओर से आंदोलन में भाग लें। गांधी मजदूरों और किसानों के आन्दोलन को कुछ हद तक रोकने का प्रयत्न करते थे, लेकिन सबसे गंभीर बात यह थी कि गांधी द्वारा अत्यधिक रोकथाम किए जाने से नेताओं में भी असंतोष बढ़ा।
गांधी जनआंदोलनों को क्रमबद्ध रूप से चलाने में विश्वास रखते थे। वे समझते थे कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ लम्बा संघर्ष चलाना कठिन था। भारतीय समाज जाति प्रथा, अछूत प्रथा आदि के कारण बंटा हुआ था। गांधी सबको मिलाकर चलने में विश्वास रखते थे। उन्होंने अछूत प्रथा की व्यापक स्वीकृति पर और एक जाति के दूसरी जाति से श्रेष्ठ होने के दावों पर प्रहार किया। मुसलमानों और हिंदुओं दोनों का एक दूसरे के प्रति असहिष्णुता के खिलाफ उन्होंने कड़ा और निरन्तर संघर्ष किया।
अन्य किसी नेता की तुलना में उन्होंने इन संघर्षों में काफी कामयाबी हासिल की। आधुनिक भारत के अन्य किसी नेता के पास वैसा सामाजिक आधार नहीं था, जो गांधी के पास था। कार्य क्षेत्र में जो सफलता गांधी को मिली उसकी वजह यह है कि भारत में उनका एक सामाजिक आधार था और वे इस देश के विशाल जनमानस को भली-भांति जानते थे। आजादी के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व प्रदान करते हुए उन्होंने भारतीय समाज को आधुनिक तरीके से पुनर्निर्मित करने की कोशिश की। यही उनका उद्देश्य था, अतः उन्होंने सामंतवाद, अंधविश्वास, प्रगति-निरोधक सामाजिक व्यवहार और आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन को संकुचित करने वाली बाधाओं को अपने आक्रमण का लक्ष्य बनाया। वे उदारपंथी थे, लेकिन पश्चिमी उदारतावादी अवधारणाओं को यांत्रिक तरीके से दोहराने के बजाय उन्होंने उन अवधारणाओं में संशोधन किया और इस प्रकार भारतीय हालात में उन्हें सृजनात्मक तरीके से लागू किया।
Question : ‘सुभाष चन्द्र बोस की विचारधारा राष्ट्रवाद, फासीवाद तथा साम्यवाद का मिश्रण थी।’
(2002)
Answer : सुभाष चन्द्र बोस उग्र राष्ट्रीयता के समर्थक थे। महात्मा गांधी को समग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा एवं केवल औपनिवेशिक सत्ता के विरोध को वे अपना उद्देश्य नहीं मानते थे। उनके स्वराज सम्बन्धी विचार का तात्पर्य भी केवल डोमिनियन स्टैटस नहीं था, अपितु वे भारत की सम्प्रभुता के लिए संघर्षरत थे। साम्यवादी चिन्तकों की भांति वे यह मानते थे कि ब्रिटिश शासन से मुक्ति मात्र में भारतीयों का कल्याण निहित नहीं है। इसके लिए राष्ट्र के अंदर के संख्यागत दोषों यथा जमींदारी उन्मूलन एवं राष्ट्रीय संशोधनों पर केन्द्रीय वितरण को वे अपरिहार्य मानते थे।
राष्ट्रवाद की अत्यंत सशक्त संकल्पना के कारण वे शायद देश के शीर्षस्थ नेताओं में वे सबसे रोचक व्यक्तित्व के रूप में सामने आये एवं क्षेत्रवादी दुर्भावना से उपर उठकर उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी भाषा की वकालत की। मार्च 1937 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने हरिपुरा कांग्रेस में भाग लिया एवं वामपंथी विचारधारा के लोगों को संगठनात्मक एकता में बांधने एवं नेतृत्व प्रदान करने के उद्देश्य से फारवर्ड ब्लॉककी स्थापना की, जिसके उद्देश्य नितान्त साम्यवादी आदर्शों पर आधारित थे। कांग्रेस के इस विभाजन एवं फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की तुलना उन्होंने बोल्शेविक पार्टी के गठन से की। परन्तु साथ में यह भी घोषणा की कि उनकी पार्टी कांग्रेस की नीतियों, कार्यक्रमों एवं उसकी संस्कृति का सम्मान करेगी। साथ ही गांधीजी के अहिंसात्मक आदर्श के प्रति भी उन्होंने अटूट श्रद्धा अभिव्यक्त किया। हालांकि, गांधी एवं वामधारा के बीच परस्पर अन्तर्विरोध बना रहा, परन्तु सुभाष ने यह भी घोषणा की थी कि फारवर्ड ब्लॉक दोनों दलों एवं नेतृत्व के आदर्शों को ध्यान में रखकर कार्य करेगी।
1941 में भारत से चले जाने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी एवं जापान से मित्रता की अपेक्षा अवश्य की, परन्तु इसे नितान्त फासीवाद मानना उचित नहीं हैं। यह भी सत्य है कि उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ के संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई एवं नेतृत्व भी प्रदान किया। पर आजाद हिन्द फौज के भारतीय पूर्वोत्तर सीमा पर आक्रमण के समय उन्होंने राष्ट्रपति के नाम जो संदेश दिये वह भी उल्लेखनीय है। अपने संदेश में उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के पश्चात् राष्ट्र गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप चलेगा।
Question : दक्षिण भारत में शुरू की गयी ‘रैयतवारी प्रणाली’ के मुख्य बिंदुओं पर चर्चा कीजिए। क्या इस प्रणाली से किसानों की जरूरतें पूरी हुईं?
(2001)
Answer : दक्षिणी और दक्षिण पश्चिमी भारत में ब्रिटिश शासन के विस्तार से जमीन बंदोबस्त की नयी समस्याएं उठ खड़ी हुईं। अधिकारियों का मत था कि इन क्षेत्रों में बड़ी जागीरों वाले ऐसे जमींदार नहीं हैं जिनके साथ मालगुजारी के बंदोबस्त किये जा सकें और इसलिए वहां जमींदारी प्रथा लागू करने से स्थिति उलट-पुलट जायेगी। रीड और मुनरो ने नेतृत्व में मद्रास के अनेक अधिकारियों ने यह सिफारिश की कि सीधे वास्तविक काश्तकारों के साथ बंदोबस्त किया जाये।
इस्तमरारी बंदोबस्त प्रणाली में कंपनी वित्तीय दृष्टि से घाटा उठा रही थी क्योंकि उसे मालगुजारी में बड़ा हिस्सा जमींदारों को देना पड़ता था और वह जमीन से होने वाली आमदनी के बढ़ने पर उसमें से हिस्सा नहीं मांग सकती थी। इसके अलावा काश्तकार अब जमींदारों की दया पर छोड़ दिये गये थे जो उन पर मनमाना जुल्म ढा सकते थे। मद्रास के अधिकारियों ने जिस व्यवस्था का प्रस्ताव रखा उसे रैयतवारी बंदोबस्त कहा जाता है।
रैयतवारी व्यवस्था सर्वप्रथम तमिलनाडु (पूर्व का मद्रास) में लागू किया गया, तत्पश्चात इसेमहाराष्ट्र (बंबई प्रेसीडेंसी) पूर्वी बंगाल और असम तथा कुर्ग (आधुनिक कर्नाटक राज्य का भाग) में लागू किया गया। इस प्रथा में काश्तकार जमीन के जिस टुकड़े को जोतता-बोता था, वह उसका मालिक मान लिया जाता था। शर्त यह थी कि वह उस जमीन की मालगुजारी देता रहे। इस प्रथा के अंतर्गत कोई स्थायी बदोबस्त नहीं किया गया। प्रत्येक बीस-तीस वर्ष पर इसका पुनर्निर्धारण किया जाता था और तब आम तौर पर मालगुजारी बढ़ा दी जाती जाती थी। इस व्यवस्था ने कृषक भू-स्वामित्व की स्थापना की। इस व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं थीं-
रैयतवारी प्रथा में जमींदार के स्थान पर किसान को मालिक बना दिया गया, किंतु उसकी हालत में सुधार नहीं हुआ। प्रथमतः भूमि की कीमत इतनी अधिक गिर गयी कि बाजार में इस मूल्य पर भूमि खरीदना भी अलाभकारी हो गया था। इसका मुख्य कारण भू-राजस्व की बहुत ऊंची दर थी, जिसके फलस्वरूप कृषि अलाभकारी हो गयी। राजस्व वसूली के तरीके इतने कठोर और उत्पीड़नकारी थे कि रैयतवारी क्षेत्रों में किसान महाजनों के चंगुल में फंस गये। रैयतवारी प्रथा ने ऋणदाता साहूकारों और कृषक कर्जदारों के मध्य संबंधों में संघर्ष की स्थिति पैदा की और इस प्रकार ग्रामीण समाज में एक और लालची व शोषक तत्व का जन्म हो गया। एक बार किसान ऋण लेकर जब साहूकार के चंगुल में फंस जाता था, तो महाजन उसे फंसाए रखने के लिए सभी प्रकार की चालें चलता रहता था। ब्याज की दरें इतनी अधिक थीं कि किसान ऋण पर ब्याज की राशि का ही भुगतान कर पाता था।
‘रैयतवारी प्रणाली’ से भी किसानों की जरूरतें पूरी नहीं हुई। रैयतवारी व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य राजस्व की नियमित वसूली और रैयतों की स्थिति सुधारना था। पहले उद्देश्य की तोपूर्ति हुई, किंतु दूसरा उद्देश्य अपूर्ण रहा। इस बात की सरकारी तौर पर घोषणा की गयी कि रैयत जब तक लगान देते रहेंगे, तब तक उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता, किंतु लगान का निर्धारण इतना अधिक था कि उसका भुगतान कर पाना आसान नहीं था। सन् 1855 के पश्चात प्रत्येक अवर्ती बंदोबस्त में लगान का निर्धारण राजस्व अधिकारी के विवेक पर किया जाने लगा।
रैयतवारी बंदोबस्त ने कृषक स्वामित्व की किसी प्रथा को जन्म नहीं दिया। कृषकों ने भी शीघ्र ही जान लिया कि अनेक जमींदारों की जगह एक ही दानवाकार जमींदार अर्थात् राज्य ने ले ली है। कृषकों को ज्ञान हुआ कि वे सरकार के बंटाईदार मात्र हैं, नियमपूर्वक मालगुजारी का भुगतान न होने की स्थिति में उनकी जमीनें बेच दी जायेंगी। आगे चलकर सरकार ने यह दावा भी किया कि जमीन की मालगुजारी कोई कर न होकर लगान है। रैयत की फसल सूखा या बाढ़ के कारण थोड़ा-बहुत या पूरी तरह नष्ट हो जाने पर भी उसे मालगुजारी देनी पड़ती थी। श्रमिकों की मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं की गयी। किसानों की ऋणग्रस्तता में भी वृद्धि हुई। इन सभी कारणों से कृषि में गिरावट आयी और भूमि अलाभकारी हो गयी, कृषि से लाभ मिलना बंद हो गया और वह अलोकप्रिय हो गयी।
अंततः स्थायी बंदोबस्ती प्रणाली की ही भांति रैयतवारी व्यवस्था से भी कृषकों को कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ।
Question : ‘ब्रिटिश उद्योग नीति ने उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय हस्तकरघा उद्योग को विनष्ट कर दिया।’
(2001)
Answer : ब्रिटिश सरकार की उद्योग नीति ने 19वीं शताब्दी में भारतीय हस्तकरघा उद्योग को विनष्ट कर दिया।
विदेशी व्यापार तथा धन अर्जित करने के प्राथमिक भारतीय स्रोतों हस्तकरघा तथा कुटीर उद्योगों को ब्रिटिश उद्योग नीति ने नष्ट कर दिया। बंगाल सूती वस्त्र और सिल्क के कपड़ों के लिए विख्यात था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मातहतों ने बंगाल में ब्रिटिश राजनीतिक प्रभुत्व (1757) स्थापित होने के पश्चात बंगाल के कारीगरों का शोषण तथा उनके साथ निर्दयी व्यवहार करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने न सिर्फ भारतीय उद्योगों को समाप्त किया बल्कि भारतीय बाजार भी अंग्रेजी उत्पादों से पाट दिया। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध मेंब्रिटिश सरकार ने भारतीय कपड़ों पर अत्यधिक आयात शुल्क लगाये। प्लासी युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने न सिर्फ बंगाल की मंडियों से अपने प्रतिद्वंद्वियों (फ्रांसीसी, डच) को हटाया, बल्कि भारतीय व्यापारियों को इतना थोड़ा मूल्य देने लगे कि शिल्पियों ने माल ही बनाना बंद कर दिया। कंपनी ने भारत में तैयार मालों का निर्यात बढ़ाने के लिए बंगाल के राजस्व का भी उपयोग किया।
बंगाल के बुनकरों पर कंपनी द्वारा अनेक शर्तें लाद दी गयीं और उन्हें माल कम कीमत और कभी- कभी घाटे पर भी बेचने को मजबूर किया गया। कंपनी ने कच्चे कपास की ब्रिकी पर भी एकाधिकार कर लिया और बंगाल के बुनकरों से मनमाने दाम वसूलने लगे। इसलिए हजारों शिल्पियों ने अपने पुश्तैनी कारोबार को छोड़ दिया। क्रमशः व्यापार के क्षेत्र में भारत का शोषण और तेज गति से होने लगा। 1813 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के साथ होने वाले व्यापार पर एकाधिकार समाप्त हो गया तथा भारत व्यापारिक परिदृश्य से गायब हो गया। ब्रिटेन की सभी व्यापारिक कंपनियां अब भारत में व्यापार के लिए स्वतंत्र हो गयीं।
ब्रिटिश औद्योगिक नीति से भारत को दोहरी मार झेलनी पड़ी। सर्वप्रथम भारत से कच्चा माल निःशुल्क ब्रिटेन ले जाया जाने लगा। भारत से उगाहे गये राजस्व से ही इसका निर्माण हुआ तथा भारत में ही इसे बेचकर मुनाफा कमाया गया। भारतीय व्यापार को इससे अपूरणीय क्षति हुई। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के पश्चात कई नये यंत्रों का आविष्कार हुआ। कारखानों में इसके प्रयोग से कम कीमत पर तथा कम समय में वस्तुओं का उत्पादन शुरू हुआ। अतः परंपरागत पद्धति से माल तैयार करने वाले भारतीय शिल्पी इंग्लैंड में निर्मित सस्ते उत्पादों के सम्मुख टिक नहीं सके। ब्रिटिश व्यापारियों को भारत में निःशुल्क सुविधाएं प्राप्त थीं, जबकि भारतीय व्यापारियों पर अंग्रेजों ने अनेक बंदिशें लाद दीं। इस कारण भी भारतीय उद्योगों का ”ास हुआ। 1833 ई. में भारतीय ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया कि ‘उन्मुक्त व्यापार की नीति के तहत ब्रिटेन को सस्ता कच्चा माल तथा कम कीमत में निर्मित उत्पाद, भारतीय बाजारों में सुलभ कराने के लिए बनाया गया। अंततः विलियम बैंटिक को भी स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय शिल्पियों की हड्डियां भारत के मैदानों में सूख रही हैं।’
Question : ‘डलहौजी ने भारत के मानचित्र को तेजी और संपूर्णता के साथ बदल डाला। उसके इस अभियान की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती।’
(2001)
Answer : अपने आठ वर्षीय शासनकाल में भारत के गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी (1848-1856) ने अपने पूर्ववर्तियों की मेल-मिलाप वाली नीति त्यागते हुए बिखरे क्षेत्रों को कंपनी के प्रत्यक्ष शासनाधीन लाया। उत्तर और पश्चिम में अब ब्रिटिश सत्ता दर्रों की रक्षक बन गयी तथा उत्तर में ब्रिटिश भारत की सीमा तिब्बत और चीन के साम्राज्य से टकराने लगी। दक्षिण-पूर्व में ब्रिटिश शक्ति बंगाल की खाड़ी के दोनों ओर तटीय क्षेत्रों को नियंत्रित करने लगी।
उसके द्वारा समायोजित ब्रिटिश भारत में एक तिहाई और आधे के बीच प्रादेशिक क्षेत्र और जुड़ा। 1848 में यह युद्ध और शांति के तहत हुआ। युद्ध के आधार पर डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य में पंजाब, पीगू और सिक्किम को मिलाया। मुल्तान के गवर्नर मूलराज के विद्रोह ने उसे अपने साम्राज्यवाद को पूरा करने का एक सुनहरा मौका दिया। 16 नवंबर, 1848 को लार्ड गॉघ के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने सरहद को पार किया। सिख सेना रामनगर, चिलियांवाला और गुजरात में हुए युद्धों में बुरी तरह पराजित हुई। 29 मार्च, 1849 की उद्घोषणा के पश्चात पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। महाराजा दलीप सिंह को पेंशन देकर पंजाब का प्रशासन अंग्रेजों ने अपने जिम्मे ले लिया। सिख सेना भंग कर दी गयी।
दो अंग्रेज कप्तान शिफर्ड और लेविस पर बर्मा सरकार ने भारी जुर्माना किया। इस घटना ने डलहौजी को मनमांगी मुराद पूरी करने का अवसर दे दिया। डलहौजी ने क्षतिपूर्ति की राशि और अन्य मांगों पर बर्मा से बातचीत के लिए फॉक्स नामक युद्धपोत के कोमोडोर लेम्बर्ट को नियुक्त किया। लैम्बर्ट की अभद्रतापूर्ण कार्रवाई के परिणामस्वरूप युद्ध अनिवार्य हो गया। आंग्ल-बर्मा युद्ध में बर्मा की हार हो गयी। डलहौजी ने एक अधिघोषणा जारी कर 20 दिसंबर, 1852 को पीगू (लोअर बर्मा) पर अधिकार कर लिया।
सिक्किम के राजा ने दुर्व्यवहार तथा अपमानजनक आरोप सिद्ध होने पर दो अंग्रेज डॉक्टरों को कारावास में डाल दिया। इसके बाद 1850 में सिक्किम के राजा को 1700 वर्गमील का क्षेत्र अंग्रेजों को सौंपना पड़ा। इस क्षेत्र में दार्जिलिंग भी सम्मिलित था।
शांति की नीति के अंतर्गत डलहौजी ने ‘हड़प नीति’ का सहारा लिया। इस नीति पर चलते हुए सतारा (1848), जैतपुर और संबलपुर (1849), बाघात (1850), उदयपुर (1852), नागपुर (1853) और झांसी (1854) को ब्रिटिश साम्राज्यमें मिलाया गया।
अवध के नवाब वाजिदअली शाह के कई उत्तराधिकारी थे, अतः इस राज्य को ‘हड़प नीति’ की आड़ में नहीं मिलाया गया। डलहौजी ने अवध पर आरोप लगाया कि वहां अव्यवस्था है, फिर भी वह सुधारों की पहल नहीं कर रहा है। इस आधार पर अवध 1856 में ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया।
बरार नामक राज्य हैदराबाद के निजाम के अधीन था। यहां सदैव अशांति बनी रहती थी। यहां सांप्रदायिक विवाद भी होते रहते थे। इसके अतिरिक्त इस प्रांत में रखी गयी अंग्रेज सेना के व्यय का बोझ वहन करना भी निजाम के लिए कठिन था। इस तरह निजाम पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया। यहां कपास की अच्छी खेती होती थी। अतः डलहौजी की नजर इस प्रदेश पर थी। इसलिए उसने धन के बदले प्रदेश देने पर निजाम को बाध्य कर दिया। तदुपरांत मई 1853 में कपास उत्पादक राज्य बरार ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला लिया गया।
Question : ‘आदिवासी और किसान आंदोलनों ने 1857 के विद्रोह की आधारशिला रखी।’
(2001)
Answer : ब्रिटिश नीतियों के कारण भारत का आदिवासी समाज व कृषक वर्ग, अंग्रेजों से रुष्ट होकर देश को दासता से मुक्ति दिलाने की दिशा में तत्पर हुआ। नये करों का भारी बोझ, आदिवासी किसानों को अपनी जमीन से बेदखल कर भूमि पर कब्जा, खेतों व जंगलों पर परंपरागत आदिवासी अधिकारों का दमन करने व राजस्व वसूली करने वाले बिचौलिये व महाजनों के उदय से ग्रामीण समाज का शोषण तेजी से बढ़ा। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सामाजिक सेवा तथा शिक्षा जैसे पुनीत कार्यों की आड़ में ईसाई मिशनरियों द्वारा लोगों का धर्मांतरण किये जाने से भी आदिवासी समाज में प्रतिक्रिया हुई।
ब्रिटिश शोषण के विरुद्ध (अकाल व बढ़ते हुए भूमिकर) 1768 ई. में नामभूम और बड़ाभूम (प. बंगाल) में चुआर विद्रोह हुआ। बल तथा समझौतापूर्ण नीति से अंग्रेजों ने इसे दबा दिया।
ब्रिटिश आधिपत्य तथा बाहरी लोगों के अतिक्रमण से खानदेश के भील आहत हुए। 1818 में विद्रोह हुआ। 1825 में सेवरम के नेतृत्व में पुनः विद्रोह हुआ। 1831 तथा 1846 में भी विद्रोह हुए।
अंग्रेजों ने सिंहभूम और छोटानागपुर पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। वहां के मूल निवासियों ने हिंसात्मक आंदोलन के द्वारा क्षेत्र को मुक्त कराना चाहा। 1820, 1822 और 1832 में किये गये तीनों प्रयत्नों में ब्रिटिश सैन्य शक्ति के सम्मुख आंदोलन असफल रहा।
1824, 1828, 1839, 1844-48 में सहयाद्री पर्वत के कोलियों द्वारा किया गया विद्रोह, छोटा नागपुर के कोल (1831-32), आंध्र प्रदेश के कोया जनजाति का विद्रोह (1840), उड़ीसा में हुआ खोंड आंदोलन (1846-48, 1855) ऐसे महत्वपूर्ण आंदोलन थे, जिसने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में निर्णायक भूमिका निभाई। इन आदिवासी आंदोलनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण 1855-56 में संथाल परगना में घटित संथाल विद्रोह रहा। आदिवासियों ने परंपरागत हथियार तीर-कमान से लैस होकर ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी। इस विद्रोह का नेतृत्व सिदू-कानू, चांद तथा भैरव नामक चार भाइयों ने किया। संथालों की लड़ाई अंग्रेजों तथा देशी शोषकों के विरुद्ध थी जिसमें गरीब वर्ग के अनेक लोगों की भावनाएं उनके साथ थीं।
किसान आंदोलन एक अन्य महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसे 1857 का पूर्वगामी विद्रोह भी कह सकते हैं। औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों, नयी भू-राजस्व प्रणाली, नयी माल गुजारी प्रथा, औपनिवेशिक प्रशासनिक और विधायी प्रणाली और हस्तकरघा उद्योगों के विनाश से कृषि क्षेत्र भूमि पर बढ़ते दबाव जैसे कारणों ने किसान आंदोलन को गति दी। औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने वाले किसान विद्रोहों में मोपला विद्रोह का नाम उल्लेखनीय है। काश्तकारों को बेदखल करने वाले कानून, अधिक व अवैध करों जैसे अन्य कारणों के फलस्वरूप यह विद्रोह भड़क उठा (1836-54)।
रैयतवारी क्षेत्रों में किसानों से भारी राशि कर के रूप में वसूली जाने लगी। इसलिए उन्हें महाजनों (ऋणदाताओं) से उधार के रूप में ऋण लेना पड़ा। जिससे उनकी माली हालत और खराब हो गयी।
जब किसानों को लगा कि वे आंदोलन को लंबे समय तक नहीं चला सकते, वैसी स्थिति में किसानों ने दमन और शोषण का प्रतिरोध करना शुरू कर दिया। ऐसे में उन्होंने देशी शोषकों और औपनिवेशिक प्रशासन को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया। उन्होंने उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई। 19वीं शताब्दी के किसान आंदोलन की ज्यादातर मांगें आर्थिक थीं और उनके उद्देश्य भी सीमित थे। उन्होंने उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई। ये किसान बदलाव के लिए नहीं बल्कि यथास्थिति बरकरार रखने के लिए लड़े, इसीलिए इनके प्रति अंग्रेजों का रवैया समझौतापूर्ण व नरम रहा।
इस दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर पहुंचा 1857 का विद्रोह भी पूर्व के विद्रोहों की भांति ब्रिटिश विरोध के नाम पर लड़ा गया जिसका नेतृत्व बेदखल किये गये राजाओं, जमींदारों, नवाबों के हाथ में रहा और पुनःस्थापन ही उनका मुख्य उद्देश्य था।
Question : उन आर्थिक और सामाजिक कारणों का परीक्षण कीजिए जिनसे 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला।
(2001)
Answer : 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत तेजी से विकसित हुई और भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभ हुआ। अंग्रेजों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए ही भारत को अधीन बनाया था और इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर वे भारत का शासन चलाते थे। धीरे-धीरे भारतीयों ने अनुभव किया कि लंकाशायर के उद्योगपतियों तथा अंग्रेजों के दूसरे प्रमुख वर्गों के हितों के लिए उनके अपने हितों का बलिदान दिया जाता रहा है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समूह ने महसूस किया कि उनके हित अंग्रेज शासकों के हाथों में असुरक्षित है।
सरकार द्वारा जमीन की मालगुजारी के नाम पर कृषकों से उपज का बड़ा हिस्सा लिया जाने लगा। सरकार, पुलिस, अदालतें और उसके अधिकारीगण सभी उन जमींदारों और भूस्वामियों के समर्थक और रक्षक थे, जो किसानों से कसकर लगान वसूलते थे, वे उन व्यापारियों तथा सूदखोरों के रक्षक थे जो तरह-तरह से किसान को धोखा देते, उसका शोषण करते तथा उसकी जमीन उससे छीन लेते थे। इन शोषकों के खिलाफ आवाज उठाने पर पुलिस तथा सेना कानून और व्यवस्था के नाम पर उनको कुचल दिया करती थी।
दस्तकार और शिल्पी यह महसूस कर रहे थे कि सरकार विदेशी प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देकर उनको तबाह कर रही थी और उनके पुनर्वास के लिए कुछ नहीं कर रही थी।
भारतीय समाज के दूसरे समूह भी कुछ कम असंतुष्ट नहीं थे। शिक्षित भारतीयों का उभरता हुआ वर्ग अपने देश की दयनीय आर्थिक व राजनीतिक स्थिति को समझने के लिए नूतन आधुनिक ज्ञान का उपयोग कर रहा था। ब्रिटिश सहायता से भारत को आधुनिक और औद्योगिक देश बनाने की आशा पालने वाले शिक्षित भारतीयों के एक वर्ग का भी ब्रिटिश शासन से मोहभंग हो गया। आर्थिक दृष्टि से उन्हें आशा थी कि ब्रिटिश पूंजीवाद ने जैसे ब्रिटेन में उत्पादक शक्तियों को विकसित किया था, उसी प्रकार वह भारत की उत्पादक शक्तियों को विकसित करेगा। लेकिन उन्होंने यह पाया कि ब्रिटिश पूंजीवाद के इशारों पर भारत में शासन ने जो नीतियां अपनाई थीं वे देश को आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा या अल्पविकसित बनाये हुए थीं और उसकी उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक हो रही थी। 1857 में ब्रिटिश समर्थक वर्ग का ठप्पा लगने वाले इस वर्ग का भी तेजी से राष्ट्रवादी गतिविधियों की ओर झुकाव हुआ।
उभरते हुए भारतीय पूंजीपति वर्ग ने महसूस किया कि सरकार की व्यापार, चुंगी, कर तथा यातायात संबंधी नीतियों के कारण भारतीय अधिसंरचना के विकास में भारी बाधाएं आ रही थीं। नया तथा कमजोर वर्ग होने के नाते भारतीय पूंजीपति वर्ग को अपनी कमजोरियों की भरपाई के लिए सरकार के सक्रिय सहायता की जरूरत थी। भारतीय पूंजीपतियों का विशेष विरोध विदेशी पूंजीपतियों की सख्त प्रतियोगिता के प्रति था, लेकिन इस वर्ग को सरकार से कोई सहायता नहीं मिली। अतएव भारतीय पूंजीपति भली-भांति समझ गये कि एक राष्ट्रीय सरकार ही भारतीय व्यापार और उद्योगों के तीव्र विकास की परिस्थितियां तैयार करने में सक्षम है।
रेलवे, तार तथा एकीकृत डाक व्यवस्था के शुभारंभ ने भी देश को एकजुट किया, विशेषतया नेताओं के पारस्परिक संपर्क को इससे बढ़ावा मिला। इस सिलसिले में, विदेशी शासन का अस्तित्व ही भारतीय एकता का कारण बन गया।
उन्नीसवीं सदी में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा और विचारधारा के प्रसार के फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक आधुनिक, बुद्धिसंगत, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक तथा राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया। वे यूरोपीय राष्ट्रों के समसामयिक राष्ट्रवादी आंदोलनों का अध्ययन, उसकी प्रशंसा तथा उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करने लगे। रूसो, पेन, जॉन स्टुअर्ट मिल तथा दूसरे पाश्चात्य विचारक उनके राजनीतिक मार्गदर्शक बन गये, जबकि मैजिनी, गेरीबाल्डी तथा आयरलैंड के राष्ट्रवादी नेता उनके राजनीतिक आदर्श हो गये। कालांतर में इन्हीं में से कई प्रमुख राष्ट्रवादी नेता ओर संगठनकर्ता बने।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी समाचार पत्र निकले। इन समाचार पत्रों में सरकारी नीतियों की आलोचना करते हुए भारतीय दृष्टिकोण को सामने रखा जाता था। उपन्यासों, निबंधों, देशभक्तिपूर्ण काव्य आदि के रूप में राष्ट्रीय साहित्य ने भी राष्ट्रवादी भावना के उभार में प्रमुख भूमिका निभाई। बंग्ला में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर, असमी में लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलुणकर, तमिल में सुब्रह्मण्यम भारती, हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और उर्दू में अल्ताफ हुसैन हाली इस काल के प्रमुख राष्ट्रवादी लेखक थे।
लार्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों- जिनमें आईसीएस में भर्ती होने की आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दी गयी ताकि शिक्षित भारतीय युवक परीक्षा ही न दे सकें, 1877 में भीषण अकाल के समय दिल्ली दरबार का आयोजन जैसे कई कार्यों ने राष्ट्रवादी गतिविधियों को बढ़ावा दिया। इल्बर्ट बिल के विवाद से भी भारतीयों की आंखें खुल गयीं। उन्होंने देखा कि जहां यूरोपीय लोगों के विशेषाधिकार का प्रश्न है, उन्हें न्याय नहीं मिल सकता। अंग्रेजों के जातीय दंभ ने भी राष्ट्रवादी गतिविधियों को बढ़ावा दिया। नन्दकुमार पर अभियोग प्रकरण, तिलक-शिरोव विवाद इसके ज्वलंत उदाहरण थे।
भारतीय कला, स्थापत्य, साहित्य, दर्शन, विज्ञान और राजनीति में भारत की राष्ट्रीय धरोहर की फिर से खोज करके राष्ट्रवादी नेताओं ने जनता में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जगाया। इससे गर्व तथा आत्मसंतोष की भावना व्याप्त हुई। इसने अपने समाज के आलोचनात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति से भारतीयों को रोका। इसके कारण सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन के खिलाफ संघर्ष कमजोर हुआ।
Question : ‘भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जनता द्वारा छेड़ा गया स्वतःस्फूर्त आंदोलन था।’
(2001)
Answer : ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीयों द्वारा छेड़ा गया एक स्वतःस्फूर्त आंदोलन था। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक 8 अगस्त, 1942 को बंबई में हुई। इस सम्मेलन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करते हुए गांधीजी के नेतृत्व में पूरे भारत में अहिंसक आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया गया। इसी अवसर पर गांधीजी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। अर्थात् हम भारत को स्वतंत्र करेंगे या इसी प्रयास में मर मिटेंगे।
सरकार पहले से ही कांग्रेस की गतिविधियों पर नजर रखे हुई थी। 9 अगस्त, 1942 को तड़केही महात्मा गांधी, कार्यकारिणी के सदस्यों तथा अन्य बड़े नेताओं को बंबई तथा देश के अन्य भागों में गिरफ्रतार कर लिया गया। अंग्रेजों ने इस कार्य को ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ की संज्ञा दी। कांग्रेस को एक बार पुनः गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया।
इन घटनाओं ने जनता को क्रोधित कर दिया। प्रमुख नेताओं के जेल में होने के कारण आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया। फलतः गुस्से में जनता ने हिंसा और विरोध का सहारा लिया। जगह-जगह हड़ताल और प्रदर्शन किये गये। इस आंदोलन में छात्रों, मजदूरों, किसानों, जनसाधारण सभी ने भाग लिया। क्रुद्ध जनता ने सरकारी कार्यालयों, रेलवे स्टेशनों, डाक, तार आदि को भारी क्षति पहुंचाई। बलिया (उत्तर प्रदेश), तामुलक (मिदनापुर, बंगाल), सतारा (बंबई) तथा तलचर (उड़ीसा) में क्रांतिकारियों ने समानांतर सरकार की स्थापना कर ली। तलचर जातीय सरकार ने बहुत दिनों तक विभिन्न विभागों जैसे कानून और व्यवस्था, स्वास्थ्य शिक्षा, कृषि, डाक विभाग तथा न्यायालयों के साथ कार्य किया।
इस आंदोलन में विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से व्यापक जन-प्रतिक्रिया दिखायी दी। श्रमिक वर्ग बंबई, कानपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर तथा पूना आदि जगहों पर हड़ताल पर चला गया। व्यापक जन-प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप पटना का अन्य जगहों से संपर्क टूट गया। भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों की प्रवृत्ति को जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया तथा अरुणा आसफ अली ने नयी दिशा प्रदान की। भूमिगत क्रांतिकारियों का सबसे अधिक साहसिक कदम था- कांग्रेस रेडियो की स्थापना, जिसका प्रसारण लंबे समय तक होता रहा।
सरकार ने आंदोलन को बर्बर ढंग से कुचल दिया। इसके बावजूद ब्रिटिश शासकों के दिमाग में यह बात अच्छी तरह आ गयी कि भारत में उनके साम्राज्यवादी शासन के दिन गिन-चुने रह गये हैं।
Question : जवाहर लाल नेहरू गुटनिरपेक्षता की भारतीय नीति के वास्तुकार थे। इस उद्धरण के आलोक में, 1947 से 1964 के बीच भारत की दोनों महाशक्तियों से संबंधों की विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : भारत की वैदेशिक नीति पर पं. जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व एवं विचारधारा का व्यापक प्रभाव रहा। नेहरू जी साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फासीवाद के प्रबल विरोधी थे और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के पक्षधर थे। वे मैत्री, सहयोग और सह-अस्तित्व के पोषक तो थे ही, साथ में अन्यायपूर्ण आक्रमण का प्रतिवाद करने के लिए शक्ति के प्रयोग को भी उतना ही महत्व देते थे। शीत युद्ध एवं गुटों की विश्व राजनीति में भारत के लिए ही नहीं, अपितु विश्व के सभी नव-स्वाधीन राष्ट्रों के लिए वे गुटनिरपेक्षता की नीति को सर्वोत्तम मानते थे।
गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) का जन्म और विकास भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से ही संभव हुआ। इस आंदोलन का लक्ष्य दो ध्रुवों में बंटे विश्व के देशों को अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक अन्य विकल्प देना तथाउन देशों के साथ दोस्ताना संबंध कायम करना था, जो औपनिवेशिक साम्राज्य कायम करने वाले देशों से स्वतंत्र होने की दिशा मेंप्रयासरत थे। गुट निरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य निरस्त्रीकरण, विकास, स्वाधीनता, गरीबी तथा निरक्षरता का उन्मूलन करना साथ ही शांति के पथ पर कदम- दर-कदम आगे बढ़ना तय किया गया।
विश्व की बड़ी महाशक्तियों में से एक संयुक्त राज्य अमेरिका ने आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय मामलों में प्रमुख भूमिका निभाते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। 50 के दशक में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के आपसी संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे। चीन में साम्यवाद के उदय होने तक भारतीय उपमहाद्वीप में अमेरिका की कम रुचि थी। माओत्से-तुंग द्वारा चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत-चीन के बीच युद्ध होने की स्थिति में तत्काल भारत को सहायता का आश्वासन दिया। लेकिन इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच कुछ मुद्दों को लेकर मतभेद बना रहा। मतभेद का एक प्रमुख कारण अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को आर्थिक तथा सैन्य सहायता जारी रखना था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने कश्मीर के मसले पर पाकिस्तानी पक्ष का भी सुरक्षा परिषद में समर्थन किया। अमेरिकी नेतृत्व में बने सैन्य संगठन में भी भारत के शामिल होने की अमेरिका ने मांग की। इसके अलावा कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी भारत-अमेरिकी मतभेद गहराता गया।
जहां भारत ने गुट निरपेक्ष आंदोलन के मानदंडों के अनुरूप सभी प्रकार के औपनिवेशीकरण का विरोध किया, वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका ने केवल उन्हीं देशों में औपनिवेशीकरण का विरोध किया जहां आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट समर्थक तत्वों के हाथ में न था। जिन देशों के राष्ट्रीय आंदोलन में निर्णायक भूमिका कम्युनिस्ट आंदोलनकारियों के हाथ में था, अमेरिका ने वहां तटस्थता की नीति को ही तरजीह दी अथवा साम्राज्यवादी देशों का समर्थन किया। भारत ने ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ को मान्यता देते हुए एकनिष्ठ प्रयास के द्वारा चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी प्रवेश दिला दिया। इससे भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के संबंध और कटु हो गये। इन मतभेदों के बावजूद आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों हेतु भारत को अमेरिका से निरंतर सहायता प्राप्त होता रहा। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय संयुक्त राज्य अमेरिका ने तत्काल भारत को सैन्य सहायता का भी प्रस्ताव दिया। डी. आइजनहावर और कैनेडी ने इसी अवधि में भारत का दौरा भी किया। अमेरिका के इन संकेतों के बावजूद भारत ने उसे समर्थन न देते हुए गुट निरपेक्षता की नीति पर चलना जारी रखा।
सोवियत संघ ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अपना समर्थन दिया। सभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भारत और सोवियत संघ के बीच एकमत रहा, विशेषतया भारत से जुड़े मामलों पर सोवियत संघ का रुख काफी सहयोगात्मक रहा।
उपनिवेशीकरण के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों को भारतीय समर्थन की नीति के कारण भी रूस-भारत के बीच नजदीकी बढ़ी। कोरिया युद्ध विराम में भी भारत की भूमिका सराहनीय रही। लेकिन दोनों राष्ट्रों के बीच अच्छी मित्रता कायम होने के पीछे सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण भारत द्वारा सोवियत संघ के विरुद्ध बनने वाले गठजोड़ में शामिल न होना रहा।
कश्मीर के मुद्दे पर सोवियत संघ ने भारत को ठोस और स्थायी समर्थन दिया। 2 सितंबर, 1953 को भारत और सोवियत संघ ने एक महत्वपूर्ण व्यापारिक समझौता करने का निर्णय लिया। सोवियत संघ की सरकार के आमंत्रण पर भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वहां का दौरा किया।
नेहरू जी और सोवियत संघ के प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने 23 जून, 1955 को संयुक्त रूप से एक वक्तव्य जारी किया। इसमें निरस्त्रीकरण और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व वाले 5 सूत्री ‘पंचशील सिद्धांत’ के प्रति गहरा समर्थन व्यक्त किया गया। पुनः नेहरूजी के आमंत्रण पर बुल्गेनिन और ख्रुश्चेव एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ नवंबर 1955 में भारत की यात्र पर आये। इस यात्र के क्रम में ही भारत-सोवियत संघ ने एक साझा व्यक्तव्य जारी करते हुए ‘पंचशील सिद्धांत’ की पुनः पुष्टि की। भारत-सोवियत संघ के बीच दूसरा व्यापारिक समझौता 16 नवंबर, 1958 को संपन्न हुआ।
गोवा मामले में भी सोवियत संघ ने भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन किया। 1956 में स्वेज नहर के संकट को लेकर मिस्र पर हुए ब्रिटिश-फ्रांसीसी आक्रमण की भी भारत-सोवियत संघ ने तीव्र निंदा की। तृतीय पंचवर्षीय योजना के लिए सोवियत संघ ने भारत को 500 मिलियन डॉलर की सहायता दी। इसके अलावा पश्चिमी कंपनियों द्वारा अनिच्छा प्रकट करने पर भारत को तेल की भी आपूर्ति की।
1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने के समय भी सोवियत संघ ने भारत के प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट करते हुए एमआईजी-फाइटर विमानों के निर्माण में मदद की। सोवियत संघ के नेताओं ने गुट निरपेक्षता की भारतीय नीति और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को सदैव अपना समर्थन दिया।
Question : 1757 के बाद एक बंगाल राज्य उभर कर आया जो कि एक ‘प्रायोजित राज्य’ भी था और ‘लुटा हुआ राज्य’ भी।
(1999)
Answer : बंगाल में ब्रिटिश राजनीतिक सत्ता का आरंभ 1757 के प्लासी के युद्ध से माना जाता है, जब अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया। इस युद्ध के बाद बंगाल के लिए ‘शाश्वत् दुख की काली रात’ का आरंभ हुआ। अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब घोषित किया। बदले में कंपनी को बंगाल, बिहार, उड़ीसा में मुक्त व्यापार का अधिकार और कलकत्ता के पास चौबीस परगना की जमींदारी भी मिली। प्लासी की विजय ने कंपनी और उसके नौकरों को इस योग्य बनाया कि वे बंगाल की असहाय जनता को लूटकर बेपनाह दौलत जमा कर सकें। कंपनी के अधिकारियों का अब एक ही उद्देश्य था कि जितना लूट सको, लूटो और यह कि मीरजाफर सोने की एक ऐसी थैली है जिसमें जब जी चाहे हाथ डाल लो। खुद कंपनी के लालच का कोई अंत न था। कंपनी अब भारत के साथ व्यापार ही नहीं कर रही थी, बल्कि बंगाल के नवाब पर अपने नियंत्रण का फायदा उठा कर प्रांत की दौलत भी लूट रही थी। मीरजाफर को जल्दी ही पता चल गया कि कंपनी और उसके अधिकारियों की सारी मांगें पूरी करना असंभव था। अब ये अधिकारी भी अपनी आशाएं पूरी न कर पाने के कारण नवाब की आलोचना करने लगे थे। इसलिए उन्होंने अक्टूबर, 1760 में मीरजाफर को मजबूर किया कि वह अपने दामाद, मीर कासिम के हक में गद्दी छोड़ दे। मीर कासिम ने अपने आकाओं की इस कृपा के बदले कंपनी को बर्दवान, मिदनापुर और चटगांव की जमींदारी सौंप दी और बड़े अंग्रेज अधिकारियों को अच्छे-अच्छे उपहार दिए। फिर भी मीर कासिम अंग्रेजों की इच्छाएं पूरी न कर सका और जल्द ही वह कंपनी की स्थिति और कंपनी की चालों के लिए खतरा बन गया। इसी कारण 1763 में अंग्रेजों ने नवाब से सारे अधिकार छीनकर मीर जाफर को पुनः नवाब बना दिया और कंपनी तथा उसके अधिकारियों के लिए बड़ी-बड़ी रकमें ली थीं। मीर जाफर के मरने के बाद कंपनी ने उसके दूसरे बेटे निजामुद्दौला को गद्दी पर बिठाया और बदले में कंपनी ने बंगाल के प्रशासन पर पूरा अधिकार जमा लिया। इस दौरान बंगाल में खुली और निर्लज्जतापूर्ण लूटपाट का युग आरंभ हो गया। अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध बंगाल, धीरे-धीरे नष्ट हो रहा था। कंपनी की शासन प्रणाली के दुरुपयोग और संपत्ति की लूट ने उस बदनसीब प्रांत को निर्धन और खोखला बना दिया। 1770 में बंगाल में एक भयानक अकाल पड़ा और यह मानव इतिहास के सबसे भयानक अकालों में से एक था। वास्तव में 1757 के बाद का बंगाल राज्य एक ‘प्रायोजित राज्य’ भी था और एक ‘लुटा हुआ राज्य’ भी।
Question : लॉर्ड विलियम बैंटिक के आगमन के साथ ब्रिटिश भारतीय राज्य ने ‘परिवर्तन की बयार’ को अनुभव किया।
(1999)
Answer : 1828 में लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत में गवर्नर जनरल बनकर आया। वह एक कट्टर उदारवादी था और उन्हीं आदर्शों से प्रेरित हुआ था, जिनसे इंग्लैंड में सुधारों के युग का सूत्रपात हुआ। बैंटिक वह व्यक्ति था जिसे जीवन में अपनी क्षमता से अधिक सफलता उपलब्ध हुई। वह अपने व्यवहार में सादा तथा विचारों में उदारवादी और उदार हृदय व्यक्ति था। लॉर्ड विलियम बैंटिक के आने से कई पक्षों में एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ। उसके सात वर्ष के शासन काल में वे सुधार संभव हो सके जो बहुत समय से विलम्बित थे। वह शांति, सुधार, मुक्त प्रतियोगिता, मुक्त व्यापार तथा सरकार के अति सीमित क्षेत्र में विश्वास करता था। वह यह नहीं भूला कि सरकार का उद्देश्य शासितों का कल्याण है। उसने क्रूर रीति-रिवाजों को बंद किया, अपमानजनक भेदभावों को समाप्त किया, जनता को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता दी। उसकी निरंतर भावना यह थी कि उसको सौंपे गए लोगों के नैतिक और बौद्धिक चरित्र का विकास हो। बैंटिक ने सती और शिशु वध जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए प्रभावकारी प्रयत्न किए। उसने देश में ठगी समाप्त कर शांति और व्यवस्था स्थापित की, भारतीयों को छोटे-छोटे पदों में अधिक भाग दिया, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के विषय में श्रेष्ठ भावनाएं प्रकट कीं और भारतीय शिक्षा पद्धति के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए। उससे पहले किसी अन्य गवर्नर जनरल ने सामाजिक प्रश्नों को इतने साहसपूर्ण ढंग से निपटाने का प्रयत्न नहीं किया था। उसके शासन काल में प्रवर्तित मैकाले शिक्षण पद्धति ने भारत के नैतिक तथा बौद्धिक जीवन को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया। उस समय से ही अंग्रेजी भाषा, साहित्य, राजनीतिक विचार तथा प्राकृतिक विज्ञान हमारी उच्च शिक्षा नीति का आधार रहे हैं। उसने वित्त एवं न्याय के क्षेत्र में भी अनेक सुधार किए। वह रूस के मध्य एशिया की ओर अग्रसर होने के विषय में जागरूक था। उसने रणजीत सिंह से मित्रता की तथा सिंध के अमीरों से एक व्यापारिक संधि की। उसके द्वारा किए गए सुधार जीवन के सभी पक्षों में आए। निःसंदेह वह प्रथम गवर्नर जनरल था, जो प्रत्यक्ष रूप से इस सिद्धांत का अनुसरण करता था कि प्रजा का हित उसका मुख्य ही नहीं, अपितु अंग्रेजों का भारत में प्रथम कर्त्तव्य है। वास्तव में लॉर्ड विलियम बैंटिक के आगमन के साथ ब्रिटिश भारतीय राज्य ने ‘परिवर्तन की बयार’ का अनुभव किया।
Question : 1813 के बाद से ईसाई मिशनरी का प्रचार ‘प्रायः संवेदनाहीन और आहत करने वाला’ हो गया।
(1999)
Answer : जब 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट में प्रस्ताव आया तब डायरेक्टरों के विरोध के बावजूद संसद ने चार्टर एक्ट में एक धारा जोड़ दी, जिसके अनुसार मिशनरियों को भारत में बसने और काम करने की आज्ञा मिल गई। कलकत्ता में मिशनरी के कार्य का प्रधान कार्यालय खोला गया और एक बिशप की नियुक्ति कर दी गई जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकृत भूभागों में धर्म प्रचार एवं भ्रमण करने का अधिकार दिया गया। 1813 के बाद भारत में मिशनरियों की बाढ़ आ गई। मिशनरियों ने कंपनी सरकार से आग्रह किया कि वह भारतीयों के प्रति अनुचित तथा अतिशय उदारता की नीति का परित्याग करे। उन्होंने इस बात पर क्षोभ प्रकट किया कि ईस्ट इंडिया कंपनी हिंदू मंदिरों के प्रबंधन का काम करती है और गलत तथा अमानुषिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं का समर्थन करके भारतीयों को अंधकार में भटकने के लिए छोड़ देती है।
उन्होंने अन्य कई बातों का भी विरोध किया और उन विरोधों को लिखित रूप में 1839 में बंबई सरकार की सेवा में प्रस्तुत किया। उन्होंने इन शिकायतों को ईसाई धर्म के विरुद्ध बताया। ईसाई मिशनरियों के कई कार्य भारतीयों के लिए अहितकर भी सिद्ध हुए। उनके समान सुधार, शिक्षा प्रसार, चिकित्सा प्रबंध आदि के कार्यों के पीछे जो धर्म परिवर्तन की भावना थी, वह बुरी थी। ईश्वर के समक्ष धर्म परिवर्तन ही भारत में प्रोटेस्टेंटों के मुख्य उद्देश्य थे। दक्षिण भारत में स्थापित विदेशी स्कूलों के समस्त छात्रों को ईसाई बना देने के लिए 1858 में उटकमंड में एक सम्मेलन भी हुआ था। इससे हिंदू धर्म एवं भारतीयता की भावना पर आघात हुआ। इस काल में पादरियों के चरित्र में अनेकानेक दोष थे। उनके व्यवहार में अशिष्टता थी। अतः ऐसे बुरे पादरियों के संपर्क में आकर भारतीय अपना धर्म बिगाड़ना नहीं चाहते थे। जब पादरियों ने कुलीन परिवार के लोगों को तर्क के आधार पर ईसाई धर्म में सम्मिलित करने का प्रयास किया तब उसे बुरी तरह असफलता मिली। पादरियों ने विचार व्यक्त किया कि तत्काल ब्राह्मणों को ही नहीं अपितु दलितों और निम्नवर्गीय जाति के लोगों को ईसाई बनाया जा सकता है। शीघ्र ही भारत में धर्म-प्रचारक छा गए जो ऐसा भ्रामक धर्म प्रचार करते थे जो प्रायः संवेदनाहीन और आहत करने वाला ही था।
Question : भारतीय मध्यम वर्ग का दृढ़ विश्वास था कि फ्ब्रिटेन ने भारत पर एक उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था थोप दी, जिसने देश को कंगाल बना दिया"।
(1999)
Answer : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत में राजनीतिक जागृति को नया मोड़ दिया। इस संगठन के मंच से देश के सभी मध्यमवर्गीय प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों ने अपनी न्यायोचित मांगों पर आपस में विचार-विमर्श किया तथा देश में नवचेतना जागृत की। साम्राज्यवाद की अर्थशास्त्रीय आलोचना उनका सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य था। उन्होंने तत्कालीन औपनिवेशिक आर्थिक शोषण के तीनों रूपों अर्थात व्यापार, उद्योग और वित्त के द्वारा शोषण पर ध्यान दिया। भारत की आर्थिक समस्याओं की तरफ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि थी। उन्होंने अच्छी तरह समझा कि ब्रिटेन के आर्थिक साम्राज्यवाद का मूल तत्त्व भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के अधीन बनाना था। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को भारत की बढ़ती हुई गरीबी का कारण माना। भारतीय नेता यह शिकायत करने लगे कि निर्धनता देश में जड़ पकड़ती जा रही है। सरकारी राजस्व अधिकारियों द्वारा किसान को लूटा जा रहा है। स्वदेशी उद्योगों को नष्ट कर दिया गया है और आधुनिक उद्योगों को जानबूझकर निरुत्साहित किया जा रहा है। देश के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थों का निर्यात किया जा रहा है। भारतीय उद्योग और कृषि हितों के विरुद्ध मुद्रानीति अपनायी जा रही है। विदेशी स्वामित्व वाले बागान उद्योगों में भारतीय श्रमिकों को दास बनाया जा रहा है। भारतीय राजस्व और कृषि विकास की आवश्यकताओं की उपेक्षा करके रेलों का विस्तार किया जा रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत से संपत्ति और पूंजी की निकासी की जा रही थी। आर्थिक प्रश्नों पर इन मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए आंदोलन के कारण अखिल भारतीय स्तर पर यह विचार फैला कि ब्रिटिश शासन भारत के शोषण पर आधारित है, भारत को गरीब बना रहा है तथा आर्थिक पिछड़ापन और अल्पविकास पैदा कर रहा है। ब्रिटिश शासन से परोक्ष ढंग से जो भी लाभ हुए हों, उनके मुकाबले ये हानियां कहीं बहुत अधिक थीं।
Question : क्या आप मानते हैं कि 1857 का विद्रोह राष्ट्रीय प्रकृति का था? यदि नहीं, तो उसका स्वरूप क्या था?
(1999)
Answer : 1857 में उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली जनविद्रोह उठ खड़ा हुआ और उसने ब्रिटिश शासन की जड़ें तक हिलाकर रख दी। इसका आरंभ तो कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों से हुआ, लेकिन जल्द ही एक व्यापक क्षेत्र के लोग इसमें शामिल हो गए। देखते ही देखते देश का एक बहुत बड़ा भाग विद्रोह की लपेट में आ गया। कई स्थानों पर अंग्रेजी राज के चिह्न तक मिटा देने का प्रयत्न किया गया। परंतु शीध्र ही, जिस गति से यह विद्रोह फैला था, उसी गति से इसे दबा भी दिया गया।
1857-58 की घटनाएं लंबे तथा तीखे वाद-विवाद का विषय रही हैं। जितना साहित्य इन घटनाओं पर लिखा गया है उतना भारत के इतिहास की किसी अन्य घटना पर नहीं लिखा गया होगा। उन्नीसवीं शताब्दी में तो मुख्यतः अंग्रेज लेखकों ने इस विषय पर लिखा। उन्होंने मुख्यतः सैनिक क्रांति के स्वरूप पर प्रकाश डाला। इन लेखकों ने असैनिक जनता के योगदान की या तो उपेक्षा की या इसे कुछ स्वार्थी लोगों की स्वार्थपरायणता का परिणाम मानकर महत्वहीन समझा। स्वतंत्रता के बाद इस विषय पर काफी कार्य हुआ है। सुरेन्द्र नाथ सेन की पुस्तक में, जो भारत सरकार के कहने पर लिखी गई, इन घटनाओं का काफी संतुलित विवरण मिलता है। इस पुस्तक में सेन यह तर्क देते हैं कि यद्यपि इसे ‘राष्ट्रीय संग्राम’ नहीं कहा जा सकता पर इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा देना भी गलत होगा क्योंकि यह कहीं भी केवल सैनिकों तक सीमित नहीं रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का उदय नहीं हुआ था और इसीलिए उनसे यूरोपीय मॉडल पर राष्ट्रीय संघर्ष की परिकल्पना करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। विनायक दामोदर सावरकर ने इसे स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखा। पिछले पच्चीस वर्षों में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में कुछ नई प्रवृत्तियां देखने में आती हैं। इनमें भारतीय इतिहासकारों में इस विद्रोह को स्वतंत्रता संघर्ष मानने की प्रवृत्ति झलकती है। परिणामस्वरूप विभिन्न प्रांतों में इस विद्रोह के चिह्न ढूंढ़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। वास्तव में विभिन्न साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि 1857 का विद्रोह एक सीमा तक स्वतंत्रता संग्राम ही था। परंतु इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व हमें विभिन्न पक्षों का भी मूल्यांकन करना समीचीन होगा।
के. मालसन, ट्रेविलियन, लारेन्स तथा होम्स जैसे अंग्रेजी इतिहासकारों ने, जो साम्राज्य के प्राकृतिक पक्षपाती थे, इसे केवल सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है, जो केवल सेना तक सीमित था और जिसे जनसाधारण का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। मुंशी जीवनलाल, मुईनुद्दीन, दुर्गादास बंदोपाध्याय और सर सैयद अहमद खां जैसे समकालीन भारतीय ने भी ऐसे ही विचार प्रस्तुत किए। परंतु यह व्याख्या ठीक नहीं है। निःसंदेह यह विद्रोह एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरंभ हुआ, परंतु सभी स्थानों पर यह सेना तक ही सीमित नहीं रहा तथा सभी सैनिकों ने भी विद्रोह नहीं किया। सेना का कुछ भाग सरकार की ओर से भी लड़ा। विद्रोही, जनता के प्रत्येक वर्ग से आए। 1858-59 के अभियोगों में सहड्डों असैनिक, सैनिकों के साथ-साथ विद्रोह के दोषी पाए गए और उन्हें दंड दिया गया। इतिहासकार एल.ई.आर. रीज के कथन से सहमत होना कि फ्यह धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था" बहुत कठिन है। यह सत्य है कि भारत के श्वेत लोग एक ओर थे, परंतु सभी काले लोग दूसरी ओर नहीं थे।
भारतीयों ने गोरे सैनिकों की हर प्रकार से सहायता की। टी.आर. होम्स जैसे अंग्रेज इतिहासकारों ने इस विचार को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया है कि यह तो ‘बर्बरता तथा सभ्यता’ के बीच युद्ध था। परंतु इस व्याख्या से भी संकीर्ण जातिभेद की गंध आती है। विद्रोह में दोनों ही पक्ष ज्यादतियों के दोषी थे। कोई भी राष्ट्र अथवा जाति जो इस प्रकार के अत्याचार करती है, सभ्य कहलवाने का दावा नहीं कर सकती। सर जेम्स आउट्रम तथा डब्ल्यू. टेलर ने इस विद्रोह को हिंदू-मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम बताया है। आउट्रम का विचार था कि फ्यह मुस्लिम षड्यंत्र था जिसमें हिन्दू शिकायतों का लाभ उठाया गया।" यह व्याख्या भी पर्याप्त नहीं है।
बेंजामिन डिजरैली, जो इंग्लैंण्ड में समकालीन रूढि़वादी दल के एक प्रमुख नेता थे, ने इसे एक ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहा। उसका विचार था कि यह विद्रोह एक ‘आकस्मिक प्रेरणा नहीं था अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था और वह एक सुनियोजित और सुसंगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो अवसर की प्रतीक्षा में थे। साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों से नहीं होते, ऐसे विद्रोह पर्याप्त और उचित कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।’ अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक ‘महान विद्रोह’ में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 1857 के विद्रोह का स्वरूप राष्ट्रीय था। दो आधुनिक विशिष्ट भारतीय इतिहासकारों डॉ. आर.सी. मजूमदार तथा डॉ. एस.एन. सेन ने समस्त उपलब्ध राजकीय एवं अराजकीय आलेखों का विस्तृत अध्ययन किया है। यद्यपि 1857-58 की घटनाओं के विषय में दोनों विद्वानों में मतभेद है। परंतु दोनों विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि 1857 का विद्रोह किसी सचेत योजना का परिणाम नहीं था और न ही इसके पीछे कोई कुशल और सिद्धहस्त व्यक्ति था। इस तथ्य को भी दोनों ही विद्वान स्वीकार करते हैं कि मध्य उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीयता भ्रूणावस्था में थी। आर.सी. मजूमदार ने 1857 के विद्रोह का विश्लेषण अपनी पुस्तक में किया है। उनके अनुसार यह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। वे मानते हैं कि विद्रोह ने भिन्न-भिन्न रूप धारण किया। वे इस बात पर बल देते हैं कि वे तत्त्व जो, अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े, केवल सैनिक ही थे। सैनिकों की शिकायतें उसी प्रकार की थीं जैसे कि पहले हुए सैनिक विप्लवों में थी। सैनिकों के व्यवहार और आचरण में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे हम यह विश्वास कर लें कि वे अपने देश प्रेम से प्रेरित हुए थे अथवा यह कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध इसलिए लड़ रहे थे कि देश को स्वतंत्र करा सकें। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो यह प्रथम, न ही राष्ट्रीय तथा न ही स्वतंत्रता संग्राम था।
डॉ. एस.एन. सेन भी इसे राष्ट्रीय युद्ध नहीं मानते परंतु वे इसे स्वतंत्रता संग्राम के स्वरूप का अवश्य ही मानते हैं। उनके अनुसार, यदि एक विद्रोह जिसमें बहुत से लोग सम्मिलित हो जाएं तो उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य से उस समय भारत में अधिकतर लोग निष्पक्ष और तटस्थ रहे। इसलिए 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहना ठीक नहीं है परंतु यह स्वतंत्रता संग्राम था। उनका तर्क है कि क्रांतियां प्रायः एक छोटे से वर्ग का कार्य होती है, जिसमें जनता का समर्थन होता भी है और नहीं भी होता है। 1857 के विद्रोह में न सिर्फ सैनिकों ने बल्कि असैनिक लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। यह विद्रोह अंग्रेजी सरकार की आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व धार्मिक नीतियों व रवैयों के विरुद्ध था। यह उत्तरी भारत के एक बड़े भाग में फैला। यद्यपि इससे पहले भी समय-समय पर सरकार विरोधी विद्रोह हुए थे किंतु इतने व्यापक स्तर पर विद्रोह पहली बार हुआ और मेरठ के विद्रोहियों द्वारा बहादुरशाह का नेतृत्व स्वीकार कर लेने से इसका चरित्र राजनीतिक हो गया। धर्म के लिए शुरू हुई लड़ाई ने अंततः स्वतंत्रता युद्ध का रूप ले लिया। इसमें कोई शक नहीं कि विद्रोही शासन से मुक्ति और पुरानी व्यवस्था की बहाली चाहते थे। दिल्ली का बादशाह इस पुरानी व्यवस्था का आधिकारिक प्रतिनिधि था। इस समय सामंतों ने देश की सेवा की और कई जगहों पर लोगों ने अपने बेदखल नेताओं की भावनाओं को महसूस किया। भारतीय राष्ट्र की अवधारणा अभी गर्भ में ही थी। पंजाबी के लिए हिंदुस्तानी अभी भी अजनबी था। बहुत कम बंगाली यह समझते थे कि वे भी उसी राष्ट्र के निवासी हैं जिसके कि मराठा । मध्य भारत और राजपूताना की जनता दक्षिण भारत के लोगों से कोई रिश्ता नहीं मानती थी। साझा दुश्मन होने के कारण ही एकता की एक अस्पष्ट भावना थी। जातिगत, भाषागत और धार्मिक असमानताओं के बावजूद अंग्रेजों का साझा विरोध हिंदुस्तान की जनता की एकता का आधार था। राष्ट्रवाद की अनुपस्थिति में धर्म ने ही लोगों को एक साथ बांधने का काम किया। 1857 में धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए हर तबके के लोग सिपाहियों से मिलकर लड़े। 1857 से पूर्व के समय में ब्रिटिश राज को छोड़कर कुछ भी सुरक्षित दिखाई नहीं देता था। देश की संस्कृति, संस्थाएं तथा हित खतरे में दिखाई पड़ रहे थे। देशी राज्यों के राजा एक के बाद एक राज्य के विलयन से घबरा गये थे। वंशानुगत जमींदारों को भूमि से हाथ धोना पड़ा था। नवोदित जमींदारों को नफरत की दृष्टि से देखा जाता था। व्यापारी नये करों से परेशान थे। कास्तकारों का धंधा मंदी की ओर जा रहा था। अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था सामंजस्यहीन थी। हिंदू तथा मुसलमान सभी को ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था, ईसाई धर्म के प्रचार तथा कानूनों से अपनी संस्कृति तथा धर्मों के लिए खतरा महसूस होने लगा था। इस विद्रोह के दौरान विभिन्न वर्गों तथा धर्मों के लोगों ने जिस एकता की भावना का परिचय दिया उसे देखकर अंग्रेज भी दंग रह गए। मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, बरेली, फैजाबाद, झांसी, नागपुर, मथुरा सहित विभिन्न स्थानों पर लोगों ने जिस प्रकार अपनी जान की बाजी लगा दी उसे स्वार्थ सिद्ध करने की भावना का परिणाम नहीं माना जा सकता है। स्पष्टतः फिरंगियों की नीतियों के विरुद्ध आक्रोश तथा अपनी सभ्यता व संस्कृति को बनाए रखने की कटिबद्धता ने सैनिकों तथा गैर-सैनिकों, जमींदारों तथा किसानों सभी को प्रेरणा प्रदान की। इस सीमा तक इसे स्वतंत्रता के लिए युद्ध कहा जा सकता है। इस विद्रोह का राष्ट्रीय महत्व अप्रत्यक्ष और उत्तरकालिक था। 1857 की लड़ाई को चाहे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना जाए अथवा संस्कृति की रक्षा के लिए किया गया संघर्ष, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इस समय के कारनामे बलिदान की प्रेरणा का ड्डोत बने रहे। इसके नेताओं के नाम तथा विद्रोहियों के कारनामों की कथाएं घर-घर कही जाने लगी तथा ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गए। ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर यह पहला धक्का था। अपने देश को आजाद कराने के लिए हजारों-लाखों ने अपना खून बहाया। हालांकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में यह सफल नहीं हो सका परंतु जब इस शताब्दी की शुरुआत में देशभक्तों के एक नए दल ने नए सिरे से स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू की तो उन्होंने 1857 के विद्रोह का पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्वागत किया।
Question : इंडियन मुस्लिम लीग के उद्भव और विकास का वर्णन कीजिए।
(1999)
Answer : अलीगढ़ आंदोलन ने जिस बौद्धिक जागरूकता का विस्तार किया, उससे मुसलमानों को अपनी एक पहचान स्थापित करने में सहायता मिली। इसी जागरूकता से आगे चलकर उन्हें राजनीतिक रूप में संगठित होने का अवसर मिला। अलीगढ़ कॉलेज शीघ्र ही मुसलमानों में एक नवीन राजनीतिक आंदोलन का केंद्रबिंदु बन गया।
सैयद अहमद खां तथा अलीगढ़ आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा उसके उद्देश्यों के प्रति आरंभ से ही एक शत्रुता दिखाई। अलीगढ़ आंदोलन, भारत के कोने-कोने में मुस्लिम आंदोलन का सूत्रधार बना और इसने भारतीय राजनीति में अलगाववादी शक्तियों को बढ़ावा दिया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ से इंग्लैंड स्थित भारत सचिव से जिला प्रशासक तक सभी पदाधिकारी इस बात पर तुले हुए थे कि यदि भारत में अंग्रेजी सत्ता को बनाए रखना है तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बढ़ती हुई शक्ति का कोई न कोई प्रतितोलन ढूंढ़ना ही पड़ेगा। ऐसा ही एक प्रतितोलन था मुसलमानों के लिए पृथक स्थानों का आरक्षण तथा उनके चुनाव में केवल मुसलमान मतदाता का ही भाग लेना। उस समय नये संवैधानिक सुधार विचाराधीन थे और ऐसा सुअवसर स्वयं ही उपस्थित हो गया। अलीगढ़ के तीसरे प्राचार्य आर्चबोल्ड के सुझाव पर मुसलमानों के एक धार्मिक नेता आगा खां एक प्रतिनिधिमंडल लेकर 1 अक्टूबर, 1906 को शिमला में लार्ड मेयो से मिले। प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने अंग्रेजी क्राउन के प्रति अपनी राजभक्ति की भावना व्यक्त की ओर उनके सुधारों की प्रशंसा भी की परंतु उन्होंने चुनावों पर अपनी शंका व्यक्त की, कि संयुक्त चुनाव प्रणाली उनके हित में नहीं होगी। प्रतिनिधिमंडल ने यह भी कहा कि मुसलमानों को केवल जनसंख्या के आधार पर स्थानों का आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, अपितु यह उनके राजनीतिक महत्व तथा साम्राज्य की रक्षा में की गई सेवाओं के आधार पर मिलना चाहिए। लार्ड मिंटो ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और 1909 के सुधार अधिनियम में इसे स्थान दिया गया। शिमला प्रतिनिधिमंडल के समय मुस्लिम नेताओं ने एक केंद्रीय मुस्लिम सभा बनाने की योजना बनाई, जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था। इसी दृष्टिकोण के तहत 30 दिसम्बर, 1906 को ‘अखिल भारतीय मुस्लिम लीग’ का विधिवत् गठन किया गया। इसके उद्देश्य निम्नलिखित थेः
1.भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति की भावना को प्रोत्साहित करना तथा यदि सरकार के प्रति कोई गलत धारणा उठे तो उसे दूर करना।
2.भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना तथा उनकी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को मर्यादापूर्ण शब्दों में सरकार के सम्मुख रखना।
3.पहले एवं दूसरे उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए यथासंभव मुसलमानों तथा अन्य भारतीय संप्रदायों के बीच सद्भाव बढ़ाना।
वस्तुतः आरंभ से ही मुस्लिम लीग एक सांप्रदायिक संगठन था जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य हितों की रक्षा करना था। इसका यह स्वरूप 1947 तक बना रहा। 1913 के उपरांत लगभग एक दशक तक मुस्लिम लीग उदारवादी मुस्लिम नेताओं के प्रभाव में आ गई जिनमें मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना मजहर-उल-हक, सैयद वजीर हुसैन, हसन इमाम तथा मुहम्मद अली जिन्ना (जो उन दिनों राष्ट्रवादी थे) प्रमुख थे। सर्वइस्लामी प्रचार तथा खिलाफत आंदोलन के कारण मुस्लिम लीग कांग्रेस के बहुत समीप आ गई और इसके फलस्वरूप 1916 में कांग्रेस-लीग समझौता हो गया। 1920 से 1923 तक मुस्लिम लीग की कार्यवाही लगभग ठप्प रहीं, परंतु साइमन आयोग की नियुक्ति (1927-30) तथा लंदन में हुई गोलमेज कान्फ्रेंसों (1930-32) से मुस्लिम लीग में पुनः जान आ गई। यद्यपि 1920 के उपरांत जिन्ना का राष्ट्रवाद से संक्रमण होकर सांप्रदायिक राजनीति की ओर झुकाव आरंभ हो गया था परंतु 1930 के बाद जिन्ना लीग के निर्विवाद नेता बन गए थे। उसने अपने लिए लीग में वही स्थान बना लिया था जो गांधीजी को कांग्रेस में उपलब्ध था।
22 दिसम्बर, 1928 को कलकत्ता में एक प्रतिनिधि सभा बुलाई गई जिसमें सर्वदलीय कांफ्रेंस द्वारा स्वीकृत ‘नेहरू संविधान’ पर पुनर्विचार हुआ। इसमें जिन्ना ने अपने विचार की सविस्तार व्याख्या की और एक संशोधन प्रस्तुत किया जिसके अनुसार केंद्र में मुस्लिम सदस्यों को एक-तिहाई स्थान मिलना चाहिए तथा अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों के पास होनी चाहिए। यह संशोधन स्वीकार नहीं किया गया। अतएव अगले वर्ष के आरंभ में ही (28 मार्च, 1929) दिल्ली में हुई मुस्लिम लीग की सभा ने ‘नेहरू संविधान’ को अस्वीकार कर दिया और फिर न्यूनतम मुस्लिम मांगों को 14 बिन्दुओं के रूप में प्रस्तुत किया। द्वितीय गोलमेज कान्फ्रेंस में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए चुनाव प्रतिनिधित्व पर कोई सर्वसम्मत सहमति नहीं हो सकी अतः ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडॉनल्ड ने अपना प्रसिद्ध सांप्रदायिक निर्णय (कम्यूनल अवार्ड) 16 अगस्त, 1932 को घोषित कर दिया जिसमें वह सभी कुछ स्वीकार कर लिया गया था जो साइमन आयोग को भी असंगत लगता था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अधीन प्रांतीय विधान मंडलों के लिए पहला चुनाव 1937 में हुआ। मुस्लीम लीग अपने कार्यक्रम के आधार पर चुनाव लड़ा और उसे केवल थोड़ी सी सफलता मिली। मुसलमानों के लिए 485 आरक्षित स्थानों में से उसे केवल 110 स्थान ही मिले। मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत, बंगाल तथा सिंध में भी उसे अन्य मुस्लिम दलों ने पछाड़ दिया। मुस्लिम लीग ने बंगाल, असम और पंजाब में कांग्रेस से मिलकर मिली-जुली सरकारें बनाने की इच्छा प्रकट की परंतु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। जब अक्टूबर, 1939 में युद्ध के प्रश्न पर कांग्रेस मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया तो मुस्लिम लीग ने मुक्ति तथा धन्यवाद दिवस मनाया।
हिन्दू तथा मुसलमान पृथक-पृथक जातियां हैं, इसकी घोषणा असंदिग्ध शब्दों में मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के मार्च, 1940 के लाहौर अधिवेशन में की और भारत के बंटवारे की मांग करते हुए मुस्लिम लीग ने प्रस्ताव पारित किया। इस प्रकार मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन (1940) ने लीग को एक आकांक्षा और एक कार्यक्रम दिया। इसके बाद मुसलमानों के लिए पाकिस्तान धर्मनिष्ठा का उतना ही महत्वपूर्ण भाग बन गया जितना कि कुरान। लिनलिथगो के ‘अगस्त प्रस्ताव’ का मुस्लिम लीग ने स्वागत किया और एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया था कि ‘भारत के भावी संविधान के कठिन प्रश्न का एकमात्र हल केवल विभाजन ही है।’ मुस्लिम लीग ने क्रिप्स योजना (1942) को अस्वीकार कर दिया तथा पाकिस्तान की मांग की पुनरावृत्ति की। लार्ड वेवेल ने शिमला में जून-जुलाई 1945 में एक सम्मेलन बुलाया ताकि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के मतभेद दूर हो सकें। कांग्रेस ने अपने सदस्यों में से दो कांग्रेसी मुसलमान नियुक्त करने का प्रस्ताव किया। जिन्ना ने इस बात पर बल दिया कि सभी मुस्लिम सदस्य लीग द्वारा ही मनोनीत किये जाएं। लॉर्ड वेवेल ने सम्मेलन में गतिरोध होने पर उसे समाप्त कर दिया। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार कर लिया गया कि जिन्ना को भारत की संवैधानिक प्रगति में रोड़ा अटकाने का पूरा अधिकार है। 1945-46 के आम चुनावों में मुस्लिम लीग ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत को छोड़कर शेष सभी मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में काफी स्थान जीत लिए। उसे मुसलमानों के लगभग 75 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। इस प्रकार लीग ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह एक सुदृढ़ राजनीतिक दल है।
मार्च 1946 में एक कैबिनेट मिशन भारत आया जिसका अध्यक्ष भारत सचिव पैथिक लारेंस था। कैबिनेट मिशन की योजना 16 मई, 1946 को प्रकाशित की गई, जिसमें पाकिस्तान की मांग अस्वीकार कर दी गई थी परंतु इसने लीग की मांग आंशिक रूप से स्वीकार कर ली तथा सभी प्रांतों को तीन भागों में बांटने का सुझाव दिया। इन राज्य समूहों को पूर्ण स्वशासन मिलना था। इससे लगभग पाकिस्तान का सार मिल जाता और मुस्लिम अल्पसंख्यक संप्रदाय को पूर्ण आश्वासन मिल जाता था। परंतु बाद में मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन की योजना से स्वीकृति वापस ले ली और 16 अगस्त, 1946 को ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके तहत लीग ने बंगाल, उ.प्र., बंबई, पंजाब, सिंध तथा उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में सांप्रदायिक दंगे भड़काए। उसने संविधान सभा का बहिष्कार किया परंतु अंतरिम सरकार में शामिल हो गयी ताकि सरकारी कामकाज में बाधाएं उत्पन्न की जा सके। सरकारी संरक्षण के अतिरिक्त जिन्ना का मस्तिष्क अत्यंत षड्यंत्रकारी था। जब उसने पाकिस्तान की योजना मुस्लिम समुदाय के समक्ष रखी तो जनता ने इसे बहुत पसंद किया क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक लाभ की आशा थी। मुस्लिम लीग ने एक अत्यंत मूलभूत परिवर्तनशील विचार प्रस्तुत किया। उसने बंगाली तथा पंजाबी कृषक को यह विश्वास दिलाया कि पाकिस्तान बनने से उन्हें हिन्दू जमींदारों तथा बनियों से छुटकारा मिल जाएगा। उभरते हुए बुद्धिजीवियों तथा छोटे से व्यापारी वर्ग को यह कहा गया कि इससे उन्हें भिन्न-भिन्न सेवाओं में तथा व्यापार में हिन्दुओं की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार मुस्लिम लीग का पाकिस्तान आंदोलन अब यू.पी. के जमींदारों तथा तालुकदारों का पुराना अलीगढ़ आंदोलन नहीं रह गया था अपितु इसका आधार विस्तृत हो गया था जिसमें समस्त भारत के मुसलमान सम्मिलित हो गये थे। 1946 के अंत तक यह स्पष्ट हो चुका था कि कांग्रेस तथा लीग मिलकर कार्य नहीं कर सकती थी, इसलिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने संकेत कर दिया कि अब वह देश के बंटवारे की ओर बढे़गी। मार्च, 1947 में गांधीजी ने जिन्ना को अंतरिम सरकार का सर्वेसर्वा बनाने का अनुरोध किया परंतु कांग्रेस सहित जिन्ना ने गांधीजी के सुझाव का विरोध किया। माउंटबेटन योजना (1947) का मुस्लिम लीग ने स्वागत किया और इस प्रकार देश के विभाजन की पृष्ठभूमि बन गयी। अंततः माउंटबेटन योजना द्वारा देश को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्यों में बांट दिया गया। देश के इस विभाजन से हिन्दू और मुसलमान दोनों को अत्यधिक कष्ट सहन करना पड़ा और भयंकर रक्तपात हुआ। मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने तथा ‘कायदे आजम’ की उपाधि से विभूषित किए गये।
Question : फ्गांधी की रहस्यात्मकता में मौलिक विचारों का, दांवपेंचों की सहज प्रवृत्ति और लोक चेतना में अनोखी पैठ के साथ अनोखा मेल शामिल है।" व्याख्या कीजिए।
(1999)
Answer : मार्च, 1919 में जब मोहनदास करमचंद गांधी ने ‘रौलट एक्ट’ के खिलाफ सत्याग्रह का नारा दिया तो यह भारत में देशव्यापी संघर्ष छेड़ने का उनका पहला प्रयत्न था। वह व्यक्तित्व जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर संभालने ही वाला था और जिसके नेतृत्व में इस संग्राम को सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजरना था, उनकी रहस्यात्मकता में मौलिक विचारों का, दांवपेंचों की सहज प्रवृत्ति और लोक चेतना में अनोखी पैठ के साथ अनोखा मेल शामिल था।
ब्रिटेन में कानून की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गये। न्याय की उच्च भावना से प्रेरित होकर उन्होंने उस नस्लवादी अन्याय, भेदभाव और हीनता के खिलाफ संघर्ष किया जिसका शिकार दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशों में भारतीयों को होना पड़ रहा था। गांधीजी इसके विरोध में चलने वाले संघर्ष के शीघ्र ही नेता बन गये। 1893-94 से वे दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी अधिकारियों के खिलाफ एक बहादुराना मगर असमान संघर्ष चलाने लगे। लगभग दो दशक लंबा यही वह संघर्ष था जिसके दौरान उन्होंने सत्य एवं अहिंसा पर आधारित मौलिक विचारों का और सत्याग्रह नामक मौलिक तकनीक का विकास किया। उनके अनुसार एक आदर्श सत्याग्रही सत्यप्रेमी और शांति प्रेमी होता है, मगर जिस बात को गलत समझता है उसे स्वीकार करने से दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देता है। वह गलत काम करने वालों के खिलाफ संघर्ष करते हुए हंसकर कष्ट सहन करता है। यह संघर्ष उसके सत्य प्रेम का ही अंग होता है। लेकिन बुराई का विरोध करते हुए भी वह बुरे से प्रेम करता है। एक सच्चे सत्याग्रही को प्रकृति में घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होता है। इसके अलावा वह एकदम निडर होता है। चाहे जो परिणाम हो, वह बुराई के सामने नहीं झुकता है। गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा कायरों और कमजोरों का अस्त्र नहीं है। केवल निडर और बहादुर लोग ही इसका उपयोग कर सकते हैं। गांधीजी के दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि वे विचार एवं कर्म में कोई अंतर नहीं रखते थे। उनका सत्य-अहिंसा पर आधारित दर्शन जोशीले भाषणों और लेखों के लिए न होकर रोजमर्रा के जीवन के लिए था। गांधी जी 46 वर्ष की आयु में 1915 में भारत आए। पूरे एक वर्ष तक उन्होंने देश का भ्रमण किया और भारतीय जनता की दशा को समझा। उन्हें जनता की संघर्ष क्षमता पर अटूट भरोसा था। उन्होंने 1916 में अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम की स्थापना की जहां उनके मित्रों और अनुयायियों को रहकर सत्य-अहिंसा को समझना तथा व्यवहार करना पड़ता था। उन्होेंने संघर्ष की अपनी इस नई विधि पर आधारित यहां अनेक प्रयोग किये। उनके अहिंसक आंदोलन की रणनीति यह थी कि दमनकारी सत्ता यदि इस आंदोलन के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई करेगी तो उसका चरित्र बेनकाब हो जाएगा क्योंकि अहिंसक और निहत्थे लोगों पर हमले से पूरा जनमत उनके खिलाफ हो जाएगा।
गांधीजी द्वारा अपनाए गये दांव-पेंचों को समझने के लिए उनके कार्यों के तरीकों एवं प्रयोगों का विश्लेषण करना होगा। गांधीजी ने सत्याग्रह का अपना पहला प्रयोग बिहार के चंपारण जिले में 1917 में किया। यहां नील के खेतों में काम करने वाले किसानों पर यूरोपीय नीलहे बहुत अधिक अत्याचार करते थे। किसानों को अपनी जमीन के कम से कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा नीलहों द्वारा तय दामों पर उन्हें बेचना पड़ता था। गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के संघर्षों की कहानी सुनकर चंपारण के अनेक किसानों ने उन्हें वहां आकर उनकी सहायता का निमंत्रण दिया। अपने अनुयायियों के साथ गांधीजी 1917 में वहां पहुंचे और किसानों के हालत की विस्तृत जांच करने लगे। जिले के अधिकारियों ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया मगर उन्होंने न सिर्फ आदेश का उल्लंघन ही किया अपितु जेल-मुकदमे के लिए तैयार रहे। सरकार ने मजबूर होकर पिछला आदेश रद्द कर दिया। इस तरह भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन की पहली लड़ाई गांधीजी ने जीत ली। 1918 में गांधीजी ने अहमदाबाद के मजदूरों और मिल मालिकों के एक विवाद में हस्तक्षेप किया। उन्होंने मजदूरों की मजदूरी में 35 प्रतिशत वृद्धि की मांग की तथा इसके लिए हड़ताल पर जाने की राय दी। लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि हड़ताल के दौरान मजदूर मालिकों के खिलाफ हिंसा का प्रयोग न करें। मजदूरों के हड़ताल जारी रखने के संकल्प को बल देने के लिए उन्होंने आमरण अनशन किया। उनके अनशन ने मिल मालिकों पर दबाव डाला और वे नर्म पड़कर मजदूरी 35 प्रतिशत बढ़ाने पर सहमत हो गए। 1918 में ही गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसल चौपट हो गयी। मगर सरकार ने लगान छोड़ने से एकदम इंकार कर दिया और पूरा लगान वसूल करने पर उतारू हो गई। गांधीजी ने किसानों का साथ दिया और उन्हें राय दी कि जब तक लगान में छूट नहीं मिलती, वे लगान देना बंद कर दें। जब यह खबर फैली कि सरकार ने केवल उन्हीं किसानों से लगान वसूलने के आदेश दिए हैं जो लगान दे सकते हों तभी यह संघर्ष वापस लिया गया।
इन अनुभवों ने गांधीजी को जनता के घनिष्ठ संपर्क में ला दिया और वे जीवन भर उनके हितों की सक्रिय रूप से रक्षा करते रहे। वे वास्तव में भारत के ऐसे पहले राष्ट्रवादी नेता थे, जिन्होंने अपने जीवन से एकाकार कर लिया था। जल्दी ही वे गरीब भारत, राष्ट्रवादी भारत और विद्रोही भारत के प्रतीक बन गये। गांधीजी को तीन दूसरे लक्ष्य भी जान से प्यारे थे। इनमें पहला था- हिंदू-मुसलमान एकता, दूसरा था छुआछूत विरोधी संघर्ष और तीसरा था देश की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारना। गांधीजी एक धर्मप्राण व्यक्ति थे, मगर उनका सांस्कृतिक-धार्मिक दृष्टिकोण संकुचित न होकर बहुत व्यापक था। वे चाहते थे कि भारतीय पूरी तरह अपनी संस्कृति में लीन हों, मगर साथ ही दूसरी विश्व संस्कृतियों से जो कुछ अच्छे तत्त्व मिलते हों उन्हें स्वीकार करें। दक्षिण अफ्रीका की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण विभिन्न धर्मों, समुदायों और वर्गों के लोग इन आंदोलनों में एकजुट होकर खड़े हुए। इनमें हिंदू, मुसलमान, पारसी, गुजराती, दक्षिण भारतीय उच्च वर्ग के व्यापारी एवं वकील तथा न्यू कैसल के खान मजदूर भी इन आंदोलनों में शामिल थे। गांधीजी आजीवन जिस हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता और संभावना को मानते रहे, उसका आधार निश्चय ही दक्षिण अफ्रीका के उन आंदोलनों में था जिनमें मुसलमान व्यापारी अत्यधिक सक्रिय रहे थे। दक्षिण अफ्रीका ने गांधीजी को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी प्रदान की। दक्षिण अफ्रीका में रह रहे जिन भारतीयों के संबंध अभी तक भारत के विभिन्न भागों में स्थित अपने घरों से बने हुए थे, वे समस्त भारत में गांधीजी का नाम फैलाने में सहायक हुए।
मूल गांधीवादी पद्धति का निरूपण दक्षिण अफ्रीका में 1906 के पश्चात् हुआ। इसके लिए अनुशासित कार्यकर्ताओं को बड़ी सावधानी से प्रशिक्षित करने की आवश्यकता थी। इसके लिए अहिंसक सत्याग्रह की आवश्यकता थी, जिसके अंतर्गत विशिष्ट कानूनों के शांतिपूर्ण उल्लंघन की, सामूहिक गिरफ्रतारियां देने की, कभी-कभार शांतिपूर्ण हड़ताल एवं शानदार मार्च निकालने की योजना थी। इसमें स्पष्ट रूप से विचित्र तरीके अपनाने के साथ ही संगठनात्मक और विशेषकर वित्तीय बातों पर ध्यान दिया जाता था। वार्ताओं और समझौतों के लिए तत्परता के परिणामस्वरूप कभी-कभी आंदोलन को अचानक ही एकतरफा ढंग से वापस भी ले लिया जाता था जिसे लोग पसंद नहीं करते थे। परंतु ऐसा करने का मूल कारण यह था कि जनता की दमन सहने और बलिदान करने की शक्ति अपरिमित नहीं होती। आंदोलन को वापस लेना विश्वासघात नहीं हुआ करता, यह तो रणनीति का हिस्सा था। गांधीजी ने खादी, ग्रामों में रचनात्मक कार्यों एवं हरिजन-कल्याण के माध्यम से अपने संदेश को मूर्त रूप दिया। जनता के बीच गांधीजी की लोकप्रियता बढ़ाने में उनकी राजनीतिक शैली भी पर्याप्त सहायक हुई, जैसे तीसरी श्रेणी में यात्र करना, आसान एवं स्थानीय भाषाओं में बोलना, 1921 के पश्चात् केवल लंगोटी पहनकर रहना और तुलसीदास के रामचरित मानस के बिंब विधान को प्रयुक्त करना, जो उत्तरी भारत के हिंदू जनमानस में गहन रूप से बैठा हुआ था।
गांधीजी की विधि को किसानों, दस्तकारों और शहरी गरीबों के राजनीतिक समर्थन पर अधिकाधिक निर्भर रहना था। गांधीजी ने राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से गांवों में जाने का आग्रह किया। इन्होंने समझाया कि भारत वहीं बसता है। उन्होंने राष्ट्रवाद को अधिकाधिक साधारण जनता की ओर मोड़ा। श्रम की महत्ता और आत्मनिर्भरता का महत्व समझाने के लिए गांधीजी स्वयं रोज सूत कातते थे। उन्होंने कहा कि भारतकी मुक्ति तभी संभव है जब जनता नींद से जाग उठे और राजनीति में सक्रिय हो। जनता ने भी गांधीजी के आह्नान का जोरदार उत्तर दिया। गांधीजी ने पुराने नेताओं की बुनियादी कमजोरी को जान लिया था। उन्हें किसानों की समस्याओं तथा मानसिकता की बुनियादी समझ भी थी और उनके साथ हमदर्दी भी। इसलिए वे किसानों को आकर्षित करके राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में लाने में समर्थ रहे।
इस तरह वे भारतीय जनता के सभी वर्गों को उभार कर और उनमें एकता कायम करके एक जुझारू राष्ट्रीय जन आंदोलन खड़ा करने में समर्थ रहे। उन्हीं के नेतृत्व संभालने के कारण 1919 के मार्च-अप्रैल माह में रॉलेक्ट एक्ट विरोधी आंदोलन के दौरान भारत में अभूतपूर्व राजनीतिक जागरण आया। लगभग पूरा देश एक नई शक्ति से भर उठा। हड़ताल, काम रोको अभियान, जुलूस और प्रदर्शन होने लगे।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के नारे हवा में गूंजने लगे। अब मात्र आंदोलन करने तथा अपने असंतोष और क्रोध को मौखिक रूप से अभिव्यक्त करने की जगह अब राष्ट्रवादी सक्रिय कार्य भी कर सकते थे। भारतीय जनता अब विदेशी शासन के अपमान को और सहने को तैयार नहीं थी। वास्तव में गांधीजी के आकर्षण में रहस्यमयी मौलिक विचारों का, सहज प्रवृत्ति की दांव पेंचों का तथा लोक-चेतना के अनोखी पहुंच का अनोखा सम्मिश्रण देखा जा सकता है।
Question : अंग्रेजों ने ‘‘पहला मराठा युद्ध उस समय लड़ा, जब उनकी दशा सबसे खराब थी।’’
(1998)
Answer : अंग्रेजों और मराठों में पहला युद्ध 1775 ई. में आरंभ हुआ। उस समय अंग्रेजों की दशा बेहद खराब थी। वे मराठों की शक्ति एवं सक्षमता से अवगत थे। बंबई की अंग्रेजी सरकार ने मराठों के आंतरिक मामले में रघुनाथ राव की तरफ से हस्तक्षेप किया था। पेशवा माधव राव-द्वितीय उस समय अल्पवयस्क था और रघुनाथ राव खुद पेशवा बनना चाहता था। अंग्रेजों के इस हस्तक्षेप ने मराठा सरदारों को अपने आपसी झगड़ों को भूलाकर पेशवा और उनके मुख्यमंत्री नाना फड़नवीस के समर्थन में एक होने के लिए मजबूर कर दिया। दूसरी तरफ हैदर अली और हैदराबाद के निजाम जैसे अन्य दक्षिण भारतीय शासक काफी लंबे समय से अंग्रेजों के हस्तक्षेप वाली नीति के कारण उनसे खार खाये हुए थे। मराठों के साथ-साथ हैदर अली और निजाम ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की शुरुआत कर दी थी। इस तरह अंग्रेजों को पहली बार भारत की तीन ताकतवर शक्तियों का एक साथ सामना करना पड़ा। साथ ही, विदेशों में भी फ्रांसीसियों से वे युद्ध में हार रहे थे। भारत में उन्हें मराठों, हैदर अली एवं निजाम की शक्तियों का सामना करने के साथ-साथ फ्रांसीसियों के षड्यंत्रों का सामना भी करना पड़ रहा था। फ्रांसीसी अंग्रेजों की दिक्कतों से लाभ उठाने में लगे हुए थे।
अतः अंग्रेजों के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति थी, जिसमें उन्हें अकेले ही कई समस्याओं का सामना भी करना था और साथ-ही मराठों की शक्ति का जवाब भी देना था। असमंजस और विपरीत परिस्थितियों के दबाव के बीच अंग्रेजों ने मराठों से प्रथम युद्ध लड़ा। युद्ध सात वर्ष तक चलता रहा तथा अन्त में सालबाई की सन्धि (1782) से युद्ध समाप्त हो गया। विजित क्षेत्र लौटा दिये गये। लेकिन यह शक्ति परीक्षण अनिर्णायक ही रहा।
Question : अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने किस प्रकार बंगाल को जीता? वे कौन-सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने उनकी सहायता की?
(1998)
Answer : अंग्रेजों का बंगाल के साथ निरंतर संबंध 1630 के दशक में शुरू हुआ। पूरब में प्रथम अंग्रेजी कंपनी की स्थापना 1633 में उड़ीसा में (बालासोर में) हुई और फिर हुगली, कासिम बाजार, पटना और ढाका में। 1689 में अंग्रेजी कंपनी को सुतानति, कलकत्ता एवं गोविन्दपुर नाम के तीन गांवों का जमींदारी अधिकार प्राप्त हो गया और कंपनी द्वारा इस स्थान पर कलकत्ता की स्थापना के साथ ही बंगाल में अंग्रेजी व्यापारिक बस्ती को बसाने की प्रक्रिया का काम पूरा हो गया। 1680 तक बंगाल में कंपनी का वार्षिक निवेश 150,000 पौंड तक पहुंच गया।
17वीं शताब्दी से ही अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में स्वतंत्र रूप से व्यापार करने दिया गया। इसके बदले में कंपनी को मुगल सम्राट को 3000 रुपये (350 पौंड) वार्षिक अदा करने पड़ते थे। जिस समय कंपनी मुगल सम्राट को बंगाल में स्वतंत्र व्यापार के लिए एक वर्ष में 350 पौंड अदा करती थी, उस समय बंगाल से कंपनी का निर्यात 50,000 पौंड मूल्य से भी अधिक प्रतिवर्ष का था।
परंतु, प्रांतीय सूबेदार कंपनी को दिये जाने वाले इस तरह के विशेषाधिकारों का समर्थन नहीं करते थे, क्योंकि इससे उनके राजस्व को भारी नुकसान होता था। इसलिए प्रांतीय प्रशासन की ओर से अंग्रेजी कंपनी पर प्रांत में व्यापार के लिए अधिक अदायगी के लिए सदैव भारी दबाव रहता था। बंगाल में स्वतंत्र प्रभुत्व को स्थापित करने वाले सूबेदार मुर्शीद कुली खान कंपनी द्वारा उपयोग किये जाने वाले विशेषाधिकारों के समर्थन में नहीं था, क्योंकि इस कारण सरकारी कोषका नुकसान होता था। इसलिए बंगाल में 18वीं सदी के मध्य से पहले ही अंग्रेजों और प्रांतीय सरकार के बीच झगड़ा पैदा हो गया। जिस समय अंग्रेजों के उभरते व्यापारिक हित बंगाल की राजनीति के लिए एक गंभीर खतरा बनते जा रहे थे, उसी समय प्रांतीय प्रशासन में स्वयं ही कुछ कमजोरियां पैदा हो गयी थीं। प्रांतीय शक्ति का स्थायित्व निम्नलिखित कुछ निश्चित शर्तों पर निर्भर करता थाः
विभिन्न प्रकार के गुटों की नवाब से भिन्न-भिन्न आशायेंथीं। नवाब के शासन का स्थायित्व इन गुटों के बीच उचित संतुलन बनाये रखने पर निर्भर करता था। शासक एवं विभिन्न गुटों के बीच के शक्ति समीकरण में आम आदमी का कोई स्थान नहीं था। शासकों की ओर से साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में आम जनता को शामिल करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। 1757 से 1765 तक का बंगाल का इतिहास नवाबों से अंग्रेजों को राजनैतिक सत्ता के क्रमिक हस्तांतरण का इतिहास है। इस संक्षिप्त 8 वर्ष के समय के दौरान बंगाल के ऊपर तीन नवाबों सिराजुद्दौला, मीर जाफर और मीर कासिम ने शासन किया। परंतु, वे नवाब की प्रभुसत्ता को कायम रखने में असफल रहे और अंततः शासन का नियंत्रण अंग्रेजों के हाथों में चला गया।
अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला को नवाब पद से हटाने के लिए सिराज की चाची घसीटी बेगम तथा पूर्णिया के सूबेदार उसके चचेरे भाई शौकत जंग, जगत सेठ, अमीचंद, राज बल्लभ, रायदुर्लभ, मीर जाफर आदि के साथ मिलकर षड्यंत्र किया। मीर जाफर को हटाने के लिए मीर कासिम के साथ मिलकर षड्यंत्र किया, तो स्वयं मीर कासिम को हटाने के लिए मीर जाफर का इस्तेमाल किया। इस तरह अंग्रेजों ने बंगाल पर कब्जा करने के लिए शक्तिशाली गुटों एवं व्यक्तियों को ही एक दूसरे से लड़ा कर लाभ उठाया।
1757 के 1765 तक की राजनीतिक घटनाओं के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि किस ढंग से अंग्रेजों ने धीरे-धीरे नवाब के आधिपत्य को कम किया और कैसे बंगाल पर अपने नियंत्रण को स्थापित किया। बंगाल में इस दौरान जो कुछ घटित हुआ, उसको कुछ इतिहासकारों ने ‘राजनीतिक क्रांति’ का नाम दिया है। इस क्रांति के क्या कारण थे, इस प्रश्न पर इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। कुछ इतिहासकारों द्वारा क्रांति के कारणों को नवाबों की व्यक्तिगत असफलताओं में खोजने का प्रयास मान्य नहीं है। सिराजुद्दौला का अभियान या मीर जाफर का विश्वासघात या मीर कासिम की व्यक्तिगत सीमाओं को, बंगाल की राजनीतिक संरचना में होने वाले इस रूपांतरण का कारण नहीं माना जा सकता। अंग्रेजों तथा नवाबों के बीच के संघर्ष से जो प्रश्न जुड़े थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे। कुछ इतिहासकारों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थों ने नवाबों के बीच विवादों को पैदा किया। अधिक व्यापार विशेषाधिकारों तथा उपहारों की आकांक्षाओं के कारण अंग्रेज लोग, व्यक्तिगत रूप से नवाबों के प्रभुत्व का उल्लंघन करने लगे। कंपनी के अधिकारियों द्वारा इस व्यापारिक विशेषाधिकार का दुरुपयोग अपने व्यक्तिगत व्यापार के लिए किया जाना नवाबों के कोष के लिए काफी नुकसानदायक साबित हो रहा था। सिराजुद्दौला और मीर कासिम दोनों ने कंपनी से इस दुरुपयोग की शिकायत की, परंतु स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया।
यद्यपि अंग्रेजों के व्यक्तिगत स्वार्थ नवाबों के साथ संघर्ष के लिए उत्तरदायी थे, लेकिन कंपनी भी उसके लिए समान रूप से उत्तरदायी थी। कंपनी और अधिक व्यापारिक विशेषाधिकारों के लिए नवाबों पर दबाव डालती रहती थी। अंग्रेज बंगाल से डच एवं फ्रांसीसी कंपनियों को बाहर निकाल बंगाल के व्यापार पर अपना इजारेदारी नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। अंग्रेजी कंपनी ने नबाव की इच्छा के विरुद्ध अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया और कलकत्ता की किलेबंदी की। यह नबाव के आधिपत्य को प्रत्यक्ष चुनौती थी। प्लासी की लड़ाई के उपरांत अधिक छूटों के लिए दबाव बढ़ने लगा और अंग्रेजों ने अपनी सेवाओं के खर्चों की पूर्ति के लिए नबाव से जमींदारी की मांग करनी भी शुरू कर दी। यहां तक कि कंपनी के अधिकारी नवाब के दरबार की राजनीति में भाग लेने लगे और वे उच्च अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप भी करने लगे। इस प्रकार, कंपनी का बढ़ता प्रभुत्व और उसके स्थानीय राजनीति में उलझने से नवाबों की स्वतंत्र स्थिति को गंभीर चुनौती मिली। यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि कंपनी और उसके अधिकारियों ने 1757 से 1765 तक बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम को मूर्त रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। कुछ स्थानीय व्यापारियों, अधिकारियों एवं जमींदारों की भूमिका भी बंगाल में ब्रिटिश राजनीतिक सर्वोच्चता को स्थापित करने में कम महत्वपूर्ण नहीं थी। बंगाल का सबसे बड़े बैंकिंग घराने के रूप में चर्चित जगत सेठ और अमीचंद जैसे धनी व्यापारी सिराजुद्दौला के गद्दी पर बैठने से खुश नहीं थे। इन सेठों के संरक्षण में ही नवाबों का कोष था और उनका प्रशासन पर अच्छा-खासा नियंत्रण था। सेठों एवं दूसरे व्यापारियों के अतिरिक्त नवाब के दरबार में जमींदारों एवं सैनिक कुलीनों के गुटों का भी काफी प्रभाव था। यह गुट अपने उन विशेष अधिकारों के खोने से आशंकित हो उठा, जिनको ये पहले के नवाबों से भोग रहे थे। सिराजुद्दौला ने नागरिक एवं सैनिक प्रशासन को पुनर्गठित करने के लिए पुराने अधिकारियों को हटाना शुरू कर दिया, तब उनकी आशंका को और बल मिलने लगा। जिस नये कुलीन वर्ग को नवाब का संरक्षण प्राप्त था, उसका प्रतिनिधित्त्व मोहनलाल, मीर मदन तथा ख्वाजा अब्दुल हादी खान करते थे और उन्होंने पुराने अधिकारियों को नवाब से अलग कर दिया। इस अलगाव और सिराजुद्दौला को उसके ही लोगों द्वारा हटवाकर कंपनी अच्छी प्रकार से सौदेबाजी कर सकती थी। इन दोनों कारणों की परिणति सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र में हुई। अंग्रेज जो अपने लक्ष्यों को प्राप्त के लिए सहयोगी खोज रहे थे, इस असंतुष्ट गुट के रूप में उनको अपना सहयोगी प्राप्त हो गया। ब्रिटिश अधिक व्यापारिक विशेषाधिकारों को प्राप्त करना और बंगाल के संसाधनों का अधिक उपयोग करना चाहते थे। जबकि उनके भारतीय सहयोगी बंगाल में अपनी स्वयं की राजनीतिक सत्ता को स्थापित करने की इच्छा रखते थे। उनका एक समान लक्ष्य वर्तमान नवाब को हटाकर, उसके स्थान पर एक समान पसंद के व्यक्ति को नवाब के पद पर बैठाना था। इस प्रकार वह षड्यंत्र रचा गया, जिसने अंग्रेजों के लिए बंगाल के नवाबों पर नियंत्रण स्थापित करने के कार्य को और सरल बना दिया। सारांश में, कंपनी एवं उसके अधिकारियों के आर्थिक हित, मुर्शिदाबाद के दरबार में गुटबंदी में वृद्धि तथा दरबार के विभिन्न गुटों के बीच प्रतिद्वंद्वी हित आदि कुछ ऐसे कारण थे, जिन्होंने 1757 से 1765 के बीच बंगाल में राजनीतिक रूपांतरण किया।
Question : आर्यसमाज कोई प्रमुख रूप से आधुनिक भारत को प्रभावित करने में सफल नहीं हुआ।"
(1998)
Answer : स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा 1875 ई. में स्थापित आर्यसमाज के पीछे शुद्ध वैदिक आधार पर हिन्दूवाद को पुनर्जीवित तथा पुनर्स्थापित करने का उद्देश्य था।
स्वामी जी का लक्ष्य यह था कि हिन्दूवाद को पुनर्जीवित कर उसे ईसाई धर्म के बढ़ते प्रभाव के विरुद्ध खड़ा किया जाये और इस्लाम द्वारा हिन्दुओं को मुस्लिम बनाकर हिन्दू धर्म को जो क्षति पहुंचायी जा रही है, उससे हिन्दू धर्म को बचाया जा सके। उन्होंने अपना शुद्धि आंदोलन भारत को राष्ट्रीयता, सामाजिकता एवं धार्मिकता के आधार पर एक करने के उद्देश्य से आरंभ किया था। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने ‘वेदों की तरफ लौटो’ का नारा दिया था। इस नारे का अर्थ यह था कि वेदों में वर्णित आर्यों के विचारों एवं विश्वासों को फिर से स्वीकार किया जाये और समाज के विकास का आधार बनाया जाये।
आर्यसमाज ने हिन्दूवाद और उसकी स्वर्णिमता को पुनः प्राप्त करने पर अधिक बल दिया, बनिस्पत कि अन्य राष्ट्रवादी भावना और भारत की एकता से संबंधित भावना को उभारने में। इस उद्देश्य ने आर्यसमाज को अन्य धर्मों का विरोधी बना दिया और इस विरोध ने भारत में सांप्रदायिकता को जन्म देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
उस समय पैदा हुई सांप्रदायिकता की समस्या आज भी हमारे समाज एवं देश को बुरी तरह प्रभावित कर रही है और न जाने कब तक करती रहेगी। इस तरह अपने अच्छे कार्यों एवं उद्देश्यों के बावजूद आर्यसमाज आधुनिक भारत को प्रभावित करने में सफल नहीं हुआ।
Question : पूर्वी भारत में 1817 से 1857 तक जनजातीय विद्रोहों की संक्षेप में विवेचना कीजिये। क्या वे जमींदारी और उपनिवेशवाद के विरुद्ध निर्दिष्ट थे?
(1998)
Answer : जनजातियों द्वारा किये गये विरोध किसानों के विरोध आंदोलनों के समान ही थे, किन्तु उनकी अपनी कुछ विशेषतायें थीं। ये जातियां दुर्गम पहाड़ी और वन्य क्षेत्रों में रहती रही थीं। आदिवासी बाहरी संसार का विरोध तभी करते थे जब मैदानों की बढ़ती हुई आबादी के कारण वहां के लोग आदिवासी क्षेत्रों में बसने लगते थे और सरकार जंगली लकड़ी काटने पर नियंत्रण लगाती थी। सभी आदिवासी अपने और बाहरी लोगों के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए उन्हें विशेष नाम से पुकारते थे। छोटानागपुर में इन बाहरी लोगों को ‘दिकू’ कहा जाता था, जिसका तात्पर्य उन लोगों से था जो परेशान करते हैं - बाहर वाले ‘‘पूंजीवादी साहूकार’’। इस शब्द का इस्तेमाल सभी हिन्दुओं के लिए नहीं होता था- विशेषकर दस्तकारों को और स्थानीय राजाओं को ‘दिकू’ नहीं माना जाता था। भारत के आदिवासियों की आबादी कभी बहुत अधिक नहीं रही किन्तु एक साथ रहने के कारण उनमें क्षेत्रीयता की यह भावना दृढ़ होती थी कि कौन-सा क्षेत्र उनका है, कौन-सा बाहरी दुनिया का।
स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में बंजर भूमि से लाभ उठाने का अधिकार जमींदारों को मिला हुआ था। ब्रिटिश राजस्व व्यवस्था के बाद स्थानीय जमींदार राजा द्वारा आदिवासी रैयत पर दबाव डालने, फलस्वरूप उनके द्वारा विरोध करने और सरकार द्वारा सैनिक कार्यवाही करने के घटनाक्रम का पहला उदाहरण-1790 के बाद के वर्षों में पालामऊ में देखने को मिलता है। अंग्रेजों ने समस्या के शीघ्र समाधान के लिए राजा को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे व्यक्ति को बैठा दिया किन्तु इससे समस्या का अंत नहीं हुआ। 1817 में चेरों ने और 1819 में मुंडाओं ने उन जमींदारों के समर्थन में विद्रोह कर दिया, जिनसे अंग्रेजों ने सारी शक्तियां छीन ली थी। इसी क्षेत्र के दक्षिण में आधुनिक उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल की सीमा पर पोराहाट नामक स्थान परµ ‘होस आदिवासियों’ ने विद्रोह किया किन्तु जमींदारों ने ब्रिटिश सेना की सहायता से 1820-21 में उन्हें दबा दिया। समझौते की शर्तें महत्वपूर्ण थीं- होस आदिवासियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रभुसत्ता स्वीकार करने के लिए, जमींदारों को कर देने के लिए, अपने गांवों में सभी जातियों के लोगों को बसने देने के लिए और अपने बच्चों को हिन्दी अथवा उडि़या सिखाने के लिए राजी होना पड़ा। इसके बाद से मैदानी लोगों को आदिवासियों की जमीन के पुश्तैनी अधिकार मिलने लगे और इस प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी। उपर्युक्त शिकायतों के अतिरिक्त आदिवासियों की अन्य शिकायतें थीं- 1822 में सरकार ने चावल की कम नशीली शराब पर उत्पादन शुल्क लगा दिया, जिसे आदिवासी अपने प्रयोग के लिए तैयार करते थे और इसी आधार पर 1830 में प्रति घर के हिसाब से चार आना कर लगा दिया गया। 1827 में पोस्त की खेती जबरन शुरू की गयी। आदिवासियों में (मुंडा, आराओं तथा महाली आदि सभी आदिवासियों को मैदानी लोग कोल कहते थे) बेचैनी बढ़ती गयी। अंग्रेजों ने उन्हें एक-दूसरे से लड़ाकर कमजोर करने का प्रयत्न किया, लेकिन यह चाल सफल नहीं हुई और 1831-32 में आदिवासियों की एकता का उदाहरण देखने को मिला, जब छोटानागपुर में आदिवासियों में विद्रोह पांच महीने तक तेजी से चलता रहा। यद्यपि विद्रोह में कम लोग मरे किन्तु उसमें चार हजार मकानों और अनेक कचहरियों को जला दिया गया। आदिवासी अनाज और पशुओं को लेकर जंगल में जा बसे और वहां से पांच महीने तक अपना संघर्ष चलाते रहे। समस्या को सुलझाने के उद्देश्य से इस क्षेत्र की दक्षिण-पश्चिमी सीमांत एजेन्सी के नाम से एक अलग इकाई बना दी गयी। यह क्षेत्र ‘विनिमय रहित’ क्षेत्र घोषित कर दिया गया। यह ऐसा क्षेत्र माना गया जहां ब्रिटिश सरकार के कानून पूर्णतः लागू नहीं थे और जहां अधिक निरंकुशता से शासन चलाया जा सकता था।
सबसे व्यापक जनजातीय विद्रोह था - 1853-57 के दौरान छोटानागपुर के संथालों का विद्रोह। मैदानी लोगों के दमनपूर्ण व्यवहार से उनमें उत्तरोत्तर बेचैनी बढ़ रही थी। उनका कहना था, फ्वे मैदान में बसे हैं, हम पहाडि़यों और जंगलों में," अर्थात् वे नहीं चाहते थे कि ‘दिकू’ लोग आदिवासी क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करें। उन्होंने 18वीं सदी में और 19वीं सदी के आरम्भ में राजमहल पहाडि़यों के जंगलों की स्वयं सफाई की थी और अब उन्हें उनके परिश्रम का यह फल मिल रहा था कि मैदानों के जमींदार छल से उनकी जमीन हड़प ले रहे थे अथवा उन्हें राजस्व देने के लिए परेशान किया जा रहा था। ज्ञातव्य है कि पिछले प्रशासकों ने खेती के लिए साफ की गयी जमीन पर कर नहीं लगाया था। अब वे साहूकार के चंगुल में फंस रहे थे। रेलवे लाइन का कार्य शुरू होने से भी वे आतंकित हो गये। यहां तक कि जो लोग इस कार्य में मजदूरी कर रहे थे उनका भी यही अनुमान था कि उन्हें ठगा जा रहा है। संकट उस समय उत्पन्न हुआ जब स्थानीय साहूकारों ने पुलिस के दरोगा की सहायता से अपने घरों में मामूली चोरी के अपराध में आदिवासियों को गिरफ्रतार करवा दिया। पुलिस दरोगा ने अपनी शक्ति का उपयोग इतने अविवेकपूर्ण ढंग से किया कि आदिवासी उसके विरुद्ध हो गये और उनमें से एक ने दरोगा की हत्या कर दी, जिसका सबने समर्थन किया। इसके पश्चात् गिरफ्रतार करके अपमानित किये जाने की आशंका से सभी संथाल इकट्ठे हो गये और उन्होंने एक बड़े विद्रोह की योजना बनाई। जिस प्रकार पहले कोल आदिवासियों ने किया था, लगभग उसी प्रकार संथाल आदिवासियों ने भी विभिन्न गांवों में भी विद्रोह संदेश भेजे, शोषक साहूकारों को चेतावनी देकर उन्होंने कुछ दिन बाद आक्रमण करके साहूकारों के मकानों और कचहरियों को उन दस्तावेजों सहित अग्नि को समर्पित कर दिया, जिन्हें यद्यपि वे पढ़ नहीं सकते थे लेकिन इतना अवश्य जानते थे कि वे तथाकथित दस्तावेज ही वस्तुतः उनकी गुलामी का कारण थे। उन्होंने मैदानी लोगों की खड़ी फसलों को जला दिया, रेल संबंधी कार्य को तहस-नहस कर दिया और इन्जीनियरों के बंगलों को भी नष्ट कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मैदानी लोगों के प्रति अपनी घृणा को व्यक्त किया। सीदो और कान्हू इन संथाल विद्रोहियों के प्रमुख नेता थे, जिन्होंने संथालों को संबोधित करते हुए भविष्यवाणी की थी कि ब्रिटिश शासन का अन्त निकट है और अंग्रेज और उनके समर्थक गंगा के उस पार लौट जायेंगे तथा आपस में ही लड़ कर मर जायेंगे। लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हुआ। अंग्रेजों की सरकारी सेना और पुलिस ने संथालों के हौसले पस्त कर दिये और दण्डस्वरूप 1855 में उनकी भूमि को विनियम रहित जिला घोषित कर दिया। ब्रिटिश कमांडिंग अफसर ने संथालों से न केवल उनके हथियार ही छीने, वरन् उनकी डुगडुगियां भी रखवा लीं, जिनको बजा-बजा कर वे लोगों को युद्ध के लिए आमंत्रित करते थे। कालान्तर में किसानों की समस्याओं कोहल करने की दिशा में तो सार्थक प्रयास किये गये, लेकिन जनजातियों की समस्याओं को सुलझाने में रुचि न रखते हुये उन्हें अमेरिका के रेड इंडियन जनजातियों की तरह प्रतिबंधित क्षेत्रों में बंद करके रखा गया। संथाल विद्रोह के समान एक और विद्रोह रांची के पास 1899-1900 के दौरान मुण्डा जनजाति के लोगों ने किया।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि 1817-1857 के मध्य पूर्वी भारत विशेषकर- बिहार के छोटानागपुर, उड़ीसा और बंगाल में बड़े पैमाने पर जनजातियों ने विद्रोह किया। इन विद्रोहों का कारण जनजातीय लोगों का असंतोष था जो मूलतः अंग्रेजों की उपनिवेशवादी प्रवृत्ति और स्थानीय जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जा रहे शोषण की प्रतिक्रिया में उत्पन्न हुआ था। जनजातीय लोग अपने क्षेत्र में बाहरी लोगों का वर्चस्व स्थापित होते हुए नहीं देखना चाहते थे।
Question : 1857 के विद्रोह के स्वरूप का विवेचन कीजिये और 1857 के बाद भारत के ब्रिटिश सििवल तथा सैनिक प्रशासन में होने वाले बहुविध परिवर्तनों का परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : बीसवीं शताब्दी के छठें और सातवें दशक में इतिहासकारों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा कि यह विद्रोह एक सिपाही बगावत था या राष्ट्रीय आंदोलन था या सामंती प्रतिक्रिया का प्रस्फुटन था। भारतीय असंतोष को कम करके आंकने के लिए अंग्रेज इतिहासकारों ने यह मत सामने रखा कि यह विद्रोह सिपाहियों की बगावत से ज्यादा कुछ नहीं था। अतः उन्होंने इस विद्रोह को सिपाही बगावत का नाम दिया। इन इतिहासकारों ने निम्नलिखित मुद्दों पर विस्तार से प्रकाश डालाः
इसमें न केवल जनता की बगावत के तथ्य को छिपा दिया गया, बल्कि जन विद्रोह को कुछ सामंतों और राजाओं की स्वार्थपूर्ति का एक प्रयास बताया गया। समग्र रूप में इस दृष्टिकोण में उस औपनिवेशिक परिदृश्य की अवहेलना की गयी, जिसके कारण विद्रोह का जन्म हुआ।
कुछ इतिहासकारों एवं राष्ट्रीय नेताओं द्वारा औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत के बाद 1857 से विद्रोह को इस संघर्ष की एक कड़ी के रूप में देखा जाने लगा और चर्बी लगे कारतूसों की अपेक्षा ब्रिटिश दमन को विद्रोह का प्रमुख कारण माना जाने लगा। 1902 में वी.डी. सावरकर की पुस्तक भारत के 1857 का स्वतंत्रता आंदोलन" छद्म नाम से प्रकाशित हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में इस पर प्रतिबंध लगा रहा।
इस विद्रोह के सौ वर्ष पूरे होने पर तत्संबंधी कई पुस्तकों में निम्नलिखित तर्क पेश किये गयेः
दूसरी तरफ ‘राष्ट्रीय’ शब्द के सीमित अर्थ में प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया और यह कहा गया कि यह विद्रोह के साम्राज्य विरोधी रुख को तथा 1857-58 की हिंदू-मुस्लिम एकता को कम करके आंकने का प्रयास है।हाल में एक मत सामने आया है कि यह विद्रोह अपने आप में राष्ट्रीय नहीं था, पर उसका राजनीतिक दृष्टिकोण केवल अपने इलाके तक ही सीमित नहीं था। यह मान्यता भी सामने आयी कि विद्रोहियों का उद्देश्य नयी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना नहीं था, बल्कि परंपरागत व्यवस्था, मसलन पदानुक्रम, संरक्षण और असमानता की स्थापना करना था।
बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में बहस का मुद्दा ‘सिपाही बगावत’ या ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ आदि तक सीमित नहीं रह गया, बल्कि अब उत्तरी पश्चिम प्रांतों और अवध में हुए 1857 के विद्रोह के सामाजिक कारणों की खेाज की जाने लगी। इस क्षेत्र में कई लोगों ने अध्ययन किये, जिसमें भू-राजस्व बंदोबस्त और विद्रोह के प्रत्यक्ष संबंध को निम्नलिखित तर्कों के आधार पर नकारा गया:
अतः 1857 में ताल्लुकदारों की हिस्सेदारी को दूसरे ढंग से व्याख्यायित किया गया। विद्रोह द्वारा एक अव्यवस्था का माहौल बन गया, जिसमें कई जातियों, जैसे-राजपूत और जाट, अहीर और चौहान आदि ने अपनी पुरानी दुश्मनी की कसर निकाली और पारिवारिक दुश्मनी ने भी इस माहौल का जमकर लाभ उठाया। अतः यह कहा जा सकता है कि ‘थाम्सोनियन बंदोबस्त’ असंतोष की भीड़ का एक छोटा-सा हिस्सा था, जिसके कारण कुछ ताल्लुकदारों ने विद्रोह में हिस्सा लिया और कुछ ने नहीं।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बगैर उपज को ध्यान में रखे सभी क्षेत्रों में भारी करारोपण किया गया। इस बंदोबस्त से उत्तरी पश्चिमी प्रांतों के गूजर और राजपूत बुरी तरह प्रभावित हुए और उन्होंने विद्रोह में खुलकर हिस्सा लिया। सहारनपुर के गूजरों और इटावा तथा इलाहाबाद के राजपूतों ने भी विद्रोह में हिस्सा लिया, जो सामाजिक साहचर्य कायम करना चाहते थे। जिन ग्रामीण इकाइयों में कई जातियां शामिल थीं, वे निष्क्रिय रहीं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में इस विद्रोह की राजनीतिक प्रतिक्रिया अलग-अलग थी। अतः यह माना जा सकता है कि 1857 का विद्रोह कोई एक विद्रोह नहीं था, बल्कि कई विद्रोहों का समुच्चय था और इसे सामान्यीकृत करना असंभव है। यहां इस बात पर भी मत भिन्नता रही है कि क्या यह समृद्धों द्वारा नियंत्रित आंदोलन था या यह जन विद्रोह था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस विद्रोह में निर्णय की बागडोर ताल्लुकदारों के हाथ में थी और विद्रोह का रुख समृद्ध लागों की उपस्थिति और अनुपस्थिति से निर्धारित हुआ। उदाहरण के लिए, कर से पीडि़त अलीगढ़ के जाटों और राजपूतों के आक्रोश को स्थानीय समृद्ध लोगों ने दबा दिया। कानपुर के नीचे दोआब क्षेत्र में अंकुश लगाने वाली ऐसी कोई शक्ति नहीं थी। इसी प्रकार, ताल्लुकदारों ने बगावत किया और किसानों को अपने साथ लिया।
दूसरी तरफ अवध में ताल्लुकदारों और किसानों के बीच पूरा तालमेल था, जिसके कारण वहां एक जन आंदोलन का स्वरूप सामने आया। इसका एकमात्र कारण था-अवध का अधिग्रहण। छोटे-बड़े सभी ताल्लुकदारों ने दक्षिण अवध में अंग्रेजों से लड़ाई की। लड़ने वाली फौज में आम जनता की संख्या लगभग 60 प्रतिशत थी। अनुमान है कि अवध की वयस्क पुरुष जनसंख्या में से 3/4 लोगों ने विद्रोह में हिस्सा लिया। इस विद्रोह के दौरान घर-घर से भाले, तलवार और बंदूकें भी जब्त की गयीं। अतः यह कहा जा सकता है कि यहां विद्रोह जनविद्रोह के रूप में था। 1857 के बाद भारत के ब्रिटिश सिविल तथा सैनिक प्रशासन में होने वाले बहुविध परिवर्तनों को निम्नलिखित रूप से पेश किया जा सकता हैः
1857 के बाद आये अन्य परिवर्त्तन
Question : मांटेग्यू घोषणा (20 अगस्त, 1917) का अनुपालन किसी और बात की बजाय ‘‘साम्राज्यिक-संबंधों के क्षेत्र’’ में अधिक ध्यानपूर्वक किया गया।
(1998)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिक सक्रिय हुई और भारत के लिए स्वशासन की प्राप्ति के लिए ‘होमरूल आंदोलन’ आरंभ किया गया। इस मांग की प्रतिक्रियास्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 20 अगस्त, 1917 को सरकार की नयी नीति की घोषणा की। इस घोषणा में प्रांतों को थोड़ा-बहुत अधिकार देने के सिवाय और कुछ नहीं किया गया था।
इस घोषणा में इस बात की व्यवस्था थी कि गवर्नर जनरल, सह परिषद् के मार्फत शांति, व्यवस्था और भारत के अच्छे सरकार के लिए कार्य कर सकेगा। यह गवर्नर जनरल के अधिकार में था। कौन-सा विषय केंद्रीय सरकार का है या प्रांतीय सरकार का, न्यायालय को इस पर कोई अधिकार नहीं था। प्रांतों में द्वैध शासन की व्यवस्था के प्रति सबसे ज्यादा असंतोष पैदा हुआ। भारतीय दृष्टिकोण से इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष वित्त पर नियंत्रण से संबंधित था। एक आरक्षित विषय के रूप में वित्त कार्यकारी परिषद् के एक सदस्य के हाथों में था, न कि किसी मंत्री को प्रांतीय विधानमंडल के प्रति मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व की व्यवस्था नहीं थी। गर्वनर मंत्रियों द्वारा दी गयी सलाह को नजरअंदाज कर सकता था। प्रांतों में मंत्रिमंडलीय सरकार की स्थापना अप्रभावी सिद्ध हुई और भारतीय आवश्यकता के संदर्भ में पूर्ण असफल रही। ब्रिटिश सरकार इस घोषणा में की गयी व्यवस्था ‘ब्रिटिश भारत में स्वशासन का क्रमबद्ध विकास करना’ से पूरी तरह से हट गयी थी। इसलिए यह कहना सही ही है कि मांटेग्यू घोषणा का अनुपालन किसी और बात के बजाय ‘‘साम्राज्यिक संबंधों के क्षेत्र’’ में अधिक ध्यानपूर्वक किया गया।
Question : स्वतंत्रता तथा विभाजन दोनों ही भारतीय मध्यम वर्ग की देन हैं।"
(1998)
Answer : किसी भी देश में राष्ट्रीयता के विकास के लिए यह माना जाता है कि वहां मध्यम वर्ग की उपस्थिति अनिवार्य है। भारत में भी राष्ट्रीयता के विकास के पीछे प्रबुद्ध मध्यम वर्ग की ही भूमिका रही। यह प्रबुद्ध मध्यम वर्ग प्रजातंत्र, स्वतंत्रता और समानता के प्रगतिशील विचार से प्रभावित था। इस तरह यही लोग राष्ट्रीय आंदोलन के नेता बने। साधारण जनता, जो अज्ञान एवं अंधविश्वास के गहरे दलदल में फंसी हुई थी, राष्ट्रीय आंदोलन को नेतृत्व नहीं दे सकती थी। उसे तो एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता थी, जो उसे नेतृत्व प्रदान करे। मध्यम वर्ग ने इस आवश्यकता की पूर्ति की थी।
अतः जैसे-जैसे मध्यम वर्ग का उदय होता गया, वैसे-वैसे भारत में राष्ट्रीय आंदोलन में तेजी आती गयी। इस आंदोलन के अधिकांश नेता इसी वर्ग के थे। यही वे लोग थे, जिन्होंने साधारण जनता को अपने साथ लेकर भारत की स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त किया। लेकिन यह भी स्वाभाविक ही था कि इस मध्यम वर्ग के लोगों के बीच अपने-अपने उद्देश्य को लेकर वैचारिक भिन्नता पैदा हो और ऐसा हुआ भी। कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच की वैचारिक भिन्नता को इसी रूप में देखा जा सकता है। कुछ एक को छोड़, दोनों ही दलों के अधिकांश नेता मध्यम वर्ग के ही थे। जिन्ना, राजेन्द्र प्रसाद, पटेल, नेहरू आदि अधिकांश नेता मध्यम वर्ग के ही थे। जिन्ना ने 1937 के आम चुनाव के बाद जब यह महसूस किया कि उनकी अपनी एवं उनके दल मुिस्लम लीग की लोकप्रियता कम होती जा रही है, तब अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उन्होंने ‘इस्लाम को खतरा है’ के नाम पर‘पाकिस्तान’ की मांग शुरू की।
जिन्ना को इस रास्ते पर जाने के लिए न सिर्फ उनके अपने राजनीतिक स्वार्थ ने प्रेरित किया था, बल्कि कांग्रेस के कुछ नेताओं का उनके एवं मुस्लिम लीग के प्रति अपनाया गया अछूत जैसा व्यवहार भी एक कारण रहा था।
मुस्लिम लीग और जिन्ना ने कांग्रेस की बढ़ती हुई लोकप्रियता को हिन्दुओं के बढ़ते प्रभाव के रूप बता कर मुस्लिमों में डर का वातावरण पैदा कर दिया था। उनके द्वारा यह प्रचार किया जाना कि कांग्रेस का राज आ जाने से हिन्दुओं का राज आ जायेगा और उस स्थिति में मुस्लिमों के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा करना भी कठिन हो जायेगा, ने मुस्लिमों में डर पैदा कर दिया और पाकिस्तान के बनने की भूमिका तैयार कर दी। वी-डी-सावरकर जैसे कट्टरवादी एवं पुरातनपंथी हिन्दू नेता भी जिन्ना की ही तरह भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायी थे। इन कट्टरवादी नेताओं ने न सिर्फ सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया, बल्कि ऐसा माहौल बना दिया, जिसमें पाकिस्तान का बनना अवश्यंभावी हो गया था। अतः यह कहना सही ही है कि, ‘‘स्वतंत्रता तथा विभाजन दोनों ही भारतीय मध्यम वर्ग की देन हैं।’’
Question : 1909, 1919 और 1935 में हुए संवैधानिक परिवर्तनों के प्रति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विचारों का वर्णन कीजिये।
(1998)
Answer : 1909 के बाद हुए संवैधानिक परिवर्तन इंग्लैंड के बदलते हुए मूल्यों और राष्ट्रीय आंदोलन के 1905 के बाद उग्रवाद के उदय के उपरांत एक नये दौर में प्रवेश कर जाने के द्योतक थे। 1909 के बाद अंग्रेजों ने उदारवादियों द्वारा दिखाये राह पर आगे बढ़ने के लक्षण दिखाना आरंभ किया, जिसमें मानव के विकास के लिए प्रजातंत्र को आधार बिंदु माना जाता था। लेकिन भारत के राष्ट्रवादी स्वराज एवं स्वतंत्रता के लक्ष्य को जल्द से जल्द प्राप्त होते देखना चाहते थे। उदारवादी कांग्रेसी अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे सुधारों से असंतुष्ट थे। 1900 के उपरांत आये सभी संवैधानिक परिवर्तनों से भारत के राष्ट्रवादियों के संतुष्ट नहीं होने के पीछे मौलिक रूप से उस समय का परिवर्तित हो रहा राजनीतिक वातावरण ही कारण था।
1909 के मार्ले-मिण्टो सुधारों में जिन संवैधानिक परिवर्तनों को प्रस्तावित किया गया था, वे वस्तुतः अंग्रेजी सरकार द्वारा 1861, 1892 एवं रानी की उद्घोषणा, 1858 के अधिनियमों द्वारा किये गये संवैधानिक परिवर्तनों से अलग, मगर आगे के कदम ही थे। गवर्नर जनरल की परिषद् में प्रविधिक सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी थी। परिषद् की विधायिका शक्ति को भी बढ़ा गया था। लेकिन अब भी चुनाव का तरीका अप्रत्यक्ष था और मतदाताओं की संख्या सीमित ही थी। सबसे बुरा यह था कि इस अधिनियम द्वारा मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को पेश किया गया।
राष्ट्रवादी यह जानते थे कि अंग्रेज सरकार की भारत में स्वशासन स्थापित करने की कोई मंशा नहीं है। लॉर्ड मार्ले ने पहले ही यह बात स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश सरकार भारत में बढ़ रही राष्ट्रीयता से चिंतित है और वह जान-बूझकर मुसलमानों को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है, जिससे बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को रोका जा सके। सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित करने वाला तथ्य तो यह था कि अधिनियम में ‘चुनाव’ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया गया था, जबकि भारतीय किसी भी रूप में थोड़ा-बहुत स्वशासन चाहते थे। लेकिन अंग्रेज इसके लिए तैयार नहीं थे। ब्रिटिश सरकार तो बस इतना चाहती थी कि किसी तरह से उदारवादी कांग्रेसियों को खुश किया जा सके, जिससे उदारवादी एवं उग्रवादी कांग्रेसियों के बीच की खाई और भी चौड़ी हो जाये। इस तथ्य को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधार पर जारी किये जाने वाले एक रिपोर्ट में भी व्यक्त किया गया कि 1909 के सुधार ने किसी भी समस्या को नहीं सुलझाया और वह भारतीय राजनीतिक समस्याओं का कोई भी उत्तर दे सकने में असफल रहा।
1919 के माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया पूर्व निश्चित ही थी। वर्ष 1918 में ही कांग्रेस ने अंग्रेजी सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा था, जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत ही भारत को डोमिनियन प्रस्थिति प्रदान किये जाने की मांग की गयी थी। ब्रिटिश सरकार ने आधिकारिक रूप से यह घोषित किया था कि भारत में स्वशासन का क्रमबद्ध विकास करना ही सरकार की नीति है। स्वशासन के विकास की प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी, जब तक कि यहां एक उत्तरदायी शासन की स्थापना का माहौल न बन जाये। 1919 के अधिनियम द्वारा प्रांतों में जो द्वैध शासन की शुरुआत की गयी थी, उसे उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए एक आरंभिक प्रयोग बताया गया था।
1919 का अधिनियम 1921 में प्रयोग में आया। इस समय कांग्रेस में दो तरह की विरोधी विचारधारा का जन्म हो चुका था। कुछ लोग जलियांवाला बाग की त्रसदी और अंग्रेजी सरकार के कठोर रवैये को ध्यान में रखते हुए चुनाव में भाग लेना नहीं चाहते थे, तो एक दूसरी विचारधारा का गुट चुनाव में भाग लेने का पक्षधर था और इन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वराज पार्टी का गठन किया। स्वराजवादी 1923 में मंत्रिमंडल में शामिल हुए। प्रांतीय सरकारों द्वारा कुछ अच्छे कार्य भी किये गये, मगर कांग्रेसी इससे खुश नहीं हुए। कांग्रेस ने 1919 के माण्टेग्यू- चेम्सफोर्ड अधिनियम की प्रगति की जांच करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गये साइमन आयोग के पूर्ण बायकॉट की घोषणा की। कांग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार इस आधार पर किया था कि इसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा, प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन एवं अन्य पश्चिमी शक्तियों की छवि में गिरावट आयी थी। राष्ट्रवादी इसका फायदा उठाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ब्रिटेन पर अधिक दबाव डालते हुए अधिक क्रांतिकारी परिवर्तनों एवं सुधारों की मांग की।
साइमन आयोग द्वारा अपने रिपोर्ट में 1919 के माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम को पूर्णरूपेण असफल घोषित करने के उपरांत सुधारों के नये पैकेज लाने की भूमिका तैयार हुई। इसी क्रम में गोल मेज सम्मेलन बुलाया गया था। कांग्रेस सहयोग करने को तैयार नहीं थी। इसके अलावा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ कर दिया। कांग्रेस द्वारा अपना कोई भी प्रतिनिधि प्रथम गोल मेज सम्मेलन में नहीं भेजा गया। इधर जनता में भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ काफी रोष बढ़ रहा था। द्वितीय गोल मेज सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में गांधी लंदन गये थे, मगर बगैर किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचे उन्हें वापस लौटना पड़ा था। कांग्रेस की सहमति के बगैर ही ब्रिटिश सरकार ने गोल मेज सम्मेलन के बाद 1935 का भारत सरकार अधिनियम पारित कर दिया।
इस अधिनियम ने प्रांतों के द्वैध शासन को समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धांत को स्थापित किया। कांग्रेस ने प्रांतों में गर्वनर को दिये जाने वाले विशेष उत्तरदायित्व के सिद्धांत का विरोध किया। बाद में कांग्रेस अपने इस विचार में परिवर्तन लाकर 1937 में होने वाले चुनाव में भाग लेने को तैयार हो गयी। लेकिन कांग्रेस ने मुसलमानों को पृथक् निर्वाचन क्षेत्र दिये जाने की व्यवस्था को पसंद नहीं किया।
उसका मानना था कि 1928 के नेहरू रिपोर्ट एवं 1917 के लखनऊ पैक्ट द्वारा इस बात का निश्चय कर लिया गया था कि मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र नहीं होगा। राष्ट्रवादियों द्वारा 1935 के अधिनियम द्वारा की गयी इस सांप्रदायिक व्यवस्था को स्वीकार करने के पीछे कुछ ठोस कारण थे। वामपंथियों एवं दक्षिणपंथियों के बीच बढ़ते आतंरिक विवाद के कारण राष्ट्रीय आंदोलन थोड़ा कमजोर सा हो गया था। कांग्रेस वामपंथियों के बढ़ते प्रभाव से अपने को बचाने के लिए ब्रिटिश सत्ता का विरोध करने की बजाय संगठन की मजबूती पर ज्यादा ध्यान दे रही थी।
अतः उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी भी स्तर पर अंग्रेजों द्वारा किया गया कोई भी संवैधानिक परिवर्तन राष्ट्रवादियों को इसलिए मंजूर नहीं था, क्योंकि धीरे-धीरे उनके लक्ष्य बढ़ते जा रहे थे और उनका एक ही लक्ष्य बन गया था-भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति।
Question : स्थायी बंदोबस्त ‘एक साहसिक, शौर्यपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण कदम’ था।
(1997)
Answer : कंपनी ने 1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली थी। इससे कंपनी को वहां मालगुजारी वसूल करने का अधिकार मिल गया था। आरंभ में उसने मालगुजारी की वसूली की पुरानी पद्धति को ही जारी रखा लेकिन जमा की जाने वाली रकम उसने बढ़ा दी थी। 1765 से 1792 तक का समय वस्तुतः प्रयोगों का समय था। इससे कंपनी की आय एक ऐसे समय में अस्थिरता का शिकार हुई जबकि उसे पैसों की सख्त जरूरत थी। इसके अलावा खेती में सुधार के लिए न तो रैयत कोई प्रबंध करते और न ही जमींदार, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता कि अगले वर्ष कितने की बोली लगेगी और वसूली का अधिकार किसे मिलेगा।
ऐसे में ही मालगुजारी की एक निश्चित रकम निर्धारित करने के लिए लार्ड कार्नवालिस ने 1793 ई. में स्थायी बंदोबस्त को लागू कर दिया। इससे जमींदारों को भू-स्वामी बना दिया। वे किसानों से जो भी लगान वसूल करते उसका 10/11 भाग उन्हें राज्य को देना पड़ता था और 1/11 भाग स्वयं रखते थे। मालगुजारी की रकम सदा के लिए निश्चित कर दिया गया। इस नीति के तहत राजनीतिक, वित्तीय और प्रशासकीय हितों को साधने का प्रयास किया गया था। इस बंदोबस्त से उन्होंने जमींदारों के एक ऐसे धनी और विशेषधिकार प्राप्त वर्ग का सृजन किया जो अपने अस्तित्व का कारण ब्रिटिश शासन को समझते थे और अपने बुनियादी हितों से बाध्य होकर अंग्रेजों का समर्थन करते थे। इस बंदोबस्त के कारण अंग्रेजों को एक स्थायी आय की जमानत मिल गयी। इसके अलावा कंपनी की आय भी बढ़ गयी, क्योंकि अब मालगुजारी की ऐसी दरें निर्धारित की गयी जैसी दरें पहले कभी भी नहीं थी। थोडे से जमींदारों के माध्यम से मालगुजारी की वसूली लाखों कास्तकारों से संबंध रखने की अपेक्षा बहुत कम खर्चीली एवं आसान भी लगी। यह भी आशा प्रकट की गयी थी कि स्थायी बंदोबस्त के कारण खेतिहर उत्पादन बढ़ा सकेगा।
Question : उन्नीसवीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण एक साथ पश्चिमी मूल्यों की स्वीकृति और अस्वीकृति था। क्या आप सहमत हैं?
(1997)
Answer : उन्नसीवीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके बहुमुखी स्वरूप और व्यापकता की दृष्टि से इस आंदोलन को संघषपूर्ण आधुनिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। इस आंदोलन ने भारत की तात्कालिक जड़ता को समाप्त किया और देश के जन-जीवन को झकझोर दिया। इसने एक ओर धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों का आह्नान किया वहीं दूसरी ओर इसने भारत के अतीत को उजागर कर भारतवासियों के मन में आत्म सम्मान और आत्मगौरव की भावना को जगाने की कोशिश की। धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ आंदोलन के नेताओं ने स्वतंत्रता और समानता का भी उपदेश दिया। भारत के समसामयिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस स्वतंत्रता का अर्थ मात्र बौद्धिक चिंतन की स्वतंत्रता से ही नहीं बल्कि असमानता, शोषण और अत्याचार से मुक्ति भी था। यह ठीक है कि इस आंदोलन की शुरुआत आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के संपर्क से हुई थी लेकिन अंततः इसने पश्चिमी विश्व की ही एक बड़ी विरासत के विनाश का मार्ग प्रशस्त किया। यह विरासत थी भारत में ब्रिटेन को साम्राज्यवादी शोषण और उसके विनाश का मार्ग था भारत का मुक्ति संग्राम। इस दृष्टिकोण से यहभारतीय पुनर्जागरण एक साथ पश्चिमी मूल्यों की स्वीकृति और अस्वीकृति था।
जैसे-जैसे देश पर अंग्रेजी प्रभुत्व बढ़ा, शोषण की गति तेज होती गयी और देश का आर्थिक आधार हिलने लगा। इसका भारत के सामाजिक जीवन पर घातक प्रभाव पड़ा। नये शासन में लोक कल्याणकारी तत्वों का अभाव था। अतः देश की स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयत्न नहीं हुआ। ऐसी हालत में आर्थिक विपन्नता के साथ सामाजिक कुरीतियां, भेदभाव एवं धार्मिक अंधविश्वास बढ़ते गये। परिणाम यह हुआ कि 18वीं शताब्दी के समाप्त होते-होते भारत दरिद्रता तथा पिछड़ेपन की अंतिम सीमा पर पहुंच गया। लेकिन ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कुछ ऐसी ऐतिहासिक शक्तियां सक्रिय थी जिसने भविष्य में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए। ये शक्तियां दो प्रकार की थीं।
पहली शक्ति पश्चिम की आधुनिक संस्कृति के भारत पर प्रभाव से अवतरित हुई और दूसरी शक्ति का जन्म इस संस्कृति के खिलाफ भारतीय जनता की प्रतिक्रिया से हुआ। इन दोनाें शक्तियों के सम्मिलित प्रभाव से 19वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक ऐसे आंदोलन का आरंभ हुआ और संपूर्ण भारत में एक ऐसी जागृति आ गयी, जिसे भारतीय पुनर्जागरण के नाम से पुकारा गया है।
भारतीय पुनर्जागरण के जनक के रूप में विख्यात राजा राममोहन राय का प्राचीन ग्रंथों एवं दर्शन में विश्वास था, परंतु अंतिम रूप से वे मानव विवेक और तर्क शक्ति पर ही निर्भर करते थे। उनके अनुसार किसी भी सिद्धांत-प्राच्य या पाश्चात्य की सत्यता की अंतिम कसौटी मानव विवेक ही है। उन्होंने आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान और विचारों के महत्व को समझा और कहा कि उस समय के भारतीय समाज को केवल पश्चिमी संस्कृति ही पुनर्जीवित कर सकती है। वे चाहते थे कि अपने पुनरुद्धार के लिए उनके देशवासी पश्चिम के युक्तिसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव गरिमा तथा सामाजिक एकता के सिद्धांत को स्वीकार कर लें। उन्होंने पश्चिम के आधुनिक ज्ञान, विचार और दृष्टिकोण का समर्थन किया और उन्हें जानने के लिए अंग्रेजी शिक्षा की वकालत की। मानव विवेक को उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म के संदर्भ में लागू किया, बल्कि उसके सहारे उन्होंने संसार के अन्य धर्मों की भी परीक्षा की। ईसाई धर्म के अंधविश्वासियों की भी उन्होंने आलोचना की तथा ईश्वर के देवत्व को मानने से उन्होंने इन्कार कर दिया। फिर भी ईसाई धर्म की अच्छाइयों पर उनकी आस्था हमेशा बनी रही।
उनकी इच्छा थी कि ईसाई और इस्लाम धर्म की अच्छाइयों को हिंदू धर्म में सम्मिलित कर तथा पश्चिम एवं पूरब की संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों को मिलाकर एक उत्तम एवं महान संश्लेषण प्रस्तुत किया जाये। फिर भी राजा राममोहन राय को अपना धर्म और अपनी परंपराएं प्रिय थीं। अतः एक तरफ जहां उन्होंने उनकी आलोचना की, दूसरी ओर उन्हें ईसाइयों के प्रचारवादी प्रहार से बचाया भी। मगर उनका सबसे बड़ा काम था खुद हिन्दू धर्म और समाज में सुधार करना, जिनके लिए उन्होंने अपनी धारणा के अनुरूप पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और बुद्धिवाद के उपयोग की जोरदार पेशकश की।
निरंतरता और प्रभाव की दृष्टि से उन दिनों अत्यधिक लोकप्रिय आंदोलन-आर्य समाज आंदोलन ने भी सामान्यतः प्रचलित हिन्दू धर्म के दोषों को उजागर करने के साथ ही अन्य धर्मों की कुरीतियों पर भी प्रहार किया। दयानंद सरस्वती वेदों की सर्वोच्चता, पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखते थे लेकिन उन्होंने हिंदू धर्म और समाज की बुराइयों की भी आलोचना की। वे बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे।
धार्मिक कर्मकांडों एवं पुरोहिती आधिपत्य के भी वे आलोचक थे। इसी प्रकार हिंदू संस्कारों, तीर्थयात्र, यज्ञ, बलि में भी उनकी आस्था नहीं थी। वे जाति प्रथा, छुआछूत एवं बाल विवाह, दहेज, पर्दा-प्रथा की भी निंदा करते थे। इसके विपरीत उन्होंने विदेश यात्र, विधवा विवाह और नारी शिक्षा को अपना समर्थन दिया। उन्होंने जाति प्रथा की संकीर्णता को दूर करने का प्रयास किया। सभी वर्णों को समान अवसर प्रदान करने और स्त्रियों की दशा सुधारने की भी उन्होंने कोशिश कीं।
रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी संसार के सामने पहली बार भारत की सांस्कृतिक महत्ता को प्रभावकारी तरीके से प्रस्तुत किया। जहां एक तरफ विवेकानंद हिंदू धर्म एवं संस्कृति की उपलब्धियों को प्रकाश में लाये, वहीं उन्होंने तात्कालिक भारतीय समाज में व्याप्त संकीर्णता एवं अंधविश्वास का बड़े स्पष्ट शब्दों में विरोध किया। उन्होंने हिन्दुओं के कर्मकांडों एवं जातीय भेदभाव की आलोचना की और स्वतंत्रता समानता एवं स्वतंत्र चिंतन का उपदेश दिया। उन्होंने भारतीयों की इस बात के लिए आलोचना की कि वे बाकी संसार से संपर्क खो चुके हैं और गतिहीन एवं जड़ हो गये हैं।
थियोसोफिकल सोसाइटी के अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को आत्मिक हर्षोन्माद और अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। उन्होंने हिन्दू एवं बौद्ध धर्म जैसे प्राचीन धर्मों कोपुनर्जीवित कर मजबूत बनाने की वकालत की। वे पुनर्जन्म एवं कर्म के सिद्धांत को स्वीकार करते थे और सांख्य एवं उपनिषदों के दर्शन को अपना प्रेरणा-स्रोत मानते थे। वे विश्व बंधुत्व की भावना का भी समर्थन करते थे। अलीगढ़ आंदोलन के नेता सर सैयद का भी पक्का विश्वास था कि मुसलमानों का उत्थान पश्चिम के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और विचारों के सहारे ही हो सकता है। पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और विचारों के प्रसार हेतु एक अधिकारी के रूप में उन्होंने विभिन्न शहरों में स्कूल खुलवाए और पश्चिमी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद करवाया।
पारसी लोगों ने भी ‘रहनुमाई माजद्दयासन समाज’ के सहारे धार्मिक रूढि़वादिता के विरुद्ध आंदोलन किया और पारसी समाज को आधुनिक बनाने का प्रयत्न किया। यह आंदोलन प्रभावशाली रहा और कालांतर में पारसी लोगों ने पश्चिमी जीवन के तौर-तरीकों को अपनाना शुरू किया। अंततः एक ऐसा समय आया जब सामाजिक तौर से वह भारतीय समाज के सबसे आधुनिक वर्ग में परिणत हो गये।
वस्तुतः भारतीय पुनर्जारण एक ही साथ पश्चिमी मूल्यों की स्वीकृति और अस्वीकृति था।
Question : जनजातीय आंदोलनों को फ्नीचे से उभरते इतिहास" के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में चले आंदोलनों के लक्ष्यों और स्वरूप की व्याख्या कीजिये।
(1997)
Answer : भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर जो भी इतिहास लेखन की परंपरा रही है-उसे कई विचार धाराओं के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है। इनमें से एक है-सबआल्टर्न पद्धति। इस पद्धति के अंतर्गत जनाधारित इतिहास का अध्ययन किया जाता है। इस पद्धति से अध्ययन करने वाले इतिहासकारों के अनुसार राष्ट्रीय आंदोलन में निचले स्तर की जनता ने अभिजात्य वर्ग (ब्रिटिश एव भारतीय) का विरोध किया। उनके मत में भारतीय जनता ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष नहीं किया। उनका मानना है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में भारतीय जनता में कभी एकता कायम नहीं हुआ और यह भी कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन जैसी चीज का कभी कोई वजूद नहीं था। इसकी जगह वे इस बात पर जोर देते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन में स्पष्टतः दो तरह की धाराएं थीं-निचले तबके की जनता का साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष तथा अभिजात्य वर्ग का नकली राष्ट्रीय आंदोलन। इस नयी पद्धति के अनुसार जन चेतना को केंद्र में रखकर इतिहास लिखने का प्रयास किया जाता है। इस संदर्भ में जनजातीय आंदोलनों का भी अध्ययन किया गया है और यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि उन्नीसवीं सदी में चले विभिन्न प्रकार के जनजातीय आंदोलनों को राष्ट्रव्यापी जन आंदोलनों से कुछ लेना-देना नहीं था, बल्कि वह तो सिर्फ स्थानीय एंव स्वहितों से प्ररित आंदोलन था। इसमें हर तरह की लोकप्रिय दुस्साहसिकता और हर तरह की चेतना को महिमा मंडित किया गया है।
भारत के विभिन्न भागों के बहुत बड़े क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों ने 19वीं सदी में कई छापामार लड़ाइयां लड़ीं। वे आपस में संगठित हुए और उन्होंने अत्यंत जुझारू संघर्ष किया और असीम शौर्य व बलिदान का परिचय दिया।
दूसरी तरफ अंग्रेजों ने इनका दमन करने में क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ दी और उन पर पाशविक अत्याचार किये। उन्नीसवीं सदी में भारत के विभिन्न भागों में हुए आदिवासी आंदोलनों में खासी विद्रोह (1829), नगा विद्रोह (1849), कुकी विद्रोह (1826-49), कोलियार विद्रोह (1831), भूमिज विद्रोह (1832-33) खोंड विद्रोह (1846), संथाल विद्रोह (1855), मुंडा विद्रोह (1895-1900), भीलों का विद्रोह (1821-25) नाईक विद्रोह (1858), गोंड विद्रोह (1891) जैसे जनजातीय आंदोलन प्रमुख हैं।
लगातार विद्रोहों का यह सिलसिला हालांकि काफी लंबा चला, लेकिन विदेशी शासन को उखाड़ फेकने की उनकी सारी कोशिशें छिटपुट और स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहीं। ये कोशिशें एक-दूसरे से पूरी तरह अलग-थलग भी रहीं। चूंकि इन विद्रोहियों के लिए मात्र स्थानीय मुद्दे थे और इसलिए ये स्थानीय स्तर तक ही सिमटे रहे। यों इनमें से कई विद्रोहों का चरित्र एक जैसा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं था कि ये कहीं से भी राष्ट्रीय प्रयासों का प्रतिनिधित्व करते थे बल्कि इसका कारण यह था कि इनमें से कई विद्रोहों का जन्म एक जैसी पृष्ठभूमि और परिस्थितियों के कारण हुआ था, भले ही समय और स्थान अलग-अलग क्यों न रहे हों।
आमतौर पर आदिवासी समाज अपने को शेष समाज से अलग-अलग रखते थे, लेकिन ब्रिटिश राज उनको पूरी तरह से औपनिवेशिक घेरे के भीतर खींच लाया। राज ने आदिवासी कबीलों के सरदारों को जमींदारों का दर्जा दिया और लगान की नयी प्रणाली लागू की। आदिवासियों द्वारा उत्पादित अन्य वस्तुओं पर नये तरह के कर भी लगाया गया। उनके इलाकों में इसाई मिशनरियों की घुसपैठ को भी राज ने बढ़ावा दिया। इसके साथ ही उनके बीच महाजनों, व्यापारियों एवं लगान वसूलने वालों के एक ऐसे वर्ग को भी लादा गया जो बिचौलियों का काम करते थे। ये बाहरी बिचौलिये धीरे-धीरे आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करते गये और उन्होंने आदिवासियों को कर्ज के जटिल जाल में उलझा-फंसा दिया। उनकी जमीन उनके हाथ से निकलते गये और वे खेत मजदूर बन कर रह गये। जंगलों से उनके गहरे रिश्ते को भी औपनिवेशिक हमले ने तोड़ दिया। जंगली भूमि, वनोत्पादों व गांवों की जमीन के इस्तेमाल पर भी तरह-तरह के अंकुश लगा दिये गये। पुलिस और अन्य छोटे-छोटे अधिकारियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों, शोषण और जबरन उगाही ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया।
औपनिवेशिक घुसपैठ और व्यापारियों, महाजनों व लगान वसूलने वालों के तिहरे शासन ने पूरे आदिवासी समाज की लय और ताल ही तोड़ दी। इसका नतीजा यह हुआ कि औपनिवेशिक शासन के अधिकारियों एवं उनके बिचौलियों के खिलाफ उनका संघर्ष हुआ और यह संघर्ष सशस्त्र विद्रोह की शक्ल अख्तियार करती गयी। ऐसे मौकों पर कई बार आदिवासियों के बीच ओझाओं जैसे धार्मिक और चमत्कारिक नेता भी उभरे, जिन्होंने उन्हें आश्वस्त किया कि ईश्वर उनके कष्टों को दूर करेगा और बाहरी लोगों के शिकंजे से उन्हें मुक्त करेगा। इससे आदिवासियों में आशा और विश्वास की ऐसी लहर फैली कि वे आखिरी सांस तक अपने नेता के साथ लड़ने को तैयार हो गये। आदिवासियों के इन विद्रोहों में उनके जातीय हित ही बुनियादी कारण रहे। उन्होंने वर्ग के आधार पर नहीं बल्कि जातीय आधार पर और आदिवासी पहचान जैसे संथाल, कोल, मुंडा आदि के रूप में अपने आपको संगठित किया।
ब्रिटिश सेना और आदिवासियों के बीच सशस्त्र संघर्ष पूरी तरह दो गैर बराबर पक्षों के बीच का संघर्ष था। एक तरफ तो आधुनिकतम हथियारों से लैश फौज और दूसरी तरफ आरी, पत्थर, भाले और तीर-धनुष लिये जूझते बहादुर आदिवासी पुरुष और औरतें जिन्हें यह विश्वास था कि उनके नेता के पास ईश्वरीय ताकत है। गैर बराबरी के इस युद्ध में लाखों की संख्या में आदिवासी मारे गये।
इन विद्रोहों का नेतृत्व करने वाले लोग सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से पिछड़े थे और उनका नजरिया परंपरागत था। इस समय भी वे पुरानी दुनिया में ही जीते थे। उनके पास प्रतिरोध तो था लेकिन कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इसका स्वरूप, आदर्श और सांस्कृतिक धरातल सदियों पुराना था। इसका बुनियादी लक्ष्य शासन और सामाजिक संबंधों के पूर्ववर्ती रूपों को ही फिर से स्थापित करना था। इस तरह के पिछड़े दृष्टिकोण वाले और बिखरे, छिटपुट व अलग-थलग से विद्रोहों में इतनी क्षमता नहीं थी कि उससे विदेशी शासन को उखाड़ फेंका जा सकता। इसलिए ब्रिटिश राज एक-एक कर इन विद्रोहों को कुचलने में सफल होता गया। उन्होंने विद्रोहों को शांत करने के लिए एक यह चाल भी चली कि जिन इलाकों में विद्रोह अपेक्षाकृत कम उग्र था उन इलाकों के जमींदारों या उनके उत्तराधिकारियों को उनकी जायदाद लौटा दी या विद्रोह न करने की शर्त पर उन्हें लगान में कुछ रियायतें दे दीं।Question : कर्जन के बंगाल विभाजन ने अनायास ही विराट घटनाओं को जन्म दे दिया और अनेक वर्ष बाद देश की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त कर दिया।"
(1997)
Answer : 20 जुलाई, 1905 को एक आज्ञा जारी कर तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बांट दिया। पहले भाग में पूर्वी बंगाल और असम थे, जबकि दूसरे भाग में बिहारी और उडि़या भाषा-भाषी थे। तर्क यह दिया गया कि बंगाल प्रांत इतना बड़ा था कि एक प्रांतीय सरकार द्वारा उसका प्रशासन चला सकना संभव नहीं था, लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद की दिशा को रोकने के लिए ही वैसा कदम उठाया गया था।
राष्ट्रवादियों ने बंगाल के विभाजन को एक प्रशासनीक उपाय ही नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक चुनौती समझा। उन्होंने इसे बंगाल को क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास माना। इसलिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बंगाल के राष्ट्रवादियों ने विभाजन का जमकर विरोध किया। विभाजन के खिलाफ बंगाल के विरोध की तीव्रता का कारण यह था कि इसने एक बहुत संवेदनशील व साहसी जनता की भावनाओं को चोट पहुंचाई थी। बंगाल के जमींदार, व्यापारी, वकील, छात्र, नगरों के गरीब लोग और स्त्रियां तक अपने प्रांत के विभाजन के विरोध में स्वतः स्फूर्त ढंग से उठ खड़े हुए।
राष्ट्रवादी नेताओं ने बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन को चलाने का प्रयास किया जिसे व्यापक सफलता मिली। स्वदेशी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष आत्मनिर्भरता या आत्मशक्ति पर दिया जाने वाला बल था। संस्कृति के क्षेत्र में राष्ट्रवादी आंदोलन ने राष्ट्रवादी गद्य, काव्य और पत्रकारिता का विकास किया। शीघ्र ही राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया जाने लगा। इसी घटना के प्रभाव से उग्रवादी एवं आतंकवादी आंदोलन चलाया गया। धीरे-धीरे जन आंदोलन बढ़ता ही गया और ब्रिटिश अधिकारी सुधार करने के लिए विवश होते गये और एक लंबे समय तक चले जनआंदोलन ने स्वतंत्रता हासिल कर ही ली।
Question : भारत ने पश्चिमी हथौड़ों से ही अंग्रेजों की दासता की बेडि़यां तोड़ डाली।"
(1997)
Answer : उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत तेजी से विकसित हुई और भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ हुआ। विदेशी शासन से स्वतंत्रता पाने के लिए अंग्रेजों ने एक लंबा और साहसपूर्ण संघर्ष चलाया और अंत में 15 अगस्त, 1947 को भारत मुक्त हो गया।
स्वयं ब्रिटिश शासन की परिस्थितियों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय भावना विकसित करने में सहायता दी। ब्रिटिश शासन तथा उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणामों ने ही भारत में भौतिक, नैतिक और बौद्धिक परिस्थितियां तैयार की। देश का राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक एकीकरण, रेलवे, डाक-तार की एकीकृत व्यवस्था ने नेताओं के पारस्परिक संपर्क को बढ़ावा दिया।
उन्नीसवीं सदी में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा और विचारधारा के प्रसार के फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक आधुनिक, बृद्धिसंगत और तर्क संगत, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक तथा राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया। विदेशी दासता के अपमान को सबसे पहले इन्हीं शिक्षित भारतीयों ने अनुभव किया। विचारों से आधुनिक बनकर इन लोगों ने विदेशी शासन की बुराइयों के अध्ययन की योग्यता प्राप्त कर ली। उन्हें एक आधुनिक, मजबूत, समृद्ध और एकताबद्ध भारत की कल्पना से प्रेरणा प्राप्त होती रही। कालांतर में इन्हीं में से बेहतरीन तत्व राष्ट्रीय आंदोलन के कार्यकर्ता बने।
अंग्रेजी भाषा आधुनिक विचारों के प्रसार का साधन बन गयी और इसने शिक्षित भारतीयों के दृष्टिकोणों तथा हितों में एक सीमा तक एक जुटता और समानता पैदा की। उन्नीसवीं सदी में बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी प्रेस स्थापित हुए, जिसने सरकारी नीतियों की जमकर आलोचना की। राष्ट्रवादी नेताओं ने लोकतंत्र ही नहीं बल्कि भाषण, प्रेस, विचार तथा संगठन की स्वतंत्रता जैसे आधुनिक पश्चिमी नागरिक अधिकारों के लिए भी आंदोलन किया। और अंततः अंग्रेजों की दासता की बेडि़या तोड़ डाली।
Question : कांग्रेस के आंदोलन में वामपक्ष के उदय और विस्तार का विवरण दीजिये। भारत की समसामयिक राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?
(1997)
Answer : कांग्रेस के अंदर वामपंथी प्रवृति या समाजवादी धारा की अभिव्यक्ति जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव जैसे नेताओं के द्वारा हुई। इन लोगों के विचार में भारत की आर्थिक दुर्व्यवस्था के लिए यहां की दोषपूर्ण उत्पादन प्रणाली जिम्मेदार थी। जिन लोगों के द्वारा उत्पादन नियंत्रित होता था, वे न्यूनतम मजदूरी देकर अधिकतम मुनाफा पैदा करना चाहते थे। जो धनी थे वे और धनी बनना चाहता थे। इसके लिए वे गरीबों और मेहनतकश मजदूरों का जी भरकर शोषण कर रहे थे। इसमें उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी। अतः इस असमान और शोषण युक्त व्यवस्था का अंत किये बिना भारत में समतामूलक समाज का निर्माण करना असंभव था। इसलिए इन समाजवादियों ने गरीबों और मजदूरों की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया।
इसी पृष्ठभूमि में 1929 का लाहौर कांग्रेस अधिवेशन हुआ। इसके अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू बनाये गये। यह समाजवादियों के मनोबल को उठाने के लिए बहुत था। जवाहर लाल नेहरू ने अपने अध्यक्षीय भाषण में अपने को समाजवादी होने का दावा किया। उनके आग्रह पर कांग्रेस ने बंबई में घोषणा की कि भारत की गरीबी महज विदेशी शासन के चलते नहीं है, इसके लिए यहां के लोगों का आर्थिक शोषण जिम्मेदार है। गरीबी और आर्थिक शोषण का अंत करने के लिए यहां के समाज की सामाजिक संरचना में आंदोलनकारी परिवर्तन लाने होंगे। इसी साल जवाहर लाल नेहरू को अखिल भारतीय टेªड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इससे समाजवादी आंदोलन को काफी बल मिला। 1931 ई. के कराची कांग्रेस में समाजवादी कार्यक्रम को अपनाने की बात कही गयी। इनमें समाज के मौलिक अधिकार एवं आर्थिक नीतियों के विषय में विस्तृत चर्चा की गयी जो स्पष्ट रूप से जवाहर लाल नेहरू और गांधी जी के बीच एक समझौता था। इस घोषणा में प्रमुख उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की बात कही गयी तथा उत्पादन की प्रक्रिया में शोषण को समाप्त करने पर बल दिया गया।
1934 तक आते-आते समाजवादियों ने कांग्रेस के अंदर ही अपने-आपको संगठित करना आरंभ कर दिया। मई 1934 में पटना में जयप्रकाश नारायण ने अखिल भारतीय समाजवादी आंदोलन की स्थापना की। जयप्रकाश नारायण के अतिरिक्त जिन प्रमुख व्यक्तियों ने इस आंदोलन में भाग लिया उनमें सर्वश्री अच्चुत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, एम.आर. मसानी, एन.जी. गोरे, एस.एस. जोशी और एम.एल. दांतवाला प्रमुख थे। ये सारे लोग 1932 ई. के सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में नासिक जेल में बंद थे। इनके बीच वाद-विवाद के फलस्वरूप जो परिणाम निकले, उसी आधार पर कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना हुइर्। इन समाजवादियों ने कांग्रेस की ढुलमुल नीतियों को पंसद नहीं किया। इन लोगों ने कांग्रेस के प्र्रस्ताव को नकार दिया। इनका विचार था कि कांग्रेस ही देश की मौलिक समस्याओं का सर्वहारा वर्ग के पक्ष में समाधान करे। कांग्रेस की नीतियों से असहमत होते हुए भी इन लोगों ने कांग्रेस से बाहर किसी संस्था की स्थापना की बात नहीं सोची। जयप्रकाश नारायण ने स्वयं स्वीकार किया कि उनका उद्देश्य पूरी कांग्रेस को समाजवादी पार्टी में बदल देना नहीं था बल्कि इसके सिद्धांतों को बदलना था। वस्तुतः देश में समाजवादी शक्तियों को मजबूत कर राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाने के उद्देश्य से ही 1934 में कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की गयी थी। जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना का स्वागत किया। 1936 में उन्होंने तीन प्रमुख समाजवादियों यथा-जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव और अच्युत पटवर्द्धन को कांग्रेस की कार्यकारी समिति में मनोनीत किया।
कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने एकदम शुरू से ही अपने को कांग्रेस को रूपांतरित करने और साथ ही इसको मजबूत करने के काम में लगाया। कांग्रेस को रूपांतरित करने केकाम को दो अर्थों में समझा जाता था। एक था। विचारधारात्मक आधार। कांग्रेस जनों को धीरे-धीरे इस बात के लिए राजी करना था कि वे स्वतंत्र भारत की समाजवादी दृष्टि अपनायें तथा वर्तमान आर्थिक मुद्दों पर उनका रूख किसानों तथा मजदूरों के पक्ष में होना चाहिए। कांग्रेस समाजवादियों को भारतीय परिस्थितियों के आधार की बेहतर समझ थी, इसलिए इन लोगों ने कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से इतना अधिक मतभेद नहीं बढ़ाया कि वह टूटने के कगार पर पहुंच जाये। जब भी खिचाव चरमराहट की सीमा पर पहुंचा कांग्रेस समाजवादियों ने अपना सिद्धांत एक तरफ कर दिया और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया जो नेहरू के विचारों के करीब था।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में समाजवादी आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस आंदोलन के परिणाम स्वरूप ही कांग्रेस ने निरपेक्ष असांप्रदायिक स्तर पर भारतीय जनता की रहनुमाई करते हुए भारतवासियों की मुक्ति के लिए जेहाद छेड़ी और उसे तार्किक परिणति दिया। जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस एवं कांग्रेस समाजवादी दल के नेतागण एक आम राजनीतिक कार्यक्रम में भागीदार थे जिसकी वजह से विचारधारा और संगठन के स्तर पर मतभेदों के बावजूद उन लोगों ने 1935 के बाद साथ-साथ काम किया तथा भारतीय राजनीति में समाजवाद को एक ताकतवर धारा बनाया। इस कार्यक्रम की बुनियादी खूबियां थींµसंगत और साहसिक साम्राज्यवाद विरोध, किसान सभाओं और ट्रेड यूनियनों के रूप में मजदूरों और किसानों को संगठित करना, स्वतंत्र भारत में समाजवादी समाज की स्वीकृति तथा फासीवादी विरोधी, उपनिवेशवाद विरोधी तथा युद्ध विरोधी विदेश नीति। वास्तव में कांग्रेस के वामपंथी रूझान से भारत में एक शक्तिशाली वाम पक्ष का उदय हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन में मूलगामी परिवर्तन लाने में इसका योगदान काफी महत्वपूर्ण था। अब तक लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना था। इसमें अब अत्यंत धारदार और सुस्पष्ट सामाजिक और आर्थिक अंतर्वस्तु का प्रवेश हुआ। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की धारा और दलितों-शोषितों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति की धारा एक-दूसरे के नजदीक आने लगीं। समाजवादी विचारों ने भारतीय धरती पर पैर जमाने शुरू कर दिये और समाजवाद भारतीय युवकों का मान्य विश्वास बन गया। जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस सहित कांग्रेस समाजवादी पार्टी इस विश्वास की प्रेरणा के प्रतीक बन गये।
Question : "प्लासी के युद्ध के निर्णय की पुष्टि अंग्रेजों द्वारा बक्सर की विजय ने कर दी।"
(1996)
Answer : 1764 में हुए बक्सर के युद्ध के बाद अंग्रेजों को अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रह गयी। देश के अन्दर सभी छोटी-बड़ी ताकतों ने इस युद्ध के बाद अंग्रेजों की शक्ति को स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी फ्रांस पहले ही बान्डीवाश के युद्ध के बाद अपनी शक्ति खो बैठा था। मराठे 1761 के पानीपत की तीसरी लड़ाई में अपनी गरिमा खो चुके थे। अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि 1757 में हुए प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों ने छल-प्रपंच का सहारा लिया था और यह कोई वास्तविक युद्ध भी नहीं था।
मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला और संपूर्ण भारतीय एकता के प्रतीक के रूप में बचे मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ मिलकर 22 अक्टूबर, 1764 को बक्सर में अंग्रेजों की मेजर मुनरो की कमान वाली सेना से टक्कर ली। इस बार तैयारी दोनों ओर से थी और पूरे युद्ध कौशल का प्रदर्शन भी हुआ था। परन्तु अंग्रेजों ने इस मिली-जुली सेना (50 हजार सैनिकों के साथ) को 7072 सैनिकों की मदद से हरा दिया। निश्चय ही यह अधिक कुशल सेना की जीत थी।
बक्सर ने प्लासी के निर्णयों पर पक्की मुहर लगा दी। भारत में अब अंग्रेजों को चुनौती देने वाला कोई दूसरा नहीं रह गया था। अब नया नवाब उनकी कठपुतली था। अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेंशनर था। इलाहाबाद तक का प्रदेश अंग्रेजों के कदमों तले आ गया तथा दिल्ली का मार्ग भी खुल गया। इसके पश्चात् बंगाल और अवध अंग्रेजों के फंदे में कसता ही चला गया।
प्लासी के युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति को सुदृढ़ किया तथा बक्सर के युद्ध ने उत्तरी भारत में। इसी आधार पर अब वे समस्त भारत पर दावा करने लगे थे। यह सही कहा जाता है कि प्लासी के युद्ध के निर्णय की पुष्टि अंग्रेजों द्वारा बक्सर की विजय ने कर दी।
Question : अंग्रेजों ने एक ‘बेखबरी के दौर में’ भारत को जीत लिया।
(1996)
Answer : 1600 से 1757 तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका एक ऐसे व्यापारिक निगम की थी जो भारत में बहुमूल्य धातुएं लाता था तथा उसके बदले कपड़े, मसाले जैसी भारतीय वस्तुएं लेकर उसे विदेशों में बेचकर मुनाफा कमाती थी। इस प्रकार उसने भारतीय मालों का निर्यात बढ़ाया। यही कारण था कि भारतीय शासक भारत में कंपनी की स्थापना को न सिर्फ सह ही लेते बल्कि इसे प्रोत्साहित भी किया करते थे। हालांकि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत बहुत ही मामूली रही लेकिन आरंभ से ही उसने व्यापार और कूटनीति के सहारे जिन क्षेत्रों में फैक्टरियां स्थापित की थी, उन पर कब्जा करने के प्रयास भी किये।
एक दिलचस्प बात यह है कि मुनाफे के लालची व्यापारियों की यह कंपनी शुरू से ही इस नीति पर अड़ी थी कि किसी भी प्रकार से इस देश पर कब्जा कर लिया जाये। दक्षिण भारत में परिस्थितियां अंग्रेजों के अनुकूल थी क्योंकि वहां उन्हें किसी शक्तिशाली भारतीय राज्य का सामना नहीं करना पड़ा। दक्षिण में स्थित छोटे-छोटे राज्यों को बहलाना या अपनी सैनिक शक्ति से डराना आसान था। और उन्होंने वैसा किया भी। वहां के शासकों से अंग्रेजों ने अपनी फैक्ट्री की किलाबंदी करने, उसका प्रशासन चलाने तथा सिक्के ढालने की अनुमति भी प्राप्त कर ली थी। इसी तरह से अंग्रेज सूरत, बंबई, मछलीपट्टम, बालासोर, ढाका जैसे जगहों पर छा गये।
उनकी मंशा को भारतीय शासक समझ ही नहीं पाये। आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध को भी भारतीय शासकों ने उनकी आपसी शत्रुता के रूप में देखने का प्रयास किया जबकि यह संघर्ष भारत पर प्रभुता कायम करने के लिए ही लड़ी जा रही थी। और जब अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई (1757) में सफलता पायी तो भारतीय शासकों में चेतना आयी। परंतु वक्त बीत चुका था और अंग्रेजी कंपनी यहां की वास्तविक परिस्थितियों से परिचित हो चुकी थी। कंपनी ने धीरे-धीरे अवध, मराठा, कर्नाटक, मैसूर, सिख एवं सिंध जैसे राज्यों को युद्ध में हराकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। वास्तव में देखा जाये अंग्रेजों ने एक बेखबरी के दौर में ही भारत को जीत लिया।
Question : 1818-1858 की अवधि में भारतीय रजवाड़ों के प्रति अंग्रेजों की नीति अलग रहने और हस्तक्षेप न करने के साथ यदा-कदा उन्हें अपने राज्य में मिला लेने की भी रही।"
(1996)
Answer : ली वार्नर ने ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता की कार्यविधि की विवेचना करते हुए सन् 1813 से 1858 तक की कालावधि को अधीनस्थ पृथक्करण की नीति के अंतर्गत रखा है। इसके अनुसार, देशी राज्यों को अपने अधीन करने तथा इन राज्यों को एक-दूसरे से पृथक् रखने की नीति अपनायी जाती थी। लॉर्ड हेस्टिंग्स ने पहले हस्तक्षेप न करने की नीति का पालन किया, किन्तु बाद में उसने अनुभव किया कि देश की स्थिति ऐसी है कि उस नीति पर चलना संभव नहीं है। पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने जो अहस्तक्षेप की नीति अपनायी थी, उसने देशी राज्यों में अशांति और षड्यंत्रों को बढ़ावा दिया था। हेस्टिंग्स ने इस नीति का परित्याग कर दिया और अग्रगामी और साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करते हुए मध्य भारत के 145 राज्यों, काठियावाड़ के 145 राज्यों का तथा राजपूताने के 20 राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। मराठा संघ के विभिन्न घटकों से अलग-अलग निपटने की तैयारी की गयी। उदयपुर की संधि से पता चलता है कि इन राज्यों के साथ अधीनस्थ सहयोग के संबंध बनाए गये थे और पहले की तरह आपसी संबंधों की नीति को त्याग दिया गया था। इन राज्यों की आंतरिक स्वतंत्रता पर भी रेजिडेंट द्वारा प्रभुत्व कायम कर लिया गया था।
अवध के मामले में कंपनी शासन ने सारी नैतिकता को ताक पर रखकर मनमानी की और खराब प्रशासन का दोष मढ़कर उसे साम्राज्य में मिला लिया गया। मैसूर तथा अन्य राज्य भी कुशासन के बहाने का शिकार बने। लॉर्ड डलहौजी ने साम्राज्य-सीमा का विस्तार करने हेतु सभी संभव उपाय किये, जिसमें प्राकृतिक उत्तराधिकार के अभाव में सतारा, जैतपुर, संभलपुर, झांसी, नागपुर, बघात और उदयपुर राज्यों का विलय भी शामिल है। राज्य हड़पने (Doctrine of Lapse) की इस नीति के पीछे उपाधि तथा वार्षिक पेंशन की समाप्ति जैसे विचार भी काम कर रहे थे। नाना साहब की वार्षिक पेंशन समाप्त कर दी गयी और बहादुरशाह जफर के पुत्रों को जफर के मरने के बाद भी सम्राट की जगह राजकुमार का ही संबोधन करने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार यह साफ देखा जा सकता है कि अंग्रेजों ने सुविधाभोगी नीति का पालन किया और अलग रहने और हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण करते हुए गाहे-बगाहे छोटे-बड़े राज्यों को कंपनी शासन के अधीन करते रहे।
Question : भारत के गांवों के बदलते जीवन में भारत की जनता पर अंग्रेजों के प्रशासन का प्रभाव परिलक्षित होता है। परिवर्तन के प्रक्रम और विस्तार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए समझाइये।
(1996)
Answer : भारतीय जनता पर ब्रिटिश शासन के प्रभावों का आकलन भारतीय ग्रामों के बदलते जीवन से किया जा सकता है। इन परिवर्तनों में आर्थिक क्षेत्र के परिवर्तन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इसके प्रभाव बहुत ही दूरगामी रहे। अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे और प्राचीन ग्राम समुदाय में खेती और दस्तकारी साथ-साथ चलती थी। भारतीय ग्राम में आत्मनिर्भरता का अर्थ पूर्ण पृथकता नहीं था। इसका अर्थ केवल यह था कि गांव के लोग आमतौर पर अपने उपयोग के लिए बहुत कम वस्तुएं या सेवाएं दूसरे गांवों या शहरों से मंगाते थे। गांव के उत्पादन का मुख्य भाग राज्य के लगान के रूप में दिया जाता था और उसका एक अंश बाहर शहरों में बेचने के लिए भेजा जाता था। शासक और ग्रामवासी दोनों ही भूमि के उपयोग में रुचि रखते थे, भूमि के स्वामित्व में नहीं। भूमि के ऊपर अधिकार पैतृक थे। ऋण देने वाला कृषकों से अधिक-से-अधिक उत्पादन के एक हिस्से पर अधिकार जता सकता था, उसकी जमीन पर नहीं।
परन्तु अंग्रेजों ने जमींदारी की एक दूसरी ही प्रथा लाद दी। ये नये जमींदार खेत और खेती से बिल्कुल अनभिज्ञ होते थे और इनका कार्य काश्तकारों से ऊंचा राजस्व वसूल करना होता था, क्योंकि ये ऊंची बोली देकर ही जमींदारी का हक प्राप्त करते थे। राजस्व न चुकाने की स्थिति में काश्तकारों से या तो जमीन छीन ली जाती थी अथवा राजस्व चुकाने के लिए वे खुद जमीन बेच देते थे। इस तरह अब जमीन विनिमय की वस्तु बन गयी थी।
स्थायी और अस्थायी बंदोबस्त वाले जमींदारी क्षेत्रों में किसानों की हालत अत्यंत दयनीय हो गयी। उन्हें जमींदारों की दया पर छोड़ दिया गया। इन्होंने लगानों को असहनीय सीमाओं तक बढ़ा दिया तथा उन्हें अब्वाब देने और बेगार करने के लिए मजबूर किया। जमींदारों ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किये।
रैयतवारी और महालवारी क्षेत्रों में किसानों की हालत कोई बेहतर नहीं थी। वहां सरकार ने जमींदारों का स्थान लिया तथा अत्यधिक राजस्व निर्धारित किया। शुरू में भू-राजस्व उत्पादन का एक-तिहाई से लेकर आधा तक होता था। भारी मात्र में भू-राजस्व का निर्धारण उन्नीसवीं सदी में दरिद्रता की वृद्धि तथा कृषि की अवनति के मुख्य कारणों में से एक था।
बहुधा राजस्व भुगतान करने में असमर्थता के कारण किसान को महाजन से ब्याज की ऊंची दरों पर कर्ज लेना पड़ता था। मगर एक बार कर्ज में फंसने के बाद उनके लिए उससे निकल पाना मुश्किल हो जाता था। महाजन एक तो ऊंची दरों पर ब्याज लेता था और दूसरे गलत हिसाब-किताब, जाली दस्तखतों और कर्ज की वास्तविक रकम से अधिक रकम पर अंगूठे लगवाकर इन गरीब किसानों को कर्ज की नयी किश्तों में डुबोते चले जाते थे। अंततः उन्हें अपनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ता था। ये सूदखोर महाजन गरीब और मजबूर किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत से भी खिलवाड़ करते थे। इस तरह किसानों को सरकार, जमींदार और महाजन के तिहरे बोझ तले पिसना पड़ता था।
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कृषि संबंधी एक और परिर्वतन आया, वह था कृषि का वाणिज्यीकरण। इस समय तक कृषि एक जीवनयापन का मार्ग था न कि व्यापारिक प्रयत्न। लेकिन अब बाजार की मांगों के अनुसार कृषकों को कपास, पटसन, मूंगफली, तिलहन, गन्ना, तम्बाकू, चाय और रबड़ आदि वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन शुरू करना पड़ा। दुर्भाग्य से इसका लाभ भी कृषकों को न होकर दलालों को होने लगा। अनाज उत्पादन न करने के कारण अकाल और दुर्भिक्ष की स्थिति में किसानों की मौत होने लगी।
1800 ई. तक भारतीय उद्योग-धन्धे केवल कुटीर उद्योगों के बल पर संसार में सबसे अधिक विकसित थे। ग्रामीण दस्तकार एवं शिल्पकार विभिन्न उत्पादों को शहरों में बेच आते थे और इस तरह अपनी जीविका एक सुसम्पन्न व्यक्ति के रूप में चलाते थे। किसान भी अपने अतिरिक्त समय में हस्तशिल्प के कार्यों से आजीविका का अर्जन करते थे। इसी समय इंग्लैण्ड में आयी औद्योगिक क्रान्ति ने इनके ग्रामीण दस्तकारी और हस्तशिल्प पर गहरा कुठाराघात किया। सूत कातने और सूती कपड़ा बुनने के उद्योगों को सबसे करारा धक्का लगा। रेशमी और ऊनी वस्त्र उद्योग की हालत भी अच्छी नहीं रही। लोहा, मिट्टी के बर्तन, तेलधानी, चमड़ा-शोधन और रंगाई उद्योगों की हालत भी बुरी हो गयी। रेलवे द्वारा ब्रिटिश विनिर्मित वस्तुओं के देश के सुदूर गांवों में पहुंचाने और परंपरागत उद्योगों की जड़ें खोदने में सहायता मिली। बेरोजगार दस्तकार और शिल्पकार खेतिहर मजदूर और छोटे काश्तकार बनने को बाध्य हुए। 19वीं शताब्दी के अन्त तक कृषि के सहारे जीवन-यापन करने वालेे लोगों की संख्या बढ़कर 80 प्रतिशत तक हो गयी थी। इस प्रकार किसानों और शिल्पकारों के बीच सदियों से बनी सामंजस्यता को गहरा ठेस लगा।
कृषि पर जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाव, अत्यधिक भू-राजस्व निर्धारण, जमींदारी प्रथा के पनपने, बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और किसानों की बढ़ती हुई दरिद्रता के फलस्वरूप भारतीय कृषि गतिहीन होने लगी और यहां तक कि उसका अपकर्ष होने लगा। इसके अतिरिक्त सिंचाईके विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया, जबकि एकमात्र इसके द्वारा ही कृषि को बाढ़ और अनावृष्टि की विनाशलीला से बचाया जा सकता था।
गांव की सामाजिक संरचना पर इन सब कारकों का मिलकर बड़ा महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। कृषि अर्थव्यवस्था में आये अन्तर्विरोध बने रहे। इसने सामाजिक तनावों तथा राजनीतिक असंतोष को उभारने में मदद की। इसकी अभिव्यक्ति अक्सर फूट पड़ने वाले किसान विद्रोहों तथा जन-उभारों के रूप में हुई। उदाहरणार्थ 1873 के पाबना दंगे, 1875 में दक्कन खेतिहर दंगे, 1878-79 के दौरान भड़के विद्रोह तथा 1894 में असम के खेतिहर दंगे।
Question : उन्नीसवीं शताब्दी के धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने यह प्रयास किया कि फ्प्राचीन धर्म (हिन्दू धर्म) को ऐसा नया रूप दिया जाये जो नये समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।"
(1996)
Answer : उन्नीसवीं सदी में धर्म सुधार आन्दोलन सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण की कड़ी थी। आधुनिक पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव और विदेशी शक्ति द्वारा पराजित होने की चेतना के चलते लोगों में नयी जागृति आयी। लेकिन भारत की बहुसंख्यक जनता ने पश्चिम के साथ समझौता करना अस्वीकार कर दिया। इन लोगों ने परंपरागत भारतीय विचारों और संस्थाओं में अपनी आस्था व्यक्त की। दूसरी बात यह थी कि लोग धीरे-धीरे यह मानने लगे कि अपने समाज में फिर से प्राण फूंकने के लिए आधुनिक पश्चिमी विचारों के कुछ तत्त्वों को आत्मसात् करना पड़ेगा। विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रवाद की आधुनिक दुनिया की आवश्यकताओं के अनुसार अपने समाज को ढालने की इच्छा लेकर तथा यह संकल्प करके कि इस रास्ते में कोई बाधा नहीं रहने दी जायेगी, विचारशील भारतीयों ने अपने पारंपरिक धर्मों के सुधार का काम आरंभ किया। कारण कि धर्म उन दिनों जनता केजीवन का एक अभिन्न अंग था और धार्मिक सुधार के बिना सामाजिक सुधार भी कुछ खास संभव नहीं था। अपने धर्मों के आधार के प्रति सच्चे रहकर भी उन्होंने उनको भारतीय जनता की नयी आवश्यकताओं के अनुसार ढाला।
राजा राममोहन राय के ब्रह्म समाज ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों को हटाकर, उसे एक ईश्वर की पूजा पर आधारित करके तथा वेदों को अकाट्य न मानकर भी वेदों तथा उपनिषदों की शिक्षाओं के आधार पर उसमें सुधार लाने की कोशिश की। इसने आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के बेहतरीन तत्त्वों को अपनाने की भी कोशिश की। सबसे बड़ी बात यह है कि उसने अपना आधार मानव बुद्धि को बनाया तथा उसे यह जानने की कसौटी बताया कि प्राचीन या वर्तमान धार्मिक सिद्धान्तों और व्यवहारों में क्या उपयोगी तथा क्या अनुपयोगी है।
पश्चिम भारत के पहले धार्मिक सुधारक गोपाल हरि देशमुख ने कहा कि बहुत पहले लिखे गये धर्मग्रन्थ अगर प्रासंगिक न रह गये हों तो उन्हें सुधारने में कोई बुराई नहीं है। बाद में आधुनिक ज्ञान के प्रकाश में हिन्दू धार्मिक विचारों तथा व्यवहारों में सुधार लाने के लिए प्रार्थना समाज की स्थापना हुई।
स्वामी दयानन्द और उनकी संस्था आर्य समाज ने वेद को अकाट्य माना, परन्तु इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने भी विकासमान विचारों को ही स्थान दिया। वे मूर्तिपूजा, कर्मकांड और पुरोहितवाद के विरोधी थे।
थियोसोफिकल सोसाइटी की तो स्थापना ही हिन्दू, पारसी और बौद्ध जैसे प्राचीन धर्मों के सुधार के लिए हुई थी। इस कड़ी में रामकृष्ण मिशन और विवेकानन्द को कभी नहीं भुलाया जा सकता। विवेकानन्द ने शिकागो के अपने ऐतिहासिक भाषण में हिन्दू धर्म की आधुनिक व्याख्या कर पूरे विश्व को चकित कर दिया था। इन सभी धर्म सुधारकों का एक ही उद्देश्य था और वह यह कि प्राचीन हिन्दू धर्म में तत्कालीन सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप सुधार लाया जाये।
Question : 1905 के बाद भारत में नयी रुचियों और नये लक्ष्यों का उदय हुआ, जिन्होंने नीति को नयी दिशाएं देने के लिए विवश किया।"
(1996)
Answer : सन् 1905 के बंग-भंग के बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दिशा में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया। आन्दोलन की अगुवाई कर रही कांग्रेस के अन्दर भी यह परिवर्तन देखने को मिला। उदारवाद की जगह उग्रवाद की परम्परा ने ले लिया। उग्रवादी आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले प्रमुख नेता थे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविंद घोष एवं विपिन चन्द्र पाल। उग्रवाद देश की जनता की नयी रुचि थी और लक्ष्य थे स्वदेशी एवं स्वराज।
अब मांग-पत्रों, प्रस्तावों, सार्वजनिक सभाओं एवं प्रदर्शनों को अपर्याप्त समझा जाने लगा और सामान्य जन की भावनाओं की तीव्रता स्वदेशी और बहिष्कार जैसे सकारात्मक उपायों द्वारा प्रकट होने लगे। ब्रिटिश वस्तुओं की होली जलाना और भारतीय उत्पादों और संस्थाओं के उपयोग अब आम हो गये। बंग-भंग आन्दोलन में युवकों, स्त्रियों, मुसलमानों और जनता ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस तरह राष्ट्रीय आन्दोलन मुट्ठी भर पढ़े-लिखे लोगों और बुद्धिजीवियों का आन्दोलन नहीं रह गया, वरन् इसने जन-आंदोलन का रूप ले लिया। स्वदेशी एवं स्वराज की गूंज बम्बई, मद्रास और उत्तर भारत में सुनायी पड़ने लगी और इस तरह आन्दोलन का अखिल भारतीय चरित्र स्थापित हुआ।
सरकार ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को अपने हित में खतरा समझा और मुसलमानों को मुस्लिम-लीग की स्थापना करने में सहायता पहुंचाकर उनकी एकता में फूट डालने की कोशिश की। मार्ले-मिंटो सुधार के अन्तर्गत भी अंग्रेजों ने इसी नीति का पालन किया।
दूसरी ओर, आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने प्रत्यक्ष रूप से दमनात्मक कार्रवाइयां भी शुरू कीं, प्रतिक्रियास्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन में एक नयी धारा क्रान्तिकारी आतंकवाद का जन्म हुआ, जिसमें व्यक्तिगत बहादुरी और बम की राजनीति का सहारा लिया जाता था। खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, रास बिहारी बोस आदि इसी कड़ी के मनके थे। इसकी अनुगूंज विदेशों में भी सुनायी पड़ी। श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, हर दयाल लंदन में और भीखाजी कामा एवं अजीत सिंह यूरोप में इस धारा की अगुवाई कर रहे थे। इन लोगों ने क्रान्तिकारी विचारों को प्रकट करने के लिए विभिन्न समाचार-पत्रों की भी शुरुआत की।
Question : 1937 के बाद की अवधि में देशी राज्यों में उत्पन्न हुए जन-आन्दोलन का चित्र प्रस्तुत कीजिये। कांग्रेस नेतृत्व की इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया रही?
(1996)
Answer : चौथे दशक के मध्य में हुए दो घटनाक्रमों ने देशी राज्यों के जन-आंदोलन में तेजी ला दी और इसे मुख्य धारा के राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ दिया। पहली घटना थी, भारत सरकार अधिनियम, 1935, जिसके द्वारा सांविधानिक रूप से देशी रियासतों को शेष भारत (ब्रिटिश भारत) से जोड़ने की योजना थी। यह स्कीम लागू तो नहीं हो पायी, लेकिन इसके निहितार्थ ने कांग्रेस और रियासती जनता के बीच की कलई खोल दी। दूसरी घटना थी- 1937 में ब्रिटिश इंडिया में अनेक प्रान्तों में कांग्रेसी सरकारों का गठन। उत्तरदायी सरकारों की स्थापना ने पड़ोसी रियासतों की जनता में नया उत्साह भर दिया और वे भी जन संगठनों (प्रजामंडल) के माध्यम से आंदोलन करने पर आमादा हो गये। जयपुर, कश्मीर, राजकोट, पटियाला, हैदराबाद, मैसूर, त्रवणकोर और उड़ीसा रियासतों में बड़े पैमाने पर संघर्ष शुरू हुए।
1939 के आरंभ में, वस्तुतः समस्त देशी रियासतों में तेजी से फैलते जन-आंदोलनों के संदर्भ में, गांधीजी ने पहली बार एक रजवाड़े में नियंत्रित जन-आंदोलन की अपनी विशिष्ट तकनीकों को प्रयुक्त करने का निर्णय किया। उन्होंने अपने निकट सहयोगी और बड़े व्यापारी जमनालाल बजाज को जयपुर में एक सत्याग्रह करने की अनुमति दी और स्वयं वल्लभभाई पटेल के साथ राजकोट में चल रहे आंदोलन में व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप किया। यू.एन. ढेबर के नेतृत्व में चल रहे इस आंदोलन का मुख्य ध्येय अलोकप्रिय दीवान वीरावाला के कार्यों का विरोध करना था। दुर्भाग्य से ब्रिटिश सरकार की चाल ने गांधी को क्षुब्ध कर दिया और उन्होंने आंदोलन में बल प्रयोग और पर्याप्त अहिंसा के अभाव का बहाना बनाकर आंदोलन से हाथ खींच लिया।
मैसूर में कांग्रेस को वैधता दिलाने और उत्तरदायी सरकार की मांग को लेकर अक्टूबर 1937 में आन्दोलन शुरू हुआ, जिसकी परिणति कोलार जिले के विदुरस्वात गांव में एक रक्तपात के रूप में हुई। गोली चलाये जाने से आंदोलनकारी भीड़ में 30 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। पटेल के हस्तक्षेप के बाद कांग्रेस को कानूनी मान्यता मिल गयी।
उड़ीसा की अंदरूनी और कहीं अधिक पिछड़ी रियासतों में बेगार, वनों की उपज पर कर, त्यौहारों के अवसर पर ‘भेंटों’ की जबरन वसूली या काश्तकारी अधिकार के मुद्दे राजनीतिक सुधारों की मांगों से अधिक नहीं तो कम-से-कम उतने ही महत्वपूर्ण अवश्य थे। धेनकनाल में एक सत्याग्रह आन्दोलन चलाया गया। 5 जनवरी, 1939 को लोगों ने राजपुर में शाही महल के सामने भीड़ पर गोली चलाने वाले ब्रिटिश एजेंट मेजर बाजेलगेट को पत्थर मार-मार कर मार डाला। गांधी जी ने राजनीतिक सुधारों के जरिये उडि़या आंदोलन को समाप्त करवाने की कोशिश की।
हैदराबाद की समस्या यह थी कि 90 प्रतिशत नौकरियां अल्पसंख्यक मुसलमान अभिजन के हाथों में थी। यहां की सरकारी भाषा भी उर्दू थी, जबकि अधिसंख्य (लगभग 86 प्रतिशत) लोग तेलुगू, मराठी और कन्नड़भाषी थे। आधारभूत नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का भी पूर्ण अभाव था और तेलंगाना क्षेत्र में बेगार तथा वस्तुओं के रूप में भेंटों की जबरन वसूली की प्रथा आम थी। तेलंगाना में आंध्र महासभा और मराठवाड़ा में महाराष्ट्र परिषद् ने अपनी मांगें रखनी शुरू कीं। धर्मनिरपेक्ष आधार पर स्थापित स्टेट कांग्रेस ने अपेक्षाकृत सशक्त आंदोलन चलाया। इसी समय उस्मानिया विश्वविद्यालय में देशभक्ति पूर्ण गीत ‘वन्दे-मातरम’ के गाये जाने पर प्रतिबंध लगाने के विरोध में छात्रों ने विश्वविद्यालय छोड़ दिया। गांधी जी के हस्तक्षेप से कांग्रेस ने आन्दोलन वापस ले लिया। लेकिन कम्युनिस्टों ने अपना आधार मजबूत कर यहां के आंदोलनों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया।
त्रवणकोर एवं कोचीन में राष्ट्रीय आन्दोलन की अगुवाई मुख्य रूप से वामपंथियों ने की। त्रवणकोर में स्टेट कांग्रेस (जो वामपंथी नियंत्रण में थी) ने दीवान की निरंकुशता के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया। गोली चलाये जाने की कई घटनाओं के विरोध में छात्रों ने सत्याग्रह किये। कामगारों ने भी इस आंदोलन से हमदर्दी जतायी। नारियल के रेशे का काम करने वाले इन कामगारों ने पारिश्रमिक बढ़ाये जाने की भी मांग की। दीवान को बाध्य होकर दमनमूलक कार्यवाही रोकनी पड़ी।
इन घटनाक्रमों से कांग्रेस ने अपने पहले की नीति का त्याग कर दिया, जिसके अनुसार रियासत की जनता कांग्रेस के नाम से आंदोलन नहीं कर सकती थी। कारण, कांग्रेस ने देख लिया कि जनता संघर्ष पर उतारू है और वह राजनीतिक रूप से जागरूक हो चुकी है। कांग्रेस का वामपंथी खेमा पहले से ही रियासती जनता को आन्दोलन में नेतृत्व देने के लिए दबाव डाल रहा था। मार्च 1939 में तिरुपति अधिवेशन में कांग्रेस ने इस नयी नीति को मंजूरी दी। 1939 में ही स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस ने लुधियाना अधिवेशन के लिए जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष चुना। इस तरह ब्रिटिश इंडिया और देशी रियासतों में छिड़े आंदोलन अब खुले रूप से एक-दूसरे से जुड़ गये।
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में कांग्रेस ने ब्रिटिश इंडिया और देशी रियासतों के बीच कोई भेद नहीं किया। रियासतों में भी संघर्ष का शंखनाद हुआ और रियासतों की जनता भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में शामिल हो गयी। अब रियासतों की जनता का भी नारा था ‘भारत छोड़ो’। रियासतों को भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग मानने की भी मांग उठाई गयी। गांधी ने भी रियासतों के आन्दोलन को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने की हिमायत की। देश की आजादी के समय अंग्रेजों द्वारा रियासतों के मामले को पेचीदा बना देने पर पटेल ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का सहारा लिया और ‘इन्स्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर कुछ को छोड़कर अधिसंख्य राजाओं की सहमति ले ली।
Question : पाकिस्तान के आन्दोलन ने जनता के सांस्कृतिक और धार्मिक अस्तित्व को पृथकतावादी राजनीतिक शक्ति में बदल दिया। स्पष्ट कीजिये।
(1996)
Answer : मुस्लिम लीग के 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए अलग देश बनाये जाने की औपचारिक मांग के साथ ही पाकिस्तान के आंदोलन को एक धरातल मिल गया। पाकिस्तान के विचार का प्रवर्तक कवि और राजनैतिक चिन्तक इकबाल को माना जाता है, जिन्होंने 1930 के अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में पैन इस्लामिक (सर्व इस्लामबाद) के आदर्श को प्राप्त करने की बात कही थी। उस वक्त जिन्ना ने इकबाल के इस विचार को एक कवि और दार्शनिक की कोरी कल्पना कहा था, जिसके पीछे वास्तविक सच्चाई का अभाव होता है। मुसलमानों के लिए पृथक् स्वदेश को पाकिस्तान नाम दिया, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक छात्र रहमत अली ने। 1933 के गोलमेज सम्मेलन में उपस्थित प्रतिनिधियों के बीच उसने एक पर्ची बांटी, जिसमें ‘पाकिस्तान’ की मांग स्पष्ट शब्दों में रखी गयी थी।
पाकिस्तान का सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग जातियां हैं। सारे भारत में और भारत के हर इलाके में हिन्दू और मुसलमान भले ही मिलजुल कर रहते हों, भले ही हिन्दू और मुसलमान एक ही परिवार के सदस्य हों, लेकिन इस सिद्धान्त के अनुसार वे दो अलग-अलग ‘जातियों’ के लोग हैं। जिन्ना ने दो राष्ट्र के सिद्धान्त की वकालत करते हुए कहा था कि, फ्ये (हिन्दू और मुसलमान) शब्द के नियमनिष्ठ अर्थ में धर्म नहीं है, अपितु वास्तव में भिन्न और स्पष्ट सामाजिक व्यवस्था है और यह एक स्वप्न है कि कभी भी हिन्दू और मुस्लिम मिलकर एक राष्ट्र बना सकते हैं----इन दोनों के धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाज और साहित्य भिन्न हैं….. ऐसी दोनों जातियों को एक राज्य में इकट्ठे बांधने से जिसमें एक अल्संख्यक हो और दूसरी बहुसंख्यक…... इससे असंतोष बढ़ेगा और राष्ट्र ही नष्ट हो जायेगा।" रहमत अली ने भी अपने तर्क को पुख्ता करने के लिए कहा था कि मुसलमानों के धर्म, संस्कृति, इतिहास, परम्पराएं, साहित्य, आर्थिक प्रणाली, दाय के कानून, उत्तराधिकार और विवाह हिन्दुओं से मूलतः भिन्न हैं। मुसलमान और हिन्दू आपस में बैठकर खाते नहीं और विवाह नहीं करते। हिन्दुओं और मुसलमानों की राष्ट्रीय रीतियां, पंचांग, यहां तक कि खाना और पहनावा सभी भिन्न हैं।
1940 वाले प्रस्ताव में पाकिस्तान में सम्मिलित होने वाले क्षेत्रों का ब्यौरा नहीं दिया गया था। एक दिशा-निर्देश अवश्य दिया गया था, जिसके अनुसार भौगोलिक रूप से एक-दूसरे से सटे हुए प्रदेश जहां मुसलमान बहुसंख्यक हों, पाकिस्तान की सीमा के अन्तर्गत आने वाले थे। 1942 में जिन्ना ने प्रो. कूपलैण्ड को पाकिस्तान की तस्वीर अग्रलिखित शब्दों में दी, पाकिस्तान एक मुस्लिम राज्य होगा और भारत के एक ओर उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त, पंजाब और सिन्ध और दूसरी ओर बंगाल होंगे।"जिन्ना ने बलूचिस्तान और असम का उल्लेख नहीं किया था, न ही कश्मीर और हैदराबाद का। परन्तु 1946 में कैबिनेट मिशन को भेजे स्मार-पत्र में मुस्लिम लीग ने छः प्रान्तों- पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, बंगाल और असम को एक समूह में सम्मिलित करने की बात कही।
भारत में सदियों से हिन्दू और मुस्लिम एक साथ रह रहे थे। इनके बीच धर्म और संस्कृति को लेकर मनोमालिन्य नहीं के बराबर था। परन्तु 1857 के विद्रोह में उनकी एकता ने अंग्रेज शासकाें की नींद हराम कर दी और उन्होंने हिन्दुओं को अधिक तरजीह देकर मुसलमानों की राजनैतिक शक्ति को कमजोर करने की नीति अपनायी। कांग्रेस की बढ़ती हुई राजनैतिक शक्ति से घबराकर शक्ति संतुलन हेतु मुस्लिम लीग की स्थापना में अंग्रेजों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। कांग्रेस की राजनैतिक शक्ति पर अंकुश लगाने में मुस्लिम लीग की अहम भूमिका को स्वीकार किया गया। ‘फूट डालो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति एवं मुस्लिम लीग की मुसलमान परस्त नीतियों के विरुद्ध हिन्दू फिरकापस्ती के रूप में ‘हिन्दू महासभा’ की स्थापना हुई, हिन्दुओं में हिन्दू महासभा उतनी लोकप्रिय कभी नहीं हुई जितनी कि मुसलमानों में मुस्लिम लीग। परन्तु फिर भी मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग के प्रतिकार के रूप में हिन्दू महासभा ‘अखण्ड हिन्दुस्तान’ का नारा लगाती थी।
हिन्दू महासभा के भारत में हिन्दू जाति, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू सभ्यता और हिन्दू राष्ट्र की मांग को देखते हुए लीग की पाकिस्तान की मांग और दृढ़ होती चली गयी। हर देश में धार्मिक, भाषायी या जातीय अल्पसंख्यकों को कभी-कभी ऐसा लगता रहा है कि उनकी संख्या कम होने के कारण उनके सामाजिक और सांस्कृतिक हितों को हानि पहुंच सकती है। दुर्भाग्य से हिन्दू महासभा ने साम्प्रदायिकता के विकास एवं पाकिस्तान के पृथकतावादी आंदोलन को और मजबूत ही किया। हिन्दू महासभा ने हिन्दुस्तान को हिन्दुओं का देश कहा और मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक। इस कथन ने मुसलमानों में सांस्कृतिक और धार्मिक अस्तित्व के लिए घोर असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी।
जवाहर लाल नेहरू ने जिन्ना को लिखा था कि मुस्लिम लीग का काम केवल उच्च मध्यवर्ग के लोगों तक ही सीमित है और उसका मुस्लिम जनता से कोई आम संपर्क नहीं है। मुसलमानों के निम्न मध्यवर्ग से तो उसका बहुत कम संपर्क है। लेकिन जल्द ही जिन्ना ने इसे चुनौती मानते हुए मुस्लिम लीग की ताकत बढ़ानी शुरू
कर दी।
1927 में मुस्लिम लीग के सदस्यों की कुल संख्या 1330 थी जो लीग द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 1938 में लाखों तक पहुंच गयी और 1944 में तो लीग ने आधिकारिक तौर पर यह दावा किया कि उसके सदस्यों की संख्या 20 लाख हो गयी है। 1946 के चुनावों से इस बदली हुई स्थिति का पता चलता है। केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनावों में कुल 533 मुस्लिम सीटों में से 460 पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली। भारतीय मुसलमानों के बीच लीग ने जल्द ही सबसे बड़े राजनीतिक संगठन के रूप में अपने आपको स्थापित कर लिया।
मुस्लिम लीग कांग्रेस के विपरीत जनता की सामाजिक और आर्थिक मांगे उठाने से कतराती रही। इसकी वास्तविक ताकत मुस्लिम जनता के सांस्कृतिक और धार्मिक अस्तित्व को बनाये रखने के अवास्तविक डर को बनाये रखने में थी। भारतीय जनता का साम्प्रदायिक विभाजन अवास्तविक था और इसका उद्देश्य वास्तविक विभाजनों यानी विभिन्न भाषायी-सांस्कृतिक अंचलों तथा सामाजिक वर्गों के अस्तित्व तथा एक राष्ट्र के रूप में विकसित हो रही वास्तविक एकता के इर्द-गिर्द धुंध पैदा करना था। मुस्लिम लीग ने इसी धुंध का लाभ उठाकर पृथकतावादी राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली।
Question : सिन्ध की अंग्रेजी विजय प्रथम अफगान युद्ध की राजनीतिक और नैतिक परिणाम थी। व्याख्या कीजिये।
(1995)
Answer : सिन्ध की अंग्रेजी विजय के पीछे तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं-परिघटनाएं जिम्मेदार रही। रूस ने मध्य एशिया में प्रसार
करते हुए फारस (ईरान) पर अपने प्रभाव बना लिये थे। फारस के शाह ने रूस के कहने पर हरात पर आक्रमण करने की धमकी दी। अंग्रेज राजनीतिक एवं सैन्य विशेषज्ञों ने रूस के बढ़ते प्रभाव को भारतीय उपनिवेश के लिए खतरा बताया। अतः अंग्रेजों की नीति अफगानिस्तान को अपने संरक्षण में लेकर हरात में अपनी सेनाएं तैनात करना था ताकि रूसी प्रभाव का संतुलन किया जाये। सिंध में ब्रिटिश प्रभाव को बढ़ावा अफगानिस्तान को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का ही अविच्छिन्न भाग था। इस तरह सिंध की अंग्रेजी विजय उसकी राजनीतिक और सैनिक रणनीति के तहत थी और इसके लिए अंग्रेजों ने सारी नैतिकता को भी ताख पर रख दिया।
अफगान प्रश्न को ठीक से हल करने के उद्देश्य से कम्पनी ने जून 1838 में रणनीति सिंह और काबुल के शासक शाहशुजा से त्रिदलीय सन्धि की। इस संधि से रणजीत सिंह ने सिंध के अमीरों से अपने झगड़े में कंपनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली और शाहशुजा ने सिंध पर अपनी श्रेष्ठता के अधिकार त्याग दिये, इस शर्त पर कि उसके कर की ‘शेष राशि’ मिल जायेगी। दरअसल, सिंध का यह ढोंग अमीरों से काबुल-अभियान के लिए धन ऐंठने तथा अफगानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए ‘आधारभूत कार्य-क्षेत्र’ के रूप में प्रयोग के वास्ते किया गया था, क्योंकि रणजीत सिंह ने अंग्रेजी सेनाओं को पंजाब में गुजरने की अनुमति नहीं दी थी। किंतु अंग्रेज सिंध पर अपना फंदा और कसना चाहते थे, अतः एक ‘व्यापक अधिकार वाली संशोधित संधि’ की उन्हें जरूरत थी जो फरवरी 1839 में सिंध के अमीरों के साथ नयी संधि पर हस्ताक्षर के साथ संपन्न हुआ। इसके अनुसार, उन्हें अपने राज्यों में एक ब्रिटिश सेना रखने के लिए तीन लाख रुपए वार्षिक देना पड़ा। अमीर ने बिना कंपनी की अनुमति के किसी अन्य विदेशी शक्ति से कोई संबंध नहीं रखने की बात मानी। कराची में सैनिक सामान के लिए गोदाम देने, सिंध पर सभी मार्गकर (Toll Tax) समाप्त कर देने तथा जरूरत पड़ने पर अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने पर ‘सहमति’ हुई।
1839 से 42 की अवधि में अनर्थपूर्ण अफगान युद्ध के वर्षों में सिंध प्रान्त ब्रिटिश सरकार द्वारा युद्ध की ‘आधार भूमि’ के रूप में प्रयुक्त हुआ। इतना ही नहीं, सिंध के अमीरों को अंग्रेजी सेना की सहायता का भार भी उठाना पड़ा। उनके कुछ भाग उनसे स्पष्टतः सदैव के लिए ले लिये गये थे, पुराने कर के स्थान पर उन्हें बहुत-सा धन देना पड़ा, और उनकी स्वाधीन स्थिति सदैव के लिए चली गयी क्योंकि निश्चित रूप से वे अंग्रेजों के प्रभाव क्षेत्र में आ गये थे। अमीरों ने यद्यपि संधि का अक्षरशः पालन किया किन्तु उन पर ब्रिटिश सरकार के विरोध और उसके प्रति घृणा फैलाने का आरोप लगाया गया।
सन् 1842 में ऑकलैण्ड के स्थान पर लार्ड एलनबरो गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। वह अपने पूर्ववर्त्ती से भी अधिक ‘कपटी और जल्दबाज’ निकला। इधर मेजर आउट्रम के स्थान पर सर चार्ल्स नेपियर को सिंध में पूर्ण अधिकार संपन्न बनाकर कंपनी का रेजीडेंट नियुक्त किया गया। वी.ए. स्मिथ ने नेपियर के बारे में कहा है-"नेपियर ने, जो इस प्रान्त को सम्मिलित करने पर कृतसंकल्प था, एक आक्रामक नीति अपनायी। उसे यह विश्वास था कि भारत सरकार संधियों की पूर्ण उपेक्षा करके जो चाहे कर सकती है।" नेपियर सिंध को कंपनी शासन में मिलाने के लिए उतावला था; अतः बहाने ढूंढ़ने लगा। उसने यह मान लिया कि अमीरों के विरुद्ध लगाये गये अस्पष्ट दोष सिद्ध हो चुके थे। नेपियर का दुस्साहस इस हद तक बढ़ गया कि वह अमीरों के उत्तराधिकार-संबंधी झगड़े में खुल्लम-खुल्ला हस्तक्षेप करने लगा। वह इस तरह काम करने लगा, मानो सिंध पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन चुका था। इसी स्वेच्छाचारिता के दौरान उसने (लॉर्ड एलनबरो के प्रत्यक्ष इच्छा, सहयोग व प्रोत्साहन से) एक नयी संधि (वस्तुतः आरोपित) अमीरों से की, जिसमें भविष्य वेफ़ लिए अधिक प्रतिभूति (Security) की मांग तथा पूर्व की भूल हेतु दण्डस्वरूप कुछ प्रदेश छोड़ने की मांग की। कंपनी ने सिक्का ढ़ालने का अधिकार भी प्राप्त किया जिसमें एक ओर इंग्लैंड की साम्राज्ञी की प्रतिमा होती। अपनी अधीरता और आक्रामकता से वशीभूत होकर नेपियर ने इमामगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया और उसे जीत लिया। इससे उत्तेजित होकर बलूचियों ने अंग्रेज रेजीडेंसी पर आक्रमण कर दिया। एक जद्दोजहद भरे युद्ध के बाद नेपियर ने जीत हासिल की, ईनामस्वरूप उसे ही सिंध का पहला गवर्नर बनाया गया।
सिंध विजय के संबंध में नेपियर का मानना था कि यह एकाकी घटना नहीं कही जा सकती वरन् यह तो ‘अफगान तूफान की पूंछ थी।’ पी.ई. रोबर्ट्स ने भी इस घटना को अफगानिस्तान वाली घटना से कुछ यूं जोड़ा है, सिंध विजय अफगान युद्ध के पश्चात् हुई नैतिक एवं राजनैतिक रूप से उसी का परिणाम थी।" वास्तव में सिंध की मरुभूमि का सामारिक महत्व रूस और ईरान की भारत पर संभवतः आक्रामक कार्यवाहियों के विरुद्ध एक आधार के रूप में बन गया था। और इसलिए सिंध की विजय के लिए अंग्रेजों ने किसी राजनीतिक आदर्श का पालन नहीं किया; यहां तक कि नैतिकता को भी उन्होंने त्याग दिया।
Question : अपने कुछ कार्यों से क्लाइव ने अपनी उपलब्धि की उपयोगिता और कीर्ति को घूमिल कर दिया।"
(1995)
Answer : भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना का श्रेय क्लाइव को दिया जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी में एक क्लर्क के रूप में अपने कैरियर को प्रारंभ करनेवाला क्लाइव शीघ्र ही अपनी योग्यता और प्रतिभा से कंपनी की सेना में कैप्टन नियुक्त हुआ तथा अन्ततः 1758 में बंगाल का गवर्नर बन गया और जिस पद को उसने दो बार सुशोभित किया। 1757 में उसने साम.दाम.दंड.भेद सभी का उपयोग कर प्लासी की वह लड़ाई देशी राजा सिराजुद्दौला से जीत ली जो वस्तुतः युद्ध था ही नहीं। अस्तु, ब्रिटिश दृष्टिकोण से प्लासी की लड़ाई में जीत एक बड़ी ‘उपलब्धि’ तो थी ही।
क्लाइव ने प्लासी-विजय के पश्चात् स्थापित किये गये नये शासक मीर जाफर से अकूत धन, बहुत-सी बस्तियां तथा बंगाल में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया। इस प्रकार बंगाल एक प्रकार से अंग्रेजों के अधीन हो गया, जो बाद में फिर कभी मुक्त नहीं हो सका। शीघ्र ही क्लाइव की सरदारी में अंग्रेज व्यापार के एकाधिकार से राजनीतिक एकाधिकार की ओर बढ़ा। उसने बंगाल में अपने पांव मजबूती से जमाने हेतु सैन्य-शक्ति में वृद्धि की।
सन् 1765 में अपने द्विवर्षीय कार्यकाल के दौरान (बक्सर की निर्णायक विजय के बाद) एक सेनापति और गवर्नर के रूप में क्लाइव ने बंगाल में अंग्रेजी शक्ति के सुदृढ़ीकरण पर जोर दिया। इलाहाबाद की संधि (1765 ई.) के द्वारा उसने 50 लाख रुपये लेकर अवध नवाब शुजाउद्दौला को लौटा दिया। इलाहाबाद व करा के जिले शाहआलम को दे दिये। इलाहाबाद की दूसरी संधि के अनुसार, भगोड़े सम्राट शाहआलम को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया गया। शाहआलम ने एक फरमान के द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी स्थायी रूप से दी, बदले में कंपनी सम्राट को 26 लाख रुपए प्रति वर्ष देती। इन संधियों ने बंगाल में क्लाइव व कंपनी की स्थिति और सुदृढ़ कर दी। इन प्रारंभिक कार्यों के बाद क्लाइव ने बंगाल में कतिपय प्रशासनिक सुधार किये जिसके अन्तर्गत उसने भ्रष्टाचार पर अंकुश स्वरूप उपहार लेने बंद कर दिये, निजी व्यापार बन्द कर दिया, आन्तरिक कर देना अनिवार्य बना दिया आदि। क्लाइव के इन सुधारों ने कंपनी के आंतरिक शासन को सुधार दिया।
किन्तु प्लासी की विजय और अपने पीछे के सुधारों द्वारा बंगाल में ब्रिटिश प्रभुता की नींव डालने की उपलब्धि प्राप्त करने वाले क्लाइव की कीर्ति पर बंगाल में ‘द्वैध शासन’ की स्थापना ने बट्टा लगा दिया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत समस्त दीवानी (असैनिक) तथा निजामत (फौजदारी) का कार्य नवाब के कारिन्दों द्वारा चलना था यद्यपि उत्तरदायित्व कंपनी का था। अर्थात् दो राजे, कम्पनी और नवाब के अधीन बंगाल का राजकाज चलने लगा। कंपनी का कर्त्तव्य था बाहरी खतरों से नवाब के क्षेत्रों की रक्षा करना। लेकिन राजस्व वसूली का अधिकार कंपनी के पास होना एक महत्वपूर्ण अधिकार था। इस तरह शासन की वास्तविक शक्ति अंग्रेजों के हाथ में थी और नवाब उस शक्ति की छायामात्र था। व्यावहारिक रूप में यह व्यवस्था खोखली सिद्ध हुई तथा इसने बंगाल में अराजकता और भ्रांति फैला दी। अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी बंगाल में अपनी लूट-खसोट की आदत से मजबूर थे जबकि नवाब के कारिन्दे अकर्मण्यता एवं लापरवाही में डूब गये। फलतः राज्य अत्याचार, भ्रष्टाचार और कष्ट के बोझ से कराहने लगा। इन्हीं दुस्सह स्थितियों में 1770 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा जिसमें 30 लाख लोग मर गये। इस प्रकार द्वैध शासन, एक कुशासन या भ्रष्टाचार का दूसरा नाम बन गया। इसके प्रवर्त्तक क्लाइव की कीर्ति बंगाल में ब्रिटिश सत्ता के सुदृढ़ीकरण व कतिपय प्रशासनिक सुधारों के बावजूदइस व्यवस्था से होने वाले असह्य कष्टों के कलंक की वजह से धूमिल हो गया।
Question : 20वीं सदी में दक्षिण भारत में जाति आन्दोलनों की दिशा का वर्णन करते हुए उनके स्वरूप की व्याख्या कीजिये। उनके उद्देश्य किस सीमा तक प्राप्त हुए?
(1995)
Answer : 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में दक्षिण भारत में जाति सभाओं, समितियों एवं आंदोलनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका शुरू हो चुकी थी। इन समूहों को नेतृत्व निचली जाति के कुछ शिक्षित लोग देते थे। व्यवसाय अथवा नौकरियों की होड़ में देर से शामिल होने वाले इन लोगों को लगता था कि इस क्षेत्र में पहले से रूपायित ब्राह्मणों एवं अन्य उच्च जातियों के विरुद्ध संघर्ष की दृष्टि से एकत्रित होने के लिए जाति एक उपयोगी साधन हो सकती है। सर्वप्रथम ब्राह्मण एवं अन्य उच्च जातियां ही अंग्रेजी शिक्षा से लाभान्वित हुई थी।
इस तरह के गुटवादी पक्ष पर कैम्ब्रिज संप्रदाय के इतिहासकारों द्वारा बल देना बड़ा स्वाभाविक है। जबकि दूसरी ओर, समाजशास्त्रियों ने इन जातिगत आंदोलनों को संस्कृतीकरण की प्रक्रिया से जोड़ने की कोशिश की है जिसके अनुसार निम्न जातियां समाज में अपनी उर्ध्वगामी गतिशीलता प्राप्त करती है। यह ‘परंपरा’ और ‘आधुनिकता’ के बीच एक कड़ी के रूप में भी समझी जाती है। तमिलनाडु के आत्मसम्मान आन्दोलन के संबंध में एक अलग ही दृष्टिकोण अपनाया गया है, जिसके अनुसार यह जातिगत संघर्ष सामाजिक-आर्थिक एवं वर्गीय तनाव की विकृत किन्तु महत्वपूर्ण अभिव्यिक्त थी।
संस्कृतीकरण का एक उदाहरण नादरों के आन्दोलन में देखा जा सकता है। दक्षिण तमिलनाडु में नादर अछूत माना जाता था। रामनद जिले के कस्बों में इस जाति के समृद्ध व्यापारी शैक्षिक एवं समाज कल्याण की गतिविधियां चलाने के लिए धन एकत्रित करते थे। वे अपने-आपको क्षत्रिय कहते थे; ऊंची जाति के रीति-रिवाजों और आचार-व्यवहार का अनुकरण करते थे। 1910 ई. में इस समूह ने ‘नादर महाजन संगम’ की स्थापना की।
राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था ‘जस्टिस आंदोलन’। इसकी स्थापना मद्रास में 1915-16 के आसपास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुदालियार, टी.एम. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने की थी। इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदालियार और चेट्टियार प्रमुख थे, किन्तु तेलुगू रेड्डी, कम्पा, नायडू एवं मलयाली नायर भी सम्मिलित थे। इनमें अनेक समृद्ध भूस्वामी और व्यापारी थे और उन्हें शिक्षा, सेना एवं राजनीति के क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व देखकर ईर्ष्या होती थी। अंग्रेज अधिकारी एनी बेसेंट के ब्राह्मण-प्रधान होमरूल लीग को कमजोर करने के लिए जस्टिस पार्टी के नजदीक आये। जस्टिस पार्टी ने भी उसके सदस्यों को अधिक नौकरी और विधायिका में अधिक प्रतिनिधित्व की आशा में राजभक्ति प्रदर्शित की। आगे चलकर 1920 के दशक में तमिलनाडु में ई.वी. रामास्वामी नायकर के नेतृत्व में एक जुझारू एवं लोकप्रिय ब्राह्मण- विरोधी एवं जाति-विरोधी आंदोलन विकसित हुआ।
त्रवणकोर रियासत में नंबूदरी ब्राह्मणों का एक छोटा-सा वर्ग जागीरों पर आश्रित था। यहां नायर एक प्रमुख जाति थी और शिक्षा का प्रभाव इन पर भी काफी पड़ा था। यहां गैर-मलयाली ब्राह्मण भी थे। नायर मानते थे कि ये उनकी उपेक्षा करते हैं। नायरों की अपनी समस्याएं भी थी। उनकी पारंपरिक मातृसत्तात्मक और संयुक्त परिवार की प्रथा ‘तरावाड’ आधुनिक समय के लिए अनुपयुक्त साबित हो रही थी। पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के साथ नायर समाज के अनेक रीति-रिवाज लज्जाजनक प्रतीत होने लगे थे; विशेष रूप से नंबूदरी अतिथियों के सामने नायर स्त्रियों के छाती खोले जाने और उनके साथ अस्थायी संबंध स्थापित करने की प्रथा। इन सबके परिणामस्वरूप लगभग एक साथ ही अनेक प्रवृत्तियां उभरीं- समाज सुधार, ब्राह्मण-विरोधी भावनाएं, राष्ट्रवाद और यहां तक कि आमूल परिवर्तनवाद के तत्त्व भी। केरल के प्रथम आधुनिक उपन्यास कहे जाने वाले ‘इंदुलेखा’ में नंबूदरी ब्राह्मणों के सामाजिक प्रभुत्व एवं तरावाड प्रथा के कारण रूमानी प्रेम पर लगायी जाने वाली बंदिशों पर हमला किया गया है। ‘मार्त्तण्ड वर्मा’ में नायरों के खोये हुए सैन्य गौरव का आह्नान करने का प्रयास किया गया है। रामन पिल्लई ने सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के प्रभुत्व की आलोचना की। पद्मनाभ पिल्लई ने 1914 में नायर सर्विस सोसाइटी की स्थापना की। इसमें जातिगत आकांक्षाओं के साथ कुछ आंतरिक समाज सुधार के प्रयासों को भी स्थान दिया गया था।
नायरों के अलावा इझावा समुदाय में भी जागृति आ रही थी। ये लोग पारंपरिक रूप से नीची जातियों के थे और नारियल की खेती करते थे। 1902-03 में इस समुदाय के नेता श्री नारायण गुरु ने श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम् की स्थापना की। समाज-सुधार के उद्देश्य से शुरू यह समिति आमूल परिवर्तनवादी में बदल गया। इझावा वर्ग के उत्थान के लिए दो तरह के कार्यक्रम बनाये गये। पहला था कि अपने से नीची जातियों के प्रति अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करना। इसके अतिरिक्त नारायण गुरु ने कई मन्दिर बनवाए जो सभी वर्णों के लिए खुले थे। इसी प्रकार उन्होंने विवाह संस्कार, धार्मिक पूजा तथा अंत्येष्टि आदि के कर्म-काण्डों को सरल बना दिया। नारायण गुरु को अस्पृश्य जातियों को पिछड़ी जातियों में परिवर्तित करने में विशेष सफलता मिली। उन्होंने मानव के लिए एक धर्म, एक जाति एवं एक ईश्वर का नारा दिया।
मद्रास का ‘पेरियार’ ई.वी. रामास्वामी नायकर ने कांग्रेस से नाता तोड़कर जस्टिस पार्टी के एक लोकप्रिय और जुझारू आंदोलन का नेतृत्व किया। उसकी पत्रिका ‘कुडि आरसू’ में धाराप्रवाह तमिल का प्रयोग होता था। 1925 ई. में उसने ‘आत्मसम्मान आन्दोलन’ चलाया जो ब्राह्मण पुरोहितों के बिना विवाह करवाने से आरंभ करके मंदिरों में बलात् प्रवेश और मनुस्मृति को जलाने तक और कभी-कभी स्पष्ट नास्तिकता तक भी पहुंचा।
इन सभी आन्दोलनों के उद्देश्य किसी-न-किसी हद तक प्राप्त भी किये गये। सरकारी सेवाओं, अभियांत्रिकी, चिकित्सा शास्त्र और वैज्ञानिक पाठ्यक्रमों में पिछड़ी जातियों को वरीयता प्रदान करनेे की नीति का शुभारंभ जस्टिस पार्टी की प्रमुख उपलब्धियों में था। 1920 ई. से मद्रास प्रेसीडेन्सी में सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर सीट निश्चित किये गये। दूसरी ओर, समाज में प्रचलित कई शर्मनाक प्रथाएं उठने लगी। इन आंदोलनों को कांग्रेस ने भी नैतिक समर्थन देना शुरू किया जिसका प्रतिफल यह हुआ कि उच्च जातियों में भी बौद्धिकों की संख्या बढ़ गयी जिन्होंने सामाजिक स्तर पर इनके हालात सुधारने में मदद की। निम्न जातीय लोगों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। यह उनकी निम्न स्थिति के प्रति असंतोष को और बढ़ाया। जाति आन्दोलन ने दक्षिण भारत में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को सर्वाधिक बढ़ाया जिसके परिणामस्वरूप कई जातियों ने अपने सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने में सफलता हासिल की।
Question : कैनिंग से कर्जन तक भारत सरकार को फ्रचनात्मक प्रयत्न के लिए चुनौती अथवा नये युग की तैयारी की अपेक्षा एक श्वेत व्यक्ति पर भार समझा गया।"
(1995)
Answer : लार्ड कैनिंग से लार्ड कर्जन (1856-1905) तक के काल में कुछ ऐसे कदम भी उठाये गये जो भारत में नये विहान लाने के लिए जिम्मेदार रहे। इन्हीं सुधारों और सद्कार्यों से प्रभावित होकर कुछ साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इस काल के लिए ‘रचनात्मक प्रयत्न के लिए चुनौती’ अथवा ‘नये युग की तैयारी’ जैसे मुहावरों का प्रयोग किया है। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। इससे भी पहले, जब अंग्रेज पूरी दुनिया में ईसाई मिशनरियों की सहायता से व्यापारिक एवं राजनीतिक लाभ उठा रहे थे तो वे अपने इस कृत्य को ‘एक श्वेत व्यक्ति पर भार’ वाले सिद्धान्त से सही ठहराने पर तुले हुए थे। इस सिद्धान्त के अनुसार, हर श्वेत व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह पूरी दुनिया में सभ्यता और संस्कृति फैलाये; अर्थात् दुनिया को सभ्य बनाने का भार इन्होंने अपने ऊपर ले लिया था।
कैनिंग और कर्जन के बीच लगभग आठ वायसराय और आये एवं लगभग इस पूरे काल के दरम्यान महारानी विक्टोरिया ने शासन किया। ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक क्षमता के उसी ऊंचे मान को भारत में प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया जो उनके देश में विकसित हुआ था। पश्चिम की प्रबुद्ध उदार मानवतावादी भावना भारत में अपना प्रभाव महसूस कराने में नहीं चूकी। पश्चिम के वैज्ञानिक आविष्कार भी भारत में जल्द ही व्यवहृत होने लगे, जिससे इसके भौतिक साधनों में वृद्धि हो। यह प्रक्रिया निश्चित रूप से पहले से चली आ रही थी लेकिन कैनिंग के बाद इसमें स्पष्टता अधिक आ गयी। मानवतावादी भावना से प्रेरित कुछ कार्य इस प्रकार थे-
ऐसे कई कदम इन गवर्नर-जनरलों के काल में उठाए गये; लेकिन ऐसा अंग्रेजों की भारत में नया युग लाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। अगर ऐसा होता तो आजाद देश में उन्हीं के द्वारा प्रदत्त कई समस्याओं से हमें जूझना नहीं पड़ता। ये कदम निश्चय ही उनकी ‘श्वेत व्यक्ति पर भार’ वाले सिद्धान्त से परिचालित प्रतीत होते हैं।
Question : मोन्टफोर्ड सुधारों द्वारा स्थापित द्वैध प्रणाली ने ‘निश्चित रूप से बाह्य संदेश और भीतरी घर्षण पैदा किया।’
(1995)
Answer : भारत सचिव मौंटेग्यू और गवर्नर जनरल चेम्सफोर्ड द्वारा प्रस्तावित तथाकथित सुधार 1919 में भारत सरकार अधिनियम का आधार बनी। इस अधिनियम में सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रान्त संबंधी प्रशासन के क्षेत्र में आया। प्रान्तों में उत्तरदायी शासन के नाम पर द्वैध शासन प्रणाली (क्लंतबील) की व्यवस्था की गयी थी। इस प्रणाली के आधार पर प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। पहले भाग में गवर्नर तथा उसकी चार सदस्यीय कार्यकारिणी परिषद् थी तथा दूसरे भाग में गवर्नर और उसके मंत्री थे।
प्रान्तों में कार्यकारिणी परिषद् की शक्तियों का विभाजन दो भागों में किया गया था: रक्षित विषय तथा हस्तांतरित विषय। भूमिकर, अकाल राहत, कानून, शांति और व्यवस्था, पुलिस, जेल, जन-सेवाएं, अर्थ व समाचार पत्र, गवर्नर तथा सरकार के प्रति उत्तरदायी परिषद् को आरक्षित विषय के रूप में सौंप दिये गये। हस्तांतरित विषयों के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन, जनस्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन, जनकार्य, सहकारिता, बिक्री कर, उद्योग, विकास इत्यादि सम्मिलित किये गये थे। उपर्युक्त विषयों में भ्रम होने पर स्पष्टीकरण के विषय में गवर्नर का मत एवं निर्णय अंतिम था।
द्वैध शासन की यह प्रणाली भारत में गवर्नर के अधीन नौ प्रान्तों में लागू की गयी। हस्तांतरित विषयों के संदर्भ में गवर्नर मंत्रियों की आम सलाह से शासन करता था। वह अपने मतानुसार सलाह को मानने से इन्कार भी कर सकता था। आरक्षित विषय कार्यपालिका परिषद् के चार सदस्यों के अधीन थे तथा गवर्नर उसकी बैठकों का सभापतित्व करता था।
विषयों पर फैसला बहुमत के आधार पर लिया जाता था। आवश्यकता पड़ने पर गवर्नर के पास एक अतिरिक्त मत भी था। इसके अतिरिक्त, वह बहुमत से लिए गये निर्णय को रद्द करने की असाधारण शक्ति भी रखता था।
द्वैध शासन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए कार्यकारिणी के दोनों अंगों के बीच सहयोग अत्यावश्यक था। जिस प्रकार से विभागों का विभाजन किया गया था उसके फलस्वरूप दोनों अंगों के बीच मनमुटाव एवं झगड़ा होना अवश्यंभावी था। उदाहरण के लिए, एक कृषि मंत्री सिंचाई, अकाल-राहत एवं भूमि-विकास-ऋण के बिना कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि ये विषय आरक्षित थे। एक उद्योग मंत्री कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि कारखाना, बिजली तथा वाष्प-शक्ति, खदान एवं श्रम आरक्षित विषय थे। इसके अलावा अर्थ भी आरक्षित विषय के अन्दर आता था जिसके अभाव में हस्तांतरित विषय के मंत्री कुछ नहीं कर सकते थे। यह काल राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों का समय था; अतः प्रान्तीय विधान सभा का अधिक समय आरक्षित विषयों से संबंधित नीतियों की आलोचना में ही गुजर जाता था। विषयों के संबंध में निश्चितता के अभाव में कार्य-संबंधी ‘बाहरी संदेह’ पैदा हुए और उत्तरदायित्व के अभाव में एक-दूसरे की आलोचना ने ‘भीतरी घर्षण’ पैदा कर दिया। हालांकि द्वैध शासन व्यवस्था 1937 तक चलता रहा, लेकिन यह उत्तरदायित्व और स्वशासन की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं बढ़ा सका।
Question : फ्राजनीतिक-स्वतंत्रता जीतने के बाद भारत को आर्थिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता जीतनी थी।"
(1995)
Answer : एक लंबे संघर्ष के बाद 15 अगस्त, 1947 को हमारा देश भारत आजाद हो गया। भारत को मिली राजनीतिक आजादी की देश और विदेश के सभी लोगों ने खुशियां मनायी। दुर्भाग्य से इस आजादी से देशवासियों को वह खुशी नहीं मिल सकी जो इसके हकदार हैं। किसी भी देश की राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता जबकि वह आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना रहा हो। ब्रिटेन अपने साम्राज्य के अस्त होते हुए दिनों में अपने मानसपुत्र-सदृश संगठन कांग्रेस को राजनीतिक सत्ता सौंप दी। उसने अपने राजनीतिक उपनिवेश तो छोड़ दिये लेकिन भारत अब भी उसका आर्थिक एवं सांस्कृतिक उपनिवेश बना रहा।
देश की आजादी के बाद भी हमने आर्थिक रूप से खुद को परावलंबी पाया। खाने-पीने से लेकर दैनिक आवश्यकताओं के सामान हम विदेशों से लाने को मजबूर थे। कृषि के क्षेत्र में विदेशी निर्भरता एक शर्मनाक बात है जबकि देश की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही आश्रित हो। उद्योग के क्षेत्र में भी हम काफी पिछड़े रहे। दरअसल, अंग्रेजों की उपनिवेशी नीति के तहत भारत कच्चे मालों का संभरक था और विनिर्मित उत्पादों का उपभोक्ता। सेवा के क्षेत्र में देश में कुशल कार्यकारियों की कमी ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया। एक औपनिवेशिक देश के चरित्र को रातोंरात बदलना असंभव-सा कार्य है। फिर भी, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, जो खुद समाजवादी आंदोलनों से जुड़े रहे थे, ने देश में सोवियत संघ मॉडल पर पंचवर्षीय येाजनाओं की शुरुआत की। आज हम काफी हद तक आर्थिक स्वतंत्रता पा लेने के कगार पर आ गये हैं।
200 वर्षों की लंबी गुलामी ने देश में जनमानस को काफी प्रभावित किया। पश्चिम के विचारों, मूल्यों, संस्थाओं, धर्म, रहन-सहन के तरीके, खान-पान की आदतें आदि को भारतीय जनता ने अपने अंदर जज्ब कर लिया। भारतीय मूल्य, जो अपने आदर्श के लिए विश्व भर में विख्यात रहे, उसे भी भुला दिया गया। हर देश की संस्कृतियां उस देश विशेष की देश, काल, वातावरण और परिस्थितियों के अनुकूल हुआ करती है। भारत की भी अपनी एक विशिष्ट और सुसमृद्ध संस्कृति और परम्परा रही थी जो लम्बी गुलामी के कालखंड में क्रमशः अपक्षयित होती या की जाती रही। राजनीतिक आजादी के लगभग 50 वर्षों बाद भी आज देश आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी की प्राप्ति के लिए संघर्षशील है।
Question : 1920 से 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध के पश्चात् से भारत में आर्थिक परिवर्तनों ने देश की राजनीति की दिशा प्रवाह को प्रभावित किया। व्याख्या कीजिये।
(1995)
Answer : देश में बढ़ती आर्थिक चेतना ने राष्ट्रीय राजनीतिक आन्दोलनों की धार को पैना किया। इस आर्थिक चेतना को जगाने में विभिन्न राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं सहायक हुईं। परन्तु अंग्रेजों की उपनिवेशवादी आर्थिक नीति ने देश के बुद्धिजीवियों को संश्लेषण और विश्लेषण करने का जो मौका दिया वह आम जनों की आंखें खोल देने वाली थी। 1920 वाले दशक के उत्तरार्द्ध के पश्चात् दो बड़े अन्तर्राष्ट्रीय घटना घटे। एक तो 1929-32 की महान आर्थिक मंदी थी और दूसरी द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका। इसी काल में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन भी दो घटनाओं की साक्षी बनी; वे थे सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन। देश में समाजवादी एवं साम्यवादी दलों की स्थापना ने भारतीय राजनीति की दिशा को स्पष्ट रूप से मोड़ दिया। लेकिन इनके अलावा भी किसान और मजदूरों के छोटे-बडे़ आंदोलन हुए जो विशुद्ध आर्थिक मांगों के साथ शुरू होते थे और तत्कालीन राजनीति को प्रभावित भी करते थे। इन घटनाओं-परिघटनाओं के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को समयानुकूल और परिस्थिति के अनुकूल नीति-निर्माण भी करने पड़े।
पहले विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सूती कपड़ा मिलों की स्थिति कुछ बेहतर थी। लेकिन युद्धोपरान्त के वर्षों में जापान की प्रतिद्वन्द्विता आने के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1927 ई. के बाद उद्योग को संरक्षण देने का फैसला किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उद्योग ने देश की अन्दरूनी मांग और युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपना विस्तार शुरू कर दिया। विदेशों से आयात काफी कम हो गया जबकि बाहरी मांग के कारण भारतीय निर्यात में काफी वृद्धि हुई। विश्व युद्ध में जापान की भागीदारी ने अन्तर्राष्ट्रीय निर्यात में उसकी हिस्सेदारी घटा दी। दूसरी ओर, इस अभूतपूर्व मांग को ब्रिटेन भी पूरा नहीं कर पा रहा था। इस रिक्तता को भारतीय कपड़ा उद्योग ने ही पूरा किया। साथ ही साथ, भारतीय उद्योगपतियों ने अधिक मुनाफे के लिए बाहर कपड़ा निर्यात करने के उद्देश्य से अपने देशवासियों की जरूरतों की उपेक्षा कर दी। कपड़ों का देश के अन्दर जैसे अकाल पड़ गया। इस देशद्रोही रवैये की कांग्रेस ने आलोचना की। देश के बुर्जुआजी से कांग्रेस की दूरी इस समय बढ़ गयी थी। भारतीय पूंजीपति वर्ग का कांग्रेस से निकटता और दूरी उसके अपने वर्गहित के अनुसार बदलते रहे।
1920 की शुरुआत से ही घनश्याम दास बिड़ला और पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास जैसे अनेक पूंजीपति, भारतीय व्यवसायियों व पूंजीपतियों का राष्ट्रीय स्तर का एक ऐसा संगठन बनाने का प्रयास करने लगे थे, जो औपनिवेशिक सत्ता के सामने अपनी मांगों को सफलतापूर्वक पेश कर सके। सन् 1927 में ‘भारतीय वाणिज्य उद्योग महामंडल’ (फिक्की) का गठन हुआ। इसे पूरे देश में मान्यता मिली। पूंजीपति वर्ग के नेता ‘फिक्की’ को भारतीय व्यापार, वाणिज्य और उद्योग का राष्ट्रीय अभिभावक मानने लगे। वे इसे औपनिवेशिक भारत के आर्थिक मामलों में राष्ट्रीय सरकार की भूमिका निभाने वाला संगठन समझने लगे। धीरे-धीरे भारतीय पूंजीपतियों ने अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करना शुरू किया। उन्होंने जल्द ही एहसास कर लिया कि उन्हें राजनीति में घुसकर सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए उन्होंने ऐसे लोगों का हाथ मजबूत करना जरूरी समझा जो देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे।
1926 में नियुक्त किये गये हिल्टन यंग आयोग ने एक महत्वपूर्ण आर्थिक फैसला दिया था जिसके अनुसार रुपये की विनिमय दर 1 शिलिंग 6 पेन्स कर दी गयी। इस फैसले का सर्वत्र विरोध हुआ। ठाकुरदास ने अपना विरोध सबसे पहले प्रकट किया। उन्होंने तर्क प्रस्तुत किया कि रुपये का मूल्य अधिक बढ़ने से विदेशी आयात को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग को हानि होगी। मांग की घटा बढ़ी से कच्चे माल के निर्यात में बाधा आयेगी जिसके फलस्वरूप मुद्रा की अवस्फीति होगी और पूंजीनिवेश की संभावनाएं कम होंगी। बूर्जुआ वर्ग के प्रवक्ताओं ने विनिमय दर के अतिरिक्त संरक्षणवाद, नौवहन आदि से संबंधित मामले भी उठाये जिसे कांग्रेस की राष्टªवादी आंदोलन ने समर्थन दिया।
1930 के दशक के जन-आंदोलन निर्णायक परिवर्तनों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। 1929 के अंत में आने वाली विश्वव्यापी मंदी ने भारत को मुख्यतः दो रूपों में प्रभावित किया थाः एक तो कीमतों में, विशेष रूप से कृषि उत्पादों की कीमतों में, तीव्र गिरावट लाकर और दूसरे, संपूर्ण निर्यात पर आधारित औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में गंभीर संकट उत्पन्न करके। मंदी से भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शोषण के समग्र ढ़र्रे में गुणात्मक परिवर्तन आया। प्रथम विश्व युद्ध ने इस शोषण को थोड़ा कमजोर तो अवश्य किया था, किन्तु 1929 तक इसका स्वरूप वही रहा था। 1920 के दशक के अंत तक ब्रिटिश निर्यात का 11 प्रतिशत भारत लेता था जिसमें लंकाशायर के कपड़ों का कम-से-कम 28 प्रतिशत भी सम्मिलित था। मंदी के कारण भारतीय निर्यात घटकर आधे से भी कम रह गया जबकि आयात भी घटा लेकिन उस औसत में नहीं। मंदी का दौर समाप्त होने पर लंकाशायर की स्थिति को उबारने की कोशिश हो रही थी। लेकिन वित्तीय कठिनाइयों के कारण भारत सरकार को कपास, कागज और चीनी पर अधिक संरक्षण मूलक कर लगाने पड़े जो भारतीय उद्योगों की वृद्धि में पर्याप्त लाभकारी सिद्ध हुए।
राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभिक दिनों से ही उसका झुकाव निर्धन जनता की ओर था। राष्ट्रीय आंदोलन के अंदर समाजवादी एवं वामपंथी विचारधारा का प्रभाव भी बढ़ रहा था। जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ऐसे दो कांग्रेसी थे जो इस नये विचार से अत्यधिक प्रभावित थे। इन्होंने कांग्रेस की मांगों और आंदोलनों में इसी समाजवादी विचार को प्रतिबिम्बित किया।
1925 के दिसम्बर माह में धुर वामपंथी आंदोलनकारियों ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया नामक संगठन बनाकर स्वयं को संगठित किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने सभी सदस्यों से कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए कहा। उनसे यह भी कहा गया कि उसके सभी मंचों पर वे एक सशक्त वामपक्ष बनायें तथा सभी क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों से कांग्रेस के मंचों पर सहयोग करें जिससे कि कांग्रेस अधिक क्रांतिकारी और जनाधार वाले संगठन का रूप ग्रहण करे। बाद के समय में कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में अपनी स्वतंत्र भूमिका भी निभाई।
चौथे दशक में कांग्रेस के भीतर नेहरू, सोशलिस्टों तथा कम्युनिस्टों के नेतृत्व में वामपंथ के बढ़ते प्रभाव के कारण पूंजीपति वर्ग चिंतित हुआ और राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए बेताव हो उठा। अतः उसने किसी बड़े सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल को रोकने हेतु 1942 में ‘आर्थिक विकास समिति’ का गठन किया। इस समिति ने ही मशहूर ‘बॉम्बे प्लान’ तैयार किया था। इसका उद्देश्य समाजवादी आंदोलन की उन मांगों को स्वीकार करना था जो पूंजीवादके अस्तित्व के लिए खतरा नहीं था। दरअसल, अलग-अलग रास्तों पर चलने वाले वामपंथी और पूंजीवादी दोनों के ही उद्देश्य साम्राज्यवादियों से लड़ना हो गया था। 1920 वाले दशक के उत्तरार्द्ध में भारतीय राजनीति इन्हीं आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व कर रही थी और इसलिए यह काफी जुझारू था।