Question : भारत दुर्दशा में व्यक्त भारतीय नवजागरण की चिन्ता का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
(2008)
Answer : भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने स्वयं भारतदुर्दशा को देशवात्सलता का नाटक कहा है। आज की शब्दावली में, जो देशप्रेम है, वही भारतेंदु जी की देशवात्सलता है। जैसा उन्होंने कहा है, इसका उद्देश्य देशवासियों में स्वादेशानुराग उत्पन्न करना है। अपने देश के प्रति प्रेम उत्पन्न कर, भारतवर्ष की उन्नति किस प्रकार की जा सकती है, इसके संबंध में उनके विचार बहुत स्पष्ट थे।
अपने लेख जातीय-संगीत, में उन्होंने बतलाया है कि देशप्रम की रचनाओं में किन विषयों को अधार बनाना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि इसमें भारत के दुर्भाग्य का वर्णन होना चाहिए, जो करूण रस सवंचलित हो। इसमें पूर्वज आर्यों की वीरता, उदारता, सत्य, चतुराई, विद्या आदि गुणों का वर्णन हो, जन्मभूमि से स्नेह और इसके सुधार का उल्लेख हो, स्वधर्मचिन्ता की आवश्यकता पर बल हो, पारस्परिक मैत्री और एकता बढ़ाने का आग्रह हो, व्यापार की उन्नति और स्वदेशी वस्तुओं के व्यावहार की बात कही जाये आदि।
इन रचनाओं में जिन वस्तुओं और प्रवृत्तियों का विरोध किया जाये उनमें हैं-अंगरेजी फैशन, मदिरा सेवन, स्वधर्म विस्मरण, फूट और बैर,
आलस्य और संतोष, नशा, बहुजातित्व और बहुभक्तित्व, अदालती चक्कर में धन का अपव्यय आदि। इन विचारों के प्रकाश में भारत-दुर्दशा को देखे तो लगेगा कि भारतेंदु ने अपने विचारों का ही नाट्य रूपांतर कर दिया है। उन्होंने अपने लेख में लिखा है कि दिए गए विषयों पर अलग-अलग छोटी-छोटी रचनाएं (गीत, लोकगीत आदि) लिखी जाएं, पर भारतदुर्दशा में उन्होंने सबको एक ही नाटक में समाहित कर लिया है। ‘जातीय-संगीत’ में उन्होंने कहा है कि देशप्रेम की ये रचनाएं ऐसी हों कि साधारण लोगों तक पहुंच सकें। इसके लिए नाटक का माध्यम भी उन्हें संभवतः इसीलिए उपयुक्त लगा कि नाटक सब तक पहुंचने की विधा है।
भारत-दुर्दशा का मूल विषय है-भारत की दुर्दशा का चित्रण करना और वस्तुस्थिति से अवगत कराकर देशवासियों को देशोद्धार के लिए एकजुट और सक्रिय करना।
अट्ठारह सौ सत्तावन की राज्यक्रांति विफल हो चुकी थी और बाद के लगभग दो दशकों में अंग्रेजी राज की जड़ें हिमालय से हिंद महासागर तक फैल चुकी थी। अंग्रेज भारत को लूटने आये थे, यहां के निवासियों को नई सभ्यता का पाठ पढ़ाने नहीं। भारतेंदु ने अपने समय के अन्य पढ़े-लिखे नागरिकों की तरह इस तथ्य को न केवल महसूस किया वरन् देशवासियों को इससे परिचित कराने का बीड़ा भी उठाया था।
भारत को औपनिवेशिक शासन ने बाध्य किया कि वह अपने तैयार उत्पाद का निर्यात करने की जगह कच्चा कपास और कच्ची रेशम का निर्यात करे, जिसकी ब्रिटिश उद्योगों की आवश्यकता थी। भारतेंदु ने औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीति को उसके समस्त अंतर्विरोधों के साथ अनुभव किया। एक ओर वे ब्रिटिश शासन की हितकारी नीतियों की प्रशंसा करते हैं, तो दूसरी ओर भारत का धन लूट खसोट कर विदेश ले जाया जा रहा है, इसकी पीड़ा भी कम नहीं थी। भारत-दुर्दशा के प्रथम अंक में प्रथम पात्र के माध्यम से उन्होंने अपनी यह चिंता प्रकट की हैः
“अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात दूहै अति ख्वारी।।”
अंग्रेज किस तरह यहां से धन बटोर कर विलायत ले जाते हैं, इस पर भारतेंदु की टिप्पणी है-जब अंग्रेज विलायत से आते हैं, प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत की ओर जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं-इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं। इससे यह संकेत मिल जाता है कि भारत-दुर्दशा की रचना के पीछे उनका कौन-सा मनोवैज्ञानिक चिंतन कार्यशील है। ‘फूट डालो और राज करो’ यह नीति अंग्रेज की प्रसिद्ध नीति है। उन्होंने जाति-धर्म-भाषा, संप्रदाय के स्तर पर भारतीय मन के विभाजन को जल्दी ही पहचान लिया था। कुछ थोड़े से अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग राष्ट्रीय भावना से परिचित तो थे, पर उनकी स्थिति अकेले चने की स्थिति थी, जो उच्छलकर भी भांड नहीं फोड़ सकता। ये पढ़े- लिखे लोग भी परस्पर ईर्ष्या-द्वेष रखते थे। इसीलिए भारतेंदु ने कामना की थी कि फ्बुध तजहिं मत्सर।य् भारत-दुर्दशा के पहले अंक में योगी लावनी गाता है। उसके आरंभ में ही प्रकारांतर से एम्य का आह्नान हैः
“रोबहु सब मिलिकै भारत भाई। हा! हा!
भारत दुर्दशा न देखी जाई।।”
भारतेंदु इतिहास के तीखे और कठोर अनुभवों से आहत थे, इसीलिए उन्होंने भारत दुर्देव को क्रूर आधा क्रिस्तानी और आधा मुसलमानी वेश में हाथ में नंगी तलवार लिए हुए दिखाया है अर्थात् भारत को आत्महीनता की गहरी खाई में गिराने का आधा श्रेय मुस्लिम आक्रांताओं को है तो आधा अंग्रेजों का दोनों ने एक के बाद एक लम्बे समय तक शासन किया और हमें कौड़ी-कौड़ी को मुहताज बना दिया।
भारत-दुर्दशा के तीसरे अंक में भारत दुर्देव नाचता हुआ गाता हैः
“कौड़ी -कौड़ी को करू मै सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालू इनका मै सच्चा राजा।।”
विदेशी आक्रांताओं ने भारत रूपी सोने की चिडि़यां के पंख ही नोच डाले। उन्होंने हमें भीतर से खोखला और जर्जर कर दिया। इस्लामी शासन में हिंदु जनता को काफिर कहा गया। अंग्रेजों ने हमें काले लोग कहा। ऊंच-नीच का भेद-भाव तो न जाने कब से भारत में जड़े जमाए है। इस भेद-भाव ने कभी हमें एक नहीं होने दिया। फौजदार सत्यानाश भी मानता है कि उसने लाखों वेश धारण कर सारे देश को ही चौपट कर दिया। धर्म के नाम पर बाह्याचार और कर्मकांड को प्रमुखता मिली।
शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन और बौद्ध जैसे अनेक मतवाद आपस में लड़ते रहे हैं। बाल-विवाह तथा बहु-विवाह जैसी अनेक कुरीतियों को सामंतवाद ने पश्रय दिया। विधवा विवाह पर पाबंदी को भारतेंदु
समाज में फैलते व्यभिचार के अनेक कारणों में से एक बड़ा कारण मानते हैं।
तत्कालीन परिस्थितियों में अपव्यय, फैशन, फूट, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा तथा स्वार्थपरता आदि अवगुण भारतीय समाज में व्याप्त था। भारतेंदु ने अपने पात्र सत्यनाश फौजदार के द्वारा कहलवाया है-फिर महाराज, जो धन की सेना बची थी उसको जीतने के लिए मैंने बड़े बांके वीर भेजे। अपव्यय अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितर-बितर कर दी। धन की सेना ऐसे भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
एक ओर भारत आर्थिक रूप से कंगाल हो रहा था, दूसरी ओर सामाजिक रूढि़यों के मकड़जाल में जकड़ा था। भारतीय सामाजिक ढांचे की विकृतियों और सांस्कृतिक दुर्बलताओं के कारण ही मुट्ठी भर लोगों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बीस करोड़ की जनसंख्या वाले भारत को उपनिवेश में बदल दिया।
यूरोप जहां प्रबोधन के प्रकाश से जगमग रहा था, वहां भारत जाति और परंपरा के ढकोसले में पड़ा अपनी दुर्दशा पर रो रहा था। लोक धर्म अंधविश्वासों से भरा हुआ था। बाल-विवाह और बहुविवाह ने भारतीय महिलाओं के जीवन को नारकीय बना दिया था, रही सही कसर विधवाओं पर लगी धार्मिक पाबंदियों ने पुरी कर दी। इन सब प्रथाओं को समाज की पूर्ण स्वीकृति थी।
खान-पान के संबंध भी व्यक्ति की जाति देखकर होते थे। विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा को घोर उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता की भावना का घोर अभाव अंग्रेजों को भारत के शोषण के नित नए अवसर प्रदान करता था।
देश के इन विकट परिस्थितियों के मध्य भारतेंदु साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रखते हैं। उन्होंने समकालीन विश्व में घटने वाली छोटी-बड़ी घटनाओं में रूचि ली।
पश्चिमी विचारों और वैज्ञानिक प्रगति से परिचय प्राप्त किया। उन्होंने अपने देश की दुर्व्यवस्था के कारणों को पहचाना और भारत की प्रगति का पथ खोजा।
उन्होंने अपने देशवासियों से धार्मिक आडंबरों, सामाजिक रूढि़यों से मुक्त होकर आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भारत के निर्माण हेतु कार्य करने का आह्नान किया। इस उद्देश्य के लिए वे निरंतर लिखते रहें और सामान्य जन को संबोधित करते रहें।
भारतेंदु ने अपने समय की परिस्थितियों का विश्लेषण करने के पश्चात भारत के समक्ष मुंह बाये खड़ी समस्याओं और चुनौतियों के कारण और निवारण को समझने का प्रयास किया। उन्होंने ठीक समझा कि भारत की समस्याओं की जड़ औपनिवेशिक शासन व्यवस्था है, जिसके शोषण के विभिन्न मंत्र हैं। इन्हीं शोषण के मंत्रें का वर्णन भारतेंदु ने भारत-दुर्दशा में किया है। वे नव जागरूक व्यक्तियों में मदिरा पान पर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने अपने इस नाटक के पंचम सर्ग में सभ्यों की गोष्ठी में जागरूक वर्ग के भीरूपन पर भी चिंता प्रकट की जो व्यंग के माध्यम से है। कवि, एडीटर, बंगाली, महाराष्ट्री के द्वारा भारतेंदु ने अलगाव को दिखलाया है। आवश्यकता है इनके एक होने की, जिससे राष्ट्र का कल्याण हो सके।
वस्तुतः भारत-दुर्दशा जागरण का नाटक है। एक संवेदनशील नाटककार अपने दीन-हीन विपन्न राष्ट्र की उन्नति की अकांक्षा को नाटक में मूर्तरूप देता है। अपने समय की पड़ताल करते हुए भविष्य का स्वप्न देखता है।
वह देश की दुर्दशा का चित्र उकेरता है तो इसलिए कि देश का कल्याण हो। वह खरी-खोटी सुनाता है तो इसलिए कि समाज का सुधार हेा। वह राष्ट्र की प्रगति में अवरोधक तत्वों को तार-तार कर देना चाहता है। भारत अपने स्वर्णिम वैभव को प्राप्त करे, रूढि़यों, कुरीतियों से मुक्त हो। आर्थिक ही नहीं सामाजिक दृष्टि से समुन्नत राष्ट्र की कल्पना ही भारतेंदु का उद्देश्य था।
इस प्रकार यह नाटक औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठा की विकृतियों और तत्कालीन सामाजिक आर्थिक कुप्रवृत्तियों से क्षुब्ध हरिश्चन्द्र बाबु के हृदय की पीड़ा की अभिव्यक्ति ही नहीं वरन भारत के पुनरूत्थान की बाइबिल है। यह देश के नवजागरण की रामायण है, जिसका नायक कोई राजकुमार न होकर हत भाग्य भारत राष्ट्र है।
Question : जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय के इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी, जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और इसे कर्मयोग और ज्ञान योग के समकक्ष मानते हैं।
(2008)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी द्वारा लिखित चिंतामणि भाग-द्वितीय निबंध संग्रह के अंतर्गत ‘कविता क्या है’ निबंध से अवतरित है।
प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी ने कविता के स्वरूप को दर्शाने का प्रयास किया है।
व्याख्याः निबंधकार का कहना है कि आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या आचार्य शुक्ल आत्मा को बंधनग्रस्त मानते हैं, तभी तो उसकी मुक्ति का प्रश्न उठता है? ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। ‘ऋते ज्ञानाय मुक्ति’ ऐसा कहा गया है।
आचार्य शुक्ल जी आत्मा को नित्य और मुक्त ही मानते हैं। यहां उनका अभिप्राय है कि कदाचित आत्मा के स्वरूप को न समझकर या आत्मज्ञान के अभाव होने पर बंधन होता है। जीव को इस संबंध से मुक्त हो जाना आत्मा की मुक्तावस्था का लाक्षणिक अभिप्राय है। शुक्ल जी का कहना है कि जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा है। हृदय की शुद्धता आत्मशुद्धि है। कविता हृदय का व्यापार है।
यह ऐसा भावपूर्ण कार्य है, जो विस्तार करके स्वार्थ या पशुत्व से अलग करके मनुष्य को देव बनाने का कार्य करता है। मनुष्य अपने हृदय को संपूर्ण सृष्टि में विछा देता है। वह दृष्ट प्रसार से होता हुआ अपने को परम सत्ता से जोड़ता है।
हृदय की यह मुक्तावस्था ‘रसौ वै सः’ की अवस्था प्राप्त करती है। इसलिए शुक्ल जी इसे रस दशा कहते हैं। इस अवस्था की सम्प्राप्ति में मानवीय वाणी जिन शब्द विधानों का प्रयोग करती है, उसे कविता कहते हैं।
इस प्रकार कविता साधना है, जिसके माध्यम से रसदशा की सम्प्राप्ति संभव है। ‘रसौ वै सः’ ब्रह्म का लक्षण है। यह जीव की संपूर्ण मुक्तावस्था है।
इस अवस्था में मनुष्य अपने हृदय को संपूर्ण सृष्टि में बिछा देता है अर्थात् यह जीवन मुक्ति की अवस्था है। जहां जीव बोधिसत्व की भांति सब कुछ प्राप्त हो जाने पर भी लोक-कल्याणार्थ कर्म करता है। यह पदार्थ की अवस्था है।
इस प्रकार कविता की साधना व्यक्ति को स्वार्थ से परमार्थ में पहुंचाकर, उसे अनंत परमार्थ में पहुंचाने का प्रयास करती है।
विशेषतः
Question : कविता करना अनंत पुण्य का फल है। इस दुराशा और अनंत उत्कंठा से कवि जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई। संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर हृदय को धोखा देता रहा। परंतु कैसी विडंबना! लक्ष्मी के लालों का भ्रू-भंग और क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्या? एक काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन, जो कि दूसरों की दया में अपना अस्तित्व रखता है।
(2008)
Answer : प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियां नाटककार प्रसाद प्रणीत ‘स्कंदगुप्त’ में प्रथम अंक के तीसरे दृश्य से अवतरित की गई है। इन पंक्तियों में मातृगुप्त मार्ग पर चलते हुए कविकर्म पर विचार कर रहा है।
वह एक ओर तो अपने कवि जीवन के संबंध में विचार करता है तो दूसरी ओर जीवन के अभावों पर दृष्टिपात करता है। इसी अंतर्द्वंद्व की स्थिति को प्रस्तुत पंक्तियों में वाणी दी गई है।
व्याख्याः मातृगुप्त मन ही मन विचारता है कि मैंने सोचा था कि कवि जीवन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही मिलता है। क्योंकि यह पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों के फलस्वरूप ही प्राप्त होता है। इसी आशा और उत्सुकता से मैंने कवि के रूप में जीवन बिताने का निश्चय किया था। इस जीवन में मुझे किसी प्रकार की सुख की उपलब्धि नहीं हुई, वरन् सुख के बदले जीवन अभावों का भंडार हो गया।
फिर भी मैंने अपने को इस प्रकार समझाता रहा और समझा-बुझाकर अपने को प्रवंचित करता रहा कि अभावों में भी प्राणी को संतोष का पल्ला पकड़े रहना चाहिए। सांसारिक प्राणी तो व्यर्थ में यो ही असंतोष प्रकट करते हैं। किंतु इस संतोष के बावजूद भी मुझे जीवन से कौन-सी सिद्धी प्राप्ति हो गई। धनिकों ने अपने धन के नशे में मुझ पर क्रोध किया और इस प्रकार मुझे दूसरों के क्रोध और उससे उत्पन्न दुःख की अग्नि में जलना पड़ा। यदि कुछ मिला है तो वह है दूसरों की प्रशंसा। जिसमें कल्पना के सुख के अतिरिक्त क्या है? दूसरे व्यक्ति दया करके मेरी प्रशंसा कर दें या मेरे अस्तित्व को स्वीकार करें तो यही तो मेरा काल्पनिक जीवन है।
विशेषः
Question : आर्य, रक्तपात शत्रु को पराजित करने का सफल उपाय नहीं। शस्त्र द्वारा शत्रु का बध किया जा सकता है, उसे कुछ काल के लिए वश में किया जा सकता है, परंतु विजय नहीं किया जा सकता। मनुष्य मृत्यु की अपेक्षा पराभव केवल कायरता और प्रतिहिंसा की भावना से ही स्वीकार करता है।
(2008)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पंक्तियां यशपाल कृत ‘दिव्या’ नामक उपन्यास के पृथुसेन और रूद्रधीर खंड से अवतरित की गई है। यह पंक्ति बौद्ध स्थविथु चीवुक का पृथुसेन के प्रति है। मल्लिका के प्रसाद में आयोजित रूद्रधीर के सफल सैनिक अभियान से किसी प्रकार प्राण बचाकर भागते हुए पृथुसेन स्थविर चीवुक की शरण में बुद्धरक्षित संघराम जाता है तथा स्वस्थ होने पर जब पृथुसेन स्थविर चीवुक से बाहर जाने और संग्राम करने की विवशता की बात कहता है तो चीवुक अपना तर्क इस पंक्ति द्वारा प्रस्तुत करते हैं।
व्याख्याः चीवुक पृथुसेन को इस पंक्ति के द्वारा अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं। क्योंकि बौद्ध धर्म में युद्ध को हिंसा की श्रेणी में रखा गया है। चीवुक पृथुसेन को युद्ध से शत्रु को पराजित करने की नीति केा गलत मानते हैं क्योंकि इससे शत्रु की सिर्फ हत्या की जा सकती है न कि शत्रुता को समाप्त किया जा सकता है।
वे कहते हैं कि युद्ध में पराजित शत्रु को कुछ क्षणों के लिए तो वश में किया जा सकता है लेकिन अवसर मिलते ही वह शत्रु पुनः प्रतिहिंसा कर सकता है। इसलिए चीवुक कहते हैं कि शत्रु कोई व्यक्ति नहीं होता बल्कि उस व्यक्ति के लिए मन में जो विद्वेष होता है वास्तविक शत्रु वह होता है।
अतः वास्तविक शत्रु को पराजित करने के लिए अपने मन की विद्वेष को समाप्त करो, उसे पराजित करो। क्योंकि युद्ध से तो हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर रुक-रुक कर चलता ही रहेगा और शत्रुता हमेशा बना ही रहेगा।
विशेषः
Question : यह तुम नहीं, तुम्हारा स्वार्थ बोल रहा है। स्वार्थ को इतनी छूट देना ठीक नहीं कि वह विवेक को ही खा जाये। अखबारों को तो आजाद रहना ही चाहिए। वे ही तो हमारे कर्मों का, हमारी बातों का असली दर्पण होता है। मेरा तो उसूल है कि दर्पण को धुंधला मत होने दो। हां अपनी छवि देखने का साहस होना चाहिए आदमी में।
(2008)
Answer : प्रसंग- प्रांत के मुख्यमंत्री दा साहब ने सरोहा निर्वाचन क्षेत्र से अपने प्रत्याशी लखन को बनाया है।
लखन कूटनीति में पारंगत न होने के कारण जोरावर द्वारा बिसेसर की हत्या करवाये जाने पर उत्तेजित है तथा चाहता है कि दा साहब मशाल के संपादक को निर्देश दे दें कि वह बिसू हत्याकांड को अधिक तूल न दें। क्योंकि इसका दुष्प्रभाव लखन की विजय में बाधक बनेगा। इस पर दा साहब उसे समझाते हैं कि प्रत्यक्ष हस्तक्षेप सदैव हानिकारक होता है। प्रजातंत्र में अखबारों को स्पष्ट बात निर्भीक होकर कहने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए।
व्याख्याः दा साहब लखन को अखबारों की स्वतंत्रता के पक्षधर होने की बात समझाते हैं कि उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से पृथक रखना प्रजातंत्र की रक्षार्थ आवश्यक है।
उन पर प्रतिबंध लगाने की बात में व्यक्ति का स्वार्थ निहित होता है। समाचारपत्र जब निर्भीक होकर तथ्य प्रस्तुत करेंगे तो सत्ता पक्ष अपनी कमियों से अवगत होकर उन्हें दूर करने हेतु प्रयत्नशील होगा। सत्य को जानने एवं समझने का साहस अवश्यम्भावी है। जो अपनी आलोचना सहन नहीं कर सकता, वह आगे नहीं बढ़ सकता अपितु स्वयं को ही छलता है। इसलिए यदि मशाल में सत्तापक्ष की आलोचना प्रकाशित होती है तो आलोचना में निहित तथ्यों को हृदयंगम करके अपनी कमियां दूर करनी चाहिए।
विशेषः
Question : नाटकीय तत्वों के आलोक में ‘अषाढ़ का एक दिन’ आपको किन-किन बिन्दुओं पर आकृष्ट करता है? तर्कपुष्ट ढंग से अपना अभिमत प्रकट कीजिए।
(2007)
Answer : अषाढ़ का एक दिन नाटककार मोहन राकेश का ख्यातिस्तंभ है। इस नाटक में राकेश ने पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दोनों ही नाट्य तत्वों का समावेश किया है। जहां भारतीय आचार्यों द्वारा निरुपित वस्तु, रस एवं नेता- ये तीन तत्व उसमें दिखायी देंगे, अरस्तु द्वारा प्रतिपादित त्रसदी को स्थान दिए जाने के कारण उसमें पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित-कथावस्तु, पात्र एवं चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देश काल एवं वातावरण, भाषा-शैली, उद्देश्य और अभिनय को भी उसमें स्थान मिला है। इस प्रकार इन्हीं तत्वों के आधार पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ में प्रयुक्त राकेश जी की नाट्य कला का मूल्यांकन किया जा सकता है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषय-वस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। नाटक का कालिदास व्यक्ति न हो कर सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है। नाटककार का प्रयास है कि कालिदास का चरित्र किसी भी काल में सृजनशील प्रतिभा को आन्दोलित करने वाले अन्तर्द्वन्द्व को संकेतित करे। मल्लिका एक सीधी-सादी समर्पित लड़की का चित्र है, जो कवि कालिदास से प्रेम तो करती ही है, उसे महान होते भी देखना
चाहती है।
नाटककार ने कालिदास एवं मल्लिका की प्रणय कथा को विविध घटनाओं एवं परिस्थितियों के द्वारा बड़े संयोजित ढंग से प्रस्तुत किया है। नाटकीय कथा में कार्य-व्यापार इतना संगठित और सुनियोजित है कि कथानक स्वतः अग्रसर होता रहता है।
इस दृष्टि से नाटक की कथावस्तु दोषरहित है। जहां तक मूल कथा के साथ प्रसांगिक कथाओं पताका और प्रकरी का प्रश्न है, तो राकेश जी ने ऐसी कोई योजना इसमें नहीं की है। नाटक में मल्लिका एवं कालिदास की मूल कथा ही वास्तव में मुख्य व एकमात्र कथा है। इस नाटक की कथावस्तु न तो पूर्णतः ऐतिहासिक है और न पूर्णतः काल्पनिक क्योंकि नाटककार ने कालिदास के अनुमानाश्रित जीवन-प्रसंग को नाटकीय कथा का आधार बनाया है और उसमें कालिदास के अतिरिक्त प्रायः सभी पात्र कल्पित हैं।
इसके अतिरिक्त कथावस्तु के विस्तार की दृष्टि से भी यह नाटक पूर्ण सफल है क्योंकि इसकी कथा न तो अत्यधिक विस्तृत है और न अत्यधिक संक्षिप्त ही। इस प्रकार इस नाटक के कथावस्तु-विश्लेषण पर कोई दोषारोपण नहीं किया जा सकता।
पात्र एवं चरित्र-चित्रणः नाटक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व होता है। राकेश जी ने नाटकों में कथावस्तु का विकास पात्रें के माध्यम से बड़े सशक्त ढंग से किया है। कथावस्तु के अनुकूल पात्रें का संयोजन कर उनकी आकृति-प्रकृति, मनःस्थिति, विचार, अनुभव आदि का सजीव चित्रंकन करना, उनको जीवन के अनुकूल और सप्राण बनाना राकेश जी की पात्र-योजना की विशेषता है। उनके पात्रें में विविधता है, चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म पर्यवेक्षण है और मानव मन की गहराइयों में पैठकर आन्तरिक उद्गारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ के प्रायः सभी पात्र नितान्त सजीव, आकर्षक, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधृत, जन-जीवन के अनुरूप एवं अन्तबाह्य व्यक्तित्व को सजीव रूप में मुखर करने वाला है।
राकेश जी के नाटकों की भाषा यथार्थपरक, पात्रनुकूल तथा देशकाल की स्थिति के अनुरूप है। उनकी भाषा कथा के प्रवाह, पात्रें की योजना तथा वातावरण की सृष्टि- सभी में पुरा योग देती है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में प्रयुक्त भाषा शैली सजीव और रोचक है। भाषा में गुरु गम्भीरता, शिष्टता किन्तु तीखे व्यंग्य राकेश जी की भाषा की विशेषता है।
नाटक की भाषा सर्वथा पात्रनुकूल और उनकी मनोदशा एवं अन्तर्द्वन्द्व को अभिव्यक्ति करने में सक्षम है। नाटक की भाषा में व्यंग्य-वैदग्ध्य का गुण भी सर्वत्र मिलता है। वास्तव में यही भाषा-शैली इस नाटक की प्रतिनिधि भाषा शैली है। नाटक के सभी पात्र वैदग्धयपूर्ण भाषा का ही प्रयोग करते हैं। अम्बिका और विलोभ के कथनों में तो यह गुण अत्यन्त सशक्त रूप से दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त नाटक की भाषा में सरलता, सुबोधता, स्वाभाविकता एवं काव्यात्मकता के गुण भी मौजूद हैं। रोचकता और प्रवाहपूर्णता के कारण ‘आषाढ़ के एक दिन’ की भाषा का अपना विशिष्ट महत्व है और उसमें कहीं-कहीं पर जो मुहावरे और संस्कृत श्लोकों का मणिकांचन योग हो गया है उससे भाषा और सशक्त बना दिया है। कई स्थलों पर सुन्दर अलंकार योजना के भी दर्शन होते हैं। कुछ उदाहरण देखा जा सकता हैः
उद्देश्य के दृष्टिकोण से भी यह नाटक निरुद्देश्य रचना है। इसमें नाटककार ने भावनामयी नारी के प्रति आत्मलिप्त और अहंनिष्ठ पुरुष के अन्याय को चित्रित किया है। इसके अलावा यह भी चित्रित करना उसका उद्देश्य है कि राज्याश्रय रचनाकार की सृजन-सामर्थ्य को कुंठित कर देता है। अन्त में रस योजना की दृष्टि से भी यह नाटक सफल है और अपनी रसाभिव्यक्ति से वह पाठकों-दर्शकों को भाव-विह्नल करने में समर्थ है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक अपने वस्तु संगठन, सजीवता, यथार्थता, पत्र एवं चरित्र-चित्रण की कुशलता, उत्कृष्ट संवाद योजना, स्वाभाविक एवं सहज संवेद्य भाषा-शैली, सोद्देश्यता, रसाभिव्यक्ति की दृष्टि से एक सफल नाट्य रचना है, जो इन सभी बिन्दुओं पर पाठक-दर्शक को आकृष्ट करता है।
Question : प्रिय का चिन्तन हम आंख मूंदें हुए, संसार को भुलाकर करते हैं: पर श्रद्धेय का चिंतन हम आंख खोले हुए, संसार का कुछ अंश सामने रखकर करते हैं। यदि प्रेम स्वप्न है, तो श्रद्धा जागरण है। प्रेम प्रिया को अपने लिए और अपने को प्रिय के लिए संसार से अलग करना चाहता है। प्रेम में केवल दो पक्ष होते हैं, श्रद्धा में तीन। प्रेम में कोई मध्यस्थ नहीं, पर श्रद्धा में मध्यस्थ अपेक्षित है। प्रेमी और प्रिय के बीच कोई और वस्तु अनिवार्य नहीं, पर श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच कोई वस्तु चाहिए।
(2007)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश आचार्य शुक्ल के निबंध रचना श्रद्धा-भक्ति से लिया गया है। आचार्य शुक्ल मनोविकार पर ‘युग्मक’ रूप में भी विचार करते हैं और भाव-विशेष के विविध रूप-भेदों पर भी। भाव-विशेष के रूप-भेदों में से तारतम्य प्रदर्शित करते हुए द्वन्द्वात्मक रीति से उनके वैशिष्ट्य का निरूपण करते हैं। इस पंक्ति में वे श्रद्धा और प्रेम में द्वन्द्वात्मक रीति से भाव के वैशिष्ट्य का निरूपण करते हुए वे श्रद्धा के सामाजिक महत्व को रेखांकित करते हैं।
व्याख्याः प्रस्तुत निबंध के इस पंक्ति में प्र्रेम व श्रद्धा के बीच अन्तर को बताते हुए कहते हैं कि प्रेम में प्रिय का स्मरण करते समय संसार को भूल जाते हैं, अर्थात् प्रेम की अवस्था में हम सुसुप्त हो जाते हैं जबकि श्रद्धा की अवस्था में हम श्रद्धेय का स्मरण संसार को सामने रखकर ही करते हैं। इस प्रकार प्रेम स्वप्न के समान है तो श्रद्धा जागरण है। और स्वप्न में हम संसार को याद नहीं करते, बल्कि संसार को भूलकर हम सिर्फ स्वप्न के विषय को ही देखते हैं। इस प्रकार प्रेम प्रिय को अपने लिए और अपने को प्रिय के लिए संसार से अग करना चाहता है। और प्रेम में केवल दो पक्ष प्रेमिका प्रिया होते हैं जबकि श्रद्धा में श्रद्धेय और श्रद्धालु के अलावा संसार भी एक तीसरा पक्ष के रूप में मौजूद होता है।
शुक्लजी इस अन्तर को और विस्तार बतलाते हुए कहते हैं कि प्रेमी और प्रिय के बीच कोई और वस्तु की अनिवार्यता नहीं, पर श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच कोई न कोई वस्तु चाहिए, जो दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका का निर्वहन कर सके।
इस प्रकार यहां लेखक ने प्रेम और श्रद्धा में अन्तर बताने के लिए प्रेमी और प्रिय का, श्रद्धेय और श्रद्धालु का संदर्भ देते हैं।
विशेषः
Question : हिन्दी निबंध यात्र में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की विशिष्ट पहचान को सतर्क रेखांकित कीजिए।
(2007)
Answer : साहित्यिक रूप की दृष्टि से हिन्दी में निबंध का जन्म और विकास आधुनिक युग की देन है। आधुनिक काल में राष्ट्रीय जागरण, नई सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी निबंध का आरंभ हुआ। नवजागरण की चेतना ने हमारी मानसिकता को परिवर्तित कर हमारे बोध और संवेदना आधुनिक बनाया। नई तकनीक विकास से मुद्रण यंत्रें का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
जिससे पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तथा अंग्रेजी साहित्य से संपर्क में वृद्धि हुई। इस सब कारणों से निबंध रचना को विशेष प्रोत्साहन मिला, क्योंकि इस विधा के माध्यम से लेकर अपनी बात पाठकों तक सीधे पहुंचा सकते थे।
हिन्दी निबंध की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मानी जाती है जिसके आरंभिक परंपरा में भारतेंदु युग के लेखकों का विशेष महत्व है, क्योंकि एक तो इस युग के लेखकों ने हिन्दी निबंध की शुरुआत की, दूसरे उन्होंने विषय, शैली और भाषा तीनों स्तरों पर निबंधों में नये प्रयोग किए।
इस युग के निबंधों में विषय का वैविध्य था। तुच्छ से तुच्छ और गंभीर से गंभीर विषयों पर लेखकों ने लेखन किया। द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखक के रूप में प्रवेश किया था, उन्होंने इतिहास की परंपरा और चेतना के मूल उत्स का संधान किया। उनका निबंध मूलतः विचारात्मक है जिसमें तात्विक विश्लेषण और सूक्ष्म चिन्तन का अभाव है। द्विवेदी जी को इस बात की चिन्ता सबसे अधिक थी कि हिन्दी पाठक की ज्ञान-पिपासा को कैसे तृप्त किया जाय। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उपलब्ध नयी और उपयोगी जानकारी उस तक कैसे पहुंचाई जाये और सबसे बढ़कर उसमें हिन्दी माध्यम से सोचने की क्षमता का विकास कैसे किया जाये।
इसके लिए उन्होंने कहानी, निवेदन, उपदेश, संदेश, निर्देश, प्रमाण, उदाहरण, तथ्य का उल्लेख आदि बहुविध उपयोगी एवं रोचक पद्धतियों से निबंध का प्रारंभ, विकास और समापन करते हुए पाठकों को नूतन सामग्री दी। 1903 में ‘सरस्वती’ के संपादकत्व का कार्यभार संभाला और 1920 तक इसकार्य में लगे रहे। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रौढ़ता और नवीनता प्रदान की। उन्होंने अनेक प्रकार के उपयोगी, ज्ञान विषयक, ऐतिहासिक, पुरातत्व तथा समीक्षा संबंधी निबंध लिखे।
उनके ललित निबन्धों में सांस्कृतिक विरासत के वर्चस्व के साथ नवीन जीवन-बोध और नयी सामाजिक समस्याओं के बीच राह पाने की ललक सर्वत्र दिखायी पड़ती है। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व लचीला और निरंतर विकासमान है। देश की नयी से नयी गत्यात्मक विचारधारा से वे अपने को ही जोड़ लेते हैं और इस प्रकार अपनी ऐतिहासिक दृष्टि को नये सिरे से समंजित करते रहते हैं।
विद्वता और सहृदयता का तो संयोग उनके निबंधों में मिलता है, वह सामान्यतः विरल होता है। ‘अशोक के फूल’ (1948), विचार और वितर्क (1949), कल्पलता (1951), विचार-प्रवाह (1959) और कुटज उनके निबंध संग्रह हैं, जिनमें प्रायः समीक्षात्मक निबंधों के साथ ही ललित निबंध भी संग्रहीत हैं। द्विवेदी जी के ललित निबंधों की विकास-यात्र का लेखा-जोखा लेने पर कहना होगा कि संघर्षों के कारण उनके परिवर्ती निबंधों में जीवनोन्मुखता अधिक निखर उठी है। ‘कुटज’ से एक उद्धरण द्रष्टव्य हैः
‘कुजट क्या केवल जी रहा है? वह दूसरों के द्वार पर भीख मांगने नहीं जाता। अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता- आत्मोन्नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता- दांत नहीं निपोरता- जीता है और शान से जीता है। कहां से मिली है अकुतोभयावृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवनदृष्टि!’
द्विवेदी जी ने पाण्डित्य अर्जित किया है, किन्तु मनुष्यता भी उनमें कम नहीं है। फलस्वरूप पाण्डित्य को सहजता की ओर ले जाना उनका स्वभाव है। इतिहास, पुराण, साहित्य आदि से गम्भीर से गम्भीर तथ्य उठाते हुए वे प्रायः उन्हें समसामयिकता से जोड़ देते हैं।
अतः उनके निबन्ध न तो गम्भीरता तेवर छोड़ते हैं और न सहजता का बाना। उनकी रचना-प्रक्रिया में पाण्डित्य और सहजता का जो तनाव मिलता है, उसे पकड़ पाने के लिए पाठकों को भी संदर्भों की जानकारी होनी चाहिए अन्यथा उनके निबन्धों के सौन्दर्य बोध को समग्रतः आयत नहीं किया जा सकता। भाषा की लय, गुम्फित पदावली, विषयान्तर, वस्तुओं के बिम्बात्मकता चित्रण आदि से द्विवेदी जी के निबन्ध एकतान, अन्वितिपूर्ण और संश्लिष्ट हो गये हैं। ललित निबंधों के अतिरिक्त उन्होंने विचारपरक, शोधपरक और समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं। शोधपरक निबन्धों से विद्वता की गहरी तह में बैठकर गहरी छानबीन की उनकी क्षमता का परिचय मिलता है। यह निर्विवाद है कि द्विवेदी जी इस काल के, या सम्पूर्ण आधुनिक काल के, सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं।
Question : जब स्वजन लोग अपने शील-शिष्टाचार का पालन करें: आत्मसमर्पण, सहानुभूति, सत्यपथ का अवलंबन करें, तो दुर्दिन का साहस नहीं कि उस कुटुम्ब की ओर आंख उठाकर देखे। इसलिए इस कठोर समय में भगवान की स्निग्ध करूणा का शीतल ध्यान कर।
(2007)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद की ऐतिहासिक नाट्य कृति स्कन्दगुप्त के दूसरे अंक के चतुर्थ दृश्य से उद्धृत है। यह देवकी का रामा के प्रति कथन है, जब रामा को इस षड्यंत्र का पता चलता है कि उसका प्रेमी शर्वनाग धन की लालच में फंस कर स्कंदगुप्त की माता देवकी की हत्या करेगा, तो रामा बन्दीगृह में जाकर देवकी को अपने प्रेमी की कृतघ्नता और निकट भविष्य में होने वाली हत्या का संकेत देती है। परन्तु देवकी रामा को शान्त करते हुए कहती हैः
व्याख्याः शान्त हो जाओ रामा! बुरे दिन इसी कृतघ्नता को तो कहते हैं। जब तक स्वजन लोग अपने शील-शिष्टाचार का पालन करते हुए आत्मसमर्पण, सहानुभूति, सत्यपथ का अवलम्बन करते हैं, तो
दुर्दिन का साहस नहीं होता कि वह उसके कुटुम्ब की ओर आंख उठाकर देखे। अर्थात् स्वजनों की वेबफाई के कारण ही तो दुर्दिन का आगमन होता है। अतः देवकी रामा को समझाते हुए कहती है कि इस बुरे दिन में धैर्य रखो और भगवान के स्निग्ध करूणा का ध्यान करो। क्योंकि बुरे दिन में एकमात्र सहारा ईश्वर ही होता है।
विशेषः 1. इस पंक्ति में प्रसाद ने एक स्नेहमयी माता के धैर्य जो बड़े सुन्दर ढंग से निखारा है। देवकी मृत्यु को अपने सम्मुख देखकर भी विचलित नहीं होती और भगवान में विश्वास का आश्रय बनाए रखती है।
Question : परिवर्तन ही गति है। गति ही जीवन है। अमरता का अर्थ है- अपरिवर्तन, गतिहीनता। देवी, यदि सूर्य जैसे और जहां है, वहीं स्थिर हो जाए? यदि जलवायु जैसे और जहां स्थिर हो जाए सब स्थिर और अपरिवर्तनशील हो जाए तो क्या जीवन काम्य और सुखमय होगा?
(2007)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पंक्ति यशपाल कृत ऐतिहासिक उपन्यास ‘दिव्या’ से लिया गया है। यहां मारिश का कथन रत्नप्रभा के प्रति है। वह कहता है कि परिवर्तन में ही जीवन की सार्थकता है और अमरता तो जड़ता है। अमरता को ब्रह्मवादियों ने सुख माना है, परन्तु अमरता निर्जीव, गति-हीन और जड़ है, जबकि परिवर्तन सजीव और गतिमान है।
व्याख्याः गति का अर्थ है एक समय और एक स्थान से दूसरे समय और स्थान में प्रवेश करना। इसी को परिवर्तन कहते हैं। यह परिवर्तन ही गति है और गति का दूसरा नाम जीवन है। अमरता का अर्थ अपरिवर्तन है। इस अपरिवर्तन में गतिहीनता होती है।
यदि सभी जहां का तहां अर्थात् यथास्थिति में बना रहे- वायु स्थिर हो जाए और जल भी जहां का तहां स्थिर हो कर जम जाए, तो सम्पूर्ण प्रकृति में जड़ता छा जाएगी और इस अपरिवर्तनशील जड़ता की अमरता में न तो जीवन की कोई कल्पना पूर्ण होगी और न इस स्थिति में जीवन ही सुखमय हो सकेगा।
परिवर्तन में जीर्ण के स्थान पर नवीन आता रहता है और इस प्रकार परिवर्तन में चिर नवीन अमरता बनी रहती है।
विशेष
Question : ‘मैला आंचल’ के शीर्षक की सार्थकता पर विचार करते हुए इसके प्रतिपाद्य का विवेचन कीजिए और एक आंचलिक उपन्यास के रूप में इसकी सर्जनात्मक उपलब्धियों का संक्षेप में परिचय दीजिए।
(2007)
Answer : ‘मैला आंचल’ उपन्यास के नामकरण पर विचार करने से पहले इसके प्रतिपाद्य पर विचार करना उचित होगा क्योंकि तभी हम शीर्षक की सार्थकता या निरर्थकता की बात कर सकते हैं।
‘मैला आंचल’ का कथ्य एक भारतीय अंचल के नग्न यथार्थ से जुड़ा हुआ है। यह यथार्थ समसामयिक और एकदेशीय भी है तथा शाश्वत और भूमंडलीय भी। गरीबी और गुलामी, अशिक्षा और अंधविश्वास, शोषण और दमन, महामारी और अकाल, जातिवाद और नस्लवाद जैसी चीजें मानव इतिहास में नयी नहीं है और भविष्य में भी न रहेंगी। यह बहुत निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता।
इन्हें समाप्त करने के प्रयत्न भी होते रहे हैं, पर सफलता अब तक नहीं मिल सकी है। इसी यथार्थ को रेणु ने अपने प्रथम उपन्यास ‘मैला आंचल’ में नये अवलोकन बिन्दु और नयी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया हैं।
रेणु ने जिस काल को इस उपन्यास में कथाबद्ध करने का प्रयास किया है वह महज स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले के दो वर्ष से लेकर उसके बाद के एक वर्ष तक का है। यह कथा किसी व्यक्ति विशेष की विशिष्ट अभिव्यक्ति न होकर एक आंचलिक परिवेश की लगभग सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है। आंचलिक कृति के लिए यह स्थिति बहुत आवश्यक और एक शर्त जैसी है। इसमें परिवेश का प्रस्तुतीकरण ही लेखक का मुख्य आशय रहा है। यह सही है कि बिना व्यक्ति-समाज और व्यक्ति चित्रें के सामाजिक परिवेश के प्रस्तुतीकरण की बात कहना बहुत असंगत लगता है।
मैला आंचल में व्यक्ति समाज भी है और अनेक बहुरंगी, विविधवर्गी व्यक्ति चरित्र भी है, लेकिन ये सब रेखांकन कला के उन बिन्दुओं के समान है जिनको परस्पर मिलाने से एक सम्पूर्ण चित्र का स्वरूप स्पष्ट होता है। मैला आंचल का यह चित्र यहां का परिवेश है, जिसको सहानुभूति, सदाशयता और प्रतिबद्धता के साथ लेखक ने यहां के व्यक्ति चरित्रें, संस्कारों, संस्कृति, परंपराओं, विश्वासों और वातावरण के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह परिवेश संक्रमणकालीन भारत के ग्राम्य अंचल का है। जब यहां की मिट्टðी में परिवर्तन और विकास के अंकुर फूट रहे हैं। फिर भी जिस अंचल को लेखक ने अपनी कथा के लिए चुना है उसे ब्रज देहात कहा जा सकता है।
लेखक ने इस मैले परिवेश को संपूर्णता में प्रस्तुत करने के लिए उस परिवेश के बीच जीने वाले लोगों के चरित्रें की, उनके क्रिया-कलापों, विश्वासों, व्यवहारों की सहायता ली है। परिवेश को गहरा और वास्तविक रंग देने के लिए उसने वहां के सामान्य जीवन के अनेक व्यवहारों और घटनाओं, लोक-सांस्कृतिक तत्वों को वहां के उत्सवों और लोकगीतों के द्वारा प्रस्तुत किया है।
इसके साथ-साथ लेखक ने ग्राम्य जीवन की गति के साथ-साथ ग्राम्य मानसिकता का भी अध्ययन किया है। पूरे गांव जाति के आधार पर टोले बने हुए हैं। राजपूत टोली, ब्रह्म टोली, कायस्थ टोली, यादव टोली के साथ-साथ गांव से बाहर बसे हुए संथालों की भी टोली है। इनमें परस्पर वैमनस्य है। प्रत्येक टोली का एक-एक सरगना है। राजनैतिक पार्टियों में कांग्रेस और शोसलिस्ट पार्टी के नेता यहां सक्रिय हैं। गांव में मठ भी है।
महन्त सेवादास और रामदास के किस्सों से धर्म के नाम पर होने वाले व्यभिचार को लेखक ने बड़े रचनात्मक ढंग से दिखाया है। इसी प्रकार बाहर से आए डॉ- प्रशान्त और बावनदास का चरित्रंकन भी ग्राम्य अंचल में जाग्रति प्रवेश के प्रतीक के माध्यम से हुआ है। गांव में विकसित हो रही नयी चेतना मलेरिया सेन्टर तथा चरखा सेन्टर खुलने के माध्यम से व्यक्त होती है।
कमली और डॉ. प्रशान्त के प्रेम के माध्यम से अन्ततः प्रेम का प्रतिबद्ध रूप ही प्रकट होता है। इन सबके माध्यम से लेखक ने मेरीगंज की आंचलिकता को संपूर्णता में सफल अभिव्यक्ति दी है और मेरीगंज एक ऐसे आंचलिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करने में सफल हुआ है, जो सुप्तावस्था से धीरे-धीरे जागृत होकर नागरी जीवन की सक्रियता को आत्मसात करने का प्रयत्न कर रहा है। जहां तक ‘मैला आंचल’ के शीर्षक का प्रश्न है, तो हम कह सकते हैं कि इस कृति की सफलता इसके सटीक शीर्षक को लेकर भी है।
मैला आंचल का पूरा परिवेश और कथ्य ग्रामीण अंचल में व्याप्त विषमताओं, विद्रूपताओं और समस्याओं से ग्रस्त है। विवेच्य अंचल पूर्णतः मैला है। लेखक ने बड़ी ईमानदारी, तटस्थता और साथ ही मानवीयता के साथ मेरीगंज के माध्यम से ग्रामीण जीवन के इस मैली छाया के दर्शन किये और कराये हैं और ऐसा करते हुए उसकी सहानुभूति हमेशा ग्रामीण जन के प्रति रही है। उसकी मान्यता रही है कि इस मैले आंचल की स्वच्छता जाग्रत संसार के संपर्क में आकर ही संभव हो सकती है। डॉ- प्रशान्त और बावनदास दोनों अनांचलिक पात्र हैं। इसको आदर्शवादी पात्र के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे लेखक का आशय यही प्रतिबिंबित करना रहा है कि इन्हीं के सहयोग से ग्रामीण जीवन की यह कालिमा धुल सकती है। इन्हीं के सहकार से यहां की जड़ता टूट सकती है और यहां की शस्यश्यामला धरती पर एक सरल और सहज जीवन का विकास संभव हो सकता है।
वैसे उपन्यास की भूमिका में लेखक ने माना है कि इसमें फूल भी हैं, शूल भी हैं। धूल भी है, गुलाल भी। कीचड़ भी है, चन्दन भी। सुन्दरता भी है, कुरूपता भी। लेकिन हम पाते हैं कि लेखक ने शूल, धूल, कीचड़ और कुरूपता को ही अपना अभिव्यक्ति की वस्तु बनाया है। गांव का उज्जवल पक्ष के यदाकदा ही दर्शन होते हैं। लेखक का मन गांव की कुरूपता को चित्रित करने में अधिक रमा है। लेखक ने इसे दायित्व के रूप में स्वीकार किया है। अतः शीर्षक के रूप में ‘मैला आंचल’ नामकरण बहुत सार्थक, व्यंजनापूर्ण और सटीक है।
Question : ‘मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रही, परन्तु तुम मेरे जीवन में सदा वर्तमान रहे हो, मैंने कभी तुम्हें अपने पास से हटने नहीं दिया। तुम रचना करते रहे और मै समझती रही कि मैं सार्थक हूं, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है-जो भाव तुम थे वह कोई नहीं हो सका, मैंने अपने भाव के कोष्ठ को रिक्त नहीं होने दिया। परंतु मेरे आभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो?’
(2006)
Answer : प्रस्तुत पंक्तियां स्व॰ मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक आषाढ़ का एक दिन के तृतीय अंक से लिया गया है। कालिदास के विषय में मातुल यह सूचना देता है कि कश्मीर में शासन-भार संभालने के उपरांत कुछ ही वर्षों में वहां उपद्रवी शक्तियों के सिर उठाने के कारण कालिदास को शासन का परित्याग करना पड़ा और लोगों का तो यहां तक कहना है कि कालिदास ने संन्यास ग्रहण कर लिया है और वह काशी चला गया है। यह कहकर मातुल तो चला जाता है किन्तु मल्लिका के मन में अन्तर्द्वन्द्व छिड़ जाता है। वह अपने आप में बड़बड़ाने लगती है कि मैने तुम्हें संन्यास लेने के लिए नहीं कहा था फिर तुमने संन्यास क्यों लिया? यद्यपि तुमने मुझसे पूछे बिना कश्मीर का शासन संभाला किन्तु मैंने तुम्हें शुभकामनाएं दी, यद्यपि तुमने स्वयं वे शुभ कामनाएं ग्रहण नहीं की। इसी अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति में आगे कहती है-
मैं यद्यपि सहचरी बनकर तुम्हारे जीवन में नहीं रह सकी, किन्तु फिर भी मैंने कभी तुम्हें अपने हृदय से बिलग नहीं किया। तुम सदैव मन-मंदिर में छाए रहे हो। तुम्हें सदैव मैंने अपने हृदय के स्वामी के रूप मे माना है। मेरा तो सदैव यही प्रयास रहा कि तुम्हारा और मेरा यह सम्बन्ध-सूत्र कभी टूटने न पाए।
तुमने जब-जब कोई रचना की है और में ने उसे पढ़ा है तो मैं यही समझती रही हूं कि उसमें कहीं मैं भी हूं किन्तु आज मैं यह क्या सुन रही हूं? क्या तुम सचमुच मुझसे सम्बद्ध नहीं रहे? तुम हो सकते हो, किन्तु मै अभी-भी तुमसे प्रेम करती हूं, मै तो तुमसे विरक्त नहीं हो सकती। क्योंकि मैने अपने हृदय में जिस भावना के रूप में तुम्हें स्थान दिया था अर्थात् अपने आराध्य के रूप में माना था, उस स्थान पर कोई भी अन्य व्यक्ति अधिकार नहीं कर सका। तुम वहां थे (मेरे दिल में) और आज भी तुम्हीं विराजमान हो।
मैं अपने उस भावना रूपी कोष्ठ को कभी तुमसे रिक्त नहीं होने दिया। लेकिन फिर भी मुझे हमेशा तुम्हारे अभाव की पीड़ा सताती रही, जिसका अनुमान तुम स्वयं लगा सकते हो।
Question : जो केवल अपने विलास या शरीर सुख की सामग्री ही प्रकृति में ढूंढ़ा करते हैं, उनमें उस रागात्मक सत्व की कमी है, जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता की अनुमति में लीन करके सताएं एक ही परम भाव के अंतर्भूत हैं। अतः बुद्धि की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैव भूमि पर पहुंचता है, उसी भूमि तक हमारा भावात्मक हृदय भी इस सत्व-रस के प्रभाव से पहुंचता है। इस प्रकार अंत में जाकर दोनों पथों की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है।
(2006)
Answer : प्रस्तुत अवतरण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रचित निबंध कविता क्या है, से ली गई है। कविता क्या है, शुक्ल जी के निबंध संग्रह चिंतामणि में संकलित है। आचार्य शुक्ल ने कविता का स्वरूप समझाने के लिए सबसे पहले वासना का विचार किया है, फिर सभ्यता के बढ़ते आवरण का उसके प्रसार सीमा का, सृष्टि में मार्मिक तथ्यों के संकेतों का ‘शुक्ल जी के बिम्बों में वैसी कसावट होती है, जैसे रूई की बंधी गांठ में। यदि उसको धुन कर विस्तृत किया जाय, तो बिम्ब का आकार कई गुणा हो जाता है। ठीक यही बात उनके निबंधों के संबंध में कही जा सकती है।
उन्होंने प्राचीन मान्यताओं को अपने ढंग से और आधुनिक जिज्ञासु के अनुरूप व्याख्या की है। वासना शब्द का अर्थ उन्होंने मानव जाति में आदि काल से विकसित होने वाली मूल मनोवृत्तियों की छाप लिया है, जो वंशानुक्रम से चली आ रही हैं। पूर्व जन्म उन्होंने पूर्वजों को ही माना है। उन मनोवृत्तियों तक पहुंचना ही कविता का काम है। इससे एक प्रकार की हलचल होती है जैसे बरसाती गदले पानी को जोर से घुमाकर छोड़ देने से उसमें की मिट्टी बैठ जाती है, पानी निर्मल हो जाता है, वैसे ही मनोवृत्तियों के मूल तक पहुंचने में जो आंदोलन होता है उससे मन के विकार छंटकर निकल जाते हैं।
मनुष्य का अन्तःकरण जीवन के विकास के साथ-साथ दिन-दिन विकृत होता जा रहा है। जीवन में संकुलता बढ़ती जा रही है, जटिलता घनी होती जा रही हैं, बन्धुओं में वह जकड़ता चला जा रहा है। वह अपने सहज रूप से प्रकृत या नैसर्गिक रूप से कृत्रिम रूप धारण करता जा रहा है।
जिस प्रकार संतों-साधुओं की साधना में सहज का माहात्म्य है, वैसे ही काव्य की साधना में भी।
मनुष्य सहजानुभूति में ही लीन होकर मुक्ति लाभ कर सकता है। सहज रूप की प्राप्ति में वासना सहायक होती है। जिनमें वासना पहले से न हो, वे इस जीवन में काव्यानुशीलन से प्राप्त कर सकते हैं। जिनमें है, वे अभ्यास से हृदय का मैल छांट सकते हैं। जैसे-गुड़ या चीनी की चाशनी बनाते समय उसमें दूध या फिटकरी छोड़कर मैल छांटा जाता है, वैसे ही इस भावयोग से अतः करण की शुद्धि होती है जैसे हठ-योग या राजयोग से शरीर और मन की शुद्धि होती है। सभ्यता से मनुष्य का रूप बदला है तथा इसने कृत्रिम रूप धारण किया है तथा मनुष्य के मनोभावों में कृत्रिमता आई है।
इसी को हटाना है। पर सभ्यता के साथ-साथ मनोवृत्तियों की अभिव्यक्ति ने भी जटिलता पकड़ी है। इसीलिए उस जटिलता को विवृत्त करके मूल वृत्तियों तक पहुंचाने का कार्य कविता करेगी। मनुष्य में कृत्रिमता बढ़ने से कविता की अपेक्षा अधिक होती जायेगी।
विज्ञान और उद्योग बढ़ रहे हैं तो साथ साथ कविता की अनिवार्यता भी बढ़ रही है।
यह कविता द्वारा मनोवृत्तियों के अध्यावसान-अभ्यास से परिष्कृत हो, इसके बदले विशुद्ध मनोरंजन के साधन अधिक बढ़ रहे हैं। इस प्रकार कविता हृदय का व्यापार है।
यह भी व्यवसाय है पर यह ऐसा व्यवसाय है, जो उसका विस्तार करके स्वार्थ से या पशुत्व से मनुष्य को मनुष्य क्या देव बनाने का कार्य करता है। मनुष्य अपने हृदय को सारी सृष्टि में बिछा देता है। वह दृष्ट प्रसार से होता हुआ अपने आप को परम सत्ता से जा मिलाता है। स्वार्थ से परमार्थ में पहुंचकर परमार्थ में पहुंच जाता है।
Question : क्या इतिहास और कल्पना के सुंन्दर योग को प्रसाद की नाट्य कलागत विशेषताओं में सर्वोपरि विशेषता माना जा सकता हैं? स्कंदगुप्त के संदर्भं में तर्कसम्मत विवेचन कीजिए।
(2006)
Answer : प्रसाद भारतीय इतिहास के अच्छे अध्येता थे और साहित्य के सर्जक भी। उन्होंने वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक पूरे भारतीय इतिहास का गहरा मंथन किया था। इस अध्ययन से अर्जित तथ्यों को ऐसे नाट्य साहित्य में रूपांतरित किया जो हिन्दी नाट्येतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया है। प्रसाद हिन्दी के पहले नाटककार हैं, जिन्होंने अपने प्रमुख नाटकों में इतिहास की तथ्यात्मकता पर भी ध्यान दिया और सृजनात्मक कल्पना का भी समुचित उपयोग किया। वैसे प्रसाद की इतिहास-चेतना क्रमशः विकसित हुई है। ‘प्रायश्चित‘ के रचनाकाल (1910) के समय से ही उन्होंने इतिहास की गहरी छान बीन आरंभ कर दी थी।
‘प्रसाद जी ने अपने सभी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों की छान-बीन, उनका चयन और संयोजन, कल्पना का समावेश, पात्रें की सृष्टि, दृश्यों का विधान और संदर्भों का अंकन, अपनी जीवन्त और गतिशील जीवन मूल्यों अन्वेषिणी इतिहास-चेतना की दृष्टि से किया है। यहां हम प्रसाद के नाट्य कला की एक प्रमुख विशेषता-इतिहास और कल्पना के सुंदर योग की परीक्षा स्कंदगुप्त नाटक को सामने रखकर कर सकते हैं। ऐतिहासिकता को आधार बनाकर लिखी गई रचनाओं के संदर्भ में यह प्रश्न अक्सर उठता है कि साहित्य और इतिहास में क्या संबंध है? इतिहास एक तथ्यात्मक विधा है, जबकि साहित्य के लिए कल्पना को एक अनिवार्य शर्त माना जाता है। प्रसाद से पूर्व हिन्दी साहित्य में जो नाटक लिखे गए, उसमें ऐतिहासिक प्रमाणिकता लगभग नदारद है। उदाहरण के लिए भारतेन्दु का ‘नीलदेवी’ को देखा जा सकता है, जिसे हिन्दी का पहला ऐतिहासिक नाटक माना जाता है, जबकि इसका मुख्य पात्र नीलदेवी ही इतिहास में अप्रमाणिक है।
इससे पहले देखें, तो हिन्दी साहित्य की रासो काव्यधारा से लेकर आधुनिक काल तक इतिहास की प्रमाणिकता के प्रति रचनाकार आग्रहशील नहीं रहे हैं। इस पृष्ठभूमि पर प्रसाद एक ऐसे साहित्यकार के रूप में उभरे, जो इतिहास के गहरे जानकार थे और साहित्य के सर्जक थे। उन्होंने अपने नाटकों में साहित्यिक कल्पना के साथ - साथ ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर भी विशेष ध्यान दिया है। प्रसाद के सामने मूल प्रश्न यह था कि वे इतिहास को किस रूप में तथा किस सीमा तक स्वीकार करें। वह समझते थे कि साहित्यिक रचना में इतिहास का पूरा निर्वाह नहीं हो सकता, नही तो वह रचना इतिहास हो जायगी।
यदि प्रसाद को इतिहास ही लिखना था, तो भूमिका में चार लेख ही काफी थे, नाटक लिखने की आवश्यकता ही क्या थी? किन्तु प्रसाद के अनुसार इतिहास का प्रयोग एक विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है। वे लिखते हैं- ‘इतिहास का अनुशीलन किसी जाति को अपने आदर्श संगठित करने के लिए आवश्यक हैं।’
इसी पृष्ठभूमि पर प्रसाद ने स्कंदगुप्त जैसे जिन नाटकों की रचना की है, उसमें इतिहास और कल्पना का एक सुन्दर समन्वित रूप बन पड़ा है। प्रसाद की दृष्टि ठीक वहीं है, जिसकी चर्चा लहरों के राजहंस की भूमिका में मोहन राकेश ने की है। इसमें राकेश जी ने कहा है-’ इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तित्व का आश्रय साहित्य को इतिहास नहीं बना देता है। इतिहास तथ्यों का संकलन करता है। उन्हें एक समय तालिका में प्रस्तुत करता है। साहित्य का ऐसा उद्देश्य कभी नहीं रहा। कालिदास के रिक्त कोष्ठों की पूर्ति करना भी साहित्य का उपलब्धि क्षेत्र नहीं है। साहित्य इतिहास के समय से बंधता नहीं, समय में इतिहास का विस्तार करता है, युग-से-युग को अलग नहीं करना, कई युगों को एक साथ जोड़ देता है। इस तरह इतिहास का ‘आज और कल’ उसके लिए आज और कल नहीं रह जाते समय की असीमिता में कुछ ऐसे जुडे़ हुए क्षण बन जाते हैं, जो जीवन को दिशा संकेत देने की दृष्टि से अविभाज्य है।’
प्रसाद ने स्कंदगुप्त में इतिहास के मूल ढांचे को लेते हुए उसमें कल्पना के रंग भरे है। और कल्पना का यह प्रयोग विशेष रूप से चार उद्देश्यों के लिए हुआ है- (1) ऐतिहासिक घटनाओं की टूटी हुई कडि़यों को जोड़ने के लिए (2) ऐतिहासिक चरित्रें तथा घटनाओं की आंतरिक स्थिति को प्रकट करने के लिए (3) तथ्यों को देश काल की सीमाओं से मुक्त करने के लिए तथा (4) रचना के उद्देश्य से जुड़े हुए अर्थों को शामिल करने के लिए। प्रसाद की विशिष्टता यह है कि वे साहित्य और इतिहास दोनों की सीमाओं को जानते थे, क्योंकि वे साहित्यकार के साथ-साथ इतिहास के भी गहरे अध्येता थे। इसीलिए उन्होंने साहित्यिक कल्पना के साथ-साथ ऐतिहासिक प्रमाणिकता का भी ध्यान रखा है। ये साहित्य में कल्पना का उपयोग उसी सीमा तक करना चाहते थे, जिससे वर्तमान स्थिति को सुधारने में मदद मिल सके। नाट्य चित्र की रेखाओं को इतिहास से लेकर अपनी कल्पना की प्रतिभा से उसमें रंग और सौंदर्य भरा है। कल्पना के सहारे नाटककार ऐतिहासिक पात्रें में मानवीय संवेदना का संचार कर उन्हें प्राणवान और प्रभावशाली बनाता है। काल्पनिक बातों की सृष्टि कर उन्हें ऐतिहासिक बना लेता है। कल्पना के समावेश के बावजूद नाटककार नाटक के वातावरण को ऐतिहासिक बनाए रखता है। युग विशेष की सभ्यता, रहन-सहन, वेश-भूषा, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियां, प्रथाएं, भाषा, मान्यताएं उस युग की होती हैं।
इतिहास के साथ अपनी मौलिक उद्भावनाओं और कल्पनाओं को भी प्रसाद ने ऐतिहासिक वातावरण में इतिहास का रंग प्रदान किया है। यहीं कार्य इतिहास और कल्पना का समन्वय है।
उदाहरण के लिए-
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद ने अपने नाटक स्कंदगुप्त में ऐतिहासिक तथ्यों तथा कल्पना का एक सुन्दर तथा संश्लिष्ट रूप प्रस्तुत किया है। यदि घटनाओं और चरित्रें की मात्र के रूप में देखें, तो यह सरलीकरण किया जा सकता है कि स्कंदगुप्त में कल्पना का अनुपात तथ्यों से अधिक है, लेकिन देखने की बात यह है कि प्रसाद ने कल्पना के माध्यम से ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है, ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़-छाड़ नहीं की है।
वातावरण तथा प्रभाव के स्तर पर ऐतिहासिकता को प्राय सुरक्षित रखा है। अंततः यही कहा जा सकता है कि नाटक में इतिहास और कल्पना परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक बनकर आए हैं तथा नाटक का ब्राह्य ढांचा इतिहास से और साज-सज्जा कल्पना से निर्मित किया गया है और यहीं प्रसाद के नाट्य शिल्प की प्रमुख विशेषता है।
Question : ‘शरीर नश्वर और अस्थायी है? देवी अमरता चाहती हो? अच्छा कहो, अपने चारों ओर जितने पदार्थ तुम देख पाती हो, उनमें से कितने सदा एक रूप, एक रस, एक गंध रहते हैं? जिसे तुम नाश कहती हो, वह केवल परिवर्तन है। अमरता का अर्थ है अपरिवर्तन। कल्पना करो, संसार में कोई भी परिवर्तन न हो? उस संसार में सुख और आकर्षण होगा?
(2006)
Answer : प्रस्तुत पंक्ति यशपाल कृत उपन्यास दिव्या से ली गई है। यहां चार्वाकी विचारधारा के पोषक मारिश का कथन रत्नप्रभा के प्रति है। मारिश इस लोक के भोग को ही सार्थक बतलाकर उसके हृदय को परलोक और अमरता की कामना से मुक्त करता है। उसके अनुसार, जिस स्थूल, प्रत्यक्ष जगत् और शरीर का अनुभव मानव मात्र करता है, उसे असत्य और अयथार्थ नहीं कहा जा सकता।
परलोक, ब्रह्म और जीवात्मा की जो कल्पना ब्रह्मवादियों की है, वह तर्क और बुद्धि की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। यथार्थ में संसार सत्य है। अतः जो कुछ पाना है, उसे परलोक में पाने की आशा न करके इसी जीवन में पाना चाहिए।
कहा जाता है कि यह शरीर नश्वर है, इसलिए इस शरीर द्वारा जो सुख प्राप्त होता है, वह भी अस्थाई होता है और एक दिन समाप्त हो जाता है। मनुष्य को अपने चारों ओर जितने भी पदार्थ दिखाई देता है, वे सदैव एक रूप, एक रस और एक गंध नहीं रहते अर्थात् उनके रूप, रस और गंध में परिवर्तन होता रहता है। जिसको नाश कहा जाता है, वह तो परिवर्तन मात्र होता है। अमरता का अर्थ यह लिया जाता है कि किसी वस्तु में परिवर्तन न हो और वह यथावत् बनी रहे। परन्तु संसार में यदि कोई परिवर्तन न हो अर्थात् प्रत्येक वस्तु यथास्थिति में बनी रहे, तो संसार में मनुष्य के लिए कोई भी सुख और आकर्षण न रहेगा। संसार में आकर्षण और उसमें होने वाले बदलावों के कारण ही है। मनुष्य की अमरता निरन्तर का अर्थ है उसकी संतति के रूप उसकी अमरता बनी रहती है। लेखक ने इस कथन के द्वारा चार्वाकी भौतिकवादी विचारधारा की सार्थकता को सिद्ध किया है, इस विचारधारा में लोक अर्थात् दुनिया के साथ गहरे लगाव को महत्व दिया है और परलोक में अविश्वास व्यक्त किया गया है। यह विचारधारा मोक्ष की कामना का विरोधी है तथा किसी दिव्य शक्ति या ईश्वर को भी नहीं मानता है। इसमें उन्हीं वस्तुओं की सत्ता, यथार्थता स्वीकार की गई हैं, जिन्हें मानवता की बुद्धि और इन्द्रियां अनुभव करती हैं।
Question : इन रूपों और व्यापारों के सामने ……….. और ज्ञानयोग के समकक्ष मानते हैं।
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः उपरोक्त गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित ‘चिन्तामणि’ भाग-1 से संकलित निबन्धों में "कविता क्या है?" शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। मनोविकार विषयक निबन्धों के अनन्तर आचार्य शुक्ल द्वारा साहित्यिक भावभूमि के विषयों का विवेचन, उनके साहित्यालोचना की रुचि का परिचायक है। ‘कविता क्या है?’ निबन्ध में आचार्य शुक्ल ने प्रथम अवतरण में ही कविता में भावज्ञ की दशा के विश्लेषण का कार्य किया है।
व्याख्याः ‘कविता क्या है?’ इस सन्दर्भ की विवेचना के पूर्व शुक्ल जी ने मनुष्य के जीवन व्यापारों की चर्चा करते हुए, कविता के स्वरूप को समझाने के लिए सबसे पहले वासना का विचार किया है, फिर सभ्यता के बढ़ते आवरण का, फिर उसकी प्रसार सीमा का, फिर सृष्टि में मार्मिक तथ्य के संकेतों का। सर्वप्रथम ‘काव्य और व्यवहार’ के शीर्षक में शुक्ल जी ने कहा है कि जब तक मनुष्य जीवन व्यापारों से जुड़ा रहता है, तब तक उसका हृदय भी उससे बंधा रहता है, जब वह अपनी पृथक् सत्ता से छूट कर आत्मानंद की अनुभूति करने लगता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। आत्मा वस्तुतः ज्ञानदशा में मुक्त होती है और हृदय की मुक्तावस्था उसकी रसभावन स्थिति में है। कविता इस हृदय की मुक्तावस्था के उद्योग का शाब्दिक आयोजन है। अर्थात् कविता वही है, जो हृदय के भाव-व्यापारों को मुक्त करे। यही हृदय की मुक्त करने की साधना भावयोग है। यह भावयोग पूरी तरह से कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष होता है। सारांश यह है कि हृदय का मुक्त होना रस की दशा है और यह दशा, जो काव्य व्यापार के रूप में सामने आती है, पूरी तरह से ज्ञानयोग या कर्मयोग जैसी महत्ता लिए होती है।
टिप्पणीः (क) कविता क्या है? के विषय विश्लेषण के पूर्व शुक्ल जी ने उपरोक्त अवतरण में कविता के उद्भव की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है। यदि इस अवतरण को शीर्षक दें तो यह "रसदशा एवं भावयोग" सबसे उपयुक्त हो सकती है।
(ख)शुक्ल जी ने अपने निबन्धों की चिर परिचित कसावट वाली शैली का प्रयोग किया है जैसे- रूई की बंधी गांठ। यदि उसे धुना जाये तो इसका आकार कई गुना हो सकता है।
(ग) कविता क्या है? शीषर्क में साहित्यालोचन की नवीन परंपरा को शुक्ल जी ने नितांत वैयक्तिक स्पर्श दिया है। इसमें मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का तत्व समाहित मिलता है।
Question : रामचन्द्र शुक्ल अथवा कुबेरनाथ राय की निबन्ध कला पर प्रकाश डालिए।
(2005)
Answer : आचार्य शुक्ल के रचना कर्म के विश्लेषण-विवेचन से एक प्रश्न हमारे समक्ष यह उभरता है कि चिनतामणि में संग्रहीत निबन्धों के प्रणयन में आचार्य शुक्ल का अभीष्ट क्या है? इनके मूल उद्देश्यों में पहला तो यही था कि इनके माध्यम से समुचित वैज्ञानिक पृष्ठभूमि, पूर्व प्रकृति, जीवन और जगत् तथा व्यक्ति और समाज से सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक स्तर पर साहित्य के विषय में ‘सारगर्भित मौलिक चिन्तन’ और स्वानुभूत सत्य की प्रस्तुति की जाय। आचार्य शुक्ल के मौलिक विचारों का निदर्शन "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में मिल जाते हैं, जहां उन्होंने द्वितीय उत्थान (आधुनिक काल) में "भाषा की पूर्ण शक्ति प्रदर्शित करने वाले गूढ़-गंभीर लेखकों की कमी" का संकेत किया है।
यहीं उन्होंने यह भी उद्धृत किया है कि- "आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेख विचारात्मक होते हुए भी सूक्ष्म विचार दृष्टि से नहीं लिखे गए। विचारों की वह गूढ़-गुम्फित परंपरा उनमें नहीं मिलती। जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर नई विचार पद्धति की तरफ दौड़ पडे़।"
आचार्य शुक्ल ने निबन्ध के जो आदर्श एवं प्रतिमान निर्धारित किए। उनपर सामान्य निबन्धकार का खरा उतरना कठिन था। नवीन विचारोन्मेष में समर्थ अर्थवाली, गूढ़ कसावट भरी परंपरा, चुस्त भाषा की चमत्कार युक्त शैली शुक्ल जी के अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ती। शुक्ल जी के निबन्ध स्वयं एक प्रतिमान बनाते हैं, तथा उनके आदर्शों एवं प्रतिमानों पर उनके ही निबन्ध खरे उतरते भी हैं। आचार्य शुक्ल के निबन्धों की असाधारणशैली या गहन विचारधारा पाठकों को वास्तव में फ्मानसिक श्रमसाध्य नूतन उपलब्धि" जान पड़ती है। समस्त प्रतिमानों को ध्यान में रखकर ही, वे निबन्ध को ‘गद्य की कसौटी’ स्वीकार करते थे, क्योंकि शुक्ल जी की दृष्टि में भाषा की शक्ति का पूर्ण विकास निबन्ध में ही सम्भव था। शुक्ल जी के निबन्धों की भाषा एवं शैली, इस मान्यता को चरितार्थ भी करती है। मनोविकास विषयक मतों में आचार्य शुक्ल की मान्यता यह है कि- "ये मनोविकार ही समस्त मानवीय क्रिया कलाप के प्रवर्त्तक एवं शील वैचित्र्य के कारक हैं।" शुक्ल जी के निबन्धों में विषय के प्रति आत्मविचार नहीं पूर्णतया विषय विश्लेषण है, जो किसी निबन्धकार के विषय शोध का परिणाम है, न कि आत्मशोध का। यदि एक शब्द में शुक्ल जी के निबन्धों के प्रतिपाद्य पर विचार करना हो तो यह कहना समीचीन होगा कि- "यदि व्यक्ति को समझना है तो मानव मनोभावों का विश्लेषण अत्यावश्यक है।" आचार्य शुक्ल ने अपने चिन्तन को मानवीय जीवन की ठोस वास्तविकता के आधार पर ही सिद्धान्त रूप में प्रतिष्ठापित किया है। यहीं कारण है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी जहां उपदेश देते हैं:
"याद रखिए क्रोध से और विवेक से शत्रुता है" अथवा
"लोभ बहुत बुरा है और मनुष्य जीवन को दुःखमय बना देता है।"
वहीं शुक्ल जी का मनोभाव विश्लेषण की वास्तविकता दृष्टव्य हैः
"वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।" अथवा
"क्रोध काफी फुर्तीला होता है।"
उन्होंने अपने मौलिक चिन्तन से मनोविकारों की पृष्ठभूमि को समझा भी है तथा सिरजा भी। उन्होंने पहले आत्मविश्लेषण किया तभी बाह्य विवेचन किया, जो एक अत्यंत वस्तुनिष्ठ रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त होती है-
"कर्त्ता से बढ़कर कर्म का दूसरा स्मारक नहीं।"
"यदि प्रेम स्वप्न है, तो श्रद्धा जागरण।" अथवा,
"वैर का आधार व्यक्तिगत होता है, श्रद्धा का सार्वजनिक।" इतना तर्कपूर्ण एवं मौलिक विवेचन शुक्ल जी की निबन्ध कला का ही परिचय देता है। "मनुष्य के स्वभाविक चित्त वृत्तियों की छानबीन" एवं मूल अनुभूतियों के रूप में प्रेम, हास, उत्साह आदि के विश्लेषण में एक बहुअधीत, बहुज्ञ एवं बहुश्रुत रचनाकार की कला देखने को मिलती है। शुक्ल जी के विषय विवेचन में समास या व्यास शैली अथवा आगमन या निगमन जैसी वैज्ञानिक पद्धतियों के स्थान पर संवेदनशीलता, कवित्व शक्ति, प्रखर कल्पनाशीलता एवं जि़न्दादिली के साथ भाषा की प्रसाद गुण युक्त एवं प्रवाहपूर्ण शैली देखने को मिलती है।
"रस-मीमांसा" में शुक्ल जी के काव्यशास्त्रीय विचारों का संग्रह है। इनमें ‘शैंड’ एवं ‘ऐंजिल’ जैसे आधुनिक काव्यशास्त्रियों-मनोविज्ञानियों के मतों का विश्लेषण करते हुए शुक्ल जी ने भाव विषयक पारंपरिक भारतीय चिन्तन को पाश्चात्य चिन्तकों के मतों के आलोक में प्रस्तुत कर भारतीय चिन्तन को प्रमाणिकता प्रदान करायी। शुक्ल जी के निबन्धों में उनके पाण्डित्य, सहज जीवनानुभव का सार तत्व है।
निबन्ध लेखन में "शुक्ल जी ने हर मनोविकार का सामाजिक आधार बताया है, उसका संबंध मनुष्य के व्यवहार से जोड़ा है, उनके सामाजिक परिणाम के हिसाब से शुभ या अशुभ माना है……… उनके हर विवेचन का एक ठोस आधार है।" यही ठोस सामाजिक आधार महती पाण्डित्य के बावजूद कथ्य एवं विवेचन की मौलिकतापूर्ण साधना को इंगित करता है। वे न तो वायवीय ढंग से ‘लोभ एवं प्रीति’ की विशेषताऐं बताते हैं, न ही स्थूल उपदेश देते हैं, अपितु मनोविकारों के उद्भव एवं पुष्टि की प्रकृति के संदर्भ में वस्तुनिष्ठता द्रष्टव्य हैः
"किसी प्रकार के सुख या आनन्द देने वाली वस्तु के सम्बन्ध में मन में ऐसी स्थिति, जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही सान्निध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े, "लोभ" कहते हैं। (लोभ एवं प्रीति)
इसी प्रकार शुक्ल जी के नित्तांत विषयनिष्ठता के उदाहरण हैं- "लोक मर्यादा की दृष्टि से हमको इतना सामर्थ्य सम्पादन करना चाहिए कि दूसरे अकारण हमारा अपमान करने का साहस न कर सके।"
आचार्य शुक्ल के निबन्धों में गम्भीर चिन्तन एवं मौलिक विवेचन सदा सहधर्मी रहे हैं। राष्ट्रीय चेतना के साथ जागरणकालीन संदर्भ एवं कर्म प्रेरक उद्गार इनके निबन्ध कला की प्रमुख विशेषता रही हैः
"इस बात का भी ध्यान रखना कर्त्तव्य है कि "धर्म और राजबल से प्रतिष्ठित संस्थाओं के अन्तर्गत अभिमानालय और खुशामदखाने न खुलने पायें।"
निबन्ध कला के आदर्श के अनुरूप आचार्य शुक्ल के ये निबन्ध गंभीर, अनुशासित, व्यवस्थित तथा तर्कपुष्ट विवेचन विश्लेषण का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। शुक्ल जी के निबन्धों में वचन भंगिमा की रोचकता, अभिव्यक्ति की सजीवता एवं सबसे उपर विशद ज्ञान एवं विपुल वैदुष्य की गुरु-गम्भीर शैली उनके निबन्धों को अद्वितीय बनाती है। शैलीगत सजीवता एवं प्रभाव की दृष्टि से शुक्ल जी के निबन्ध विचारात्मक गद्य के शिखर हैं।
Question : "जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई ………उसे प्राणों की तरह बचा रहा था।"
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ के अंतिम खण्ड से चयनित यह अवतरण होरी के जीवन की करुण गाथा का सारांश है। यह वह स्थान है, जहां होरी द्वारा शुरू में कहे गए फ्साठ तक पहुंचने ही न पाऐंगे धनिया…." वाक्य का तार्किक अंत शुरू होता है। गोदान के इस खण्ड तक आते-आते सब कुछ ठीक होता जाता सा लगता है परन्तु सच्चाई यहीं है कि कथानायक जीवन के रणक्षेत्र में हारा महीप होता जा रहा है। होरी की दशा दिन प्रति-दिन खराब होती जा रही है। यह अवतरण इस उपन्यास के कारुणिक अंत की पृष्ठभूमि निर्मित करता है।
व्याख्याः गोदान के कथानायक ‘होरी’ के ‘ट्रेजिक’ अन्त में स्पष्ट होता है कि जीवन के संघर्ष में सदा हारते हुए भी होरी हार नहीं मानता। यहां वह स्थिति है, जब कथा नायक के अखण्ड आत्म विश्वास की डोर हाथ से छूटती जाती है। होरी यथासम्भव अपने धर्म पर अटल भी रहा। जीवन के व्यापार में थोड़े-बहुत छल प्रपंचों के अतिरिक्त उसने अपनी नीयत नहीं बिगाड़ी, न ही अधर्म कमाया। इस पर भी जीवन की सुख की स्थिति मृगतृष्णा की भांति दूर होती गयी।
अब तो इस सन्दर्भ में होरी को कोई धोखा भी नहीं रह गया था, क्योंकि झूठी आशा बंधाते-बंधाते अब हरियाली और कोई चमक की आस बाकी नहीं रही थी। अब केवल तीन बीघे जमीन को अपने जीवन का आधार बनाए हुए, कथा नायक उसे प्राणों की तरह बचाए हुए था।
सारांशतः सभी आर्थिक आधारों के छिन्न-भिन्न होने के बाद पुरखों से मिली, वह तीन बीघा जमीन को अपना प्राणाधार बनाए हुए था। इस जमीन का हाथ से खिसकना ही कथा के अन्त एवं कथा नायक की त्रासदी को पूर्ण कर देता है। जब अंततः मजदूर के रूप में होरी की लू लगने से मृत्यु हो जाती है।
टिप्पणीः (क) ‘गोदान’ जो प्रेमचन्द के यथार्थोन्मुख आदर्शवाद के परिणति चरण की रचना है, उसमें कथा नायक के जीवन की अंतिम अवस्था में समग्र जीवन व्यापार की इतनी संश्लिष्ट समीक्षा इससे अधिक सुष्ठु भाषा विधान में सम्भव नहीं है। सच है कि प्रेमचन्द ने अपनी रचना में भाषा एवं बिम्ब विधान का सम्पूर्ण उपयोग कर लिया है।
(ख) कथानायक के ट्रेजिक अंत की ओर बढ़ते कदमों में "मृगतृष्णा की भांति सुख का दूर होते जाना" अपनी वस्तुस्थिति को पूरी तरह व्यंजित कर देता है।
(ग) ‘गोदान’ के अन्त की यह स्थिति मन्द-मंथर गति से अचानक सत्वर हो उठी है जैसे- प्रेमचन्द को कथा का अन्त करने की उतावली हो। कहानी के छोटे-छोटे टुकड़ों के सुखान्त के बीच कथानायक के कारुणिक दुखान्त में समंजित प्रभाव मालूम पड़ता है।
Question : औपन्यासिक-कला की दृष्टि से ‘गोदान’ उपन्यास की समीक्षा कीजिए।
(2005)
Answer : ‘गोदान’ प्रेमचन्द की सबसे प्रौढ़ रचना है- किन अर्थों में? प्रेमचन्द ने 1900 ई. के लगभग उपन्यास लेखन प्रारम्भ किया था और उनका अन्तिम उपन्यास ‘गोदान’ 1936 में प्रकाशित हुआ था। निसर्गजात रूप में इनके बीच की रचनाओं में औपन्यासिक कला का सतत विकास दिखाई देता है। उनकी अन्तिम पूर्ण रचना में प्रेमचन्द की औपन्यासिक कला ही नहीं पूर्ण विषयवस्तु भी पूर्णोत्कर्ष पर पहुंची। गोदान अपने पूरे अर्थों में राजनैतिक मूल्यों से प्रभावित समाज का दर्पण है और जहां तक औपन्यासिक स्वरूप की बात है- प्रेमचन्द के पूर्व हिन्दी में ऐसा कोई उपन्यासकार नहीं हुआ, जो बंगला के बंकिम चन्द्र चटर्जी एवं मराठी के हरिनारायण आप्टे की समकक्षता कर सकता।
प्रथमतः प्रेमचन्द अपने सभी उपन्यासों में ‘किस्सागो’ के रूप में उपस्थित होते हैं, जो अपने पात्रों की कहानी कहते नहीं बल्कि ‘प्रस्तुत’ करते हैं। यूं तो ‘गोदान’ पूर्व उपन्यासों में कई स्थानों पर हम प्रेमचन्द को कहानी "कहते हुए" तथा पाठकों एवं पात्रों को सम्बोधित करते हुए पाते हैं, परन्तु ‘गोदान’ में उनकी पूरी निष्ठा कहानी को ‘प्रस्तुत’ करने की है। एक उपन्यासकार के रूप में प्रेमचन्द की सर्वप्रमुख विशेषता यह थी, कि उन्होंने समकालीन यथार्थ को अत्यंत कलात्मक ढंग से कथा साहित्य से जोड़ दिया। प्रेमचन्द का अनुभव संसारा मोटे रूप में 1886 से 1936 तक के 50 वर्षों का था। इन्हीं पचास वर्षों के भारतीय जीवन का यथार्थ अपने उत्कृष्ट कलात्मक रूप में ‘गोदान’ में आरेखित है। देश के आजादी की समस्या प्रेमचन्द के लिए मात्र भावनात्मक अथवा राष्ट्रप्रेम की समस्या न थी, जनसमुदाय के आर्थिक शोषण एवं दमन के फलस्वरूप उभरी दयनीय स्थिति ही ‘गोदान’ का चरम प्रतिपाद्य बन जाती है। ‘गोदान’ के सृजन संदर्भ के कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं-
(क) समकालीन भारतीय जीवन का समग्र चित्रण।
(ख) एक निम्नवर्गीय किसान के माध्यम से निम्न-मध्यवर्गीय जीवन पर दृष्टिपात।
(ग) शोषण के साम्राज्य में उत्पादक की भयंकर त्रासदी।
(घ) नारियों के प्रति प्रेमचन्द का दृष्टिकोण।
प्रायः औपन्यासिक समाजशास्त्र में उपन्यासकार की वर्गचेतना को उसकी विचारधारा के सहारे देखने का प्रयत्न होता है। प्रेमचन्द ‘गोदान’ में समकालीन भारतीय जीवन पर चिन्तन के साथ-साथ उसके यथा तथ्य चित्रण के प्रति भी पूर्ण आग्रहशील हैं। कथा पात्र ‘भोला’ के गांव का चित्रण हो अथवा होरी के गांव ‘बेलारी’ का। गंवईपन और उसका सोंधापन निखर आया है। गांव के किसानों के कष्टों में औरों की सहभागिता पात्रों को संतुष्टि देती हैः
"होरी को अगर संतोष था तो यही कि यह कर्जवाली स्थिति अकेले उसी के सिर न थी, प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की हालत उससे भी बदतर थी।"
‘गोदान’ का प्रमुख पात्र ‘होरी’ सच्चे अर्थों में एक साधारण जन है- हर दृष्टि से। कूल साढ़े तीन बीघा जमीन का मालिक, एक जोड़ा बैल, बांस की कुछ कोठियां और एक कच्चा घर। गोदान के पात्र जीवन एवं प्राणधारण की सीमान्त रेखा पर शुरू से अन्त तक बड़े संतुलित ढंग से दिखाए गए हैं। होरी की ‘आकांक्षा’ एक तरह से शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ के नायक की महत्वाकांक्षा से भी बड़ी दिखाई पड़ती है। शोषण से भरे समाज में होरी जैसे किसान के लिए एक गाय पालना भी दुर्लभ वस्तु है। उसकी वह आकांक्षा भी एक बार पूरी होती जान पड़ती है, पर गाय आती है विपत्ति लेकर। गाय को ज़हर दे दिया जाता है, होरी को पंचायत का दंड भरना पड़ता है। फाकाकशी करनी पड़ती है; अंततः बैल गंवा कर, होरी किसान से मजदूर बन जाता है। खेतों को बचाने के लिए बेटी ‘रूपा’ का ब्याह एक अधेड़ से करना पड़ता है और उसकी मृत्यु खाली हाथ, संघर्षरत, असफल होकर लू से होती है। यह केवल संयोग नहीं है कि ‘गोदान’ के आरम्भ से अन्त तक एक कठोर सच की स्वीकृति में ‘मृत्यु’ का ही संकेत है। प्रारम्भिक हास्य विनोद के क्षणों में होरी का कहना कि- "साठ तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आयेगी, धनिया! इसके पहले ही चल देंगे।" यह आने वाली कठोर मृत्यु का पूर्वाभास नहीं तो और क्या है?
महान कला का लक्ष्य सम्पूर्ण जटिल यथार्थ के पूर्ण प्रत्यक्षीकरण के साथ तमाम अंतर्विरोधों का घुला मिला होना है। कथा सूत्रों का दुहरापन एवं चरित्रों का समीक्षीकरण प्रेमचन्द के बुनावट की परिचित विशेषताएं हैं। होरी की कहानी राय साहब से भी जुड़ी है और मेहता तथा मालती की कहानी से भी। गोबर की कहानी तो उसमें अंतर्मुक्त है ही, चाहे तनाव के स्तर पर ही। उसकी कहानी भी मेहता-मालती के कथा सूत्र से जा मिलती है। कार्लमार्क्स ने जिस तर्क से मनुष्यता के मूल में मनुष्य होने पर ही बल दिया है, उसी तर्क से ‘गोदान’ में शिक्षितों की जीवन पद्धति के समानान्तर ग्रामीण जीवन एवं स्वभाव के प्रकृत मर्म को समझने की जरूरत है। होरी की कमजोरियां भी यहां उतनी ही महत्वपूर्ण हैं, जो उसका चरित्र पूर्ण करती हैं। बुढ़ों की बुढ़भस हास्यास्पद स्थिति है, ऐसे बुढ़ों से कुछ ऐंठ लेने में कोई दोष-पाप नहीं। निराला के उपन्यास में बिल्लेसुर आखिर तक यह भ्रम बनाए रखते हैं कि उनके पास सोने की ईंटें हैं। होरी का गोबर से पीढ़ीगत भेद बताने में प्रेमचन्द प्रतीक्षा नहीं करते, पर गोबर झुनिया के प्रेमप्रसंग में उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं है। चिरपरिचित युक्ति "आकस्मिकता" के संयोग के बावजूद प्रेमचन्द की कला में चरम तीव्रता कहीं-कहीं ही है। गोदान की कथा में पूंजीवाद, खत्म होते सामंतवाद, कुछ प्रेम कहानियों के साथ कई संदर्भ जुड़ते जाते हैं। नागर फलक की समानान्तर कथा को वे खन्ना एवं उसकी पूंजीवादी मनोवृत्ति के बारे में मेहता की टिप्पणी से पूर्ण करते हैं। एक गौण चित्त नारियों के प्रति उनकी विचारधारा को भी स्पष्ट करती है। प्रेमचन्द एक स्थान पर स्वीकार करते हैं किट "स्त्री पृथ्वी के समान धैर्यवान है, शान्ति सम्पन्न है, सहिष्णु है, तथापि स्त्री में पुरुष के गुण आ जायें तो वह कुलटा हो जाती है।" पर अंततः प्रेमचन्द मालती के द्वारा यह विचार व्यक्त करवा देते हैं कि- ‘मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने की अपेक्षा कहीं अधिक सुखकर है।’ यह उनकी भावजन्य प्रौढ़ता का प्रतीक है।
कार्पेंतियर ने ठीक ही लिखा है कि उपन्यास महान तब होता है, जब वह अपनी सीमाओं को तोड़ता है। प्रूस्त, काफ्का, बल्ज़ाक और बंकिमचन्द्र चटर्जी के यहां यही दिखाई पड़ता है। छमाड़ आठ गुंठ में फकीर मोहन सेनापति ने उड़िया कृषक की जीवन गाथा वर्णित करते हुए अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय कृषक जीवन को अपने दृष्टि में रखा है। इस रूप में ‘गोदान’ की पूरी कथावस्तु और औपन्यासिक शिल्प ही महाकाव्यात्मक औदात्य वाला है। गोदान की कहानी ढ़ीली-ढ़ाली शिथिल कथा है, जिसे भारतीय समाज की मंद मंथर गति या लय के अनुरूप कहा जा सकता है। प्रेमचन्द की एक चिरपरिचित युक्ति है- "बाहर से वह विलासिनी है, भीतर से वही मनोवृत्ति शक्ति का केन्द्र है। मगर परिस्थिति बदल गयी है। तब मालती प्यासी थी, अब मेहता प्यास से विकल हैं।"
प्रेमचन्द की रचनाओं में यही अनुकृति मूलकता एवं दृष्टांत मूलकता उनकी शक्ति है। अपने कथा संसार की प्रस्तुति के लिए प्रेमचन्द जो रूप (फार्म) अपनाते हैं, उसे ‘पर्सी लब्बाक’ की शब्दावली में ‘दृश्यात्मक’ एवं ‘परिदृश्यात्मक’ की संज्ञा दी जा सकती है। गोदान के होरी एवं धनिया का पहला दृश्य समाप्त होते ही उपन्यासकार किस्सागो की भूमिका ग्रहण कर लेता है, तथापि रेणु ने अपनी लम्बी कहानियों यथा- "आदिम रात्रि की महक" अथवा "तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम" में जिस किस्सागो का रूप धरा है, वह प्रेमचन्द में कम ही देखने को मिलता है। गोदान के रचना शिल्प की सजगता एवं सतर्कता के चलते कथा साहित्य को बहुत कुछ सकारात्मक मिला है। प्रेमचन्द के सीधे-सादे शिल्प ने ही उपलब्ध कराया है- यथार्थ की बेलौस छवि, उसका निरभ्र रूप, उनके बीच यातनाग्रस्त आदमी की मुकम्मल एवं प्रमाणिक तस्वीर, उसके सारे दुःख-दर्दों, आशाओं-आकांक्षाओं एवं स्वप्नों-संघर्षों की पूरी जीवन्तता। किस्सागोई को व्यापक रचना दृष्टि से जोड़ने का अनवरत प्रयत्न प्रेमचन्द के उपन्यासों में है। सेवासदन से लेकर कर्मभूमि तक किस्सा और दृष्टि में से एक या कभी-कभी दोनों मुखर हैं। ‘गोदान’ में संतुलन पूरा हो जाता है। वैसे ही जैसे ‘कामायनी’ के साथ प्रसाद का। प्रेमचन्द आज भी अपराजेय हैं- अपनी लक्ष्य सिद्धि के स्तर पर। प्रेमचन्द के बाद भी ढेरों उपन्यास लिखे गए, परन्तु गोदान की तरह वह विश्वस्त पहचान न बन सकी। यही प्रेमचन्द के ‘गोदान’ के औपन्यासिक शिल्प की चरम उपलब्धि है।
Question : शिल्प एवं विषय की दृष्टि से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी पर प्रकाश डालिए।
(2005)
Answer : कविता और कहानी प्रेमचन्दोत्तर काल की केन्द्रीय विधाएं रही हैं। तमाम साहित्यिक आन्दोलनों में फलती-फूलती इन विधाओं के संबंध में बहुत सारी बहसों, गोष्ठियों एवं पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों का सम्पादन हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि इन दोनों ने समकालीनता को गहरे अर्थ में रेखांकित करने का प्रयास किया, जीवन की जटिलताओं को उनकी समग्रता में आंकने की कोशिश की गयी। साठ के दशक तक इन कहानियों को नई-कविता के वजन पर नई-कहानी कहा जाने लगा। नई कहानी से अलग सचेतन कहानी और अ-कहानी का आन्दोलन भी चलाया गया।
इस दौर के आरम्भ में दो प्रकार की प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं: प्रगतिवादी और व्यक्तिवादी। इसी समय एक प्रवृत्ति और भी उभरी- आधुनिकता बोध की प्रवृत्ति; जिसके पुरस्कर्त्ता ‘भुवनेश्वर’ थे। ‘सूर्यपूजा’ एवं ‘भेडि़ए’ कहानी को प्रमाण स्वरूप पेश किया जा सकता है। वस्तुतः कहानी का विकास प्रेमचन्दोत्तर युग में उपन्यास के समानान्तर ही होता है। यह सत्य भी है, क्योंकि प्रायः सभी उपन्यासकारों ने कहानियां लिखी हैं। इस युग की कहानी की तीन शैलियां मिलती हैं:
प्रथमतः प्रेमचन्द शैली के उस्ताद कहानीकार ‘यशपाल’ रहे। इनका कथा-शिल्प उपन्यास की अपेक्षा कहानी में अधिक निखरा। यशपाल जो मूलतः मार्क्सवादी धारा के कथाकार थे, उनमें प्रेमचन्द की सामाजिकता का विकास देखने को मिलता है। मार्क्सवाद सांस्कृतिक नैतिक विषमताओं के मूल में धन की विषमता मानता है। मार्क्स के साथ इन पर ‘फ्रॉयड’ का भी गहरा प्रभाव था। शायद यही कारण है कि ‘दो मुंह की बात’ जैसा सधा प्रसंग हो या तांगे वाले धर्मगुरु के बीच पाप एवं अहंकार की समस्या से जूझते द्वंद्व का उपख्यान "पाप का कीचड़" हो,- कहानी के चिरपरिचित बराबर वज़न को साधने वाले शिल्प पर आधारित होकर भी ये मनोविज्ञान के अधखुले परतों को उघाड़ने में बेजोड़ हैं।
प्रेमचन्दोत्तर रचनाकारों में ‘अज्ञेय’ मुख्यतः ‘व्यक्ति के आत्म संघर्ष’ तथा व्यक्ति एवं परिवेश के संघर्ष को चित्रित करते हैं। यशपाल जहां विसंगतियों के मूल में अर्थ का असामंजस्य एवं वर्गीय प्रदर्शन (हिप्पोक्रेसी) मानते हैं, वहीं अज्ञेय व्यक्ति के अपने नैतिक संघर्ष एवं दायित्व को मनुष्य की मुख्य समस्या मानते हैं। ‘शरणार्थी’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि- "मेरा आग्रह रहा है कि लेखक अपना अनुभूत ही लिखे, जो अनुभूत नहीं है, कोरी सैद्धान्तिक प्रेरणा से वशीभूत होकर लिखना ऋणशोध हो सकता है- साहित्यिक नहीं।"
अज्ञेय की प्रारम्भिक कहानियों में स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति उभरी है पर ‘गैंग्रीन’, ‘पठार का धीरज’ आदि कहानियां रोमांस से मुक्त नए यथार्थ पर आधारित है। ‘शरणार्थी’ में लेखक का सामाजिक ही प्रस्तुत होता है। व्यक्ति और कला के प्रति उपेक्षा हो जाने के कारण इस संग्रह की कहानियां ओढे़ हुए यथार्थ को ही आंक पाती हैं। इनकी "जयदोल" की कहानियां रचनात्मक कला प्रौढ़ता की सूचक हैं। जहां अज्ञेय की भाषा में परिवेश निर्माण की अद्भुत क्षमता है, वहीं बिम्बों, प्रतीकों और नाटकीय स्थितियों के चित्रण के द्वारा अज्ञेय कहानियों को अर्थ के विभिन्न स्तर देते हैं।
प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी को नवीन आयाम देने वालों में ‘जैनेन्द्र’ अग्रगण्य है, जिन्होंने पूरी जिम्मेदारी से प्रेमचन्दोत्तर कथाधारा को समृद्ध करने का कार्य किया। जैनेन्द्र ने प्रेमचन्द के प्रभाव से स्वयं को मुक्त रखते हुए कहानी को ‘घटना’ के स्तर से उठाकर "चरित्र और मनोवैज्ञानिक सत्य" पर लाने का प्रयास किया। ‘हत्या’ जैसी कहानी में जैनेन्द्र ने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। जैनेन्द्र की कहानियों का एक मुख्य विषय ‘नारी’ है, जो घर ही नहीं पतिव्रत्य की चहारदीवारी से भी बाहर निकल कर मुक्ति की सांस लेना चाहती है। वस्तुतः "जैनेन्द्र प्रेमचन्द से इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे कहानी कहने से भागते हैं। घटनाओं को वे प्रायः छोड़ते जाते हैं या उनकी जगह संकेतों से काम लेना पसंद करते हैं।" ‘पत्नी’ कहानी की कथा जितनी मुखर और प्रगल्भ है, वस्तु उतनी ही शांत और चुपचाप। "जाने लगी तो कालिन्दी ने तनिक स्निग्ध वाणी में कहा- थोड़ा पानी भी लाना।" चुपके से व्यंजित होती है। कथानक अहिंसा के उपर सशस्त्र क्रान्ति को वरीयता देता है- पति कालिन्दीचरण का रूखा एवं आक्रामक व्यवहार पर पत्नी सुनन्दा का व्यवहार आज्ञाकारी सविनय अवज्ञा का प्रतीक है।
पचास के दशक के बाद कहानियों में वैयक्तिकता का दबाव बढ़ता जाता है। कुछ देर के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति का उल्लास आंचलिक कथाओं में अभिव्यक्त हुआ है। तथापि स्वतंत्रता प्राप्ति के सुख का रोमानी मोह टूटता दीखता है। कहानियों में मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी देखने को मिल जाता है। प्रेमचन्दोत्तर कथाकारों में अश्क, की कहानियों में कुछ विविधता के दर्शन होते हैं। इनके अनन्तर ‘निर्मल वर्मा’ परंपराओं को तोड़ने का एक दुद्धष आग्रह लेकर आए थे। निर्मल वर्मा की कहानी का ‘डिटेक्टिव’ आदमी की तलाश की जा सकती है। उनकी कहानियों में सूराखी परिवेश, इतने रूप रंगों में उभरता है कि उनकी प्रारम्भिक कहानियां छायावादी कविता के निकट पहुंच कर रोमैंटिक एगोनी की अभिव्यक्ति करती हैं। जैसेः परिन्दे या लवर्स। परन्तु ‘लन्दन की एक रात’ या ‘कुत्ते की मौत’ कहानियों में युगीन चीख मुकम्मल और पूर्ण है। इसमें जीवन की अनिश्चितता, घुटन, निरर्थकता, रंगभेद, बेगानगी अपने पूर्ण सम्पृक्त रूप में है। यहां किसी न किसी स्वीकृति या प्रतिबद्धताओं की ओर संकेत है। इस ‘गुंजलक’ में फंसा कोई व्यक्ति ‘रॉटर’ नहीं है, बल्कि सभी ब्लडी-बास्टर्ड हैं। इनमें जिन्दगी के छोटे-छोटे टुकड़े, तेजी से बदलते दृश्य, छोटी-छोटी घटनाएं, अर्थपूर्ण प्रतीक पूरी कहानी को बिम्बात्मक अस्तित्व देते हुए, युगीन जिन्दगी को रेखांकित करते हैं। लेखक के बदले हुए मिजाज की इन कहानियों में कथाओं, घटनाओं एवं चरित्रों द्वारा निर्मित होने वाली कहानियों के ढांचे के टूटने की शुरुआत दिखाई पड़ती है। श्रीकान्त वर्मा जिन्हे ‘ब्रेन-ट्यूमर’ का कहानीकार कहा जाता है, इनका यह ट्यूमर प्रेम के ही चारों ओर चक्कर लगाता है। इनमें स्थिति की अनिर्णयात्मकता, एकचित्तता का अभाव, बेहद बेचैनी आदि हैं
वस्तुतः सातवें दशक को ‘मोहभंग का दशक’ कहना किसी चीज को उसका सही नाम देना है। इस दशक के कहानीकारों ने अपने आप को द्विधा और रोमांस से मुक्त करके नए यथार्थ का साक्षात्कार किया है। मूल्यों के पूर्ण विघटन के साथ-साथ व्यक्तियों का खंडित होना स्वाभाविक है। विघटन का यह दृश्य सबसे अधिक राजनीति में दीख पड़ता है। कहानियों में जिस अकेलेपन को लिया गया है, वह युगीन संदर्भ है। एक खांटी आदमी हर जगह से ‘मिसफिट’ है, उसकी पहचान गायब है बाकी सब बदस्तूर जारी है। एक समय था, जब आदर्श चरित्र निर्मित होते थे, दूसरा समय आया, जब प्रमाणिक चरित्र रचे जाने लगे। साठोत्तरी दशक के चरित्र अभिशप्त हैं। जैसे- गंगा प्रसाद ‘विमल’ की कहानी ‘एक और विदाई’ में गुमशुदा पहचान की तलाश हो रही है। बदलते हुए रिश्तों को लेकर जो कहानियां लिखी गईं, उनमें पीढि़यों की टकराहट है। सातवें दशक में युवा विद्रोह की लहर से बेलाग एवं दो टूक कहने की प्रवृत्ति जागी। इस युग की कहानियों के कई वर्ग हो जाते हैं: आंचलिक कहानी, महानगरीय कहानी, सचेतन कहानी, समानान्तर कहानी, जनवादी कहानी आदि।
सारसमग्रतया प्रेमचन्दोत्तर काल में 60 का दशक मोहभंग का दशक था। साहित्य में मार्क्स एवं फ्रायड से आगे बढ़कर अस्तित्ववादी दर्शन ने साहित्य को बुनियादी प्रश्नों की ओर आकृष्ट किया। साठोत्तरी कहानी तो यथार्थ के क्रूरता, ऊब एवं संत्रस की कहानी है। युगीन मानसिकेता से प्रेरित समीक्षकों ने "अय्याश प्रेतों का विद्रोह" नाम दिया है। आधुनिकता के फार्मूलों को छोड़ दें, तो जहां-जहां प्रेमचन्दोत्तर कहानी में लेखकों ने भोगी हुई जिन्दगी के यथार्थ को उकेरा है, वहां-वहां अपनी रचनात्मक क्षमता की भली-भांति परिचय देने में समर्थ हुई है। यही युग के साहित्य की परम आकांक्षा भी है।
Question : "आचार्य, कुलवधू का आसन ………… उसे भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है।"
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः उपरोक्त अवतरण ‘यशपाल’ रचित ऐतिहासिक कल्पना प्रसूत उपन्यास ‘दिव्या’ से लिया गया है। यशपाल ने कला के अनुराग से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि केा अपनी कल्पना से यर्थाथ का रंग देने का प्रयत्न किया है। अतीत का मंथन हम भविष्य का संकेत पाने के लिए करते हैं। उपरोक्त अवतरण, जो दिव्या के सबसे अंतिम खंड ‘दिव्या’ खण्ड से लिया गया है। वहां सम्भ्रान्त कथा नायिका अपने सर्वाधिक करुण कथा अन्त की ओर है। साकल की कलापीठ की अधिष्ठात्री देवी मल्लिका के उत्तराधिकारिणी के लिए नर्त्तकीरत्न के चयन का काल है। इस आसन पर साकल के परमपूज्य धर्मस्थ की पौत्री ‘दिव्या’ के जब चयन की बात आती है तो ‘द्विज कुल कन्या’ के मद्रदेश की नगरवधू बनने के प्रश्न पर सभी को घोर आपत्ति है। आचार्य भृगु शर्मा उर्ध्वबाहु घोषणा करते हैं: "मद्र में द्विज कन्या वेश्या के आसन पर बैठ कर जन के लिए भोग्या बन कर वर्णाश्रम को अपमानित नहीं कर सकती।" जब आचार्य द्विव्या को कुलवधू के आसन पर एवं कुल माता के आसन पर बैठने का आग्रह करते हैं तो उपरोक्त अवतरण दिव्या के उत्तर हैं:
व्याख्याः दिव्या कहती है कि आचार्य कुलवधू, कुल माता या कुल महादेवी का आसन उसके लिए नहीं है, क्योंकि वह एक निराहत वेश्या के समान है और इतना महनीय आसन किसी स्वतंत्र चरिता के लिए नहीं होता। यह इन तीनों सम्मानों को नारी के स्वत्वाधिकार एवं पुरुष के प्रदत्त अधिकार के मध्य रखकर तौलती हुई कहती है कि कुलवधू, कुल माता या कुल महादेवी के आसन पुरुषों के प्रदत्त आसन हैं, जहां तीनों ही स्थितियों में नारी को प्रश्रय में ही रहना है। यह सम्मान पुरुषों ने अपने पराक्रम एवं अहं की तुष्टि के लिए ही नारियों को दे रखा है। अपने स्वत्व एवं स्वतंत्रता का परित्याग कर ही, वह नारी सम्मान प्राप्त कर सकती है। अर्थात् दिव्या अब स्वयं को निरादृत वेश्या के रूप में ही सही पुरुषों की अनुगामिनी एवं पराश्रित बनने से इनकार कर देती है। कुलवधू, कुलमाता अथवा कुल महादेवी जैसी तीनों ही स्थितियां नारी (दिव्या जैसी) के लिए बन्धन एवं परतंत्रता ही देगी।
टिप्पणीः (क) उपन्यास का अन्तिम सर्ग ‘दिव्या’ इन अर्थों में अपना पूर्ण प्रभाव देता है, जब उपन्यास की केन्द्रीय नायिका ‘दिव्या’ अपने प्रेमी, नगर, अपने लोग सबसे आश्रयहीन होकर भटकती हुई, अंततः एक करुण अंत की ओर बढ़ती है। उपरोक्त अवतरण में ‘दिव्या’ साकल के अति सम्माननीय पद को ठुकराकर स्वयं पर अपना स्वत्वाधिकार घोषित कर देती है।
(ख)मनुष्य से बड़ा हैः केवल उसका अपना विश्वास और उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास एवं विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है। इसी सत्य को अपने चित्तमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है।
(ग) उपन्यास की मूल भावभूमि में वर्णाश्रम, टूटते हुए परम्परा के अधिकार, नारी की अवस्था एवं साकल की भावभूमि, ये सभी मार्क्सवादी उपन्यासकार यशपाल के सैद्धान्तिक मान्यता को पुष्ट करते हैं।
Question : ‘भारत दुर्दशा’ में प्रतिबिम्बित तत्कालीन भारत की परिस्थितियों और उन्हें लेकर लेखक की चिंताओं का विवेचन कीजिए।
(2004)
Answer : भारतेंदु हरिश्चंद्र हिन्दी भाषा के प्रथम रचनाकार हैं-जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के भारत की बहुविध परिस्थितियों का अतिव्यापक, सघहन और विश्लेषणात्मक अध्ययन किया। उनके निष्कर्ष तीक्ष्ण मेधाशक्ति और गंभीर विश्लेषण क्षमता से उपजे थे। इसी कारण भारतेंदु समस्या को मात्र सतह से छूते हुए नहीं निकल जाते, बल्कि उसे संपूर्ण परिपार्श्व में उभारते हैं, साथ ही समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। समाधान भी ऐसा कि जिससे राष्ट्र और समाज सशक्त हो सके।
‘भारत-दुर्दशा’ का मूल विषय ही है- ‘भारत की दुर्दशा’ का चित्रण करना और वस्तुस्थिति से अवगत कराकर देशवासियों को देशोद्धार के लिए एकजुट और सक्रिय करना। अट्ठारह सौ सत्तावन की राज्य क्रांति विफल हो चुकी थी और बाढ़ में लगभग दो दशकों में अंग्रेजी राज की जड़े हिमालय से हिन्दी महासागर तक फैल चुकी थी।
ब्रिटेन का साम्राज्य उस काल में इतना बड़ा हो गया था कि उसमे पूरी तरह से सूर्यास्त होता ही नहीं था। भारत अंग्रेजी साम्राज्य का अब मात्र एक उपनिवेश था। पाश्चात्य शिक्षा-सभ्यता का प्रचार-प्रसार तेजी से होने लगा था। संस्कृत शिक्षा-पद्धति की जगह अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति ने ले ली थी। रेल, डाक, तार की नई सभ्यता का उदय हो चुका था। जनसंचार के माध्यमों का एक दौर शुरू हो चुका था।
अवश्य इस वैज्ञानिक सभ्यता के कुछ फायदे हमें भी हुए, परंतु यह सब भारत में अंग्रेजी राज की बाधाओं को दूर करने के लिए ही हुआ था। अंग्रेज-सुशासन की आड़ में भारत की सम्पत्ति जहाज पर लाद-लादकर इंग्लैंड पहुंचा रहे थे। सोने की चिड़िया के पंख नोच डाले गये। भारत आर्थिक दृष्टि से खोखला होकर रह गया। उन्होंने हमारे कुटीर उद्योगों को भारी क्षति पहुंचायी थी।
अंग्रेज भारत को लूटने आये थे, यहां के निवासियों को नई सभ्यता का पाठ पढ़ाने नहीं। भारतेंदु ने अपने समय के अन्य पढे़-लिखे नागरिकों की तरह इस तथ्य को केवल न महसूस किया, वरन् देशवासियों को इससे परिचित कराने का बीड़ा भी उठाया था। भारत को औपनिवेशिक शासन ने बाध्य किया कि वह अपने तैयार उत्पाद का निर्यात करने की जगह कच्चा कपास और कच्चा रेशम का निर्यात करे, जिसकी ब्रिटिश उद्योगों को आवश्यकता थी। भारतेंदु ने औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीति की उसके समस्त अंतर्विरोधों के साथ अनुभव किया। एक ओर वह ब्रिटिश शासन की हितकारी नीतियों की प्रशंसा करते हैं तो दूसरी ओर भारत का धन लूट-खसोट कर विदेश ले जाया जा रहा है, इसकी पीड़ा भी उनको कम नहीं थी। ‘भारत दुर्दशा’ के प्रथम अंक में प्रथम पात्र के माध्यम से उन्होंने अपनी यह चिन्ता प्रकट की हैः
अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात दूहै अति ख्वारी।।
अंग्रेज किस तरह यहां से धन बटोरकर विलायत ले जाते हैं, इस पर भारतेंदु की टिप्पणी है" "जब अंग्रेज विलायत से आते हैं, प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं, और जब हिन्दुस्तान से अपने विलायत की ओर जाते हैं, तब कुबेर बनकर जाते हैं-इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं।" इससे यह संकेत मिल जाता है कि-‘भारत दुर्दशा’ की रचना के पीछे उनका कौन-सा मनोवैज्ञानिक चिन्तन कार्यशील है।
‘फूट डालो और राज करो’ यह नीति अंग्रेजों की प्रसिद्ध नीति है। उन्होंने जाति-धर्म-भाषा, संप्रदाय के स्तर पर भारतीय मन के विभाजन को जल्दी ही पहचान लिया था। कुछ थोड़े से अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग राष्ट्रीय भावना से परिचित तो थे, पर उनकी स्थिति अकेले चने की स्थिति थी, जो बहुत उछलकर भी भांड नहीं फोड़ सकता। ये पढ़- लिखे लोग भी परस्पर ईर्ष्या-द्वेष रखते थे। इसीलिए भारतेंदु ने कामना की थी कि "बुध तजहिं मत्सर।" भारत दुर्दशा के पहले अंक में योगी जो लावनी गाता है, उसके आरंभ में ही प्रकारांतर से ऐम्य का आह्नान हैः
"रोवहु सब मिलिकै भारत भाई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।"
भारतेंदु इतिहास के तीखे ओर कठोर अनुभवों से आहत थे, इसीलिए उन्होंने ‘भारत दुर्दैव’ को ‘क्रूर’ आधा क्रिस्तानी और आधा मुसलमानी वेश में हाथ में नंगी तलवार लिए हुए’ दिखलाया है। अर्थात् भारत को आत्महीनता की गहरी खाई में गिराने का आधा श्रेय मुस्लिम आक्रांताओं को है, तो आधा अंग्रेजों का। दोनों ने एक के बाद एक लम्बे समय तक शासन किया और हमें कौड़ी-कौड़ी को मुहताज बना दिया।
‘भारत दुर्दशा’ के तीसरे अंक में ‘भारत-दुर्दैव’ नाचता हुआ गाता हैः
कौड़ी-कौड़ी को करू, मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालू इनका मैं सच्चा राज।।
विदेशी आक्रांताओं ने भारत रूपी-सोने की चिड़िया के पंख ही नोंच डाले। उन्होंने हमें भीतर से खोखला और जर्जर कर दिया। इस्लामी शासन में हिन्दु जनता को काफिर कहा गया, अंग्रेजों ने हमें ‘काले लोग’ कहा। ऊंच-नीच का भेदभाव तो न जाने कब से भारत में जड़ जमाये हैं। इस भेद-भाव ने कभी हमें एक नहीं होने दिया। फौजदार सत्यानाश भी मानता है कि उसने लाखों वेश धारण कर सारे देश को ही चौपट कर दिया। धर्म के नाम पर बाह्याचार और कर्मकांड को प्रमुखता मिली। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन और बौद्ध जैसे अनेक मतवाद आपस में लड़ते रहे हैं। बाल-विवाह तथा बहु-विवाह जैसी अनेक कुरीतियों को सामंतवाद ने प्रश्रय दिया। विधवा विवाह पर पाबंदी को भारतेन्दु समाज में फैलते व्यभिचार के अनेक कारणों में से एक बड़ा कारण मानते हैं।
तत्कालीन परिस्थितियों में अपव्यय, फैशन, फूट, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा तथा स्वार्थपरता आदि अवगुण भारतीय समाज में व्याप्त था।
भारतेंदु ने इन अवगुणें पर अपनी चिंता जाहिर की। इस चिंता को भारतेंदु ने अपने पात्र सत्यानाश फौजदार के द्वारा कहलवाया है- "फिर महाराज, जो धन की सेना बची थी, उसका जीतने के लिए मैंने बड़े बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितर-बितर कर दी। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली। इसके अतिरिक्त फूट, डाह, लोभ, भय…………दूतों के रूप में भारतीय धन की सेना में सम्मलित किये गये। भाषा, धर्म, चाल-व्यवहार, खाना-पीना सब एक-एक भोजन पर अलग कर दिया।"
एक ओर भारत आर्थिक रूप से कंगाल हो रहा था, दूसरी ओर सामाजिक रूढि़यों के मकड़जाल में जकड़ा था। भारतीय सामाजिक ढ़ांचे की विकृतियों और सांस्कृतिक दुर्बलताओं के कारण ही मुट्ठी भर लोगों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बीस करोड़ की जनसंख्या वाले भारत को उपनिवेश में बदल दिया। यूरोप यहां प्रबोधन के प्रकाश से जगमगा रहा था वहां भारत जाति और परंपरा के ढ़कोसले से पड़ा अपनी दुर्दशा को रो रहा था। लोक धर्म अंधविश्वासों से भरा हुआ था। बाल-विवाह और बहुविवाह ने भारतीय महिलाओं में जीवन को नारकीय बना दिया था, रही-सही कसर विधवाओं पर लगी धार्मिक पाबंदियों ने पूरी कर दी। इन सब प्रथाओं को समाज की पूर्ण स्वीकृति थी खान-पान के संबंध भी व्यक्ति की जाति देखकर होते थे, विवाह संबंधों की बात ही क्या की जाए। विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा को घोर उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। एक चौथाई जनसंख्या को अस्पृश्य समझा जाता था, जिसके छूने मात्र से अपवित्र हो जाने का खतरा था। समाज का उच्च वर्ग स्वार्थी और अपने में ही मस्त था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता की भावना का घोर अभाव, अंग्रेजों को भारत के शोषण के नित नए अवसर प्रदान करता था। केशवचंद्र सेन ने इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए लिखा- "आज हम जो कुछ अपने इर्द-गिर्द देखते हैं, वह एक पतित राष्ट्र है, एक ऐसा राष्ट्र जिसकी प्राचीन महानता ध्वंस होकर बिखरी पड़ी है।"
देश की इन विकट परिस्थितियों के मध्य भारतेंदु साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रखते हैं। उन्होंने समकालीन विश्व में घटने वाली छोटी-बड़ी घटनाओं में रूचि ली। पश्चिमी विचारों और वैज्ञानिक प्रगति से परिचय प्राप्त किया। उन्होंने अपने देश की दुर्व्यवस्था के कारणों की पहचान की और भारत की प्रगति का पथ खोजा। उन्होंने अपने देशवासियों से धार्मिक आडंबरों, सामाजिक रूढि़यों से मुक्त होकर आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भारत के निर्माण हेतु कार्य करने का आह्नान किया। इस उद्देश्य से वह निरंतर लिखते रहे और सामान्य जन को संबोधित करते रहे। भारतेंदु ने अपने समय की परिस्थितियों का विश्लेषण करने के पश्चात् भारत के समक्ष ‘मुंह बाये खड़ी’ समस्याओं और चुनौतियों के कारण और निवारण को समझने का प्रयास किया। उन्होंने ठीक समझा कि भारत की समस्याओं की जड़ औपनिवेशिक शासन व्यवस्था है, जिसके शोषण के विविध मंत्र हैं। भारतीय समाज का ढांचा, जिन मान्यताओं, पर आधारित है वह जीर्ण-शीर्ण है। भारतीयों में वैज्ञानिक चिंतन, आधुनिक शिक्षा और तकनीकी ज्ञान के अभाव पर भारतेंदु ने ‘भारत दुर्दशा’ में चिंता जाहिर की। भारत की उन्नति के लिए आवश्यक है कि इनका निराकरण किया जाये। नए ज्ञान-विज्ञान के आलोक में समाजिक मूल्य निर्धारित किए जाएं। औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति का प्रयास किया जाए। "कवि वचन सुधा" में वेदना पूर्ण स्वर में वह लिखते हैं:
"अमेरिकी उपनिवेश की तरह भारत भी अंग्रेजों से स्वाधीन हो जाए। बीस करोड़ भारतवासी पर पचास हजार अंग्रेज शासन करते हैं। ये लोग प्रायः शिक्षित और सभ्य हैं, परंतु उन्हीं लोगों के अत्याचार से भारतवासी गण दुखी रहते हैं।"
इस चिंता को भारतेंदु ने अपने नाटक में भारत पात्र के माध्यम से दिखाया हैः
कोऊ नहीं पकरत मेरो हाथ।
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ।।
भारतेंदु जी धर्मपरायण थे इसीलिए दैवीय प्रकोप को भी भारत के विषम परिस्थिति का कारण माना। अकाल, सूखा, महामारी आदि दैवीय प्रकोप पर भी चिंता जाहिर की। भारतेंदु ने नव जागरूक व्यक्तियों में मदिरापान पर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने अपने इस नाटक के पंचम सर्ग में सभ्यों की गोष्ठी में जागरूक वर्ग के भीरूपन पर भी चिंता प्रकट की है, जो व्यंग्य में माध्यम से है। कवि, एडीटर, बंगाली, महाराष्ट्री के द्वारा भारतेंदु ने अलगाव को दिखलाया है। आवश्यकता है, इनके एक होने की, जिससे राष्ट्र का कल्याण हो सके। वस्तुतः ‘भारत दुर्दशा’ जागरण का नाटक है। एक संवेदनशील नाटककार अपने दीन-हीन विपन्न राष्ट्र की उन्नति की आकांक्षा को नाटक में मूर्त रूप देता है। अपने समय की पड़ताल करते हुए भविष्य का स्वप्न देखता है। वह देश की दुर्दशा का चित्र उकेरता है तो इसलिए कि देश का कल्याण हो। वह खरी-खोटी सुनाता है तो, इसलिए की राष्ट्र की उन्नति हो। वह व्यंग्य करता है तो, इसलिए कि समाज का सुधार हो। वह राष्ट्र की प्रगति में अवरोधक तत्वों को तार-तार कर देना चाहता है। भारत अपने स्वर्णिम वैभव को प्राप्त करे, रूढि़यों, कुरीतियों से मुक्त हो। आर्थिक ही नहीं सामाजिक दृष्टि से समुन्नत राष्ट्र की कल्पना ही भारतेंदु का उद्देश्य था।
इस प्रकार यह नाटक औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठान की विकृतियों और तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक कु प्रवृत्तियों से क्षुब्ध हरिश्चंद्र बाबू के हृदय की पीड़ा की अभिव्यक्ति ही नहीं वरन् भारत के ‘पुनरूत्थान’ की ‘बाइबिल’ है। यह देश के ‘नवजागरण’ की ‘रामायण’ है, जिसका नायक कोई राजकुमार न होकर हत भाग्य भारत राष्ट्र है।Question : कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहां जगत की नाना गतियों में मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है।
(2004)
Answer : प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत चिंतामणि के ‘कविता क्या है?’ निबंध से उद्धृत है। आचार्य शुक्ल हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रतिनिधि निबंधाकार के रूप में स्थापित है। ‘कविता क्या है?’ निबंध एक बहुचर्चित निबंध है। इसमें कविता का स्वरूप समझाने के लिए सबसे पहले वासना का विचार किया गया है, तथा सभ्यता के बढ़ते आवरण का, फिर उसकी प्रसार सीमा का, फिर सृष्टि में मार्मिक तथ्य के संकेतों का। प्रस्तुत पंक्तियां कविता में वासना के विचार को स्पष्ट करता है। इससे पूर्व शुक्लजी ने कविता की परिभाषा दी है। अब कविता की विशेषताओं पर प्रकाश डाल रहे हैं।
शुक्ल जी के निबंधों में वैसी कसावट होती है, जैसी रूई की बंधी गांठ में। यदि उसको धुन या तूम कर विस्तृत किया जाए, तो निबंध का आकार कई गुना बढ़ जाएगा। उन्होंने प्राचीन मान्यताओं को अपने ढंग से और आधुनिक जिज्ञासा के रूप में व्याख्या की है। ‘वासना’ शब्द का अर्थ उन्होंने मानवजाति में आदिकाल से विकसित होने वाली मूल मनोवृत्तियों की छाप लिया है, जो वंशानुक्रम से चली आ रही है। पूर्वजन्म उन्होंने पूर्वजों को ही माना है। उन मनोवृत्तियों तक पहुंचना ही कविता का काम है। इससे एक प्रकार की हलचल होती है।
जैसे बरसाती गैदले पानी को जोर से वृत्ताकार घुमा कर छोड़ देने से उसमें की मिट्टी बैठ जाती है, पानी निर्मल हो जाता है, वैसे ही मनोवृत्तियों के मूल तक पहुंचने में जो आंदोलन होता है उससे मन के विकार छंटकर निकल जाते हैं। मनुष्य का अंतःकरण जीवन के विकास के साथ ही साथ दिन-प्रतिदिन विकृत होता जा रहा है। जीवन में संकुचता बढ़ती जा रहा है, जटिलता घनी होती जा रही है और बंधनों से वह जकड़ता चला जा रहा है। वह अपने सहज रूप से, प्रकृत या नैसर्गिक रूप से कृत्रिम रूप धारण करता जा रहा है। जिस प्रकार साधुओं-संतों की साधना में ‘सहज’ का माहात्म्य है, वैसे ही काव्य की साधना में भी। मनुष्य सहजानुभूति में ही लीन होकर मुक्ति लाभ कर सकता है। कविता हृदय को निर्मम करने वाला भावयोग है। वैसे ही इस भावयोग से अंतःकरण की शुद्धि होती है, जैसे हठयोग से शरीर और मन की शुद्धि होती है।
विशेषः 1. अपने अभिमान को प्रस्तुत करने में आचार्य शुक्ल का आत्मविश्वास ध्यान देने योग्य है। यह आत्मविश्वास उनके गहन लोकानुभव और आचार्यत्व को भी व्यंजित करता है।
2.विषय विवेचन को नैतिक स्पर्श और मोड़ देना भी आचार्य शुक्ल खूब जानते हैं।
3.यहां आचार्य शुक्ल की लाक्षणिक शैली द्रष्टव्य है।
4.शब्दों का चयन काफी कसावट लिए हुए है जो काव्यात्मकता को प्रकट करता है।
5.तत्सम बहुल शब्दों का प्रयोग हुआ है।
Question : तू जो बात नहीं समझती, उसमें टांग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता लगता कि किधर गये। गांव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है।
(2004)
Answer : प्रस्तुत गद्यांश ‘गोदान’ उपन्यास का है। कथा सम्राट प्रेमचंद इस उपन्यास के लेखक हैं। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य इतिहास के अग्रणी उपन्यासकार हैं तथा ‘गोदान’ हिन्दी साहित्य की प्रतिनिधि कृति। प्रस्तुत वाक्यांश होरी, जो कथा का नायक है, द्वारा कही गई है, जिसे धनिया, जो उसकी पत्नी है, कही गई। यह प्रसंग उस समय का है जब होरी जमींदार के पास जाने वाला है और धनिया उसक पास जाने से रोकती है।
होरी अपनी पत्नी धनिया को इंगित करते हुए कहता है, कि जब तुम बात को नहीं समझती हो, तो टांग क्यों अड़ाती हो। तुम्हारा जो काम है अर्थात् स्त्रियों को घर-बार के काम में ही अपनी मंशा देनी चाहिए। बाहर की बातों में टांग नहीं अड़ाना चाहिए। फिर होरी स्पष्टीकरण देता है कि जमींदार से मेल-जोल रखना कितना फायदेमंद है। यह जमींदार से मेल-जोल का ही फल है कि हम लोग अभी तक गांव में इज्जत के साथ रह रहे हैं, नहीं तो अब तक अन्य ग्रामीणों की तरह उनके कोप भाजन का शिकार बन गये होते। जमींदार के तिरछी नजर से ही किसी के घर बेदखली, तो किसी के घर कुर्की का आदेश आ जाता है। क्योंकि सभी किसान किसी न किसी तरह जमींदार के ऋणी हैं। इसी संदर्भ में होरी एक सूत्र वाक्य धनिया को कहता है कि जब दूसरे के पांवों के तले अपनी गर्दन दबी हुई हो तो, उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है। अर्थात् जब किसी व्यक्ति के ऋणी के तले कोई दबा हो तो उस व्यक्ति की तामीरदारी ही करना श्रेयस्कर है, जिससे कृपा दृष्टि बनी रहे।
विशेषः 1. प्रेमचंद ने प्रस्तुत गद्यांश में यथार्थ का चित्रण किया है। ग्रामीण समाज की वस्तुस्थिति पर सूक्ष्म दृष्टि डाला है।
2.‘जब दूसरे के पांवों……………………..कुशल है’ सूत्र वाक्य है।
3.प्रस्तुत पंक्तियों में स्त्रियों की दशा का भी पता चलता है, कि वे अपना विचार भी प्रस्तुत नहीं कर सकती हैं।
4.भाषा में ग्रामीण अंचल की महक आती है यथा- परसाद, कुड़की।
5.ग्रामीण संस्कृति की झलक दिखाई देती है। जिसके हाथों में लाठी का काफी महत्व है।
6.भाषा मुहावरों के प्रयोग से सशक्त हो गई है।
7.भाषा सरल एवं बोलचाल की है।
Question : अपने उपन्यास एवं कहानियों में प्रेमचंद की बुनियादी चिंताएं अपने समय की भी हैं भविष्य की भी हैं। इस विचार से आप कहां तक सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
(2004)
Answer : सिर्फ सतह पर दीखने वाली सच्चाई का ही नाम यथार्थ नहीं है। यथार्थ केवल चित्रण की भंगिमा को ही नहीं कहते, यथार्थ तो व्यक्ति और समाज, जीवन और संदर्भ के द्वन्द्वात्मक संबंध का आकलन है। यह अनावश्यक और आवश्यक का प्रतिनिधिक चित्रण है। प्रेमचंद की कहानियां एवं उपन्यास यथार्थवाद के क्रमिक विकास को रेखंकित करती हैं। उसमें हमारी तत्कालीन जीवंत परंपरा की तमाम विशेषताएं समाहित हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों एवं कहानियों में कथावस्तु, विचार और संरचना का एक सचेत विकास दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद रचना को स्वायत्त नहीं मानते थे। इसलिए उनकी रचनाएं व्यापक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार है। वे जो जीते थे, वही रचते थे। इसलिए जीवन और रचना का अद्वैत ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीना, सोचना और रचना उनकी रचना-प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। इसलिए प्रेमचंद जी की कहानियों और उपन्यासों में कलात्मकता और यथार्थपरकता के समवेत् रूप प्रस्तुत होता है।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी प्रगतिशील भूमिका खोकर जब पूंजीवाद युद्धोन्यादी, विस्तारवादी साम्राजय का रूप ले चुका था, उस समय हम भारतवासी ईस्ट इंडिया के चुंगुल से निकलकर तब सीधे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन थे। अंग्रेजों ने भारतीय समाज के पूरे ढांचे को तोड़ दिया था और इस तरह पुराने के छिन जाने और नए प्राप्त न हो पाने के कारण हमारी औपनिवेशिक जिंदगी में एक खास प्रकार की उदासी घिर गई थी। यह विषाद् का रंग ही हमारे यथार्थवाद की उल्लेखनीय विशेषता है। प्रेमचंद जी ने इस संक्रमणकालीन उदासी को अपने उपन्यास ‘गोदान’ या कहानी ‘कफन’ में तो चित्रित किया ही है, यह मानसोवर भाग-एक भी कहानी ‘पूस की रात’ में भी अपनी मार्मिकता और कलात्मकता के साथ उपस्थित है। ‘पूस की रात’ का हलकू अपनी खेती के अलाभकर हो जाने की वजह से ही उसकी क्षति की भरपाई मजदूरी से करता है। लेकिन, जब मजदूरी द्वारा जमा किए हुए तीन रूपये महाजन का करिन्दा झपट लेता है तो, हलकू की त्रासदी शुरू होती है। हलकू का मोहभंग कृषि-व्यवस्था से उसका मोहभंग हे। हलकू परिश्रम और परिश्रम के प्रतिफल में इस शोषक व्यवस्था के कारण जो दूरी पैदा हुई उसी कारण अलगाव का शिकार हुआ। उसका मोहभंग पाठक को उसके गहरे विषाद् से अवगत कराता है। साथ ही साथ एक ऐसी व्यवस्था का स्वप्नकल्पी भी बनाता है, जिसमें व्यक्ति अपने परिश्रम के अनुरूप उचित पारिश्रमिक पा सके। वर्तमान समय में भी यह प्रासंगिक है।
सर्वप्रथम प्रेमचंद के उपन्यासों का अवलोकन करते हैं। सेवा सदन उनका पहला हिन्दी उपन्यास है, जिसे स्वयं प्रेमचंद ने ‘हिन्दी का बेहतरीन नावेल’ कहा है। यह भारतेंदु युग से चली आती हुई वैचारिक समस्याओं- दहेज समस्या, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति आदि का प्रथम रचनात्मक रूपायन है। प्रेमचंद ने वेश्यावृत्ति को नहीं वैश्या जीवन को अपना विषय बनाया है। प्रेमचंद ने उसके साथ अपनी सहानुभूति ही नहीं दिखाई है, बल्कि उन तथ्यों का भी पर्दाफाश किया है, जो मध्यवर्गीय बहू-बेटियों को वैश्या बनने के लिए बाध्य करते हैं। इसकी जिम्मेदारी बहू-बेटियों पर नहीं स्वयं समाज पर है। झूठी मध्यवर्गीय मर्यादा भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस मर्यादा का पर्दाफाश ‘गोदान’ तक में किया गया है। गार्हस्थिक मर्यादा के लिए प्रेमचंद ने लड़कियों को गृहणी बनने की शिक्षा पर भी जोर दिया है।
‘प्रेमाश्रम’ की कथावस्तु ‘सेवा सदन’ से भिन्न है। किंतु आश्रम की स्थापना दोनों में होती है-एक में ‘सेवा सदन’ है, तो दूसरे में ‘प्रेमाश्रम’। सेवा सदन का कार्य सामाजिक कुप्रथाओं को दूर कर समाज और परिवार को व्यवस्थित करना है तो, प्रेमाश्रम में आर्थिक विषमताओं को हटाकर रामराज्य की स्थापना करना है। सेवासदन पर ‘आर्य समाज’ का प्रभाव है, तो प्रेमाश्रम पर गांधीवाद का और एक हद तक बोलशेविक क्रांति का।
रंग भूमि में सर्वहारा और पूंजीपति के बीच सीधा संघर्ष चित्रित है। पूंजीपति वर्ग के सहायक हैं, जमींदार और पुलिस। प्रेमाश्रम में संघर्ष तो था, पर उसका कोई केंद्रीय बिंदु नहीं था। महात्मा गांधी देश के औेद्योगिकरण के विरूद्ध थे। वे इस विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए कुटीर उद्योग को हितकारी समझते थे। इससे बेरोजगारी की समस्या हल होती है और औद्योगिकरण जन्य अमानवीय परिवेश भी उत्पन्न नहीं होता। रंगभूमि का मूलवर्तिनी कथा औद्योगिकरण के विरोध को ही लेकर चलती है। निर्मला, प्रतिज्ञा दो लघु उपन्यास हैं, जिसमे सामाजिक चिंताओं पर ध्यान दिया गया है।
‘गबन’ में मध्यवर्गीय कमजोरियों को बुनियादी तौर पर उद्घाटित किया गया है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने मध्यवर्ग की मज्जागत कमजोरियों को सामने लाकर उसे नंगा कर दिया है। यह वर्ग अपने खोखलेपन को बाहरी टीमराम प्रदर्शन आदि से आवृत करने की चेष्टा की है। ‘कर्म भूमि’ प्रेमाश्रम का अगला कदम है। ‘प्रेमाश्रम’ में मुख्यतः लेखक ने किसानों का ही संघर्ष चित्रित किया है, तो कर्म भूमि में मजदूर तथा किसान दोनों का। मजदूर म्यूनिस्पल कारपोरेशन के खिलाफ लड़ रहे हैं, तो किसान जमींदारों के खिलाफ। प्रेमाश्रम के किसानों में एकता नहीं थी, वे किसी मसले पर एकजुट नहीं हो पाते थे। किंतु कर्मभूमि में किसान संघटित हैं, उन्हें, मध्यवर्गीय नेता भी मिल गए हैं। इसमें स्त्रियों ने भी संघर्ष में सक्रिय ढंग से भाग लिया है।
‘गोदान’ प्रेमचंद का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसमें प्रेमचंद के जीवनानुभव आौर कलात्मक जगत् का सार है। इसकी देहली पर खड़े होकर प्रेमचंद ने स्वयं और अपनी रचनाओं तथा उनमें वर्णित संघर्षों तथा आदर्शों को ढ़हते हुए देखा और अपने को मोहभंग की स्थिति में पाया। गोदान में पूर्ववर्ती उपन्यासों और अनेक कहानियों की समस्याएं ली गई हैं। इसमें पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, घासवाली, पूस की रात कहानियां हैं। पंच परमेश्वर का पंच है पर वह परमेश्वर नहीं रह गया है। वस्तुतः गोदान में प्रेमचंद ने अपनी कृतियों का पुनरीक्षण परिवर्तन और नवीन संयोजन किया है। अब किसान पहले का किसान नहीं रह गया है और न जमींदर पहले का जमींदार है। दोनों चालाक हो गए हैं। न किसान आंदोलन करता है और न जमींदार सीधे अत्याचार। दोनों एक व्यवस्था में रह रहे हैं। व्यवस्था का विरोध कोई नहीं करता। प्रेमचंद ने पूर्ववर्ती उपन्यासों की तरह गांव की रीति-नीति, आचार-विचार को बचाने की कोशिश नहीं की है। होरी भी धरम और मरजाद की रक्षा में अपनी आहुति देता है। लेकिन न धरम बचता है न मर्यादा। घर की मर्यादा नष्ट हो जाती है, रूपा को दुहाजू के हाथ बेच देने से धर्म भी खत्म हो जाता है। जिस महाजनी सभ्यता का प्रेमचंद ने अपने उपन्यास में वर्णन किया है वह सर्वत्र व्याप्त है।
किसान समाज महाजनों से घिरा है। जमींदारों का शोषण उतना भयावह नहीं है, जितना महाजनों का जहरीला शोषण। लाला परमेश्वरी और पुरोहित दातादीन के ऋण प्लेग के कीटाणु की तरह घातक थे। महाजनी सभ्यता का ही दूसरा रूप पूंजीवादी सभ्यता है। प्रजातंत्र भी इसके जाल में फंसा हुआ है। मिर्जा खुर्शेद कहते हैं कि- "जिसे हम डिमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े जमींदारों और व्यापारियों का राज्य है और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रूपये हैं।" यह उक्ति आज के प्रजातंत्र पर कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक है। जिस तरह आज धन और बाहुबल का प्रयोग प्रजातंत्र में हो रहा है वह चिंतनीय है। इसी प्रकार, पूंजीवादियों के चक्कर में फंसी कांग्रेस पर फब्तियां कसते हुए प्रेमचंद लिखते हैं: "अगर आज सभी अंग्रेज अफसरों की जगह हिन्दुस्तानी आ जायें तब भी स्वराज्य से उतने ही दूर रहेंगे, जितने इस वक्त हैं।" स्वराज्य प्राप्त करने के पांच दशकों के बाद भी क्या हम स्वराज्य के निकट आ पाए हैं?
इसी प्रकार प्रेमचंद की कहानियां भी आदर्श से यथार्थ की ओर अग्रसर हुई हैं। इसे उनकी पहली हिन्दी कहानी ‘सौत’ से आखरी कहानी ‘कफन’ तक की विकास यात्रा में देखा जा सका है।
‘कफन’ तो अत्याधुनिक कहानी है। इसमें तो सभी पुराने संस्कार, धार्मिक रूढि़यां, संवेदना का बनाया ढांचा सभी टूट कर चकनाचूर हो जाते हैं। जिस मूल्यहीनता, अलगाव और आधुनिकता की आज चर्चा की जाती है, वह कफन में भी मौजूद है। ‘गैलेट’ ने कला के जिस अमानवीकरण का उल्लेख किया है, वह यहां पर भी है। पूंजीवादी व्यवस्था में गरीब तबके के मजदूर अपने उत्पादन तथा उपादक के साधनों से अलग होकर अपने संबंधों और समाज से अलग हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप उनकी मावनीय संवेदनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। धीसू और माधन ऐसे ही संवेदन शून्य पात्र हैं। जो लोग कफन में अस्वाभाविकता देखते हैं, वे यथार्थ का अर्थ नहीं समझ पाते।
‘कफन’ में अलगाव की स्थिति अनजाने और ऐतिहासिक मांग के फलस्वरूप आई है। इसी कारण मुक्तिबोध ने कहा है –"प्रेमचंद हमारे समाज के सिर्फ चित्रकर्ता ही नहीं, हमारी आत्मा के शिल्पी भी हैं।" उन्होंने यह अनायास नहीं कहा कि प्रेमचंद के पात्र भारतीय विवेक चेतना के प्रतीक हैं। उन्होंने ‘मां’ के मार्फत ‘प्रेमचंद’ शीर्षक निबंध में लिखा है कि –"हम प्रेमचंद का कथा साहित्य पढ़ते हुए एक उदार और उदात्त नैतिकता पालने लगते हैं। हम चाहने लगते हैं कि हममे वे ही गुण समा जाएं, जो प्रेमचंद के पात्रों में हैं। हम वैसा ही हो जाएं जो प्रेमचंद चाहते हैं।" ऐसा इसलिए कि प्रेमचंद की रचनाएं, हमें सिर्फ एक नजरिया ही नहीं देतीं, हमारी दिल की गांठे भी खोलती हैं।
प्रेमचंद की कहानियों में साम्राज्यवादी विरोधी चेतना के साथ सामंतवाद विरोधी चेतना भी मिलती है। यह सामंतवाद विरोधी चेतना उनके यथार्थवाद की एक अन्य मुख्य विशेषता है। ‘ठाकुर का कुंआ’ एवं ‘घास वाली’ जैसी कहानियों में इसी भाव को स्वतंत्रता से पूर्व प्रेमचंद ने दिखाया है, जो आज की नक्सली आंदोलन के कारण प्रासंगिक और समकालीन सी लगती है। ‘ठाकुर का कुंआ’ में प्रेमचंद ने व्यवस्थावाद विरोध का झंडा गंगों के हाथ में थमाया है। यह अछूत है, मजदूर वर्ग की है और नारी भी है। प्रेमचंद जानते थे कि जब तक व्यवस्था के सबसे निचले तल पर विद्रोह पैदा नहीं होगा, तब तक व्यवस्था की खाट उल्टी नहीं जा सकती। महाजनों, सामंतों और पुरोहितों की, जो व्यवस्था प्रकृति की देन पानी पर भी, अपनी इजारेदारी कायम करती है, जो पानी और प्यास के बीच दीवारें खड़ी कर समाज में दूरियां पैदा करती हैं, उसे जलाकर खाक किए बगैर मानवीय संबंधों का विकास नहीं हो सकता। ‘घासवाली’ कहानी की मुखिया चैन सिंह का चैन उड़ा देती है। उसकी सामंती अकड़ पर प्रहार कर, न केवल अपनी सहासिकता का परिचय दिया, बल्कि तथाकथित बड़ों की काम लोलुपता को भी बेपर्दा किया है। जो चैन सिंह पहले महज एक सवर्ण था, उसकी बंद आंखें खुल जाती हैं, वह अब आदमी हो जाता है।
हिन्दी साहित्य में आधुनिक चेतना का प्रवेश भारतेंदु युग से हुआ। भारतेंदु युग में ही यह आधुनिक चेतना गद्य के माध्यम से व्यक्त हुई। यह गद्य तत्कालीन नवजागरण परम् वैशिष्ट्य और उपनिवेशवादी सत्ता के विरोध का माध्यम बना। इस गद्य के विकास का दूसरा चरण द्विवेदी युग है और प्रेमचंद स्वयं इस गद्य के विकास के तीसरे चरण के लेखक हैं। निराला जी ने कहा था कि गद्य जीवन संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा है। प्रेमचंद की कथा-साहित्य इस जीवन संग्राम की गद्यात्मक अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त रूप है। यथार्थवाद चूंकि गद्य के माध्यम से ही आया इसलिए उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति सबसे अधिक गद्य में ही हुई। प्रेमचंद का गद्य जीवन की सच्चाइयों को उसकी प्रासंगिकता के साथ पकड़ता है और पाठक की चेतना को गतिशील करता है। वस्तुतः प्रेमचंद की कहानियां मानवोत्थान की कहानियां हैं। इसमें गूंगा, बेजुबान, दलित, दमित, वंचित अपने हकों के लिए लड़ते हुए दिखते हैं, जो नये भविष्य के निर्माण में लगे हैं।
Question : विजय का क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा देगा? कभी नहीं। वीरों का भी क्या ही व्यवसाय है, क्या ही उन्मत्त भावना है। चक्रपालित! संसार में जो सबसे महान है, वह क्या है? त्याग! त्याग का ही दूसरा नाम महत्व है। प्राणों का मोह त्याग करना वीरता का रहस्य है।
(2004)
Answer : प्रस्तुत पंक्तियां जयशंकर प्रसाद द्वारा विरचित नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ के द्वितीय अंक के प्रथम दृश्य से ली गई है। विजया ने देवसेना के समक्ष स्वीकार किया है कि उसका हृदय स्कन्दगुप्त के सामने कुछ मधुर हुआ है। वे दोनों चली जाती हैं। इस कथन में सकन्दगुप्त विजय के संबंध में अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर रहा है। वह चक्रपालित से कहता है।
हम लोग सैनिक हैं, हम लोग विजयश्री प्राप्त कर लेते हैं, किंतु इस विजय से प्राप्त होने वाला हर्ष उल्लास क्षणिक ही होता है। इसलिए विजय हमारे हृदय को कभी भी वास्तविक खुशी या शांति कभी नहीं देती है।
युद्ध और उसमें विजय प्राप्त करने का मोह मतवाला होता है। इस मतवाली भावना के कारण ही हम युद्ध में समस्त मोह त्याग कर सदा निरत रहते हैं।
वीर निरंतर युद्ध में लगे रहते हैं, उनका तो व्यवसाय ही युद्ध में लगे रहना है। किंतु चक्रचालित, इस विश्व में युद्ध या जीत से बढ़कर भी एक अन्य भावना है और वह है त्याग की भावना। यह त्याग किसी भी महान् एवं उच्च कार्य के लिए किया जाता है। वीरता का सबसे बड़ा महत्व है, इस विश्व के मायाजाल का मोह त्याग कर, सिर पर कफन बांधकर जान हथेली पर लिए हुए वीरतापूर्वक युद्धभूमि में पदार्पण करना और वीरता का रहस्य और कसौटी है, अपनी प्रिय मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना।
विशेषः 1. यहां विजय की उन्मत्त भावना के स्थान पर त्याग की भावना को श्रेष्ठ बताया गया है।
2.स्कंदगुप्त के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है कि वह विजय के प्रति अनासक्त है एवं त्याग के प्रति आसक्त है।
3.भाषा अलंकारिक, काव्यात्मक एवं संस्कृतनिष्ठ है।
Question : ऐतिहासिक उपन्यास लिखने के पीछे यशपाल की विशेष रचना-दृष्टि रही है; दिव्या के आधार पर उक्त विशेष रचना-दृष्टि की आलोचना कीजिए।
(2004)
Answer : यशपाल सामाजिक यथार्थ की परंपरा के लेखक हैं। यशपाल स्वाधीनता-संग्राम में क्रांतिकारी संगठन के अग्रणी योद्धा थे, राजनीतिक दृष्टि से मार्क्सवाद और समाजवाद से प्रतिबद्ध थे। यही कारण है कि वे समकालीन जीवन के अनुभवों को अपनी रचनाओं में बेधड़क कुशलतापूर्वक व्यक्त करते रहे हैं। ऐसे रचनाकार की दृष्टि भविष्य पर होती है और वह वर्तमान में संघर्ष करता है। समाज को बदलने और नया समाज रचने की दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि कोई मनुष्य अतीत की रचना या पुनर्रचना नहीं कर सकता, लेकिन प्रसंग में ध्यान देने की बात है कि वर्तमान समाज की यथा स्थितिवादी, प्राचीन भारतीय समाज की रूढि़वादी शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं। इसीलिए समाज में क्रांतिकरी परिवर्तन करने वालों के लिए यह जरूरी है कि वे भारतीय समाज की बनावट और उसकी विभिन्न संस्थाओं तथा विचारधारा के इतिहास और उसकी भूमिका को समझें। इसी दृष्टि से क्रांतिकारियों और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध लोगों ने कम्युनिष्टों ने भारतीय इतिहास का अध्ययन किया है।
दिव्या हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार यशपाल का बहुचर्चित उपन्यास है। यह उपन्यास पाठकों को ऐतिहासिक कथा का बोध और आनंद देता है, लेकिन लेखक ने स्वंय प्राक्कथन में कहा हैः
"दिव्या इतिहास नहीं ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है।"
फिर उन्होंने यह भी कहा हैः
"लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रत्यन किया है।"
दिव्या की कथा काल्पनिक है, उसके सभी पात्र काल्पनिक हैं, फिर भी दिव्या को पढ़ते हुए यह बोध पाठकों को होता है कि वे ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ रहे हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वातावरण के निर्माण में सफलता का पहला प्रमाण दिव्या की कथा में तीन ऐतिहासिक नायकों के नामों का प्रसंगवश जिक्र किया गया है। वे नायक कथा में पात्र बनकर नहीं आये हैं। वे तीन हैं- पुष्यमित्र, मिलिंद और पतंजलि। यशपाल ने इतिहास के धरातल पर कल्पना के सहारे कथा का ऐसा ढांचा खड़ा किया है, जो भारतीय समाज की ऐतिहासिक समझ तो देता ही है भविष्य का संकेत भी देता है। लेखक ने स्वयं प्राक्कथन में लिखा हैः
"अपने अतीत का मनन और मंथन हम भविष्य के लिए संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं। वर्तमान में अपने आपको असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत में अपनी क्षमता का परिचय पाते रहे।"
इस बात को हम पूरी तरह तभी समझ सकेंगे, जब यशपाल भी चेतना को ठीक से समझ लेंगे। दोनों के संबंधों के स्वरूप पर ही दिव्या के लेखन की दृष्टि सात हो सकेगी।
यशपाल ने क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय कार्यकर्ता और नेता के रूप में स्वाधीनता संग्राम में जम कर भाग लिया। वे भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के द्वारा स्थापित ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के नेतृत्वकारी सदस्यों में से एक थे। इससे इतना स्पष्ट है कि वे स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी समाजवादी थे। इसलिए वे मार्क्सवादी भी थे। यशपाल परंपरागत भारतीय समाज को क्रांतिकारी ढंग से बदलकर समाजवादी समाज की रचना करने को प्रतिबद्ध और समर्पित थे। अतीत की पुनर्रचना नहीं हो सकती। लेकिन वर्तमान को बदलकर एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें समानता हो, शोषण नहीं हो, नागरिकों को स्वतंत्रता प्राप्त हो, उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र एवं स्वायत्त विकास हो।
प्राचीन भारत में महात्मा बुद्ध ने वैदिक कर्मकांड को, वेदों और ब्राह्मणों की प्रभुता को चुनौती दी। उन्होंने अपनी समय में आम जनता को सरल सामान्य भाषा में नया संदेश दिया, उन विचारों ने जोरदार आंदोलन का रूप ले लिया। अनेक सदियों तक बौद्ध आंदोलन का प्रभाव भारतीय समाज पर छाया रहा। इसलिए आधुनिक युग के क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन के योद्धाओं का ध्यान स्वाभावतः बौद्ध आंदोलन की ओर जाता है। लेखक का कहना है कि "परिवर्तन का सत्य इतिहास का तत्व है, परंतु परिवर्तन की इस श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए व्यक्ति और समाज का प्रयत्न निरंतर विद्यमान रहा है। वहीं, सब परिवर्तन की प्रेरकशक्ति है।" यशपाल अपने पाठकों को यही प्रेरणा देना चाहते हैं, परिवर्तन की, भविष्य के निर्माण की।
यशपाल अपने समय में जिन प्रश्नों से जूझ रहे थे, उन्हीं प्रश्नों पर बौद्धकाल में विकट संघर्ष उन्होंने देखा। समाज की बनावट विभिन्न तबकों के सामाजिक संबंध, नारी की स्वतंत्रता या स्त्री-पुरूष संबंध का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण और ज्वलंत प्रश्न है। यशपाल के बाद आज भी हम इस प्रश्न को लेकर परेशान हैं। इसलिए दिव्या को बनाकर यह कथा रची गयी तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। इस कथा में ध्यान देने वाली बात यह है कि दिव्या के माध्यम से केवल नारी की स्वतंत्रता नहीं, मनुष्य-मात्र की स्वतंत्रता का प्रश्न उठ खड़ा होता है। स्वतंत्रता सेनानी लेखक यशपाल स्वतंत्रता को व्यापक सामाजिक संबंधों के बीच देखते हैं। प्राक्कथन में वे कहते हैं- "इतिहास के मंथन से प्राप्त अनुभव के अनेक रत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है-मनुष्य भोक्ता नहीं कर्ता है। संपूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। उसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था- "न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित।" महाभारतकार का यह कथन मनुष्यत्व के पुरूषार्थ, मनुष्य की मर्यादा की रक्षा करने और विकसित करने की तीव्र चिंता को ही व्यक्त करता है। लेकिन समाज का इतिहास बताता है कि अब तक यह चिंता सार्थक नहीं हो पायी है।
दिव्य के माध्यम से लेखक ने दिव्या, पृथुसेन, रूद्रवीर, मारिथ, मृगुशर्मा, आदि के चरित्रों के दृष्टांत से व्यक्त लाचारी का मार्मिक चित्रण किया है। इन सबकी विवशता उनकी अपनी-अपनी मान्यताओं से ही संपन्न होती है। यही बात है, जो आधुनिक युग में मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले यशपाल को लगभग दो हजार साल पहले के भारतीय समाज में हुए संघर्षों की कल्पना के लिए प्रेरित करती है। जाहिर है कि ‘दिव्या’ की रचना का प्रेरणा स्रोत बौद्धकालीन भारत नहीं, बल्कि समकालीन भारत है, समकालीनता की सीमा तोड़कर भविष्य की ओर बढ़ने का, नये भविष्य का निर्माण करने का ध्येय है। आज के सामाजिक तथा वैचारिक संघर्षों में सही विचारधारा के चयन की आवश्यकता भी उसके पीछे रही है। कोई संघर्ष सही विचारधारा के अभाव में सार्थक और सफल नहीं हो सकता, इतिहास में भी कभी नहीं हुआ है।
यशपाल स्वतंत्रता सेनानी थे। जिन हाथों से वे नुकीली कलम जीवन की अंतिम सांस तक चलाते रहे और मनुष्यता के दुश्मनों को चुनौती देते रहे, उन्हीं हाथों से अपनी जवानी में शहीदे आजम भगत सिंह के साथ पिस्तौल भी चला चुके थे। पिस्तौल चलायी उन्होंने साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ, उनसे भारत के मेहनतकशों की शक्ति तथा समाजवाद के निर्माण के लिए। इस सिलसिले में अपने समय के भारतीय समाज की रूढि़वादी, पुनरूत्थानवादी, प्रतिक्रियावादी शक्तियों से लड़ते हुए, उन्होंने महसूस किया कि इन प्रतिगामी शक्तियों का इतिहास है और दर्शन भी। स्वाभावतः अन्य क्रांतिकारियों की तरह लेखक यशपाल की नजर भी अपने समय की रूढि़वादी तथा पुनरूत्थानवादी शक्तियों के इतिहास पर गयी, लेकिन इतिहास एकतरफा नहीं होता है। यदि प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियों का, मनुष्यता विरोधी शक्तियों का इतिहास है, तो प्रगतिशील और क्रांतिकारी शक्तियों का भी इतिहास है। मानवतावादी शक्तियों का भी इतिहास है। शाश्वतवादी और परिवर्तनकारी, दोनों ही प्रकार की विचारधाराओं का इतिहास है। इतिहासकारों और विचारकों ने इतिहास की इस द्वन्द्वात्मकता का अध्ययन किया है। यशपाल ने एक रचनाकार के रूप में यह काम करने का प्रयत्न किया है। वे अपने समय में गांधीवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद आदि से लड़ते हैं, उनकी समीक्षा करते हैं। उन्होंने प्राचीन भारत में पुनरूत्थानवाद का स्वरूप और उसकी भूमिका को बेपर्द करके ही चार्वाक के भौतिकवाद को एक मानवीय विचारधारा के रूप में श्रेयस्कर बताया है। लेखक का निष्कर्ष वैचारिक बहस के माध्यम से नहीं, बल्कि दिव्या के जीवन संघर्ष के अनुभवों के निचोड़ के रूप में प्राप्त होता है। यह प्रक्रिया मारिथ और दिव्या के मिलन को यानी वर्णवादी पुनरूत्थानवाद और सामाजिक धारा से कटे बौद्ध विहार से बेहतर अनुभव सिद्ध जीवन-मार्ग को प्रस्तुत करती है। विचारधारा से साहित्य का लगाव कोई नयी बात नहीं है। पुराने समय से विचारधारा और साहित्य का संबंध देखा जा सकता है। साहित्य का इतिहास बताता है कि श्रेष्ठ साहित्य मानवतावादी विचारधारा के बिना स्वरूप नहीं ले पाता। कबीर, सूर और तुलसी के काव्य इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं। यशपाल तो उस दौर के लेखक हैं, जब भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक उथल-पुथल मचा हुआ था। यही दौर है पूरे भारतीय इतिहास में, जब मनुष्य ने संगठित होकर इतिहास की निर्णायक शक्ति के रूप में जागरूक भूमिका अदा की। इसी भूमिका के आधार पर तो बीसवीं सदी को मानवता और जनतंत्र के लिए संघर्षों तथा विजय की सदी कहा जा रहा है। इसलिए दिव्या का जो मानवीय एवं वैचारिक पक्ष है, वह प्रचारात्मक नहीं है, वह आरोपित नहीं है। वह मानव जीवन प्रक्रिया से प्राप्त ऐसा सत्य है, जो मनुष्य का मार्गदर्शन करता है उसे शक्ति देता है, उसके पुरूषार्थ का जगाता है। यही दिव्या के रचना की दृष्टि है।
Question : यह तो सुकुल बाबू ही हैं कि टिक हुए हैं। केवल टिके हुए ही नहीं, सबको ठिकाने लेकर टिके हुए हैं। पर मन बेहद क्षुब्ध हो गया है उनका। उन्हें खुद लगने लगा कि राजनीति गुण्डागर्दी के निकट चली गई है। जिस देश में देवतुल्य राजनेताओं की परंपरा रही हो, वहां राजनीति का ऐसा पतन!
(2004)
Answer : प्रस्तुत गद्यांश महाभोज से ली गई है। मन्नु भंडारी महाभोज की लेखिका हैं। समकालीन उपन्यासकारों में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। महाभोज एक समकालीन उपन्यास है, जो वर्तमान समाज की विदूषताओं को ध्यान में रख कर लिखा गया है। प्रस्तुत उद्धरण लेखिका का है, इससे कथा के मुख्य पात्र सुकुल बाबू के व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।
वर्तमान समय के राजनीति में अपराधियों की बढ़ती भूमिका के परिप्रेक्ष्य में लेखिका ने रोचक एवं व्यंग्यात्मक शैली में सुकुल बाबू के व्यक्तित्व बता रही हैं। वे कहती हैं कि अपराधियों के आगमन के बावजूद सुकुल बाबू अपनी राजनीति का सिक्का जमाये हुए ही हैं। इतना ही नहीं वों अपने विरोधियों को भी खड़ा होने नहीं देते, जबकि वे पक्का कांग्रेसी है, अहिंसा में पूर्ण विश्वास है, गांधी जी और उनके मूल्यों में पूरी आस्था प्रकट करते हैं। वो भी आज के गुण्डागर्दी भरी राजनीति से क्षुब्ध हैं। लेकिन सिर्फ क्षुब्ध, समय के साथ वो इससे समझौता कर चुके हैं। मुखौटे के पीछे उनका दूसरा रूप जन्म ले चुका है। लेकिन उनके मन में भी पुराने जमाने की राजनीति में आस्था है, जिसमें हिंसा का कहीं भी नाम न था। लोग भयमुक्त समाज का निर्माण करते थे। लोगों में राजनेताओं के प्रति आस्था थी। लेकिन आज वो खत्म हो चुकी है। जिससे सुकुल जी भी दुखी हैं।
विशेषः 1. वर्तमान राजनीति के संदर्भ में लेखिका का यथार्थ चित्रण।
2. अलंकारों के प्रयोग से भाषा सशक्त हो गई है।
3. भाषा सरल एवं रोचक है साथ ही काव्यात्मक भी।
Question : ‘---- तुम्हारे दुःख की बात भी जानती हूं। फिर भी मुझे अपराध का अनुभव नहीं होता। मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूं, जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है।’
(2003)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यावतरण प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश द्वारा विरचित ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक से उद्धृत है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश का पहला और सर्वोत्तम नाटक ही नहीं, आज के हिन्दी नाटक की पहली महत्वपूर्ण उपलब्धि भी है। यह नाटक मोहन राकेश को हिन्दी के शीर्षस्थ नाटककारो में प्रतिष्ठित करता है और हिन्दी नाटक और रंगमंच को भारतीय नाटकों और रंगमंच को समकक्ष लाता है।
व्याख्याः इस नाटक के प्रारंभ में वर्षा से भीगी हुई मल्लिका घर लौटती है और अपनी मां अम्बिका से अपनी मनोदशा के बारे में बताती है। उसी दौरान कुछ कोलाहल और घोड़े की टापों की आवाज सुनायी देती है। संभवतः ये राज्य के कर्मचारी हैं। अम्बिका बताती है कि अग्निमित्र लौट आया है और संदेश लाया है कि वे लोग तुम्हारे विवाह के संबंध के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। इस पर मल्लिका कहती है कि उन्हें क्या अधिकार है कुछ भी कहने का? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है, वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है। मल्लिका यहां भावनात्मक हो जाती है और मां से कहती है। ऐसा मत कहो, मैं तुम्हारे दुख की बात समझती हूं। लेकिन भावना और प्रेम को लेकर उसके मन में कोई अपराध भाव भी नहीं है। कहती है- मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूं, जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है। मल्लिका जीवन की केवल स्थूल आवश्यकताओं तक सीमित रहने को जीवन जीना नहीं मानती।
विशेषताः 1- इस गद्यांश से मल्लिका के चरित्र के उत्कर्ष और अत्यंत सजीव रूप का मार्मिक, आंतरिक द्वंद्व दिखई देता है।
2. मल्लिका भावना और प्रेम को जीवन का अभिन्न अंग बनाने वाली एक ग्रामीण बाला है, पर बहुत संवेदनशील। इस अवतरण से पता चलता है।
3. मोहन राकेश की नाट्य भाषा काव्यमय सी प्रतीत होती है। इसमें रोचकता और प्रवाहमयता विद्यमान है।
4. कोमलकांत पदावली का प्रयोग है।
Question : केवल असाधारणत्व की रुचि सच्ची सहृदयता की पहचान नहीं है। शोभा और सौंदर्य की भावना के साथ जिनमें मनुष्य जाति के, उस समय के पुराने सहचरों की वंश परम्परागत स्मृति वासना के रूप में बची हुई है, जब वह प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरती थी, वे ही पूरे सहृदय भावुक कहे जा सकते हैं।
(2003)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत अवतरण सुप्रसिद्ध आलोचक एवं निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध संग्रह ‘चिन्तामणि’ भाग एक के निबंध ‘कविता क्या है?’ निबंध से उद्धृत है। इस अवतरण में निबंधकार शुक्ल जी ने ‘कविता और सृष्टि प्रचार’ की व्याख्या की है। कहा है कि असाधारणत्व की ओर रुचि रखना ही सहृदयता की पहचान नहीं है।
व्याख्याः हृदय पर नित्य प्रभाव रखने वाले रूपों और व्यापारों की भावना को सामने लाकर कविता बाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की अंतः प्रकृति का सामंजस्य घटित करती हुई, उसके भावात्मक सत्ता के प्रकार का प्रसार करती है। मनुष्यता के लिए आवश्यक है कि अपने भावों को समेट कर मनुष्य अपने हृदय को शेष सृष्टि से किनारे न करे। साहचर्य-सम्भूत रस के प्रभाव से सामान्य सीधे-सादे चिर परिचित दृश्यों में कितने माधुर्य की अनुभूति होती है, यह कालिदास की कृतियों में मिल जाता है। अतः सिर्फ असाधारणत्व को कविता में खोजना ही सहृदयता की श्रेणी में नहीं आता है। शुक्ल जी कहते हैं कि परंपरागत और सामान्य चीजों में भी शोभा और सौन्दर्य की प्राप्ति हो सकती है। अतः सच्चा सहृदय वही होगा जो जन-सामान्य वासना से उद्रेक हो। अनंत रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है, कहीं मधुर, सुसज्जित या सुंदर रूप में, कहीं रूखे, बेडौल या कर्कश रूप में, कहीं भव्य विशाल या विचित्र रूपों में, कहीं उग्र, कराल या भयंकर रूप में, सच्चे कविता हृदय उसके इन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुख बोध नहीं, बल्कि प्रफुल्ल प्रसून प्रसार के सौरभ संचार, मधु-गुंजार, शीतल सुख-स्पर्श साहचार्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है, जो केवल समीर आदि की चर्चा किया करते हैं, वे भोग लिप्सु हैं। साथ ही केवल मुक्ताभास, हिम-बिंदु, मंडित मरकताम आदि के भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं, वे तमाशा बीन हैं, सच्चे भावुक या सहृदय नहीं। प्रकृति केसाधारण-असाधारण दोनों में ही समान रूप से रमना ही सहृदयता की पहचान है।
विशेषताः 1. शुक्ल जी की निबंध शैली की विशिष्टता है कि पहले व्याख्या कर फिर अंत में निष्कर्ष देते हैं।
2.साधारण एवं असाधारण दोनो में रमने के कारण ही कालिदास, तुलसीदास, वाल्मीकि जैसे कवि आज भी श्रेष्ठ माने गये हैं।
3.भाषा सुसंस्कृत, सुगठित है एवं प्रवाहमयी है।
Question : शिल्प एवं भाषा शैली की दृष्टि से ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ कर तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
(2003)
Answer : हिन्दी आलोचना में उपन्यास शिल्प की अवधारणा को लेकर बहुत अस्पष्टता है। कुछ आलोचक ‘शिल्प’ का प्रयोग ‘कला’ के अर्थ में करते हैं और कुछ शैली के अर्थ में, कुछ दोनों को मिला देते हैं। वस्तुतः शिल्प शैली और कला दोनों से संबद्ध होने पर भी अपनी प्रकृति में उनसे भिन्न और विशिष्ट होता है। उपन्यास का शिल्प उसके कथा संसार की बनावट में निहित चातूर्य का नाम है। उपन्यास शिल्प की दो अत्यंत प्रचलित प्रविधियों ‘दृश्यात्मक’ और ‘परिदृश्यात्मक’ नाम से जानी जाती हैं। दृश्यात्मक प्रविधि में पाठक बोध के धरातल पर उपन्यास में घटित किसी प्रसंग या दृश्य के बिलकुल पास होता है और उस घटित दृश्य तथा चलते हुए वार्तालाप को खुद देखता, सुनता है। पाठक और दृश्य के बीच उपन्यासकार की उपस्थिति नहीं होती। ‘परिदृश्यात्मक’ प्रविधि में पाठक की चेतना के समक्ष एक फैला हुआ दृश्य का विस्तार होता है, जिसे वह उपन्यासकार द्वारा प्रदत्त ऊंचाई से देखता और अनुभव करता है।
‘गोदान’ प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास है और प्रेमचंद उन उपन्यासकारों में हैं, जिनकी कला निरंतर विकास मान होती है। गोदान में प्रेमचंद की कला संवेदना, यथार्थ की पहचान और प्रस्तुति, शिल्प और भाषा शैली सभी दृष्टियों से अपने उत्कर्ष पर अवस्थित है। प्रेमचंद के उपन्यासों में मुख्य रूप से दृश्यात्मक और परिदृश्यात्मक शिल्प प्रविधियों का ही प्रयोग हुआ है और गोदान इसका अपवाद नहीं है। गोदान के प्रथम पृष्ठ में ही पाठक अपने को एक दृश्य के सामने पाता है। यह गंवई गांव का एक बड़ा ही परिचित घरेलू दृश्य है। किसान होरी बैलों को सानी-पानी देकर अपने जमींदार के यहां जाने की हड़बड़ी मचा रहा है और उसकी पत्नी धनिया, जिसके हाथ गोबर में सने हैं, उससे रस पानी लाने का आग्रह कर रही है। दोनों में इस बात को लेकर नोक-झोक चल रही है और पाठक बिल्कुल पास में अवस्थित होकर इस दृश्य का अवलोकन करता है। साथ ही प्रेमचंद शुद्ध किस्सागो रूप में भी पाठक को सम्बोधित करने लगते हैं, लेकिन गोदान में प्रेमचंद का यह रूप उनके पूर्ववर्ती उपन्यासों की तुलना में कम है। गोदान में प्रेमचंद या तो पाठक को किसी दृश्य के समक्ष अथवा किसी पात्र के मनोदशा में अवस्थित कर देते हैं या उसे किसी ऊंचे स्थान पर खड़ा करके अपने वर्णन की दूरबीन थमा देते हैं। कथाकार के रूप में हस्तक्षेप वे नहीं करते हैं, जहां उन्हें कोई अपनी बात कहनी होती है, परिवेश का वर्णन करना होता है, किसी पात्र का चरित्र-चित्रण या उसके मनोभावों का उद्घाटन करना होता है। गोदान में प्रेमचंद का कथाकार पूर्णतः नेपथ्य में तो नहीं रहता, पर अब वह रंगमंच पर मनमाना और अनावश्यक प्रवेश नहीं करता।
‘गोदान’ के कथा शिल्प के प्रसंग में सबसे अधिक विवाद इस विषय पर है कि उसकी कथावस्तु सुसंगठित नहीं है। गुलाब राय के अनुसार "गोदान में गांव के चित्र अधिकारिक रूप से तथा शहर के चित्र प्रासंगिक रूप से आया है।" रामविलास शर्मा के अनुसार "केवल निर्माण की दृष्टि से स्वयं प्रेमचंद सेवा सदन को फिर न पा सके।" स्वर्गीय नलिन विलोचन शर्मा ने बहुत पहले अपने एक लेख में इस धारणा का खंडन करते हुए ‘गोदान’ की कथावस्तु में दीख पड़ने वाली असम्बद्धता को ही उसके शिल्प की मौलिकता और वैशिष्ट्य घोषित किया। गोदान का मुख्य विषय है, भारतीय समाज, विशेषकर ग्रामीण समाज, में व्याप्त शोषण और उससे उत्पन्न यथार्थ का चित्रण। होरी, राय साहब और गोबर की कथाओं का यह विषय है। इन तीनों में होरी की कथा प्रमुख है। ‘गोदान’ की ग्राम कथा स्थापत्यगत सुसम्बद्धता पूर्णता और सुडौलता की दृष्टि से प्रायः निर्दोष है। पर इस कथा के साथ दुर्बल सूत्र से जुड़ी अन्य कहानियों के शिल्पगत औचित्य के संबंध में प्रेमचंद के आलोचकों में एक नहीं है। राय साहब की कथा ग्राम कथा को उसकी संपूर्णता में, प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण योग देती है। होरी और राय साहब एक ही आर्थिक व्यवस्था के दो पहलू हैं, अतः उनकी कथाएं समानांतर रूप से चलकर भी एक-दूसरे से अविच्छिन हैं। परंतु मिनाक्षी, मालती मेहता और खन्ना गोविंदी की कथा गोदान के स्थापत्य के सौन्दर्य को धूमिल करती है। इनके द्वारा कथाकार अपनी मान्यताओं के अनुरूप नारी आदर्श और प्रेम के आदर्श का निरूपण किया है, लेकिन यह उपन्यास के मूल विषय से सर्वथा असम्बद्ध है। गोदान की ग्रामंतर कथा के कुछ और प्रसंग उसकी संरचना में अनावश्यक जोड़ की तरह मालूम पड़ते हैं। ऐसे प्रसंगों में राय साहब के यहां ‘सगुन’ के अवसर पर पंडित ओंकारनाथ को शराब पिलाने का प्रसंग, पो. मेहता का अफगान का स्वांग, मिर्जा साहब की कथा, बूढ़ो की कबड्डी प्रतियोगिता आदि प्रसंग उल्लेखनीय हैं।
इसी प्रकार ‘मैला आंचल’ के मूल ढ़ांचे के रूप में रेणु ने सुपरिचित कथा प्रविधि दृश्यात्मक-परिदृश्यात्मक को ही ग्रहण किया। जिसमें बारी-बारी से दृश्यात्मक और परिदृश्यात्मक प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। प्रेमचंद ने इन प्रविधियों का अलग-अलग और मिश्रित प्रयोग करने में अतिशय सजगता का परिचय दिया था। रेणु ने इन प्रविधियों में कुछ और भी नये आयाम जोड़ने की कोशिश की है।
रेणु की विशेषता यह है कि उन्होंने परिदृश्यात्मक प्रविधि के द्वारा कथा को ‘प्रस्तुत’ ही नहीं किया है, उसे नाटकीय भी बना दिया है। परिदृश्यात्मक प्रविधि को एक साथ दृश्य और श्रव्य बना देने की कला में रेणु अद्वितीय हैं। इस कथन के प्रमाण स्वरूप ‘मैला आंचल’ का प्रथम पृष्ठ अवलोकनीय है। उपन्यास की पहली पंक्ति ही हैः
"गांव में यह खबर तुरंत बिजली की तरह फैल गयी मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्रतार कर लिया है और लोबिन लाल के कुएं से बाल्टी खोलकर ले गये हैं।"
इस वाक्य के प्रथम खंड में पाठक कथाकार की उपस्थिति का बोध करता है, उससे एक ‘खबर’ सुनता है, पर वाक्य के उत्तरार्द्ध में कथाकार की आवाज के स्थान पर अपढ़ ग्रामीणों का स्वर गूंजता प्रतीत होता है। इस प्रकार रेणु ने जहां भी परिदृश्यात्मक पद्धति का सहारा लिया है, वहां केवल अपने कथाकार का उपयोग नहीं किया है, उसके साथ उन्होंने उपन्यास के पात्रों का भी मिश्रण कर दिया है, जो तथ्य को आगे बढ़ाने के साथ-साथ अपनी हरकतों और बातचीत से अपना स्वभाव, अपनी आर्थिक-समाजिक स्थिति और अपनी मानसिकता को भी परत दर परत खोलते चलते हैं। रेणु की भी यह विशेषता है कि वे शुद्ध किस्सागों के रूप में कथा कहते भी हैं, बिलकुल इत्यमीनान से पाठकों को विश्वास में लेकर और कथा-संग्रह के पात्रों के साथ एकमेव होकर, यहां वे अपने पाठकों को संबोधित करते हुए लगते हैं, और पाठक इसको बुरा नहीं मानता। कथा के प्रस्तुतिकरण में रेणु ने एक और प्रविधि का बहुत सफल उपयोग किया है।
वे अपने कथाकार को पात्रों की चेतना से इस प्रकार जोड़ देते हैं कि दोनों का अंतर मिट जाता है और कथा में एक अपरिचित नया स्वाद आ जाता है। पाठक एक साथ पात्र और कथाकार के अर्द्धनारीश्वर रूप का अनुभव करता है। रेणु जब स्वयं कथा कहते हैं तो उसे पात्रों की हरकतों, भाव-भंगिमाओं, विस्मय बोधक पदों और छोट-छोटे वार्तालापों से इस प्रकार मिला देते हैं। किस्सागो वाली एक रसता बिलकुल समाप्त हो जाती है और नाटकीय प्रभाव की सृष्टि हो जाती है। बावनदास और आभारानी के गिरफ्रतार होने के प्रसंग का वर्णन इसी प्रविधि में किया गया है। रेणु की एक विशेषता यह है कि वे कुछ दृश्यों को ध्वन्यात्मक प्रभाव से युक्त करके उन्हें और भी नाटकीय और सजीव बना देते हैं कि इससे प्रस्तुत प्रसंगों में दृश्यता के साथ-साथ श्रव्यता का प्रभाव भी उत्पन्न हो जाता है। रेणु ने कुश्ती के ताल-मेल में इन ‘बोलो’ की योजना करके दृश्यों को एक संगीतात्मक प्रभाव से युक्त कर दिया हैः-
‘ढ़ाक दिन्ना, ढ़ाक ढि़न्ना’
अर्थात्-आजा, आजा, आजा, आजा।
एवं ‘चटधा-चटधा, चटधा गिड़धा।’
अर्थात्- आजा भिड़जा, आजा भिड़जा।
इस उद्धरण से रेणु का ताल-ज्ञान तो प्रकट है ही, कथा की प्रस्तुति में इसका एक मौलिक उपयोग भी प्रशंसनीय है। इसी प्रकार लोक कथाओं की कडि़यों की सहायता से कथा को अग्रसर करने की प्रविधि का भी रेणु ने बहुत अच्छा प्रयास किया है। पात्रों के स्वगत-चिंतन के रूप में कथा प्रस्तुत करने की प्रविधि का प्रयोग भी मैला आंचल में किया गया है तथा स्वगत चिंतन की प्रविधि का ही दूसरा रूपंतरण पत्रत्मक प्रविधि की भी।
भाषाः भाषा ही उपन्यासकार के रचना संसार का माध्यम है। गोदान और मैला आंचल के कथा संसार में दिखाई पड़ने वाले वैविध्य के अनुरूप ही उसकी भाषा में भी विविधता है गोदान में दो बहुत स्पष्ट कथा संसार है, एक गांव का दूसरा नगर का। प्रेमचंद गांव और नगर की कहानी एक जैसी भाषा में नहीं कहते हैं। किस्सागों के रूप में प्रेमचंद बहुत सरल अभिधात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं। वे तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत कम करते हैं। तद्भव शब्दों के अतिरिक्त संस्कृत और अरबी-फारसी के केवल उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो सामान्य बोलचाल में घुल-मिल गये हैं। इसके साथ ही, वे कथा वर्णन में लंबे और जटिल वाक्यों का प्रयोग नहीं करते। वे प्रायः सरल और अधिक से अधिक संयुक्त वाक्यों की योजना प्रस्तुत करते हैं:
"सेमारी और बेलारी दोनों अवध प्रांत के गांव हैं। जिले का नाम बताने की जरूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता है, राय साहब अमर पाल सिंह सेमारी में। दोनों गांवों में केवल पांच मील का अंतर है।"
पर प्रेमचंद अपनी किस्सागोई को भी सपाट और एकरस नहीं होने देते। जहां वे ग्रामीण पात्रों की कहानी कहते हैं, वहां की भाषा नागरिक पात्रों की कहानी की भाषा से भिन्न होती है। गांव की कहानी कहते समय प्रेमचंद तद्भव शब्दों का ही बहुल प्रयोग नहीं करते, वरन अवधी-भोजपुरी क्षेत्र से प्रचलित देश और अपभ्रष्ट शब्दों-जुमलों का निस्संकोच प्रयोग करते हैं, जो परिनिष्ठित हिन्दी में अक्सर प्रयोग नहीं होते। जैसे- अड़दब, उमचना, औंगी, कनबतियां, खंखड, गगरा, पित्ते पानी करना, सरक जाना आदि।
इसी प्रकार रेणु जी की भी भाषा सर्वत्र एक जैसा नहीं है। जहां, उन्हें सीधी कथा कहनी होती है, वहां वह सरल और निराडंबर परिनिष्ठित हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यही कथाकार, जब कथा के बीच में प्राकृतिक सौन्दर्य का अंकन करने लगता है, तो उसकी भाषा तत्सम शब्दावली और सहज स्वाभाविक अलंकारों से दीप्त मनोहर बन जाती है। यथाः
"भारत-माता ग्राम वासिनी।
खेतों में फैला है- श्यामल
धूल भरा मैला-सा आंचल।"
पर वे सर्वत्र इसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। वे अपनी भाषा में सर्जनात्मकता लाने के लिए अपनी शैली में परिवर्तन करते रहते हैं। जहां निरक्षर ग्रामीणों का प्रसंग उपस्थित होता है, वहां कथाकार की भाषा परिनिष्ठित साहित्यक हिन्दी से खिसककर एकदम आम बोलचाल की परिनिष्ठित हिन्दी पर उतर आती है। पर कथाकार यहीं नहीं रुक जाता। कहीं-कहीं तो वह अशिक्षित ग्रामीणों से इस प्रकार एकाकार हो जाता है कि उनकी कथा प्रस्तुत करते समय उनके द्वारा बोलचाल में प्रयोग किये जाने वाले तद्भव अपभ्रष्ट शब्दों का भी जो परिनिष्ठित हिन्दी में स्वीकृत नहीं है, धड़ल्ले के साथ प्रयोग करने लगता है। यथा-
"आचारज गुरू काशी जी से आये हैं।…… साथ में तीस मुरती आये हैं- भंडारी, अधिकारी, सेवक, खवास, चिलमची….. क्या मजाल कि सेवा में किसी किस्म की तरोटी हो।"
इसी प्रकार कथाकार ने मैथिली, भोजपुरी और मगही शब्दों का भी प्रयोग किया है। यथा- कनिया, मनसाधर, लाजभान, मुरूकुआ, नमरी इस बिस, सठ बरसा आदि। इससे कथा संसार और भी यथार्थ लगती है। इनके अतिरिक्त मैला आंचल में संस्कृत और अंग्रेजी के तत्सम शब्दों के ऐसे सैकड़ों अपभ्रष्ट रूप हैं, जिनका सहसा अर्थ ग्रहण कर सकना हिन्दी भाषियों के लिए भी कठिन है। यथा- मेमिया उठना, डिस्टीबोट, आफसियर, मुरली, ब्रीच, भाखन, बिहा, भोलटियरी आदि। तत्सम शब्दों के अपभ्रष्ट रूपों का इतने व्यापक स्तर पर प्रयोग क्षेत्रीय यथार्थ को उसकी यथार्थता में प्रस्तुत करना ही है। ये शब्द पूर्णियां अंचल के गरीब और पिछड़े किसानों की पहचान कायम करते हैं।
गोदान और मैला आंचल दोनों में अर्थमूल शैलीय उपकरणों में प्रमुख हैं। पर्याय वाचिता आवृति शब्द शक्ति, अर्थ गुण, अर्थालंकार, मुहावरे आदि। दोनों उपन्यासों में इसका प्रयोग कथा कथन या अन्य वर्णनों में किया गया है।
इस प्रकार दोनों उपन्यास का शिल्प और भाषा हद तक साम्यता रखती है। फिर भी मैला आंचल शिल्प विधान और भाषा की सारी पुरानी परिभाषाओं को अस्वीकार कर देता है और अपनी व्याख्या के लिए नये सौन्दर्य शास्त्र की मांग करता है।
Question : जीवन यथार्थ के अंकन के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद की कहानी कला की समीक्षा कीजिए।
(2003)
Answer : सिर्फ सतह पर दिखने वाली सच्चाई का ही नाम यथार्थ नहीं है। यथार्थ केवल चित्रण की भंगिमा को ही नहीं कहते, यथार्थ तो व्यक्ति और समाज, जीवन और संदर्भ के द्वंद्वात्मक संबंध का आकलन है। यह अनावश्यक और आवश्यक का प्रतिनिधिक चित्रण है। प्रेमचंद की कहानियां यथार्थवाद के क्रमिक विकास को रखांकित करती हैं। उसमें हमारी तत्कालीन जीवंत परंपरा की तमाम विशेषताएं समाहित हैं। प्रेमचंद की कहानियों में कथावस्तु, विचार और संरचना का एक सचेत विकास दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद रचना को स्वायत्त नहीं मानते थे। इसलिए उनकी रचनाएं व्यापक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार हैं। वे जो जीते थे, वही रचते थे। इसलिए जीवन और रचना कर अद्धैत ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीना, सोचना और रचना उनकी रचना प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। इसलिए प्रेमचंद जी की कहानियां अपनी कलात्मकता और यथार्थ परकता के समवेत् रूप को लेकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी प्रगतिशील भूमिका खोकर, जब पूंजीवाद युद्धोन्माही, विस्तारवादी साम्राज्य का रूप ले चुका था, उस समय हम भारतवासी ईस्ट इंडिया कंपनी के चंगुल से निकलकर, तब सीधे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन थे। अंग्रेजों ने भारतीय समाज के पूरे ढ़ांचे को तोड़ दिया था और इस तरह पुराने के छिन जाने और नए के प्राप्त न हो पाने के कारण हमारी औपनिवेशिक जिंदगी में एक खास प्रकार की उदासी घिर गई थी। यह विषाद् का रंग ही हमारे यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है।
प्रेमचंद जी ने इस संक्रमण कालीन उदासी को अपने उपन्यास ‘गोदान’ या ‘कफन’ कहानी में तो चित्रित किया ही है, यह मानसरोवर भाग-1 की कहानी ‘पूस की रात’ में भी अपनी मार्मिकता और कलात्मकता के साथ उपस्थित है। ‘पूस की रात’ का हलकू अपनी खेती के अलाभकार हो जाने की वजह से ही उसकी क्षति की भरपाई मजदूरी से करता है, लेकिन, जब मजदूरी द्वारा किए हुए तीन रुपये महाजन का कारिन्दा झपट लेता है तो हलकू की त्रासदी शुरू होती है। हलकू का मोहभंग कृषि व्यवस्था से उसका मोहभंग है। हलकू परिश्रम और परिश्रम के प्रतिकाल में इस शोषक व्यवस्था के कारण जो दूरी पैदा हुई, उसी कारण अलगाव का शिकार हुआ। उसका मोहभंग पाठक को उसके गहरे विषाद् से अवगत कराता है। साथ ही साथ एक ऐसी व्यवस्था का स्वप्नकल्पी भी बनाता है, जिसमें व्यक्ति अपने परिश्रम के अनुरूप उचित परिश्रमिक पा सके।
इस उदासी और विषाद् के रंग के साथ-साथ यथार्थवाद का एक दूसरा पहलू भी है- सम्राज्यवादी विरोधी चेतना का विकास। प्रेमचंद की कहानियों में यह सम्राज्यवादी चेतना कई रंग-रूपों के साथ उपस्थित होती हैं। ‘मां’ शीर्षक कहानी में मां करुणा का त्याग पुत्र के प्रति मातृत्व को विश्व मातृत्व में तब्दील कर देता है। ‘अनुभव’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद ने दिखाया कि राष्ट्रभक्त केवल वे नहीं हैं, जो देश के लिए कुर्बानियां देते हैं, बल्कि वे भी हैं जो इन कुर्बानी देने वालों के प्रति सच्ची करुणा पालते हैं। प्रेमचंद इसमें यह भी दिखाने से नहीं चूकते कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों में राष्ट्रीय चेतना के प्रति अधिक जागरुकता है। ‘तावान’ शीर्षक कहानी में उन्होंने यह दिखलाया कि जिनके लिए गांधीवाद या राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रीय पराधीनता से मुक्ति चेतना के साथ-साथ भारतीय जनता के मुक्ति चेतना में नहीं होता, पिकेंटिग, सत्याग्रह और अनशन की रूढि़ के रूप में होती है। तो ऐसा राष्ट्रवाद या गांधीवादी सामान्य जनता के लिए घातक है। प्रेमचंद अपनी ऐसी कहानियों के जरिए सामाजिक चेतना का निर्माण करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि रचनाकार की चेतना सामाजिक चेतना से निर्मित होती है तो वह सामाजिक चेतना आगे बढ़कर निर्माण भी करती है। प्रेमचंद में यही विशेषता देखकर मुक्ति बोध ने कहा कि "प्रेमचंद हमारे समाज के सिर्फ चित्रणकर्ता ही नहीं, हमारी आत्मा के शिल्पी भी हैं।" उन्होंने यह अनायास नहीं कहा कि प्रेमचंद के पात्र भारतीय विवेक चेतना के प्रतीक हैं।
यूरोप में पूंजीवाद जब अपनी चरम अवस्था में सामंतवाद के ताबूत में अपनी अंतिम कीलें ठोंक चुका था उसी समय भारत में इस पूंजीवाद ने सामंतवाद के साथ अपना एक नापाक गठजोड़ कायम किया। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने मरे हुए सामंतवाद को जिंदाकर पूंजीवाद के साथ उसका एक ऐसा रिश्ता तैयार किया कि दोनों के मेल से भारतीय जनता में एक दीर्घकालिक शोषण चलाया जा सके। यह स्वाभाविक था कि प्रेमचंद की कहानियों में इस कारण साम्राज्यवादी विरोधी चेतना के साथ-साथ सामंतवाद विरोधी चेतना भी मिलती है। यह सामंतवाद विरोधी चेतना उनके यथार्थवाद की तीसरी मुख्य विशेषता है।
‘ठाकुर का कुंआ’ एवं ‘घासवाली’ जैसी कहानियां इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं ‘ठाकुर का कुंआ’ में प्रेमचंद ने व्यवस्थावाद विरोध का झंडा गंगी के हाथ में थमाया है। यह अछूत है, मजदूर वर्ग की है और नारी भी है। प्रेमचंद जानते थे कि जब तक व्यवस्था के सबसे नीचले तल पर विद्रोह पैदा नहीं होगा तब तक व्यवस्था की टाट उलटी नहीं जा सकती। महाजनों, सामंतो और पुरोहितों की जो व्यवस्था प्रकृति की देन ‘पानी’ पर भी अपनी इजारेदारी कायम करती है, जो पानी और प्यास के बीच दीवारे खड़ी कर दूरियां पैदा करती हैं, उसे जलाकर खाक किए बगैर मानवीय संबंधों का विकास नहीं हो सकता। ‘घासवाली’ कहानी की मूलिया चैन सिंह का चैन उड़ा देती है। उसकी सामंती अकड़ पर प्रहार करके उसने न केवल अपनी साहसिकता का परिचय दिया, बल्कि तथाकथित बड़ों की काम लोलुपता को भी बेपर्दा किया जो चैन सिंह पहले महज एक सर्वण था, उसकी बंद आंखें खुल जाती हैं, वह अब आदमी हो जाता है। प्रेमचंद की कहानियां मानवोत्थान की कहानियां हैं। इसमें गूंगा, बेजुबान दलित-दलित, बंधित अपने हकों के लिए लड़ते हुए दिखते हैं। प्रेमचंद के यहां नवजागरण परक यथार्थवाद जो उनके यथार्थवाद की चौथी विशेषता है- अछूतोद्धार और नारी मुक्ति के स्वर के रूप में दिखता है। ‘ठाकुर का कुंआ’ और ‘घासवाली’ जैसी कहानियां तो दलितों के मानवाधिकार की समस्या तो उठाती ही हैं, शोषितों और अछूतों की मुक्ति का स्वर उनके समस्त कथा साहित्य में गूंथा हुआ है। प्रेमचंद ने नारी मुक्ति की समस्या को वैधव्य के संदर्भ में अंकित किया है। ‘स्वामिनी’ और बेटों वाली विधवा में वैधव्य की पीड़ा झेलती हुई स्त्रियां अपने-अपने ढ़ंग से अपने संघर्ष को वाणी देती हैं। प्रेमचंद बताना चाहते हैं कि परिवार में जब तक स्त्री को आर्थिक अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक वह पीड़ित होगी। कभी बेटे उसे पीड़ित करेंगे तो कभी पति और कभी नाते-रिश्ते के लोग। ‘शुभागी’ में प्रेमचंद ने बताना चाहा कि मेहनतकश वर्ग में वैधव्य कोई समस्या नहीं है। दूसरे यह कि बाप के बुढ़ापे की लाठी बेटी भी बन सकती है। प्रेमचंद ने आमतौर पर वैधव्य समस्या का उत्तर पुनर्विवाह में ढूंढा है। 1971 में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई और प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से परिचित हुए। 1917 के बाद से ही उनकी कहानियों में यथार्थ गहराता गया। प्रेमचंद जी ने अपनी कहानियों में वर्ग संघर्ष तो निरूपित नहीं किया है, लेकिन व्यवस्था से मोहभंग के अनेकानेक चित्र प्रस्तुत किए हैं। ‘पूस की रात’ या ‘ठाकुर का कुआं’ क्रमशः कृषि संस्कृति एवं समाज व्यवस्था से मोहभंग को ही रेखांकित करती है। किसी भी व्यवस्था से अलगाव का बोध पाले बगैर एक दूसरी व्यवस्था की ओर नहीं जाया जा सकता। प्रेमचंद की अंतिम दौर की कहानियां समाजवादी परिवर्तन के प्रथम चरण अर्थात् व्यवस्था से मोहभंग को निरूपित करती हैं।
प्रेमचंद की कहानियों में यह समाजवादी यथार्थवाद अपने अधूरे रूप में उनके यथार्थवाद की पांचवीं उल्लेखनीय विशेषता है। प्रेमचंद की कहानियों में यथार्थवाद की सारी अकूत परंपराएं मिलती हैं। इन परंपराओं को समझ कर ही प्रेमचंद के यथार्थवादी दृष्टिकोण पर कोई राय कायम की जा सकती है। यदि हम किसी बने-बनाए सांचे में प्रेमचंद जी को फिर करना चाहेंगे तो कभी सांचा छोटा पड़ेगा तो कभी प्रेमचंद जी के यथार्थवाद का मूल्यांकन, तभी सही और दूरुस्त हो सकता है, जब हम इसके लिए प्रेमचंद जी के रचनाओं के भीतर जायेंगे और रचनाओं के बोल के आधार पर ही उसका स्वरूप तय करेंगे। प्रेमचंद जी तीसरी दुनियां के मुक्ति कामी जनता के लेखक हैं। उनका यथार्थवाद आलोचनात्मक यथार्थवाद से आगे है, समाजवादी यथार्थवाद की ओर अभिमुख यथार्थवाद है।
Question : ‘स्कंदगुप्त’ के आधार पर प्रसाद की इतिहास दृष्टि का विवेचन करते हुए उनकी नाट्य-कला की विशिष्टताओं का विश्लेषण कीजिए।
(2003)
Answer : जयश्ंकर प्रसाद का ‘स्कंदगुप्त’ हिन्दी नाट्य साहित्य की क्लासिक कृति है। क्लासिक कृति वह होती है, जिसका महत्व सर्वस्वीकृत हो जाता है। स्कन्द गुप्त का महत्व इस बात से प्रभावित हो जाता है कि गत सात दशकों से भी अधिक समय से यह विश्वविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन का विषय बना हुआ है। हिन्दी नाट्येतिहास एवं प्रसाद साहित्य पर प्रकाशित प्रबंधो-समीक्षा ग्रन्थों में इसकी चर्चा बार-बार होती रही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बहुत पहले अपने इतिहास में लिखा था कि ‘प्रसाद के नाटकों में स्कन्द गुप्त श्रेष्ठ है।’ डा. दशरथ ओझा ने अपने शोध प्रबंध में लिखा कि ‘स्कन्दगुप्त में प्रसाद के अन्य नाटकों से कई विशेषताएं मिलती हैं। स्कन्दगुप्त के वस्तुविन्यास में प्रसाद की प्रतिभा सजीव हो उठी है और उनकी नाट्यकला ने अपना अपूर्व कौशल दिखलाया है।’ प्रसिद्ध समीक्षक प्रकाश चन्द्र गुप्त ने कहा "नाट्य कला की कसौटियों पर कसने से स्कन्द गुप्त का स्थान बहुत ऊंचा है। इसकी भाषा प्रौढ़, चरित्र-चित्रण कुशल और कल्पना सुकुमार है।"
स्कन्द गुप्त प्रसाद के ही नाट्य साहित्य में नहीं, हिन्दी के समग्र नाट्य-साहित्य के अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटकों में एक है। प्रसाद इतिहास के भी अध्येता थे। नये तथ्यों की खोज और उनकी उचित रूप में प्रस्तुति का आग्रह उनके मन में था। उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही, उन्होंने इस नाटक की रचना की है, और आवश्यकतानुसार अपनी कल्पना का भी उपयोग किया है। केवल ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत कर देने से ही नाटक की रचना नहीं होती, उनसे केवल इतिहास बनता है। ऐतिहासिक प्रसंगों की टूटी हुई कडि़यों को जोड़ने के लिए उनमें अन्विति ले आने के लिए, इतिहास के शुष्क प्रसंगों में संरसता का संचार करने के लिए, इतिहास में चरित्रों को पुनर्जीवित करने के लिए और रचना को कलात्मक रूप देने के लिए कल्पना की आवश्यकता होती है। प्रसाद ने यहीं किया है। उन्होंने नाटक का मूल ढ़ांचा ऐतिहासिक रखा है। सम्राट कुमार गुप्त के पुत्र स्कन्द गुप्त के जीवन से संबद्ध घटनाओं को अपने नाटक का आधार बनाया है। जिन पात्रों के नाम इतिहास में आये हैं। जैसे- पर्णदत्त, चक्रपालित, बन्धुवर्मा आदि उन्हें प्रसाद ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप विकसित किया है। इनके अतिरिक्त प्रसाद ने जयमाला, देवसेना, रामा, भटार्क आदि कल्पित चरित्र की भी सृष्टि की है। ऐतिहासिक तथ्यों की दृष्टि से देखें, तो इसमें ऐतिहासिकता कम है, कल्पना अधिक। प्रसाद के नाटकों में सबसे अनैतिहासिक स्कन्दगुप्त ही है, पर ध्यातव्य है कि प्रसाद इतिहास नहीं लिख रहे थे नाटक लिख रहे थे। कोई भी ऐतिहासिक नाटक पूर्णतः ऐतिहासिक हो ही नहीं सकता। इतिहास और कल्पना के योग से निर्मित इस नाटक की मूल प्रेरक शक्ति है। नाटककार का सत् उद्देश्य अपने पराधीन देश को स्वाधीनता का संदेश देना, देश वासियों को जगाना। यह मुख्य है, और इसे प्राचीन भारत की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत करना ही, उनका उद्देश्य था।
प्रसाद अपने नाटकों में अतीत को दुहराना नहीं चाहते थे, उसे वर्तमान बनाना चाहते थे, वर्तमान को अतीत में देखना चाहते थे, उससे प्रेरणा ग्रहण करना चाहते थे। वे काल की निरंतरता और सार्थकता में विश्वास करते थे, और मानते थे कि विभिन्न काल खंडों में समान स्थितियां मिलती हैं। पिछली स्थितियों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। पराधीन देश के जयशंकर प्रसाद ने अपने देश के उस गौरवशाली अतीत की ओर देखा, जो स्वाधीन था, जिसके वीरों ने विदेशी आक्रमणकारियों से लड़कर अपने देश की रक्षा की थी। अतीत की ओर जाने का एक कारण रचनाकार की उस रोमांटिक चेतनायें देखा जा सकता है, जो वर्तमान की कठिन समस्या को प्रत्यक्षतः न देखकर अतीत, भविष्य या कल्पना में देखती हैं। एक अन्य कारण यह भी कहा जा सकता है कि शासन और सत्ता के विरुद्ध प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति पर जब बंधन होता है, तब रचनाकार अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति का सहारा लेता है। प्रसाद ने महात्मा गांधी के सत्य, प्रेम, क्षमा आदि मानवीय गुणों के दर्शन को स्वीकार करते हुए भी देश की स्वाधीनता के लिए दूसरी दिशा के पक्ष में अपना मत दिया। स्कन्दगुप्त में धातुसेन के माध्यम से प्रसाद ने कहलवाया- ‘लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है। संसार में इसी का बोलबाला है। भटार्क के माध्यम से कहलाया- नहीं तो क्या रोने से, भीख मांगने से कुछ अधिकार मिलता है?’ और इसमें बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया है- ‘मुझे कुछ लेना है, वह जैसे मिलेगा लूंगा।’ इसी सन्दर्भ में प्रसाद ने इतिहास के महासमर में स्कन्दगुप्त को देखा और उन्हें अपने नाटक के नायक बनाये। इस नाटक में यह दिखलाया गया है कि भारतीयों में इसकी स्वतंत्रता पर आघात करने वाले विदेशियों को परास्त करने की क्षमता है। बन्धु वर्मा ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘असीम साहसी आर्य सैनिक, जिनके आतंक से आज विश्वविख्यात रूप- साम्राज्य पादाक्रांत हैं, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा। पराधीन देश के खोए आत्मविश्वास को जगाने के लिए भारत की प्रशस्ति, इस नाटक में कराई गयी है। सिंहल का राजकुमार इस देश को भव्य भारत कहता है। देश के आत्म गौरव को जागाने के मूल में प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना है। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीयता का संदेश दिया है कि समझो हमारा यह गौरवशाली देश आज पराधीन है, इसे पराधीनता से मुक्त कराना है, इसे अखंड रखना है- सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता की भावना से मुक्त होकर इसके कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया जाना चाहिए। जब तक यह राष्ट्र रहेगा और जब तक लोगों को राष्ट्रीयता का महत्व समझाने की आवश्यकता रहेगी, तब तक यह नाटक प्रासंगिक बना रहेगा।’
वस्तु विन्यास की दृष्टि ये स्कन्दगुप्त सुसंगठित नाटक नहीं है। इसमें ग्यारह वर्षों की घटनाएं ली गयी हैं, यह कोई दोष नहीं है, पर घटनाओं और प्रसंगों की इतनी बहुलता है कि प्रभाव की अन्विति नहीं बन पाती। किसी नाटक में समय, स्थान और कार्य की अन्विति भले ही न हो, प्रभाव की अन्विति तो होनी ही चाहिए, यह अन्विति ही दर्शक को बांधकर रखती है। स्कन्दगुप्त में ऐसा नहीं हो पाता। इस नाटक में दृश्य पर दृश्य प्रसंग बदलता रहता है। वस्तुतः वस्तु विन्यास ही स्कन्दगुप्त का सबसे दुर्बल पक्ष है।
चरित्र सृष्टि की दृष्टि से देखें तो उनके अन्य नाटकों की तरह ही स्कन्दगुप्त भी चरित्र प्रधान नहीं है, उद्देश्य प्रधान है। जैसे सोद्देश्यता ने इसके वस्तु विन्यास को निर्दिष्ट किया, वैसे ही इसकी चरित्र सृष्टि को भी। उद्देश्य प्रधान ऐतिहासिक नाटकों में स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले चरित्रों की सृष्टि करना। एक कठिन काम है। स्कन्दगुप्त में प्रसाद ने चरित्रों को मानवीय बनाने का प्रयास किया है। स्कन्दगुप्त, देवसेना, भटार्क, शर्वनाग जैसे चरित्रों में कहीं-कहीं अंतर्द्वंद्व दिखलाया है। फिर भी नाटक में अधिक चरित्र सरल सपाट ही है, त्रि-आयामात्मक चरित्र कम ही निर्मित हो पाये हैं। बाहरी रूप से चरित्रों में वैविध्य है, पर आंतरिक दृष्टि से उनमें वैविध्य नहीं दिखता, यों नाटककार ने प्रयत्न किया है कि परस्पर विरोधी प्रकृति के चरित्रों को एक साथ रखकर उनका वैशिष्ट्य दिखलाया जाय। यह तथ्य भी ध्यान आकृष्ट करता है कि मुख्य और गौण चरित्रों पर नाटक में उनके आनुपातिक महत्व की दृष्टि से अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका है और यह भी की पात्रों की अनिर्वायता एवं नाटक में उनकी प्रयोजन मूलक भूमिका पर भी कम ही ध्यान है। इसी से ऐसे पात्र भी आ गये हैं, जिनकी नाटक में उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी।
स्कन्दगुप्त की संवाद योजना नाट्यलोचन में स्तुति-निन्दा का विषय रही है। कहा जाता रहा है कि प्रसाद अन्य नाटकों की तरह इस नाटक में भी संवाद कथानक को अग्रसर करने में और चरित्र-चित्रण दोनों में योग देने का काम करते हैं। दोष यह है कि संवाद अनेक स्थलों पर विस्तृत है, क्योंकि पात्र अपने सभी तर्कों को एक ही स्थान पर रखने या अपनी भावुकता व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं। स्कन्दगुप्त स्थितियों के अनुसार संवादों के शब्द संयोजन, गति, लय आदि में पर्याप्त विविधता है। जहां-कहीं स्थितियों और चरित्रों से इनका सामंजस्य बना रहता है, वहां विश्वसनीयता भी है, शक्ति भी है, नाटकीयता भी है। जहां-कहीं समांजस्य नहीं रहता, वहां संवादों में अतिरंजना आती है, विस्तृति आती है।
स्कन्दगुप्त की भाषा भी स्तुति-निन्दा का विषय रही है। कुछ आलोचक इस नाटक की भाषा जटिल और दुरुह बताते हैं, तो कुछ लोगों ने प्रशंसा भी की है। स्कन्दगुप्त की भाषा का तथ्यात्मक विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष सहज ही निकलता है कि यह न तत्सम प्रधान है, न विशेषण प्रधान और न सर्वत्र अलंकृत। इसमें संस्कृत के कुछ शब्द आये हैं, विशेषण भी कम ही आये हैं। नाटक की संप्रेषणीयता में कठिनाई होती है, तो वह भाषा के कारण नहीं बल्कि जटिल वस्तु विन्यास और उसके कथानक के कारण। प्रसाद ने कुछ दर्शनिक एवं शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग अवश्य ही किया है, जिन्हें नाटकोचित नहीं कहा जा सकता। प्रसाद ने तत्सम शब्दों के साथ-साथ आज की बोलचाल की शब्दावली का भी व्यवहार किया है।
स्कन्दगुप्त के गीत भी विवाद के विषय रहे हैं। विवाद का बिंदु यह रहा है कि इन गीतों से नाटकीयता बाधित होती है या नहीं। अपने में ये उत्कृष्ट गीतिकाव्य के अच्छे उदाहरण हैं। प्रसाद मूलतः कवि थे, और उन्हें इन गीतों में अपनी अभिव्यक्ति का पर्याप्त अवकाश मिला है। इनमें उन्होंने प्रेम, यौवन और स्मृति की अभिव्यक्ति की है। कुछ गीत राष्ट्रीय चेतना के भी हैं। प्रसाद ने इन्हें पारसी रंगमंच की रूढि़यों के प्रभाववश नाटक में रखा है। रंगमंच के गीतों में जो सहायता चाहिए, प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति चाहिए, वह इनमें नहीं हैं। इनसे नाटक की शक्ति कम हुई है।
स्कन्दगुप्त सर्वाधिक विवादास्पद हुआ है, रंगमंच के कारण। इसके मंचन को चुनौती माना जाता रहा है, कई बार इसे मंचित भी किया गया, पर प्रस्तुत कर्ताओं की दृष्टि से प्रदर्शन भले ही सफल रहा हो, दर्शकों को बांधकर रखने में और उन्हें प्रभावित करने में सफल नहीं हो सका।
यह एक तथ्य है, जहां-तहां इसे मंचित किया गया, इसे संपादित करके इसमें काट-छांट करके। इससे इतना निष्कर्ष तो निकलता ही है कि अपने मूल रूप में यह मंचित नहीं किया जा सकता। मंचन से तात्पर्य रंगमंच पर केवल प्रस्तुत किया जाना नहीं है, बल्कि दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लिये बिना उन्हें अंत तक बांधे रखना भी है। रंगमंच को छोड़ दे तो अपनी चेतना, कथ्य और साहित्यिक गुणों के कारण यह एक महान विवाद मुक्त रचना तो है ही। रंग कौशल आज इतना सक्षम है कि यथार्थवादी और अयथार्थवादी दोनो पद्धतियों में इसे मंचित तो किया ही जा सकता है, पर यह अपनी स्थापत्यगत सीमाओं के कारण दर्शकों को हंसा-रुला सकेगा, उन्हें रससिक्त कर सकेगा, यह संदिग्ध है।
अपनी सभी सीमाओं के बावजूद स्कन्दगुप्त हिन्दी नाट्य-साहित्य की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है।
Question : जीवन की स्थिति समय में है और समय प्रवाह है। प्रवाह में साधु-असाधु, प्रिय-अप्रिय सभी कुछ आता है। प्रवाह का यह क्रम ही सृष्टि और प्रकृति की नित्यता है। जीवन के प्रवाह में एक समय असाधु, अप्रिय अनुभव आया। इसलिए उस प्रवाह से विरक्त होकर जीवन की तृष्णा को तृप्त न करना केवल हठ है।
(2003)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यावतरण कल्पना प्रसूत, ऐतिहासिक उपन्यास ‘दिव्या’ के ‘अंशुमाला’ भाग से उद्धृत है। ‘दिव्या’ प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल की उत्कृष्ठ कृति है। हिन्दी साहित्य में यशपाल अत्यन्त लोकप्रिय लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। प्रस्तुत अवतरण मारिथ, जो सागल का श्रेष्ठ मूर्तिकार है। का अंशुमाला यानि दिव्या के प्रति कथन है। अंशुमाला से मारिथ कहता है कि भद्रे। समस्या का समाधान हुए बिना दुविधा का अन्त नहीं होता, तब अंशुमाला कहती है कि मेरे लिए प्राणों के दमन और आत्महनन के अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है, क्योंकि वह त्रस्त है। अपने जीवन के अनुभव से, तब यह कथन मारिथ कहता है।
व्याख्याः मारिथ कहता है कि यह मानवीय जीवन परिवर्तनशील है। समय के अविच्छिल शाश्वत प्रवाह में जीवन प्रवाहित होता रहता है। इसमें सुख-दुख, कटु-मधु सभी अनुभव आते-जाते हैं। यही जीवन का सत्य है। सुख-दुख एक ही रथ के दो पहिए हैं। यदि जीवन में एक समय अप्रिय और कटु स्थिति आ गयी हो तो इससे मुक्ति के लिए जीवन के प्रवाह से विरक्त होना उचित नही हैं। वस्तुतः जब तक जीवन है, उसमें परिवर्तन और प्रयत्न के लिए अवसर और संभावना है। मारिथ के तर्को के बावजूद दिव्या उसका आश्रय लेने को तैयार नहीं है। इसे मारिथ ने अनावश्यक हठ कहा। मारिथ अपने इस कथन के माध्यम से, यही कहना चाहता है कि निरंतर प्रयत्न ही जीवन का लक्षण है। जीवन की एक प्रयत्न की विफलता संपूर्ण जीवन की विफलता नहीं मानी जानी चाहिए। अतः सुख-दुख, कटु-मधु की चिन्ता छोड़ कर अपना कर्म करते रहना चाहिए।
विशेषताः 1. मारिथ के चरित्र का पता चलता है कि वो उदात्त मूल्यों वाला पात्र है।
2. दिव्या के चरित्र के माध्यम से यशपाल ने समाज में नारी के स्थान, स्त्री-पुरुष संबंध के स्वरूप और नारी की स्वतंत्रता के सवाल उठाये हैं।
3. लेखक ने मारिथ के कथन से जीवन के प्रति आशा के संचार को बलवती करने पर जोर दिया है।
4. भाषा सुसंस्कृत और सुगठित है, साथ ही प्रवाहमयी भी।
Question : "बिगड़ने वाली बात को सभी पहले से जान लेते हैं, जिनके पास बल है, उसे नहीं होने देते, जो कमजोर है उसे धोखा कहकर छिपाते हैं....... बाबू को सब मालूम हो गया था, पर अच्छे घर-वर के लिए जो चाहिए वह बाबू कहां से लाते। इसमें तुम तो एक बहाना बन गये, तुम्हारा क्या कसूर है इसमें......."
(2003)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत अवतरण ‘एक दुनिया समानांतर’ कहानी संग्रह के अंतर्गत कहानीकार शिव प्रसाद सिंह द्वारा लिखित कहानी ‘नन्हों’ से उद्धृत है। इस कहानी-संग्रह के संपादक राजेन्द्र यादव हैं। प्रस्तुत अवतरण कहानी के नायिका ‘नन्हों’ द्वारा राम सुभग को कही गई है।
व्याख्याः यह संसार की नियति है कि बिगड़ने वाली बात सभी जान लेते हैं, लेकिन इसका प्रभाव अलग-अलग वर्ग में अलग-अलग पड़ता है। बलवान व्यक्ति इसे होने ही नहीं देता, जो कमजोर होते हैं, वो इसे धोखा समझकर छिपाते हैं। नन्हों की शादी धोखे से मिसरी लाल से हुई, जो एक पैर से अपाहिज था। नन्हों के पिता को लड़का के रूप में राम सुभग को दिखाया गया था।
पांच वर्षों के बाद राम सुभग नन्हों से मिल रहा है, जबकि मिसरी लाल की मृत्यु हो चुकी है। राम सुभग अपने को कसूरवार मानता है। वह नन्हों से माफी चाहता है। इस पर नन्हों कहती है कि तुम तो एक बहाना बन गये हो, मात्र एक मोहर हो, तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि पिता जी को सब कुछ मालूम हो गया था, लेकिन वो कर भी क्या सकते थे। मेरी शादी के लिए उनके पास क्या था ही। न धन, न दौलत, न गुण, न रूप किस बल पर वो इस शादी से इंकार कर सकते थे। अतः इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।
विशेषताः 1. प्रस्तुत कहानी के माध्यम से नारी की विवशता का मार्मिक चित्रण हुआ है। साथ ही निर्धन पिता का भी भावनात्मक चित्रण हुआ है।
2.राम सुभग के चारित्रिक विशेषताओं की झलक मिलती है।
3.प्रस्तुत अवतरण नग्न यथार्थ का चित्रण है।
Question : कवि की दृष्टि तो सौन्दर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहां हो- वस्तुओं के रूप-रंग में अथवा मनुष्य के मन, वचन और कर्म में। उत्कर्ष साधना के लिए, प्रभाव की वृद्धि के लिए, कवि लोग कई प्रकार के सौन्दर्यों का मेल भी किया करते हैं।
(2002)
Answer : प्रसंग एवं संदर्भः प्रस्तुत गद्यांश आलोचक प्रवर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा सुविरचित ‘चिन्तामणि’ प्रथम भाग से संग्रहित निबंध के ‘कविता क्या है’ निबंध से उद्धृत है। प्रस्तुत गद्यांश में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का कहना है कि कवि की मूल दृष्टि सौन्दर्यपरक होती है। वह सौन्दर्य किसी वस्तु के रूपरंग में अथवा मनुष्य के मन, वचन और कर्म में होता है।
व्याख्याः कला के साथ काव्य को जोड़ने से ‘सौन्दर्य’ के साथ ही काव्य जुड़ा रह गया। इस सौन्दर्य की अनुभूति को भी शुक्ल जी ने अंतःसत्ता की तदाकारपरिणति ही कहा है। शुक्ल जी का कहना है कि लोक व्यवहार की दृष्टि से जिसे मंगल-अमंगल कहते हैं, उसे ही काव्य क्षेत्र में सुन्दर-असुन्दर, किसी साध्य तक पहुंचाने के मार्ग भिन्न हैं। काव्य का मार्ग सौन्दर्य मार्ग ही कहा जाता है। वामन ने ठीक ही कहा था। ‘काव्यं ग्राह्य अलंकारात् सौन्दर्यम् अलंकारः’ चाहे अलंकारवादी हो या रसवादी, दोनों सौन्दर्य ही देखते-दिखाते हैं। शब्द सौन्दर्य, अभिव्यक्ति सौन्दर्य अलंकारवादी सामने रखता है, वहां अर्थ सौन्दर्य न हो ऐसा नहीं। अभिव्यक्ति का सौन्दर्य, शैली का सौन्दर्य भंगी भणित, उक्ति चारुता ही उसका मार्ग है। सौन्दर्य में बाह्य और आभ्यन्तर दो विशेषण लगा दिये गये है। बाह्य सौन्दर्य में मन न हो, आन्तरिकता न हो इसे वे नहीं मानते। काव्य केवल सुन्दर है पर भावयोग भी है। मनुष्य के बाहरी-भीतरी सौन्दर्य के साथ प्रकृति के परितः संपूर्ण सौन्दर्य को मिला देने से वर्णन का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है।
विशेषताः 1. आलोचक शुक्ल जी ने काव्य के सौन्दर्य को बड़े ही तार्किक ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है।
2. संपूर्ण गद्यांश की भाषा काव्यमयी है।
3. यहां कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है।
Question : ललित निबंध की सांस्कृतिक एवं मानवीय पक्षधरता के परिप्रेक्ष्य में कुबेरनाथ राय के ललित निबंध लेखन की समीक्षा कीजिए।
(2002)
Answer : हिंदी निबंध आधुनिक गद्यकाल की एक प्रमुख विधा है। इस संदर्भ में कहा गया है कि ‘गद्यं कविनां निकषं’ अर्थात यदि गद्य कवियों की कसौटी है, तो निबंध गद्य की कसौटी है। हिन्दी निबंध का उदय नवजागरण युग की देन है। उस समय निबंध तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। जिनमें साधारण सामयिक विषयों, आन्दोलनों और समाचारों की चर्चा होती थी। इनमें बौद्धिक और वैज्ञानिकता के साथ-साथ व्यक्तिगत विचार प्रमुख हेाते थे। बाद में द्विवेदी युग, शुक्ल युग में हिन्दी निबंध स्थापित हैं। शुक्लोत्तर निबंधकारों में कुबेरनाथराय एक प्रतिष्ठित निबंधकार माने जाते हैं।
कुबेरनाथ राय नयी पीढ़ी के प्रतिष्ठित निबन्धकार हैं। डा. विद्या निवास मिश्र की तरह कुबेर नाथ राय भी हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्थान के निबन्धकार माने जाते हैं। दोनों में यह अन्तर माना जाता है कि मिश्र जी द्विवेदी जी के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं, जबकि कुबेरनाथ राय उनसे मुक्त होकर नवीन भंगिमा अपनाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। इनके निबंध संग्रह ‘प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, विषाद योग प्रमुख हैं। इनके निबन्धों में सांस्कृतिक सन्दर्भों से फूटते हुए जीवन के आधुनिक आयामों तथा उनमें से झांकते जीवन को देखा जा सकता है। इनके निबंधों में व्यापक मानवतावादी दृष्टि और एक गंभीर सांस्कृतिक निष्ठा प्रमुख विशेषताएं हैं, जो उनकी गहरी और पैनी विनोद वृत्ति के सहयोग से और चमक उठती है। अतीत के सांस्कृतिक उपलब्धि का मूल्यांकन उन्होंने एक नयी और स्वस्थ दृष्टि से किया है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार ‘कुबेरनाथ राय भी विद्यानिवास मिश्र की भांति उन लेखकों में हैं, जिन्होंने निबंध की विद्या को पूरे मनोयोग और एकांत निष्ठा के साथ स्वीकार किया है। पर इस माध्यम की कठिनाई यह है कि इसका स्वरूप और इसके आंतरिक तत्व कुछ ऐसे प्रतिमान कृत हो चुके हैं कि उसमें किसी बड़े प्रयोग की संभावना नहीं रह जाती। प्रताप नारायण मिश्र से लेकर अब तक ललित निबंध के ढांचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है।’
कुबेरनाथ के निबंधों में काव्यात्मक संवेदन के साथ विविध प्रसंगों को लेकर सूक्ष्म पर्यवेक्षण होते हैं। भाषा का प्रवाह बराबर समरस रहता है और बीच-बीच में कुछ बौद्धिक विवेचना का क्रम बना रहता है। यात्रा प्रसंगों के साथ मानसिक ऊहा-पोह भी चलता है।
हिन्दी साहित्य के ललित निबंधकारों में कुबेरनाथ राय पूर्णतया ललित निबंध की ही विधा को समर्पित हैं। ललित निबंध में शैली के लालित्य की प्रमुखता होती है। इसमें विषयवस्तु एवं विचारों के सुव्यवस्थित प्रतिपादन के स्थान पर निजी चिन्तन एवं अनुभूति को स्वच्छतापूर्वक ललित शैली में व्यक्त किया जाता है। इनके निबंधों में उनकी कल्पना शक्ति स्वच्छंद होकर विचरण करती हुई, पाठक को जीवन के विभिन्न क्षेत्र में ले जाती है। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण जीवन एवं लोक संस्कृति के विभिन्न पक्षों का चित्रण अनुभूतिपूर्ण शैली में किया है। राय जी के निबंध सांस्कृतिक संदर्भों से फूटते हुए जीवन के आधुनिक आयामों तथा उनमें से झांकते जीवन की सहज एवं सरल अभिव्यक्ति है, जिनमें ‘भारतीय सांस्कृतिक परिवेश, मानवतावादी धरातल पर अभिव्यक्त हुआ है। राय जी का मानना है कि संस्कृति की आधार भूमि गांव है, शहर नहीं। ग्रामीण परम्परा के मूल आधार से ही भारतीय संस्कृति का सृजन और पुनर्जागरण हो रहा है।
इनके निबंधों में पर्व और उत्सवों को विशेष स्थान मिला है, क्योंकि ये पर्व, त्योहार भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। दुर्गापूजा के बारे में कुबेरनाथ राय लिखते हैं- ‘दुर्गा उपासना एवं दुर्गा पूजनोत्सव का विकास अनार्य नारियों द्वारा पूजित कृषि मात्र की भूमि पूजन से हुआ है। आर्यों के आगमन से पूर्व निषाद-बंधुओं ने गंगा तट की बस्तियों में फसल और उर्वरता की देवी के रूप में धरित्री की पूजा की थी, घर सजाकर और घर के चारों ओर शस्य बोकर। आज भी दुर्गा पूजा में असली पूजा ‘घट’ भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्गापूजा के कल्प में पुरानी भूमि पूजा के शस्य एवं उर्वरता के देवी की पूजा भी छूटे-छिटके चिन्ह अब भी चले आ रहे हैं। ललित निबंध की सांस्कृतिक एवं मानवीय पक्षधरता के परिप्रेक्ष्य में कुबेरनाथ राय ने अपने विवेचनाहीन विषयों को अधिक व्यापक एवं प्रभावी बनाने के लिए स्थान-स्थान पर पौराणिक तत्वों को प्रश्रय भी दिया है। साथ ही अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान का भी उपयोग किया है। इससे इनकी रचनाएं कथा तत्व से संपूर्ण हो उठती हैं। रामायण और महाभारत दोनों ही भारतीय संस्कृति के प्राण कहे जाते हैं। इन पौराणिक व्याख्यानों पर अत्यंत सूक्ष्मदृष्टि से विचार करते हुए ‘निषाद योग’ में राय जी लिखते हैं- ‘रामायण और महाभारत दोनों की नाभि मिथक है। देवासुर-संग्राम दैवी और आसुरी जीवन दर्शनों का द्वंद्व। हिन्दू रामायण तो साफ-साफ रावण को असुर घोषित करता है। महाभारत में यह कहा गया है कि दुर्योधन साक्षात कलि है और कौरव गण पौलस्व्य असुरों के अवतार हैं। इन दोनों महाकाव्यों में मूल स्थिति समान होने पर भी दोनों के अंदर विकसित द्वंद्व का रूप एक समान नहीं है। प्रथम तो यह कि महाभारत में क्रोध की ट्रेजडी है और रामायण में ‘काम’ की। दूसरी बात यह है कि महाभारत में द्वंद्व ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ के बीच में है परन्तु रामायण में ‘द्वंद्व धर्म’ और ‘प्रतिधर्म’ के बीच है।
इसी प्रकार संस्कृति के धार्मिक पक्ष में नदियों एवं तीर्थ स्थानों का पृथक महत्व है। भारतीय संस्कृति की प्रतीक ‘गंगा’ के बारे में राय साहब लिखते हैं- गंगा गोमुख से निकलती है और इसका स्वभाव और चरित्र भी पयस्वला धेनु की तरह है, जो अपने बछड़े के लिए रंभाती दौड़ती घर को लौट रही है। यह बछड़ा और कोई नहीं, भारतवर्ष ही है। इसी से इन धेनुरूपी नदी के लिए हमने अत्यन्त सार्थक नाम चुना है। गंगा अर्थात जो ‘गं-गं-गच्छति सा गंगा’। इस नदी के तट पर अकेले बैठकर इसके स्ववर प्रवाह को सुनते समय लगता है कि मंत्रों की सामवीणा बज रही है।
कुबेरनाथ राय अपने ललित निबंधों में तत्सम शब्दों की प्रधानता रखते हैं। लेकिन साथ ही इनके निबंध की भाषा उर्दू-फारसी, अंग्रेजी, देशज तद्भव शब्दों के योग से भी निर्मित हैं। इनका निबंध योजनाबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया हैं। जिसमें विविध विषयों की विविध शाखा-प्रशाखाओं से संबंधित चर्चा भी सम्मलित है। विचार क्रम में विनोदात्मकता आ जाने से इनका ललित निबंध और भी उत्कृष्ट हो गया है। इस प्रकार कुबेरनाथ राय के निबंधों में सांस्कृतिक एवं मानवता का पाठ पढ़ाया गया है।
Question : मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हंसी ही हंसी नहीं है, केवल गुड़ खाकर कौन जी सकता है और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हंसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं।
(2002)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश उपन्यास सम्राट प्रेमचंद द्वारा रचित प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ से उद्धृत है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि उपन्यासकार हैं, साथ ही ‘गोदान’ भी। इस गद्यांश में प्रेमचंद ने मालती के आंतरिक और बाहृय गुणों की ओर लक्षित किया है।
व्याख्याः प्रेमचंद जी ने मालती के वाह्य गुण और आंतरिक गुणों को तितली और मधुमक्खी के द्वारा स्पष्ट करने की कोशिश की है। मालती तितली सदृश है यह तितली उसके वाह्य गुण को प्रकट करती है। जो मालती के सौंदर्य एवं एक फूल से दूसरे फूल की ओर जाने को इंगित करता है, अर्थात् मालती की चपलता और चंचलता को इंगित है। तितली जिस प्रकार एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराती और उन्युक्त भाव से मकरंद पान करती है। वह किसी एक फूल पर अधिक देर तक नहीं टिक सकती। मधुमक्खी से तितली की भिन्नता यह है कि वह फूलों का रस पान तो करती है पर मधुमक्खी की तरह मधु का संचय नहीं करती। जीवशास्त्रियों के अनुसार तितली मधु का निर्माण नहीं कर सकती। वह केवल परागण का कार्य संपन्न करती है। दूसरी तरफ मधुमक्खी मकरंद और पराग को आंतरिक क्रिया द्वारा मधु में परिणत कर देती है। मधुमक्खी की जीवन क्रिया के अध्ययन से ज्ञात होता है उनका जीवन त्याग, सेवा और सहकारिता का होता है। तितली की एक विशेषता यह भी है कि वह रंग-बिरंगे और चटकीले पंखों वाली होती है। वह चंचल भी बहुत होती है। मधुमक्खी सौंदर्य और चंचलता के लिए प्रसिद्ध नहीं होती है। वह तितली की तुलना में कुरूप भी होती है। उसकी विशेषताएं हैं- मधु संचय, त्याग, सेवा और सहकारिता। निस्संदेह मालती का आरंभिक रूप ‘तितली’ से तुलनीय है। ‘उसके जीवन में हंसी नहीं है….’ प्रेमचंद ने यह बात मालती के पारिवारिक संदर्भ में कही है। दैवदुर्विपाक से उसके पिता को फाजिल मार गया है। परिवार का पूरा खर्च वही चलाती है। उसकी दो छोटी बहने कॉलेज में पढ़ती हैं और पिता अपंग होने पर भी शराब कबाब की आदत नहीं छोड़ पाये हैं। शराब पीने के लिए वे अपने बंगले पर प्रोनोट लिखकर कर्ज लेते रहते हैं। मालती पर अपने परिवार का पूरा बोझ है और वह अपने कर्त्तव्य की अवहेलना नहीं करती।
विशेषताः 1. प्रेमचंद का नारी विषयक आदर्श मालती में पूर्णतः प्रतिफलित हुआ है। मालती नवयुग की आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व तो करती ही है, वह प्रेमचंद के इच्छित विश्वास या आदर्श का सजीव विग्रह भी है।
2.भाषा सरल और मुहावरों से युक्त है।
3.तितली और मधुमक्खियों की क्रिया की सूक्ष्म दृष्टि प्रेमचंद को है।
Question : भारतीय ग्रामों के यथार्थ की दृष्टि से ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
(2002)
Answer : भारतीय उपन्यास की अपनी खास स्वायत्त पहचान निर्धारित करने में जिन उपन्यास लेखकों की कृतियों से विशेष प्रेरणा मिली है, उनमें प्रेमचंद और रेणुजी अन्यतम हैं। भारतीय उपन्यास की भारतीयता को ठीक-ठीक पारिभाषित करने के लिए जो प्रमुख स्थापनाएं की गयी हैं, उनमें ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ प्रमुख हैं। ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ दोनों हमारे देश के तीसरे दशक से लेकर पांचवे दशक तक की सांस्कृतिक आलोचना है। सामाजिक यथार्थ की आंच से तपे ये दोनों उपन्यास स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्रयोत्तर भारत के समाज, धर्म, राजनीति, अर्थ और परंपरा की समालोचना प्रस्तुत करते हैं। ‘अगर आप भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा, भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुख-सुख को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक कहीं नहीं मिल सकता।’ यही बात बिना किसी लाग-लपेट के हम स्वाधीन भारत के स्वानुभूति संपन्न ‘रेणु’ के बारे में भी कह सकते हैं।
‘मैला आंचल’ और ‘गोदान’ का कथ्य एक भारतीय अंचल के नग्न यथार्थ से जुड़ा हुआ है। यह यथार्थ समसामयिक और एक देशीय भी है तथा शाश्वत और भूमंडलीय भी। गरीबी और गुलामी, अशिक्षा और अन्धविश्वास, शोषण और दमन, महामारी और अकाल, जातिवाद और नस्लवाद जैसी चीजें मानव इतिहास में कोई नयी नहीं है और भविष्य में भी न रहेंगी, यह बहुत निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता। इन्हें समाप्त करने के प्रयत्न भी होते रहे हैं, पर सफलता अब तक नहीं मिल सकी है। इस संबंध में साहित्य की भूमिका यह होती है कि वह इस यथार्थ के प्रति चेतना की लौ जगाये रखे, ताकि अनुकूल समय आने पर स्थिति में बदलाव भी हो सके। उपन्यास इस काम को जितने प्रभावी ढंग से कर सकता है उतना अन्य साहित्यिक विधा नहीं कर सकती है। हिन्दी में प्रेमचंद ने इस यथार्थ के अनेक पहलुओं को अपने उपन्यास ‘गोदान’ के द्वारा उजागर किया है। इसी परंपरा में फणीश्वर नाथ रेणु भी आते हैं, जिन्होंने अपने प्रथम उपन्यास ‘मैला आंचल’ में इस यथार्थ को एक नये अवलोकन बिन्दु और नयी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया।
वस्तुतः दोनों उपन्यास वर्णन नहीं भोगा हुआ यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। गोदान की मुख्य चिंता दैन्य, गरीबी और शोषित किसानों के प्रति है, लेकिन ‘मैला आंचल’ की मुख्य चिंता किसानों के साथ-साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार से सने भारत की भी है, धार्मिक पाखंड में फंसे भोल-भाले लोगों की भी है, जनजातियों की उपेक्षा की भी है, कहने का तात्पर्य यह है कि ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ के बीच जो बीस वर्ष के अंतराल में भारत में परिवर्तन की आंधी आती है वह सब भी ‘मैला आंचल’ में है। दोनों उपन्यासों में राजा वर्ग और जमींदारों की दो मुंही राजनीति दिखाई पड़ती है। गोदान में रायसाहब ‘रामलीला’ के अवसर पर एक तरफ तो होरी से अपनी तंगहाली का रोना रोते हैं और जमींदारी छोड़ने की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों के विद्रोह की बात सुनकर उनके दमन को तत्पर हो जाते हैं। इसी तरह जेल जाकर वह एक तरफ राजनेताओं से संपर्क कायम करते हैं और दूसरी तरफ किसानों में अपनी देशभक्ति की मिसाल कायम करते हैं। इसी प्रकार ‘मैला आंचल’ में दुलारचन्द कापरा जैसे देशद्रोही भी कांग्रेस के सिंहासन पर विराजमान हो जाते हैं। गोदान में किसानों के शगुन और बेगार सुरा और सुन्दरियों पर न्योछावर कर दिये जाते हैं। इसमें जमींदार, पूंजीपति, संपादक, बुद्धिजीवियों का गठबंधन दिखाया गया है जो सिर्फ दिखावे का मुखौटा प्रयोग मे लाते हैं। आदर्शवादी मुखौटे लगाये यही दो मुंहे चरित्र बीस वर्ष बाद रेणु की शस्य श्यामल धरती को गंदा करते हैं। यही वे चरित्र हैं, जो रेणु के यहां राजनीति का झंडा उठाये देशभक्तों का नेतृत्व कर रहे हैं। इस प्रकार दोनों उपन्यास में राजनीति एक सी दिखती है। ‘मैला आंचल’ में इसे अधिक गिरा हुआ दिखाया गया है जो समय के साथ भ्रष्ट राजनीति में वृद्धि को प्रस्तुत करता है।
डा. गोपाल राय ने अपनी ‘फणीश्वर नाथ रेणु और मैला आंचल’ नामक पुस्तक में बताया है- ‘गोदान’ की तरह ‘मैला आंचल’ में भी खेती से किसानों का अविच्छिन्न भावनात्मक संबंध दिखाया गया है।’ मैला आंचल का कथाकार बताता है कि ‘लेकिन खम्हार का मोह यह नही’ टूट सकता। मुरूकवा उगते ही खम्हार जग जाता है। सुई की तरह गड़ने वाली माघ के भोर की ठंडी हवा का कोई असर देह पर नहीं होता।’ मैला आंचल का खम्हार, ‘गोदान’ के खलिहान से तनिक भी भिन्न नहीं है। ‘गोदान’ के किसान भी अपने गाढ़े-पसीने की कमाई से अन्न उपजाते हैं। पर वह उनके घरों में खुशी की लहर पैदा करने के लिए नहीं पहुंचता। सारी उपज खलिहान से ही महाजनों और बड़े किसानों की बखारों में, साल भर लिए हुए कर्ज के भुगतान के रूप में चली जाती है और फिर कर्ज का नया सिलसिला शुरू हो जाता है। यह ब्रिटिश शासन में भूमिहीन किसानों के जीवन का कडुवा सच था, जो आजादी मिलने तक बिना किसी बदलाव के विद्यमान था। रेणु ने इस सच का चित्रण प्रेमचंद की तरह ही अनुभव की विश्वसनीयता और संवेदना की गहराई के साथ किया है। यथा ‘साल भर की कमाई का लेखा-जोखा खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी फिर साल भर की खटनी। दवनी-मड़नी करके जमा करो, साल भर के खाये हुए कर्ज का हिसाब चुकाओ। यदि रह जाये तो फिर सादा कागज पर अंगूठे की रोप लगाओ। सफाई करनी है तो बैल-गाय रखो या हलवा, चरवाहा, दो। फिर कर्ज खाओ। खम्हार का चक्र चलता रहता है। खम्हार में बैलों के झुंड से दवनी, मड़नी होती है। बैलों के मुंह में जाली का ‘जाब’ लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है। मुंह में जाली का ‘जाब’।
दोनों उपन्यासों में गांवों की गरीबी का मार्मिक चित्रण किया गया है। कोई रोग हो जाने पर ग्रामीणों के लिए दवा का प्रबन्ध करना मुश्किल हो जाता है। दो बूंद आईड्रॉप के लिए पैसे न जुटा पाने के कारण लोग सदा के लिए अंधे हो जाते हैं। अनेक ग्रामीण, कालाजार, मलेरिया आदि रोगों के शिकार हैं। बच्चे रोग के सही निदान और दवा के अभाव में देखते-देखते आंख मूंद लेते हैं और इसका इलजाम किसी डायन पर मढ़ दिया जाता है। अक्सर यह डायन गांव की कोई गरीब, असहाय, बांझ या विधवा औरत होती है। ‘मैला आंचल’ में डायन संबंधी अन्धविश्वास और उसके अमानवीय पहलू का बड़ा मार्मिक और रोमांचकारी अंकन हुआ है। गांव वालों ने पारबती की मां को डायन घोषित कर रखा है। वह ग्रामीणों द्वारा सामाजिक बहिष्कार और अत्याचार की शिकार है। कालाजार के फैसले पर उसका दायित्व डायनों पर मढ़ दिया जाता है। अन्ततः डायन होने के अपराध में पार्वती की मां की हत्या भी कर दी जाती है।
दोनों उपन्यासों के गांव में अंधविश्वास अनेक रूप में फैला हुआ है। अशिक्षा और मानसिक पिछड़ापन अन्धविश्वासों के प्रसार में सहायता करते हैं। ‘मेरीगंज’ अंधविश्वास में ही जीता है। किसी को सांप काट लेता है, तो वह प्रेतनी की करतूत होती है। इसी प्रकार कमला नदी के संबंध में ग्रामीण मानस के अनेक प्रकार के मिथकों की रचना कर ली है। गांव में जब मलेरिया अस्पताल खुलने को होता है तो रूढि़वादी और अनपढ़ ब्राह्मण समाज प्रचार करता है कि विलायती दवा में गाय का खून मिला रहता है, विलायती डाक्टर सूई भोंककर जहर दे देते हैं, जिससे रोगी सदा के लिए कमजोर हो जाता है। गोदान में भी धनिया नजर से बचने के लिए गाय के गले में काला कपड़ा बांधती है। होरी भी कहता है। बाह्मण का धन है, सर फोड़कर निकलेगा।’ परन्तु रेणुजी ने अपने उपन्यास में कालीचरण और डा- प्रशान्त के माध्यम से अंधविश्वास की खिल्ली उड़ाये हैं। ऐसा गोदान में देखने को कम ही मिलता है वह भी होली के प्रसंग में।
जनजातीय विद्रोह द्वारा रेणु ने वह भी कह डाला जो प्रेमचन्द नहीं कह पाये। यद्यपि संथाल, कोल-मुंडा आदि जनजातीय विद्रोह तथा अवध का किसान विद्रोह प्रेमचंद के युग में हो चुके थे लेकिन गोदान में इसका वर्णन नहीं है। परन्तु रेणु ने इनकी उभरती शक्ति को पहचाना और इनका विद्रोह दिखाकर यही प्रकट किया कि अब बहुत दिनों तक किसान और जनजातियों को जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता है।
दोनों उपन्यासों में ‘नारी’ की भूमिका अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत की गई है। गोदान में लाख मार खाने के बाद भी होरी के प्रति धनिया का लगाव यही दिखाता है कि भारत में नारियां पति को परमेश्वर समझती हैं। गोविन्दी का लाख प्रताड़ना के बाद भी अपने पति के पैरों की धूल सिर-आंखों पर लगाना यही दर्शाता है कि तीसरे दशक में नारी पति की सेविका मात्र ही है। मालती के रूप में नारी का आधुनिक रूप प्रेमचंद जी प्रस्तुत करते हैं। लेकिन प्रेमचंद मालती को तितली कह कर नारी के आदर्श रूप को ही तरजीह देते हैं, रेणु के यहां नारी का यह पारंपरिक लगाव नहीं दिखता। कमली-प्रशांत के बीच प्रेम संबंध, ममता का प्रशांत से भावनात्मक लगाव यही दर्शाता है कि प्रेम गांव में भी हो सकता है। लेकिन दोनों उपन्यास में नारियों पर अत्याचार समान रूप से दिखाया गया है। मैला आंचल की लक्ष्मी या गोदान की सिलिया, झुनियां दोनों पर अत्याचार यथार्थ है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ‘गोदान’ स्वतंत्रता पूर्व और मैला आंचल स्वतंत्रता प्राप्ति के समक्ष भारतीय जीवन के ग्रामीण पक्ष का बहुत ही विश्वसनीय और सजीव अंकन किया है।
Question : राष्ट्रनीति दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है। गुप्त साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी बढ़ गया है, पर उस बोझ को उठाने के लिए गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नहीं, क्योंकि साम्राज्य लक्ष्मी को वे अब अनायास और अवश्य अपनी शरण आने वाली वस्तु समझने लगे हैं।
(2002)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत पंक्तियां जयशंकर द्वारा प्रणीत स्कंद गुप्त नाटक के प्रथम अंक के प्रथम दृश्य से उद्घृत हैं। इन पंक्तियों में मगध का महानायक पर्णदत्त युवराज स्कंदगुप्त के सम्मुख राष्ट्रनीति को वहन करने की शक्ति और उत्तरदायित्व की व्याख्या कर रहा है। इसी विचारधारा को यहां वाणी दी गई है।
व्याख्याः मगध के महानायक पर्णदत राष्ट्रनीति को वहन करने की क्षमता और उत्तरदायित्व की स्पष्ट व्याख्या करते हुए कहते हैं कि राष्ट्रनीति दर्शन और कल्पना का सुंदर लोक नहीं है, वरन् इसके लिए तो यथार्थ भूमि की आवश्यकता है। इसमें अत्यंत कठोर और संघर्षों से मुकाबला करना होता है। प्रत्येक कठिनाई समस्या और बाधा का रूप ग्रहण कर प्रत्यक्ष और मूर्तिमान रूप में आकर खड़ी हो जाती है। जैसे-जैसे गुप्त साम्राज्य विस्तार करता जा रहा है, वैसे-वैसे इसको बनाने-संवारने और उनकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व भी बढ़ता जाता है। यह सही है कि साम्राज्य के बढ़ने से शासक का अपने राज्य एवं प्रजा के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। किंतु गुप्त साम्राज्य के शासक देश की रक्षा करने के उत्तरदायित्व के भार से उदासीन होते जा रहे हैं। पर्णदत्त इसका कारण भी बताता है कि शासक ऐसा समझते हैं कि साम्राज्य रूपी लक्ष्मी पर तो उनका नैसर्गिक अधिकार है। वे ऐसा समझने लगे की राज्य की सत्ता पर उनका ही अधिकार है।
विशेषताः 1. ‘इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है’ इस पंक्ति में राष्ट्रनीति की कठोरता की ओर इंगित किया गया है।
2. इन पंक्तियों में पर्णदत की स्वामिभक्ति का परिचय दिया गया है।
3. यहां पर्णदत्त युवराज स्कंदगुप्त पर व्यंग्य बाण छोड़ रहे हैं।
4. ‘साम्राज्य लक्ष्मी में रूप अलंकार दर्शनीय है।’
5. भाषा काव्यात्मक और अलंकार पूर्ण है।
Question : ‘दिव्या’ के औपन्यासिक प्रतिमानों का विश्लेषण करते हुए यशपाल के ऐतिहासिक बोध के दार्शनिक आधार की समीक्षा कीजिए।
(2002)
Answer : प्रो. नलिन विलोचन शर्मा ने ‘हिन्दी उपन्यास’ शीर्षक अपने लेख में लिखा था कि प्रेमचंद हिन्दी उपन्यास के वह शिखर है जिसके दोनों ओर ढ़लान है। जब यह लेख लिख गया था, तब यह धारणा सही थी, लेकिन आज लगभग साठ वर्षों के बाद हिन्दी उपन्यास की महान उपलब्धियों को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि इस शिखर के प्रेमचंदोत्तर पक्ष में अनेक शिखर उग आये हैं, जो प्रेमचंद की ऊंचाई का मुकाबला कर रहे हैं। हां, प्रेमचंद पूर्व पक्ष में तो तीखा ढ़लान है और उसे तो कोई नहीं बदल सकता है क्योंकि अतीत बदलाव का विषय नहीं है। प्रेमचंदोत्तर पक्ष में औपन्यासिक शिखर बने हैं, उनमें एक प्रमुख स्थान यशपाल का है।
‘दिव्या’ यशपाल का एक विलक्षण उपन्यास है। यशपाल यथार्थवादी लेखक हैं और उनका यथार्थ समकालीन समाज और जीवन की वास्तविकता है। ‘दिव्या’ उनका एकमात्र उपन्यास है, जो समकालीन समाज और जीवन का चित्रण नहीं करता। लेखक ने इसे ‘बौद्धकालीन उपन्यास’ कहा है। लेखक के ऐसा कहने से पाठकों का ध्यान इतिहास की ओर चला जाता है। लेकिन इसकी कथा ऐतिहासिक नहीं है। ऐतिहासिक होने का अर्थ है प्रमाणिक होना। कथा में वर्णित घटनाओं के घटित होने का प्रमाण उपलब्ध हो तो उसे ऐतिहासिक कहा जायेगा। दिव्या के सभी पात्र काल्पनिक हैं और काल्पनिक पात्रों की जीवन की घटनाएं भी काल्पनिक होती हैं, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि दिव्या की कथा की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है और उनका वातावरण भी ऐतिहासिक है। इस पृष्ठभूमि और वातावरण के कारण ही दिव्या की कथा ऐतिहासिक हुए बिना इतिहास का आनन्द देती है। इस प्रकार यह इतिहास का आभास देने वाली कथा है। काल्पनिक घटनाओं और पात्रों पर आधारित होते हुए भी दिव्या का पाठक महसूस करता है कि वह प्राचीन भारत के एक खास दौर के समाज को अपनी आंखों से देख रहा है।
इतिहास का आभास देने की विशेषता एवं क्षमता के कारण कथा में नवीन रोचकता आ गयी है। अपने महान देश के अतीत को उसमें भी बौद्धिकालीन अतीत को जानने की उत्सुकता पाठकों में स्वभावतः जग जाती है। लेखक ने अपनी कल्पना-शक्ति का ऐसा सधा हुआ उपयोग किया है कि पाठकों के मन में लगातार यह प्रश्न उठता है कि आगे क्या होगा? यह लेखक की सफलता है।
आमतौर से रोचक उपन्यास कला की दृष्टि से हलकी-फुल्की हो जाती है, लेकिन सधे हुए लेखक यशपाल ने खास तौर से इस उपन्यास में रोचकता और श्रेष्ठ कलात्मकता का अद्भुत सामंजस्य उपस्थित किया है। कला के इस रूप की सिद्धि के कारण हैं- विषयवस्तु की सामाजिकता, घटनाओं के कारण कार्य की तरह जोड़ने की रचनात्मक क्षमता, उबाऊ बहस से बचे रहना, अनावश्यक पेचीदगी और उस क्षण से भी बचना और विषयानुकूल भाषा शैली का विधान करना, इन कारणों से यशपाल के उपन्यासों में अत्यधिक पठनीयता है। ‘दिव्या’ में भी पठनीयता बहुत है।
‘दिव्या’ की कथा रचना का वास्तविक महत्व समाज विकास की दृष्टि से उसे देखने पर समझ में आता है। ‘दिव्या’ की औपन्यासिक कथा प्राचीन भारतीय समाज की गतिशीलता एवं उथल-पुथल के आन्तरिक और बाह्य कारणों का साक्षात्कार कराती है। इस गतिशीलता और उथल-पुथल के आन्तरिक कारण हैं। तात्कालिक, सामाजिक अन्तर्विरोध जैसे वर्णाश्रम व्यवस्था और पीडि़ता में परिवर्तन की आकांक्षा तथा बाह्य कारण हैं। यवनों का हमला और उनका भारत के कुछ हिस्सों में राज कायम करना, इस ऐतिहासिक यथार्थ को यशपाल ने बड़े कौशल से कथा में नियोजित किया है। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार ई. एच. कार ने इतिहास को अतीत का वर्तमान के साथ संवाद कहा है। दिव्या की कथा भारत के बौद्धकालीन अतीत को हमारे समय के वर्तमान से तो जोड़ती ही है, वह उस अतीत-वर्तमान संवाद के माध्यम से भविष्य के परिप्रेक्ष्य का संकेत भी दिया है। कथा में वर्ण-व्यवस्था, कुल-गण व्यवस्था, दास-प्रथा, दास-विक्रय, बाजार और वैश्य समुदाय की शक्ति आदि का यथार्थ परक चित्रण करके लेखक ने पाठकों को अपने समय के समाज की ऐतिहासिक परम्परा और समकालीन भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को समझाने में मदद की है।
‘दिव्या’ में भारतीय संस्कृति की सीमाओं और उपलब्धियों की सचित्र कथा है। एक तरफ प्रवृत्ति और निवृत्ति का द्वंद्व इसमें है और निष्कर्ष रूप में प्रवृत्ति की स्थापना की गयी है। बौद्धधर्म निवृत्ति मूलक है। वह सामाजिक प्रवाह और जीवन के भोग से उदासीन है। यापक सामाजिक जीवन धारा से अलग अपना दायरा उसने बनाया बौद्धविहार के रूप में। यह निवृत्तिमूलक मार्ग या दृष्टिकोण जीवन की किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। बौद्ध विहार न तो दिव्या को मुक्ति का मार्ग दिखा सका और न पृथुसेन को अपना कर द्वंद्व मुक्त कर दिया।
द्वंद्व मुक्त होने का अर्थ है-जगत गति से अलग हो जाना। उपन्यास के प्रारंभ में रूद्रधीर के सामने अपने अधिकार और प्रतिष्ठा के लिए तलवार खींच लेने वाला भद्र का सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी कथा के अंत में सत्तासीन रूद्रधीर के सामने भिक्षा के लिए उपस्थित होता है। यह सही है कि यह भिक्षा पेट भरने या जीविका चलाने के लिए नहीं, बल्कि शत्रुता समाप्त करने, सार्वभौम मैत्री का सुख पाने, जीवन को भय मुक्त करने के महान और उदात्त उद्देश्य से प्रेरित है। महानता के बावजूद यह उदात्तता विरक्ति पैदा करने वाली है। भौतिकवादी मारिथ मनुष्य को जीवन की ओर प्रवृत्त करता है। जीवन की ओर प्रवृत्ति जीवन और समाज की समस्याओं को हल करने की शक्ति देती है। लेखक अपनी ओर से मारिथ को स्वीकार करता है। दिव्या का मारिथ की ओर हाथ फैलाना इस बात की ही अभिव्यक्ति है कि लेखक स्वयं भी जीवन की ओर प्रवृत्ति और भौतिकवादी चिन्तन को मान्यता देता है।
‘दिव्या’ उपन्यास में दिव्या के चरित्र के माध्यम से यशपाल ने समाज में नारी के स्थान, स्त्री-पुरुष संबंध के स्वरूप और नारी की स्वतंत्रता के सवाल उठाये हैं। ये सवाल ऐसे हैं, जो प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक के सामाज की विकास-परम्परा को स्मरण करने की प्रेरणा हमें देते हैं। इस क्रम में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि परम्परागत भारतीय समाज नारी की स्वतंत्रता के बारे में जैसा अमानुषिक रुख रखता है, उस पर यशपाल ने तीखा व्यंग्य किया है। व्यंग्य भी ऐसा जो भाषा के माध्यम से नहीं परिस्थिति के माध्यम से व्यक्त होता है। जब दिव्या मथुरा में दासीत्व से मुक्त होने के लिए पुरोविृत चक्रधर के घर से निकल भागती है और एक बौद्ध विहार के द्वार पर हुंचती है, वहां महास्थविर से उसकी बाती ध्यान देने लायक है। परिस्थिति का व्यंग्य यह है कि बौद्ध विहार किसी को, पीड़ित नारी को भी मुक्ति नहीं देता क्योंकि वहां उसे कहा जाता है कि पिता, पति या मासिक की अनुमति अनिवार्य है, बौद्ध विहार में शरण पाने के लिए। हद तो तब हो गयी जब दिव्या अम्बपाली को भगवान बुद्ध के द्वारा दी गयी दीक्षा का उदाहरण देती है तो उसे कहा जाता है- वह स्वतंत्र थी, वह वेश्या थी। स्वतंत्रता का वेश्यावृत्ति से जुड़ना बौद्ध मत और भारतीय समाज की रूढि़ दोनों पर चोट है।
दिव्या की एक महत्वपूर्ण विशेषता है प्राचीनकाल के वैचारिक संघर्ष को जीवन के प्रसंग में इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि प्राचीन काल भी हमें आधुनिक काल जैसा लगने लगता है। वर्णवाद, बौद्ध दर्शन और चर्वाक मत का आपसी टकराव यशपाल ने बड़े दार्शनिक अंदाज में वर्णित किया है। इस उपन्यास के प्रतिमान में वैचारिक संघर्ष एक मुख्य मुद्दा है। यशपाल वैचारिक टकराव का चित्रण वैयक्तिक आधार पर नहीं व्यवस्था के आधार पर दिखाया है। व्यवस्था के दो अर्थ हैं-, एक तो यह कि वर्णित विचारों का आधार कोई न कोई सामाजिक व्यवस्था है। दूसरी बात यह कि विचार स्वयं फुटकर ढंग से नहीं एक श्रृंखला में आकर विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में उपस्थित हैं। इस रूप में उपन्यास की यह विशेषता हमें अतीतवादी नहीं बता कर वर्तमान को समझने की दृष्टि देती है और भविष्य के विकास का संकेत भी। दिव्या के जीवनानुभव अनेक ऐसे प्रश्न उठाते हैं, जिनका संबंध विचारधारा से है। उसके जीवन में अप्रत्याशित एवं अनपेक्षित परिवर्तन हो गया, राजप्रासाद से निकलकर मथुरा में एक ब्राह्मण के पास कठिन परिस्थिति में दासी बन गयी है। इस गुणात्मक परिवर्तन का कष्ट सहने में दिव्या असमर्थ हो जाती है। ऐसे अवसर पर तरह-तरह के विचार उसके मन में आने लगते हैं। क्या उसके कर्म का दोष है? उसका दोष हो तो हो, उसके नवजात शिशु का क्या दोष? वह कभी बौद्ध श्रमण का कथन याद करती है ‘मनुष्य अपने कर्म से ही दुख पाता है, परन्तु मेरे बच्चे का क्या कर्म? बच्चे को किस कर्म का यह फल मिला है? कभी उसके मन में यह विचार आता है कि- ‘संसार केवल शक्तिशालियों के लिए है। दुखियों के लिए वैराग्य ही सुख है।’ इस कथन में एक तरफ सामाजिक वास्तविकता है तो दूसरी तरफ तत्कालीन जीवन व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी है। शोषण और उत्पीड़न के पीछे मुख्य बात यही है कि मजबूत कमजोर को सताता है।
इस प्रकार यशपाल में ‘दिव्या’ के औपन्यासिक प्रतिमानों में दार्शनिकता का सुन्दर समन्वय किया है।
Question : सुकुल बाबू ने खड़े होकर ही इस चुनाव को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है। सीट केवल एक, पर पूरे मंत्रिमंडल के लिए जैसे- एकदम निर्णायक! यही कारण है कि आज हर घटना को इस सीट से जोड़कर देखा-परखा जा रहा है। वरना और दिन होते तो क्या बिसू और बिसू की मौत!
(2002)
Answer : प्रसंग एवं संदर्भः ये पंक्तियां मन्नू भंडारी के राजनीतिक उपन्यास ‘महाभोज’ से उद्धृत की गई है। इसमें घटना अथवा व्यक्ति की अपेक्षा अवसर को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। सरोहा निर्वाचन क्षेत्र में कुछ समय पूर्व अग्निकांड होने पर न केवल धन-संपत्ति की हानि हुई अपितु अनेक हरिजन जीवित ही जला दिए गए थे और इस पर कोई विशेष कार्यवाही नहीं की गई। पर उपचुनाव निकट होने पर गांव के सामान्य हरिजन बिसेसर की हत्या हो जाने पर संबंद्ध राजनेता, पत्रकार एवं प्रशासन तंत्र सक्रिय हो जाता है। इस घटना को पक्ष और विपक्ष अलग-अलग ढंग से उछाल कर अपनी रोटी सेकने में लगे हैं।
व्याख्याः सूबे के दस वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने वाले सुकुल बाबू पिछला चुनाव हार गये थे और विपक्ष में हैं। वे इस उपचुनाव में खड़ा होना चाहते हैं। इसी बीच बिसू की मौत हो जाती है। बिसू सारी जिंदगी हरिजनों के लिए लड़ता रहा। अतः वाक् और राजनीति कला-कौशल में प्रवीण सुकुल बाबू उसकी मौत का मुद्दा उठाकर हरिजनों एवं पिछड़ी जातियों की सहानुभूति प्राप्त करके उनका वोट प्राप्त करना चाहते हैं। सुकुल बाबू उन राजनीति- व्यवसायिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भोली-भाली जनता का शोषण करते हैं। उन्हें भावनाओं की आंधी में उड़ाकर उनका सर्वस्व अपहृत कर लेते हैं। इनका इस उपचुनाव में खड़ा होना सरकार के लिए सिरदर्द है क्योंकि इस सीट पर सत्तारूढ़ पार्टी की पराजय सरकार की पराजय मानी जायेगी। यदि सुकुल बाबू के जगह कोई और खड़ा होता तो बिसू की मौत की कोई विसात नहीं होती और यह बिसू कहीं नामलेवा नहीं होता है, क्योंकि कितने दलित हरिजन मरे और मारे गये, किसी ने उसकी खबर नहीं ली।
विशेषताः 1. यहां कथाकार भारत की वर्तमान राजनीतिक विदूषता पर कठोर प्रहार किया है। यह बताया है कि राजनीति में संवेदना और जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता नहीं रह गयी है।
2. लेखिका ने सरल भाषा का प्रयोग करके भी अपनी बातें सशक्त ढंग से प्रस्तुत की है।
Question : महराज वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिन्दू ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकर्त्तव्यता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुये और इसी से स्नेह शून्य हो गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां? बस जयशंकर की।
(2001)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत गद्यांश भारतेन्दु हरिशचन्द्र कृत ‘भारत दुर्दशा’ नाटक के तृतीय अंक से उधृत है। भारत की दुर्गति में अनेक कारकों का सक्रिय योगदान रहा। इन कारकों को भारतेन्दु ने अपनी रंग परिकल्पना से पात्रों का रूप दिया। आलस्य, मदिरा, अज्ञान, रोग आदि ऐसे ही पात्र है। सत्यानाश फौजदार और भारत दुर्दैव भी भारत के पतन के कारणों के घनीभूत रूप हैं। सत्यानाश फौजदार नामक पात्र द्वारा भारतेन्दु भारत के पतन के आन्तरिक कारणों में से एक धर्म की भूमिका को स्पष्ट कर रहे हैं।
व्याख्याः भारतेन्दु हरिशचन्द्र इस अवतरण से धर्म को आधार बनाकर समाज को क्षतिग्रस्त करने वाले कारकों का पर्दाफाश करते हैं। सत्यानाश फौजदार भारत दुर्दैव को धर्म के कार्यों का उल्लेख करता है। धर्म के आधार पर समाज के विभेद, जातिभेद, बहुविवाह व बाल विवाह आदि के कारण भारत कमजोर हो चुका था। भारत दुर्दैव के यह पूछने पर कि भारत के पतन में धर्म की और क्या भूमिका रही, तो सत्यानाश फौजदार कहता है कि वेदांत ने भारत के पतन में काफी योगदान किया है। वेदान्त के ज्ञान से सभी हिन्दू ज्ञानी यानि ब्रह्म हो गए। जिससे उन्हें अभिमान हो गया। इसके फलस्वरूप वे लोग अपने कर्त्तव्यों से विमुख हो गये। ब्रह्म होने के कारण उनका समाज से कोई लेना देना नहीं रह गया। वे संवेदन शून्य हो गये। जिससे आपसी भाईचारा खत्म हो गया। लोग एक दूसरे से विमुख हो गये। सभी चीज ईश्वर की कृपा से होना स्वीकार कर लिये। ऐसे व्यक्ति देश का उद्धार नहीं कर सकता। अतः वेदांत ने भारत के पतन में अहम भूमिका निभाई है।
विशेषताः 1. संपूर्ण अवतरण में भारतीय समाज पर व्यंग्य है। अभिधा की बजाय वक्रोक्ति को नाटककार ने अपनाया।
2. वेदांत पर तीव्र व्यंग्य किया गया है।
3. शब्द चयन और वाक्य संगठन काफी सुंदर ढंग से हुआ है।
4. भारतेन्दु ने अपने निबंध में भी धार्मिक मतमतांतर छोड़ने का आग्रह किया है।
Question : ‘आषाढ़ का एक दिन’ शीर्षक की सार्थकता पर विचार करते हुए उसकी आधुनिक प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : कालिदास के ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ के मूल काव्य-नाट्य बिंब पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ की रचना हुई। मोहन राकेश ने कहा है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ के वह तीन चरित्र भी पहले से मन में स्पष्ट थे। ‘मेघदूत’ पढ़ते हुए मुझे लगा करता था कि कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की, जिसने अपनी ही एक अपराध-अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया। उस अपराध अनुभूति के संबंध में सोचते हुए जो तीन चरित्र मुझे मिले, वह थे मल्लिका, अंबिका और विलोम। कालिदास का चरित्र तो केन्द्र में था ही।’ लेखक बहुत निश्चित है कि ‘मैं इस नाटक में आज के लेखक की दुविधा चित्रित करना चाहता हूं। लेखक जो राज्य या इसी प्रकार की किसी अन्य संस्थाओं द्वारा प्रस्तावित लोभ के प्रति आकर्षित होता है और दूसरी ओर कहीं अपने प्रति प्रतिबद्ध भी होता है, राकेश के अनुसार ‘लेखक का व्यक्तित्व निस्संदेह उन सब सुविधाओं की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है जो राज्य उसे दे सकता है।’ कालिदास के माध्यम से इस नाटक में लेखक ने साहित्यकार और राज्य की आपसी टकराहट को व्यक्त करना चाहा है। प्रस्तुत नाटक में कालिदास का कथन है कि ‘मुझे वर्षों पहले यहां लौट आना चाहिए था, ताकि यहां वर्षा में भींग-भींग कर लिखता, वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अन्दर घुमड़ रहा है।’ अतः कालिदास के माध्यम से सर्जक की पीड़ा और सृजन न कर पाने की कसक ही इस नाटक का मूल भाव है और इसी के आधार पर शीर्षक रखा गया है, जो अत्यंत सटीक और कथ्य की सार्थकता को प्रतिबिंबित करता है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक प्रत्यक्ष रूप से ऐतिहासिक है। लेकिन यह एतिहासिक कहने भर को है। असलियत में पूरा नाटक आधुनिक ही नहीं, पूरा यथार्थवादी भी है। ‘लहरों के राजहंस’ की भूमिका में मोहन राकेश कहते हैं कि ‘इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तित्व का आश्रय साहित्य को इतिहास नहीं बना देता। इतिहास तथ्यों का संकलन है। एक समय तालिका में प्रस्तुत करता है। साहित्य का ऐसा उद्देश्य कभी नहीं रहा। इतिहास के रिक्त कोष्ठों की पूर्ति करना भी साहित्य का उपलब्धि क्षेत्र नहीं है। साहित्य इतिहास के समय से बंधता नहीं, समय में इतिहास का विस्तार करता है। युग से युग को अलग नहीं करता, कई-कई युगों को एक साथ जोड़ देता है….। इस तरह साहित्य में इतिहास अपनी यथातथ्य घटनाओं में व्यक्त नहीं होता, घटनाओं को जोड़ने वाली ऐसी कल्पनाओं में व्यक्त होता है, जो अपने ही एक नये और अलग रूप में इतिहास का निर्माण करती है।’ इसलिए ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक और उसके नायक को ऐतिहासिक नाटक और पात्र समझना भ्रामक दृष्टि होगी और इस दृष्टि से नाटक की आत्मा तक पहुंचना मुश्किल होगा। ‘आषाढ़ का एक दिन’ कवि कालिदास के जीवन से संबंधित नाटक है, लेकिन नाटक कालिदास के कवि रूप में प्रसिद्ध होने के बाद उतना नहीं है, जितना एक बनते हुए कवि और प्रसिद्धि के चरम शिखर पर पहुंचने वाले कवि का है। इसमें मोहन राकेश का ध्यान अधिक केन्द्रित हुआ है, उसकी प्रेयसी मल्लिका पर। मल्लिका गांव की एक सीधी-सादी भावुक प्रेममयी, समपर्ण भावना से युक्त लड़की है- ‘भावना में एक भावना का वरण करने वाली’। जिसकी केवल एक आकांक्षा है, कालिदास के व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण देखने की। अपना सर्वस्व समर्पित करके वह कालिदास को महान कवि के रूप में देखती है और एक तरह से पूरे नाटक पर उसी का कोमल व समर्पणशील व्यक्तित्व छा जाता है। कालिदास के रचनात्मक व्यक्तित्व की मूल प्रेरणा यहीं मल्लिका है। उस पूरे परिवेश का वह जीवंत तत्व है- वह काश्मीर का शासक बनकर चला तो गया, लेकिन अधिकार और सम्मान सब कुछ मिलने पर भी सुखी नहीं हो पाता, बल्कि अपने को खंडित और टूटा हुआ पाता है। अंत में मल्लिका को अपनी सहानुभूति मात्र देकर, अपने आप को स्पष्ट करके चुपके से चला जाता है। इस माने में यह कालिदास और मल्लिका का नाटक है। लेकिन वस्तुतः यह आधुनिक मानव की विवशता, उसके अंतर्द्वन्द्व तथा उसकी जटिलता का नाटक है। कालिदास के माध्यम से वर्तमान स्थिति पर बल देते हुए नाटककार मोहन राकेश दिखाना चाहते हैं कि एक सृजनशील कलाकार, किस तरह व्यवस्था द्वारा कुचल और तोड़ दिया जाता है। आज के मूल्यबोध से युक्त असाधारण कवि या साहित्यकार न व्यवस्था को एकदम छोड़ पाता है और न उससे समझौता करते हुए चल पाता है। कालिदास का अंतर्द्वन्द्व और टूटन आज के साहित्यकार का द्वंद्व और पीड़ा है। इस संदर्भ में मोहन राकेश का एक लेख ‘साहित्यकार की समस्याएं’ ध्यान में आ जाता है। एक साहित्यकार की मूल समस्या है साहित्यकार के रूप में अपना व्यक्तित्व बनाये रखने की। साहित्यकार की आर्थिक स्वतंत्रता और विचारों एवं मान्यताओं की दृष्टि से उसकी स्वतंत्रता एक अहम् सवाल है। अगर यह स्वतंत्रता नहीं है तो लेखक का व्यक्तित्व कुंठित होता है, क्योंकि समझौते अनिवार्य रूप से उसके व्यक्तित्व को तोड़ता है। साहित्यकार को इतनी सवतंत्रता तो मिलनी ही चाहिए कि वह राजनीतिज्ञ की गलत स्ट्रेटजी को गलत कह सके, उससे असहमत हो सके, क्योंकि स्वतंत्रता ही उसकी रचना को शक्ति देती है।’ कहना न होगा कि राकेश ने कालिदास के माध्यम से एक साहित्यकार के इस मानसिक द्वंद्व को सर्जनशील व्यक्तित्व और परिवेश, कलाकार और राज्य की टकराहट को व्यक्त करना चाहा है। इसी कारण कालिदास कहता है कि ‘मुझे वर्षों पहले यहां लौट आना चाहिए था ताकि यहां वर्षां में भींग-भींग कर लिखता- वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अंदर घुमड़ रहा है।’
नाटक में ऐसे बहुत सारे स्थल और भी हैं जो समकालीन प्रासंगिकता को प्रकट करते हैं। कई पात्र हैं, जो कथा- श्रृंखला को जोड़ते, विकसित करते ही नहीं चलते, पूरे नाटक को आधुनिक संदर्भों में महत्वपूर्ण बनाते चलते हैं। अम्बिका, गांव की वृद्धा स्त्री और मल्लिका की मां जिसके माध्यम से राकेश ने आज की भौतिकवादी यथार्थ में विश्वास करने वाली व्यावहारिक दृष्टि को प्रस्तुत किया है। मल्लिका और अंबिका भावना और यथार्थ का द्वंद्व प्रस्तुत करती है। आज के दृष्टि भेद और द्वंद्वों की अभिव्यक्ति इन दोनों के संवादों में होती है। जीवन को भावना न मानकर कर्म मानने वाली अम्बिका को मल्लिका की ‘भावना’ से वितृष्णा है। आज के उभरते द्वंद्व को नाटक में भरने के लिए ही राकेश ने अम्बिका की व्यवहारिक दृष्टि को विशेष रूप से प्रस्तुत किया है, जो मल्लिका के केवल भावनामय, समर्पणमय व्यक्तित्व के विरोध में पड़ता है और आपसी टकराहट से नाटक में तीखापन और द्वंद्व पैदा करता है। इस रूप में अम्बिका का चरित्र नाटक को और ही नया सौन्दर्य, नया अर्थ प्रदान करता है और उसे कोरी भावुकता से बचाता है।
सत्ता और रचनाकार के द्वंद्व के अलावे मौलिकवादी और भावनावादी दृष्टि की टकराहट को अभिव्यक्ति का गंभीर माध्यम बनाती है। स्थूल स्तर पर यह टकराहट अम्बिका और मल्लिका में है, पर सूक्ष्म स्तर पर यह कालिदास और विलोम के चरित्र चित्रण में। विलोम, कालिदास से बराबर टकराने वाला और अपने अनाधिकार प्रवेश को हमेशा सही सिद्ध करने वाला। कालिदास अन्तर्मुखी है, अपने ही द्वंद्व से पीड़ित और भावनाओं से उद्वेलित, विलोम समय की रग को पकड़कर बड़ी कुशलता से अपने अस्तित्व को बनाये रखने वाला व्यक्ति है। कालिदास, मल्लिका, अम्बिका जब-जब भावना और द्वंद्व की चरम सीमा पर हैं, तब-तब वह उन्हें छोड़ता है, अपनी उपस्थिति का पूरा अहसास कराता है और अवसर का पूरा फायदा उठाता है- यही आज की व्यावहारिक और यथार्थ दृष्टि है। कालिदास को उसकी समस्त दुर्बलताओं के साथ चित्रित करके अगर मोहन राकेश ने समाज की परंपरागत रूढि़ को तोड़ने और नाटक के नायक की प्रचलित इमेज को तोड़ने की दिशा में योग दिया है और आधुनिक मानव को प्रतिष्ठित किया है। वहां विलोम के द्वारा द्वंद्व और यथार्थ, असफलता और सफलता के बीच जीते हुए आज के मनुष्यों के बाहरी प्रयत्नों और व्यवहारवादी दृष्टि को प्रमुखता दी है।
मातुल आज की अवसरवादी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। सत्ताधारियों की चाटुकारिता और प्राप्त अवसर के अनुकूल अपने को बदल लेना उसकी प्रवृत्ति है। भौतिक लाभ ही उसका मुख्य लक्ष्य हो, अन्य पात्रों में दन्तुल है- एक राजपुरुष-सत्ता वर्ग का प्रतिनिधि। उसका साधिकार प्रवेश, हिंसक वृत्ति, कठोर हृदय, कठोर वचन, अहंकार, अधिकार की लिप्सा और असंयमित भाषा उस वर्ग की मनोवृत्ति का बड़ा सफल उदाहरण है। यही से नाटक के मूल द्वंद्व भी। कालिदास के आन्तरिक संघर्ष की शुरूआत होती है। प्रियंगु- राजमहिषी भी उसी सत्ता वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। प्रियंगु के व्यक्तित्व में अभिजात्य वर्ग के दर्प, संस्कार, विनम्रता, कुशलता, व्यवहारिक शिष्टता भी है और एक स्त्री या पत्नी के रूप में मल्लिका के आगे हीनता, ईर्ष्या और घबराहट भी। जगह-जगह अपनी हीन भावना को, घबराहट को वह झूठे दर्प से दबा लेती है। निरन्तर अपना महत्व दिखाते हुए अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेना चाहती है और अंत में ग्रामीण सादगी और अनन्यता के आगे पराजित होकर एक खिसियाहट के साथ अपने झूठे महत्व को बनाए रखते हुए चली जाती है। सत्ताधारियों की अल्पज्ञता और स्थूल दृष्टि का संकेत भी प्रियंगु के माध्यम से दिया गया है। इस प्रदेश के कुछ वातावरण को अपने साथ ले जाऊं आदि में यही संकेत है।
नाटक को आधुनिक संदर्भ या प्रासंगिकता देने वाले पात्रों में रंगिणी-संगिणी और अनुस्वार, अनुनासिक भी मुख्य है। समसामयिक व्यंग्य और राकेश का व्यक्तित्व इन सबमें साकार हुआ है। समाज का सत्ता संपन्न वर्ग हर उपलब्धि के पीछे असामान्य की कल्पना करता है। ग्राम उनके लिए अजूबा है। इसका चित्र रंगिणी-संगिणी में खूब उभरा है। इस प्रदेश में कालिदास जैसी असाधारण प्रतिभा को जन्म दिया है। ‘यहां की तो प्रत्येक वस्तु असाधारण होनी चाहिए।’ जैसी बात और ग्राम की छोटी-छोटी चीजों के प्रति अतिरिक्त उत्साह और उत्सुकता जहां उनकी अज्ञानता का सूचक है, वहां इस वर्ग की कृत्रिमता तथा संवेदन हीनता का भी। साथ ही आज की इस अध्ययन दृष्टि या शोधवृत्ति पर भी व्यंग्य है, जो केवल बाह्य उपकरण एकत्रित करती रह जाती है। आत्मा में प्रवेश नहीं कर पाती, लेकिन मिथ्या दंभ से भरी रहती है। अनुस्वार-अनुनासिक कर्मचारी और व्यवस्था तंत्र से जुडे़ चरित्रों की ध्वनियां है। उनकी बातें और उनकी अर्कमण्यता, औपचारिकता कई अर्थ खोलती हुई बेहद रोचक दृश्य बनाती है। अव्यवस्था में व्यवस्था का यह नाटक आज की खोखली, प्रदर्शनकारी वृत्तियों पर बेहद मनोरंजक ढंग से व्यंग्य करता है। ये दोनों प्रशासकीय व्यवस्था के आलस्य और अकर्मण्यता पर व्यंग्य है। अंततः नेमिचंद्र जैन के शब्दों में- नाट्य रूप की दृष्टि से ‘अषाढ़ का एक दिन’ संगठित यथार्थवादी नाटक है, जिसमें बाह्य ब्योरे की बातों से अधिक परिस्थिति के काव्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास है। इस दृष्टि से शायद हिन्दी का यह पहला यथार्थवादी नाटक है, जो बाह्य और आंतरिक यथार्थ को उनकी समन्विति में, उनके अंर्तद्वंद्व में देखता और प्रस्तुत करता है। तब निश्चित रूप से वह उसे अन्य हिन्दी नाटकों से अलग करते हैं। पहले ही कहा गया है कि ‘अन्तर्निहित यथार्थ’ की खोज राकेश के साहित्य में ज्यादा है। पात्रों के अन्तर्द्वंद्व और विभिन्न संकेतों से ही वह आज के यथार्थ को प्रस्तुत करते हैं।
Question : जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय के इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी, जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और इसे कर्मयोग और ज्ञान योग का समकक्ष मानते हैं।
(2001)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी द्वारा लिखित ‘चिंतामणि भाग-1’ निबंध संग्रह के अंतर्गत ‘कविताम्या है’ निबंध से उधृत है। प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी कविता के स्वरूप को दर्शाने का प्रयास किये हैं।
व्याख्याः निबंधकार का कहना है कि ‘आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है’ तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या आचार्य शुक्ल आत्मा को बंधनग्रस्त मानते हैं, तभी तो उसकी मुक्ति का प्रश्न उठता है? ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। ‘ऋते ज्ञानाय मुक्ति’ ऐसा कहा गया है। आचार्य शुक्ल जी आत्मा को नित्य और मुक्त ही मानते हैं। यहां उनका अभिप्राय है कि कदाचित् आत्मा के स्वरूप को न समझ कर या आत्मज्ञान के अभाव होने पर बंधन होता है। जीव को इस संबंध से मुक्त हो जाना आत्मा की मुक्तावस्था का लाक्षणिक अभिप्राय है। शुक्ल जी का कहना है कि ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ‘ज्ञानदशा’ है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था ‘रसदशा’ है।’ हृदय की शुद्धता आत्मशुद्धि है। कविता हृदय का व्यापार है। यह ऐसा भावपूर्ण कार्य है, जो विस्तार करके स्वार्थ या पशुत्व से अलग करके मनुष्य को देव बनाने का कार्य करता है। मनुष्य अपने हृदय को संपूर्ण सृष्टि में विछा देता है। वह दृष्ट प्रसार से होता हुआ अपने को परमसत्ता से जोड़ता है। हृदय की यह मुक्तावस्था ‘रसो वै सः’ की अवस्था प्राप्त करती है। इसलिए शुक्ल जी इसे रसदशा कहते हैं।
इस अवस्था की सम्प्राप्ति में मानवीय वाणी, जिन शब्द विधानों का प्रयोग करती हैं उसे ‘कविता’ कहते हैं। इस प्रकार कविता साधन है जिसके माध्यम से रसदशा की सम्प्राप्ति संभव है। ‘रसो वै सः’ ब्रह्म का लक्षण है। यह जीव की संपूर्ण मुक्तावस्था है। इस अवस्था में मनुष्य अपने हृदय को संपूर्ण सृष्टि में विछा देता है अर्थात् यह जीवनमुक्ति की अवस्था है। जहां जीव बोधिसत्व की भांति सब कुछ प्राप्त हो जाने पर भी लोक-कल्याणार्थ कर्म करता हो। यह गीता का ‘स्थितप्रज्ञ’ है, जिसको सब कुछ प्राप्त हो गया है और कुछ प्राप्त करने के लिए नहीं रह गया है, फिर भी वह कर्म करता है। यह परार्थ की अवस्था है। इस प्रकार कविता की साधना व्यक्ति को स्वार्थ से परार्थ में पहुंचाकर, उसे अंततः परमार्थ में पहुंचाने का प्रयास करती है।
विशेषताः 1. शुक्ल जी के निबंधों में वैसी कसावट होती है जैसी रूई की बंधी गांठ में। यदि उसको धुन या तूम कर विस्तृत किया जाय तो निबन्ध का कई गुना आकार हो सकता है।
2. आचार्य शुक्ल की सूत्रात्मक परिभाषाएं प्रसिद्ध हैं। इसी अवतरण में ‘आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है’ तथा ‘हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।’
3. भाषा की कसावट और प्रवाहमयता काफी सुंदर है।
Question : गोदान में प्रस्तुत गांव और शहर की कथाओं के संबंध पर विचार कीजिए एवं उपन्यास के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
(2001)
Answer : गोदान के दोहरे कथा पर आलोचकों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। शांतिप्रिय द्विवेदी को ग्राम कथा के इतर सारे प्रसंग क्षेपक लगते हैं। डा. गुलाब राय के अनुसार ‘गोदान के गांव के चित्र अधिकारिक रूप से तथा शहर के चित्र प्रासंगिक रूप से आए हैं।’ नलिन विलोचन शर्मा ने इसका उत्तर देते हुए लिखा है ‘नदी के दो तट असंबद्ध दिखते हैं, पर वे वस्तुतः असंबद्ध नहीं रहते, उन्हीं के बीच जलधारा बहती है। इसी तरह गोदान भी असंबद्ध सी दीखने वाली दोनों कहानियों के बीच भारतीय जीवन की विशाल धारा बहती चली जाती है। भारतीय जन-जीवन का, जो एक ओर तो नागरिक हैं और दूसरी ओर ग्रामीण, जो एक साथ अत्यंत प्राचीन भी है और जागरण के लिए छटपटा भी रहा है, इतने बडे़ पैमाने पर यथार्थ चित्रण भारतीय भाषा में अन्यत्र नहीं मिलता।’
‘गोदान’ में नगर-देहात दोनों को समेटने की कोशिश है। इसी कोशिश में ‘गोदान’ को शक्ति और विस्तार दिया है। गोदान में उस भारत का चित्रण है, जो गांवों और शहरों, प्राचीन एवं नवीन सभ्यताओं में द्विधा विभक्त व्यक्तित्व रखने वाला विचित्र देश है। इस देश के अलग-अलग पहलू ही तो है- होरी, गोबर, रायसाहब, मेहता, तंखा, खन्ना, ओंककारनाथ और झिंगुरी सिंह एक ही देश में रहते हैं।
वे कम या ज्यादा आस्था के साथ एक ही धर्म के अवलम्बी है। उनमें से कुछ का पारस्परिक जीवन प्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से उलझा हुआ है और कुछ का अप्रत्यक्ष रूप से। इस तरह वे गोदान के एक ही रंग मंच पर आते हैं। नलिन जी के शब्दों में ‘गोया मंच के दो खण्ड हैं, जो एक साथ ही दर्शक को दीख पड़ते हैं, पर अपने लिए मानो नजदीक होकर भी दूर है, पृथक्क हैं।’ नलिन जी ने ग्रामेतर कथा को पूर्णतः ग्रामीण कथा के समानान्तर स्थापत्य की संज्ञा दी है।
यह सही है कि उपन्यास में गांव और शहर की कथाओं को बड़े कमजोर सूत्र से बांधने का प्रयास किया गया है। दोनों कथाओं के बीच छोटी सी कड़ी है, वह यह है कि गोबर मिर्जा के यहां नौकर है और होरी का गांव रायसाहब की जमींदारी में है। कुछ लोग असंबद्धता को आधार बनाकर दोनों कथाओं को स्वतंत्र नामों के साथ स्वतंत्र जिल्दों में प्रकाशित करने की सलाह देते हैं। ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि प्रेमचंद ‘गोदान’ में गांव और शहर को एक साथ रखकर भारत का तत्कालीन अखंड चित्र देना चाहते हैं। गांव सामंतीय व्यवस्था का अवशेष है और शहर पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक। टूटते हुए गांव और उभरते हुए शहर का जिक्र कर प्रेमचंद उस संक्रांतिकाल को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, जिसमें प्राचीन मूल्य टूटकर खंड-खंड हो रहे थे और नई पूंजीवादी व्यवस्था के मूल्य बनने शुरू हो गये थे। वह काल मुख्यतया परिवर्तन का काल था। पूंजीवाद अपने फेंटे में सामंतवाद को भी लपेटकर प्रभावहीन कर रहा था। इसलिए गोदान में न केवल महाजनों की भरमार है, बल्कि वे काफी संगठित भी हैं। गांव के महाजन किसानों के लिए जोंक बने हुए हैं और शहर के महाजन जमींदारों के लिए। जमींदार रायसाहब जमींदारी पर मंडरा रहे खतरे को भांपकर ही महाजनी में कुछ पैसा लगाना चाहते हैं- चीनी मिल में शेयर खरीदना, पांलिशी खरीदना आदि इसके प्रमाण हैं। प्रेमचंद गांव के परिदृश्य में शहर को रखकर यह बताना चाहते हैं कि शहर का अस्तित्व गांवों के शोषण पर ही टिका हुआ है। गावं की श्रम शक्ति एवं उत्पादन का दोहन करते हुए ही शहर समृद्ध हुआ है।
समाज किसानों और जमीदारों का नहीं रह गया, महाजनों और कर्जदारों का बनता जा रहा है। ‘गोदान’ गांव और शहरों में महाजनों के प्रभाव को चित्रित करने वाला उपन्यास है। उपन्यास का नायक होरी जब जरा सम्पन्न था तो महाजनी भी करता था और उसका बेटा गोबर शहर में चार पैसा कमाने के बाद महाजनी का पेशा अख्तियार कर लेता है। गांव में दातादीन, झिंगुरी सिंह, दूलारी सहुआइन, नोखेराम हैं, तो शहर में खन्ना और तंखा हैं। गांव के किसानों में एकता हो या न हो, पर महाजनों में एकता है। गांव के महाजन झिगुरी सिंह का सीधा संबंध शहर के बड़े महाजन खन्ना से है। यह महाजनी सभ्यता इतनी शक्तिशाली है कि गांव का अदना महाजन भी जमींदार से जरा भी नहीं डरते। पूंजीवादी व्यवथा में सबसे ताकतवर चीज है- प्रेस और उसे भी जो चाहे खरीद सकता है। संपादक ओंकारनाथ बड़ी-बड़ी डींगे हॉकते हैं पर यथार्थ में वे महाजनों की गुलामी या ज्यादा से ज्यादा उनके साथ ब्लैक मेल करने के और कुछ नहीं कर पाते। गांव की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है। ग्राम व्यवस्था के दो आधार स्तंभ हैं। एक किसान और दूसरा जमींदार। किसान गांव में रहता है और जमींदार नई सभ्यता के बीच अपने लिए अधिक से अधिक सुविधाएं पाने के लिए शहर में रहता है। प्रेमचंद इस व्यवस्था को यानी इसके दोनों स्तंभों को गिरते हुए, दिखाने के लिए शहर और गांव को एक साथ लेकर चलते हैं। इस प्रकार होरी, रायसाहब, गोबर, खन्ना और तंखा से संबद्ध कथाएं, ईषत् भिन्न प्रतीत होती हुई भी एक ही केंद्र से उद्भूत हैं। इन कथाओं का विषय या अभिप्राय एक है, पूंजीवादी-सामंतवादी शोषण व्यवस्था का चित्रण। इस केंद्र से संबद्ध होने के कारण ये कथाएं कुछ घटनाओं को छोड़कर सुसंघटित स्थापत्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
‘गोदान’ के स्थापत्य के सौन्दर्य को धूमिल करने का सारा श्रेय ‘मालती, मेहता, खन्ना व गोविन्दी’ की कथा को है। इस कथा का विषय ‘गोदान’ के केंद्रीय विषय से सर्वथा असंबद्ध है। इस कहानी के द्वारा प्रेमचंद अपनी मान्यताओं के अनुरूप नारी आदर्श और प्रेम के आदर्श का निरूपण किया है। उपन्यासकार के मतानुसार पतिव्रत्य सेवा, वात्सल्य, स्नेह, ममता, करुणा, त्याग, सहिष्णुता आदि नारी धर्म के आदर्श है।
इस प्रकार ‘गोदान’ के केंद्र में दो प्रतिपाद्य विषय हो गये हैं। जिनके प्रतिपादनार्थ दो कहानियां एक साथ अग्रसर होती हैं। यद्यपि इन कहानियों को दुर्बल सूत्रों से जोड़ने का प्रयास किया गया है, पर दोनों की प्रकृति एक दूसरे से इतनी भिन्न है कि इन्हें एक साथ प्रस्तुत करना सार्थक नहीं कहा जा सकता। संक्षेप में ‘गोदान’ का केंद्र है- भारतीय शोषण-चक्र का चित्रण। इसी नाभिक से उपन्यास का वृहद वृक्ष फूटा है, जिसकी शाखाएं और टहनियां इस केंद्र से संबद्ध हैं, वे उपन्यास के स्थापत्य में योग देती है। मालती, मेहता, गोबिन्दी, खन्ना की कहानी का अंकुरण इस बीज से नहीं होता। यह कहानी मुख्य वृक्ष से चिपका हुआ वह दूसरा कमजोर वृक्ष हैं, जिसकी डालों, टहनियों और पत्तों को सावधानी से देखकर ही पहचाना जा सकता है।
प्रेमचंद ने गोदान द्वारा हिन्दी कथा साहित्य को मनोरंजन एवं उपदेश की सीमित परिधि से मुक्त कर महान उद्देश्य से युक्त किया। गोदान मानव नियति से जुड़ी जिज्ञासा से उत्पन्न मनोरंजन है। गोदान में यथार्थ की भावभूमि द्वारा उद्देश्य का प्रतिपादन हुआ। गोदान का मुख्य विषय है- जमीदारों, महाजनों और सरकारी अमलों के शोषण के फलस्वरूप दयनीय जिन्दगी जीने वाला भारतीय किसान, जिसका प्रतिनिधित्व होरी और उसका परिवार करता है। ‘गोदान’ भारतीय कृषक जीवन की आंसू भरी कहानी, विषाद गीत है। कथाकार ने बेसारी के समस्त गरीब किसानों को जमींदार, महाजन और पुलिस के शोषण की चक्की में पिसते दिखाया है। फसल हो या न हो, जमींदार लगान वसूलेगा ही, साथ ही समय-समय पर ‘सगुन’, ‘चंदा’, ‘बेगार’ आदि भी किसानों को देना ही होता है। जमीन की बेदखली के डर से किसान महाजन से कर्ज लेता है। महाजन इतनी कड़ी सूद दर पर कर्ज देता है कि एक बार जो किसान कर्ज के दलदल में फंसता है, वह आजीवन उससे मुक्त नहीं हो पाता है। पुरोहित भी धर्म, ईश्वर और परलोक का भय दिखा कर किसानों को लूटता है। समय-समय पर पुलिस-कर्मचारी और सरकारी अमले भी किसानों का शोषण करने से वाज नहीं आते। कथाकार इस कथा के द्वारा किसानों की दुर्दशा का कारण विदेशी साम्राज्यवाद के सहायक जमींदार, महाजन और प्रशासनतंत्र को मानते हैं, और जब तक इस व्यवस्था का अन्त नहीं हो जाता तब तक किसानों की दशा में कोई परिवर्तन संभव नहीं। प्रेमचंद का यह भी उद्देश्य है कि जब तक किसान शिक्षित तथा पुरानी, जर्जर, अवैज्ञानिक मान्यताओं से मुक्त और एकजुट नहीं होते तब तक उन्हें पीसने वाली शोषण व्यवस्था का अंत नहीं हो सकता। मेहता का कथन इसी को इंगित करता है।
‘इनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काश, ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते, तो यों न ठुकराये जाते। देश में कुछ भी हो, क्रांति ही क्यों न आ जाए, इनसे कोई मतलब नहीं। इनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गयी हो।’
इसी प्रकार होरी का भावी दमाद रामसेवक कहता है- ‘संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता। जितना दबो उतना ही लोग दबाते हैं। चारो तरफ लूट है। यहां तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है। कभी जमींदार ने किसी बड़े अफसर की दावत दी थी। किसानों ने देने से इंकार कर दिया। बस, उसने सारे गांव पर जाफा कर दिया। मैंने गांव भर में डोंडी पिटवा दी कि कोई बेसी लगान न दो और न खेत छोड़ो। गांव वालों ने मेरी बात मान लीं और सबने जाफा देने से इनकार कर दिया। जमींदार ने देखा, सारा गांव एक हो गया तो लाचार हो गया। खेत बेदखल कर दे, तो जोते कौन?’
तात्पर्य यह कि प्रेमचंद किसानों के शोषण की समस्या का समाधान उनकी एकता, अपने अधिकारों के प्रति सजगता और विद्रोह में देखते है। प्रेमचंद ‘गोदान’ में इस समाधान का संकेत देकर ही रह गये हैं, उसे विकसित नहीं कर सके। ‘गोदान’ का होरी चुपचाप समस्त अत्याचार और शोषण सह लेता है। उसमें विद्रोह की चेतना है ही नहीं। शताब्दियों के शोषण, सामन्ती जीवन दर्शन और व्यवस्था की पोषक धार्मिक मान्यताओं ने किसानों की विद्रोह की भावना को बिलकुल ही निचोड़ लिया है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि किसानों की विद्रोह चेतना की संभावना ही समाप्त हो गयी है। इस संभावना के दर्शन हमें होरी के पुत्र गोबर और उसकी पत्नी धनिया के चरित्र से होता है। गोबर न केवल शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था का कट्टर विरोधी है, वरन उसे सैद्धांतिक आधार प्रदान करने वाला नैतिक, सामाजिक मूल्यों, धार्मिक विश्वासों और परम्परागत मान्यताओं का भी कट्टर दुश्मन है। गोबर कहता है- ‘भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहां जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है।’ वह दातादीन को कहता है- ‘तुम लोगों ने किसानों को लूट-लूट कर मजदूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे।’ इसी प्रकार गोबर जमींदार के कारिन्दा नोखेराम की भी खबर लेता है। गोबर के इस कथन में जाग्रत और विद्रोह के लिए तैयार किसानों की आवाज स्पष्ट सुनायी पड़ती है। इस प्रकार ‘गोदान’ में शोषण चक्र में पिसते हुए छोटे किसानों के दयनीय जीवन का ही नहीं, उससे मुक्ति के लिए विद्रोह भावना जागृत करना ही प्रेमचंद का उद्देश्य है।
सामंतवाद का पतन और पूंजीवाद का उभार इस उपन्यास की महत्वपूर्ण विशेषता है। पूंजीवादी व्यवस्था के खामियों का चित्रण करना इस उपन्यास का एक अन्य उद्देश्य है। किसान का मजदूर बनना और सामन्त वर्ग का पतन पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन है। इसी पूंजीवादी व्यवस्था ने प्रेस की स्वतंत्रता भी हर लिया है, जो किसी भी समाज के लिए घातक है।
‘गोदान’ का एक अन्य उद्देश्य नारी के उदात्त-मूल्यों को स्थापित करना भी है। गोदान में प्रेमचंद ने मेहता-मालती प्रसंग द्वारा अपने नारी विषयक मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। मालती ‘गोदान’ की नगर कथा की प्रमुख स्त्री पात्र है। प्रेमचंद ने उसे एक स्थान पर ‘नवयुग की साक्षात् प्रतिमा’ और अन्यत्र ‘बाहर से तितली’ भीतर से मधुमक्खी’ कहा है। प्रेमचंद नारी की आधुनिकता ओर तितलीपन को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं। प्रेमचंद का नारी विषयक आदर्श मालती में पूर्णतः प्रतिफलित हुआ है। प्रेमचंद चाहते थे कि भारत की शिक्षित स्त्रियां पारिवारिक बन्धन में न पड़ कर पुरुषों को देश सेवा के लिए प्रेरणा दें और स्वयं भी मैदान में आकर समाज की सेवा करें। मालती उनकी इस आकांक्षा को रूपायित करती है। मालती नवयुग की आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व तो करती ही है, वह प्रेमचंद के इच्छित विश्वास का सजीव विग्रह भी है।
इस प्रकार गोदान का उद्देश्य काफी महान था। प्रेमचंद जो कार्य उपन्यास लिख कर रहे थे, वही कार्य गांधी जी भी अपने ढंग से कर रहे थे।
Question : उत्पीडि़त होकर भी वह शरण पाये हैं। अशरण हो तो वह कहां जायेंगी। वर्षा में गृह विहीन स्तम्भ की ओट पाने का ही यत्न करता है--। उसके नेत्र भींग गये और वह मौन हो गई। सोचा- प्रतुल और अंजना भी उसके दुर्भाग्य का रहस्य जानते हैं, इसीलिए स्थूल बंधनों का उपयोग करना आवश्यक नहीं समझते। स्थूल बंधनों से कहीं अधिक दृढ़, परिस्थिति के सूक्ष्म अदृश्य बंधन ही उसे बांधे हैं।
(2001)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश यशपाल द्वारा रचित ‘दिव्या’ नामक उपन्यास से उधृत है। दास-व्यवसायी प्रतुल ‘दिव्या’ को मगध में एक दूसरे दास व्यापारी भूधर के हाथों बेच देता है। दिव्या समझती थी कि प्रतुल की सहृदयता केवल उसे मद्र की सीमा से सुरक्षित पार ले जाने तक है। मद्र की सीमा के परे दासत्व और उत्पीड़न का पाश उसकी प्रतीक्षारत है। वह मौन रहकर इस उत्पीड़न को सह लेती है। असुरक्षा और सामाजिक कलंक के भय से दिव्या चुप रहती है।
व्याख्याः दिव्या अपनी मुक्ति को लेकर सोचती है कि अंततः वह कहां जाये? रह-रह कर उसे पृथुसेन से मिली प्रवंचना याद आती है। दास व्यवसायी प्रतुल से भी उसने त्रस ही पाया है। ‘बेटी’ कहकर भी वह उसके प्रति निर्दय रहा है। उसने दिव्या के एक मात्र अवलम्ब ‘धात्री’ को छीनकर न जाने कहां लोप कर दिया है?
उसके प्रत्यक्ष स्नेहमय व्यवहार के पीछे बन्दी को संतुष्ट और सुरक्षित रखकर ही छलना दिव्या से छिपी नहीं है। वह सोचती है उत्पीडि़त होकर भी वह यहां शरण तो पायी है। उसके पास अन्यत्र कोई ठिकाना स्पष्ट नहीं है। दिव्या के प्रसव की प्रतीक्षा न कर अंततः प्रतुल उसे दूसरे दास व्यवसायी भूधर के हाथों बेच देता है और वहां से वह दासी के रूप में पुरोहित चक्रधर द्वारा खरीद ली जाती है। दिव्या को अपने आने वाले समस्याओं का ज्ञान है। वह सिर्फ अपनी कोख के लिए इन समस्याओं से जुझने को तैयार है।
विशेषताः 1. उपन्यासकार ने दिव्या के जीवन संघर्षों से नारी के शोषण को दिखाया है। साथ ही नारी के ममतामयी रूप को भी।
2. ‘वर्षा में गृह विहीन स्तम्भ की ओट पाने का ही यत्न करता है।’ एक नग्न यथार्थ है, जिसके माध्यम से यशपाल ने बौद्धकालीन समाज का ही नहीं, वर्तमान समाज पर भी अपनी दृष्टि को रखा है।
3. भाषा की दृष्टि से प्रस्तुत अवतरण अति सुन्दर है। इसमें शब्दों का चयन एवं वाक्य विन्यास संगठित रूप में प्रस्तुत हुआ है।
Question : नीलकमल की तरह कोमल और आर्द्र, वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय! मैं चाहती थी उसे अपने में भर लूं और आंखें मूंद लूं। मेरा तो शरीर भी निचुड़ रहा है मां। कितना पानी इन वस्त्रें ने पिया है। ओह! शीत की चुभन के बाद उष्णता का यह स्पर्श।
(2000)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश मोहन राकेश द्वारा लिखित ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक के प्रथम अंक से उद्धृत है। प्रस्तुत अवतरण में नाटककार ने मल्लिका के मनोवृत्ति पर प्रकाश डाला है तथा उसके कोमल इच्छाओं का वर्णन किया है। मल्लिका अपनी मां अम्बिका से यह कहती है।
व्याख्याः मल्लिका दक्षिण से उड़कर आती बगुलों की पंक्तियों को देखने हेतु घर से बाहर निकल जाती है। आषाढ़ के पहले दिन के घनघोर बारिस में उसका अंग-अंग भीग जाता है, सारे कपड़े गीले हो जाते हैं, उसका रोम-रोम वर्षा के जल से भींग जाता है, उसके अंग-अंग में सिहरन होने लगती है। वह अपने मुंह से उस दृश्य का वर्णन करने लगती है, जिसे उसने कंप-कपाती सर्द हवाओं और गरजते मेघों की ध्वनियों के बीच महसूस किया था। वह अपनी मां को बताती है कि उसे भींगने का कोई गम नहीं है, क्योंकि यदि वो इसी समय बाहर नहीं निकली होती तो उन दिव्य दृश्यों के अवलोकन से वंचित रह जाती। वह उन दिव्य-दृश्यों का वर्णन करते हुए कहती है कि वे दृश्य नील-कमल की तरह कोमल और आर्द्र, वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय थे। मल्लिका प्रयास करती है कि वे दृश्य हमेशा के लिए उसके हृदय पटल पर अंकित हो जाय।
उस दृश्य को देखने के समय जो शीतलता वर्षा के कारण थी, अब उसे याद करने के वक्त मल्लिका को उष्णता की अभास देती है।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. यह उक्ति का वर्णन मल्लिका पूर्व दीप्ति पद्धति (फ्लैश बैंक) में करती है।
2. कोमल कांत पदावली का प्रयोग हुआ है।
3. ‘नील कमल’ ‘चित्रमय’ ‘शीत उष्ण’ आदि तत्सम शब्दों के साथ ‘निचुड़’ जैसा देशज शब्दों का प्रयोग भावों को और अधिक संप्रेषणीय बना देता है।
Question : ‘चिन्तामणि’ भाग एक के निबंधों के आधार पर रामचंद्र शुक्ल का निबंध कला की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
(2000)
Answer : किसी भी कला रूप के लिए कोई सामान्य, सार्वकालिक या सार्वभौम आदर्श अथवा प्रतिमान निर्धारित नहीं किया जा सकता। फिर भी, विवेचन की सुविधा के लिए एक आधार खड़ा कर लिया जाता है। इसी दृष्टि से निबंध विधा का आधारभूत ढ़ांचा खड़ा करने वाले उसके कतिपय मूल विधायक तत्वों और लक्षणों का निर्धारण कर लिया गया है। इन्हीं मूल तत्वों और लक्षणों के आधार पर निबंध कला का विवेचन किया जाता है। ये विधायक तत्व इस प्रकार हैं:
गद्य माध्यम, औसत आकार, सीमित विषय, लेखकीय व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का सद्भाव, विवेचन विश्लेषण प्रस्तुति की व्यवस्था, सुसंबद्धता, एक सूत्रता, समर्थ भाषा और प्रौढ़ सुगठित शैली और प्रयोजन।
आचार्य शुक्त के अनुसार ‘निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है…. आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए, जिसमें व्यक्तित्व अथवा व्यक्तिगत विशेषता हो।’ आगे निबंध कला पर कहते हैं कि ‘निबंध का अर्थ- प्रधान गद्यविधा है जो सघन बौद्धिकता, गूढ़विचारों की कसावट, लेखकीय व्यक्तित्व एवं वैशिष्ट्य, भाषा चमत्कार और असाधरण शैली से पुष्ट होता है तथा अपनी वैचारिक गहनता से पाठकों की बुद्धि को उत्तेजित करके उसमें नये-नये विचारों की उद्भावना करता है।’
शुक्ल के निबंधों के बारे में प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि ये मनोवैज्ञानिक निबंध है या साहित्यिक विषय प्रधान हैं या व्यक्ति प्रधान। स्वयं शुक्ल जी ने इसके बारे में लिखा है- "इस पुस्तक में मेरी अंतर्यात्र में पड़ने वाले कुछ प्रदेश हैं। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि, जहां कहीं मार्मिक या भावाकर्षक स्थलों पर पहुंची है, वहां हृदय थोड़ा बहुत रमता, अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कुछ कहता गया है। इस प्रकार यात्रा के श्रम का परिहार होता रहा है। बुद्धि पथ पर हृदय भी अपने लिए कुछ न कुछ पाता रहा है।…. इस बात का निर्णय में विज्ञ पाठकों पर छोड़ता हूं कि ये निबंध विषय प्रधान हैं या व्यक्ति-प्रधान।"
आचार्य शुक्ल ने चिंतामणि में कुल सत्रह निबंध संग्रहीत किये हैं। इसमें प्रथम दस निबंध मनोविकार से संबंधित हैं, जबकि छह सैद्धांतिक और एक व्यवहारिक निबंध। आचार्य शुक्ल ने इस संग्रह के निबंधों को ‘विचारात्मक निबंध’ विशेषण प्रदान किया है।
शुक्ल जी की निबंध कला का वैशिष्ट्य और महत्व का प्रमुख कारण यह है कि उनके ये निबंध मनोवैज्ञानिक पड़ताल से समन्वित और संबद्ध विषय के गहन-विशद चिंतन मनन से पुष्ट हैं। उनको पढ़कर यह तत्काल और असंदिग्ध रूप से समझ में आ जाता है कि ये निबंध किसी बहुअधीत, व्यापक जीवनानुभव से संपन्न प्रतिभाशाली लेखक की गुरू-गंभीर, किंतु सरस रचनात्मक कृतियां हैं, मन-बहलाव के हलके-फुलके वायवीय उपकरण नहीं। उदाहरण के लिए क्रोध निबंध में वैर की परिभाषा कितने सरल और तार्किक ढ़ंग से देते हैं:
"वैर-क्रोध का अचार या मुरब्बा है। जिससे हमें दुःख पहुंचा है, उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध हमारे हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह वैर कहलाता है।"
इस प्रकार शुक्ल जी न तो वायवीय ढंग से क्रोध और वैर की विशेषता बताते हैं, न स्थूल उपदेश देते हैं। इसके विपरीत वे मनोवैज्ञानिक संदर्भों से जुड़ते हैं, मनोभावों के तारतम्य का निरूपण करते हैं, मनोविकार विशेष का संबंध स्थापित करते हैं, गहन विवेचन-विश्लेषण करते हैं, अपने मानसिक विचार और निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं तथा इस पूरी प्रक्रिया में उनका लेखन गंभीर और अनुशासित बना रहता है।
जहां तक निबंध के आकार का विषय है, तो चिंतामणि के निबंध सीमित आकार के नहीं हैं। लेकिन यह तत्व निबंध कला का गौण लक्षण हैं। फिर भी भाव और मनोविकार, उत्साह, भय, क्रोध, घृणा आदि मनोविकार संबंधित निबंध छोटे आकार के हैं। शेष मनोविकार संबंधित निबंध औसत आकार के। चिंतामणि के सैद्धांतिक और व्यवहारिक निबंध के आकार काफी बड़ा है। फिर भी इसमें विषय-वस्तु के भटकाव के दर्शन नहीं होते। विषय की व्यपाकता ने इसे वृहत् रूप दिया। जिसमें निबंध कला के सभी तत्व मौजूद हैं।
साहित्य का एक रूप विशेष होने के कारण साहित्य होने की, सर्जनात्मक होने की, एक अनिवार्य शर्त और उसके एक मूलघटक के रूप में रचनाकार के व्यक्तित्व का सद्भाव निबंध में भी आवश्यक है। निबंध चाहे व्यक्ति परक हो या वस्तु परक, वैयक्तिक हो या निर्वैयक्तिक, व्यक्ति प्रधान हो या विषय प्रधान, रचनाकार अपने समग्र व्यक्तित्व, बुद्धितत्व और हृदय तत्व सहित अर्थात् अपनी संपूर्ण मानसिक सत्ता सहित, जिसमें अवश्य विद्यमान रहता है। चिंतामणि के निबंधों की यह कला सम्पूर्णता के साथ परिपाक हुआ है। प्रत्येक निबंध शुक्ल जी के प्रकांड पांडित्य और वैदुष्य को प्रकट करता है।
इस प्रकार विषय और व्यक्तित्व, विचार और भाव के समुचित मेल से वे अपने निबंध कला को अंजाम देते चलते हैं। उनके निबंधों में लेखक अपनी पूरी मानसिक सत्ता के साथ प्रवृत होता है।
इन निबंधों में विचारों को प्रस्तुत करने और पाठकों से उनको से उनको मनवा लेने की शैली विशेष महत्वपूर्ण है। विचारों की प्रस्तुति में शैलीगत सामासिकता, इस प्रकार के निबंधों में आवश्यक होती है। विचारों के सुगम बोध के लिए शुक्ल जी ने व्यास शैली का उपयोग किया है। वस्तुतः शुक्ल जी ने विषय की गंभीरता और पाठकीय ग्राह्ता की अपेक्षाओं के कारण निबंधों में समास और व्यास दोनों शैलियों का प्रयोग किया है। आगमन और निगमन दोनों पद्धतियां भी अपनायी गई हैं।
सूत्र शैली का उदाहरणः ‘कर्त्ता से बढ़कर कर्म का स्मारक दूसरा नहीं’
‘यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्ध जागरण’
‘वैर का आधार व्यक्तिगत होता है श्रद्ध का सार्वजनिक’
‘वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है’
वास्तव में सूत्र वाक्य सूत्रात्मक परिभाषाएं आदि शुक्ल जी की शैली की एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आकर्षक विशेषता है।
इन निबंधों में समास शैली आगमन और निगमन पद्धतियों से समन्वित होकर भी आती है। आचार्य शुक्ल तर्कशास्त्र के अच्छे पंडित थे, यह उनके निबंध से स्पष्ट है। वे यह समझते थे कि क्रमरहित तर्क और तर्करहित क्रम शिथिल होता है। अतएव वे अपने निबंधों में भाव और विचारों की प्रस्तुति में क्रम और तर्कबद्धता का पूरा ध्यान रखते हैं। कभी वे विषय को विस्तार से प्रस्तुत करके उसका सारांश प्रस्तुत करते हैं- यह आगमन पद्धति होती है, और कभी वे सरांश पहले प्रस्तुत करने बाद में विचार की व्याख्या कर देते हैं- यह निगमन पद्धति है। इस प्रकार ये दोनों पद्धतियां उनके निबंधों में प्रयुक्त मिलती हैं।
शुक्ल जी के व्यक्तित्व का एक विशिष्ट गुण यह है कि प्रकृति से गंभीर होने के बावजूद भी वे विनोदप्रिय थे। स्वस्थ, शिष्ट, विनोदशीलता और जिंदा दिली उनके स्वभाव का सहज अंग था। उनके निबंधों में इसकी बड़ी प्रीतिकर छटा मिलती है। यद्यपि हास्य और उपहास उनकी वृत्ति नहीं थी, तथापि विनोदशीलता के साथ इनका भी बहुत रचनात्मक उपयोग उनके इन निबंधों में किया गया मिलता है। इससे गंभीर से संभीर विषय भी रोचक और लालित्य से युक्त हो गया। यथा "संगीत के पेंच-पांच देखकर भी हठयोग याद आता है। जिस समय कोई कलावंत पक्का गाना गाने के लिए आठ अंगुल मुंह फैलाता है और ‘आ-आ’ करके विकल होता है, उस समय बड़े-बड़े धीरों का धैर्य छूट जाता है- दिन-दिन भर चुपचाप बैठे रहने वाले बड़े-बड़े आलसियों का आसन डिग जाता है।"
कहीं-कहीं हास्य और व्यंग्य भी दिखता है। इससे विषय की संप्रेषणीयता में वृद्धि होती है।
इन निबंधों में स्थान-स्थान पर भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग हुआ है, जिससे भाषा में नूतन शक्ति का चमत्कार उत्पन्न होता है। यह सर्जनात्मकता, लाक्षणिकता अमूर्त भावों के मूर्तन, बिंब विधान, द्वंद्वात्मकता, मुहावरे, कहावतें, लोकोक्तियों के सद्भाव आदि अनेक कारणों से तथा अनेक रूपों से लक्षित की जा सकती है। यथा ‘वैर-क्रोध का अचार या मुरब्बा है।’
शैली की लाक्षणिकता और बिंब-विधान का अच्छा उदाहरण है। ‘यदि राम हमारे काम के हैं तो रावण भी हमारे काम का है।’ जैसे वाक्य द्वंद्वात्मक शैली के अच्छे उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, पुनरावृत्ति परक और अनुप्रासमयी शैली आचार्य शुक्ल के इन निबंधों का वैशिष्ट्य है। तात्पर्य यह है कि क्रम, संगीत, शब्द चयन, पद-योजना, अन्विति, वाक्य-रचना, लाक्षणिकता, प्रतीक, मुहावरा, लोकोक्ति प्रयोग आदि की दृष्टि से निबंध कला निखर आया है।
इस प्रकार आचार्य शुक्ल के ये निबंध विषय गरिमा, वैचारिक गाम्भीर्य, बौद्धिक घनत्व, अनुशासन, लेखकीय व्यक्तित्व की मर्यादित भावमय सरस सरल व्यंजना, प्रौढ़ शैली और भाषा में नूतन शक्ति के चमत्कार जैसी अनेक विशिष्टताओं से संवलित होकर ‘चिंतामणि निबंध-संग्रह’ का अनूठा मानदंड प्रस्तुत करते हैं।
Question : कहते हैं, पर्वत शोभा निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या? पूर्व और ऊपर समुद्र महाद्वीप और रत्नाकर दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाय तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था।
(2000)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यावतरण ‘निबंध निलय’ में संकलित हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘कुटज’ से उद्घृत है। डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी नाम और रूप की विवेचना करते हुए नाम की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं। नाम के ज्ञान के बिना किसी वस्तु का पूर्ण ज्ञान संभव नहीं है।
व्याख्याः पर्वत श्रृंखलाओं की दर्शनीयता मनोलुभावन एवं मनोहारी तो हुआ ही करती हैं। हिमालय तो सर्वश्रेष्ठ ऊंचाई प्राप्त पर्वत श्रृंखला है, तो फिर इसकी मनोहारी छवि का तो कहना ही क्या। अर्थात् हिमालय पर्वत की सुंदरता और भी अधिक मोहक है। एक ओर तो यह समुद्र की तलों तक फैला हुआ है, तो दूसरी तरफ आकाश को छूता हुआ प्रतीत होता है, ऐसा लगता है कि मानो धरती और आकाश दोनों का प्रबल संबंध यही प्रदान किये हुए है।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. इस गद्यावतरण में शुद्ध, परिमार्जित एवं साहित्यिक भाषा का प्रयोग है।
2. विश्लेषणात्मक गंभीर किंतु रोचक शैली है।
Question : सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवाव्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पती को जीवन पर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहां सेवा का अभाव है, वहीं विवाह विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है।
(2000)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्य खंड उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की विश्वविख्यात कृति ‘गोदान’ से उद्धृत है। यह कथन ग्रामेतर कथा से है। प्रेमचंद के भारी विषयक मान्यताओं के प्रतीक को मेहता के द्वारा उपन्यासकार ने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत अवतरण प्रो. मेहता द्वारा कही गई है, जो संगोष्ठी में कही गई।
व्याख्याः मेहता कहता है कि आज के भौतिकवादी युग में जो नारी उन्मुक्तमय प्रेम दिखाती है, वह वासनामय से ओत-प्रोत होती है। इसलिए स्त्रियों को इस प्रेम से दूर ही रहना चाहिए। मेहता नारी के आदर्शतम रूप की व्याख्या करता है। जो प्राचीन काल से ही नारी के गुण माने जाते रहे हैं। नारी का सबसे बड़ा गुण सेवा भाव होना चाहिए। इसी से उसे सच्चा आनंद और सच्ची शांति प्राप्त हो सकती है। साथ ही उसे शक्ति भी प्राप्त होती है। प्रेमचंद जी आगे कहते हैं कि सेवा ही ऐसा सीमेंट है, पति और पत्नी के बीच जीवन भर स्नेह और साहचर्य को जोड़े रखता है। जिस प्रकार भवन आदि सीमेंट के बने होते हैं, उन पर प्राकृतिक आपदाओं को सहने की क्षमता होती है। ठीक उसी प्रकार सेवा भी सीमेंट सदृश कार्य करती है। जहां सेवा का अभाव होता है, वहां दांपत्य जीवन में विषमता उत्पन्न होती है, विवाह विच्छेद की समस्या उत्पन्न होती है।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. नारी के आदर्शतम रूप की व्याख्या की गयी है यह प्रेमचंद के नारी विषयक मान्यताओं को इंगित करती है।
2.इससे प्रो. मेहता के चारित्रिक विशेषताओं का ज्ञान होता है।
3. ‘सेवा ही वह सीमेंट है….’ सूत्र वाक्य की तरह प्रयुक्त हुआ है।
4. भाषा सरल और प्रवाहमयी है।
5. दाम्पत्य जीवन में सेवा-भाव के महत्व का प्रतिपादन हुआ है।
Question : कवित्व वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत भाषा करता है। अंधकार का आलोक, असत् का सत् से, जड़ का चेतन से और बाह्य जगत् का अंतर्जगत् से संबंध कौन कराती है? कविता ही न।
(2000)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यावतरण जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के प्रथम अंक के ‘तृतीय दृश्य’ से उद्धृत है। काव्य कर्त्ता कालिदास के रूप में अभिनेता मातृ गुप्त मुगदल से कविता एवं कवि के अस्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उकरते हुए इन पंक्तियो को कहा है।
व्याख्याः मातृगुप्त कवि और कविता के मर्म की व्याख्या करते हुए कहता है कि कविता करने से अनन्य सुख का बोध होता है। संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर व्यक्ति स्वयं को धोखा देता रहता है और उसे धन की लालसा और क्षोभ की तृष्णा के अलावा कुछ नहीं मिलता है। इसलिए मैं कविता को नहीं छोड़ सकता, क्योंकि इससे वास्तविक संतुष्टि मिलती है, यह उसके हृदय की प्यास, भूख को, पिपासा को शांत करती है। यह अत्यधिक आनंद प्रदान करती है। कविता तो सार्थक शब्दों के द्वारा बनाया गया ऐसा सुंदर चित्र है, जिसमें अलौकिक आनंद देने वाला और भावनाओ से समन्वित सुंदर संगीत भी विद्यमान रहता है अर्थात् इस चित्र में संगीत की भाव लहरियां तरंगायित होती रहती है। कविता के माध्यम से अंधकार का प्रकाश से, असत का सत् से, अचेतन जगत् का चेतन जगत् से और मानव के बाह्य जगत का आंतरिक जगत से संबंध स्थापित होता है। इससे विश्व की अचेतन वस्तुओं में चेतना का संचार होता है। यह जड़ प्रकृति भी भाव-सापेक्ष-स्थिति में प्रस्तुत करती है। और यह कविता ही है, जिसके माध्यम से हमारा बाह्य संसार से रागात्मक संबंध स्थापित होता है। इस प्रकार कविता संपूर्ण प्रकृति को अपने में समाहित करके उसका चित्र प्रस्तुत करती है, जो संगीत के समान मोहक और स्मरणीय होता है। कविता ही कवि हृदय का आहार है- इसी से उसे जीवन में शक्ति और संतुष्टि मिलती है।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. ‘कवित्व वर्णमय चित्र है’ इस विषय में प्रसाद जी ने कविता की सुंदर व्याख्या की है।
2. इस कथन में प्रसाद जी ने कविता के उद्देश्य पर भी प्रकाश डाला है।
3. कविता और संगीत का शाश्वत् संबंध स्थापित करने का प्रयास किया है।
4. मातृगुप्त के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है- वह कविता का अनुरागी है।
5. भाषा काव्यात्मक एवं भावानुरूप है।
6. रूपक अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है।
Question : ‘मैला आंचल’ उपन्यास में आंचलिक जीवन के साथ व्यापक राष्ट्रीय संदर्भों का भी बड़ा जीवंत चित्रण हुआ है। इस मत का सतर्क मूल्यांकन कीजिए।
(2000)
Answer : ‘मैला आंचल’ में व्यक्त जीवन के द्वंद्व एक भारतीय अंचल के नग्न यथार्थ से जुड़ा हुआ है। यह यथार्थ समसामयिक और एकदेशीय भी है तथा शाश्वत और भूमंडलीय भी। इस कृति का समय पटल सन् 1942 के अगस्त आंदोलन में उपनिवेशीय यंत्रणा और जनगण के संत्रस की पूर्व दीप्ति के एक मुख बंध के बाद सन् 1946 में शुरू होता है। सन् 1947 में स्वराज के उत्सवों को समेटते हुए सन् 1948 में महात्मा गांधी की हत्या तथा गांधीवादी अवतारी पात्र बावनदास की हत्या एवं केंद्रीय पात्र डॉ- प्रशान्त की गिरफ्रतारी एवं अप्रैल 1948 में ही उसकी रिहाई के साथ इसका समापन होता है। इस तरह यह कृति लगभग ढ़ाई साल के कालखंड उपनिवेशवाद से उत्तर- उपनिवेशवाद के जटिल व द्वंद्वात्मक संक्रमण का दस्तावेज है- बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक। इतने इने-गिने तूफानी वर्षों की यह भारत गाथा मिथिला क्षेत्र के एक बेहद छोटे से उपनिवेश मेरी गंज अंचल या गांव के बहाने स्वराज प्राप्ति के बाद की धांधली और धोखेधड़ी के ही कानून और रवायत बन जाने का अवकूटित करती है, जो स्वतंत्रता के लिवास में उपनिवेशवाद को ही चालू किये हुए हैं। मानो स्वराज के बाद इतनी जल्दी ही राष्ट्रवाद, गांधीवाद, वेदान्त, मार्क्सवाद और मानवतावाद आदि गुम हो रहे हैं।
जो जहां है, वह देश को मलेरिया-मच्छर की तरह डंस रहा है या चूहे की तरह कुर्त कर भीषण स्वार्थ की गणेश परिक्रमा कर रहा है। कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी जन के बजाय जाति की पार्टी हो रही है। बस कुछ अपवाद अपने बचे रहने का आत्म संघर्ष कर रहे हैं।
एक बेहद पिछड़े हुए मेरी गंज नामक गांव का समाज ‘कृषक समाज’ है, जिसमें सांमतीय तथा उपनिवेशी व्यवस्था घुली-मिली है। इस कालावधि में भारत के दूरस्थ अंचलों में मेरी गंज जैसे अनेक गांव थे, जहां आधुनिकता की पहली किरण भी नहीं पहुंची थी, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी शोषण के जीवंत प्रतीक थे।
उपन्यासकार का मेरी गंज जातियों के आधार पर अनेक टोलों में बंटा हुआ है। इनमें से कुछ टोले, जैसे- ततमाटोला, संतालटोला, उवारटोला, कुर्मी टोला, रजक टोला तथा चमार टोला आदि पिछड़ी जातियों के हैं, जहां के लोग नितांत गरीब, अशिक्षित, अंधविश्वासी और बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इनमें केवल एक ही अपेक्षाकृत समृद्ध परिवार राम खेलावन यादव का है। इसी वर्ग का दो अन्य पात्र हैं- कालीचरण और बालदेव गोप अपेक्षाकृत बडे़ पात्र हैं। इसके साथ ही उच्च वर्ग के राजपूत टोला, कायस्थ टोला और ब्राह्मण टोला। सर्वप्रथम इसी जातिवाद ने जीवन में द्वंद्व को पैदा किया। यह उपन्यास में प्रारंभ से लेकर अब तक सर्वत्र मौजूद हैं।
‘मैला आंचल’ के निवासियों की निर्धनता, मानसिक पिछड़ापन, जमींदार या तहसीलदार द्वारा शोषण, जातिगत आधार पर आपस में फूट रही द्वंद्व पैदा करती है। उपन्यास खोलते ही अंचल का पूरा पिछड़ापन एकबारगी सामने आ जाता है। ब्रिटिश शासन के आतंक से डरी और गुलामी की मानसिकता से दबी जनता का यह बहुत ही सच्चा चित्र है। गुलामी और गरीबी ने इस समाज की आत्मा को कुचल कर रख दिया है। सरकारी इनाम पाने के लोभ से जेल से छूटकर आये बालदेव को बांधकर डिस्ट्रिक बोर्ड के अधिकारी के सामने प्रस्तुत करना यादव टोली के निवासियों की अभद्रता का परिचायक है। यह वहीं अमानवीकरण है, जिसे प्रेमचन्द ने अपनी कहानी ‘कफन’ में प्रस्तुत किया था। जब यह पता चलता है कि ‘साहब’, ‘मिलिट्री’ वाला नहीं है और गांव में मलेरिया सेंटर खुलने वाला है, तब गांव वालों की अभद्रता का दूसरा रूप सामने आता है।
‘मैला आंचल’ में द्वंद्व का दूसरा स्रोत अंधविश्वास ग्रस्तता है, जो अशिक्षा और मानसिक पिछड़ेपन की उपज है। किसी को सांप काट लेता है, तो वह प्रेतनी का करतूत है। अंधविश्वासों की सृष्टि में अशिक्षित ग्रामीणों की कल्पना बड़ी उर्वर होती है। मार्टिन साहब के खंडहर के बारे में ग्रामीण की कल्पना शक्ति ने अनेक मिथकों की सृष्टि कर रखी है। कमला नदी संबंधी मिथक भी ऐसी उर्वर कल्पना की देन है। गांव में जब मलेरिया सेंटर खोलने का प्रस्ताव आता है, तो रूढि़वादी ब्राह्मण समाज उसका विरोध करते हैं। उनके द्वारा प्रचारित किया जाता है कि विलायती दवा में गाय का खून मिला रहता है। डाक्टर लोग सूई भोंक कर देह में जहर दे देते हैं और आदमी हमेशा के लिए कमजोर हो जाता है। हैजा के समय कुओं में दवा डालने से गांव का गांव हैजे से समाप्त हो जाता है। गांव के ज्योतिषी और अन्य गांव वालों ने गांव की एक भली विधवा, पार्वती की मां को डाइन घोषित कर रखा है, जिस पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते हैं। पार्वती की मां भी अंततः डाइन संबंधी अंधविश्वासों का शिकार बन जाती है।
‘मैला आंचल’ में द्वंद्व का एक नया रूप राजनीतिक स्तर पर भी दिखाया गया है। इसमें राजनीति कई स्तरों पर चल रही है। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक। तीनों स्तर यहां जिस खूबसूरती से एक दूसरे से जुड़कर अंतर्विरोधों को वर्ग-विरोधों में बदलते और ठोस रूप प्रदान करते हैं। रेणु अत्यंत योग्यता, सर्तकता और दृष्टि पूर्वक ‘मैला आंचल’ में राजनीति का चित्रण और उपयोग, राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य स्रोत, कांग्रेस और उसके भी केंद्रीय पक्ष, गांधीवादी संघर्ष का करते हैं। बिना किसी आग्रह के जो यथार्थ है, उसे विचारधारा से बदलते नहीं हैं। बल्कि यथार्थ को उसके अन्तर्विरोधों एवं द्वंद्व में आर-पार दर्शाते हैं। ‘बालदेव रामकृष्ण कांग्रेस आश्रम के कार्यकर्ता हैं और बड़े बहादुर हैं।’ लेकिन अगले ही संवाद में रेणु कहते हैं- पता नहीं कितना बहादुर है, परसों तक अंग्रेजों का जूठन खाता था। बल्कि वे यथार्थ के बीच ही पाठक को उसकी बहादुरी को जांचने-परखने का निर्णय स्वयं लेने के लिए प्रेरित करते हैं। यह अत्यंत जटिल कार्य है और धैर्यपूर्ण भी। वस्तु और रूप पर असाधारण अधिकार के बिना यह संभव नहीं है।
ग्रामीण ढ़ांचा तो वहीं है बारहो वर्णवाला। तो उसी स्तर से यानी सामंती सत्ता के उसी स्तर से बालदेव जी से निबटा जाता है। क्योंकि राजनीति का अधिकार ‘गोपों’ का कब से हो गया? बालदेव ‘गोप’ से हरगौरी पूछता हैः
‘सुना कि आपकी लीडरी खूब चल रही है।’
‘बाबू साहेब, गरीब आदमी भी भला लीडर होता है! हम तो आप लोगों के सेवक हैं।’
स्पष्ट है कि यहां द्वंद्व की दो सत्ताएं समानान्तर हैं। कोई रेखा अभी बड़ी नहीं खिंची हैं। पूंजीवादी जनतांत्रिक आन्दोलन की शक्ति अभी इतनी ही है कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से अपनी सीमाओं में दायें-बायें भागता लड़ रहा है। सामंतवाद से संघर्ष उसके एजेंडे में नहीं है। उसके सामने वह कितना निरीह बन जाता है। समझौते का हाथ कैसे बढ़ाता है जैसे हरगौरी के आगे बालदेव!
इस उपन्यास में राजनीति के स्तर पर द्वंद्व बालदेव और कालीचरण के द्वारा भी आता है। बालदेव कालीचरण से कहता है- ‘कालीचरण, तुम बहुत बहादुर लौजमान हो। लेकिन जोश में होश भी रखना चाहिए। हम खुश हैं, लेकिन उदास करेंगे।’ क्योंकि कालीचरण का रास्ता गांधी जी वाला नहीं है। कालीचरण के अनुसार यहीं पार्टी असली पार्टी है। गरम पार्टी है। इसमें कोई लीडर नहीं। सभी साथी हैं, सभी लीडर हैं। कमाने वाला खायेगा। इसके चलते जो कुछ हो। इसका नतीजा यही हो सकता था- ‘अब बालदेव जी की लीडरी नहीं चलेगी। हर समय हिंसाबात, कुछ करो तो बस अनशन।’ इसी तरह बावन दास के जीवन का द्वंद्व है राजनीतिक मूल्यों के पतन से। स्वाधीनता की लड़ाई के समाप्त होते होते कांग्रेस निहित आर्थिक स्वार्थ वाले वर्ग की पार्टी बन गई। इसमें विश्वनाथ प्रसाद जैसे बहुत सारे लोग सम्मलित हो गये। सागरमल, दुलारचंद कांग्रेसी को देखकर बावनदास व्यथित स्वर में कहते हैं ‘भारत माता अब भी रो रही है।’ वस्तुतः रेणु जी ने सभी पार्टियों का पतन इस उपन्यास में दिखाया है।
‘मैला आंचल’ में जीवन के द्वंद्व का अगला स्तर लक्ष्मी, पार्वती, मंगला आदि के द्वारा दिखाया गया है। लेकिन इसमें लक्ष्मी के जीवन का द्वंद्व नग्न यथार्थ की भूमि पर की गई है। मेरी गंज में एक कबीर मठ है, जिसके प्रमुख पात्र हैं- महंत सेवादास, लक्ष्मीकोठारिन, नया महंत रामदास, गौण पात्र हैं- भंडारी, दासिन रामप्यारी, आचार जेगुरु, नागासाधु और लरसिंघदास जी आदि। महंत सेवादास ने लक्ष्मी को बेटी की तरह रखने का आश्वासन दिया था। पर मठ पर लाते ही लक्ष्मी को दासी बना दिया। किशोर लक्ष्मी के साथ ही उसका बलात्कार किया। लक्ष्मी के जवान होने से पहले ही महंत सेवादास अंधा हो जाता है। अंधा और बूढ़ा होने पर भी उसकी कामवासना तृप्त नहीं हुई है। वह बीजक छूकर अपने को कामवासना से दूर रखने की कसम खाता है, पर इसका निर्वाह नहीं कर पाता। यहां तक कि मृत्यु के ठीक पूर्व वह लक्ष्मी के साथ संभोग करता है। एक प्रत्यक्षदर्शी पात्र के शब्दों में कहां वह बच्ची और कहां पचास वर्ष का बूढ़ा गिद्ध। रोज रात में लक्ष्मी रोती थी। ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाये। सुबह रोने का कारण पूछने पर चुपचाप टुकुर-टुकुर मुंह देखने लगती थी। ठीक गाय की बाछी की तरह, जिसकी मां मर गई हो।’ जीवन का ऐसा द्वंद्व अत्यंत मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मी का अनुभव है। ‘अंधा आदमी जब पकड़ता है, तो मानो उसके हाथों में मगरमच्छ का बल आ जाता है। अंधे की पकड़। लाख जतन करो मुट्ठी टस से मस नहीं होगी। हाथ है या लोहार की ‘संड़सी’। देतहीन मुख की दुर्गर्ंध! लार!..।’
मंहत सेवादास द्वारा आयोजित भंडारे के सिलसिले में लक्ष्मी बालदेव के संपर्क में आती है। लक्ष्मी बालदेव की कार्य-तत्परता, सेवाभाव और साधु स्वभाव से प्रभावित होती है। बालदेव भी लक्ष्मी की ओर आर्कषित होता है। अब तक लक्ष्मी ने वासना और बलात्कार को ही जाना था, प्रेम को नहीं। उसका प्रेम का भूखा मन बडे़ वेग से उतने ही संयम के साथ, बालदेव की ओर बढ़ता है। उसकी दबी हुई प्रेम की भावना और गृहिणी बनने का स्वप्न उसे एक नये पथ पर बढ़ने को बाध्य कर देता है। लेकिन यहां भी द्वंद्व का आगमन होता है जो लक्ष्मी को उच्च स्थान पर स्थापित करता है।
डॉ. प्रशान्त का द्वंद्व अलग है। वह मेरीगंज को संपूर्णता के साथ देखने के लिए एक अपरिहार्य अवलोकन बिंदु प्रदान करती है। पाठक उसकी आंख, उसकी संवेदना के द्वारा ही मेरी गंज के बहुवर्णी जीवन को उसके आंसू और हंसी को शूल, और फूल को शोषण और संघर्ष को सम्यक् रूप से देख पाने में समर्थ होता है। वह केवल रोगियों का इलाज ही नहीं करता, बल्कि उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ता भी है। कमली का इलाज करते-करते वह उसके प्रेमपाश में जकड़ जाता है। गांव के गरीबी, शोषण आदि को देखकर डॉ. प्रशान्त एक संवेदनशील समाजशास्त्री में बदल जाता है और उसे लगता है कि उसका ‘रिसर्च’ पूरा हो गया है। ‘रोग की जड़ पकड़ ली है, गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु है।’ ‘पूंजीपति और जमींदार खटमलों और मच्छरों की तरह शोषक हैं।’ अंत में इसका द्वंद्व ही कहता है ‘ममता! मैं फिर काम शुरू करूंगा। यहीं, इसी गांव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूं। आंसू से भींगी धरती पर प्यार के पौधे लहलहायेंगे। मैं साधना करूंगा ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आंचल के तले!’
सामान्यतः कहानी कथा का नामकरण नायक के नाम के आधार पर, नायिका के नाम के आधार पर, घटना स्थल के नाम के आधार पर, प्रमुख घटनाओं के आधार पर या उद्देश्य के आधार पर किया जाता है। मैला आंचल का नामकरण नायक, नायिका के आधार पर नहीं हुआ है। उसका मूलाधार उपन्यास के उद्देश्य को ही अभिव्यंजित करता है। वस्तुतः रेणु ने व्यंजनात्मक प्रणाली का सहारा लेते हुए आलोच्य उपन्यास का नामकरण ‘मैला आंचल’ दिया है। रेणु का कथन है- ‘यह है मैला आंचल’ एवं आंचलिक उपन्यास का कथानक है पूर्णिया। मैंने उसके एक हिस्से के एक ही गांव को पिछले गांव का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का क्षेत्र बनाया है।’ लेकिन रेणु ने इसका नामकरण स्थान विशेष के आधार पर नहीं किया। ‘मैला आंचल’ का शाब्दिक अर्थ है ‘गंदा अंचल’ जो लक्षणा शक्ति के आधार पर निर्धनता का प्रतीक है। जहां मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। यदि इस प्रतीक को स्वीकार किया जाय तो कहना पड़ेगा कि पूरा उपन्यास निर्धन ग्रामवासियों की कथा से ओत-प्रोत है।
कवि कहता है कि- ‘खेतों में फैला है श्यामल, धूल भए मैला सा आंचल।’ गरीबी जलालत के अर्थ में डॉ- प्रशान्त ने जो मर्म को समझा वह इस उपन्यास का मूलभाव है। अतः इस दृष्टि से केन्द्रीय भाव के आधार पर इसका नामकरण सार्थक प्रतीत होता है। एक दूसरे अर्थ ‘दूषित आचरण’ के द्वारा भी इसकी सार्थकता सिद्ध होती है। कमली की मां कहती है ‘हत भागिन आंचल को मैल मत करना बेटी दुहाई’ यह दूषित आचरण वासना, राजनीति, समाजिक और धार्मिक स्तर सभी जगह दिखता है। अतः इसका नामकरण इस स्तर पर भी भाव के द्वारा ही सत्यापित होता है। अतः इसके संवेदना के द्वारा ही ‘मैला आंचल’ नामकरण की सार्थकता सिद्ध होती है।
Question : राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘एक-दुनिया समानांतर’ में से आप किस कहानी को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं? कहानी कला के आधार पर अपने मत का सप्रमाण विवेचन कीजिए।
(2000)
Answer : राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘एक दुनिया समानांतर’ में से हम धर्मवीर भारती की कहानी ‘गुल की बन्नों’ को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। जो अपनी विषय वस्तु और संवेदना से हमारे हृदय को तार-तार कर देती है। हिन्दी साहित्य में इतना अधिक मर्मस्पर्शी कहानी काफी कम ही देखने को मिलती है। साथ ही साथ भारती जी ने इस कहानी को कहानी कला के आधार पर भी रचे हैं। जिससे कहानी में काफी कसाव और प्रौढ़ता आ गई है।
कहानी कला के आधार पर इस कहानी को रखकर प्रस्तुत करने से पहले कहानी कला के तत्वों की विवेचना करना आवश्यक होगा। समीक्षकों ने कहानी के मुख्यतः छह तत्वों का निर्धारण किया है। ये हैं- कथावस्तु, पात्र योजना, चरित्र चित्रण, संवाद योजना, देशकाल और वातावरण, भाषा शैली और उद्देश्य। इन्हीं छह तत्वों में कहानी कला-समग्र रूप से मुखरित हो जाता है। अब हम इन्हीं तत्वों के आधार पर भारती जी की कहानी ‘गुल की बन्नों’ को मापते हैं।
भारती जी ने ‘गुल की बन्नो’ कहानी का चयन सामाजिक जीवन से संबंधित है। इस कहानी में निष्ठुर समाज की अग्नि में तपती हुई एक निष्ठता का मूल्य ही नहीं है, अपितु कहानीकार की शक्ति भी है।
गुल का पति उसके प्रति कठोर है। उसके पीठ में कूबड़ भी निकाल देता है। वह एक रखैल रखा करता है और गुलकी को घर से निकाल देता है। वह मायके में आकर बहुत कष्टों के साथ रहती है। वह बुआ के चबूतरे पर सब्जी की दुकान लगाती है, लेकिन एक दिन बुआ उसके सारे सम्मानों को नष्ट कर देती है, फिर वह सती के यहां शरण लेती है। वह मांग-मांगकर किसी तरह अपना जीवन यापन करती है। इसी बीच गुलकी के पति का पत्र आया और उसने गुलकी को ससुराल बुलाया है। मुहल्ले की औरतें कहती हैं- ‘अरे बिटिया, पर गुजर तो अपने आदमी के साथ करेगी न, पर जब उसकी पत्नी आयीं है तो गुलकी को जाना चाहिए, और मरद तो मरद। एक रखैल छोड़ से दुई-दुई रख ले तो औरत उसे छोड़ देगी? राम! राम! यही मानसिकता पति को परमेश्वर मानती है। इसीलिए जिस दिन गुलकी का पति उसे लिवाने आया है, तो सती के कहने पर कि ‘यही कसाई है! गुलकी, आगे बढ़कर मार दो चमेटा इसके मुंह पर।’ परंतु गुलकी ऐसा नहीं करती है। और तो और वह अपने पति के पांवों में लिपटकर रोने लगती है। कहती है तुम्हारे सिवा मेरा इस दुनिया में और कौन है? मुझे आपने क्यों छोड़ दिया? यह भी जानते हुए कि उसका पति सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए उसे लेने आया है फिर भी गुलकी उसके साथ जाने को तैयार है। लोगों द्वारा बार-बार उसकाने के बावजूद वह उत्तेजित नहीं होती है। वह यह भी जानती है कि उसके रखैल को बच्चा हुआ है और पति सिर्फ एक नौकरानी की हैसियत से ही वहां रखेगा, फिर गुलकी अपने पति के साथ जाती है। सिर्फ नारीत्व और मातृत्व के भाव के लिए। कथावस्तु की दृष्टि से धर्मवीर भारती की कहानी सुगठित, सुगुम्फित, रोचक, प्रभावशाली, विचारपूर्ण एवं जीवन के निकट की है। इसमें एकात्मकता और विविधता दोनों ही प्रकार की कथावस्तु दिखायी देती है। कथावस्तु का आरंभ, विकास, चरमसीमा और समापन काफी स्पष्ट है।
भारती जी की कहानी ‘गुल की बन्नों’ में कथा वस्तु का विकास पात्रों के माध्यम से होता है। इस कहानी की मुख्य पात्र गुलकी है। वस्तुतः गुलकी आधुनिक हिन्दी कहानी के अंतर्गत एक अनूठी पात्र है। इस पात्र को भारतीय समाज के एक ऐसी नारी के प्रतीक के रूप में भारती जी ने दिखाया है जो शोषित, बेसहारा, पति द्वारा त्यागी गयी है। पात्रों के चरित्र चित्रण में भारती जी ने यथार्थ का सहारा लिया है। गुलकी का चरित्र भी आम स्त्रियों जैसा ही है। जिसमें अच्छाई के साथ-साथ बुराई भी है। जिसमें यहां आम पात्र जीवन के निकट दिखाई देता है। गुलकी का पति भी इस कहानी का महत्वपूर्ण पात्र है, जिसके प्रति सहृदयों को वितृष्णा और गुस्सा आता है। अन्य पात्रों में बुआ, सती, बच्चे आदि हैं। जिनका कथाकार ने यथार्थ रूप में चित्रण किया है, जिससे कहानी सत्य सी प्रतीत होती है।
कथा के विकास पात्रों की गति, मानसिक स्थिति, वातावरण के उभार और पृष्ठभूमि के अभिव्यक्तिकरण में संवाद योजना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। साथ ही साथ उनकी एक विशेषता पात्रनुकूलता है। जो पात्र जिस स्थान और स्थिति का है उसका उच्चारण भी उसी प्रकार का है। उदाहरणः
"नहीं छोड़ नहीं देगी तो जाय के लात खायेगी?" सती बोली। ‘अरे बेटा। बुआ बोली, भगवान रहे न! तौन मथुरा पुरी में कुब्जा दासी के लात मारिन तो ओकर कूबर सीधा हुई गवा। पति तो भगवान है, बिटिया ओके जाय देवा।’ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ‘गुल की बन्नों’ कहानी के संवाद रोचक, प्रभावशाली, भावपूर्ण, स्वाभाविक संक्षिप्त, सजीव और पात्रनुकूल है।
भारतीय जी की कहानी ‘गुल की बन्नो’ में देश काल का तत्व विशेष रूप से मुखरित हुआ है। उन्होंने समाज के नेक पक्षों का बड़ी ही सजीवता एवं कुशलता से चित्रण किया है। वस्तुतः संपूर्ण कहानी एक गली विशेष को आधार बनाकर लिखी गई है। परंतु इसका आयाम काफी विस्तृत है। इस प्रकार की परिस्थिति किसी भी कस्बे, गांवों में देखी जा सकती है। आलोच्य कहानी का वातावरण वास्तविक यथार्थ परक और देशकाल की स्थिति के अनुकूल है।
भारती जी की कहानी की भाषा यथार्थ परक, अर्थपूर्ण सशक्त, प्रभावशाली तथा पात्रनुकूल है। उनकी भाषा कथा के प्रवाह, पात्रों की योजना और वातावरण की सृष्टि सभी में पूरा योग प्रदान करती है। संवादों की भाषा में तो देशकाल का रंग है ही, कथा-वर्णन और पात्रों की रूप रेखा प्रस्तुत करने में भी लेखक की भाषा देशकाल से प्रभावित और वातावरण के अनुरूप है। उनकी भाषा में सजीवता एवं रोचकता है। धर्मवीर जी की शैली कहीं तो विवरणात्मक है, तो कहीं विश्लेषणात्मक है। वस्तुतः कहानीकार ने आंचलिक भाषा का भी प्रयोग किया है। यथाः
"एमर कल मुंहे" अकस्मात् घेंघा बुआ ने कूड़ा फेकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा, को गो गाते हुए देखकर कहा फ्तरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बाका जौन भिनसार भव कि तान तौडै लाग?" इस प्रकार की भाषा से कहानी में सजीवता आ गई है। वस्तुतः यह पत्रनुकूल भाषा का उत्कृष्ट नमूना है।
धर्मवीर भारती ने आलोच्य कहानी की रचना, गुलमी नारी-पात्र को दृष्टि में रखकर की है, उसे अपने पति के अत्याचार को किस प्रकार सहन करना पड़ता है। यही कारण है कि भारतीय जी ने कहानी का शीर्षक ‘गुल की बन्नों’ रखा है, जो अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। क्योंकि गुलकी की यातनादायक जीवन को सूक्ष्मता से चित्रित करना ही लेखक का उद्देश्य रहा है। वस्तुतः प्रस्तुत कहानी ऊपरी सतह के पढ़ने पर सामान्य एवं आधुनिक प्रतीत होती है, लेकिन इसका अंत अत्यंत व्यापक है और गहरी संवेदना संयुक्त है। लेखक का मंतव्य उपेक्षित गुलकी और आस-पास के सामाजिक परिवेश को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना रहा है। केंद्रीय पात्र, घटना और गौण पात्र की कहानी परिचित सी लगती है। ‘गुलकी बन्नो’ पात्र उपेक्षित समस्त पात्रों का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी विवशता की कहानी एक पात्र विशेष तक सीमित न रहकर सामान्य बन जाती है। यह पति तथा समाज से तिरस्कृत है और वह समाज में इसके कारण उपेक्षित बनकर रह जाती है। कहानी में अन्य पात्र उसके जीवन में चिर-व्यापक तिरस्कार और उपेक्षा को और अधिक दिशा प्रदान करता है।
इस प्रकार से पूर्ण कहानी में एक विशेष नारी की विवशता और पति और समाज के तिरस्कार को भारती जी ने अनूठे ढ़ंग से पेश किया है। जो दिल और दिमाग दोनों को तरंगित कर देती है। साथ ही सोचने को विवश कर देती है। जो इस कहानी की श्रेष्ठता को ही इंगित करती है।
Question : भारतेन्दु हरिश्चंद ने ‘अंधेर नगरी’ में लोक नाट्य की गहराई चेतना को बिना विस्मृत किए नवीन नाटयशास्त्रीय गुणवत्ता का समावेश किया है।’ इस कथन की समीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : भरतेन्दु हरिश्चंद ने जनजीवन से जुड़ने के लिए लोकनाट्य की शैली को सर्वाधिक महत्व दिया। अंधेर नगरी तो जनजीवन का ही नाटक है, इसलिए इसकी प्रस्तुति में लोकनाट्य की शैली का मिलन अस्वाभाविक नहीं है। नाटक में संगीत और संवाद सीधे जनता से उठाये गये हैं। भारतेंदु ने लोकवार्ता पर आधारित नाटक की भाषा को लोक जीवन की भाषा के निकट रचा है। इसमें बोलचाल की जो शब्दावली प्रयुक्त हुई है, उसने नाटक को बोधगम्य बने रहने में तो योगदान दिया ही है, उसे जीवन से जुड़ा हुआ और विश्वसनीय बनाया है। शब्दों के ये प्रयोग द्रष्टव्य हैं, ‘कुछ भिच्छा उच्छा मिलै तो ठाकुर जी को भोग लगै’, ‘सीधा-सामग्री मिलै’, ‘गुरु चले सब आनंदपूर्वक इतने में छक जायेंगे’।
दृश्य परिवर्तन का ढंग, पात्रों के प्रवेश स्थान की शैली, गीत-संगीत, बोलने की लय और भंगिमा सबमें लोकनाटकों की शैली देखी जा सकती है। न्याय व्यवस्था वाला दृश्य बंगाल की एक लोककथा पर आधारित है। आज भी गांवों में चना और चूरन इन्हीं गाने के साथ बेचा जाता है। सैकड़ों लोग उनके चतुर्दिक खड़े होकर इन गानों को सुनते और आनंद उठाते हैं। नाटक का अंत लोकनाटकों क प्रभावस्वरूप नीति कथा के अनुरूप रखा गया है। गीत-संगीत नीति कथा के अनुरूप रखा गया है। गीत-संगीत लोकनाटक के अनिवार्य तत्व हैं। जिनका पर्याप्त उपयोग भारतेन्दु ने इस नाटक में किया। वैसे देखा जाये तो अंधेर नगरी में लोकनाटकों का प्रभाव कम है। उसका अंधानुकरण नहीं है। ध्यातव्य है कि भारतेन्दु जी न तो परंपरा प्रेमी है और न आधुनिक के अंधभक्त। इसलिए उनके नाटकों में प्राचीन तथा नवीन का मंजुल सदाकार प्राप्त होता है। नाटक का प्रारंभ महंत और उनके दो चेलों की गति ‘राम भजो, राम भजो, राम भजो भाई’ से होता है। संस्कृत नाटक की तरह न तो मंगलाचरण है, न लोकनाटकों की तरह वंदना है। पारसी रंगमंच की तरह कोरस में कोई प्रार्थना नहीं है। भजन से आरम्भ है। वे रुढि़यों से मुक्त हैं।
लोकनाटक प्रायः पद्य बद्ध होता है तथा गद्य का उपयोग व्यंग्य के लिए किया जाता है। अंधेर नगरी नाटक तीन चौथाई गद्य में सृजित है तथा पद्य व्यंग्य सृजन करने के लिए है।
नाटक में एक पात्र आता है। दूसरा जाता है और इस प्रकार गति बनी रहती है। लोकनाटकों की प्रस्तुतीकरणात्मक पद्धति ने गतिशीलता की जो सुविधा दी है, उसका प्रयोग भारतेन्दु ने कुशलता पूर्वक किया है। पात्रों के प्रवेश तथा प्रस्थान के संदर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि इस दृश्य में कोई पात्र आवश्यकता से अधिक एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता, इसके गतिशीलता में योग मिला है। राज्यसभा दृश्य के आकर्षण का एक विषय है, इसमें की गयी शाब्दिक हास्य की योजना दृश्य शुरू ही हुआ है ‘पान खाइए’ और ‘सुपनखा आईए’ और चौपट राजा द्वारा लड़की, बरकी, कुबरी आदि शब्दों के प्रयोग से। इस पूरे दृश्य में रोचकता बनी रहती है। अन्य दृश्य पर अनावश्यक विस्तृत होने के बजाय संक्षिप्त है। सभी दृश्य प्रयोजन मूलक है। कथा-सूत्र को जोड़ते और आये बढ़ते हैं, साथ ही रचनाकार के काव्य को प्रस्तुत करने में योग देते है। भारतेन्दु ने अंधेर नगरी नाटक को विस्तार और अनावश्यक तत्वों से बचाया है। इसका शिल्प ढ़ीला-ढ़ाला तो नहीं पर लचीला अवश्य है। जिसे रंग कर्मियों से अपनी प्रतिभा की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग अवकाश मिलता है और ऐसा लोकनाटकों के तत्वों के उपयोग के कारण हुआ है।
Question : भाव या मनोविकार क्या हैं? रामचंद्र शुक्ल ने उनका वर्गीकरण किस रूप में किया है? ‘चिंतामणि’ में संग्रहीत भाव या मनोविकार से संबंधित निबंधों की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(1999)
Answer : भाव या मनोविकार मूल अनुभूतियों के जटिल रूप हैं। मन में किसी वस्तु या घटना के साक्षात्कार से उत्पन्न अवस्था, सत्ता या अस्तित्व ही भाव है। जब किसी चीज से हम प्रतिकृत होते हैं, तब मन की वृत्ति नही रह पाती। शुक्ल जी कहते हैं ‘अनुभूति के द्वंद्व से ही प्राणी के जीवन का आरंभ होता है।’ जिसे संसार का सर्वोत्तम प्राणी होने का गौरव प्राप्त है। वह मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर ही संसार में आता है। प्रारंभ में सुख-दुख की सामान्य अनुभूतियां होती है। विशेषकर बच्चों में हंसने-रोने की क्रिया द्वारा व्यक्त होती है। दूध पीता बच्चा जब रोता है, तो अनुमान किया जाता है कि उसे भूख लगी है। उसकी खिलखि्ालाहट बच्चे के पेट भरने का संकेत देती है। सुख-दुख की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा, ईर्ष्या आदि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है।
आचार्य शुक्ल ने चिंतामणि के पहले भाग में जिस मनोविकार पर सर्वप्रथम गौर किया है, वह है उत्साह। यह वीर रस का स्थायी भाव है। शुक्लजी ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है ‘साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम ही उत्साह है।’ अर्थात् उत्साह, साहस, आनंद और उमंग का मिला रूप है। वैसे आचार्य शुक्ल ने सभी साहस को उत्साह की संज्ञा नहीं देते। आचार्य शुक्ल के अनुसार बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जा सकता है, उत्साह नहीं। ऐसा साहस, उत्साह तभी कहा जाएगा जब व्यक्ति उस साहस को आनंद के साथ करता है। अर्थात् आनंदयुक्त प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह होता है। जब बड़े व्यक्ति किसी बडे़ लक्ष्य के प्रति आस्था जाग्रत कर उसे प्राप्त करने के लिए बड़ा से बड़ा कष्ट भी सहन कर लेता है। यहीं उत्साह है। आचार्य शुक्ल ने इसकी गिनती अच्छे गुणों में की है। श्रद्धा और भक्ति नामक मनोविकार तो शुक्ल जी के मनोविकार संबंधी निबंधों में श्रेष्ठतम का दर्जा दिया गया है। क्योंकि शुक्ल जी ने इस निबंध में पूरे मनोयोग से श्रद्धा और भक्ति के स्वरूप और अंतसंबंध को उजागर किया है।
जब शुक्ल जी कहते हैं ‘किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्धति हृदय में स्थापित हो जाती है, उसे श्रद्धा कहते हैं। वे इसे हृदय में स्थापित एक स्थायी आनन्द पद्धति के रूप में देखते हैं। वे श्रद्धा को प्रेम से भी अलग मानते हैं। उनकों शब्दों में श्रद्धा का व्यापार स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत। प्रेम में घनत्व अधिक है, श्रद्धा में विस्तार, भक्ति इन दोनों का समयक योग है। वे भक्ति का स्थान हृदय में नियत करते हैं। हृदय में ही श्रद्धा और प्रेम के संयोग से भक्ति का आर्विभाव होता है। आचार्य शुक्ल रसखान की भक्ति की भरपूर प्रशंसा करते हैं, फिर भी भक्ति से उनका अभिप्राय वैराग्य नहीं है।
आचार्य शुक्ल ने ‘करुणा’ को मनुष्य की बहुत बड़ी विशेषता मानते हैं। इसे क्रोध का विरोधी कहा है। करुणा गहन रचनात्मक अर्थ में कृपा और अनुग्रह से संबंधित है। उनके मतानुसार करुणा में वेदना का बीज-भाव वृक्ष-रूप में विस्तार पा जाता है। इस मनोभाव की सबसे बड़ी विशेषता हैः आत्मा की सक्रियता।
शुक्ल जी लज्जा की परिभाषा देते हुए कहते हैं, दूसरों के चित्त में अपने विषय में बुरी या तुच्छ धारणा होने के निश्चय या आशंका मात्र से वृत्तियों का जो संकोच होता है उनकी स्वच्छंदता के विघात से जो अनुभव होता है उसे लज्जा कहते हैं। वही अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता इत्यादि का एकांत अनुभव करने से वृत्तियों में जो शिथिलता आती है, वह ग्लानि है। लज्जा को उन्होंने आभूषण माना है। जबकि ग्लानि अंतःकरण की शुद्धि का एक विधान है।
Question : ‘शेखरः एक जीवन’ हिंदी में कथा वस्तु, शैली-शिल्प तथा भाव-बोध के स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखती है’ समीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : ‘शेखरः एक जीवन’ हिन्दी उपन्यास में कथावस्तु शैली तथा भावबोध की दृष्टि से अथवा विशिष्ट स्थान रखती है। अज्ञेय से पूर्व प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में व्यक्ति के स्थान पर समाज को विषय बनाया। प्रेमचंद ने उस समाज को अपने उपन्यासों का प्रतिपाद्य बनाया। जो अनेक व्यक्तियों से बनता है। उस व्यक्ति को नहीं, जिसमें समाज निहित रहता है। अज्ञेय ने अपने इस उपन्यास में व्यक्ति को उपन्यास का विषय बनाया। इसमें शेखर नामक काल्पनिक व्यक्ति के चरित्र का अन्वेषण, उसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या और विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस संदर्भ में उन्होंने फ्रांस के ख्याति प्राप्त उपन्यासकार रोम्मां रोलां ने ज्यांक्रिस्टोफ उपन्यास का ऋण स्वीकारते हुए कहते हैं ‘ज्यांक्रिस्टोफ के अनवरत आत्मशोध और आत्म साक्षात्कार का, जो चित्र रोलां ने प्रस्तुत किया है, उससे मुझे अवश्य प्रेरणा मिली। जैसे क्रिस्टोफ में लेखक एक आत्मान्वेषी के पीछे उसका चित्र खींचता चला है। वैसे ही मैं एक दूसरे आत्मान्वेषी के पीछे चला हूं। मुझे इसमें बड़ी दिलचस्पी रही है कि आतंकवादी का मन कैसे बनता है। शेखर की रचना इसी से आरंभ हुई। ‘शेखर’ की खोज अंत्तोगत्वा स्वातंत्र्य की खोज है।
शेखर के प्रथम और द्वितीय भाव में उसके जन्म से लेकर बीस वर्षों की जिंदगी प्रस्तुत हुई है। प्रारंभ में अनेक दृश्यों के रूप में उसका प्रारंभिक शैशव सामने आता है। वह मानता है विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं। विद्रोही बुद्धि परिस्थितियों से संघर्ष की सामर्थ्य, जीवन की क्रियाओं से परिस्थितियों के घात-प्रतिघातों से नहीं निर्मित होती है। वह आत्मा का कृत्रिम परिवेश नहीं है। उसका अभिन्नतम अंग है।’
जैसा कि ऊपर उल्लिखित है कि शेखर की खोज अंत्तोगत्वा स्वातंत्र्य की खोज है और इसकी झलक उसके बचपन की अनेक घटनाओं में देखी जा सकती है। उसका पाले हुए पक्षियों को मुक्त कर देना, घर के बंद, घुटनपूर्ण परिवेश से भागकर प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में शरण लेना, स्कूल के कायदों और बंधनों को अस्वीकार करना, सामाजिक विरोधों का उल्लंघन इत्यादि इसी का संकेत है।
शैली शिल्प की दृष्टि से अज्ञेय ने प्रेमचंद के किस्सायों वाली शैली को विस्मृत कर प्रत्यक्ष दर्शन प्रविधि (फ्लैशबैंक मैथड) का सहारा लिया है। उपन्यास का मुख्य पात्र शेखर, फांसी की कोठरी से अपने जीवन, का प्रत्यावलोकन करता है। उसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत के लिए फांसी की सजा मिल चुकी है। इसी की प्रभावलोकन करते हुए मुझे मरना है, फांसी पर झूल कर मरना है, पर अभी मैं जिंदा हूं। मैं जो सदा आगे ही देखता रहा, अपनी जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर पीछे देख रहा हूं कि मैं कहां से चलकर किधर भूल भटक कर कैसे-कैसे विचित्र अनुभव प्राप्त करके यहां तक आया हूं। वस्तुतः शेखर एक जीवनी हिंदी का पहला उपन्यास है, जिसमें घटनाओं को स्वीकृति काल क्रम में न प्रस्तुत कर विपर्यस्त कालक्रम में प्रस्तुत किया गया है। हालांकि प्रथम भाग में घटनाएं जो कि शेखर के सोलह वर्ष तक की उम्र का है। समयानुक्रम में प्रस्तुत किया गया है।
उपन्यास के आरंभ में संक्षिप्त भूमिका के बाद शेखर अपने अतीत जीवन की स्मृतियों को फिर से भोगता है और इस क्रम में पाठक से उसका संबंध टूट जाता है तथा वह पाठक के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाता है। स्मृति के दृश्य एक-एक कर पाठक के समक्ष सामने आते जाता है। वेसे इन स्मृतियों में कोई तारतम्यता या कोई क्रम नहीं है। जैसे मोतियों की माला टूट गयी हो और बिखरे मोतियों को फिर एक बेहतरीन लड़ी में पिरो दिया जाए, उसी तरह मेरी स्मृतियों की तरतीब उलझ सी गयी है।
आरंभ में शेखर स्वयं पाठक से रू-बरू होता हैं। वह इसमें अपने जीवन की व्याख्या और विश्लेषण ही नहीं, कई अन्य सामान्य विषयों पर भी विचार व्यक्त करता है। प्रारंभ में वह पाठक से एकालाप करता हैं और इसी क्रम में अपने अतीत को जीने लगता है।
शेखर जब उपन्यास में अपनी जीवनी लिख रहा होता है तब पाठकों के समक्ष कई बातें खटकती हैं। यथा शेखर अपने बचपन की कुछ ऐसी बातें लिखता है, जिन्हें उसने देखा नहीं है। इसी प्रकार बचपन की प्रतिक्रियाएं अपने सभी व्योरों के साथ यथावत किसी को याद नहीं रहती, जबकि शेखर उनका ब्यौरेवार अनुलेखन करता है। आत्मकथा की इसी कमजोरी को दूर करने के लिए ही उपन्यासकार ने शिशु ‘शेखर’ को अन्य पुरुष बना दिखा दे।
Question : क्या आप ‘गोदान’ को राष्ट्रीय प्रतिनिधि उपन्यास की संज्ञा से विभूषित कर सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
(1999)
Answer : ‘हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, खाली मोटा-झोटा पहनना और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं और वह नहीं सधता’, गोदान का नायक होरी का यह कथन, केवल होरी तक सीमित न होकर संपूर्ण भारतीय किसान की चाहत और उसकी स्थिति की है। आज भले ही कृषि पर निर्भरता कम हो गयी हो, फिर भी तमाम विकास के बावजूद 70 प्रतिशत आवादी कृषि पर ही निर्भर है। स्वतंत्रता से पूर्व यह आंकड़ा कुछ अधिक ही था। ऐसे में जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषक हो तो उनकी समस्याएं भी लगभग समान होगी। चूंकि कृषि तब भी आजीविका के लिए थी और आज भी स्थिति नहीं बदली है। कई कारणों से खेती भारतीय किसानों के लिए बेहतर आजीविका भी साबित नहीं हो पा रही थी। भरपेट भोजन भी इससे नहीं उगता था। ‘बैसाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पांच-पांच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर पेट न मिले, आधा पेट तो मिलना ही चाहिए। निराहार कोई कै दिन रह सकता है।’
गोदान के होरी की महत्वाकांक्षा एक आम भारतीय किसान की महत्वाकांक्षा है। यह महत्वाकांक्षा है ‘गाय’ की जिसे कदाचित् ही बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं कहा जा सकता। बड़ी महत्वाकांक्षा तो एक अदना भारतीय किसान का हो नहीं सकता। बैंक के सूद से चैन कटने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाए उसके नन्हें से हृदय में कैसे समाती है। पर होरी जैसे भारतीय किसान के लिए ‘गाय-बैल’ जैसी छोटी महत्वाकांक्षा भी बड़ी महत्वाकांक्षा का रूप ले लेती है। वह गाय तो प्राप्त करने में कामयाब हो जाता है पर इसके कारण वह समस्याओं से भी ग्रस्त हो जाता है। भाई द्वारा गाय को जहर देने के पश्चात् जो संकट की शुरूआत होती है, वह होरी के मरने तक जारी रहती है।
होरी गोदान में जिन शोषण चक्रों में फंसकर रह जाता है, वह आम भारतीय कृषकों के लिए भी समान्य है। पंचायत, पुलिस, जमींदार, साहूकार, के चट्टे-बट्टे सभी शोषण के लिए अलग-अलग तरीका अपनाते हैं। गाय के मरने के बाद दारोगा अपने दलबल के साथ घटना की तहकीकात करने पहुंचता है। दारोगा तथा गांव के पंच मिलकर एक ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि होरी को ही कर्ज लेकर अपने ही गाय के मरने के लिए दारोगा को तीस रुपये रिश्वत देने के लिए विवश होना पड़ता है। झुनिया को घर में रखने के कारण पंचायत होरी पर सौ रुपये नकद और तीस मन अनाज का दंड लगा देता है। इस तरह प्रेमचद ने रक्षक को ही शोषक के रूप में दर्शाया है, जो समकालीन भारत में उपस्थित था और आज के परिदृश्य में अधिक बदलाव नहीं आया है। गोदान का पात्र रामसेवक इसी को उद्घाटित करते हुए कहता है ‘थाना, पुलिस, कचहरी अदालत सब है हमारी रक्षा के लिए, लेकिन रक्षा कोई नहीं करता। चारों तरफ लूट है। जो गरीब हैं। बेबस हैं, उसकी गरदन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। यहां तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है।’
प्रेमचंद किसानों के शोषण के मूल में उनकी अशिक्षा, धर्मभीरुता, सामंती मूल्यों में विश्वास और संगठन के अभाव को देखते हैं। होरी जैसे किसानों कि परंपरागत विश्वास और धारणाएं भी इस शोषण को बनाये रखने में सहायक होती है। ‘जब दूसरों के पांवों तले अपनी गदर्न दबी हुई हो तो इन पांवों को सहलाने में ही कुशल है।’ होरी का यह कथन उपर्युक्त कथन को ही चरितार्थ करता है। वह केवल इसी से खुश रहता है, ‘अगर संतोष था तो यही कि यह स्थिति अकेले उसी के सिर न थी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी।’
बेटी के विवाह में कर्ज लेकर भी धूमधाम और अपव्यय करना सामंती प्रचलन है, जिसके शिकार गांव के किसान भी है। होरी तो मर्यादा के लिए सब कुछ लूटा देने को तैयार ही रहता है। विद्रोहिणी धनिया भी इससे मुक्त नहीं है। जब सोना के विवाद में उसके भावी पति और ससुर बिना दान दहेज लिए साधारण ढंग से विवाह करने को राजी हो जाते हैं, तो धनिया की मर्यादा भावना लहरा उठती है। यह भावना आम भारतीय कृषकों की विशेषता है। कृषकों में यह विश्वास दृढ़ रूप से घर किये हुए है कि ‘छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं।’ होरी की पीढ़ी के किसान इस सिद्धांत के कायल है। यद्दपि गोबर की पीढ़ी इसमें विश्वास नहीं करती। इस प्रकार गोदान में प्रेमचंद ने भारत के सभी कृषको की दशा को उद्घाटित किया है।
Question : ‘चंद्रगुप्त नाटक में निरूपित इतिहास तत्व’ विषय पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
(1999)
Answer : जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकांश रचनाओं, विशेषतया नाटकों को अतीत की पृष्ठभूमि पर ही सृजित किया है। चंद्रगुप्त नाटक भी इसमें शामिल है। इनके द्वारा नाटक में इतिहास तत्व लेने का मतलब कतई नहीं कि उसे ज्यों का त्यों उठाकर रच दिया है या फिर गड़े-मुर्दे को उखाड़ा है। वस्तुतः इसका उद्देश्य ऐतिहासिक आख्यान और चरित्रों को वर्तमान की कसौटी पर कसने के लिए व्यापक संवेदनात्मक एवं सामाजिक दृष्टिकोण और समझ का होना आवश्यक है, जो निश्चित तौर पर पूरी रचनात्मक ईमानदारी और सृजनात्मकता के साथ प्रसाद जी में उपस्थित है। प्रसाद जी भारत के इतिहास के प्रति साम्राज्यवादी इतिहासकारों की दुर्भावनापूर्ण नीति और राष्ट्रीय गौरव को कम करने वाली साजिश से चिंतित थे। साम्राज्यवादी इतिहासकारों के तोड़फोड़ से अनाहत होकर ही उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से इतिहास को दुरूस्त रूप रखने का प्रयास किया है।
साम्राज्यवादी इतिहासकार सिंकदर और सेल्युकस को लेकर ही अतिरंजित टिप्पणियां करते रहे हैं, जैसे ‘एप्पिएनस’ ने लिखा कि सेल्युकस ने जैसे ही सिंधु पार किया, हिंदुस्तान के राजा सैण्ड्रोकोट्स यानी चंद्रगुप्त से उसका युद्ध हुआ। युद्ध के बाद उसने संधि की और वैवाहिक संबंध में सैण्ड्राकोट्स ने सेल्युकस को 500 हाथी दिये। सिरिया पर अचानक आक्रमण को देखते हुए सेल्युकस को इसकी आवश्यकता थी। दूसरी बात यह कि ग्रीक सैनिक भारतीय गजवाहिनियों से बहुत प्रसन्न थे। इसी ब्यौरा से स्पष्ट है कि साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्यों केा तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया। प्रसाद जी विदेशी इतिहासकारों के दुर्भावनापूर्ण इतिहास लेखन के जवाब में ही अपने नाटकों में लंबी ऐतिहासिक भूमिका लिखते हैं और अपनी रचनाओं के माध्यम से इतिहास के सही स्वरूप को प्रस्तुत कर के भारतीय जनमानस में अतीत गौरव के प्रति विश्वास पैदा करते हैं।
प्रसाद ने अपने अधिकांश नाटकों में इतिहास को आधार बनाकर कल्पना के रंग देकर सर्वथा नवीन दृष्टि से प्रस्तुत किया। इतिहास उनके लिए साध्य नहीं। वरन साधन था जो भारतीय संस्कृति एवं आदर्श को जानने का साधन था।
चंद्रगुप्त नाटक में ऐतिहासिक तत्वों के साथ कल्पना को यथास्थान जगह मिली है पर वह खटकता नहीं है। चंद्रगुप्त के कथानक का मूलबिंदु इतिहास सम्मत है। मगध के सम्राट नंद के द्वारा अपमानित होने पर चाणक्य द्वारा नंदवंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा, चाणक्य की बालक चंद्रगुप्त से भेंट और चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त को तक्षशिला ले जाना, जहां ऐतिहासिक घटनाएं हैं। वहीं पंजाब क्षेत्र में चाणक्य और चंद्रगुप्त की सिकंदर से मुलाकात, आंभिक का देशद्रोह, पोरस और सिंकदर का युद्ध और उसके परिणामस्वरूप मालवा द्वारा सिंकदर को चुनौती, मगध साम्राज्य की विशाल सेना से यूनानियों का भयाक्रांत होना और सिंकदर का वापस होना भी ऐतिहासिक तत्व है। चाणक्य की कूटनीति और चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक, सेल्यूकस के 500 हाथी उपहारस्वरूप देना, चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा एक विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना करना इतिहास सम्मत है।
चन्द्रगुप्त नाटक की सभी नारी पात्र अलषा, सुवासिनी, मालविका, कल्याणी एवं कारनेलिम काल्पनिक हैं लेकिन ये सम्मान की कोटि में आते हैं। किंतु इन नारी पात्रों के माध्यम से प्रसाद जहां त्याग, निस्वार्थ प्रेम, देश भक्ति और निस्वार्थ प्रेम को व्यक्त करने में सफल हुए हैं वहीं नाट्य स्थितियां भी बनी रही है। सिकंदर, सेल्युकस, आंभीक, राक्षस, नंद, चाणक्य, चंद्रगुप्त, परवतेश्वर, सकतार आदि ऐतिहासिक पात्र है। नाटक में पोरस और परवतेश्वर का चरित्र मिलाकर एक कर दिया गया है जिसका कारण उसका चरित्र ऐतिहासिक कथानकों के विरुद्ध हो जाता है। बाद में पोरस का चरित्र भी काफी गिराकर दिखाया गया है जो केवल चंद्रगुप्त केा तुलनात्मक बनाने के लिए ही किया गया है।
सिंहरन और आंभीक के पारस्परिक द्वेष के पीछे भी ऐतिहासिक कारण है। प्रसाद जी ने इतिहास के अनुरूप ही अंतिम नंद को घनानंद लिखा है। लेकिन उसे उन्होंने महापदम का जरण पुत्र किस आधार पर कहा, यह पता नहीं चलता।