Question : माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रूमि इवै पड़ंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आधा उबरंत।।
कबीर सूता क्या करे, उठि न रोवै दुक्ख।
जाका बासा गोर मैं, सो क्यूं सोवै सुक्ख।।
(2008)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत मनोरम पद्यांश कबीरदास द्वारा विरचित है, जो कबीर ग्रंथावली में संग्रहित है। कबीर दास जी हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। प्रस्तुत पद्यांश साखी के ‘गुरूदेव कौ अंग’ तथा ‘सुमिरण कौ अंग’ से उद्द्धृत है। इसके पहली पंक्ति में गुरू की महिमा तथा दूसरी पंक्ति में ईश्वर के नाम स्मरण की महत्ता को कबीर ने बताया है।
व्याख्याः भारतीय संत परंपरा में और विशेषतः निर्गुण संतों की परंपरा में गुरू को अत्यंत महत्व दिया गया है। गुरू की इसी महत्ता को माया के संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए कबीर कहते हैं कि मनुष्य पतंग के समान है, जो माया रूपी दीपक की ओर स्वयं आकर्षित हो जाता है तथा इस माया रूपी दीपक के ऊपर मंडरा-मंडराकर गिर जाता है विनष्ट हो जाता है तथा इस मायादीप के आकर्षण से कोई एकाध बिरले ही होते हैं जो गुरू से ज्ञान प्राप्त कर बच पाते हैं अर्थात् गुरू का ज्ञान मानव को ऐसा अंतर-दृष्टि देता है, जो उसे मायादीप द्वारा जलाने से बचा लेता है। निर्गुण संतों की भक्ति में आराध्य के नाम स्मरण का बहुत महत्व है। यहां कबीर ने नाम स्मरण की महिमा बताते हुए कहते हैं-हे मनुष्य! तू अज्ञानावस्था में पड़ा हुआ क्या कर रहा है, अपने उद्धार का प्रयत्न क्यों नहीं करता? जिससे जागने पर (दूसरे जम्म लेने पर) तुझे अपने दुःखों के लिए रोना न पड़े। भला जिसका मृत्यु के मुख में सर्वथा निवास रहता है, उस मनुष्य को सुख की निद्रा कैसे आ सकती है- अतः तू प्रभु भजन कर, उनको स्मरण कर और ज्ञान संपन्न हो अपना जन्म सुधार ले।
Question : हरि है राजनीति पढि़ आए।
समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पायो?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरू करि नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी जुवतिन को जोग संदेस पठाए।
भले लोग आगे के सखि री! परहित डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए जे है चलत चुराए।।
ते क्यों नीति करत अपनु जे औरनि रीति छुड़ाए?
राजधर्म सब भए सूर जहं प्रजा न जायं सताए।
(2008)
Answer : संदर्भः गोपियों के पास श्रीकृष्ण ने योग संदेशा भेजा है। इससे अब गोपियों के मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह गई कि श्रीकृष्ण राजनीति के एक चतुर खिलाड़ी हैं। प्रस्तुत पद में उनके राजनैतिक दाव-पेंच का संकेत किया गया है।
व्याख्याः (गोपियां आपस में बात कर रही हैं) हे सखियों! जरा देखो तो! श्रीकृष्ण अब राजनीति शास्त्र के ज्ञाता हो गए (मथुरा जाते ही ऐसे छल और कपटपूर्ण व्यवहार करने लगे) क्यों सखियों! जो बात उद्धव जी कह रहे हैं क्या उन्हें तुम सबों ने कुछ समझा अर्थात् राजनीति शास्त्र पढ़ने के बाद उन्होंने जो बातें उद्धव द्वारा भेजी है क्या वे तुम्हारी समझ में आयी, क्या तुम्हें उनके राजनीति विशारद होने और इस प्रकार योग-संदेश भेजने का कुछ समाचार मिला?
एक तो श्रीकृष्ण पहले ही बहुत चतुर थे, दूसरे गोपियों से जो प्रेम व्यवहार किया उसमें भी अपनी चतुराई दिखाई। आशय यह है कि वे बनते बड़े होशियार हैं लेकिन जो काम किया उसमें उनकी अज्ञानता ही झलकती है।
उनकी बुद्धि का परिचय तो इसी में मिल गया कि उन्होंने ब्रज की युवतियों को योग साधना का संदेश भिजवाया है (भला, युवतियां योग की साधना कैसे कर सकती हैं-युवतियां और योग-दोनों में कितना अंतर है-क्या ऐसे संदेश के द्वारा श्रीकृष्ण की अज्ञानता नहीं प्रकट होती?)
अरी सखी! पहले के लोग कितने भले और सज्जन होते थे, जो दूसरों के हित के लिए बराबर घूमते फिरते थे और एक कृष्ण, को देखो जो दूसरे के मन की चोरी किए फिरते हैं।
नीति तो यही है कि गोपियों को अपने वे मन मिल जाय, जिन्हें वे (श्रीकृष्ण) चुराए फिर रहे हैं (देना ही नहीं चाहते भला), जो दूसरों की मर्यादा और रीति को समाप्त करने में लगे हैं, वे नीति और धर्म का पालन क्यों करने लगे अर्थात् जो गोपियों को प्रेम मार्ग से हटा करके योग मार्ग पर लगाने का प्रयत्न करते हैं वे नीति को स्वयं कैसे ग्रहण करेंगे-वे क्या नीति और धर्म का पालन करते होंगे जो दूसरे को अच्छी नीति से हटाकर बुरी नीति लगाना चाहते हैं।
सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि राजधर्म (राजा का धर्म और कर्तव्य) तो वही देखा जाता है, जहां प्रजा को किसी प्रकार कष्ट न हो (जहां राजा के धर्म से प्रजा दुखी है, उसे राजधर्म की सच्ची संज्ञा नहीं दी जा सकती)।
टिप्पणीः
Question : क्या कवितावली के उत्तर कांड में तत्कालीन समाज के यथार्थ का भरा पूरा चित्र मिलता है? सोदाहरण उत्तर दीजिए।
(2008)
Answer : साहित्य और जीवन बहुत गहरे जुड़े होते हैं। साहित्य में जीवन की ही सुख-दुखात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। प्रत्येक युग के साहित्य में युगीन परिस्थितियां किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति पाती है। तुलसी भी अपने युग के एक सजग साहित्यकार थे। उन्होंने अपने युग और युगीन परिस्थितियों को खुली आंखों से देखा था और इस कारण उनकी कृतियों में उनका युग बोलता है और कवितावली में भी तत्कालीन युग के चित्र स्पष्ट एवं यथार्थ रूप में मिलते हैं। कवितावली के उत्तरकांड में कवि तुलसीदास ने कलिकाल के कुप्रभाव का सजीव वर्णन किया है। यह कलिकाल उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का ही वर्णन है। कवि ने कलिकाल के कुप्रभावों को बहुत अच्छी तरह देखा था। सामाजिक जीवन में से धर्म, भक्ति आदि भावों का लोप हो गया था। स्वभावतः लोगों में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य का विवेक नहीं रह गया था। इसका परिणाम यह था कि सभी लोग दुखी थे और तरह तरह के व्याधियों से घिरे हुए थे। कवि ने इन सारी परिस्थिति को इस प्रकार चित्रित किया हैः
“दिन दिन दूनो देखि दरिद्र दुकालु
दुख दुरितु दुराज सुख सुकृत संकोच है।
मांगे पैंत पावत पचारि प्रातकी प्रचंड
कालकी करालता, भले को होत पौच है।।”
कलिकाल में आचार विचार सर्वथा उपेक्षित हो गए थे, सभी लोग आचार विहीन जीवन व्यतीत कर रहे थे। धर्म और ईश्वर के प्रति कोई आस्था नहीं रह गई थी। कवि के शब्दों में
“गुन ग्यान गुमानु ममेरी बड़ी कलपद्रुम काटत मसूर को।
कलिकाल विचारू अचारू हरो, नहीं सूझै कछु धूम धूसर का’’।
कलिकाल के दुष्प्रभाव से समाज का कोई वर्ग बच नहीं पाया था। यही नहीं कि केवल निर्धन वर्ग ही दुखी था, संपन्न लोगों के जीवन में भी तरह-तरह के दुख घर कर गए थे। यह कलिकाल का ही कुप्रभाव था कि राजा और रंक सभी अपने जीवन से दुखी थे?
“ राजा रंग रागी और बिरागी भूरिभागी थे
अभागी जीवन जरत प्रभाउ कलि वाम को।”
कलिकाल में समाज का सारा तंत्र ही दूषित था। लोभ और अहंकार में फूले हुए लोग राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी और महर्षि दधीचि जैसे दानवीरों को भुला बैठे थे। दूसरे शब्दों में, लोगों का विवेक नष्ट हो चुका था, उचित अनुचित की पहचान समाप्त हो गई थी। नीच प्रकृति के लोग तो राजा हरिश्चन्द्र और महर्षि दधीचि को गली तक देने में संकोच नहीं करते थे। इसी प्रकार पापपूर्ण घृणित कार्यों में लगे हुए लोग भगवान शिव और विष्णु की खिल्ली उड़ाने में प्रवृत्त रहते थे। एक प्रकार से उस युग का समाज नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पतन के गर्त में जा रहा था। कवि ने उस स्थिति को इस प्रकार वर्णित किया हैः
“गारी देत नीच हरिचंदहूं दधीचिहू को अपने चना
चबाइ हाथ चाटियुतु है।
आपु महापातकी हंसत हरि-हरहु को आपु है
अभागी, भूरिभागी डाटियुतु है।”
लोगों की कर्तव्य भावना नष्ट हो चुकी थी। सभी लोग शास्त्र सम्मत जाति प्रथा और जीवन चर्या को भुला चुके थे। क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र सभी अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे थे। मानसिक दृष्टि से तत्कालीन समाज इतना पतीत हो गया था कि कल्पवृक्ष को त्याग कर बबूल और बहेड़े के वृक्षों के बाग लगा रहे थेः
“बबुर बहेरे को बनाइ बागु लाइवत
रूबिवेको सोई सुरतरू काटियुत है।”
कवि को काशी नगरी बहुत प्रिय है, किंतु कलिकाल का लकुप्रभाव से यह नगरी भी बच नहीं सकी। काशी में महामारी का तांडव नृत्य हो रहा था। सभी स्त्री पुरुष संत्रस्त थे। कवि के शब्दों में
“बीसी विस्वनाथ की विसाद बड़ो वारानसी
बूझिए न ऐसी गति शंकर-शहर की।”
इस आपाधापी के जीवन में लोगों को न तो अपने कुल मर्यादा की चिन्ता रह गई थी न यश-अपयश का ध्यान था। कवि ने लोगों की इस मनःस्थिति का विश्लेषण इस प्रकार किया हैः
कुल करतूति-भूति कीरति सुरूप गुन,
वेद बुध विद्या पाई बिबस बल कहीं।”
कवितावली के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज आर्थिक दृष्टि से भी सुखी नहीं था। लोगों के पास आजीविका के समुचित साधन नहीं थे, यहां तक कि किसान के पास खेती की सुविधा नहीं थी तो वैश्य को व्यापार नहीं मिलता था, भिखारी कोभीख नहीं मिलती थी और नौकरी के इच्छुक व्यक्तियों को नौकरी नहीं मिलती थी। कवि ने इस सोचनीय आर्थिक स्थिति का अत्यंत प्रभावोत्पादक वर्णन इस प्रकार किया हैः
“खेती न किसान को, भिखारी को न भूख
बलि बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीधमान सोच बस कहै
एक एकन सों कहां जाई का करी।।”
निश्चय ही साधारण भारतीय आर्थिक दृष्टि से घोर विपत्रता की स्थिति में से गुजर रहे थे तभी तो हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से पूछता था बताओ कहां जाए क्या करें। यही नहीं उस युग के लोगों के लिए सम्मानपूर्वक पेट भरना एक समस्या बन गई थी। दो समय की रोटी के लिए लोगों को तरह-तरह की कलाएं सीखनी पड़ती थी। रोटी की समस्या इतनी विकराल थी कि रोटी के लिए लोग अपनी संतान तक बेचने में संकोच नहीं करते थेः
"किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट, चाकर,
चपल नट, चोर, चार चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि।
अटल गहन-गन अहम अखेट की।
ऊंच नीच करम, धरम अधरम करि,
पेट ही को पचप बेचत बेटा-बैटकी।"
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जिस युग में कवितावली की रचना हुई, उस युग के समाज की आर्थिक स्थिति वस्तुतः शोचनीय थी। नौकरी के इच्छुक व्यक्ति को नौकरी न मिले और किसान को खेती करने को न मिले तो ऐसी स्थिति में यदि लोग रोटी के लिए अपने बेटा-बेटी का सौदा करने लगें तो कौन आश्चर्य।
वस्तुतः कवितावली का युग समग्रतः पतन का युग था। धर्म, ईश्वर, नैतिक आदर्शों के प्रति लोगों में तनिक भी आस्था नहीं रह गई थी। हर व्यक्ति अपने ही निहित स्वार्थों की पूर्ति में लगा था। लोग धर्म के प्रति उदासीन थे। लोग मोह में डूबे हुए विभिन्न प्रकार के कदाचारों और पापकृत्यों में लीन थे। धर्म उपासना के स्थान पर कुवासनाओं का बोलबाला था। उधर गोरखनाथ ने भी इस संबंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गोरख ने योग की प्रतिष्ठा की और इस प्रकार जनसाधारण को धर्म, उपासना आदि की ओर से विमुख कर दिया।
सामान्य व्यक्ति तो धर्म से विमुख था ही, कथित योगी और विरागी भी धर्म के प्रति उदासीन थे। यहां तक कि वेद के प्रति भी लोगों में आस्था नहीं रह गई थी। तुलसीदास ने कवितावली में इस सारी स्थिति को इस प्रकार व्यक्त किया हैः
करम उपासना कुबासना बिनास्यो ग्यानु
बचत विराग वेष जगतु हरो-सो है।
गौरखु जगायो जोगु भगति भगायो लोगु,
निगम नियोगतें सौ केलि सी-छरो-सो है।
यही नहीं उस युग की धार्मिक व्यवस्था में पाखंड और आडम्बर ही छाए हुए थे। धर्म के प्रति जिस सच्ची निष्ठा की बात कही जाती है वह उस समय के लोगों में नहीं थे। धर्म के प्रचार और प्रसार में लगे हुए लोग भी अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए थे बल्कि सच तो यह है कि गेरूए परिधानों के बल पर वे भोलीभाली जनता का शोषण कर रहे थे। अर्थात् धर्म साधना की जगह व्यापार बन गया था। साधु के वो में तरह-तरह के पापाचार पल रहे थे।
कवि तुलसीदास ने इसे कवितावली के उत्तरकांड में इस प्रकार वर्णन किया हैः
वेष सुबनाई सुचि बचन कहें
चुवाइ जाई तों न जरनि धरनि-धन-धाम की।
कौटिक उपाय करि लालि पालियत देह मुख
कहिअत गत राम ही के नाम की।
प्रगटै उपासना दुखैं दुरबासनहि मानस निवास भूमि
लोभ-मोह-काम की।
तुलसी ने तत्कालीन साधुओं का चारित्रिक विश्लेषण करते हुए कहा है कि-
“राग-रोग-ईरिषा-कपट-कुटिलाई भरै।
तुलसी से मगत भगतिं चटें राम की।।”
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन समाज पतनोन्मुख था। उस युग के लोगों का चारित्रिक स्तर बुरी तरह गिरा हुआ था। उच्चतर मानवीय और नैतिक मूल्यों के प्रति किसी में कोई आदर नहीं रह गया था। हर व्यक्ति अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति में लगा हुआ था, धर्म-कर्म-उपासना अपना वास्तविक अर्थ खो चुके थे। तुलसी ने तत्कालीन समाज की इस सच्चाई को बिना लागलपेट के पुरी तरह ईमानदारी से कवितावली के उत्तरकांड में व्यक्त किया है।
Question : बिहारी के काव्य में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति का कितना सामंजस्य मिलता है। प्रमाण सहित उत्तर दीजिए।
(2008)
Answer : बिहारी ने अपनी भावाभिव्यक्ति का माध्यम दोहे छन्द को बनाया है। दोहा एक मात्रिक छन्द है। इसके चारों चरणों में सब मिलाकर 48 मात्रएं होती हैं। यदि अक्षरों की गणना की जाये तो इसमें कम-से-कम 24 और अधिक से अधिक 46 अक्षर आ सकते हैं। इतने छोटे से छन्द में अपने भावों को प्रकट करने में वही कवि सफल हो सकता है, जो समास-पद्धति में निपुण हो, थोड़े में बहुत कुछ कहने की जिसमें सामर्थ्य हो। बिहारी, निस्संदेह इस क्षेत्र में सफल हैं। इसी सफलता को लक्षित करके किसी ने कहा हैः
‘सतसैया के दोहरे, ज्यौ नाविक के तीर।
देखन को छोटे लगै, घाव करै गंभीर।।’
अर्थात् बिहारी सतसई के दोहे यद्यपि देखने में छोटे लगते हैं, तथापि उसके अंदर भावों का अथाह सागर भरा हुआ है, गागर में सागर निहित है। ये भाव नावक के तीर की तरह गंभीर घाव करते हैं, अत्यंत गहरा प्रभाव डालते हैं।
दोहा छन्द का स्वरूप ही ऐसा होता है कि इस छन्द का प्रयोग करने के लिए कवि को समास पद्धति का सहारा लेना अनिवार्य हो जाता है। दोहे के स्वरूप का वर्णन रहीम ने इस प्रकार किया हैः
दीरघ छोटा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चलि जाहिं।।
स्पष्ट है कि दोहा छंद का प्रयोग करते समय कवि को अपने शब्दों को समेटना पड़ता है, अधिकाधिक समास-पद्धति का प्रयोग करना पड़ता है। रहीम दोहे की विशेषता पर आगे कहते हैं:
‘रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल।
ज्यौं ज्यौं निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल।।’
अर्थात् दोहे को जितना सूक्ष्मतया अवलोकन किया जाये, उतनी ही नवीन खूबियां उसमें से निकलती जायें।
बिहारी के दोहों में उपर्युक्त दोनों गुण मिलते हैं अर्थात् इनके दोहे समास-पद्धति से युक्त भी है और सूक्ष्मतया अवलोकन करने से नित नवीन विशेषताओं से परिपूर्ण भी दिखाई पड़ते हैं। बिहारी की समास-पद्धति को मुख्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
उपमेय में उपमान के निषेध रहित आरोप को रूपक अलंकार कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-अभेद रूपक और ताद्रूप्य रूपक। अभेद रूपक में उपमेय में, अभेद-रूप से उपमान का आरोप किया जाता है और ताद्रूप्य रूपक में उपमेय को उपमान का दूसरा रूप कहा जाता है। अभेद रूपक के तीन उपभेद होते हैं- सांग अथवा सावयव रूपक, निरंग अथवा निरवयव रूपक और परम्परित रूपक। उपमेय के अवयवों के सहित उपमान के अवयवों के आरोप किये जाने को सांग रूपक अलंकार कहते हैं।
इसके दो भेद होते हैं- समस्तवस्तु विषयक और एकदेशविवर्ति। समस्तवस्तु विषय वह है जिसमें सभी आरोप्यमाणों-उपमानों और सभी आरोप के विषय-उपमेयों का शब्द द्वारा स्पष्ट कथन किया जाये। एकदेशविवर्ति रूपक वह है जिसमें कुछ आरोप्यमाण अथवा आरोप के विषय को स्पष्ट रूप से शब्दों द्वारा व्यक्त किये जायें और कुछ अर्थ के बल से आक्षिप्त किये जायें। बिहारी ने सांगरूपकों का अत्यन्त सफलता के साथ निर्वाह किया है।
‘खौरि-पनिच, भृकुटी धनुष, बधिक-समर तजि कानि।
हनतु तरुन-मृग तिलक-सर, सुख-भालि भरि तानि।।’
नायिका के द्वारा तेवर चढ़ाये जाने पर नायक उसकी मुद्रा से रीझकर आपने-आप कहता है कि खौर-रूपी पनिच वाले भृकुटी-रूपी धनुष को भरपूर तानकर कामदेव रूपी बधिक बिना किसी रोक-टोक को मानता हुआ सुख-रूपी भाल वाले तिलक-रूपी वाण से तरूण-जन-रूपी मृगों का शिकार करता है।
यहां सांगरूपक है। धनुष चलाने में पहले दो पक्ष होते हैं-वाण चलाने वाला व्यक्ति और उसका लक्ष्य। बाण चलाने वाले व्यक्ति के पास धनुष और वाण होता है। धनुष में प्रत्यंचा होती है। बाण में उसका दंड और एक सिरे पर अनी होती है। नायिका के सिर पर लगी हुई खौर ही धनुष की प्रत्यंचा है, उसकी भृकुटी धनुष है, तिलक बाण है, सुरक फल है। बाण चलाने वाला कामदेव है और उसके लक्ष्य तरूण जन हैं। बिहारी ने इतना बड़ा भाव इस छोटे-से दोहे में भर दिया है। इसी प्रकारः
‘डारे ठोढ़ी गाड गहि, नैन बटोही मारि।
चिलक चौंधि मैं रूप-ठग-हांसी-फांसी डारि।।’
नायिका की सखी नायिका से कहती है कि तेरे सौंदर्य-रूपी ठग ने कांति की चमक की चकाचौंधी में पड़े हुए नेत्र-रूपी पथिक को गले में हांसी-रूपी फंदा डालकर तथा उन्हें मारकर ठोढ़ी के खड्डे में डाल रखा है।
यहां भी सांगरूपक है। जिस प्रकार ठग चकाचौंध करके पथिक को लूट कर तथा उसे फांसी से मारकर गड्ढे में डाल देते हैं। उसी प्रकार नायिका के रूप को देखकर दर्शक अधमरा हो जाता है। यहां सौंदर्य ठग है, शरीर चकाचौंध है, नेत्र पथिक है, नायिका का मुस्कराना फांसी है और ठोढी का गड्ढा ही गड्ढा है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बिहारी ने सांग रूपकों का निर्वाह बड़ी ही कुशलता से किया है और इन्हीं के सहारे पर्याप्त भावों को दोहे के छोटे से कलेवर में भर दिया है।
इतने अधिक भावों को दोहे में भर देना बिहारी जैसे महाकवि से ही समभव्य है। भावों की भांति बिहारी ने चेष्टाओं का भी सफल एवं प्रभावोत्पादक चित्रण किया है। यथाः
‘भौंहनु त्रसति, मुंह नटति, आंखिनु सौं लपटाति।
ऐंचि छुड़ावति करु हूंची आगै आवति जाति।।’
नायिका की अतरंग सखी उसकी चेष्टाओं का वर्णन करती हुई कह रही है कि वह भौंहों से तो डरती है, बनावटी क्रोध करती है, मुंह से नटनी है और आंखों से लिपटती है अर्थात् उसकी आंखों में नायक के प्रति जो आकर्षण भरा हुआ है, वह स्पष्ट प्रतीत होता है। वह खींचकर अपना हाथ भी छुड़ाने का प्रयास करती है और इस प्रयास के बहाने से वह धीरे-धीरे नायक की ओर खिसकती चली जाती है। बिहारी ने दोहे छंद के अतिरिक्त सोरठे छंद का भी प्रयोग किया है। दोहे और सोरठे में विशेष अंतर नहीं होता।
इसलिए जो समास-पद्धति बिहारी को दोहों में अपनानी पड़ी है, वही सोरठों में भी। यथाः
‘मंगलु बिंदु सुरंग, मुखु ससि केसरि-आड़ गुरू।
इक नारि लहि संगि, रसमय किय लोचन-जगत।।’
ज्योतिष-शास्त्र में यह माना जाता है कि भंडा, समीरा आदि सात नाडि़यों में से प्रत्येक की गति चार-चार नक्षत्रें में सर्पाकार है। जब चंद्रमा, मंगल तथा बृहस्पति ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है कि वे एक ही नाड़ी के चारों नक्षत्रें में से किसी पर होते हैं-चाहे चारों नक्षत्रें में से किसी एक ही पर अथवा भिन्न-भिन्न पर तो जगत्- व्यापिनी वृष्टि होती है।
बिहारी ने इसी आधार को लेकर उपर्युक्त सोरठे की रचना की है। नायिका के मुख पर लाल बिंदु तथा केसर की पीली आड़ देखकर नायक उसके सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि लाल-बिंदु- रूपी मंगल, मुख-रूपी चंद्रमा एवं केसर की पीली आड़-रूपी वृहस्पति, इन तीनों ग्रहों को एक ही (नाड़ी-रूपी स्त्री) ने साथ ही प्राप्त करके मेरे लोचन-रूपी जगत् को रसमय बना दिया है। इतना बड़ा भाव एक छोटे से सोरठे में भर देना बिहारी की समास-पद्धति की चरम सीमा ही कही जा सकती है।
बिहारी के दोहों में अथवा सोरठों में दो बातें स्पष्ट हैं-एक तो व्यक्त गंभीर भाव और दूसरी उन भावों में निहित प्रसंग-विधान। यह प्रसंग-विधान भावों की गरिमा को और अधिक बढ़ा देता है। इस प्रसंग विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके लिए बहुत श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि जिस प्रकार किसी रमणीय के सौंदर्य के साथ उसकी लावण्यता सहज ही परिलक्षित हो जाती है, उसी प्रकार बिहारी के भाव-विधान में निहित प्रसंग-विधान आसानी से अध्याहृत किया जा सकता है, यथाः
‘ढीठि परोसिनी ईठि ह्नै कहै जु गहे समानु।
सबै संदेसे कहि कह्यौ मुसुकाहट मैं मानु।।’
यहां नायक की गुप्त प्रीति अपनी पड़ोसिन से है। एक दिन जब नायक घर पर नहीं था तो उस पड़ोसिन ने आकर नायिका से उसके पति को सुनाने के लिए कुछ संदेश दिए। वे संदेश इस प्रकार के होंगे- तुम अपने पति से कह देना कि आज मेरे घर पर कोई नहीं है। मुझे उनसे एक आवश्यक कार्य है। यदि वे मेरे घर आकर मुझसे पूछ लें तो उनकी बड़ी कृपा होगी, आदि-आदि।
नायिका ने ये सारे संदेश मुस्करा कर पति को दिए। उसकी मुस्कराहट ने दो बातों को प्रकट किया। एक तो यह कि मैं तुम्हारी पड़ोसिन के प्रति प्रीति को जान गई हूं और दूसरी यह कि अगर तुम उसके घर गए तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इतना बड़ा प्रसंग अध्याहृत करने के पश्चात ही उपर्युक्त दोहे का अर्थ समझा जा सकता है।
इस विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि बिहारी के काव्य में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति अत्यंत प्रबल है। इसमें गागर में सागर भरने की पूर्ण क्षमता है। बिहारी ने दो पंक्ति में जितने भाव प्रकट कर दिए हैं, उतना भाव अन्य मुक्तकारों ने चार पंक्तियों में भी नहीं भर पाए हैं। वास्तव में दोहे जैसे छोटे से छंद में इतने अधिक भाव भरने वाला तथा विस्तृत प्रसंग-विधान को निहित करने वाला दूसरा कवि अभी तक हिंदी साहित्य में क्या विश्व साहित्य में भी नहीं हुआ है। तभी तो केवल सात सौ दोहों की रचना करके ही बिहारी महाकवि के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित हो सके हैं।
Question : हम डूबते हैं आप तो अध के अंधेरे कूप में
हैं किंतु रखना चाहते उनको सती के रूप में
निज दक्षिणांग पुरीष से रखते सदा हम लिप्त हैं,
वामांग में चंदन चढ़ाना चाहते, विक्षिप्त हैं।।(2008)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पद्यांश मैथलीशरण गुप्त कृत भारत-भारती के वर्तमान खंड से उद्धृत है। इस खंड में कवि ने भारत की वर्तमान दयनीय दशा को चित्रित किया है। इस पंक्ति में कवि हमें स्त्रियों के प्रति हमारे व्यवहार को रेखांकित करते हुए बताते हैं कि स्त्रियों की उपेक्षा करके हम अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
व्याख्याः हम स्वयं तो पाप के अंधेरे कुएं में डूब ही रहे हैं, सब प्रकार के कुकर्म किया करते हैं। पर अपनी पत्नियों को पतिव्रता बनाकर रखना चाहते हैं, यह कैसी मूर्खता है! हम इधर तो अपने शरीर के दायें भाग को विष्ठा से लीपकर अशुद्ध रखते हैं और बायें हिस्से में चंदन चढ़ाना या चंदन लीपते हैं, इस प्रकार हमारा मस्तिष्क खराब हो गया है, तभी ऐसा कर रहे हैं।
कवि का आशय है कि जब पुरुष स्वयं आचरण से गिरे हुए हों तो अपनी पत्नियों से सदाचारिणी बनने की आशा करना सबसे बड़ी मूर्खता है। यदि उन्हें पतिव्रता देखना चाहते हैं तो पुरुषों को पहले चरित्रवान बनकर दिखाना चाहिए।
विशेष-यहां निदर्शना अलंकार है।
Question : कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रखा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वह पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
(2008)
Answer : संदर्भः ये पंक्तियां कविवर निराला के प्रसिद्ध व्यंग्य कविता- ‘कुकुरमुत्ता’ में से ली गई है। निराला जी की यह कविता उनके ‘नये पत्ते’ नामक काव्य-संग्रह में संकलित है। इस कविता में कवि ने अपने युग की अनेक मान्यताओं और चेतनाओं पर करारा व्यंग्य किया है। छायावादी चेतनाओं, राजनीति, ब्रह्म-संबंधी विचार, पूंजीवाद, सामाजिक वैषम्य आदि सभी पर एक तीखे व्यंग्य का भाव इस लंबी कविता में है। इस पंक्ति में कविवर ने गुलाब के फूल के माध्यम से पूंजीपतियों पर व्यंग्य करते हैं।
व्याख्याः नवाब के उस बगीचे की पहाड़ी पर फारस के गुलाबों के करीब ही एक कुकुरमुत्ता भी सिर उठाकर उग आया। वह पूंजीवादी के रूप में गुलाब को मानकर उसका उपहास उड़ाते हुए कहता है-ऐ गुलाब के फूल! तूने पूंजीपतियों के समान ही कितनों को अपना गुलाम बना रखा है। अपनी देखभाल के लिए माली रखे हुए है, जो बेचारे सर्दी गर्मी किसी की भी परवाह न कर सब सहते हैं। तू जिसके हाथों भी लगता है, वह औरतों की तरह मैदान छोड़कर पीछे भाग जाता है।
अर्थात् पूंजीपति कायर और दुर्बल हो जाता है। जैसे रस्सी तुड़वाकर तबेले का टट्टू भागता है, उसी तरह तुझे अपनाने वाला भी भागता है। क्योंकि तू बड़े-बड़े शहंशाहों, राजाओं और अमीरों का प्यारा है, इसी कारण तू साधारण फूलों से अलग-थलग है अर्थात् जैसे पूंजीपति जन साधारण में नहीं मिल पाते उसी प्रकार गुलाब का फूल भी अन्य फूलों में नहीं समा पाता। भाव यह है कि पूंजीपतियों ने हमेशा आम जनता को गुलाम बनाकर उसका शोषण करता है और शोषक शोषितों में भला कैसे मिल सकता है। अतः स्वाभाविक है कि वह आम जन से अलग दिखेगा ही।
Question : नागार्जुन को जन कवि क्यों कहा जाता है?
(2008)
Answer : प्रगतिवादी कवियों में नागार्जुन का केंद्रीय स्थान है। उनकी कविताओं का कथ्य एवं शिल्प मानवीय संवेदना के अनुरूप प्रभावोत्पादक है। समकालीनता, यथार्थनिष्ठा, प्रगतिशीलता, मानवीय सहानुभूति व वर्गीय चेतना नागार्जुन की कविताओं का वैचारिक पक्ष है। वे विपन्न मानव के सच्चे साथी हैं। सत्ता व संस्कृति के प्रचलित द्वंद्व में नागार्जुन जनसंस्कृति के पक्ष में दृढ़ता से खड़े होते हैं। डॉ. रामविलास र्श्मा के अनुसार, वे (नागार्जुन) मजदूरों, किसानों और गरीब जनता के समर्थ पक्षधर हैं। समकालीनता से जुड़ा हुआ ऐसा क्रांतिकारी लेखक हिंदी में दूसरा नहीं है।
नागार्जुन का जीवन दर्शन विचारधाराओं के स्वस्थ्य संघर्ष का प्रतिफल है। समाजवाद, मार्क्सवाद और मानवतावाद इनकी प्रिय विचारधाराएं हैं। वे पूंजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं। मानवीय विचारधारा के मूल में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व न्याय की प्रबल अकांक्षा है।
उनकी अकांक्षा का केंद्र बेहतर समाज है, एक समता मूलक समाज, जो सुख-समृद्धि से युक्त हो, अन्याय व शोषण से मुक्त हो। नागार्जुन मानव मुक्ति के पक्ष में बोलने वाले रचनाकार हैं। उनका जीवन-दर्शन सामान्य जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्ध है-
“प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं,
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित
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अन्य बधिर व्यक्तियों को सही सही बतलाने के लिए
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प्रतिबद्ध हूं, जी हां शतधा प्रतिबद्ध हूं।”
नागार्जुन अभावग्रस्त मानवता को देखकर व्यथित हो उठते हैं। उनके भीतर का रचनाकार जनजीवन में फैले विषय अंधकार को
समाप्त कर नवजीन के आलोक को बिखेरने के लिए व्याकुल हो उठता हैः
“नविड़ अविद्या से मन मूर्छित, तन जर्जर है भूख व्यास से, व्यक्ति-व्यक्ति दुख-दैन्य ग्रहत है।
दुविधा में समुदाय पस्त है, लो मशाल अब घर-घर को आलोकित कर दो।“
किसी भी देश काल में जीवन की परिस्थितियां कितनी ही कटु क्यों न हो जाएं, समस्या के समाधान का वास्तविक बिंदु मानवीय शुभत्व की प्राप्ति में निहित रहता है। नागार्जुन युग-जीवन की विद्रूपता से बार-बार टकराते हैं।
घायल मानवता की चीख-पुकार सुनते हैं। जन सामान्य की जड़ हो चुकी संवेदना को जगह-जगह टटोलते हैं। प्यासी पथरायी आंखों में मजदूरों की वास्तविकता इसी रूप में प्रकट हुई हैः
कुली, मजदूर हैं, बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला, धूआं-धूआं, भाप से पड़ता है सबका, थके मांदे जहां तहां हो जाते ढेरय्
नागार्जुन की रचनाओं में सच्चा मानवतावाद मुखरित हुआ है। वे एक बेहतर मानव समाज का स्वप्न देखते हैं। उनकी कविताओं में भविष्योन्मुखी जीवन-दर्शन सक्रिय है। अरूणोदय नामक कविता में वे कहते हैंः
“लक्ष्य स्पष्ट है, पंथ कठिन है,
रात्रि शेष यह आगे दिन है।”
नागार्जुन जन सामान्य के जीवन स्तर को सुधारने की आकांक्षा लेकर अपने साहित्य का सृजन करते हैं।
उनका न केवल काव्य बल्कि संपूर्ण साहित्य जन साधारण लोगों का साहित्य है, जो अपनी सारी मेहनत, निष्ठा और ईमानदारी के बावजूद एक घृणित और नाटकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन इस बात का अहसास है कि उनका वास्तविक शत्रु कौन है, लड़ाई किस मोर्चे पर लड़नी है और जहां वे अपनी जमीन पर, अपने पैरों पर, खड़े होकर अपने हथियारों से यह लड़ाई लड़ते हैं, लड़ सके हैं, वहीं आम आदमी के जद्दोजहद की बड़ी प्रभावशाली तस्वीर अपनी संपूर्ण वास्तविकता, यथार्थ और मानवीय गरिमा के साथ अपने उपन्यासों और कहानियों में अंकित किया है।
इनके कथा साहित्य (उपन्यास और कहानियों) में बलचनमा, दुखमोचन, ताराचरण, जैकिसुन, कामेश्वर आदि ऐसे बहुत से पात्र हैं जिन्हें समाज और आम जन विरोधी प्रतिक्रियावादी तत्वों की पूरी पहचान है और नागार्जुन के ये पात्र उन सारी चीजों के विरोध में खड़े हैं, जो सामान्य जन का शोषण करते हैं।
इन पात्रें द्वारा आम आदमी की हक की लड़ाई वास्तव में नागार्जुन के जनता और मानव के प्रति पक्ष धरता तथा उनके प्रेम को प्रदर्शित करता है।
प्रकृति की भावनात्मक सत्ता और ग्राम जीवन की सहजता उन्हें आकर्षित करती है। नागार्जुन को अपने देश, वहां की प्रकृति से काफी लगाव है और यह धरती प्रेम ही उनकी कविताओं की ताकत है।
उनकी कविताओं में, जो सामाजिक यथार्थ है, छदम प्रगतिशीलता का उद्घाटन है, साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया है, उसके मूल में उनकी राष्ट्रीय चेतना, अपने देश की धरती से प्रेम, वहां की प्रकृति से लगाव ही है। वे अपनी इस भूमि-प्रेम को इस प्रकार व्यक्त करते हैं:
“आज तो मैं दुश्मन हूं तुम्हारा, पुत्र हूं भारत माता का, और कुछ नहीं हिंदुस्तानी हूं महज, प्राणों से भी प्यारे हैं मुझे अपनी भूमि”
नागार्जुन का अपने धरती प्रेम में वे सभी सजीव निर्जीव प्राणी शामिल होते हैं, जो इस धरती के अंग हैं, यहीं वास करते हैं तथा जिनका जीवन स्रोत यही धरती है।
इस धरती के क्षुद्रतम प्राणी भी नागार्जुन की कविता के लिए पवित्र है और ये क्षुद्र प्राणी कवि की संवेदना को जगाने में सक्षम है। एक मादा सूअर जो धूप में पसर अपनी छौनों को दूध पिला रही है-वह भी नागार्जुन की संवेदना की हकदार है क्योंकि यह भी तो मादरेहिंद की बेटी हैः
“पैने दांतों वाली
धूंप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़ मादा सूअर
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुणगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरेहिंद की बेटी है
भूरे-भूरे बारह थनों वाली”
यहां इस कविता में जीवन की क्षुद्रता का एश्वर्य मिलता है और इसीलिए यह कविता केवल मादा सूअर की कविता नहीं है, यह जीवन मात्र के प्रति उसके क्षुद्रतम अंश के प्रति कविता का अर्ध्य है।
इस प्रकार नागार्जुन की संवेदना इतनी व्यापक है कि इस धरती का हर एक जीव और निर्जीव इसमें स्थान प्राप्त कर लेता है। यहां कुछ भी त्याज्य नहीं है, कुछ भी वर्जित नहीं है।
इस प्रकार नागार्जुन का साहित्य संघर्षशील मानवता के सुख-दुख की सचेतन अभिव्यक्ति है। उन्होंने सोये हुए मानव समाज को जगाने का कार्य किया है।
नागार्जुन की जनपक्षधरता हमेशा रही है। वे हमेशा साधारण सामान्य के रचनाकार रहे हैं तथा उनकी रचना में जन सामान्य ही प्रतिष्ठित है। वे कभी असामान्य, असाधारण और अलौकिक की ओर नहीं दौड़ते बल्कि उनकी पुरी संवेदना और कवि हृदय सामान्य, साधारण और लौकिकता के लिए संघर्ष करती है। अतः इस बात में कोई संदेह नहीं रहता कि नागार्जुन को जन कवि क्यों कहा जाता है।
Question : “सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जैसा प्रयास कबीर ने किया वैसा प्रयास कोई दूसरा नहीं कर सका”- इस कथन के आधार पर कबीर के कृतित्व का सोदाहरण मूल्यांकन कीजिए।
(2007)
Answer : कबीर एक ओर परंपरागत भारतीय समाज की मध्यकालीन अवस्था की उपज थे, तो दूसरी ओर परम्परागत और मध्यकालीनता की सीमाओं को तोड़ने की कोशिश कर अपने अनुकूल एक समाज की कल्पना कर रहे थे।
इसे हम इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि कबीर सिर्फ कल्पना नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी कल्पना को साकार करने के लिए संघर्ष भी कर रहे थे। परम्परागत भारतीय समाज जाति-पांति पर आधारित भेद-भाव में पांच श्रेणियों में बांटा था। उस समय सामंती-समाज फल-फूल रहा था। इसी समाज का चित्रण कबीर की रचना में मिलता है। सामन्ती समाज में प्रचलित दास प्रथा का उल्लेख कबीर ने इस प्रकार किया है-
“द्वारा धनी के पडि़ रहै धक्का धनी का खाय,
कबहुंक धनी निवाजई जो दर छांडि न जाय।।”
इसी तरह के चित्रण निम्न पंक्ति में भी देखा जा सकता है-
“दास तन हिरदे नहीं, नाम धरावे दास।
पानी के पीये बिना कैसे मिटे पियास।”
इस प्रकार कबीर के पदों में दास प्रथा और सामन्ती व्यवस्था के जुल्म का उल्लेख मिलता है। ऊपर के दोनों पदों में कबीर ने बताया है कि धनी आदमी के द्वार पर पड़े रहने से खाने को धक्का मिलता है। फिर भी अगर द्वारा छोड़कर नहीं गए तो कभी-कभी धनी आदमी खाना भी दे देता है। आगे वे कहते हैं कि दास तो शरीर होता है मन नहीं, भी उसे दास ही कहा जाता है।
कबीर के समय के सामन्ती समाज में जाति-पांति, ऊंच-नीच आदि का भेद-भाव मौजूद था। और इस समाजिक व्यवस्था का पोषण धर्म के नाम पर किया जाता था। कबीर सवाल करते हैं कि क्या असमानता पर टिकी इस व्यवस्था का निर्माण स्वयं ईश्वर ने किया है? यदि ईश्वर ने किया है, तो उसमें एकरूपता क्यों नहीं है? कबीर के गले यह बात नहीं उतरती, क्योंकि यह असमानता पैदा होने के बाद सामन्ती समाज द्वारा थोपी गई थी। इसे समझ कर ही कबीर कहते हैं कि अगर यह व्यवस्था ईश्वर द्वारा रची हुई होती, तो मनुष्य जन्म के साथ ही उसे लेकर पैदा होता।
“जे तू बाभन बभनी जाया। तो आन वाट ह्नै काहै न आया।।
कबीर ने जिस समाज की कल्पना की है उसमें परिवर्तनशीलता का बोध देखा जा सकता है। कबीर समय की गतिशीलता से परिचित थे। समय की गतिशीलता का ज्ञान समाज के पुरानेपन और नयेपन के फर्क से होता है। कबीर का यह प्रसिद्ध पद उनकी समय-चेतना या परिवर्तन बोध को अच्छी तरह व्यक्त करता हैः
‘माटी कहे कुम्हार सों सू क्या रुंदै मोहि।
एक दिन ऐसा होयगा में रूदूंगी तोहि।।’
जीवन के गति के मृत्यु तक पहुंचने की प्रक्रिया को कबीर ने माटी और कुम्हार के प्रसंग से व्यक्त किया है। यहां उनका कथ्य यह है कि गति से स्थिति बदलती है और बुनियादी परिवर्तन भी हो जाता है। पहले कुम्हार माटी को रौंदता है और जब कुम्हार मर जाता है, तो माटी कुम्हार को रौंदती है। इस प्रतीक के माध्यम से कबीर सामाजिक परिवर्तन की चेतना को व्यक्त कर रहे हैं। कबीर धन संचित करने वाले को समझाते हैं कि धन जो तुमने बहुत यत्न से कमाया है, वह जीवन में भी तुम्हारा काम नहीं आने वाला है। वे कहते हैं:
‘बहुत जनन करि कीजिए, सब फल जाय न साथ।
कबिरा संचय सूम धन अंत चोर लै जाय।।”
कबीर अपने समय के सामन्ती समाज व्यवस्था में विश्वास करने वाले लोगों को बताते हैं कि धन संचय वाले समाज में चोर बहुत होते हैं और संचित धन कभी भी चोर ले जाते हैं। कबीर सामन्ती समाज में मौजूद भोग-विलास को नकारते हुए कहते हैं:
“कनक कामिनी देखि कै तू मति भूल सुरंग।”
धन सम्पत्ति के सामन्ती मान्यता के खिलाफ कबीर की चेतना आगे बढ़कर निम्न या गरीब लोगों के जीवन से गहरा लगाव कायम
करती है। कबीर जिस सामाजिक और मानवीय मूल्य को मानते और समाज में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, वह मूल्य गरीबों के पास, दलितों के पास ही है। इन बातों से कबीर की जो सामाजिक मान्यताएं स्पष्ट होती हैं, उससे यह समझ में आता है कि वे अपने समय के सामन्त समाज को नकार देते हैं, वे उसे बदलना चाहते हैं, बदलने के लिए जनता को जगाते हैं। लेकिन सामन्तवादी सामाजिक ढांचे को बदल कर
वैकल्पिक व्यवस्था कायम करने की योजना स्पष्ट नहीं थी उनके सामने। लेकिन सामाजिक बदलाव के बारे में कबीर अपने विचार दो टूक शब्दों में रखते हैं। बुनियादी परिवर्तन तो नहीं, लेकिन परिवर्तन चाहते हैं। कबीर ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें जात-पांत नहीं हो, मनुष्य का चरित्र एवं व्यक्तित्व कथनी-करनी के भेद एवं पाखण्ड से मुक्त हो।
समाज में धर्म हो, लेकिन ऐसा जिसमें आडम्बर न हो, जो आत्मा को शुद्ध रखे और ईश्वर की भूमिका शोषण, ठगी, अत्याचार करने वाले को दण्ड देने वाली हो। और इस प्रकार की विशेषता सामन्ती समाज में संभव नहीं थी। अतः कबीर ने सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया जिसे उनकी रचनाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है।Question : कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जानन कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरू तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
(2007)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत पंक्तियां गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड से उद्धत है। यह प्रसंग उस समय का है जब राम के दूत के रूप में हनुमान जी लंका के अशोक वाटिका पहुंचते हैं और सीता जी को अपना परिचय देकर भगवान श्री राम के संदेश सीता माता को सुनाते हैं। इस पंक्ति में हनुमान जी राम के वियोग-दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं:
व्याख्याः विरह-वेदना का उल्लेख करने पर वह कुछ कम हो जाती है, किन्तु मैं अपनी पीड़ा किससे कहुं? मैं कहना चाहता हूं, किन्तु यहां उसे कोई समझने वाला नहीं है। हृदय के दुख को वही समझ सकता है जिसके कारण वह उत्पन्न हुआ है। अन्य लोग उसका अनुभव नहीं कर सकते। हे प्रिये! मेरे और तुम्हारे मध्य प्रेम का जो सार है अथवा जो वास्तविकता है, उसका मर्म केवल मेरा मन जानता है। और यह मन तो सदैव तेरे पास ही रहता है, अतः मेरे प्रेम का घनत्व इतने से ही समझ लो। तात्पर्य यह है कि प्रेम अनुभूति का विषय है, किन्तु अनिवार्यच्य है। इस प्रकार जब सीता परमप्रिय प्रभु का यह प्रेम-संदेश सुनी, तो इसे सुनते ही सीता भी रामचन्द्र जी के प्रेम में आत्मविभोर हो गई और उन्हें अपने शरीर की भी स्मृति नहीं रही।
साहित्यिक सौन्दर्यः
Question : “फूलमरै पै मरै न बासूय्- इस कथन के आधार पर जायसी की प्रेम-व्यंजना के महत्व का आंकलन कीजिए।
(2007)
Answer : जायसी ने अपने पद्मावत में प्रेम के नए दृष्टिकोण की स्थापना का प्रयास किया है। इसमें लौकिक प्रेम और ईश्वरीय प्रेम को मिलाने का प्रयास किया गया है। इसमें प्रेम को एक सामाजिक मूल्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी भक्त कवि ने अपने ईश्वरीय प्रेम से संतुष्ट होने से मना कर दिया और मानव से प्रेम ही ईश्वरीय प्रेम माना है। जायसी कहते हैं:
“मानस प्रेम भएउ बैकुण्ठी”
इस चिन्तन की मूल बात यह है कि इसमें मानव प्रेम और ईश्वरीय प्रेम को अलग-अलग तथ्यों के रूप में नहीं रखा गया है। मानवीय प्रेम को इतना महत्व दिया गया है कि वही वैकुंठ की प्राप्ति कर
सकता है।
पद्मावत का प्रेम कुछ मायनो में कबीर के प्रेम की तरह है जिसकी मूल मान्यता है कि प्रेम खाला का घर नहीं है। जायसी ने जिस प्रेम मार्ग की स्थापना की है, वह भी कुछ ऐसा ही है। वे कहते हैं कि प्रेम का निर्माण करने के लिए अपने खून और आंसूओं की लोई बनानी पड़ती हैः
“मुहम्मद कवि जोरि सुनावा।
सुना सो पीर प्रेम कर पावा।।”
सच्चे-प्रेम को एक साध्य प्रेम के रूप में देखना एक स्वाभाविक विशेषता है। जायसी के पद्मावत में प्रेम में इस प्रतिबद्धता की परिकल्पना की गई है, जहां प्रेमी को प्रिय के साक्षात्कार के अतिरिक्त और किसी सुख की कामना नहीं होती।
पद्मावत के प्रेम में राजा रत्नसेन ने भी ऐसी ही निष्कामता को अनुभव किया है। भयंकर समुद्र के मध्य में भी उसके मन में एक ही विचार हैः
“ना हो सरग के चाहौ”
प्रेम को जायसी ने जीवन की ऊर्जा के रूप में देखा है। उनकी दृष्टि में प्रेम का महत्व इतना अधिक है कि मृत्यु के नजदीक पहुंचने वाला व्यक्ति भी जीवंत हो उठता है। पद्मावत में जब रत्नसेन को सूली पर चढ़ाने के लिए ले जाया जा रहा है, तो हीरामन उसे पद्मावती का संदेश देता हैं
‘मरै तो मरौ जियौ एक साथ’
इतना सुनते ही रत्नसेन के मन से अपनी मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है तथा वह चरम जीवंतता का अनुभव करने लगता है। प्रेमकी उपलब्धि व्यक्ति के मन को आनंद से पूर्ण तो करता ही है, उसे निर्मल भी बनाती है। एक बार मन में प्रेम का भाव पैदा हो जाय, तो विश्व में प्रत्येक वस्तु में प्रेम और सौंदर्य का अहसास होने लगता है, जो बाते पहले नहीं सूझती थी, वह सूझने लगता है। ठीक यही स्थिति पद्मावत में रत्नसेन की है। हीरामन के मुंह से पद्मावती की प्रशंसा सुनते ही जो प्रेम रत्नसेन के हृदय में संचरित होता है, उसके प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करता हैः
सहसहुं करां रूप मन भूला।
जहं जहं दिस्टि कवल जनु फूला।।
तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छांडि किछु औरू न लोना जौं देखौं मन बूझि।।य् प्रेम की यह सामान्य विशेषता है कि इसमें व्यक्ति केन्द्र में होता है, न कि उसका स्वाभाव या कर्म। श्रद्धा की स्थिति में कर्मों के कारण व्यक्ति से प्रेम होता है, जबकि प्रेम की स्थिति में व्यक्ति के कारण उससे संबंधित सभी वस्तुएं प्रिय लगने लगती हैं। नागमती को प्रिय की ओर ले जाने वाला मार्ग इतना प्रिय है कि वह उस मार्ग को अपनी पलकों से बुहारना चाहती है। ‘वह पथ पलकन्ह जाई बुहारो।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि पद्मावत में प्रेम के प्रति एक ऐसी दृष्टि मिलती है, जो पूरे हिन्दी साहित्य में अनूठी है। आदिकाल में प्रेम के नाम पर केवल दरबारीशृंगार या जिसमें प्रतिबद्धता और जबावदेही का घोर अभाव था। भक्ति काल में कबीर के यहां तो प्रेम था, किन्तु वह प्रेम अपने दृष्टिकोण में व्यक्ति कथा तथा उस प्रेम का प्रभाव समाज पर कुछ असर छोड़ना था। जायसी ने हिन्दी साहित्य में पहली बार शास्त्रीय प्रेम की प्रतिष्ठा की।
कबीर का कहना था कि सुन्दर समाज की स्थापना के लिए समाज की असुंदर मान्यताओं का ध्वंस के बाद एक आदर्श समाज के लिए मानवीय मूल्य के प्रेम की स्थापना आवश्यक है। प्रेम की यह व्यवस्था तत्कालीन भारतीय समाज के लिए मानवीय मूल्य के प्रेम की स्थापना आवश्यक है। प्रेम की यह व्यवस्था तत्कालीन भारतीय समाज के लिए गहरा महत्व रखती है, क्योंकि उस संक्रमणकाल में बिखरते हुए समाज को यह अहसास दिला देना आवश्यक था। शुक्लजी के अनुसार- “एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप-रंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा एकत्व का अनुभव करने लगता है।”
जायसी के इस प्रेम व्यंजना का यही महत्व है और कवि का यह प्रेम इस प्रकार का है कि तन मर जाता है, पर प्रेम नहीं, जैसे फूल के सुखने के बाद भी खुशबू नहीं समाप्त होती।
Question : ‘कामायनी’ को जयशंकर प्रसाद की अन्यतम काव्यकृति क्यों कहा जाता है? सतर्क और सोदाहरण अपने मत का उपस्थापन कीजिए।’
(2007)
Answer : ‘कामायनी’ छायावाद की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसका निर्माण छायावाद की पौढ़ वेला में हुआ है और यह छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद की गहन अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति की साकार प्रतिमा है। इसी कारण इसमें छायावाद की संपूर्ण उन्नत और श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का मिलना नितांत स्वाभाविक है। देखा जाय तो कामायनी महाकाव्य ही छायावाद की प्रतिनिधि रचना है। प्रसाद ने जीवन के जिन संदर्भों को लेकर कामायनी का प्रणय किया है, वे अत्यंत व्यापक और मोहक हैं।
हिन्दी जगत में तुलसी के रामचरित मानस के पश्चात् कामायनी में कविता को मानवीय संवेदनाओं के नये आयाम उपलब्ध हुए हैं। सत् और चित् के शाश्वत गुणों से संचालित मानवता में आनन्द उपलब्ध करने की जो चिरंतर पुकार उठती है, वह इस काव्य में ध्वनित हुई है। छायावाद ने हिन्दी काव्य के क्षेत्र में एक ऐसी नूतन पद्धति एवं मनन-प्रणाली का प्रचार किया था जिसके आधार पर कविजन पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक इति वृत्तियों को भी आधुनिक मानव-जीवन से संपृक्त करके अपने काव्यों में प्रस्तुत किया करते थे।
उनके सम्मुख मनवोत्थान की भावना सबसे अधिक प्रबल रहती थी और इसी दृष्टि से सम्पूर्ण इतिहास एवं पुराणों की कथाओं का विश्लेषण किया करते थे।
प्रसाद ने कामायनी में जो कथानक चुना है, वह उक्त धारणा का ज्वलंत प्रमाण है, क्योंकि कामायनी में श्रद्ध और मनु का केवल ऐतिहासिक एवं वैदिक आख्यान ही नहीं है, अपितु प्रसाद ने अपनी नूतन चिंतन धारा के अनुसार उसमें एक ओर तो मानवता के क्रमिक विकास का इतिहास प्रस्तुत किया है और दूसरी ओर वर्तमान मन्वन्तर के प्रर्वतक मनु का क्रमिक इतिहास भी प्रस्तुत कर दिया है।
ऐसे ही इसी कामायनी महाकाव्य के इतिवृत्त में कवि ने एक ओर चिन्ताग्रस्त जीव की भौतिक विफलताओं को विवरण देकर, आध्यात्मिक विचारों के द्वारा क्रमशः आनंद शिखर की ओर उन्मुख होने तथा आत्म साक्षात्कार द्वारा ब्रह्मानन्द में लीन होने का वर्णन किया है, तो दुसरी ओर चिन्तीत मन की सहज प्रवृत्तियों का चित्रण करते हुए, उसे क्रमशः अखंड-आनंद प्राप्त करने के लिए अधोगति से उर्ध्वगति की ओर अग्रसर होता हुआ दिखाकर उसके मनोवैज्ञानिक क्रमिक विकास का चित्रण किया है।
यदि कामायनी को कला पक्ष की दृष्टि से देखें तो भी वह प्रसाद की एक सवोत्कृष्ट रचना के रुप में आती है। कला पक्ष में सर्वप्रथम छन्दोबद्धता से आरंभ होता है, क्योंकि कविता हेतु लयबद्धता होना अनिवार्य है। इस दृष्टि से कामायनी में प्रमुख रूप से तातक छंद का प्रयोग किया गया है, जो प्रधान शास्त्रीय छंद की कोटि में आता है। कामायनी की श्रद्धा सर्ग मेंशृंगार छंद का प्रयोग किया है। इसके अलावा प्रसाद जी छन्दों के प्रयोग में अपनी मौलिकता का परिचय भी दिया है। इस रहस्य एवं आनन्द सर्ग में उन्होंने स्वयं द्वारा निर्मित छंदों का प्रयोग किया है। इस में गीत पद का प्रयोग है।
इसके अलावा प्रसाद जी की ‘कामायनी’ में शब्द-योजना भी काफी प्रभावशाली रूप से किया है। उनके शब्द चयन में पर्याप्त पौढ़ता परिलक्षित होती है।
कामायनी की अधिकांश पदावली में भावानुकूल चित्रेपम शब्दों का प्रयोग मिलता है। इस संदर्भ में वासना सर्ग का एक पद देखा जा सकता है, जहां उन्होंने मन एवं श्रद्धा के कामा वासना के क्षणों को सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया हैः
‘गिर रही पलकें झुकी थी नासिका का नोंक
छू लता भी कान तक चढ़ती रही बेरोक।
स्पर्श करने लगी लज्जा ललित कर्ण कपोल
खिला पुलक कदंब सा था भरा गदगद बोल
अलंकार विधान के माध्यम से भी प्रसाद जी ने अनुभूतियों को व्यक्त किया है। उन्होंने शब्दालंकारों की अपेक्षा सदृश्यमूलक अर्थालंकारों के प्रति अधिक रुचि दिखाई है। कामायनी में जितने भी अलंकार का प्रयोग हुआ है, उसमें प्रसाद जी की गहम अनुभूति का परिचय मिलता है। शब्दालंकार के अन्तर्गत अनुप्रास के कुछ भेदों का स्वरूप कामायनी में दृष्टिगोचर होता है।
प्रसाद जी ने जिस प्रकार अलंकारों का सुन्दर व सर्जनात्मक प्रयोग किया है उसी प्रकार भाषा भी कामायनी में रचनात्मक एवं अर्थपूर्ण भावों की अभिव्यकित में महत्वपूर्ण है। प्रसाद जी ने अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप तत्सम-प्रधान भाषा का प्रयोग कामायनी में किया है।
कामायनी की भाषा की एक प्रमुख विशेषता-श्रुति सुखदता और इसका कारण है-श्रुति कटु शब्दों का परित्याग, उग्र व कठोर भावों में भी कोमल वर्णों का प्रयोग, संगीतमयता, कतिपय विशेष स्वरों का आगम व लोप, स्वरों का एक-दूसरे में द्रवित होना और सुन्दर शब्द मैत्री का प्रयोग। प्रसाद जी ने कामायनी में इसी श्रुति सुखदता हेतु कहीं-कहीं, ब्रजभाषा के शब्दों - गैल, बीन, परस नरवत, प्रान्तर आदि का प्रयोग किया है। श्रुति मधुरता के कारण भाव-सौंदर्य के साथ-साथ काव्य का नाद - सौंदर्य भी बढ़ गया है।
इसी विशेषता के कारण कामायनी की भाषा, माधुर्य गुण से ओत-प्रोत परिलक्षित होती है।स प्रकार बौद्धिकता एवं भौतिकता के अतिरेक से पीडि़त तथा विविध प्रकार के संघर्षों में टूटे हुए विश्व-मानव को चरम शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने के उदात्त उद्देश्य से प्रसाद ने कामायनी की रचना अपने सर्जनात्मक प्रतिभा से की है। वास्तव में कामयानी कला पक्ष तथा भाव पक्ष दो ही दृष्टिकोण से प्रसाद की अन्यतम् काव्यकृति है।
Question : “अधिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध। जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय, बुद्धि के दुर्ग पहुंचा विद्युत-गति हतचेतन राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रभन।”
(2007)
Answer : प्रसंग प्रस्तुत पंक्ति महाकवि निराला की प्रबंधात्मक रचना राम की शक्ति पूजा से ली गई है। राम जब साधना में लीन थे तो देवी दुर्गा ने साधना हेतु रखे कमल चुरा लेने पर राम निराशा में अपने को धिक्कारने लगते हैं। लेकिन अचानक साधना पूरी करने का उपाय उनके मन में आता है और वे हर्षित हो उठते हैं।
व्याख्याः अपने जीवन को धिक्कारते हुए राम कहने लगे- मेरे इस जीवन को धिक्कार है जो कि प्रत्येक कदम पर अनेक प्रकार के विरोध ही पाता आ रहा है। उन साधनों का भी धिक्कार है कि जिनकी खोज में यह जीवन सदा ही भटकता रहा। हाय जानकी! अब साधना पूरी न हो पाने की स्थिति में प्रिय जानकी का उद्धार संभव नहीं हो सकेगा। इसके अतिरिक्त राम का एक और मन भी था जो की थकता न था और न ही अनुत्साह का अनुभव ही किया करता था। जो न तो दीनता प्रकट करना जानता था और न नम्रता से झुकना ही जानता था। राम का वह स्थिर मन माया के समस्त आवरणों को पार कर बड़ी तेज गति से बुद्धि के दुर्ग तक जा पहुंचा। अर्थात् इस निराशाजनक स्थिति में भी राम ने बुद्धि-बल का आश्रय नहीं छोडा था। राम की अतीत की स्मृतियां जग उठीं। उनमें विशेष भाव पाकर उनका मन प्रसन्न हो गया।
साहित्यिक सौन्दर्यः (1) इस पंक्ति में कवि ने राम के मानवीय चरित्र को सर्वाधिक पूर्णता से अभिव्यक्त किया है।
Question : श्रेय नहीं कुछ मेरा मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में- वीणा के माध्यम से अपने को मैंने सब कुछ को सौंप दिया था- सुना अपने जो वह मेरा नहीं न वीणा का थाः वह तो सब कुछ की तथता थी महाशून्य वह महामौन अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय, जो शब्दहीन सब में गाता है।”
(2007)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश प्रयोगवादी महाकवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की रचना ‘आंगन के पार द्वार’ काव्य संग्रह के ‘असाध्य वीणा’ कविता से है। आधुनिक साहित्य में मानवीय व्यक्तिगत और उसकी सर्जनात्मकता की सबसे गहरी और सार्थक चिंता अज्ञेय के कृतित्व में मिलती है।
सृजन के रहस्य की आत्मदान के रूप में व्याख्या रचनाकार ने ‘असाध्य वीणा’ में की है। इस पद के माध्यम से अज्ञेय की सृजनशीलता के रहस्य का उद्घाटन कर रहे हैं। यह प्रियवंद के द्वारा असाध्य वीणा के बजाने का रहस्योद्घाटन है।
व्याख्याः प्रियवंद राजा से कहता है- इस वीणा के बजाने का श्रेय मेरा नहीं है। मैं तो खुद इस शून्य में खो गया था। अतः सृजन में मेरा कोई योगदान नहीं है।
वस्तुतः सृजन का उद्भव ठीक उसी बिन्दु पर होता है, जब प्रियवंद के संपूर्ण व्यक्तित्व का विलयन हो जाता है। अज्ञेय ने अपने चिन्तन में इस बात को स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व का विलयन वही कर सकता है, जिसके पास सचमुच व्यक्तित्व हो। इसका अर्थ है प्रियवंद ज्ञान व गुण से तो संपन्न है ही, इसके बावजूद उसमें एक और क्षमता है और वह है, इस विकसित व्यक्तित्व को घुला देने की क्षमता। सृजन की प्रक्रिया का अन्तिम बिन्दु वह है, जहां वह स्वयं को भूल गया है। और यहीं से सृजन का उद्भव होता है।
प्रियवंद कहता है, वीणा के द्वारा मैंने अपेन-आपको उस सर्वोच्च सत्ता को समर्पित कर दिया था, जो सबकी सुरक्षा करती है, वीणा की जो स्वर लहरी निकली है- वह न वीणा की है और न ही मेरी है, अपितु उस महान शक्ति की स्वर लहरी है, जो संपूर्ण सृष्टि में मौन भाव से व्याप्त है।
उस सूक्ष्म अविभाज्य शक्ति को न तो विभाजित किया जा सकता है और न उसकी व्याख्या ही की जा सकती है।
वास्तविक और सर्वोच्च सत्ता का अनुभव आत्मशोधन द्वारा ही हो सकता है। सर्वोच्च शब्दातीत है और वही सबमें स्वर देता है।
विशेषताः
Question : मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर-शिष्य होना चाहता जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य उसकी वेदना का स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुंचा सकूं।
(2007)
Answer : प्रसंगः प्रस्तुत पंक्तियां कविवर मुक्तिबोध के काव्य-संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में संकलित ‘ब्रह्मराक्षस’ नामक कविता की अन्तिम पंक्तियों से उद्धृत है। स्वर्गीय मुक्तिबोध की यह लंबी कविता एक प्रकार का मिथ कही जा सकती है। इसमें उन्होंने परंपरागत धारणाओं के सड़े-गले अन्तराल में से जीवन के जीवन्त तत्व बटोरने का साहसिक सफल प्रयास किया है। ब्रह्मराक्षस उस अनवरत प्रयास का प्रतीक लगता है जो सदियों के मटमैले कुहासों को धोकर जीवन को निखारने का प्रयासक है, पर अन्धधारणाएं उसके प्रयासों को सफल नहीं होने देतीं। इस संदर्भ में खण्डहर, बावड़ी, उसकी पुरानी सीढि़यां, पानी, अन्धेरा आदि सभी परम्परागत धारणाओं के प्रतीक और परिचायक है।
ब्रह्मराक्षस एक प्रकार का हमारा अचेतन-पौराणिक मन का परिचायकहै, जो जीवन-समाज की सचेतना के वृक्ष पर आज भी आरूढ़ है। वह एक शोधक भी है। तभी तो कवि अपने आपको ‘ब्रह्मराक्षस का सजल-उर-शिष्य’ कहकर उसकी अधुरी वेदना और कार्यों को पूर्ण करने का व्रत लेना चाहता है।
कवि कहता है कि आज मैं उस ब्रह्मराक्षस का तरल हृदय वाला शिष्य बनना चाहता हूं जिससे कि मैं उसके अधुरे कार्यों को, उसकी वेदना को किसी निश्चित निष्कर्ष का आयाम प्रदान कर सकूं अर्थात् सम्पूर्णता दे सकूं।
भाव यह है कि मानव-जीवन की अबूझ गुत्थियों को सुलझाते हुए जो अतीत बन चुके हैं, यथार्थ के धरातल पर उनके निष्कर्षों को लेकर ही हमें आगे बढ़ना है।
Question : अंबर कुंजां कुरलियां, गरजि भरे सब ताल।
जिनि षै गोबिंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल।।
चकवी बिछुटी रैणि की, आई मिली परभाति।
जे जन बिछुटे राम जूं, ते दिन मिले ने राति।।
(2006)
Answer : प्रस्तुत पंक्ति कबीरदास की रचना ‘विरह कौ अंग’ से उद्धृत है। प्रेम की परिपूर्णता एवं परिपक्वता के लिए विरह आवश्यक माना गया हैं। विरह के द्वारा ही आत्मा परमात्मा की ओर और भी दृढ़ता के साथ उन्मुख होती है।
इसीलिए प्रत्येक की शाखा के भक्ति-काव्य में, चाहे वह सगुण का उपासक हो चाहे निर्गुण का, विरह का विधान किया गया है। इस अंग में कबीर ने भी परमात्मा के प्रभाव में और उसके दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा में आत्मा के विरह का वर्णन किया है।
कबीर कहते हैं कि आत्मा क्रौंच पक्षी की भांति प्रियतम से मिलने के लिए चीत्कार कर रही हैं परन्तु क्रौंच एवं करिर पक्षियों की विरहानुभूति पर तो आकाश करूणार्द्र हो बरस कर समस्त ताल जल से परिपूर्ण कर दिए, इन विरहिणियों की पुकार तो बादल ने सुन भी ली, किन्तु जो प्रभु से वियुक्त है, उनका रक्षक तो प्रभु के अतिरिक्त और कोई नहीं है। इसी तरह कबीर कहते हैं कि रात्रि की बिछुड़ी हुई चकवी अपने चकवे से प्रभात के आगमन पर मिल जाती है, किन्तु जो राम से वियुक्त हो जाती है वह तो दिन या रात कभी भी नहीं मिल पाता है।
विशेषः
Question : बिन गोपाल बैरनि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल,
अब भइं विषम ज्वाल की पुंजैं
वृधा बहति जमुना, खत्र बोलत,
यथा कमल फूलै, अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि,
दधिसुत किरन भानु भइं भुंजै।
ए, ऊधो, कहियों माधव सो बिरह,
कदन करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत,
आंखियां बरन ज्यों गुंजै।
(2006)
Answer : इसमें प्रकृति का उद्दीपन विभाव से चित्रण किया गया है। संयोग से गोपियों को प्रकृति की जो वस्तुएं अच्छी लगती थीं आज श्रीकृष्ण के बिना (वियोगावस्था में) वे सब काटने को दौड़ती हैं। गोपियां परिस्थिति-जन्य इस विषमता का उल्लेख उद्धव से कर रहीं है और उन्हें बता रही हैं कि श्री कृष्ण से जाकर कह देना कि उन्हें देखते-देखते गोपियों की आंखें गुंजा की भांति लाल हो गई हैं। दर्शनातुर गोपियों की मनः स्थिति का यह एक सजीव चित्र कहा जा सकता है।
उद्धव से गोपियां कह रही हैं कि हे उद्धव! बिना कृष्ण के ये कुंज, ये वन हमारे लिए शत्रु तुल्य बन गये हैं। तब (जब श्री कृष्ण ब्रज में थे) ये लताएं जो शीतल प्रतीत होती थीं, आज वे ही लताएं भयंकर अग्नि-राशि जैसी लग रही हैं अर्थात् श्री कृष्ण के वियोग में जब इन लताओं को देखती हैं तो मानस वेदना और पीड़ा की ज्वाला में झुलस जाता है।
हमें तो प्रकृति के सारे व्यापार निरर्थक प्रतीत होते हैं। हमारी दृष्टि में यमुना का बहना और पक्षियों का बोलना व्यर्थ लग रहा है। कमलों का फूलना और उन पर भौरों का गुंजार करना भी व्यर्थ लग रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह यमुना जहां श्री कृष्ण रास रचाया करते थे, अपने सुन्दर प्रवाह और मन्द-मन्द बहने के कारण कितनी सुखद प्रतीत होती थी, और निकटस्थ कुंज के पक्षियों के कलरव में कितनी मादकता थी, कमलों में कितना आकर्षण था, भौरों की ध्वनि कितनी मधुर थी, वे सब आज व्यर्थ से हैं। आज स्थिति यह है कि हम लोगों के लिए पवन, पानी, कर्पूर, संजीवनी बूटी, और चन्द्र किरणें आदि शीतलोपचार की वस्तुएं सूर्य की ज्चाला की भांति जला रही हैं। अतः हे उद्धव! श्री कृष्ण से स्पष्ट रूपेण कह देना कि पंगु गोपियों को वियोग की छूरी चुभा कर मार रहा है, वियोग की पीड़ा उन्हें ऐसी लग रही हैं जैसे किसी पंगु व्यक्ति को कोई छूरी चुभा रहा हो। सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव, श्री कृष्ण से यह भी बता देना कि हम सबों की आंखें उनका मार्ग देखते-देखते गुंजा की भांति लाल हो गयी हैं।
विशेषः
Question : ‘रामचरितमानस’ के ‘सुंदरकांड’ तथा ‘कवितावली’ के उत्तरकांड के आधार पर तुलसीदास की भक्तिभावना का स्वरूप विशद कीजिए।
(2006)
Answer : तुलसी मूलतः एक भक्त कवि थे। तुलसी की भक्ति-भावना का विश्लेषण करने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि तुलसी पहले एक भक्त हैं और बाद में कुछ और। कदाचित इसी कारण उनके सारे ही ग्रंथ भक्ति रस से आपूरित हैं।
कवितावली भी तुलसी की अन्य कृतियों की तरह एक भक्तिपरक ग्रंथ है, जैसे रामचरित मानस, पर कवितावली की रचना चारणों की शैली में हुई है। भक्ति के दो स्वरूप मिलते हैं- (1) वैदिक भक्ति (2) शास्त्रीय भागवद्भक्ति।
प्रथम भक्ति कर्मकांड प्रधान रही है। इसका उद्देश्य रहा है, स्वर्ग-प्राप्ति। शुद्र और नारी इस भक्ति के अधिकारी नहीं माने गए हैं। दूसरी भक्ति कर्मकांड के जाल अथवा ज्ञान के पांषड से मुक्त रही है। वह साधन भी हैं, साध्य भी हैं। आबाल-वृद्ध, चंडाल-ब्राह्मण, नारी-पुरूष सभी इसके समान अधिकारी हैं। गोस्वामी जी की भक्ति इसी दूसरे प्रकार की है। उनके मत से रागरिस को जीतकर नीतिपथ पर चलने वाले जन की राम के प्रति की गई प्रीति भक्ति है-
इस भक्ति का क्षेत्र व्यापक है। इसका द्वार सबके लिए खुला है, गोस्वामी जी के शब्दों में-
“पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ।।”
गोस्वामी जी की भक्ति का यही उदार स्वरूप है निषाद, मणिका, भीलनी, व्याध, गृद्ध, आभीर, यवन आदि सभी इसके अधिकारी हैं। शबरी की हीनभावना का निदर्शन करते हुए राम कहते हैं-
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानहुं एक भगति कर नाता।।
जाति पांति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिय जैसा।।
नव मंह जिन्ह के एकउ होई। नारि पुरूष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
इससे बड़ी समता की उद्घोषणा क्या हो सकता है? समाजवाद को छाया स्पष्ट देखी जा सकती है। वस्तुतः व्यक्ति-व्यक्ति में, नारी-पुरूष में, शूद्र-ब्राह्मण में, धनी-रंक में जो भेद-भावना या श्रेष्ठता- हीनता की भावना है, गोस्वामी जी उसे समाप्त करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जिस माध्यम को चुना था, वह थी-भक्ति। उनकी भक्ति वह केन्द्र-बिन्दु है, जहां सभी प्रकार के वैषाम्य अनायास ही लुप्त हो जाते हैं। जहां सभी प्रकार के कुंठा और हीन भावना तिरोहित हो जाती हैं तथा जातिगत अथवा धनगत अहंकार के लिए अवकाश नहीं है।
तुलसी की भक्ति-भावना उनके लोकनायक होने का सच्चा प्रमाण है। वह व्यक्ति को कर्मविमुख नहीं बनाती। वह संसार को क्षण-भंगुर, नश्वर और दुःखों की खान कहकर भीरूमना, कायर और पलायनवादी भी नहीं बनाती, बल्कि संसार क्षेत्र में जूझने के लिए प्रेरित करती है। संसार में जो संबंध हैं, उसके परिष्कार का अवसर देती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में ‘गोस्वामी जी की रामभक्ति वह पदार्थ है, जिससे जीवन में शक्ति, सरलता, प्रफुल्लता, पवित्रता सब कुछ प्राप्त हो सकती है।
गोस्वामी जी का भक्ति-मार्ग ज्ञान विरोधी नहीं है। दोनों में अविरोध भाव हैं। संख्यायोग और शंकर वेदान्त में ज्ञान की श्रेष्ठता बताई गई है और वैष्णव आचार्य ने भक्ति की महिमा गाई है। गोस्वामी जी समन्वय के पक्षघर हैं। वह ज्ञान-मार्ग की निंदा या तिरस्कार नहीं करते हैं, क्योकि उनके मत में साध्य की दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं है। दोनों का लक्ष्य एक है-भव संभव कलेश को निवारण-
पहली पंक्ति-
भगति हि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
मय हरहिं भव संभव खेदा।।
किन्तु साधना की दृष्टि से ज्ञान और भक्ति में अंतर है। ज्ञान मार्ग कठिन है, भक्ति मार्ग सरल। ज्ञान मार्ग विघ्न बाधाओं से भरा पड़ा है, भक्ति-मार्ग निर्विघ्न है। भक्ति स्वतंत्र साधना है,उसके लिए किसी अवलंबन की आवश्यकता नहीं है, ज्ञान-विज्ञान उसके अधीन है। भक्ति के लिए न योग की आवश्यकता है, न जप, तप, यज्ञ या उपवास की। वाणी में सरलता, मन में निष्कपटता, यथालाभ संतोष-यहीं गोस्वामी जी की भक्ति के तीन आधार हैं-
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल बचन नाहि मन कुटिलाई।
जथालाभ संतोष सदाई।।
गोस्वामी जी ने भक्तों की चार कोटियां निर्धारित की हैं-आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। इसमें ज्ञानी भक्त को श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु केवल ज्ञान, भक्ति-शून्य ज्ञान उन्हें मान्य नहीं है। उनके मत से ज्ञान की शुष्क भूमि पर चलकर सिद्धि प्राप्त करना दुष्कर है। ज्ञान दीपक और भक्ति-चिन्तामणि के रूपक द्वारा उन्होंने इसी तथ्य की ओर संकेत किया है। इस रूपक का एक मनोवैज्ञानिक महत्व है। काम मानव की सहजवृत्ति है।
ज्ञान की निराधार सूक्ष्म भूमि पर मन की एकाग्रता कठिन है। उसका चंचल हो जाना स्वाभाविक है। भक्ति प्रेम स्वरूपा है। चित्त की विषयों से हटाकर भगवान पर स्थिर किया जा सकता है। अनेक दृष्टांतों और कथाओं के द्वारा गोस्वामी जी ने भक्ति के माहात्म्य का प्रतिपादन किया है।
किन्तु इसका तात्पर्य ज्ञान मार्ग को हेय बताना नहीं है, दोनों में विरोध दिखाना भी नहीं। वे तो एक-दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान फूल हैं, तो भक्ति फल। ज्ञान आधार का कार्य करता है-
जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होहि नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई।।
ज्ञानी में अहं की प्रधानता होती है, भक्त में दैन्य की। ज्ञानी अपने को पहले ब्रह्म मानता है, विश्व को बाद में। अहं ब्रह्मस्मि का यहीतात्पर्य है। भक्त विश्व को ‘सियाराममय‘ मानता है, अपने को उसका सेवक-
‘मै सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवंत।
ज्ञानी ब्रह्म की जानकारी से ही संतुष्ट हो जाता है, भक्त उसे अपने रूचि के अनुरूप पाना चाहता है और उसे पाने के लिए स्वयं को आराध्यदेव के अनुकूल बनाता है।
तुलसी ने कवितावली में अपने आराध्य राम के अनुकूल गुण धारण करने का ऐसा ही संकल्प किया है-
सुनू कान दिए नित ने मलिए रघुनाथहि के गुन-गाथहि रे।
सुख मंदिर सुन्दर रूप सदा उर आनि घरे माथई रे।
रसना न सिबासर सादर सो तुलसी जपु जानकी नाथहि रे।
करू सग सुसीस सुमंतन सों क्रूर कुपंथ कुसाथहि रे।
तुलसी की भक्ति में अराध्य के नाम का बहुत महत्व है। लेकिन यहां और कहने की बात यह है कि तुलसी जब राम नाम की महिमा गाने लगते हैं, तब उन्हें कौन-कौन से लोग याद आते हैं। राम-नाम की महिमा किन-किन लोगों और वस्तुओं से संदर्भवान होती है।
तुलसी को याद आते हैं-निस्संबल, असहाय, अभागे, गुनहीन, गरीब, दीन, अकुलीन, पंगु, अंधे, भूखे, निराधार आदि। तुलसी, भक्त कवि है। लेकिन उनकी भक्ति और उनके अराध्य में पुरालोक समाया हुआ है।
यहां लोक का मतलब राजे-महाराजे, सेठों, धनपतियों समृद्धजनों का लोक नहीं, भूख-प्यास, विविध रोगों और दुःखों से व्याकुल लोक है। जो दुखी हैं, दिन हैं, असहाय हैं, तुलसी के राम उनके साथ हैं।
राम सामान्य जनों के साथी हैं। बन्दर-भालुओं की सहायता से अपने युग के सबसे शक्तिशाली अन्यायी को परास्त करना स्वयं राज्य से निर्वासित होकर राम का यह रूप समूचे मानव-इतिहास के संघर्षशील व्यक्ति का प्रतीक बन सकता हैं, जिनके पास लड़ने के लिए कुछ नहीं हैं तथा समाज में प्रतिष्ठा भी नहीं है, लेकिन ये राम के सबसे निकट और आत्मीय हैं। अपने अराध्य के संबंध में स्वंय तुलसी कवितावली में कहते हैं कि
‘ऐते बड़े तुलसीदास तऊ सबरी के दिए बिन भूख न माजी।
राम गरीबनेवाज भए हो गरीबनेवाज गरीब निवाजी।।’
राम गरीबनेवाज भए हैं। गरीबनेवाज गरीब निवाजी।।’
तुलसी के राम सच्चे अर्थों में गरीबनवाज हैं। उनकी कृपा की परिधि अनन्त है। जिसे कहीं आदर नहीं मिलता, उसे राम आदर देते हैं। इस विवेचन से स्पष्ट हैं कि तुलसीदास की भक्ति सामन्ती व्यवस्था पोषक नहीं है और न तो इसे संकीर्णवादी ही कहा जा सकता है।
यदि हम तुलसी के भक्ति के स्वरूप को सगुण और निर्गुण के विवाद से हटकर अध्ययन करें तो कह सकते हैं कि उनकी भक्ति परम लोकवादी, पर दुख कातर और मानवता से परिपूर्ण है।
Question : विषमता की पीड़ा से व्यस्त
हो रहा स्तंभित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य
यही भूमा का मधुमय दान।
नित्य समरसता का अधिकार,
उमड़ता कारण जलधि समान,
व्यथा में नीली लहरों बीच
बिखरते सुख मणि द्युतिमान।(2006)
Answer : प्रस्तुत पंक्ति जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ केश्रद्धा सर्ग से उद्धृत है। इस पंत्तिफ़ में श्रद्धा मनु सम्मुख स्पष्ट करती है कि दुःख और सुख के अत्यन्त निकट सम्बन्ध है, और दुख के बिना सुख का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह संसार ही वास्तव में दुःख और सुख की विषमता का परिणाम है क्योंकि यहां कभी सृष्टि होती है तो कभी उसका विनाश होता है।
इसी प्रकार की विषमताओं के साथ यह महान संसार निरंतर गतिशील रहता है, अर्थात् इन्हीं असमानताओं के कारण कभी इसका निर्माण होता है और कभी अवसान होता है। वास्तव में, यह दुःख और सुख ही सृष्टि के विकास का एक मूल सत्य है तथा सृष्टि नियामिका विराट् शक्ति की एक रमणीय देन है।
आगे दुःखों को कारण स्पष्ट करते हुए श्रद्धा कहती है कि यद्यपि समरसता ही सुख और आनन्द की जननी है और इसे प्राप्त करने का अधिकार सभी सांसारिक प्राणियों को है, किन्तु वे इस अधिकार का उचित प्रयोग न करके अपने व्यर्थ के सांसारिक सुखों के मोह में पड़कर अपने जीवन में स्वयं ही विषमता को उत्पन्न करते हैं और यही विषमता क्रमशः बढ़ती-बढ़ती समुद्र के समान एक कारण बनकर उमड़ने लगती है।
जिस प्रकार उमड़ते हुए समुद्र में मणियां नीली लहरों के आघात से समुद्र के अंक से निकलकर किनारे की कठोर भूमि पर आ पड़ती हैं, उसी प्रकार विषमता के कारण दुःख के उत्पन्न होने से प्राणी के अन्दर निहित सभी सुख बिखर कर नष्ट हो जाते हैं।
विशेषः
Question : निराला अपने समय की आवश्यकतानुसार प्रसंग का चयन, प्रसंग का विस्तार तथा प्रसंग की व्याख्या करते थे। क्या निराला की यह विशेषता राम की शक्ति पूजा में भी दृष्टिगोचर होती हैं? युक्तियुक्त विवेचन कीजिए।
(2006)
Answer : ‘राम की शक्ति-पूजा की रचना कविवर निराला ने सन् 1936 में किया था। यह काल हमारे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संघर्षों का काल था।
इस संघर्ष में निराशा के अनेक क्षण, अनेक प्रकार के भय, विषम उतार-चढ़ाव आ रहे थे। निराला ने अपने समय की चुनौतियों और खुद के द्वन्द्व-संघर्ष की समर्थ को राम-कथा के एक खास अंश को लेकर प्रस्तुत की है। इसमें संदेह नहीं कि ‘राम की शक्ति पूजा’ के सारे चरित्र राम, लक्ष्मण, हनुमान, रावण, विभीषण, सुग्रीव रामकथा के प्रख्यात और स्वीकृत चरित्र हैं। ऐसे चरित्र, जिनकी निजी विस्तृत गाथाएं हैं, पर सब मिलकर राम-कथा की जो अवधारणा बनाते हैं, निराला उन्हें जातीय विवेक के साथ स्वीकार करते हैं। इन चरित्रें को निराला अनेक सामाजिक तत्वों से भी जोड़ते हैं। यह केवल इसलिए ही सम्भव हुआ, क्योंकि इनका आधार मिथकीय है।
राम की शक्ति-पूजा में सत-असत के शाश्वत् संघर्ष में सत् के विजय-विश्वास में पूरे युग की सामयिकता को एक विराट फलक पर देखने की गंभीर दृष्टि मिलती है। जीवन के विविध प्रसंग में इस आस्था से जो बल मिलता है वह व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के प्रति भी सत्य है। ऐसे शाश्वत् लेकिन जीवन के मानवीय सत्य की कलात्मक अभिव्यक्ति को निराला ने एक साथ व्यापकता, सूक्ष्मता और गहराई में दार्शनिक ऊंचाई दी है। अर्थ के इतने विराट फलक की योजना ही उनके पौराणिक आख्यान के आधार का औचित्य है।
ऐसा इसलिए क्योंकि पौराणिक आख्यान, प्रतीक या मिथ सर्जनात्मक संभावनाओं के अक्षय-ड्डोत के रूप में विशेष उर्वर हैं। इनमें तात्विक रूप से परंपरा की ऐसी अपार शक्ति संयोजित है-जिससे विराट स्थापत्य की व्यंजना संभव होती है। मिथकों में मूल्यों की देशीय संस्कृति-प्रसूत गंध होती है। सर्जनात्मक शक्ति के सत् रूप के वाहक राम हैं, क्योंकि वे संस्कृति के आदि रक्षक ही, नहीं बल्कि हमारी सभ्यता के सांस्कृतिक आदर्श भी हैं। उनमें नायकत्व की परंपराविहित शक्ति है। निराला ने राम का नायकत्व के रूप में चयन इसी अर्थ में किया है।
राम के शक्ति पूजा का यह प्रतीकात्मक अर्थ अन्य आलोचकों द्वारा प्रक्षेपित अर्थ के विपरीत नहीं पड़ता, जिसमें इस कविता को निराला के जीवन या तत्कालीन राष्ट्र की स्थितियों से जोड़ कर देखा गया है। निश्चित रूप से इसका सूत्र भारत की गुलामी से मुक्ति पाने की उत्कट बेचैनी से या निराला के जीवन में व्याप्त नैराश्य पीड़ा से जोड़ा जा सकता है।
राम के जिजीविषा और संघर्ष की भावना को एक शक्ति मिलती है-जो निश्चित रूप से निराला की अपनी जिजीविषा का जीवित दस्तावेज है, लेकिन ये तमाम प्रक्षेपित अर्थ, प्रेरक और अनिवार्य छायाभास रूप में ही हैं-जो भिन्न-भिन्न स्तरों पर प्रमाणित होती है। कविता विभिन्न तत्वों की गूढ़ संश्लिष्ट प्रक्रिया होती है, जिसमें कवि या उसके परिवेश की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह सर्जनात्मक प्रक्रिया का एक अनिवार्य तत्व है। इन तमाम अर्थ छायाओं के पार होने पर ही कवि का अभिप्रेत अर्थ होता है।
कवि अपनी रचना को जानबूझकर अनेक अर्थ छायाओं के बादल से ढंक कर गूढ़ता की सृष्टि करता है, लेकिन अपने समय के परिवेश एवं परिस्थितियों को व्यंजित करने के लिए वह आवश्यकता अनुसार प्रसंगों का चयन, विस्तार और व्याख्या करता है। इसे हम निराला के इस लंम्बी कविता में भी देख सकते हैं।
ध्यान देने की बात है कि नायकत्व राम के जो परंपरागत चरित्र विधान है, उसमें निराला ने किंचित परिवर्तन किया है। ऐसा उन्होंने कविता की कलात्मकता और अर्थवत्ता के औचित्य की मांग से प्रेरित होकर किया है। इसी परिवर्तन के कारण राम का चरित्र मानवोचित प्रतीत होता है तथा वे लोकोत्तर नहीं लगते।
‘रवि हुआ अस्त’ के प्रारंभ से ही एक तरह की आकस्मिकता आती है। यदि इस पूरे प्रसंग को देखा जाय तो उस युग के संघर्ष को तथा खुदनिराला के संघर्ष को यह पंक्ति रूपायित करती है। राम की जो करूण असमर्थता उस युग के व्यक्ति की असमर्थता है। उस दिन राम-रावण युद्ध में राम की हार नहीं हुई थी आधुनिक मध्य वर्गीय राम की राम की हार हुई थी क्योंकि रावण की ओर से स्वयं ‘शक्ति’ लड़ रही थी। राम वार तो करते थे लेकिन सभी प्रहारों की शक्ति विफल कर देती थी।
यह शक्ति स्वयं राम की शक्ति थी, जो अब रावण के पक्ष में हो गई थी। यह निराला का स्वयं अपना वर्ग मध्यवर्ग था, जो अब पुराण - पंथी सामन्ती दल से मिल गया था। इस राम को जरा-जीर्ण रावण भय न था और न उसकी परवाह ही थी। लेकिन वे उस शक्ति का क्या करते? अपनी विवशता बतलाते हुए वे कहते हैं-
‘पश्चात् देखने लगी मुझे बंध गए हस्त, फिर खिंचा न धनु,मुक्त ज्यों बंधा में हुआ त्रस्त। राम मुक्त होते हुए भी अपनी शक्ति की दृष्टि से बंधे थे। यह प्रसंग मध्यवर्ग के बुद्धिजीवी लोगों की व्यक्तिक स्वाधीनता की सीमा पर कितना तीखा प्रकाश डालती है। मुक्त होकर भी वे अलक्षित रूप से बंधे हुए हैं और हर तरह से बंधे हुए हैं। इसीलिए विभीषण के अनेक वीर वचन सुनने पर भी बोले रघुमणि- मित्रवर, विजय होगी न समर, अन्याय जिधर है उधर शक्ति’।
अन्त में जाम्बवान् की राय से वे शक्ति की अराधना की ओर उन्मुख होते हैं और वह अराधना भी उसी शक्ति की की जाती है, जो अब तक रावण का साथ दे रही है। इसका परिणाम जो होना चाहिए वहीं हुआ। आराधना के समय भी शक्ति धोखा दे गई, तब पराजित हृदय शक्ति को धिक्कारने की जगह अपने जीवन और साधना को ही धिक्कारने लगे-धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधना जिसके लिए सदा ही किया शोध! उन्हें दुःख था तो केवल एक ही बात का कि जानकी का उद्धार न हो सका। अपने शक्ति को वे मुक्त न कर सके। अपने व्यक्तित्व की जिस स्वाधीनता के लिए व्यक्ति ने पुरानी सामन्ती व्यवस्था से लड़ाई मोल ली थी और उसे उम्मीद थी कि वह स्वाधीनता मिल जायगी, अब आशा टूट गई। परन्तु इतने पर भी उस विश्वासी हृदय का मोह भंग न हुआ। उसने सोचा कि शक्ति शायद परीक्षा ले रही है। वे भला कभी धोखा दे सकती है? और तब भक्त व्यक्ति ने आत्म-बलिदान के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का संकल्प किया। राम ने अपनी एक आंख निकालने के लिए वाण निकाला। इस मनः स्थिति में उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि शक्ति स्वयं उपस्थित हो गई और उन्होंने भक्त का हाथ पकड़ लिया और विजय का वरदान दिया। इसके पश्चात् उन्हें अनुभव हुआ कि शक्ति उनके बदन में आकर लीन हो गई। का प्रमाण है और ऐसा उन्होंने आत्मप्रेक्षण और आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर किया है।
इस रचना में अर्थ का संगुफन आयंत सूक्ष्म है, जिसे पकड़ना मुश्किल है, क्योंकि पूरी कविता में कवि ने प्रतीकार्थता को बहुत सचेत और सघन ढंग से नियोजित किया है। लेकिन इस प्रतीकार्थ को यदि ध्यान में रखा जाय तो कविता से अर्थ-रस टपकने लगता है? ‘राम की शक्ति-पूजा’ में उस युग के सत् शक्तियों तथा स्वयं निराला के अपने रचनात्मक जीवन के संघषोर्ं का ही साक्षात्कार को प्रतिष्ठित किया गया है, और यही इस कविता का अद्भूत, मौलिक और नवीन अर्थ है, जिससे यह रचना जगमगाती है और इसकी गरिमा कई गुना बढ़ गई है।
इसलिए अर्थ की परिधि में निराला की निजता, राष्ट्रीय और विश्व मानवता की मुक्ति के प्रतीकार्थ में कोई आंतरिक असंगति का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
प्रक्रिया के चमत्कारपूर्ण होने के बावजूद अर्थ की गंभीरता और क्रियान्विति कमजोर नहीं पड़ती। अगर हम कविता में वर्णित संसार के सहारे निराला, राम या समय-नायक के भीतर चल रहे तत्कालीन समय-समर का आकलन करें तो इस कविता का स्वर नवजागरण के ऐसे शंखनाद की तरह सुनाई देगा, जो समय की केन्द्रीय पकड़ और राष्ट्रीय विवेक के साथ लगाव की गहरी मार्मिकता का अहसास करायेगा। कविता की ये सारी विशेषता निराला के रचनात्मक क्षमता को ही परिपुष्ट करता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला ने एक पौराणिक ‘राम कथा’ को लेकर उसमें अपनी रचनात्मक प्रतिभा से अपने तथा अपने युग के सत्यों को व्यंजित करने वाली रचना बना दिया।
यह समय के आवश्यकतानुसार प्रसंगों के चयन, विस्तार तथा व्याख्या से ही संभव हुआ। आराधना से निराला को तथा उस युग में मुक्ति के लिए संघर्षरत सत् शक्तियों को कितनी शक्ति मिली, यह तो हम निराला के परवर्ती साहित्य में देख सकते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि इन तमाम आशावाद के बावजूद निराला तथा उस युग की सत् के पक्षधर शक्तियां भीतर ही भीतर पराजय अनुभव करने लगे थे। ‘राम की शक्ति-पूजा के बाद लिखी गई निम्न पंक्तियों से इसकी झलक निराला ने दे दिया है-
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त इसी प्रकार आजादी की लड़ाई लड़ने वाले गांधीजी जैसे व्यक्ति के लिए, आजादी के बाद में जो परिस्थितियां आई, कितना सार्थक अर्थ निम्न पंक्तियां देता है-
बार-बार हार हार मैं गया
...........................
नहीं फल, जीवन अविकच है- यह सच हैं।’
ऐसा क्यों हुआ? यह पराजय क्यों? निराला के ही मुख से चालीस में कारण सुना जा सकता है-‘मैं अकेला। देखता हूं, आ रही। मेरे दिवस की संध्या बेला।।’
इस प्रकार ‘राम की शक्ति-पूजा अपनी नयी प्रसंग -उद्भावना और संश्लिष्ट तथा ऊर्जस्वित शब्द-बंध को लेकर हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है और क्लासिक की परंपरा का विस्तार करता है। निराला ने निजी रचनात्मक जीवन का आत्म-प्रक्षेप करके उस पूरे इतिवृत्त के माध्यम से सर्वथा एक नये, मौलिक और अनुभूत अर्थ-प्रसंग की सर्जना की है।
आख्यान को तोड़कर भी उसमें पुराने, पारंपरिक, संदर्भगत, इतिहाससिद्ध अर्थ की रक्षा करते हुए, उसमें नये अर्थ की प्रतिष्ठा ही कविता की मौलिक शक्तिमत्ता का।
Question : ‘‘न्यायोचित सुख सुलभ नहीं
जब तक मानव-मानव को
चैन कहां धरती पर, तब तक
शांति कहां इस भाव को
जब तक मनुज-मनुज का यह
सुख भाग नहीं सम होगा,
शक्ति न होगा कोलाहल
संघर्ष नहीं कम होगा।’
(2006)
Answer : प्रस्तुत पंक्तियां रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित ‘कुरूक्षेत्र’ के सप्तम सर्ग से उद्धत हैं। इसमें कवि ने भीष्म पितामह के माध्यम से विश्वशांति अथवा जीवन में समता व अमरता के मार्ग का प्रतिपादन किया है। इस पंक्ति में भीष्म पितामह धर्मराज को समझाते हुए कह रहे हैं कि जब तक प्रत्येक मनुष्य को न्याय संगत अधिकार नहीं प्राप्त होगे, जब तक पृथ्वी का रस, वायु की शीतलता, सूर्य का प्रकाश, सुखोपभोग की सामग्री पर बिना भेदभाव के सबका अधिकार स्वीकार नहीं होता, तब तक न तो धरती पर किसी को शांति मिलेगी और न यह संसार चैन की जीवन व्यतीत कर सकेगा।
जब तक मानव के सुख, सुखों की सामग्री समान रूप में सबको उपलब्ध नहीं होती, तब तक न तो युद्ध, विनाश और मृत्यजन्य कोलाहल समाप्त होगा और न ही वर्ग संघर्ष में कमी आएगी। अर्थात् भौतिक साधनों का पृथ्वी पर असमान वितरण ही युद्ध एवं संघर्ष का मूल कारण है। अतः युद्ध और संघर्ष को कम करने के लिए इन साधनों में सभी मानव को समान हिस्सा देना होगा। यही मार्ग वास्तविक शांति स्थापित करने वाला है।
विशेषः
Question : ब्रह्मराक्षस की प्रतीकात्मकता पर प्रकाश डालते हुए समझाइए कि इस कविता की भाषा तथा शिल्प कहां तक कवि की संवेदना के अनुकूल हैं?
(2006)
Answer : ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की एक फैण्टेसी रचना है। हिन्दी काव्य साहित्य में यह शिल्प मुक्तिबोध की अपनी खोज है, जो उन्होंने पश्चिम के मनोविश्लेषणवादी उपन्यासों से लिया है। मुक्तिबोध के पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था कि मन की गुत्थियों का आख्यान करने वाली फैण्टेसी प्रविधि में ठोस सामाजिक सत्यों की भी अभिव्यक्ति हो सकती है। मुक्तिबोध फैण्टेसी की शर्तों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इसके माध्यम से वस्तु पक्ष नेपथ्य में चला जाता है। भावपक्ष तथा अन्य द्वन्द्वात्मक-भावात्मक स्थितियों की बुनावट के माध्यम से ध्वनित होता है।
फैण्टेसी के माध्यम से थोड़े विस्तार में अधिक बात कही जा सकती है। फैण्टेसी के माध्यम से अतृप्त इच्छाएं वांछित स्थितियां, अप्राप्य स्थितियां प्रक्षेपित होती हैं। यदि उक्त दृष्टि से देखा जाय तो कविता रचना के संदर्भ में इस प्रविधि की मूलप्राणवत्ता स्वतः उजागर हो जाती है। ब्रह्मराक्षस कविता से गुजरते हुए पाठक आरंभिक चार बन्दों में तो बहुत कुछ वैसा ही सभ्रमपूर्ण भयावह परिदृश्य का साक्षात्कार करता है, जैसा कि चन्द्रकान्ता संतति जैसे तिलिस्मी उपन्यासों में दृष्टिगत होता है, लेकिन इस दृश्य-योजना को महज दृश्य-योजना के रूप में नहीं लेना चाहिए।
इसी दृश्य-योजना के माध्यम से मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदना को संवेदनात्मक ज्ञान में परिणत करते हैं, जो कि काव्य की शक्ति का बहुत कुछ राज इन तनावपूर्ण दृश्यों से होकर गुजरता है।
चार बन्द पश्चात मुक्तिबोध पांचवे बन्द में केन्द्रीय विषय पर आते हैं कि परिव्यक्त सूनी बावड़ी की ठंडी अंधेरी गहराइयों में एक ब्रह्म राक्षस बैठा हुआ है, जो अपनी पाप-छाया दूर करने के लिए दिन-रात संघर्षरत है-
पाप छाया दूर करने के लिए दिन रात
स्वच्छ करने ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह।
प्रश्न उठता है कि यह पाप-छाया कैसी पाप छाया है जो लगातार साफ करने के बावजूद भी दूर नहीं दूर हो रही है-
‘खूब करते साफ फिर भी मैल फिर भी मैल’
जाहिर है कि पाप की यह छाया एक स्तर पर मुक्तिबोध की फैण्टेसी ब्रह्मराक्षस की प्रकृति से जुड़ रही है और दूसरे स्तर पर जहां यह फैण्टेसी यथार्थ को प्रक्षेपित कर रही है, वहीं मध्यवर्गीय गहन मासिक भ्रम को ध्वनित कर रही है।
लोकमिथक के अनुरूप गहन अज्ञानता और अतृप्ति को लिए हुए मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति ब्रह्मराक्षस की योनी को प्राप्त हो जाता है, जो सामान्य प्रेम की घोर एवं निकृष्ट मनोवृत्तियों से अलग प्रायः उदात्त चरित्र का होता है। इसलिए मुक्तिबोध ने भी ब्रह्मराक्षस के चरित्र में यहां मूल रूप से उसके मनोद्वन्द्व का ही उदघाटन किया है।
अनोखा स्रोत कोई क्रुद्ध मंत्रेच्चार
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प्राण में संवेदना हैं स्याह
ब्रह्मराक्षस वस्तुतः उस मध्यवर्गीय नायक का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जो अपनी ही सीमाओं में घिरा हुआ है, अपनी ही श्रेष्ठता के दंभ से संक्रमित है, अपनी उपेक्षाओं के दंश की पीड़ा सह रहा है। यही पाप छाया है कि वह अपने स्व के घेरे में घिरा हुआ है। ब्रह्मराक्षस की अहंचेष्ठा का प्रमाण यही है कि सूर्य की रोशनी जब बावड़ी तक पहुंचती है तो वह समझता है सूर्य ने झुककर नमस्ते किया और चन्द्रमा की किरणें जब बावड़ी में पहुंचती है, तब ब्रह्मराक्षस समझता है कि चन्द्रमा ने उसे ज्ञान गुरू माना है-
‘वन्दना की चांदनी ने ज्ञान गुरू माना उसे’
वह सोचता है कि आकाश ने भी उसकी श्रेष्ठता मान ली है और अहं के इसी उल्लास में वह सुमेरी, बेबीलोनी जन कथाओं से लेकर वैदिक ऋचाओं तक अनेक दार्शनिक मार्क्स, एंजिल्स, हेडेगर, सार्त्र-गांधी आदि सभी के सिद्धांतों की अभिनव व्याख्या करता है। उसकी व्याख्याएं सुनने वाले भी कौन हैं- ‘बावड़ी’ के किनारे खिले फूल, उलसी वनस्पतियां शाखा पर बैठे उल्लू आदि।
यदि इस प्रतीकात्मकता की यथार्थ चेतना की व्याख्या की जाय तो कहा जा सकता है कि मध्यवर्गीय व्यक्ति जो अपनी अहंनिष्ठ चेतना के संभ्रमपूर्ण घेराव में कैद है, व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में वह अपनी ज्ञानगीता उन लोगों के बीच बहा रहा है, जो उनके ज्ञान को आत्मसात करने में सक्षम नहीं है।
अब उसमें वह उच्च्मध्यवर्ग भी शामिल है जो उनकी बातों को सुनकर उनकी झूठी प्रशंसा कर रहा है। जिससे उसका संभ्रम बढ़ ही रहा है। केवल कविता का वाचक जानता है कि ब्रह्मराक्षस का ज्ञान कितना भ्रामक और समाज के लिए अप्रसंगिक एवं अर्थशून्य है।
इस प्रकार मुक्तिबोध ने फैण्टेसी के माध्यम से ब्रह्मराक्षस के वस्तुपक्ष को नेपथ्य में डाल दिया है। फैण्टेसी प्रविधि की प्रकृति के अनुकूल मुक्तिबोध प्रतीकपूर्ण बिम्ब मालाओं से वस्तु पक्ष का आख्यान करते चलते हैं, जिससे कविता की नाटकीय क्षमता में तो वृद्धि होती है, साथ ही साथ उसके अर्थस्तरों में भी समृद्धि होती है। वैसे मुक्तिबोध प्रायः लम्बी कविता लिखने के अभ्यस्त हैं, किन्तु यह अनेक आत्यान्तिक शिल्प सिद्धि का प्रमाण है कि उनकी जो कविताएं अपने कलेवर में लघु होती हैं वे भी बड़ी ठोस रचाव की अपनी अर्थ संवेदना में सघन कलात्मक रचाव की कविताएं हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ब्रह्मराक्षस है।
ब्रह्मराक्षस के चरित्र विश्लेषण और उसके अर्थ को दोहरा करते हुए दृश्य योजना के बीच अदभुत आन्तरिक संगति विद्यमान है, जैसे यह गरजती गूंजती आन्दोलित/गहराइयों से उठ रही ध्वनियां। ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहां।
किसी भी कविता का रचाव इस तथ्य से आंका जाता है कि उसकी अर्थगत अनुगूंज, उसकी भाषा बिम्ब, प्रतीक आदि तत्वों से किस प्रकार अभिन्न है। ब्रह्मराक्षस कविता में मुक्तिबोध की इसमें पूर्ण सफलता मिली है। वह बीच बीच में ऐसे संकेत देते भी चलते हैं, जहां कविता का एक सजग पाठक यह समझ सकता है कि मुक्तिबोध लोकमिथकीय ब्रह्मरक्षस की गाथा नहीं कह रहे हैं बल्कि लोक मिथक का उपयोग कर रहे हैं।
उनका वास्तविक उद्देश्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी व्यक्ति का सभ्रमपूर्ण ज्ञान और आत्मदर्प तथा पुनः गहन आन्तरिक संघर्ष, उसका आत्मचेतस और विश्वचेतस होना तथा अपने स्वत्व, अपने निजत्व
एवं सामाजिक अभिशापों के बाड़े से मुक्त होने के लिए गहन संघर्ष करना है।
भाषा की दृष्टि से ब्रह्मराक्षस कविता नई कविता की काव्यभाषा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें अज्ञेय की ही तरह भाषिक रचाव के प्रति सजग होते हुए मुक्तिबोध उनसे आगे बढ़कर मार्क्सवाद के एक नये धरातल पर परीक्षा करते हुए अपनी भाषा को सूक्ष्म सामाजिक विमर्श वहन करने योग्य बनाते हैं-
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
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सत्य की झाई निरंतर चिलचिलाती थी
इस कविता में भाविक रचना आद्योपांत कथ्य की प्रकृति के अनुरूप ही है। जहां उन्होंने लोकमिथ को आधार बनाते हुए दृश्य योजना की है वहां भाषा के टोन में प्राचीन लोक विश्वासों की गंध, भयावह सन्नाटा और आतंक व्याप्त है-,
‘ठण्डे अंधेरे में वसी गहराइयां जक की
सीढि़यां डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में’,
जटिल द्वान्द्वात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध प्रायः संश्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिसका टोन उसके अनुरूप पड़ता है। किन्तु बीच-बीच में तद्भव को इस प्रकार टांक देते हैं। भाषा की यह अर्थगत विविधता उनके विस्तृत वैचारिक कैनवसका प्रतिनिधित्व करने लगता है-
‘उसके पास
लाल फूलों का लहकता और’
अवान्तर संदर्भों एवं वर्गीय स्थितियों की दृष्टि से भाषा अन्तअर्नुशासनीय हो गई है। कहीं उनमें पौराणिक शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, तो कहीं दार्शनिक, तो कहीं गणितीय अथवा विज्ञान या स्थापत्य एवं अन्य विधाओं से संबंधित शब्दावलियों का प्रयोग दिखता है, जैसे-छन्दसस्, मन्त्र, थ्योरम, मार्क्स, एंजेल्स, ट्रेजडी, दशमलव बिन्दुओं, कृति व्यवसायी आदि।
मुक्तिबोध की समग्र कविता बिम्बों में सम्पन्न होती है, यह उनकी फैण्टेसी शिल्प की अनिवार्य मांग है। लेकिन इन बिम्बों से उनका कथ्य निश्चित रूप से शक्तिशाली बनता है।
प्रतीक योजना भी फैण्टेसी की अपरिहार्यता होती है, क्योंकि तमाम बार दृश्यों के माध्यम से, वैचारिक सूत्र के माध्यम से, विशिष्ट शब्दों के माध्यम वस्तुपक्ष को दोहरे अर्थ के साथ ध्वनित करना फैण्टेसी प्रविधि का लक्ष्य होता है- उदाहरणार्थ-ब्रह्मराक्षस स्वंय मध्य वर्गीय आत्माभिशाप ग्रस्त बुद्धिजीवी का प्रतीक है, बावड़ी का परित्यक्त होना शहर से दूर होना, उसके अपने सामाजिक अलगाव एवं दूसरे स्तर पर सामाजिक उपेक्षा का प्रतीक है, पाप छाया ग्रस्त ब्रह्मराक्षस के अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह उसकी उस चेतना का प्रतीक है, जो अपनी संभ्रमपूर्ण स्थिति से मुक्ति पाना चाहती हैं।
यह कविता अपने अभिव्यंजना शिल्प में अत्यन्त सघन रचाव की कलात्मक साक्ष्य है। ब्रह्मराक्षस जैसी कविता के छोटे कलेवर में कवि ने जितना विराट एवं विस्तृत वैचारिक कैनवस संगठित किया है, वह अपने आप में कवि की कलासिद्धि का मानदण्ड है।
पाठक इस कविता को पढ़ते हुए ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की दृष्टि से लोक मिथक, इतिहास दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र आदि विविध अनुशासनों के वैचारिक परिपार्श्वोर्ं से अपने को गुजरता हुआ पाता है।
Question : जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै!
.......................................
सूरदास प्रभु गुनहिं छाडि़कै को निर्गुन निरवैहै?
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः इसमें उद्धव का गोपियों ने व्यंग्य गर्भित शैली में उपहास किया है। गोपियों के द्वारा उद्धव के ज्ञान के प्रति कटाक्ष करते हुए यह कहा जाता है कि उनका यह ज्ञान यहां ब्रज में कोई भी ग्रहण करने वाला नहीं है। गोपियां नन्दगांव की निवासिनी होने में गर्व की अनुभूति करती हैं। चूंकि श्रीकृष्ण ने इसी गांव में गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाऐं रचीं थीं, इसलिए वे मथुरा से आए उद्धव के ज्ञान को ठगने वाला तक कह देती हैं।
व्याख्याः (उद्धव के प्रति गोपियों का कथन) हे उद्धव, आपका यह ठगपने का सौदा यहां नहीं बिकेगा अर्थात् तुम्हारे निर्गुण ज्ञान की अग्राह्ता को हम सभी समझ रही हैं। वस्तुतः तुम जो अपनी योग साधना के उपदेश द्वारा हमें ठगना चाहते हो, समझ लो कि तुम्हारा यह सौदा ज्यौं का त्यौं वापस चला जायेगा। हे भ्रमर! जो तुम जिसके पास ले आए हो, वह उसके हृदय में नहीं समा सकेगा। भला कोई अंगूर का फल छोड़कर अपने मुख में नीम का कड़वा फल ग्रहण करेगा। तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के मधुर रूप को त्याग कर ऐसा कौन मूर्ख है, जो निर्गुण ब्रह्म की अग्राह्यता (कड़वाहट) को स्वीकार करेगा? ऐसा कौन मूर्ख है जो मूली के पत्तों के बदले (निस्सार निर्गुण के बदले में) मुक्ता (श्रीकृष्ण की महार्घ शक्ति) को भेंट करेगा? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि भगवान के सगुण रूप को छोड़कर कौन निर्गुण (गुणहीनः- बिना किसी गुण के ब्रह्म का निर्वाह) के पीछे जायेगा। कौन ऐसा मूर्ख है, जो सदेह गुणवान को त्यागने की मूर्खता करेगा।
टिप्पणीः 1. ‘जोग ठगोरी’ में सूरदास जी ने रूपक अलंकार का प्रयोग किया है। यह व्यापार में रूपकातिशयोक्ति है।
2. दाख छांडि़ कै खैंहै में अन्योक्ति अलंकार है।
3. ‘मूरी के पातन को केना.... दैहै’ में तुल्ययोगिता अलंकार है तथा वस्तु व्यंग्य होने के कारण, इसमें वस्तु से तुल्ययोगिता अलंकार की ध्वनि है।
4. ‘केना’ ठेठ बुन्देलखण्डी शब्द है। इसके प्रयोग द्वारा स्पष्ट व्यंजित है कि सूर ब्रजभाषा की समृद्धि के लिए कैसे-कैसे ठेठ शब्दों का प्रयोग कर सकते थे।
5. इसमें ग्रामीण मुहावरे एवं शब्दावलियों के द्वारा अभीष्ट कथन की बड़ी तीखी और चोट करने वाली व्यंजना हुई है।
6. गुनहि..... निर्गुन में श्लेष की भी झलक है।
Question : ‘भ्रमर गीत सार’ के दार्शनिक पक्ष की विवेचना करते हुए उसके काव्यगत महत्व की समीक्षा कीजिए।
(2005)
Answer : भारतीय धर्मसाधना के तीन अंग हैं- ज्ञान, कर्म एवं उपासना। ज्ञान, कर्म और उपासना में ज्ञान, क्रिया और भावना की स्वीकृति है। उपासना में भावना ही मूल तत्व है और भावना की उदात्त अवस्था ही ‘भक्ति’ है। वैष्णव धर्म दर्शन के मूल गीता के छठे से ग्यारहवें अध्याय तक मुख्यतः भक्ति दर्शन का प्रतिपादन है। उपनिषदों के ‘निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग’ एवं ‘कर्मपरक ज्ञानमार्ग’ से श्रद्धा समन्वित भक्ति का प्रस्थान बिन्दु गीता के चित्त की एकाग्रता, परमतत्व के सर्वात्म स्वरूप का बोध, अनुभव तथा आत्म साक्षात्कार एवं समग्र सार्वभौम चेतना की चिन्ता तक जाती है। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान, नारद पाञ्यरात्र साहित्य, संहिताओं आदि के सहारे विकसित होने वाले भागवत धर्म, पाञ्चरात्र धर्म, वासुदेव वैष्णव धर्म का आधारभूत तत्व प्रेम ही है। अवतारवाद, व्यूहवाद एवं शिवशक्तिवाद का इसमें समावेश है। भक्तिमार्ग प्रेममार्ग है। "शाण्डिल्य भक्तिसूत्र" के अनुसार ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति हैः
"सा परानुक्तिरीश्वरे" नारदभक्ति सूत्र के अनुसार भक्ति परमप्रेम रूपा हैः- फ्सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा" भगवान में अहैतुकी एकनिष्ठ सतत् सुदृढ़ पर अनुरक्ति ही भक्ति है। यह प्रेमरूपा भक्ति ही पराभक्ति है। मध्यकाल में निम्बार्क, चैतन्य और वल्लभाचार्य ने जब कृष्ण के ब्रह्म एवं मानव स्वरूपों में लीला भाव के दार्शनिक आधार पुष्टिमार्ग की स्थापना की तब पुष्टिमार्गी अष्टसखाओं में सिरमौर ‘सूरदास जी’ के लिए श्रेष्ठ नायिका राधा एवं श्रेष्ठ नायक श्रीकृष्ण के मध्य संयोग एवं वियोग श्रृंगार का स्थायी भाव प्रेम उनके काव्य को रस सिक्त करता गया।
वल्लभाचार्य के अनुसार कृष्ण सर्वोच्च ब्रह्म हैं। ईश्वर के अनुग्रह से ही प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है। प्रेमाभक्ति की प्राप्ति की तीन अवस्थाऐं हैं- प्रेम, आसक्ति एवं व्यसन। राधा कृष्ण की आीांदिनी शक्ति है। राधा कृष्ण की लीला में प्रवेश ही भक्त का लक्ष्य है, जो भगवतानुग्रह से ही संभव है। भक्तकवि सूरदास के लिए भक्ति इनके काव्य का साध्य है। ‘भ्रमरगीत’ में तो वह भक्ति उर्जस्वित् आत्मशक्ति के साथ पूर्ण कवित्वपरक् पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हैः
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यौं गूगे मीठे फल को अंतरगत ही भावै।
............................................................
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालंब कित धावै।
सब विधि अगम विचारहिं ताते सूर सगुन लीलापद गावैं।।
सूर ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोक-प्रचलित कथा को काव्य का रूप दिया, जिसमें सूरदास के कवित्व की अपनी मौलिकता है। सूर के पद साहित्य के दो भाग हैं-
(क) विनय के पद एवं (ख) लीला के पद।
विनय के पदों में जहां, भक्त का दैन्य एवं आत्मनिवेदन भाव प्रधान है, वहीं लीला के पद, लीला रस रसिक सूरदास की भक्ति भावना के अनुकूल होने के कारण सहज ही सूर की अनुभूति के विषय बन गए हैं। सूरदास के विनय के पदों में परमार्थ चिन्तन और भक्ति की अनुभूति के विविध सोपानों की व्यंजना है। भ्रमरगीत की भक्ति की बहुत बड़ी विशेषता है- उसका सहज सतत् विकासशील रूप। सूर की भक्ति वहां दास्य, सख्य एवं आत्मनिवेदन की वैधी भक्ति से वात्सल्य एवं विप्रलम्भ श्रृंगार की रागानुगाभक्ति के विविध सोपानों को पार करती हुई, प्रेमाभक्ति की सिद्धावस्था में पहुंचती है। सूर द्वारा वर्णित गोपियों का प्रेम प्रकृति के उन्मुक्त परिवेश में व्यतीत हुआ था। वियोग में गोपियों का प्रेम प्रकृति के उन्मुक्त परिवेश में व्यतीत हुआ था। वियोग में गोपियों की विरहानुभूति सूर की अपनी विरहानुभूति बन जाती है, जब उद्धव उन्हें ज्ञानमार्ग का उपदेश देने लग जाते हैं:
मधुकर भली करी तुम आए।
वै बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हंसाए।।
‘सूरसागर’ में सूर-आत्मा कृष्ण के सदा निकट होने पर भी बार-बार मथुरा एवं द्वारिका से कभी उद्धव के रूप में तो, कभी किसी पथिक के रूप में ब्रज में लौट आती है और गोपियों के कृष्ण विहीन दशा पर द्रवित हो जाती है। सूर की आत्मा का यही द्रवित रूप सूरसागर के सर्वोत्तम काव्यांश ‘भ्रमरगीत’ के रूप में प्रस्तुत है। मथुरा एवं द्वारिका में कृष्ण का ऐश्वर्यमय रूप है। गोकुल में प्रेममय रूप। भागवत् को कृष्ण का ऐश्वर्यमय रूप प्रिय है तो सूर का मन प्रेममय रूप में ही रमा है।
सूरदास जी के भ्रमरगीत में एक बड़ी विशेषता उनकी नवीन प्रसंगों की उद्भावना भी है। सूरदास जी ने अपने रचनात्मक उद्देश्य के अनुरूप कृष्ण कथा में नए संदर्भों एवं प्रसंगों को जोड़कर उसे नए भावों एवं अर्थों की अभिव्यक्ति के अनुकूल बनाया है। जैसे- निर्गुण कौन देस के बासी! अथवा वियोग म्लान राधा की अवस्था का वर्णन, जब उन्होंने जटाजूट धारी शिव के रूप में किया हैः
सिब न, अबध सुन्दरी, बधौ जिन।
मुक्ता मांग अनंग, गंग नहिं, नवसतसाजै अर्थ स्याम घन।
वेदना में विनोद की व्यंजना सूर के काव्य की अपनी ही विशेषता है। कृष्ण मथुरा में जाकर कुब्जा पर अनुरक्त हो गए, यह गोपियों के लिए अत्यंत दुखदायी है। कुब्जा प्रसंग के सहारे व्यंग्य-विनोद वाक्य चातुर्य तथा असूया की अभिव्यक्ति गोपियों के लिए ही नहीं सूरदास का स्वयं अपना भी है। कवि कालिदास ने "ऋतुसंहार" में- मेघालोके भवति सुखिनो ....... में प्रकृति मानव सम्बन्ध का जो वर्णन किया है, परम्परानुकूल ‘सूर’ ने भी- "मधुवन तुम कत रहत हरे
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे? में तथा कालिन्दी के काले होने तथा पुनः-पुनः कालिन्दी पर गोपियों के रुष्ट होने का चित्रण सूर के कवित्व शक्ति के बस की ही बात थी। उद्भट विद्वान उद्धव इस बात का जवाब देने में असमर्थ हैं कि-
"उधौ मन माने की बात
दाख छुहारा छाडि़ अमृत फल, विषकीरा विष खात।"
गोपियां और गोपियों के उद्भावना में सूर की प्रेमाभक्ति उस विषकीरा का विष प्रेम ही है। भ्रमरगीत का मनोवैज्ञानिक पक्ष मानव मानस के अंतःस्थल की गतिविधि का द्योतक है। भ्रमरगीत का दर्शन मन और बुद्धि के शाश्वत द्वंद्व का दर्शन है। यह वह स्थान है जो प्रेम की चरम अवस्था को पूर्ण कवित्व के साथ अभिव्यक्त करता है। नारद भक्ति सूत्र की विविध आसक्तियों, ‘हरिभक्तिरसामृतसिंधु’ एवं ‘उज्ज्वलनीलमणि’ की गौणीभक्ति एवं पराभक्ति को परे रख दें, तो सूर की भक्ति दर्शन के जाल से उन स्थानों पर बाहर निकल आती है, जहां सूर भावुक हो उठते हैं। प्रेम में प्रिया एवं प्रिय की आत्माओं का एकात्म्य है। यह सह-अिस्तत्व एवं संयोग शाश्वत है। नवधा भक्ति में सूर की भ्रमरगीत में वर्णित उनकी दास्य भक्ति का जो स्वरूप आता है, वहां राधा के रूप में सूर की अपनी विरह दशा आत्मा की पूर्ण चैतन्यावस्था है। सूर के भ्रमरगीत में उनकी अपनी अनुभूति विशिष्ट अभिव्यक्ति के सौन्दर्य से पूरित होकर सहृदय पाठकों के आत्मा की निधि बन गई है।
Question : चढ़ा अषाढ़ गगन घन गाजा,
........मोहि प्रिय बिनु केा आदर देई।
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः उपरोक्त पद्यांश जायसी के ‘पद्मावत’ के फ्नागमती वियोग खण्ड" से चयनित है। नागमती वियोग वर्णन से कवि अपनी सम्पूर्ण भावनाओं के साथ प्रोषित पतिका नागमती के विरह का विशद् चित्रण करता है। रत्नसेन के योगी होकर चले जाने के बाद नागमती वियोग के अथाह सागर में गोते लगाते हुए आषाढ़ महीने के आने पर अपनी अवस्था इस रूप में पाती है, जैसे विरह ने दल सजाकर दुन्दुभी बजाते हुए आक्रमण कर दिया हो। ऐसे में नागमती डरी हुई सोचती है कि प्रियतम उसके घर नहीं हैं, काम के वेग से उसकी रक्षा कौन करेगा?
व्याख्याः (नागमती विरह व्याकुल होकर सोचती है कि)- आषाढ़ का महीना आ गया है, आकाश में (उसके सैनिक) बादल गरज रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो विरह ने मेरे उपर आक्रमण करने के लिए दुःखों की सेना इकट्ठी कर ली है और युद्ध के नगाड़े बजा रहा है। आकाश में धूमिल, काले और सफेद रंग के बाद इधर से उधर दौड़ रहे हैं। उनके बीच उड़ती हुई, बगुलों की पंक्तियां ऐसी मालूम पड़ती हैं जैसे श्वेत पताका लहरा रही हो। चारों ओर बिजली ऐसी चमक रही है, मानो योद्धा बाणवर्षा कर रहे हों। आर्द्रा नक्षत्र लग गया है और भूमि बीज ग्रहण करने लगी है अर्थात् खेत बोए जा रहे हैं, किन्तु प्रियतम के बिना कौन मुझे आदर देगा? अर्थात् भूमि स्वरूप मैं (नागमती) अकेली इस बीजारोपण के काल में ठूंठी पड़ी रहूंगी। पति के बिना इस मिलन यामिनी में मेरे काम का प्रतिदान कौन देगा?
टिप्पणीः 1. इस चौपाई से जायसी द्वारा वर्णित प्रसिद्ध बारहमासा का आरम्भ होता है। विरह की अवस्था का लोकगीतों तथा समृद्ध काव्य परम्परा में यथेष्ट वर्णन हुआ है। एक-एक महीने को लेकर कवियों ने विरहिणी की आकुल दशा का वर्णन किया है। इसे ही बारहमासा का नाम दिया गया है।
2. षट्ऋतुओं में वर्षा सर्वाधिक कामोद्दीपक मानी गयी है। इसलिए कविगण बारहमासा का प्रारम्भ प्रायः वर्षा ऋतु के प्रथम माह आषाढ़ से ही करते हैं। बारहमासा एवं षट्ऋतुओं का वर्णन पढ़कर इस बात का आभास मिल जाता है कि जायसी को ऋतु सम्बन्धी नक्षत्रों का विशद एवं व्यापक ज्ञान था।
3. नागमती के वियोग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि नागमती रानी होते हुए भी, सामान्य स्त्रियों के समान व्यवहार करती है। वह प्रियतम का अभाव सभी क्षेत्रों में अनुभव करती है तथा आषाढ़ लगते ही पति की अनुपस्थिति होने के कारण घर छाजन आदि ठीक करने की चिन्ता में लीन है।
4. खण्ड में अनुप्रास, सांगरूपक तथा प्रकृति के मानवीकरण का सुन्दर प्रयोग है।Question : रूपक तत्व की दृष्टि से ‘कामायनी’ का विवेचन करते हुए उसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
(2005)
Answer : कामायनी के औदात्य को समझने की तमामतर पद्धतियों में एक पद्धति उस पर रूपक तत्व का आरोपण कर उसी दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या की रही है। महाकाव्य के रचना शिल्प के रूप में, ऐतिहासिक इतिवृत्त के रूप में, दार्शनिक रचना जैसे रूपों में व्याख्या करके तमाम समीक्षकों ने ‘कामायनी’ के यथासम्भव सभी पदचापों को सुनने का कार्य किया है। ऐतिहासिक इतिवृत्त या स्थूल घटनाक्रम के मानक पर, मनु एक धृष्ट नायक के रूप में अवतरित हो जाते हैं तथा मनु-श्रद्धा-इड़ा के परंपरित त्रिकोण में इड़ा को खल नायिका या ‘कूटयंत्र चालिका’ कहा जा सकता है और कामायनी के सांकेतिक घटनाक्रम को स्थूल इतिवृत्त मान कर मनु-श्रृद्धा की कैलाश यात्र को पलायनवादी कहकर उसकी आलोचना की जा सकती है।
परन्तु फ्यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। प्रसाद जी वास्तविक अनुभूतिशील कवि थे, वे रीतिवादी रचनाकार नहीं थे। कामायनी के द्वारा प्रसाद जी प्रबंध के क्षेत्र में छायावाद की चित्र प्रधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बंधा गए।"
कामायनी को रूपक या ‘एलेगरी’ के तौर पर देखने एवं उसमें प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत कथाओं के जांच का क्रम तथा पात्रों के सही-सही जगह बैठाने का उद्योग ही, इसके कथानक को पूरी तरह अभिव्यक्त करता है। वस्तुतः ‘कामायनी’ की रचना दो अर्थ स्तरों से होकर चलती है, पर अर्थ के ये दोनों स्तर परस्पर एक दूसरे से संश्लिष्ट हैं, इसलिए एक विराटतर अर्थ के ये दोनों स्तर परस्पर एक दूसरे से संश्लिष्ट हैं, इसलिए एक विराटतर अर्थ की सृष्टि करते हैं। यह पूरी तरह वैसे ही है जैसे- पद्मावत् के- ‘तब चितउर मन राज कीन्हा।’ की विस्तृत गद्यावृत्ति की जा रही हो। कामायनी में आरम्भ का दबा हुआ सलज्ज भाव क्रमशः विभिन्न सर्गों में स्पष्ट और प्रौढ़ अभिव्यक्ति पाता है।
यह क्रम सिद्ध करता है कि वे गंभीर अध्ययन, चिन्तन और मनन के माध्यम से अपने भीतर के सौन्दर्य प्रेमी मनोभाव को रहस्यवादी कविता के आवरण में प्रकट कर सके हैं। कामायनी की रचना के केन्द्र में मानवीय संस्कृति का विकास, उसके मान-मूल्यों की प्रक्रिया और उसके वर्तमान विभ्रमों का विश्लेषण है। देवता, स्वर्ग और परलोक प्रधान मध्यकालीन भारतीय विचारधारा से हट कर मनुष्य की संस्कृति की यह आत्म-विश्वासपरक व्याख्या समकालीन राष्ट्रीय संदर्भ में जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण सम्पूर्ण मानवीय संदर्भ में है। कामायनी की रचना दृष्टि यों तो समूची कृति में ही विकसित होती है, पर अधिक महत्वपूर्ण संकेत श्रद्धा, काम, लज्जा और इड़ा सर्ग में मिलता है।
इस दृष्टि से अन्तिम तीन सर्ग दर्शन, रहस्य और आनन्द, काव्यानुभव की उतनी प्रतीती नहीं कराते, जितना दार्शनिक पद्धति से प्रतिपादन करते हैं। सांस्कृतिक संघर्ष की मूल वस्तु का अंकन ‘कामायनी’ में प्रसाद तीन स्तरों पर करते हैं: प्रथम है- देव एवं असुरों के सांस्कृतिक मूल्य की टकराहट। फिर आता है देव सृष्टि की तुलना में नवविकसित मानवीय सृष्टि का वैशिष्ट्म और फिर रचनानुक्रम में अंततः मध्ययुगीन जीवन-मूल्यों के विरोध में उठ खड़ी हुई पुनर्जागरण युगीन नयी भारतीय संस्कृति की प्रस्तावना उभरती है।
प्रथम दौर का संघर्ष कवि ने अंकित किया है मुख्यतः इड़ा सर्ग में। ‘जीवन का लेकर नव विचार। जब चला द्वंद्व था’ और उससे अगले छंद-
"था एक पूजता देह दीन
दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण’ में एक स्तर पर दो विरोधी विचारधाराओं और सभ्यताओं के अहंकार का द्वंद्व है। प्रकारांतर से यह संघर्ष देवासुर संग्राम के रत्नों के बंटवारे की स्थूल पौराणिक कथा को सूक्ष्म स्तर पर व्याख्यायित करता है। ‘कामायनी’ के मानव संस्कृति एवं देव संस्कृति के जीवन मूल्यों की समस्या को बाद में दिनकर ने ‘उर्वशी’ में उठाया है। ‘इड़ा सर्ग’ में काम का मनु को दिया गया लम्बा शाप एक सूक्ष्म स्तर पर यह व्यंजित कर देता है कि मनुष्य ने इस अभिशप्त नियति को बलपूर्वक एवं संकल्प के साथ अपने जीवन वैशिष्ट्य के रूप में बदला हैः
‘कर्तृत्व सकल बन कर आवे नश्वर छाया सी ललित कला
नित्यता विभाजित हो पल-पल में काल निरंतर चले ढला
...................................................................................
हो वर्तमान से वंचित तुम अपने भविष्य में रहो रुद्ध’
मनु शाप सुनकर सोचते हैं:
‘लिख दिया आज उसने भविष्य! यातना चलेगी अंतहीन
अब तो अवशिष्ट उपाय भी न’
काम के अभिशाप से देव सृष्टि का अनंत भय अब से समाप्त हो जायेगा और नयी सृष्टि को जरा-मरण का भय सताता रहेगा। मनुष्य मृत्यु की चुनौती को स्वीकार कर अपने सीमित व्यक्तित्व को प्रेम एवं सर्जनात्मक वृत्तियों के द्वारा असीम विस्तार दे देता है। काम और रति की यह नयी सृष्टि में रूपान्तरण एक रूप में वायवीय संस्कृति के नए मान-मूल्यों के विकास का पहला चरण है।
मनु की रचनात्मक क्षमता को श्रद्धा और इड़ा अपने-अपने ढंग से जाग्रत करना चाहती है। पर दोनों ही इसके लिए प्रकृति के समायोजन पर बल देती हैं। श्रद्धा कहती हैः
कर्म का भोग, भोग का कर्म।
यही जड़ चेतन का आनन्द।
"इड़ा" के सामने भी यही चुनौती हैः
‘तुम जड़ता को चैतन्य करो विज्ञान सहज साधन उपाय।’
श्रद्धा एवं इड़ा दोनों के व्यक्तित्व महाकाव्यों के वास्तविक चरित्र न होकर सूक्ष्म रूप में बहुत दूर तक एक दूसरे के समानान्तर चलते हैं।
प्रसाद की यह विशेषता है कि उन्होंने श्रद्धा एवं इड़ा को जितना द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के रूप में देखा है, उतना ही एक दूसरे के पूरक के रूप में भी। प्रसाद जैसे मनीषी कवि ने पश्चिम की द्वंद्व प्रक्रिया ‘डाइलैक्टिक’ एवं अद्वैत के योग की विराट धारणा का समाहार करते हुए ‘आनन्दवाद’ को संवेदना एवं चिन्तन के स्तर पर पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया है। भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में प्रसाद ने सबसे गहरा विरोध वैराग्य-भावना का किया है। श्रद्धा एवं इड़ा दोनों ही अपने-अपने ढंग से जीवन प्रियता को अभिव्यक्त करती हैं। जीवन प्रियता का यह भाव पुनर्जागरण युग में गीता और उसकी कर्मवादी दृष्टि से अनुप्रेरित करा जाता है। कामायनी में श्रद्धा मनु को समझाती हैः
‘काम मंगल से मंडित श्रेय। सर्ग, इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल। बनाते हो असफल भवधाम।’
‘कामायनी’ के अन्तिम अंश में श्रद्धा का मातृ रूप स्पृहणीय भाव से अंकित किया गया है, जो देव सृष्टि में अकल्प्य था। जीवन के अनेक घात-प्रतिघातों के बाद मनु एवं श्रद्धा संन्यास की ओर उन्मुख होते हैं, वहां भी गृहस्थ्य एवं संन्यास एक भावस्तर पर मिल जाता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया को एक बिन्दु से समग्र रूप में देख लेने के बाद लिप्त रहने का प्रश्न भी कहां रहता है?
मनु एवं श्रद्धा सारा अधिकार कुमार और इड़ा को सौंप कर अपने सक्रिय जीवन को कुछ सीमित कर लेते हैं। मनु स्वयं इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होते, तब श्रद्धा उन्हें फिर समझाती हैः
‘प्रिय! अब तक हो इतने सशंक,
दे कर कुछ कोई नहीं रंक;’
‘कर्म का भोग, भोग का कर्म’ यह चक्र भी कहीं थिराना चाहिए, और यदि स्वयं ही कुछ सजग रूप से इसे थिराया जा सके तो वही काम्य है। मनु के व्यक्तिवादी अधिकार प्रिय रूप को क्रमशः परिशमित करना ‘कामायनी’ के कवि का कथा स्तर पर एक प्रधान उद्देश्य रहा है। "लै जाइनस" के उद्धरण के अनुसार- ‘महान प्रतिभा निर्दोषता से बहुत दूर होती है, क्योंकि सर्वांगीण शुद्धता में अनिवार्यतः क्षुद्रता की आशंका बनी रहती है और औदात्य में ...... कुछ न कुछ छिद्र अवश्य रह जाते हैं।" हर महत्वपूर्ण कृति की तरह ‘कामायनी’ का अपना विशिष्ट विधान है। ‘रामचरितमानस’, ‘सूरसागर’, ‘उद्धवशतक’, और ‘आंसू’ या ‘अंधायुग’ का वैशिष्ट्य मूलतः उनके रचना विधान का वैशिष्ट्य है। जिसमें रचना की पूरी परिकल्पना उभरती है। देव-सृष्टा से पृथक मनुष्य को स्वतंत्रता काम के अभिशाप के रूप में मिलती हैः फ्हां, अब तुम बनने को स्वतंत्र।" रामकृष्ण, विवेकानन्द और तिलक के युग में गीता की विराट् दृष्टि में भी कुछ जोड़ने का उपक्रम हिन्दी कवि की उपलब्धि को अधिक स्पृहणीय बनाता है।
Question : बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द
..........................................................
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर गद्गद्।
(2005)
Answer : प्रसंग एवं सन्दर्भः प्रस्तुत पद्यांश ‘राम की शक्ति पूजा’ के तीसरे महत्वपूर्ण चरण से चयनित है। यहां यह खण्ड अवान्तर कथा की पृष्ठभूमि सा प्रतीत होता है, जब वे भगवान श्री राम को खोये हुए और अचानक भावुक देखकर सप्ताकाश पर सहसा आक्रमण कर देते हैं। मां अंजना से प्रबोध पाकर उसी स्थान पर लौट आते हैं, जहां वे स्थूल रूप में विद्यमान थे। निराला के द्वारा इस प्रसंग की अवधारणा की समीक्षकों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है।
व्याख्याः जिस समय राम के आंखों से अश्रुबिन्दु टपके, हनुमान उस समय श्री राम के चरण बन्दन में खोये हुए थे। वे राम के कमलवत् कोमल चरणों की ओर देख रहे थे और यह अनुभव कर रहे थे कि दोनों चरण अस्ति-नास्ति भावस्वरूप हैं, पर ब्रह्म का स्वरूप रहस्यमय होता है। उपनिषदों ने कहा है- तदस्ति, तन्नास्ति (है भी और नहीं भी हैं)। एक भाव से आस्तिक्य बुद्धि का बोध होता है, दूसरे से नास्तिकता का। स्थूल दृष्टि से देखने पर दोनों भिन्न रूप हैं। हनुमान यह अनुभव कर रहे हैं कि आराध्य के चरण समस्त गुणों की खान एवं सर्वथा सराहनीय हैं। भक्त हनुमान अपने आराध्य की मुद्रा देखकर ही अभिभूत हैं। वे महसूस करते हैं कि राम साधना की प्रक्रिया में एक अद्भुत साम्य अर्थात् संयम बनाए हुए है। उन्होंने बायां हाथ दाहिने पैर पर रखा है और दाहिनी हथेली पर बायां चरण ले रखा है। वाम और दक्षिण का यह संतुलन देखकर हनुमान का अंतरंग आप्लावित हो उठा है। उन्हें परम सत्य के साक्षात्कार का अनुभव हो रहा है।
टिप्पणीः 1. वस्तु विन्यास की दृष्टि से यह बहुत सुसंगत नहीं है। यह पूरा प्रसंग स्वप्न कथा या फैण्टेसी के रूप में यहां आया है। यह ‘हनुमान-पैज’ या ‘कूद’ का आद्यबिम्ब है।
2. हनुमान का यहां उर्ध्व संचरण अंतर्मन की घटना के रूप में आता है। निराला पर अद्वैत दर्शन का गहरा प्रभाव है, सगुणोपासना का भी। ‘राम की शक्ति पूजा’ के इस खण्ड में दोनों का समन्वय देखने को मिलता है। कवि ने एक ओर योग प्रक्रिया वर्णित की है, तो दूसरी ओर शक्ति पूजन में नवधाभक्ति एवं षोड्षोपचारों का समावेश किया है।
3. इस प्रसंग में आद्यन्त महाप्राणत्व की व्यंजना है। समीक्षकों के मत से मन की उड़ान निराला की एक प्रिय कथारूढि़ है। यहां भी इसी कथारूढि़ का प्रयोग हुआ है।
4. पवनपुत्र के तुमुल घन गर्जन के पूर्व की स्थिति को निराला ने अद्भुत प्रसाद गुण वाली भाषा से व्यंजित करने का प्रयत्न किया है।
Question : ‘कुकुरमुत्ता’ के सन्दर्भ में निराला की प्रगतिशील चेतना पर प्रकाश डालिए।
(2005)
Answer : ‘कुकुरमुत्ता’ एक संश्लिष्ट रचना है। प्रगीत और प्रबन्ध की परम्परा की व्यवस्था से भिन्न एक विलक्षण सृजन। निराला मात्र निश्च्छल भावुक नहीं हैं। वे ‘जूही की कली’ लिख सकते हैं, तो ‘बादल राग’ भी। ‘कुकुरमुत्ता’ की तो संवेदना एवं सत्य ही निराली है। निराला विचार व्यवस्था की रूढि़ से टकराते हैं, उसे तोड़ते हैं और फिर एक नई रचना संभव करते हैं। इस प्रक्रिया में उनका शाश्वत् व्यवस्था विद्रोह एवं प्रगतिधर्मी चेतना सदा सक्रिय रही है। आदि विद्रोही की भांति उनकी नियति ही है-विद्रोह।
निराला ने समय को बदलने का कार्य पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ किया है। वे युगान्तर लाना चाहते थे, जिनके प्रयास की प्रौढ़ कड़ी थीः ‘कुकुरमुत्ता’। यह काल ही हिन्दी के प्रगतिशील साहित्य-सृजन का काल था। जल्द ही इसके बिखराव की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध का वह दौर निराला के भी विकट संघर्ष का दौर था। यहीं वह समय था, जब निराला ने भगवतीचरण वर्मा के आग्रह पर, ‘बापू तुम मुर्गी खाते यदि’ नाम की कविता लिखी थी। वस्तुतः यह उस कवि की रचना थी, जिसकी पुरानी आस्थाऐं टूट चुकी थीं और उनकी जगह नए विश्वास पनपे न थे। निर्धारित रूढि़यों को तो निराला जी बहुत दिनों से तोड़ते आ रहे थे, अब कुछ ऐसी रूढि़यां तोड़ रहे थे, जो निर्धारित नहीं थीं। जिनमें प्रवञ्चना और आत्मप्रवञ्चना का मायाजाल रूढि़ न कहलाकर, देशभक्ति, भारतीय संस्कृति आदि सुन्दर नामों से याद किया जाता था। निराला का काव्य नायक ‘कुकुरमुत्ता’ सब पर हंसता है और निराला उसपर हंस देते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ को लण्ठ जैसे खुशनसीब कहकर चिकोटी भी काटी है, अन्त में उसका कलिया-कबाब बनाकर उसकी अंत्येष्टि भी कर दी है। समालोचकों ने ‘कुकुरमुत्ता’ की भाषा को ‘गुलाबी उर्दू’ की संज्ञा दी है। उनकी यहां पर भाषा ‘कुल्लीभाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की भाषा की तरह तुलसीदास एवं ‘राम की शक्ति पूजा’ के तत्सम एवं सम्भ्रान्त शब्दावली पर एक उपहास जड़ देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘कुकुरमुत्ता’ लिखकर निराला ने प्रगतिवादी चेतना के हर अवरोधकों से बदला ले लिया है। सम्भव है कि इस कविता को लिख कर निराला को काफी संतोष मिला हो, परन्तु इसकी सार्थकता इतने मात्र से ही सीमित नहीं हो जाती। उनकी परम्परा विच्छेदक चेतना ने छन्दों की ज़मीन तोड़कर हिन्दी में नए ढंग का लिरिक उस दौर में रखा था। गीतों एवं मुक्त छन्दों से जो भाषा एवं शब्द विन्यास की परम्परा बनी थी, उसे तोड़ने की दिशा का पहला प्रयास ‘कुकुरमुत्ता’ ही है। यह वह कविता है, जहां निराला ने छायावाद की मृदुल, मधुर एवं कोमलकान्त पदावली, भावुकतापूर्ण एवं कल्पनाशील काव्यानुभूति की सारी जमीन को तोड़ने का कार्य किया, इसलिए ‘कुकुरमुत्ता’ स्वयं अपने आप में भले ही उच्च कोटि का काव्य न हो, लेकिन इस दृष्टि में यह हिन्दी कविता के इतिहास में बड़ी क्रान्तिकारी घटना है, जो एक नए उत्थान में सहायक बनी।
कुकुरमुत्ते की कहानी महाप्राण कवि की समृद्ध कल्पना की उपज थी। यद्यपि इतिहास पुराण को इसमें अवकाश नहीं है, फिर भी कविता एक पारम्परिक कहानी के ‘पैटर्न’ पर ही शुरू होती है एक थे नव्वाब
फारस से मंगाए थे गुलाब।
निराला ने दुश्मन के दुर्ग में ही घुसकर दुर्ग को ढहाने का कार्य किया है। बड़े ही जतन ने ‘नव्वाब’ ने बेला, चमेली, जूही, रात रानी, कमलिनी, चमपा, गुलमेंहदी आदि के सुगन्धित वातावरण में आम, लीची, संतरा, फालसे जैसे पेड़ों के बीच गुलाब को लगाया। एक भव्य एवं रमणीक परिवेश आंखों के समक्ष उभर आता हैः
‘चटकती कलियां,
निकलती मृदुल गंध
गले लगकर हवा चलती मन्द-मन्द
चहकते बुलबुल, मचलती टहनियां
बाग चिडि़यों का बना था, आशियां।’
वस्तुतः शताब्दियों से दासता भोग रहे भारतवासियों में आयातित वस्तुओं के प्रति एक खास आकर्षण होता है। यहीं पूरे बाग में गुलाब के रोब-दाब से सभी कायल और अभिभूत हैं, जहां गन्दगी में कुकुरमुत्ता उठकर खड़ा होता हैः
‘पहाड़ी से उठे सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
अबे, सुन वे गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा "कैपिटलिस्ट"।
कुकुरमुत्ता ने ‘गुलाब’ को कैपिटलिस्ट कहा है, उसे अमीरों का प्यारा बताया, उस पर साधारणों से अलग रहने का दोष लगाया है। कुकुरमुत्ता की तर्क योजना जिस वर्ग, दृष्टि का परिचय देती है, वह प्रोलेतेरियत नहीं, लुम्पेन प्रोलेतेरियत वर्ग-दृष्टि है, शहर के आवारों के दृष्टिकोण, जो क्रान्तिकारी संगठन एवं संघर्ष का रास्ता छोड़कर अराजकतावादी गाली-गलौज की नीति अपनाता हैः
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
इतने तिक्त व्यंग्य की सोद्देश्यता स्वयमेव स्पष्ट है भारत का छत्र, यूरोपियनों को पैराशूट, विष्णु का चक्र सुदर्शन, यशोदा की मथानी, राम का धनुष, रूपया पैसा, डमरू, वीणा सब के सब कुकुरमुत्ता के विभिन्न रूप बताए जाते हैं।
व्यास-वाल्मीकि से लेकर भास-कालिदास और हाफिज से रवीन्द्रनाथ तक, सभी का मूल्यांकन एक सांस में कर दिया है। ‘कुकुरमुत्ता’ में जो वर्ग-समाज का रूप मिलता है, उसकी तह में जाकर देखें, तो इसकी बुनावट और संरचना का आधार घृणा नहीं है, सिर्फ एक पैसिव व्यंग्य है। ‘कुकुरमुत्ता’ के दूसरे खण्ड में भी ‘बहार’ और ‘गोली’ केा आमने-सामने रख कर देखने में भी किसी घृणा का प्रतिपादन नहीं है, इस रूप में निराला एक क्रान्तिदर्शी या प्रगतिशील की अपेक्षा सत्य-द्रष्टा कवि के रूप में प्रकट होते हैं।
छायावादी काल में निराला के सह उन्नायक सुमित्रनन्दन पंत ने छायावादी भावभूमि से अलग हट कर यद्यपि ‘युगवाणी’ एवं ‘ग्राम्या’ लिखी थी, परन्तु काव्यानुभूति न शिल्प, न ही भाषा के सन्दर्भ में कोई बुनियादी परिवर्तन दिखाई पड़ता है।
यहां ग्राम जीवन के प्रति सहानुभूति तो है, परन्तु नए यथार्थ का प्रश्न लगभग शून्य है। ‘कुकुरमुत्ता’ के द्वारा निराला ने जो जमीन तोड़ी, उसका सबसे सफल काव्यात्मक रूप ‘नए पत्ते’ (1946) में दिखाई पड़ता है। वस्तुतः प्रगतिशील आन्दोलन की पारिभाषिक शब्दावली में निराला के लिए ‘सामान्य की प्रतिष्ठा’ एवं ‘उपेक्षित का उन्नयन’ करने वाला प्रयत्न कहा जा सकता है। अपने चतुर्दिक परिस्थितियों एवं घटनाओं के वातावरण को निराला ने ‘बन्दी-गृह’ का नाम दिया है। यहां सामान्य की प्रतिष्ठा की भावभूमि औचित्चपूर्ण सिद्ध हो जाती है।
‘कुकुरमुत्ता’ विषय-वस्तु, शिल्प संघटन, भाषिक संरचना, व्यंग्य एवं हास्य, इन सभी दृष्टियों से एक सर्वथा विद्रोह, आधुनिक एवं महत्वपूर्ण कृति तो है ही, सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि यहां हर क्षेत्र में ‘काव्य-अभिजात्य’ से मुक्ति का उद्घोष है। यह मुक्ति ही इस कविता की उपलब्धि है और यही इस कविता में निराला का अभिप्रेत भी है।
Question : कहेउ राम बियोग तब सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरू किसलय मनहुं कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
(2004)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत चौपाई गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस के सुन्दरकांड की है। रामचरित मानस हिन्दी साहित्य की ही नहीं विश्वसाहित्य की अद्वितीय निधि है। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के सबसे ऊंचे पायदान पर विराजमान हैं। प्रस्तुत चौपाई में रामभक्त हनुमान सीता जी के समक्ष राम के वियोग का वर्णन कर रहे हैं। यह कार्य लंकानगरी के अशोक वाटिका में संपन्न हो रहा है, जहां रावण ने अपहरण कर सीता जी को रखा था।
सीता जी ने राम के वियोग में अपनी व्यथा का वर्णन किया था। अब हुनमान राम के वियोग का वर्णन कर रहे हैं, उन्होंने राम का संदेश सुनाते हुए कहा कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में सभी दृश्य पदार्थ विपरीत प्रभाव उत्पन्न कर रहे हैं। वृक्षों के नए लाल पत्ते अग्नि के समान दाहक प्रतीत होते हैं। रात्रि, कालरात्रि के समान और शीतल चन्द्रमा, सूर्य के समान ताप दे रहा है। कमलों का सुखद समूह भाले के समान विदीर्ण कर रहा है। मेघ मानों गरम तेल की वर्षा कर रहे हैं। शीतल मन्द सुगन्ध पवन सर्व की श्वास के समान गर्म तीव्रगामिनी और दुर्गन्धपूर्ण हो गई है। इस प्रकार जो प्राकृतिक वस्तुएं सुखदायी थीं, वे कष्टकारक हो गई हैं।
विशेषः 1. ‘कहेउ राम’ का एक अर्थ यह भी निकलता है कि ‘अस कहि कपि गदगद भएउ’ अर्थात् हनुमान मौन हो गए और स्वयं राम अपना वियोग वर्णन करने लगे, किन्तु यह दूरारूढ़ कल्पना है। वस्तुतः यह कथन हनुमान का ही है।
2.राम वियोग वर्णन में षट्ऋतु की व्यंजना है। अर्थात् नवतरू, किसलय, रात्रि, चंद्रमा, कमल और त्रिविध समीर।
3. तृतीय तथा चतुर्थ चरण में क्रमशः उत्प्रेक्षा तथा उपमा अलंकार है।
4.‘ससि भानू’ में रूपक की व्यंजना है।
5.प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण है।
6.तीसरे तथा चौथे पंक्ति की प्रथम चरण में उपमा, द्वितीय चरण में उप्रेक्षा तथा चतुर्थ चरण में उपमा अलंकार है।
7.यह पद अवधी भाषा में रचित है।
8.सूरदास तथा रीतिकालीन कवियों ने भी वियोग में सुखदायी वस्तुओं को कष्टदायी दिखाया है।
Question : सूफी दर्शन के संदर्भ में ‘पप्रावत’ की प्रेमाभिव्यंजना का विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए।
(2004)
Answer : हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दी गई है। जायसी कृत ‘पप्रावत’ इसी भक्तिकाल की प्रतिनिधि काव्य रचना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘साहित्य जनता के चितवृत्ति का प्रतिबिंब है।’ किसी भी काव्य रचना के सृजन की व्याख्या करता है।
भक्तिकाल में साधारण जनता ‘राम और रहीम’ की एकता मान चुकी थी। साधुओं और फकीरों को दोनों दीन के लोग आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते थे। साधु और फकीर भी सर्व प्रिय हो सकते थे, जो भेदभाव से परे दिखाई पड़ते थे। बहुत दिनों तक एक साथ रहते हिंदु और मुसलमान एक-दूसरे के सामने अपना-अपना हृदय खोलने लगे थे, जिससे मनुष्यता के सामान्य भावों के प्रवाह में मग्न होने और मग्न करने का समय आ गया था। जनता की प्रवृत्ति भेद से अभेद की ओर हो चली थी। मुसलमान-हिंदुओं की राम कहानी सुनने को तैयार हो गये थे और हिंदु-मुसलमानों दास्तान हमजा। ऐसे समय में कुछ भावुक मुसलमान ‘प्रेम की पीर’ की कहानियां लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। ये कहानियां हिन्दुओं के ही घरों की थीं। इनकी मधुरता और कोमलता का अनुभव करके इन कवियों ने यह दिखला दिया कि एक ही गुप्त तार मनुष्यमात्र के हृदयों से होता हुआ गया है, जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूपरंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा, एकत्व का अनुभव करने लगता है। अपनी कहानियों द्वारा इन्होंने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखलाते हुए, उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा, जिनका मनुष्य मात्र के ह्नदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिंदु हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनवीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।
पप्रावत एक प्रेम आख्यायिका है। कवियों में दांपत्य प्रेम का अविर्भाव वर्णन के निम्न प्रणालियां प्रचलित हैं:
पहली पद्धति का प्रेम वह है, जिसमें विवाह के बाद पैदा होने वाला प्रेम दिखाई देता है। इस पद्धति में प्रेम का उद्भव विवाह से पहले नहीं बल्कि बाद में होता है। जीवन में आने वाले संकटों से साथ इस प्रेम का विकास होता है। मूल चेतना में यह प्रेम दायित्व मूलक और लोकबद्ध होता है। इस प्रेम में स्वाभाविकता, शुद्धता व निर्मलता मूलभूत विशेषताओं के रूप में विद्यमान रहते हैं। ऐसे प्रेम का सुंदर-सा उदाहरण रामायण में सीता-राम का प्रेम है।
प्रेम की दूसरी पद्धति वह है, जहां प्रेम विवाह से पूर्व होता है, किंतु उसकी परिणति विवाह में होती है। इस प्रेम पद्धति में आमतौर पर नायक द्वारा नायिका की प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता है। प्रयत्नकाल में संयोग तथा वियोग दोनों अनुभव वर्णित किये जाते हैं। यह प्रेम भी विवाह के बाद स्वाभाविकता तथा निर्मलता की ओर बढ़ने लगता है। इस प्रेम का परिचय अभिज्ञानशाकुंतलम तथा विक्रमोर्वशीयम् में मिलता है।
तीसरी पद्धति वह है, जिसमें राजाओं के अन्तःपुर में होने वाला प्रेम दिखाया जाता है। मूल रूप से यह प्रेम लालच व भोग पर आधारित है। दायित्वहीनता के कारण इस प्रेम में सारहीनता की स्थिति विद्यमान होती है। ऐसे पौरूषहीन तथा विकासमय प्रेम को उदाहरण के रूप में रत्नावली की चर्चा की जा सकती है।
चौथी पद्धति वह है, जिसमें गुण, श्रवण, चित्र-दर्शन तथा स्वप्न दर्शन आदि के माध्यम से प्रेमी व प्रेमिका को परिचय से पूर्व ही प्रेम हो जाता है। इस प्रकार के प्रेम में आमतौर पर नायक द्वारा नायिका की प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता है।
जायसी की प्रेम पद्धति चौथे प्रकार की है। जिसमें प्रेम का आरंभ साहचर्य या परिचय से नहीं होता बल्कि गुण श्रवण आदि के माध्यम से होता है। सूफी प्रेमाभिव्यंजना में भारतीय और फारसी दोनों प्रेम पद्धति मौजूद हैं। जहां एक ओर भारतीय प्रेम पद्धति के गुण, यथा, प्रेम का लोक व्यवहार संलग्नस्वरूप, विरह की वेदना नारियों में अधिक दिखाया जाना, नायक-नायिका के बीच परिहासात्मक संबंधों का पाया जाना, अत्यधिक भावुकता में भी व्यवहारिकता का बना रहना मौजूद है, वहां फारसी प्रेम पद्धति का प्रेम का एकांतिक रूप, विरह वेदना में पुरूषों का अधिक जलना, नायिका-नायक के मध्य गंभीरता का पाया जाना, आदि का गुण भी मौजूद है।
जायसी के प्रेमाभिव्यंजना में मानसिक प्रश्न प्रधान है शरीरिक गौण है। मन के उल्लास और वेदना का वर्णन अधिक है। फारस के प्रेम में, नायक के प्रेम का वेग अधिक तीव्र दिखाई पड़ता है और भारत के प्रेम में नायिका के प्रेम का। जायसी ने आगे चलकर नायक और नायिका दोनों के प्रेम की तीव्रता समान करके दोनों आदर्शों का एक में मेल कर देता है।
राजा रत्नसेन सूए के मुंह से पप्रावती का रूप वर्णन सुन योगी होकर घर से निकल जाता है और मार्ग के अनेक दुःखों को झेलता हुआ समुद्र पार कर सिंहल द्वीप पहुंचता है। इधर पप्रावती भी राजा के प्रेम को सुनकर विरहागिन में जलती हुई, साक्षात्कार के लिए विह्नल होती है और जब रत्नसेन को सूली की आज्ञा होती है, तब उसके लिए मरने को तैयार होती है।
पप्रावत में संयोग श्रृंगार की अभिव्यंजना पप्रावती और नागमती दोनों रानियों के आश्रय से की गयी है- काव्य की नायिका पप्रावती होने से संयोग के चित्रों में पप्रमावती को ही प्रमुख स्थान मिला है। नागमती और रत्नसेन का संयोग चित्र तो केवल एक ही स्थल पर आता है। प्रारंभ में मान करती हुई नागमती पति पर व्यंग्य करती हैः
"तू जोगी होइगा बैरागी। हौं जरिछार भसेउ तोही लागी।"
इस अवसर पर रत्नसेन चाटुकारिता द्वारा नागमती को मना लेता है और फिर दोनों का मिलन हो जाता हैः
"कंठ लाई रे नारि मनाई। हौं। जो बेलि सींचि पहुलाई।"
पप्रावती और रत्नसेन के आश्रय से श्रृंगार की विशेष मनोहारी अभिव्यंजना कवि ने की है। इस संयोग वर्णन में कवि ने प्रथम दर्शन की उत्कंठा से लेकर मिलन तक के चित्र सहृदयतापूर्वक उतारे हैं।
सबसे पहले प्रथम दर्शक की मिलनोत्कण्ठा का एक प्रेमाभिव्यंजना का चित्र दृष्टव्य हैः
"हुलसै नैन दरस मदमाते। हुलसे अधर रंग रस राते।।
हुलसा बदन ओप रवियाई। हुलसि हिया कंचुकि न समाई।।
हुलसे कुच कसनीबंद टूटे। हुलसी भुजा, वलयं कर फूटे।।
आजू चांद घर आवा सूरू। आजु सिंगार होइ सब चूरू।।
अंग अंग सब हुलसे, कोउ कतहुं न समाई।
ठावहिं ठांव-विमाही, गई मुरछा तन छाई।।।
इसके अतिरिक्त कवि ने पप्रावती रत्नसेन के संयोग चित्रों में सुहागरात्रि का भी मादक वर्णन किया है। यहां कवि की कुशलता नवोढ़ नव परिणीता की भावनाओं और मिलन समय की व्यग्रता का सुंदर चित्रण करने में है-
"हौ बारी औ दुलहिनि, पीव तरून, यह सेज।
ना जानौ कस होइहि, चढ़त कंत कै सेज।।"
जायसी का विरह वर्णन कहीं-कहीं अत्यंत अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी मजाक की हद तक नहीं पहुंचने पाया है, उसमें गांभीर्य बना हुआ है। इनकी अत्युक्तियां बात की करामात नहीं जान पड़ती, हृदय भी अत्यंत तीव्र वेदना के शब्द संकेत प्रतीत होती हैं। इसके अंतर्गत जिन पदार्थों का उल्लेख होता है, वे हृदयस्थ ताप की अनुभूति का आभास देने वाले होते हैं। बाहर-बाहर से ताप की मात्र नापने वाले मानदंड मात्र नहीं। विरह ताप के वेदनात्मक स्वरूप की अत्यंत विशुद्ध व्यंजना ही सूफी प्रेमाभिव्यंजना का अभिष्ट है, जो पप्रावत में सर्वत्र मिलता है।
विप्रलंभ श्रृंगार ही पप्रावत में प्रधान है। विरह दशा के वर्णन में, जहां कवि ने भारतीय पद्धति का अनुसरण किया है वहां कोई अरूचिकारक वीभत्स दृश्य नहीं आने दिया। कृशता, ताप और वेदना आदि के वर्णन में भी उन्होंने श्रृंगार के उपयुक्त वस्तु सामने रखी है, केवल उसके स्वरूप में कुछ अंतर दिखा दिया, जो पप्रिनी स्वभावतः पप्रिनी के समान विकसित रहा करती थी, वह मुरझाई हुई लगती हैः
कंवल सूख, पंखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हैरानी।।"
पप्रावत में हिंदु जीवन के परिचायक भावों की ही प्रधानता है, बीच-बीच में फारसी साहित्य द्वारा प्रेषित भावों के भी छींटे कहीं-कहीं मिलते हैं। विदेशीय प्रभाव के कारण वियोग दशा के वर्णन में कहीं-कहीं वीभत्स चित्र सामने आ जाते हैं, जैसे ‘कबाबे सीख’ वाला यह भावः
विरह सरागन्हि कूजै मांसू। गिरि गिरि परै रकत कै आंसू।।
कटि कटि मांसू सराग पिरोबा। रकत कै आंसू मांसू सब रोवा।।
खिन एक बार मांसू अस भूंजा। खिनहिं चबाइ सिंह अस गूंजा।।
नागमती के विरह वर्णन के अंतर्गत बारहमासा है, जिसमें प्रेमाभिव्यंजना का वियोग पक्ष है, जिसमें वेदना अत्यंत निर्मल और कोमल स्वरूप हिंदू दांपत्य जीवन का अत्यंत मर्मस्पर्शी माधुर्य अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना और विषय के अनुरूप भाषा का अत्यंत स्निग्ध, सरल, मृदुल और अकृत्रिम प्रवाह देखने योग्य है। इस बारहमासों में वर्ष के बारह महीनों का वर्णन विप्रलंभ श्रृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से है, जिसमें आनंदप्रद वस्तुओं का दुःखप्रद होना दिखाया जाता है जैसा कि मंडन कवि ने कहा हैः
जे इ जेइ सुखद; दुखद अब तेइतेइ कवि मंडन बिछुरत जदुयत्री
अपनी प्रेमाभिव्यंजना में भावुकता का बड़ा परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमती विरह दशा में अपना नारीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को साधारण स्त्री के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरह वाक्य छोट-बड़े सब हृदयों को समान रूप से स्पर्श करते हैं, जो सूफी प्रेमाभिव्यंजना का आदर्शतम स्थिति है।
सूफी प्रेमाभिव्यंजना की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इसमें कवि लौकिक प्रेम वर्णन के अंतर्गत अलौकिक प्रेम की ओर दृष्टि डालते हैं तथा लौकिक सौंदर्य की ओर संकेत करती प्रतीत होती है। पप्रावत में अर्थ के दो स्तर विद्यमान हैं-पहले स्तर की कथा रत्नसेन, पप्रावती, नागमती और अलाउद्दीन से संबंधित है, जोकि लौकिक स्तर की है, जबकि दूसरे स्तर की कथा आध्यात्मिक अर्थ की है, जो कि अलौकिकता की ओर संकेत करती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पप्रावत में प्रेमाभिव्यंजना में प्रेम की प्रति एक ऐसी दृष्टि मिलती है, जो पूरे हिन्दी साहित्य में अनूठी है। जायसी ने हिन्दी साहित्य में पहली बार मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा की, जो सूफी काव्य की अहम् विशेषता है।
Question : खेलन सिखए, अलि, भलैं चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार।।
रससिंगार-मंजनु किए, कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजनु हूं बिना खंजनु गंजनु, नैन।।
(2004)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पंक्तियां बिहारीकृत बिहारी सतसई से ली गई हैं। बिहारी हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि कवि हैं। प्रस्तुत दोहों में नायिका की अंतरंगिनी सखी उसके नेत्रों द्वारा नायक के घायल होने का वृतांत उससे , परिहासात्मक वाक्य में कहती है। वहां चातुरी से नायक का नाम नहीं लेती, प्रत्युत घायल होने वाले के निमित्त बहुवचन ‘नागर नरनु’ पद प्रयुक्त करके सामान्यतः कहती है कि तेरे नेत्रों से प्रवीण नरों का शिकार होता है। वह सोचती है कि यह सुनकर जब नायिका पूछेगी कि मेरे नेत्रों ने किसका शिकार किया है, तब नायक का नाम बतला दूंगी।
हे सखी, कामदेव रूपी चतुर शिकारी ने तेरे कानन-चारी अर्थात् कानों तक जाने वाले नयन रूपी मृगों को बड़ी विलक्षण रीति से मगर निवासी नरों का शिकार करना सिखलाया है। मृगों का आखेट करना तो नगर निवासी नरों को सामान्यतः शिकारी सिखलाते ही हैं। पर कामरूपी शिकारी ने यह विलक्षण चातुरी की है कि कानन चारी नयन-रूपी मृगों को नगर निवासी नरों का आखेट करना सिखलाया है।
पुनः सखि नायिका के नेत्रों की प्रशंसा करते हुए कहती है कि- उस नायिका के नेत्र श्रृंगार रस से परिपूर्ण हैं अर्थात् उसके नेत्र श्रृंगार रसोचित हाव, भाव और काटाक्षादि से निमग्न हैं। अतः कमलों को भी पराजित कर देने वाले हैं, क्योंकि कमल साधारण जल में नहाता है, किन्तु वे श्रृंगार रस में नहाते हैं। वे नयन काजल को लगाये बिना ही अपनी शोभा से खंजन पक्षी के नेत्रों को भी तिरस्कार करने वाले हैं।
विशेषः 1. ‘काननचारी’ में श्लेष अलंकार है, क्योंकि इसके दो अर्थ वनों में रहने वाले और-कानों तक फैले हुए अर्थात् विशाल हैं।
2. ‘अहेरी मार’ ‘नैन-मृग’ में रूपक अलंकार है।
3. ‘मंजनु’ ‘अंजनु’ ‘कंजनु’ आदि में समान शब्दों की अनेक बार आवृत्ति के कारण वृत्यानुप्रास शब्दालंकार है।
4. अंतिम पंक्ति में खेजन (उपमान) को नेत्र (उपमेय) की समता में अयोग्य बताया गया है, अतः प्रतीप (चतुर्थ) अलंकार है।
5. संपूर्ण दोहे में माधुर्य गुण एवं श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है।
6. प्रथम दो पंक्तियों में मदकल छंद और अंतिम दो पंक्तियों में पयोधर छंद का प्रयोग हुआ है।
7. बिहारी ने अन्यत्र भी इसी प्रकार के भाव से युक्त दोहे का वर्णन किया हैः
प्रेम अहेरी की अरे, यह अद्भुत गति हेर।
कीने दृग-मृग मीतके, मन-चीत पर सेर।।Question : नवजागरण के मूलभूत तत्वों की अभिव्यक्ति ‘भारत-भारती’ में किस प्रकार हुई है? समीक्षा कीजिए।
(2004)
Answer : हिन्दी साहित्य के इतिहास में मैथिलीशरण गुप्त को द्विवेदी युग का सर्वश्रेष्ठ रचनाकार माना जाता है। खड़ी बोली कविता को लोकप्रिय बनाने में उनका योगदान असाधारण है। मैथिलीशरण गुप्त की महत्ता इस बात में है कि व्यापक आलोचकीय अनिच्छा के बावजूद वे आधुनिक काल के एक बड़े कवि हैं। उनकी लोकप्रियता के पीछे कई कारण बताये जाते हैं-जैसे सीधी-सरल भाषा, पौराणिक कथानकों का चुनाव, गृहस्थ जीवन की महिमा का आख्यान, व्यापक हिन्दु नैतिक मूल्यों का समर्थन, और राष्ट्रीय भावधारा की अभिव्यक्ति। पर इन कारणों के अतिरिक्त मैथलीशरण गुप्त के रचनाकार व्यक्तित्व का एक और प्रश्न इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। जिस समय वे कविता लिख रहे थे, उस समय हमारे समाज और साहित्य में दो प्रकार के आभिजात्य प्रचलित थे-एक राजभाषा अंग्रेजी का दूसरा-पारंपरिक धर्म और संस्कृति की भाषा संस्कृत का। जिसके पास ये दोनों प्रकार थे, वह बौद्धिकों का सिरमौर था, और जिसके पास केवल एक था, वह भी समाज और साहित्य में महत्वपूर्ण था; कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और दार्शनिक राधा कृष्णन् के नाम प्रमाण-स्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं। गुप्तजी के पास इनमें से कोई आभिजात्य नहीं थी, पर उनके मन में अपने देशीपन का गहरा आत्मविश्वास था। कविता और निजी जीवन दोनों में उन्होंने अंग्रेजियत या संस्कृत का आतंक नहीं माना; और न ही उनकी अवज्ञा भी। वे अपने खोटी चरित्र में दृढ़ बने रहे। इन्हीं से गुप्त जी का रचनामक व्यक्तित्व निर्मित हुआ है।
इन तत्वों के संयोग से राष्ट्रीय भाव-धारा से अपने-आप विकसित होती है। राष्ट्रीयता की भावना को विचारकों ने यत्नज माना है। उनके अनुसार देश की पराधीनता, जो अपने आप में एक असहज स्थिति है, राष्ट्रीयता की भावना को रोज जन्म देती है। मैथिलीशरण गुप्त भी राष्ट्रीयता पराधीनता के दौर में विकसित होकर भी आत्मीय भाव से सहज हैं।
द्विवेदी-युग का साहित्य मूलतः भारतीय नव जागरण की चेतना से स्पंदित साहित्य है। हिन्दी प्रदेश में जिस नवजागरण की चेतना का सूत्रपात भारतेन्दु के साहित्य से हुआ था वह मैथिलीशरण गुप्त की कृतियों में उत्कर्ष को प्राप्त करती है। उनके द्वारा प्रणीत भारत-भारती आधुनिक हिन्दी साहित्य का गौरव ग्रंथ है, जिसके द्वारा कवि ने संपूर्ण हिन्दी प्रदेश में नव जागरण एवं राष्ट्रीयता के मूल्यों का प्रसार किया।
नवजागरण की चेतना भारत-भारती की रचनात्मकता का मूल उत्स भी है और अंतर्वस्तु भी। नवजागरणके मूल्यों और उसकी ठोस चिंताओं की ठोस अभिव्यक्ति इस कृति में हुई है। भारतीय नव जागरण की मूल समस्या ‘अस्मिता-बोध’ की है। भारत में नई यूरोपीय संस्कृति एवं प्राचीन भारतीय धर्मिक संस्कृति की टकराहट के फलस्वरूप उन्नीसवीं शती से नवजागरण का आरंभ हुआ। पश्चिमी संस्कृति ने भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को सर्वाधिक क्षतिग्रस्त किया। नवजागरण अपनी लुप्त होती सांस्कृतिक अस्मिता को पुनः उपलब्ध कराने की कोशिश करता है। भारत-भारती में अपनी प्राचीन आस्मिता की स्मृति एवं वर्तमान के अस्मिता संकट को इसी संदर्भ में कवि ने कई स्थानों पर उभारा है।
उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं:
हां, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान् की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है,
विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।।
भारत-भारती के प्रस्तावना में भी गुप्त जी ने ऐसी ही चिन्ता जाहिर की है- "यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अंतर है। अंतर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि देश विद्या, कला, कौशल और सभ्यता में, संसार का शिरमौर था और एक समय यह है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी, वही आज पग-पग पर पराया मुंह ताक रही है। ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन।"
इसी बोध के कारण भारत-भारती के अतीत खंड में आदर्शों की उच्चता, स्त्रियों के चरित्र, सभ्यता के उत्कर्ष, कला-कौशल, ज्ञान की श्रेष्ठता, और वीरता आदि का उल्लेख किया गया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
आदर्श की उच्चता
सत्पुत्र पुरू-से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा,
भाई भरत-से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा!
जो धीरता के, वीरता के प्रौढ़तम पालक हुए,
प्रहलाद, ध्रुव, कुश लव तथा अभिमन्यु सम बालक हुए।।
सभ्यता का उत्कर्ष
बिकते गुलाम न थे यहां, हममें न ऐसी रीति थी,
सेवक जनों पर भी हमारी नित्य रहती प्रीति थी।
वह नीति ऐसी थी कि चाहे हम कभी भूखे रहे,
पर बात क्या जीते हमारे जी कभी वे दःख सहे।
भारतीय नवजागरण की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति यह है कि वह वर्तमान की दुरावस्था एवं संकटों से मुकाबले के लिए अतीत के गौरव से ऊर्जा ग्रहण करती है। भारत-भारती के अतीत खण्ड में ‘आत्म गौरव’ के भाव को देखा जा सकता हैः
यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है इसके निवासी आर्य हैं,
विद्या, कला-कौशल सबके जो प्रथम आचार्य हैं।
गुप्त जी पुरातनपंथी होने के बावजूद परिवर्तनवादी भी थे। भारत-भारती में प्राचीन रूढि़यों को त्यागने की बातें बार-बार कही हैं:
प्राचीन हो कि नवीन छोड़ो रूढि़या हो जो बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं, यह विचार आलोक है,
जैसी अवस्था हो वहां, वैसी व्यवस्था ठीक है।
नवजागरण की चेतना ने भारतीय मनीषियों को आत्म-मंथन की ओर प्रवृत्त किया। आत्म-मंथन के द्वारा ही अपनी स्थिति की वास्तविक पहचान संभव है। इसलिए भारत-भारती में गुप्त जी भारतवासियों से आत्ममंथन का आह्नान करते हैं:
"हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी
आओ मिलकर विचारें ये समस्याएं सभी"
आत्म-मंथन के परिणाम स्वरूप भारत-भारती वर्तमान बोध में गहरे स्तर पर संपृक्त कविता है। इस कृति में अपने समग्र वर्तमान को आकलित करने की कोशिश की गई है। सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति के साथ गुप्त जी आर्थिक स्थिति की भी पहचान करते हैं। अंग्रेजों द्वारा देश के आर्थिक शोषण को उजागर करते हुए वे लिखते हैं:
आतीं विदेशों से यहां सब वस्तुएं व्यवहार की,
धन-धान्य जाता है, यहां से यह दशा व्यापार की।
नवजागरण पश्चिमी संस्कृति और भारतीय संस्कृति की टकराहट का परिणाम है। पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करती है, जबकि भारतीय संस्कृति प्रकृति से सहभाव की संस्कृति है। इसलिए गुप्त जी अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ कहते हैं:
"भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?"
"उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन? भारत वर्ष है"
नवजागरण की मूल प्रकृति जनता में जागरण लाना था। उनमें अपनी समस्याओं को दूर करने हेतु उत्साह का संचार करना था। उन्होंने भूमिका में लिखा है-"संसार में ऐसा कोई भी काम नहीं, जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परंतु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है।"
कवियों को वे कहते हैं:
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
साथ ही भारत-भारती में समाज के सभी वर्गों के प्रति उद्बोधन है। सभी को इस भारतवर्ष के उत्थान में अपना सहयोग देने के लिए कवि कहता है। नर-नारी, राजा-प्रजा, मुल्ला-पंडित, और शूद्र-ब्राह्मण सभी को देश के प्रति सजग रहने को कहा है। जिससे हमारा देश पुनः विश्व का सिरमौर बन जाये। यथाः
हे ब्राह्मणों! फिर पूर्वजों के तुल्य तुम ज्ञानी बनो
भूलो न अनुपम आत्म गौरव; धर्म्म के ध्यानी बनो।
कर दो चकित फिर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से,
मिट जाये फिर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से।
या
शूद्रों! उठो तुम भी कि भारत-भूमि डूबी जा रही,
है योगियों को भी अगम जो व्रत तुम्हारा है वही।
जो मातृ सेवक हो वही सुत श्रेष्ठ जाता है गिना;
कोई बड़ा बनता नहीं लघु और नम्र हुए बिना।।
नवजागरण की चेतना का एक बड़ा परिणाम नारियों को देखने वाली हमारी दृष्टि में क्रांतिकारी परिवर्तन था। नवजागरण ने हमारे हृदय में नारी जाति के प्रति, जिस सहानुभूति और सम्मान की भावना को जाग्रत किया, वह युग-कवि के भीतर अनेक रूपों से व्यक्त हुई। पिछले सौ वर्षों में, जिस वैज्ञानिक आंदोलन ने नारियों के उत्थान को संभव किया, उसमें नर-नारी समानता के भाव जगने लगे, नारियों के प्रति लोगों में साहनुभूति जगी और फिर नारियां खुद अपने अधिकार के प्रति सचेत हुई और अधिकार प्राप्त करने लगीं। भारत-भारती में सिर्फ नारियों के प्रति लोगों की सहानुभूति ही दिखाई देती है। कहीं-कहीं नारियों को बराबरी का दर्जा भी देते हुए गुप्त जी दिखे हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नवजागरण के प्रायः सभी तत्वों का भारत-भारती में सम्यक रूप से निर्वाह हुआ है।
Question : ‘कामायनी’ का समरसता संदेश वर्तमान जीवन स्थितियों में कहां प्रासंगिक है? तर्क सहित बतलाइए।
(2004)
Answer : कामायनी आधुनिक हिन्दी साहित्य की सर्वोत्तम कृति है। जयशंकर प्रसाद ने जीवन के जिन संदर्भों को लेकर कामायनी का प्रणयन किया है, वे अत्यंत व्यापक एवं मोहक हैं। हिन्दी-साहित्य जगत में तुलसी के रामचरितमानस के पश्चात् कामायनी में कविता को मानवीय संवेदनाओं के नये आयाम उपलब्ध हुए हैं। सत् और चित् के शाश्वत गुणों से संचालित मानवता में आनंद उपलब्ध करने की जो चिरंतर पुकार उठती है, इस काव्य में ध्वनित हुई है। अंतर्जगत् और बाह्यजगत् की कलात्मक अभिव्यंजना, इसके महत्व को प्रतिपादित करती हैं। जलप्लावन संबंधी प्राचीन आख्यान के आधार पर प्रसाद जी ने जिस काव्य-संसार की सृष्टि की है, उसमें कार्यों के आत्मवाद एवं आनंदवाद की मूल भावना मुखरित हो उठी है। जल-प्लावन की कहानी विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में भी विश्रुत है। इस दृष्टि से कामायनी के कथासूत्र सार्वकालिक और सार्वभौमिक जनजीवन के साथ अनुस्यूत है।
कामायनी का आख्यानतत्व युग-युग के पुरूषों के पुरूषार्थ की व्याख्या करता है। इससे उनका महाकाव्य के उच्च आसन पर आसीन होना सिद्ध होता है। पुरूषार्थ का उन्नयन प्रत्येक महाकाव्य का प्रतिपाद्य है। कामायनी के शैव द्वैतावाद की जो समरसता परक मान्यता प्रतिपादित हुई है, यह विश्व की सामूहिक चेतना की मात्र अभिव्यक्ति है, उसमें मन की वृत्तियों का, जो क्रमिक विकास दिखाया गया है, वह विश्व मानव का ही मनोविश्लेषण है।
बाल्यकाल से ही प्रसाद जी का समग्र व्यक्तिव्त शैव-सिद्धांतों के आधार पर निर्मित हुआ है। परंतु उन्होंने परंपरावादी दार्शनिकों के समान शैव-दर्शन की अनुवर्तिता स्वीकार नहीं की, अपितु उसमें से उन्होंने एक ऐसा तत्व खोज निकाला है, जो समसामयिक जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यापक समाधान प्रस्तुत करता है। यह तत्व है- समरसता-मूलक आनंदवाद। यही आनंदवाद कामायमी का प्रतिपाद्य विषय है।
शैव-दर्शन के अंतर्गत चार संप्रदाय प्रचलित हैं- (1) लकुलीशपाशुपत दर्शन (2) शैव दर्शन (3) प्रत्यमिभज्ञादर्शन और (4) रसेश्वरदर्शन। कामायनी में प्रत्यभिज्ञा दर्शन का आधार ग्रहण किया गया है। इस दर्शन के अनुसार परमतत्व के दो रूप हैं-शिव और शक्ति। एक तत्व की प्रधानता में दूसरा तत्व गौण रहता। परन्तु एक तत्व के बिना दूसरा तत्व नहीं रहता। शिव के बिना शक्ति नहीं और शक्ति के बिना शिव नहीं। इसे अविनाभाव कहा गया है। विश्व का उन्मूलन शक्तितत्व से होता है। तत्त्वातीत अवस्था में दोनों शिव और शक्ति सम हो जाते हैं। इसी को समरसता के नाम से अभिहित किया जाता है।
जीवन की विडम्बना का दूर करने का सक्षम उपाय शैव दर्शन में प्रतिपादित हुआ है। वह है-समरसता। सामान्यतः नर-नारी की परस्परानुप्रवेश रूप अनुकूलता की समरसता है-"समरसः परस्परानु प्रवेशरूपम् आनुकूल्पम्य्। समरसता का विषय बहुत व्यापक है। वह सैद्धांतिक भी है और व्यावहारिक भी; आध्यत्मिक भी और भौतिक भी। समरसता सभी तत्वों, प्राणियों, भावों, इन्द्रियों और चेतन-अचेतन पदार्थों में भी संभव है। कामायनी में समरसता की एकमात्र सूत्रधारिणी श्रद्धा है। प्रलय की विभीषिका से सन्त्रस्त-मनु के जीवन में विधि विषमताओं को दूर करके, श्रद्धा उन्हें समरसता की अवस्था उपलब्ध करने के लिए प्रेरित करती है। समरसता किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं है, उस पर सभी का अधिकार हैः
नित्य समरसता का अधिकार
उमड़ता कारण जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों के बीच
बिखरते सुख मणि गण द्युतिमान।
सुख-दुख और तप-भोग की समरसता के समान ही नर-नारी तथा शासक-शासित व्यक्तियों में भी समरसता अनिवार्य है। जब मनु इस अनिवार्य समरसता के संवेदना से शून्य हो जाते हैं, तब वे काम की आलोचना के पात्र बन जाते हैं:
तुम भूल गये पुरूषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है सम्बन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की।।
श्रद्धा अपने पुत्र को भी समरसता के प्रचार के लिए प्रेरित करती हैः
सब की समरसता कर प्रचार,
मेरे सुत! मुन मां की पुकार।
और श्रद्धा के ही प्रयास से इच्छा तथा ज्ञान क्रिया से समन्वय स्थापित होता है और जीवन की तथाकथित विडंबना दूर हो जाती हैः
महा जोति रेखा सी बनकर
श्रद्धा भी स्मिति दौड़ी उनमें
वे सम्बद्ध हुए फिर सहसा
जाग उठा थी ज्वाला जिनमें।
समरसता आनंद की आधार भूमिका है। समरसता की भूमि पर ही आनंद की अजड्ड धारा प्रवाहित होती है। सामरस्य को आनंद का पर्याय मान लेना नितांत भ्रामक है। आनंद साध्य है और समरसता उसका साधन। प्रसाद जी ने कामायनी में समरसता पर अधिक बल दिया है और उसे आनंद की पूर्व-स्थिति के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यथाः
"मिटते असत्य से ज्ञान लेश,
समरस अखण्ड आनन्द वेश।"
"समरस थे जड़ या चेतन
सुंदर साकार बना था;
चेतनता पर विलसती
आनन्द अखण्ड घना था।
जीवन में और उसके प्रत्येक क्षेत्र में समरसता की स्थिति उत्पन्न करना अनिवार्य है। आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विषमताओं में समरसता का अनुभव करना अथवा उस आत्मसात् करने का प्रयास करना किसी महत् अनुष्ठान से कम नहीं है। कामयनी में यह समरसता वर्तमान युग की भौतिक यांत्रिकता, शुष्कबौद्धिकता, मूल्यहीनता, अनास्था, स्वार्थपरता, कामकुण्ठा आदि अभिशप्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है।
अहमन्यता व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति है। सामाजिकता को सबसे अधिक खतरा व्यक्ति के अहंकार से है। यह प्रवृति व्यक्ति को मानवता की सामान्य भूमि से हटाकर विषमता एवं विसंगति की ओर उन्मुख कर देती है। आधुनिक मानव में जो अंतर्विरोध तत्व लक्षित हो रहे हैं, उसके मूल में अहं भाव अंतर्विहीन है। आज मानव समाज में विघटन और बिखराव भी जो वेगपूर्ण प्रक्रिया चल रही है, उसका कारण भी मनुष्य का अहंकार है। मनुष्य की इस अहंवादी प्रवृत्ति से विश्व की अर्थव्यवस्था बिगड़ती जा रही है। इसी से आज मानव-समाज विषमता की रेखाओं में विभाजित है। समाज का उच्च वर्गीय, मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय जीवन इसका उदाहरण है। आधुनिक युग के अहंवादी पूंजीपति की मनोवृत्ति, मनु के इस कथन से पता लगता हैः
विश्व में जो सुन्दर हो विभूति महान्
सभी मेरी है सभी करती रहे प्रतिदान।
कामायनी में प्रलय विध्वंस की घटना अहंवादी राष्ट्रों के लिए एक चेतावनी है। जब तक व्यक्ति का अहं समाज के साथ और समाज का अहं विश्व के साथ समन्वित नहीं होगा तब तक मानवीय संकटों की संभावना बनी रहेगी। प्रसाद जी ने कामायनी में अहं के परिमार्जित रूप का निर्देश किया है। मनु का अहं समष्टिगत होकर अत्यंत परिष्कृत एवं उदात्त बन जाता हैः
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझ को दुख पाने दो स्वतंत्र,
‘मन की परवशता महा दुख’
मैं यही जपूंगा महामन्त्र।
पारिवारिक एवं सामाजिक संदर्भों से कटा हुआ व्यक्ति कहीं भी सुख शांति प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति की घोर निराशा, निष्क्रियता और व्याकुलता के समग्र वातावरण में कुहासा एवं धुंध भी सृष्टि कर देती है, जिसमें अनेक प्राणी अपनी चेतना की ज्योति खो देते हैं। कामायनी की निम्नांकित पंक्तियों में तनाव, कुण्ठा एवं विसंगतियों से ग्रस्त जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता हैः
जीवन निशीथ के अंधकार
तू नील तुहिन जल-निधि बनकर फैला है कितना वार पार
कितना चेतना की किरणे हैं डूब रही ये निर्विकार
कितना मादकतम निखिल भूवन रहा भूमिका में अभंग।
वस्तुतः सामाजिक दायित्व निभाने और उसकी सेवा करने में ही व्यक्ति का विकास एवं स्वातंत्र्य भाव सिन्नहित हैं। व्यक्ति सामाजिक परिवेश में अपनी संकीर्णता का परित्याग करके मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा करने में अग्रसर होता है। प्रसाद जी का दृष्टिकोण व्यक्ति और समाज के समन्वय में नई चेतना को विकसित करने की ओर रहा है। यही कारण है कि किसी समय सामाजिक दायित्वों से विमुख रहने वाले मनु से अंत में यह अभिव्यक्त करवाते हैं:
सबकी सेवा न पराई
वह अपनी सुख संसृति है?
वर्तमान युग के संदर्भ में यह प्रश्न बड़ी गंभीरता से विचारणीय है कि धन-संचय एवं साधन संपन्नता के लिए भ्रष्टाचार जैसा भयंकर पाप समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए किया जा रहा है अथवा सर्वनाश के लिए किया जा रहा है अथवा सर्वनाश के लिए इसका उत्तर कामायनी में निहित हैः
वे सब डूबे, डूबा उनका
विभव, बन गया पाराबार,
उभर रहा था देव सुखों पर
दुःख जलधि का नाद अपार।
इसी प्रकार कामायनी में मानवतावाद का संदेश निहित है। जो समरसता के द्वारा ही संभव है। यथाः
सब भेद-भाव भुलाकर
दुख-सुख को दृश्य बनाता
मानव कह रे’ ‘यह मैं ही हूं’
यह विश्व नीर बन जाता।
इस प्रकार आज भी विडंबनाओं से पूर्ण भारतीय जीवन में कामायनी का महत्व उल्लेखनीय है। पारिवारिक विघटन, उन्मुक्त भोग, एवं व्यापक असंतोष की परिधि में आधुनिक मानव का दम घुटता जा रहा है और वह हतप्रभ होकर अपने परिवेश में उदासीन होता जा रहा है। इतना ही नहीं, आज उसके सामने चुनौतियों के नये आयाम उभर कर आ रहे हैं, परंतु वह उन्हें स्वीकार न करके अपने को मन से पराजित और टूटा हुआ अनुभव कर रहा है। इन परिस्थिति जन्म संदर्भों में कमायनी की प्रासंगिकता हमारी संवेदना को अधिक गहराई से स्पर्श करती है और उसे समकालीन बना देती है। इसके अतिरिक्त वर्तमान युग की भौतिक यांत्रिकता, शुष्क भौतिकता, अनास्था, मूल्यहीनता, कामकुण्ठा और स्वार्थपरता आदि अभिशप्त समस्याओं के लिए भी कामायनी में व्यापक समाधान प्रस्तुत हुआ है। यह समाधान समरसता के माध्यम से ही संभव और अपेक्षणीय है। अंत में यह कहना उचित होगा कि कामायनी में अतीत के क्षण, वर्तमान के स्पंदन और भविष्य की धड़कनें समाहित हैं।
Question : अबे, सुन बे गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबु, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरात है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाय जाड़ा-घाम।
(2004)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पंक्तियां सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कृत ‘कुकुरमुत्ता’ से ली गयी हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ एक संश्लिष्ट संरचना है। प्रगति और प्रबंध की पारंपरिक व्यवस्था से भिन्न एक विलक्षण स्थापत्य। निराला मात्र निश्छल भावुक नहीं हैं, उनके पास विचार हैं। उनके विचार, व्यवस्था की रूढि़ से टकराते हैं, उसे तोड़ते और एक नवीन रचना करते हैं। इन नवीन रचनाओं में कुकुरमुत्ता भी एक है। निराला वस्तुतः युगान्तर लाना चाहते हैं। उनके इस प्रयास की एक परवर्ती कड़ी है- ‘कुकुरमुत्ता’। प्रस्तुत पंक्तियां संवादात्मक शैली में हैं, जिसमें कुकुरमुत्ता गुलाब से कहता है। उसी का वर्णन इन पंक्तियों में निराला जी ने किया है।
रमणीक भव्य परिवेश में था बगीचा, जहां अपने समय खिला गुलाब, जो फारस से मंगाया गया था। आयातित विदेशी वस्तुओं के प्रति शताब्दियों की दासता भोग रहे, भारतवासियों के मन में एक खास तरह का आकर्षण, पूरे बाग में गुलाब का रोबोदाब। सब उसकी महिमा के, सुन्दरता के कायल, उससे अभिभूत। इसी में गंदगी भी थी, जिसमें देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उठे सर ऐंठ कर बोला कुकुरमुत्ता-
अबे, सुन बे गुलाब,
.............................
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।
शुरू में ही लग जाता है कि ‘कुकुरमुत्ता’ बहुत बोलता है। वह बड़बोला है। गुलाब की प्रतिस्पर्द्धा ने उसे बड़बोला बना दिया है। गुलाब की शोभा, सुगंध और सुषमा के सभी कायल हैं। उसके आभिभाव्य की गरिमा से लोग आक्रांत हैं।
कुकुरमुत्ता उसके आभिजात्य को चुनौती देता है, तो उसकी भाषा भदेस हो जाती है। उसका जन्म भी कचरे के ढे़र पर हुआ है-छातानुमा, अपने सिर पर जन्म से ही छतरी लिये हुए। जैसे कर्ण को जन्म से ही कवच कुण्डल मिला था। गुलाब उसकी तुलना में पूंजीपति सेठ लगता है, जिसकी तीमारदारी में सभी लगे हैं। उसके लिए माली है। वह शाहों, अमीरों और राजाओं का प्रिय है। लेकिन साधारण जनों से उसके न्यारा होने का रहस्य कुकुरमुत्ते को मालूम है।
विशेषः 1. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ‘कुकुरमुत्ता’ सिर्फ एक ढेला था, जो उन्होंने हल्ला मचाती हुई भीड़ पर फेंक दिया था।
2.पूरी संरचना ही व्यंग्यात्मक है। सुकुमार और उदात्त की साधना में निराला को बड़ी सफलता मिली थी। पर व्यंग्य भी इतनी बड़ी क्षमता के साथ कर सकते हैं, इसका उदाहरण कुकुरमुत्ता है।
3.यह वर्ग-विषमता के खिलाफ लिखी गई कविता नहीं है। लेकिन कला के क्षेत्र में जो मर्यादा नैतिकता, आदर्श आदि की दुहाई देते नहीं थकते ‘कुकुरमुत्ता’ से गहरा धक्का लगा। इस विशेष संदर्भ में इसके माध्यम से हिन्दी कविता में सर्वहारा कला समृद्ध हुई है।
धूमिल की शब्दावली का प्रयोग करें, तो निराला इसमें सबकी पूंछ उठाकर देखते हैं। अपनी भी।
4.शब्द चयन काफी सुंदर है, जिसमें देशज, विदेशज शब्दों का प्रयोग सटीक ढ़ंग से हुआ है।
Question : किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुंचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर ‘नमस्ते’ कर दिया।
(2004)
Answer : संदर्भः प्रस्तुत पंक्तियां ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता से ली गई हैं। इस लम्बी कविता के कवि मुक्तिबोध हैं। स्वर्गीय मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ लम्बी कविता एक प्रकार की मिथक कही जा सकती है। इसमें उन्होंने परंपरागत धारणाओं के सड़े-गले अंतराल में से जीवन के जीवंत तत्व बटोरने का साहसिक सफल प्रयास किया है। ब्रह्मराक्षस उस अनवरत प्रयास का प्रतीक है, जो सदियों से मटमैले कुहासों को धोकर जीवन को निखारने का प्रयास है, पर अन्य धारणाएं उसके प्रयासों को सफल नहीं होने देती। मुक्तिबोध प्रारंभ में ब्रह्मराक्षस की अवस्थिति संबंधी मान्यताएं देते हैं, फिर दंत कथाएं इसी क्रम में वे कहते हैं किः
कभी-कभी जब गहरी बावड़ी के भीतर वाली दीवार पर सूर्य की किरणें तिरछी होकर गिरती हैं, तो उसके प्रकाश परमाणु भीतर के अंधियारे को भी कुछ क्षणों के लिए आलोकित कर देते हैं। तब ब्रह्मराक्षस मान लेता है कि उस स्थान की महत्ता और पवित्रता के आगे झुककर मानो सूर्य भी इसे अपना नमस्कार अर्पित कर रहा है। अर्थात् परंपरावादी ब्राह्मण प्रकृति की सामान्य औपचारिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं को भी विशिष्ट चमत्कार का रूप देकर लोगों की अंध भावनाओं से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुतः ‘ब्रह्मराक्षस’ अपनी गरिमा और पाण्डित्य को लेकर आत्ममुग्ध हैं। इसी कारण, जब कभी भी बावड़ी के भीतर सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं, तो उसे लगता है-सूर्य ने झुककर उसे ही नमस्कार किया है।
विशेषः 1. कवि (संपादकः विष्णु चंद्र शर्मा) के अप्रैल 1957 अंक में ‘कविता’ शीर्षक से मुक्तिबोध की जो कविता प्रकाशित हुई थी, उसी का नाम बदलकर उन्होंने ‘ब्रह्मराक्षस’ कर दिया।
2.‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ कहानी में मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस का परिचय दिया है: ‘शिष्य! स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्रह्मराक्षस हूं, किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूं। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव जीवन में, मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किंतु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहां विराजमान रहा।’
3.बावड़ी अवचेतन का प्रतीक है।
Question : मेरे जाति पांति, न चहां काहू की जाति पांति,
मेरे कोऊ काम को, न हौं काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसी के एक नामको।
अति ही अयाने उपखानो नहिं बूझैं लोग,
‘साद्र ही को गात, गोत होत है गुलाम को।’
(2003)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः उपर्युक्त पदावली लोकनायक तुलसीदास विरचित ‘कवितावली’ के ‘उत्तरकांड’ से उद्धृत है। भक्तिकाल हिन्दी काव्य का स्वर्णयुग कहा जाता है और तुलसी उसके दीप्तिमान नक्षत्र। प्रस्तुत पद में तुलसीदास ने ‘राम’ नाम की महिमा का बखान किया है। राम की भक्ति दास्य भाव से भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास कर रहे हैं।
व्याख्याः तुलसीदास अपने को राम के सेवक के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। इसलिए वे कहते हैं, मेरी न कोई जाति है और न में किसी की जाति-पांति में विश्वास करता हूं। अर्थात् मैं निर्विकार भाव से राम की अराधना करता हूं, उसके लिए कोई भी जाति-पांति से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। मैं किसी के काम के लायक नहीं हूं, साथ ही कोई भी मेरे काम का नहीं है। अर्थात् न तो मैं किसी का कोई प्रयोजन सिद्ध कर सकता हूं और न कोई मेरा प्रयोजन सिद्ध कर सकता है।
मेरा सब कुछ श्री रामचंद्र जी के हाथ में है। तुलसीदास को सिर्फ राम नाम का ही भरोसा है, दूसरे किसी अन्य पर नहीं। क्योंकि वे ही पालन हार हैं। तुलसीदास ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि जो गोत्र स्वामी का होता है वहीं सेवक का भी होता है। ये सामान्य सी भी बात लोग नहीं समझते हैं। अतः साधू हूं अथवा असाधू, भला हूं अथवा बुरा इसकी परवाह नहीं है। मैं तो केवल राम का ही हूं- चाहे अच्छा हूं या बुरा हूं या जैसा भी हूं। मैं किसी के दरवाजे पर आश्रय लेने के लिए पड़ा हुआ हूं। इस संसार से मेरा किसी से कोई सरोकार नहीं है।
विशेषताः 1. राम नाम महिमा का बखान गोस्वामी तुलसीदास ने बड़े ही दैन्य एवं तार्किक ढ़ंग से किया है। साथ ही जनसामान्य को राम की अनन्य भक्ति की ओर उन्मुख किया है।
2.इस कविता में अहं एवं समर्पण का भाव है।
3.इस कविता से तुलसी की मानसिक बनावट के अलावा उनकी निश्चिंतता का भी पता चलता है।
4.सूरदास की गोपियां भी इसी भाव से कृष्ण की अराधना करती हैं। ‘भ्रमर गीत’ में ऐसे अनेक पदों की उपिस्थति है।
5.कोमल कांत पदावली का प्रयोग हुआ है, साथ ही संपूर्ण पद प्रसाद गुण संपन्न है।
6.तुलसीदास का लोक-परलोक दोनों ही भगवान राम के आधीन है। उन्हें अपने प्रभु रामचंद्र का ही विश्वास है।
Question : ‘नागमती-वियोग खंड’ के आधार पर जायसी की काव्य-कला के विविध पक्षों का विवेचन कीजिए।
(2003)
Answer : हिन्दी साहित्य में भक्तिकालीन काव्यधारा की प्रेमाश्रयी शाखा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। उनका ‘पद्मावत’ तो हिन्दी साहित्य का अमर कीर्ति स्तंभ है। इसके अंदर भी ‘नागमती-वियोग खंड’ अमूल्य निधि है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की स्पष्ट धारणा है कि- फ्नागमती का विरह वर्णन हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है।" नागमती का विरह वर्णन बेहद रमणीय, मार्मिक एवं विस्तृत है। नागमती रत्नसेन के पद्मावती की खोज में सिंहल द्वीप जाने पर एक वर्ष तक पति से विमुख रहती है। हिन्दी समीक्षा में यह सर्वसम्मति से मान लिया गया है कि जायसी का भावुक मन नागमती के वियोग में ही अधिक रमा है। इस वियोग वर्णन में उन्होंने कुछ ऐसे तत्वों का समावेश किया है कि यह हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ विरह वर्णन के रूप में स्वीकृत हो गया है।
नागमती के विरह वर्णन की मुख्य विशेषता यह मानी गयी है कि यह विरह एकदम लौकिक स्तर पर वर्णित किया गया है। शुक्ल जी के अनुसार, "अपनी भावुकता का बड़ा भारी परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमती विरह दशा में अपना रानीपन एकदम भूल जाती है और अपने के केवल साधारण नारी के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरह वाक्य छोटे-बड़े सबके हृदय को समान रूप से स्पर्श करते हैं।" स्पष्ट है कि नागमती के विरह में साधारीकरण की, जो तीव्र क्षमता विद्यमान है, वह मूलतः इसलिए है कि नागमती ने विरह को रानी के विशिष्ट रूप में नहीं, बल्कि नारी के स्वाभाविक रूप में देखा है। यदि वह अपना रानीपन नहीं भूलती तो उसके प्रतीक एवं उपमान महलों की भीतरी दुनिया के होते और चूंकि उन उपमानों और प्रतीकों का संबंध आम आदमी से नहीं होता, इसलिए उसका विरह भी एक उदाहरण बनकर रह जाता। यह एक विस्मय की बात है कि रानी नागमती ऐसी बातों से परेशान हैं, जो महलों में रहने वालों को परेशान नहीं कर सकतीः
जेठ जौ जग बहै लवारा। उठे बवंडर धिकै पहारा।।
चारिहु पवन सकोरै आगि। लंका दहि पलंका लागी।।
उठे आगी औ आवै आंधी। नैन नसूझ, मरौ दुःख बांधी।।
नागमती का विरह केवल वैयक्ति संयोग सुख की प्रेरणा पर आधारित नहीं है, बल्कि जीवन के लोक व्यवहारों तथा कर्त्तव्यों से जुड़ा हुआ है। इस विरह की भूल समस्या भोग का अभाव नहीं है, बल्कि यह है कि पति के बिना जीवन में सार्थकता नहीं है। नागमती मध्यकाल की एक हिंदू नारी है, जिसके जीवन की सारी सार्थकता सांस्कृतिक व्यवस्था ने उसके पति में केंद्रित की है। नागमती के विरह में दोहरा दुःख है एक तो यह कि पति नहीं है, दूसरा यह कि पति एक और नारी की खोज में गया है। शुक्ल जी कहते हैं कि फ्जायसी ने स्त्री जाति की या कम से कम हिंदू गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलंभ श्रृंगार के अत्यंत समुज्ज्वलं रूप का विकास दिखाया है।..... यह आशिक मशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है, यह हिंदू गृहिणी की विरह वाणी है। इसका सात्विक मर्यादापूर्ण माधुर्य परम मनोहर है।"
उदाहरण- "पुण्य नखत सिर ऊपर आवा। हां बिनु नाह, मंदिर को छावां" नागमती का वियोग अपनी प्रतिबद्धता में भी अनूठा है अपने पति के दायित्वहीन व्यवहार के बावजूद वह अपने प्रेम में पूरी तरह दृढ़ है। उसकी अंतिम इच्छा है कि यदि प्रिय से संगम न हो तो भी कम से कम इतना अवश्य हो जाए कि मेरे जलने के बाद पवन मेरी राख को उड़ाकर उस रास्ते पर बिछा दे, जहां से मेरे पति आने वाले हैं:
यह तन जारौ छार कै, कहौं कि पवन उड़ाव।।
मकु तेहि मारग उडि़ परै, कंत धरै जहं पांव।।
नागमती के विरह में एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि विरह की भावुकता में रानी नागमती में इतना अधिक आत्मविस्तार किया है कि हिन्दी साहित्य में ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। यह स्वाभाविक सी बात है कि जब व्यक्ति वियोग में होता है तो दूसरे व्यक्तियों से संबद्ध होना चाहता है, उन्हें अपना दुःख बताना चाहता है और दुःख दूर करने में उनकी सहायता भी चाहता है। भावुकता अधिक होने पर विरही व्यक्ति प्रकृति से भी दुखी होने की उम्मीद करता है, जैसे सूर की गोपियां कहती हैं- फ्मधुवन तुम कत रहत हरे।" ऐसी अवस्था नागमती की भी है। नागमती उपवनों में रोती-फिरती है। उसके विलाप से घोंसलों में बैठे पक्षियों की नींद हराम हो गई हैः
फिर-फिर रोव, कोइ नहिं डोला। आधीरात विहंगम बोला।।
तू फिरि-फिरि दाहै सब पांखी। केहि दुख रैनि न लावसि आंखी।।
पर नागमती की दशा पर एक पक्षी को दया आती है। वह उसके दृःख का कारण पूछता है। नागमती कहती हैः
चारिउ चक्र उजार भए, कोई न संदेसा टेक।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दंड एक।
इस पर वह पक्षी संदेश ले जाने के लिए तैयार हो जाता है। पद्मावती से कहने के लिए जो संदेस कहा जाता है, वह अत्यंत मर्मस्पर्शी है। उसमें मान, गर्व आदि से रहित, सुख भोग लालसा से अलग, अत्यंत नम्र, शीतल और विशुद्ध प्रेम की झलक पाई जाती है।
मनुष्य के आश्रित, मनुष्य के पाले हुए पेड़-पौधे किस प्रकार मनुष्य के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी दिखाई देते हैं, यह दृश्य बड़े कौशल और सद्ददयता से जायसी ने इस खंड में दिखाया है। नागमती की विरहदशा में उसके बाग-बगीचे से उदासी बरस रही थी। पेड़-पौधे सब मुरझाये पड़े थे। इस प्रकार नागमती की वियोग दशा का विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक दिखाई पड़ता था।
इस प्रकार नागमती वियोग खंड का भाव पक्ष अत्यंत सबल है। साथ ही कलापक्ष की दृष्टि से भी पद्मावत विशिष्ट काव्य-कृति है। भाषा, छंद, अलंकार आदि काव्य के सभी अंगों का इस खंड में स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
पद्मावत की भाषा पूर्वी अवधी है। इसके अंतर्गत लोक जीवन की शब्दावली का प्रयोग हुआ है। भाषा भावानुरूप है। सरसता, प्रसाद गुण संपन्न, सुललित पदावली जायसी की काव्य-भाषा का गुण है। उदाहरण के लिएः
पिउ वियोग अस वाउर पीऊ।
पर्पाहा तस-बोले पिउ पीऊ।।
मुहावरों के प्रयोग से भाषा और अधिक भाव व्यंजक हो जाती है। जायसी ने नागमती वियोग में भाषा का परिमार्जन मुहावरों के द्वारा भी की है। भाषा का स्वाभाविक प्रवाह बनाये रखते हुए जायसी ने कवि कर्म का निर्वाह किया है।
काव्य में अलंकारों का प्रयोग भावोत्कर्ष के लिए होता है। इसके माध्यम से कविता का कलात्मक सौंदर्य बढ़ जाता है। नागमती वियोगखंड में उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, व्यतिरेक, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग प्रमुखता से किया गया है। उदाहरण स्वरूप
अनुप्रास - पपीहा पीउ पुकारत पावा।
यमक - रसन्नहि रस एकौ भावा।
रूपक - केवल कालि तू पद्मिनि। यह निसि भस्तु विहानु।
अबहुं न संपट खोलिसि। जब रेउवा जग-भानु।।
अलंकृत रूप वर्णन में कवि ने एक-एक अंग के लिए कई उपमानों की योजना की है, जैसे-
केशराशि के लिए - नाग, नागिन, प्रेम जेजीर, भ्रमर, सर्प
नेत्रों के लिए - रक्त कमल, भ्रमर, खंजन, मृग, तुरंत
मांग के लिए सरस्वती, विद्युत रेखा, कंचन रेखा आदि
पद्मावत में जायसी ने दोहा, चौपाई, छंद तथा मसनवी शैली का प्रयोग किया है। नागमती वियोग खंड में भी इसी का प्रयोग है। छंद योजना में लयबद्धता व संगीतात्मकता का गुण समावेश है। काव्य रूप की दृष्टि से ‘पद्मावत’ रोमांचक अख्यान काव्य है। जिसमें जायसी ने सूफी सिद्धांतों को को भारतीय कथा में पिरोया और हिंदू और मुसलमानों दोनों के हृदय को आकर्षित किया।
विरह वर्णन में फारसी मसनवियों की शैली प्रायः ऊहात्मक हो जाती है। ऊहात्मकता का अर्थ है- विरह का ऐसा अतिशेक्तिपूर्ण वर्णन जो असामान्य होने के साथ-साथ कहीं-कहीं वीभत्स सा होने लगे। नागमती के विरह वर्णन में जायसी ने ऊहात्मकता का सहारा तो लिया है- किंतु उसे कहीं भी मजाक का विषय नहीं बनने दिया है। विरह की अधिकता के लिए जब उन्होंने अतिशयोक्ति पूर्ण उपमान दिए हैं तो प्रायः उत्प्रेक्षा या संभावना के रूप में दिये हैं, न कि वास्तविकता के रूप में। ऐसा होने से अतिशयोक्तियां भी प्रभावशाली बन गईं हैं:
जानहु अगिनि कै उठहि पहारा।
ओ सब लगहिं अंग अंगारा।।
कुछ वर्णन ऐसे हैं, किंतु ऐसे वर्णनों में भी नागमती की व्यथा सुनकर हृदय द्रवीभूत होता है, हंसी नहीं आती हैः
दहि कोयला भई कंत सनेहा। तौला भांसु रहा न देहा।
रक्त न रहा विरह तन जरा। रति-रति होई नैनन्ह ढ़रा।।
समग्रतः कहा जा सकता है कि जायसी ने नागमती वियोग का वर्णन अपेक्षाकृत अधिक मार्मिकता, रमणीयकता के साथ करने में सफल हुए हैं। यह रमणीयता कलागत सौंदर्य के साथ और भी अधिक स्मरणीय बन पड़ी है।
Question : यद्यपि हताहत गात में कुछ सांस अब भी आ रही,
पर सोच पूर्वापर दशा मुंह से निकलता है, यही
जिसकी अलौकिक कीर्ति से उज्ज्वल हुई सारी नहीं,
था जो जगत का मुकुट, है क्या हाय! यह भारत वही,
अब कमल क्या, जल तक नहीं, सरमध्य केवल पंक है,
वह राज, राज कुबेर अब हा! रंक का भी रंक है।
(2003)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत पद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा रचित ‘भारत-भारती’ के ‘वर्तमान खण्ड’ का प्रारंभिक पद्य है। गुप्त जी ने ‘अतीत खंड’ में भारत के अतीत गौरव एवं मानवीय मूल्यों का वर्णन किया, लेकिन इस खंड में अपने समय के भारत का यथार्थ चित्रण किया है। गुप्त जी ने अपने समय के भारत का वर्णन करते हैं:
व्याख्याः कवि गुप्त जी कहते हैं कि इस भरे हुए भारत की सांसे अभी तक चल ही रही हैं अर्थात् इसके जिंदा होने की अभी भी आशा है। इस दशा के होने से पूर्व भारत की क्या स्थिति थी, इस बारे में सोचने पर एक आह निकलती है, क्योंकि पूर्व में अपना देश भारत विश्व का सिरमौर था। जिसकी अलौकिक कीर्ति संपूर्ण धरा को ज्योति प्रदान करती थी।
वह संपूर्ण विश्व का राजा था। अर्थात् यहां का वैभव, ऐश्वर्य मानवीय मूल्य संसार में सबसे अधिक था, लेकिन क्या आज वही भारत मृतप्राय सा है। पुनः कवि प्राचीन भारत और अपने समय के भारत की तुलना करते हैं। प्राचीन समय में भारत कमल के समान था। विश्व रूपी समुद्र में खिला हुआ कमल लेकिन आज कमल लुप्त हो गया है, रह गया है सिर्फ, कीचड़ जहां पहले कुबेर का राज था, वहां आज केवल गरीबी ही गरीबी है।
विशेषताः 1. प्रस्तुत पद में अतीत के गौरव गान के द्वारा राष्ट्रीय चेतना के स्वर को मजबूत किया है।
2.प्रस्तुत पद के माध्यम से गुलामी को भारत की दुर्दशा का कारण माना गया है।
3.सरल, एवं प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग हुआ है
4.‘गात’ ‘पूर्वापर’ ‘उज्ज्वल’ आदि तत्सम शब्दों का प्रयोग द्विवेदी युग की प्रमुख गुण हैं।
Question : ‘राम की शक्ति-पूजा’ के आधार पर निराला के चरित्र-चित्रण कला की विशेषताएं स्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : ‘राम की शक्ति-पूजा’ निराला के जीवन के समग्र औदात्य को अभि-व्यंजित करने वाली हिन्दी-साहित्य की एक महत्तम उपलब्धि है। इसे उनकी कीर्ति का आधार-स्तंभ स्वीकार किया जाता है। यह एक वृहतर कविता है, जो अपने अंतराल में प्रबंधात्मकता और महाकाव्यात्मक औदात्य लिए हुए है। यह कविवर निराला की प्राणवत्ता की परिचायक तो है ही, उनकी सृजन कुशलता औैर निराला की क्षमता को भी रूपाकार प्रदान करने वाली है। छायावादी काव्य की चरम परिणति इस काव्य में देखी जा सकती है। वास्तव में कविवर निराला का समूचा सर्वस्व और काव्य-क्षमता का मधु-मकरंद ‘राम की शक्ति-पूजा’ में संचित है।
इस महाकाव्यात्मक औदात्य की गरिमा से मंडित काव्य का सृजन कविवर निराला ने सन् 1936 में किया था। यह काल उनके अपने जीवन के प्रखरतम संघर्षों का काल तो था, हमारे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संघर्षों का काल भी था। एक ओर जहां कवि के अपने जीवन निराशा के अनेक क्षण अनेक प्रकार के भय विषम उतार-चढ़ाव आ रहे थे, उसी प्रकार हमारे राष्ट्रीय मानस की स्थिति भी थी। स्वतंत्रता के संघर्ष में कवि के वैयक्तिक जीवन के अनवरत अवरोध पराजय के भाव आ रहे थे तो दूसरी ओर पूर्ण विजय की संभावना और गायिक शक्ति संचय की। देश के लिए और कवि के लिए भी। तभी जय-पराजय की द्विविधा और संघर्ष से पार उतरा जा सकता था। तब मर्यादा पुरुषोत्तम राम का संघर्षमय व्यक्तित्व कवि के अंतः पर एक महत् आदर्श के रूप में आया। परिणाम स्वरूप प्रस्तुत प्रबंधात्मक कविता हमारे समने आई। कवि का अपना संघर्षमय, साधक और अपराजेय व्यक्तित्व भी राम के व्यक्तित्व में समाहित होकर रह गया। उसका अपना द्वंद्व राम का द्वंद्व बन गया। कृतिवास की रामायण कवि का अपना संघर्षमय व्यक्तित्व, राष्ट्रीयता के संघर्ष का उतार-चढ़ाव, राम का आदर्श पुरुषार्थ, अदम्य साहस इन सबका परिणाम है ‘राम की शक्ति-पूजा’और इन्हीं मूल्यों पर निराला ने इस कविता में चरित्र का निर्माण भी किया है। ‘राम की शक्ति-पूजा’ पाश्चात्य महाकाव्यों का अधिक स्मरण दिलाती है, प्राच्यों का कम। ‘राम की शक्ति-पूजा’ महाकाव्य नहीं हुआ है, खंडकाव्य भी नहीं, वह एक लंबी कविता है, परंतु उनमें ये सभी गुण वर्तमान हैं। पौराणिक उपाख्यान को जिस प्रकार कवि ने काव्य में कल्पना द्वारा सजीव किया है, वह बहुत हद तक पाश्चात्य महाकाव्य के अनुकूल हुआ है। कवि ने थोड़े से अपने पात्रों का चित्रण किया है, किंतु वे अपनी छाप हृदय पर किसी महाकाव्य के ही पात्रों की तरह डालते हैं। राम, हनुमान, विभीषण आदि पर आदि कवि से लेकर आज के कवियों तक न जाने कितना लिखा गया, फिर भी उनके भीतर से कवि ने जिन प्रतीकों की व्यंजना की है, वह तात्विक और आधुनिक दृष्टिकोण का सूचक है।
कवि निराला ने इस कविता में राम, रावण से लेकर सभी पात्रों में नवीन जीवन सृष्टि की है। कवि का ध्येय राम-रावण का युद्ध का वर्णन नहीं है, इसलिए वह सूर्य को अस्त करके पहले ही बता देता है कि आज का युद्ध खत्म हो चुका है।
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र में लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का........
दिन समाप्त हो चुका है परंतु जो घटनाएं उस काल में घटित हुईं हैं, वे जैसे उसी दिन के ज्योतिपत्र पर अंकित कहीं सुरक्षित हैं। कवि ऐसा आभास देता है कि ये घटनाएं क्षणिक नहीं, उसकी महता अनन्त है और वे अनन्त काल तक रहेंगी। साथ ही अपराजेय समर से हमें युद्ध के अनिश्चित परिणाम का बोध होता है, राम की मनोभूमि पर, जो संग्राम होने वाला है, हम कुछ-कुछ उनके लिए तैयार हो जाते हैं। कवि के अनुसार राम-रावण दो व्यक्तियों का यह संग्राम नहीं है, यह उन आदि शक्तियों का संघर्ष है, जो विश्व में सतत् क्रियाशील रहती हैं, राम-रावण किन शक्तियों के प्रतीक हैं, यह कवि ने कहा नहीं है, उनकी ओर संकेत मात्र है। चरित्रों की मानवीयता सुरक्षित रहती है। रावण का दल आज के जीत के उन्माद में लौट आते हैं। राम अपनी वानर सेना के साथ अपने शिविर की ओर चलते हैं। जटा-मुकूट खुल गया है और उनकी पीठ, बाहुओं और छाती पर फैल गया है, और यहां भी एक जबर्दस्त संकेत मिलता हैः
‘‘उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकर,
चमकती दूर ताराएं ज्यों हो कही पार।’’
उस अंधकार, रावण की महिमा, ने राम को आक्रांत कर लिया है, आशा की तारिकाएं अपनी क्षीण ज्योति में बहुत दूरी पर टिमटिमाती दिखाई देती हैं। यहां पर राम के मानसिक संघर्ष के लिए कवि ने प्रकृति की सैटिंग दी है। वह अत्यन्त ओजपूर्ण और राम के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने में सहायक है,
‘हे अमा निशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।’
राम के चारों ओर यह चातुर्दिक प्रवाहित अन्धकार जितना चित्तरूप में सुन्दर है, उतना ही अपनी सांकेतिकता में सार्थक और उपयुक्त। ‘केवल जलती मशाल’ हमें इसी से राम के विजय के लिए आशा मिलती है। एक ओर राम की अपराजिता शक्ति और दूसरी ओर वैसी ही रावण का प्रतिरोध, राम मन ही मन विकल हो उठते हैं:
‘स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर संशय,
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-भय।
इसमें संशय सीता की मुक्ति के लिए उतना नहीं व्यक्त है, जितना संपूर्णराष्ट्र में रावण की विजय से उत्पन्न होने वाली दुर्दमनीय अत्याचारों की चिंता है। इसी समय राम को सीता का स्मरण होता है। यह राम की निर्बल मानसिक अवस्था का द्योतक है। कवि ने राम की इस चारित्रिक दुर्बलता को बड़े सुन्दर ढंग से निबाहा है। राम इस दृश्य में तन्मय हो जाते हैं कि आवेश में उनका हाथ फिर धनुष उठाने के लिए बढ़ जाता है। राम की इस क्रिया का कवि ने मार्मिकता से उल्लेख किया हैः
पुलकित तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्मग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त।
राम की निर्बलता, सीता का ध्यान, उन्हें फिर दबा लेता है। उनकी आंखों में सीता के नेत्र, जिनमें राम का चित्त स्वयं अंकित है, खिंच जाती है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक व्यंजना का यह एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण है, जैसा और साहित्यों में खोजने पर मुश्किल से ही मिलेगा। राम की निर्बलता का एक और उदाहरण उनके नेत्रों से आंसू का निकलना है। ‘भावित नयनो से सजल गिरे दो मुक्ता दल।’ इतना ही नहीं वे निराशा की ओर बढ़ते हैं। विभीषण के ओजपूर्ण कथन ‘मैं बना किन्तु लंकापति धिक् रावण, धिक् धिक्।’ राम पर इन ओज शब्दों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उनकी विरक्ति बहुत ही गहरी है, वे शब्द सुनते हैं पर उनके अर्थ तक पहुंचने की चेष्टा नहीं करते। कवि ने राम की निराशा का सुन्दर चित्रण किया हैः
‘बोले रघुमणि- ‘मित्रवर, विजय होगी न समर’,
....................................................................
अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति। कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल।’
राम की निराशा का चित्रण हमें, बाल्मीकि का स्मरण कराती है, अत्यंत मानवीय और नाटकीय चरित्र विकास की कसौटी पर निखरी हुई। पहली बार आंसू गिरने पर हनुमान का पौरुष जागा था, इस बार लक्ष्मण की बारी है। थोडे़ ही शब्दों में- ‘चमका लक्ष्मण तेजः प्रचंड’ कवि लक्ष्मण के चरित्र की झांकी हमें दिखा देता है। चरित्र-चित्रण की पटुता यहीं दर्शनीय है। यह लक्ष्मण हमारे कितने परिचित जान पड़ते हैं और भक्त हनुमान-
‘धंस गया धरा में कपि गह युग पद मसकदण्ड’
जाम्वन्त सब बातें समझते हुए स्थिर हैं, सुग्रीव घाव खाए व्याकुल हैं और विभीषण मन ही मन सोचते हैं कि आगे अब और कौन सा पांसा फेंका जाए। इस प्रकारः
मौन में रहा सुस्पंदित वातावरण विषम।
एक ही पुरुष की बात का अनेक पर जो भिन्न प्रभाव पड़ता है, कवि ने थोड़े में, उनकी चारित्रिक विशेषताओं को झलकाते हुए दिखा दिया है।
कहीं-कहीं इस कविता में राम के माध्यम से निराला की राष्ट्रीय गुलामी से मुक्ति की चिंता भारतीय है। यद्यपि इस अर्थ को पूरी कविता में बहुत सावधानी से पिरोया नहीं है। एक स्थूल ढंग से राम की विजय और सीता की मुक्ति की चिन्ता को हम राष्ट्र-मुक्ति और मर्यादा की रक्षा के लिए युद्ध में नियोजित होने के नैतिक पक्ष को कविता में देख सकते हैं। यह राष्ट्रीय मुक्ति किसी महावीर पुरुष के हाथों ही संभव है, जो मुक्ति की बलि वेदी पर सब कुछ समर्पित कर देने के लिए तैयार है। निराला इसके लिए शक्ति की आराधना का पक्ष लेते हैं। यह सुझाव जन साधारण के माध्यम से राम तक नहीं पहुंचता, बल्कि उनके वरिष्ठ मंत्री जामवन्त इसकी सलाह देते हैं।
निराला ने राम के संशय उनकी खिन्नता, उनके संघर्ष और अंततः उनके द्वारा शक्ति की मौलिक कल्पना और साधना तथा अंतिम विजय में अपने ही रचनात्मक जीवन और व्यक्तिगतता के संशय, अपनी रचनाओं के निरंतर विरोध से उत्पन्न आंतरिक खिन्नता, फिर अपने संघर्ष, अपनी प्रतिभा को अभ्यर्थी, अध्ययन और कल्पना ऊर्जा से एक नयी शक्ति के रूप में उपलब्ध और प्रदर्शित करके अंततः रचनात्मकता की विजय का घोष ही इस कविता में व्यक्त किया है। वहीं स्वयं ‘पुरुषोत्तम नवीन’ हैं। इनके चरित्र-चित्रण का एक अर्थ यह भी प्राप्त होता है।
इस प्रकार निराला के राम तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं। इनमें ब्रह्म की पूर्णता के बदले मनुष्य की अपूर्णता है। वे अधीर हो जाते हैं, सीता की स्मृति में मोहित हो जाते हैं, आंखों से आंसू भी गिरने लगते हैं, इसीलिए शक्ति की साधना करना महत्वपूर्ण ही राम के रूप में कवि ने जीवन की परिस्थितियों को एक बार फिर चुनौती दी है।
उसके नायक युद्ध के लिए फिर तैयार होते हैं, लेकिन यह महाशक्ति एक दैवी शक्ति है। शक्ति का आकर राम का हाथ पकड़ना एक मनोमुग्धकारी चमत्कार मात्र है। राम के संघर्ष का चित्र जितना प्रभावशाली है, उतना विजय का नहीं। कवि के जीवन में संघर्ष ही सत्य रूप में आया है। विजय की कामना अपूर्ण रही है।
इस प्रकार कविवर निराला का चरित्र चित्रण कला हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है।
Question : श्रेय नहीं कुछ मेराः
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था
सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का थाः
वह तो सबकुछ ही लथता थी-
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।
(2003)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश प्रयोगवादी महाकवि सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा विरचित ‘आंगन के पार द्वार’ काव्य-संग्रह के ‘असाध्य वीणा’ कविता से है। आधुनिक साहित्य में मानवीय व्यक्तित्व और उसकी सर्जनात्मकता की सबसे गहरी और सार्थक चिंता अज्ञेय के कृतित्व में मिलती है। सृजन के रहस्य की आत्मदान के रूप में व्याख्या, रचनाकार ने ‘असाध्य वीणा’ में की है। इस पद के माध्यम से अज्ञेय जी सृजनशीलता के रहस्य का उद्घाटन कर रहे हैं। यह प्रियवंद के द्वारा असाध्य वीणा के बजाने का रहस्योद्घाटन है।
व्याख्याः प्रियंवद राजा से कहता है, इस वीणा के बजाने का श्रेय मेरा नहीं है। मैं तो खुद इस शून्य में खो गया था। अतः सृजन में मेरा कोई योगदान नहीं है। वस्तुतः सृजन का उद्भव ठीक उसी बिन्दु पर होता है, जब प्रियवंद के संपूर्ण व्यक्तित्व का विलयन हो जाता है। अज्ञेय ने अपने चिंतन में इस बात को स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व का विलयन वहीं कर सकता है, जिसके पास सचमुच व्यक्तित्व हो। इसका अर्थ है प्रियवंद ज्ञान व गुण से तो सम्पन्न है ही, इसके बावजूद उसमें एक और क्षमता है और वह है, इस विकसित व्यक्तित्व को घुला देने की क्षमता। सृजन की प्रक्रिया का अंतिम बिंदु वह है, जहां वह स्वयं को भूल गया है। और यहीं से सृजन का उद्भव होता है। प्रियवंद कहता है, वीणा के द्वारा मैंने अपने आपको, उस सर्वोच्च सत्ता को समर्पित कर दिया था, जो सबकी सुरक्षा करती है, वीणा की जो स्वर लहरी निकली है। वह न वीणा की है और न ही मेरी है, अपितु उस महान् शक्ति की स्वर लहरी है, जो संपूर्ण सृष्टि में मौन भाव से व्याप्त है। उस सूक्ष्म अविभाज्य शक्ति को न तो विभाजित किया जा सकता है और न उसकी व्याख्या ही की जा सकती है। वास्तविक और सर्वोच्च सत्ता का अनुभव आत्मशोधन द्वारा ही हो सकता है। सर्वोच्च सत्ता शब्दातीत है और वही सबमें स्वर देता है।
विशेषताः
Question : ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता की संवेदनागत तथा शिल्पगत विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए।
(2003)
Answer : ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की सर्वाधिक प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध का एक प्रिय प्रतीक है, जिसका प्रयोग उन्होंने न केवल अपनी कविताओं में बल्कि कहीं-कहीं कहानियों तथा विचारपरक रचनाओं में भी किया है। इस कविता में ब्रह्मराक्षस का स्वरूप रहस्यात्मक है और अर्थ के स्तर पर वह अर्थ उद्घाटित और अर्थ आच्छादित है। ब्रह्मराक्षस के प्रतीकत्व को लेकर कई विवाद हैं। प्रथम, ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध का भोक्ता स्व है। स्व का अर्थ है वह अस्मिता, जो जीवन को भोग रही है, जो जीवन के अनुभवों की जीविका है। मोटे तौर पर कवि का ही प्रतीक है, अनुभवों के स्वाद को उपलब्ध करने वाला जो अस्तित्व का अंश है, उसे स्व कहा गया है। अवचेतना के ‘केअस’ में कैद है यह। कुबेरनाथ राय के अनुसार ब्रह्मराक्षस अतीत की बौद्धिक चेतना का प्रतीक होने के कारण वर्तमान की चुनौतियों से विच्छिन्न, इसलिए निस्संग है। तृतीय, ब्रह्मराक्षस मध्यवर्गीय चिंतन है, जो अकेले रहने के लिए अभिशप्त है। चतुर्थ, ब्रह्मराक्षस नए बुद्धिजीवी की स्वानुभूत मूल गलती की पाप चेतना है। पंचम, यह मानवीय इतिहास की एक दुर्दमनीय प्रवृत्ति का प्रतीकीकरण है।
इन कथनों से तथा इस कविता अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि ब्रह्मराक्षस एक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी है, जो अपने ऐतिहासिक दायित्व की पूर्ति न कर पाने के कारण ऐसी स्थिति को प्राप्त हुआ है। मुक्तिबोध की कविताएं प्रायः मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के आत्म संघर्ष से संबंधित होती हैं और इसी रूप में यह कविता भी वैसे ही आत्म संघर्ष की एक चरम स्थिति को व्यक्त करती है। ब्रह्मराक्षस जब मनुष्य की योनि में था तो सत्य की खोज के लिए अत्यधिक प्रतिबद्ध था, किंतु वह सत्य की खोज नहीं कर पाया और अंततः उसी प्रयास में घुट-घुट कर मर गया। कविता में इस बात को इन शब्दों में वर्णित किया गया हैः
‘सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से, दशमलव बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया और वह पसरा पड़ा है
वक्ष बाहें, खुली फैली, एक शोधक की।’
ब्रह्मराक्षस की मूल समस्या यह है कि वह आत्म चेतस होने के साथ-साथ विश्वचेतस भी था। मुक्तिबोध ने अपनी कविता में तीन प्रकार के बुद्धिजीवियों की पहचान की है। पहले वे हैं, जिनकी बुद्धि बिक चुकी है, दूसरे वे हैं, जो बिके तो नहीं है, किंतु अपनी बौद्धिकता के साथ असंग रहना पसंद करते हैं, तीसरे प्रकार के वे हैं, जिनकी न तो बुद्धि बिकी है और न ही वे असंग रहना चाहते हैं और न ही सत्ता के साथ कोई समझौता करने को तैयार हैं। मुक्तिबोध ने ऐसे ही लोगों को आत्मचेतस व विश्वचेतस कहा है। इन दोनों स्थितियों में अन्तर्विरोध के कारण इन लोगों में भयानक आत्म संघर्ष चलता रहता है और यही स्थिति इस कविता में ब्रह्मराक्षस की दिखती हैः
आत्मचेतस् किंतु इस व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन
विश्वचेतस् वे बनाव! महत्ता के चरण में था, विषादाकुल मन
मुक्तिबोध स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मराक्षस बुरा व्यक्ति नहीं था। समस्या यह थी कि वह अपने व्यक्तित्व को पूर्ण बनाना चाहता था। उसके दृष्टिकोण से यह पूर्णता ऐसी होनी चाहिए थी, जिसमें गणित के वस्तुनिष्ठ सिद्धांतों की तरह सब कुछ एकदम निश्चित और स्पष्ट हो। यह संभव नहीं था क्योंकि नैतिक प्रतिमान एक सीमा तक आत्मनिष्ठ और मनोवैज्ञानिक होते ही हैं। अतः ब्रह्मराक्षस का संघर्ष, जिस पूर्णता के लिए था, उसकी प्राप्ति असंभव थी, किंतु उसका उद्देश्य इतना विराट और पवित्र था कि कविता उसके संघर्ष को गौरव की दृष्टि से देखती है-
‘.... अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएं बहुत प्यारी हैं.....’
इस प्रकार ब्रह्मराक्षस जिस द्वंद्व का शिकार है, वह बुरे या अच्छे के बीच का नहीं है, बल्कि अच्छे और अधिक अच्छे के बीच का है। बुरे को छोड़कर अच्छे की ओर जाना तुलनात्मक रूप से आसान है, पर अच्छे से ऐसी स्थिति में जाना, जहां कोई अपूर्णता बचे ही नहीं, एक अत्यन्त कठिन व जटिल स्थिति है। ऐसे संघर्ष में सफलताओं की संभावनाएं बहुत क्षींण होती हैं, पर जो असफलता मिलती है, वह भी भव्य होती हैः
बुरे-अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित् सफलता, अति भव्य असफलता।
बुरी स्थिति वह है जहां व्यक्ति केवल आत्म चेतस हो, अच्छी स्थिति वह है जहां वह आत्मचेतस व विश्वचेतस साथ-साथ हो तथा अधिक अच्छी स्थिति वह है, जहां व्यक्ति केवल विश्वचेतस हो जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति का लोप हो जाना चाहिए। ऐसी भ्रांति है, जिसे दुनिया भर के कई प्रगतिवादी चिंतकों ने प्रगतिवादी धारणा के रूप में व्यक्त किया है किंतु मुक्तिबोध प्रगतिवादी होने के साथ-साथ एक खुली दृष्टि भी रखते थे। उसी दृष्टि के आधार पर यह मानते थे कि व्यक्तित्व से संपन्न होना तथा व्यक्तिवादी होना ये दो अलग स्थितियां हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि व्यक्तित्वहीन व्यक्ति आन्दोलन के लिए संपदा नहीं बल्कि बोझ हैं। उन्हें अफसोस है कि ब्रह्मराक्षस से वे उस समय नहीं मिल सके, जब वह भयानक आत्म संघर्ष से गुजर रहा था, नहीं तो वे उसे उसके व्यक्तित्व का महत्व समझा पाते और उसकी आत्मभ्रांति को दूर कर पातेः
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि,
तो व्यथा उसकी स्वयं जी कर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य,
उसकी महत्त, वह उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व।
मुक्तिबोध शोधक की एक और सीमा का उल्लेख करते हैं। वह सीमा यह है कि ब्रह्मराक्षस चिंतन तो करता रहा, लेकिन जनसंघर्ष में सक्रिय प्रतिभागिता से बचता रहा। यदि व्यक्ति कर्मों के स्तर पर निष्क्रिय हो तो अति सक्रिय बुद्धि भी व्यर्थ हो जाती है। मुक्तिबोध ने यह भी स्पष्ट किया कि अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा न कर पाने की बैचेनी ब्रह्मराक्षस को प्रेतयोनि में भी बेचैन किये हुए हैं। कविता में अपराध बोध भी बहुत ही मार्मिक व्यंजना की गई है, जिससे ब्रह्मराक्षस की प्रतिबद्धता और अधिक व्यक्त होती हैः
तन की मलिनता, दूर करने के लिए प्रतिपल, पापछाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने, ब्रह्मराक्षस, घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर
बॉह-छाती-मुंह-छपाछप, खूब करते साफ
फिर भी मैल, फिर भी मैल!
कविता के अंत में ब्रह्मराक्षस की युक्ति की भी चर्चा की गई है। मिथकीय पद्धति से ब्रह्मराक्षस की मुक्ति योग्य शिष्य के माध्यम से ही हो सकती है। यदि कोई योग्य शिष्य ब्रह्मराक्षस का ज्ञान प्राप्त कर ले तो ब्रह्मराक्षस की मुक्ति हो सकती है। अपनी कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ में मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस से कहलवाया है कि ‘तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का लाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया, अब यह मेरा उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया गया ज्ञान तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।" कविता के अंत में मुक्तिबोध इस दायित्व को स्वयं निभाना चाहते हैं। वे ब्रह्मराक्षस के शिष्य बनना चाहते हैं, उतनी ही प्रतिबद्धता के साथ।
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य
उसकी वेदना का स्रोत संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुंचा सकूं।
शिल्पपक्षः नई कविता में मुक्तिबोध जटिल शिल्प संरचना के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं और इसका मूल कारण उनके विचारों और अनुभवों का जटिल और द्वंद्वात्मक होना है। मुक्तिबोध शिल्प को रचना की एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके यहां शिल्प सहज रूप का मसला नहीं है, वरन् यथार्थ के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया है। मुक्तिबोध शिल्प के प्रति अत्यंत जागरूक और सचेष्ट कवि हैं। प्रगतिवादी रचनाकारों के विपरीत उनका शिल्प विधान अपनी संरचना में जटिल, बहुआयामी और रहस्यमय दिखाई देता है।
भाषाः मुक्तिबोध सीधी सपाट और सामान्य भाषा के साथ उसका एक बेहद जटिल और तत्समी रूप की रचना करते हैं। सरसता या सपाटता और जटिलता का सह-अस्तित्व मुक्तिबोध की काव्य भाषा की पहचान है। इसलिए उनकी भाषा में एक विशेष प्रकार की अनगढ़ता और उसी अनुपात में उतनी ही अनुशासन-प्रियता दिखायी है। वे भाषा के प्रति संयम व संवेदनशील कवि हैं। वे कविता की भाषिक संरचना में अनुभूति की सत्ता को निर्णायक मानते हैं। उनकी भाषा का विधान खुला हुआ है। उसमें संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, तद्भव और देशज शब्दों के सहारे हिंदी भाषा की सीमाओं का विस्तार किया गया है। मुक्तिबोध की काव्य भाषा का स्रोत परिवेश का वह यथार्थ संसार है, जिसमें कवि रहता है। भाषिक कृत्रिमता के स्थान पर कथ्य और अनुभव को अधिक संप्रेषणीय बनाने वाली जीवन भाषा के प्रयोग पर बल देते हैं। यथाः देशज
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे श्वेत
काव्यरूपः ब्रह्मराक्षस एक छोटे आकार की लंबी कविता है। नई कविता के दौर में लंबी कविताओं में एक नये विधान का विकास हुआ, जिन्हें ‘वस्तुपरक लंबी कविताएं’ कहा गया। ये कविताएं वास्तविक समस्या का संपूर्णता में विश्लेषण करने के प्रयास में लंबी हो जाती है। मुक्तिबोध के ही शब्दों में -फ्यथार्थ के तत्व परस्पर गुंफित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है......यही कारण है कि में छोटी कविताएं लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं, वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं।" यह कविता कवि की अन्य लंबी कविताओं की तुलना में छोटी है। इसमें एक रचनात्मक संयम और कथा का एक अखंड निर्वाह दिखाई देता है।
बिम्बः मुक्तिबोध को डरावने बिम्बों का कवि कहा गया है। उनकी कविताएं प्रकृति और परिदृश्य की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। अपनी बिम्ब योजना को एक कलात्मक सुघड़ता के बिंदु पर नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की भयावहता, रहस्यमयता और रोमांच के बिंदु पर निर्मित करते हैं। उनकी बिंबों में प्राकृतिक दृश्य हैं, जंगली वातावरण, खंडहरों, सन्नाटे और भय का सघन उपस्थिति दिखाई देती है। गतिशील दृश्य बिंब का उदाहरण निम्न हैः
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर
बांह-छांती, मुं-छपाछप
खुब करते साफ
प्रतीकः सामान्यतः पुराने प्रतीकों का प्रयोग किन्तु अर्थ नया है। एक साथ बहुत पुराना और अर्थ के स्तर पर बहुत नए प्रतीक हैं। ब्रह्मराक्षस पुराना शब्द है, किन्तु उसका प्रतीकात्मक अर्थ नया है। उसका अर्थ बौद्धिक है। अपने अस्तित्व में जितना आदिम है, अपने अर्थ में उतना ही आधुनिक है। बावड़ी- अवचेतन, मैल, अपराध बोध, सीढि़यां विचारों एवं परम्पराओं का प्रतीक है।
फैंटेसीः ब्रह्मराक्षस कविता शुरू से लेकर अंत तक फैंटेसी पर आधारित है। यह मुक्तिबोध की कविताओं की सबसे चर्चित विशेषता रही है। मनोविज्ञान में वि श्रृंखलित स्वप्न को फैंटेसी कहते हैं। मुक्तिबोध ने जटिल, बहुआयामी एवं प्रगतिशील यथार्थ को सघनता से पकड़ने के लिए फैंटेसी शिल्प का प्रयोग किया है। इससे वे वास्तविकता के अनावश्यक वर्णन के चित्रण से बच सकें और अपनी बात को सीधे-सीधे व्यक्त कर पायें। उदाहरण के लिए कविता में पूंजीवाद युग की वास्तविकता का अंकन करने के लिए उन्होंने बिना किसी भूमिका के सीधे पूंजीवादी स्थिति को व्यक्त कियाः
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
..... लाभकारी कार्य से धन
व धन में से हृदय मन,
और, धन अभिभूत अन्तःकरण में से,
सत्य की झांई
निरन्तर चिलचिलाती थी।
ब्रह्मराक्षस में फैंटेसी के तत्वों, नाटकीयता, रहस्यात्मकता, तनाव, अचानकता आदि का भी सुन्दर निर्वाह हुआ है। ब्रह्मराक्षस कविता की शुरूआत ही एक नाटकीय दृश्य से होती हैः
‘शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
परिव्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी,
ठंडे अंधेरे में .....।
छन्दः नई कविता के अन्य कवियों की तरह मुक्तिबोध के रचना विधान पारम्परिक छन्दों का निर्वाह नहीं किया गया है। यह आरोप भी है कि उनमें गद्य की नीरसता और अनगढ़ता मौजूद है। लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं में लय की एक स्वाभाविक गति है, जो छन्द के अभावों की पूर्ति करती है। इस दृष्टि से ब्रह्मराक्षस कविता और लय के आपसी संबंधों का एक मानक प्रतिमान हो सकती है।
इस प्रकार संवेदना और शिल्प की दृष्टि से ब्रह्मराक्षस कविता, नई कविता की एक महत्वपूर्ण धरोहर है।
Question : वर्तमान सामाजिक संदर्भों में कबीर के काव्य की प्रासंगिकता पर विचार कीजिए।
(2002)
Answer : कबीर का व्यक्तित्व न केवल हिन्दी संत कवियों में अपितु पूरे हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। हिन्दी साहित्य के लगभग बारह सौ वर्षों के इतिहास में तुलसीदास को छोड़कर इतना प्रभावशाली और महिमामंडित व्यक्तित्व दूसरे कवि का नहीं है। वह हिन्दुओं के लिए ‘वैष्णव भक्त’, मुसलमानों के लिए ‘पीर’ सिक्खों के लिए ‘भगत’ कबीर पंथियों के लिए ‘अवतार’ आधुनिक राष्ट्रवादियों के लिए ‘हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य विधायक’ और ‘समाज सुधारक’ नव वेदांतियों के लिए ‘मानवधर्म-प्रवर्तक’, प्रगतिशील तत्वों की दृष्टि से कमजोर वर्ग के पक्षधर, क्रांतिकारी और समता, बंधुत्व-भावना, न्याय तथा एकता के प्रतिपादक के रूप में मान्य है। प्रत्येक कवि युगीन परिस्थितियों से प्रभावित होता है। साहित्य और जीवन का अविच्छिन्न संबंध है। कवि समाज को प्रभावित करता है और उससे प्रेरणा भी ग्रहण करता है। कबीर के काव्य में तत्कालीन सांस्कृतिक, धार्मिक सामाजिक शक्तियों का प्रभाव है। कबीर सामाजिक और धार्मिक दुरावस्था के काल में पैदा हुए थे। उस समय का धार्मिक जीवन पूर्णतः बाह्याचारों एवं नामाचारों की गिरफ्रत में था। व्यक्ति मोक्ष का निर्वाण की चिंता में लगे रहने के कारण अपना सामाजिक संदर्भ खो चुका था। उसका लक्ष्य ही था, जन्म और मरण से मुक्त होना। इसलिए उसकी संकल्पना विकसित न होने के पीछे यही प्रवृत्ति काम कर रही थी।
कबीर एवं उनके समकालीन संतों की वाणी में तत्कालीन सामाजिक यथार्थ का जो परिचय मिलता है, उससे साफ है कि राजनीति और अर्थ की प्रधानता उस समय तक स्थापित नहीं हुई थी। यदि कहीं राजनीति थी भी, तो धार्मिक राजनीति ही थी। उस समय के समाज में जितनी विषमताओं के ऊंच-नीच के दर्शन होते हैं, वे उस समय के धर्म के द्वारा ही प्रेरित हैं। ‘धर्म’ शब्द का पहले चाहे जो भी अर्थ रहा हो, कवि के जमाने में उसका स्वरूप सांप्रदायिक हो गया था। धर्म का भाव न तो मनुस्मृति के ‘आचार प्रभावोधर्म’ की प्रसिद्ध परिभाषा के अनुसार कर्तव्य पालन समझा जाता था और न महाभारत के श्लोक ‘धारणार्द्धयः इत्याहुः धर्माेधारयते प्रजा’ के ही अनुकूल था। कबीर से कुछ शताब्दी पूर्व ‘शास्त्र एवं लोक के बीच द्वंद्व की पहल नाथों एवं सिद्धों ने की थी, पर आगे चलकर वे भी संकीर्ण आचारों में उलझ गये। वस्तुतः सारी सामाजिक व्यवस्था, अंतर्विरोधों, रूढि़यों से जर्जरित होकर दिशाहीन हो गई थी। कबीर इन्हीं परिस्थितियों के बीच उत्पन्न हुए थे। इसलिए उन्होंने अंधविश्वासों, रूढि़यों एवं सामाजिक विषमताओं के विरोध में तूफानी अभियान चलाया था। इसी विषय पर कुछ विद्वान उन्हें समाज सुधारक की संज्ञा दी। कबीर ने जोरदार शब्दों में एकता-विघातक तत्वों की खिल्ली उड़ाई, पर उन्हें मात्र हिन्दू-मुस्लिम एकता का मसीहा मानना उनके मूल प्रतिपाद्य से लोगों की नजर हटाकर उसके उपजात को ही कबीर की रचना का लक्ष्य बताना है।’
कबीर की रचनाएं समाज सुधार की प्रेरणा देती हैं, उनमें सर्वधर्म समन्वय का मूल मंत्र छिपा है, बावजूद इसके कबीर न तो उस अर्थ में समाज सुधारक थे और नही सर्वधर्म समन्वयकारी। जिन अर्थों में लोग उन्हें इन कठघरों में बैठाना चाहते हैं। सर्वधर्म समन्वय के लिए जिन बुनियादी शर्तों की आवश्यकता हो सकती है, वे कबीर में मौजूद हैं- वे हैं वाह्याचारें से मुक्ति, संप्रदायवाद से घृणा, ईश्वर के प्रति अहैतुक प्रेम एवं मनुष्य मात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझाया। किंतु आज सर्वधर्म समन्वय का जो अर्थ लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के वाह्यचारों और संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना ही और सब आचारों-संस्कारों को सम्मान की दृष्टि से देखना ही सर्वधर्म समन्वय का भाव समझा जाता है। कबीर इस भाव के प्रबल विरोधी थे। निरर्थक आचार एवं रुढि़यों से उन्हें बेहद चिढ़ थी, चाहे वे किसी अवतारी पुरुष या पैगंबर द्वारा ही प्रवर्तित क्यों न हो। कबीर अपनी राह पर चलते थे। उनकी राह न हिन्दू की थी, न मुसलमान की।
जोगी माते धरिजोग ध्यान, पंडित माने पढि़ पुरान।
तपसी माते तप के भेव, सन्यासी माने करि हमेव।
मोलना माते पढि़ मुसाफ, काजी माते दे निसाफ।
कबीर यह देखकर अत्यंत क्षुब्ध थे- कि धर्म के नाम पर पूरा समाज पाखंड और वाह्याचार से ग्रस्त था। योगी योग में ध्यान लगाकर उन्मत्त थे, पंडितों को पुराण का अहंकार था, तपस्वी तप के अहंकार में डूबे थे, संन्यासियों को अहंकार की सिद्धि का गर्व था, मुल्ला को कुरान पढ़ने का ही नशा था और काजी को न्याय करने का गर्व था। वस्तुतः सभी मोहग्रस्त थे, सब मार्ग से भटक रहे थे। सारा समाज मिथ्या-प्रपंच में अनुरक्त था, कोई सत्य सुनने वाला नहीं था, उनका झूठे वचनों और आश्वासनों में ही विश्वास था, चतुर्दिक ‘झूठहि लेना, झूठहि देना, झूठहि भोजन, झूठ ....’ का साम्राज्य था। कबीर ने ऐसे लोगों को देखा था जो नियम और धर्म का आडंबर करते थे, नित्यप्रतिदिन प्रातः उठकर स्नान करते थे, किंतु चैतन्य आत्मा का तिरस्कार कर निर्जीव पत्थर की पूजा करते थे। उनमें केवल ऊपरी कर्मकांड था, भीतर से वे शून्य थे। यथा-
संतो देखत जग बौराना।
सांच कहां तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असना।
आतम मारि परवानहिं पूजै, उनमें कछु नहीं ज्ञान।।
आगे वे कहते हैं-
टोपो पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सबदी गावत भूले, आतम खबरि न जाना।।
कबीर के समय एक ओर साधु-संयासियों की मंडली धर्म के नाम पर पाखंड और मिथ्याचार को बढ़ावा देकर सामान्य जन को दिग्भ्रमित कर रही थी तो दूसरी ओर सारा समाज वर्ण-व्यवस्था और जातिगत श्रेष्ठता की हीनता में जकड़बंदी का शिकार हो रहा था। वर्ण-व्यवस्था पर प्रतिष्ठित सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण सर्वोपरि था। वह धर्मशास्त्र का नियामक था। उसने सभी वर्गों के लिए कार्य विभाजन करके अपने लिए अध्ययन-अध्यापन, यज्ञानुष्ठान आदि सुरक्षित खेल समाज का उच्चतम स्थान न केवल सुरक्षित कर लिया था अपितु भूदेव बनकर शेष समाज को अपना अनुयायी बना लिया था। ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ, जिसके बाद क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को स्थान दिया गया। समाज के निम्न वर्गों के प्रति भेद-भाव बरता जाने लगा। कुछ जातियों को अस्पृश्य मानकर घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। तथाकथित शूद्रों के लिए वेदाध्ययन और मंदिर प्रवेश आदि धार्मिक कृत्य भी वर्जित कर दिये गये। उन्हें अछूत की संज्ञा दे दी गयी। उन्हें सामाजिक-धार्मिक अधिकारों से वंचित किया गया, आर्थिक दृष्टि से भी उनका भरपूर शोषण किया गया। यही नहीं, उनपर अनेक प्रकार के अत्याचार भी प्रारंभ हो गए। कबीर लकीर पर चले नहीं, वरन् नवीन लकीर का निर्माण किया। उन्होंने जन्मगत श्रेष्ठता को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया और कहा कि यदि सृष्टा के मन में वर्ण-व्यवस्था होती तो वह मानव को जन्म देते ही ब्राह्मण के मस्तक पर तीन चिह्नों को तिलक क्यों नहीं लगा देता अतः वर्ण व्यवस्था नैसर्गिक नहीं है। वह मानवकृत है। यदि ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ है अर्थात् यदि निर्सगतः ब्राह्मणी से ही उत्पन्न है तो वह अन्य जातियों से भिन्न किसी विशिष्ट मार्ग से क्यों नहीं उत्पन्न हुआ? यदि तुर्क तुर्किनी से जन्म लेने के कारण ही अपने को विशेष वर्ग का समझता है तो गर्भ में ही उसका खतना क्यों नहीं हो गया? वस्तुतः जन्म से कोई न नीचा है, न उच्च।
जापै करता बरन विवारै।
तौ जनतै तीनि डांडि किन सारै।।
जौ तू बांभन बभनी जाया, तौ आन बाट होइकाहेन आया।
जे तू तुरुक तुरुकिनी जाया, तौ भीतरी खतना क्यूं न कराया।।
कहै कबीर मद्धिम न कोई, सो मद्धिम जा मुखि राम न होई।।
इसी प्रकार कबीर ने छूआछूत का विरोध किया, क्योंकि सारे जगत की उत्पति पवन, जल, मिट्टी आदि पंचभूतों से हुई है। इनका सृष्टा एक ही ब्रह्म है। सभी में एक ही ज्योति समान रूप से व्याप्त है, खेल भौतिक शरीर के द्वारा नाम रूप का भेद है।
ऊंच-नीच है मधिम बानी, एकै पवन एक है पानी।
एकै मटिया एक कुम्हारा, एक सभन्हि का सिरजनहारा।।
इसी प्रकार कबीर ने वाह्य कर्मकांडों पर प्रहार किया। इसके लिए कबीर के लिए सभी धर्म एक समान थे। उन्होंने हिन्दुओं के मूर्तिपूजा की भर्त्सना की तो दूसरी ओर मुसलमानों की नमाज की। यथाः
कंकर-पत्थर जोरि कै, मसजिद लियो बनाय।
तौ चढि़ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।
पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार।
कबीर ने संसार की नश्वरता को पहचाना, इसीलिए विलासिता भोगवाद का तीखा विरोध उनके नाम में मिलता है। उन्होंने ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय’ में विश्वास जताया। उन्होंने संसार की नश्वरता के लिए कहा हैः
पानी फेरा बुदबुदा, इसी हमारी जात।
देखता ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
निर्ष्कषतः कबीर की निर्भयता, आत्मविश्वास, प्रेम व शान के मिश्रित दृष्टिकोण, शास्त्रें एवं कर्मकांडों के विरोध अनुभवाधारिता अभिव्यक्ति तथा सामाजिक चेतना ने निस्संदेह उन्हें युग प्रवर्तक के रूप में स्थापित किया है। कबीर ने अपने युग में जीते हुए जिन समस्याओं को उठाया है, वे कालजयी हैं, उनकी प्रासंगिकता आज के युग में बढ़ गई है।
Question : चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा।
साजा बिरह दुंद दल बाजा।
धूम स्याम धौरे घन धाए।
सेत धुजा बगु पांति देखाए।
खरग बीज चमकै चहुं ओरा।
बुंद बान बरिसै घन घोरा।
अद्रा लाग बीज भुइं लेई।
मोहि पिय बिनु को आदर देई।
(2002)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत प्रबंधकाव्य के नागमती वियोग खंड से उघृत है। कवि ने नागमती के विरह विरह वर्णन को मार्मिक बनाने के लिए बारह मासे का सहारा लिया है। प्रत्येक ऋतु का प्रभाव विरहिणी पर मार्मिक पड़ता है। जायसी ने इस बारह मासे का प्रारंभ आषाढ़ माह से किया है।
व्याख्याः आषाढ़ मास में बादलों ने गरजना आरंभ कर दिया। इसी मास में विरह का दुख भी अधिक बढ़ गया। धुंधले और श्वेत रंग के बादलों से आकाश भर गया। चारों ओर बादलों के बीच बगुलों की पंक्ति इस प्रकार लग रही थी, मानो श्वेत पताका लगी हो। आकाश में चमचमाती हुई बिजली तलवार चमकने जैसी लग रही है। वर्षा होने पर प्रतीत होता है कि चारों ओर से बाण चल रहे हों। आद्रा नक्षत्र के लगते ही बिजली चमकने लगती है और वर्षा प्रारंभ होने लगती है। ऐेसे वातावरण में नागमती को पति का वियोग बहुत अखरता है, क्योंकि वह सोचती है कि पति के बिना इस मौसम में और भला मुझे कौन आदर देगा? वस्तुतः विरह में प्रिय चीज भी और अधिक कष्ट प्रदान करती है, क्योंकि प्रिय चीज प्रियतम की याद दिलाती है। चूंकि प्रियतम नागमति के पास नहीं है, अतः ये उत्तेजित वातावरण नागमती के वियोग को और अधिक बढ़ा रही है।
विशेषताः 1. जायसी का बारहमासा वर्णन नागमती के वियोग वर्णन के उद्दीपन रूप में मिलता है।
2. जायसी से पूर्व भी संस्कृति कवि कालिदास ने विरह के लिए बारहमासा का प्रयोग किया है।
3. प्रस्तुत पद्यांश विप्रलंभ श्रृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसका स्थायी भाव रति है।
4. प्रस्तुत पद्यांश में माधुर्य गुण है।
5. अवधी भाषा का परिष्कृत रूप प्रयुक्त हुआ है।
6. अवतरण में सांगरूपक अलंकार है।
Question : अंग-अंग नग जगमगत, दीपसिखा-सी देह।
दिया बढ़ाएं हूं रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।
पत्र ही तिथि पाइयै, वा घर के चहूं पास।
नितप्रति पून्यौईं रहै, आनन-ओप उजास।।
(2002)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत अवतरण बिहारी सतसई से ली गई है। इसकी रचना बिहारी कवि ने की है, जो हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। प्रस्तुत अवतरण में नायिका की सखी, नायिका की छवि प्रशंसा नायक से करती है, साथ ही उसके मुख की प्रशंसा भी करती है।
व्याख्याः उस नायिका की दीपशिखा सी चमकने वाली देह के द्वारा अंग पर धारण किए हुए आभूषणों के नग सदा जगमगाते रहते हैं, इसीलिए उसके घर में दीपक बुझा देने पर भी प्रकाश रहता है।
जिस घर में बहुत से दर्पण लगे रहते हैं, उसमें एक ही दीपक रखने से सब दर्पणों में उसका प्रतिबिंब पड़ने के कारण बहुत प्रकाश हो जाता है, उसी प्रकार नायिका की सौंदर्य की आभा आभूषणों पर पड़ने से जगमगा उठती है, उसे देखने के लिए दीपक की भी आवश्यकता नहीं रहती है, अर्थात् नायिका अति सुंदर है। आगे कवि नायिका के मुख के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए कहता है कि तिथि के जानने के दो साधन हैं, एक तो तिथि के पत्र और दूसरा चंद्रमा के उजास होने का समय। पर नायिका के घर के आसपास केवल तिथिपत्र से ही तिथि जानी जाती है, क्योंकि वहां तो मुख की चमक के उजाले से नित्यप्रति पूर्णिमा ही रहती है। अर्थात् रातभर चांदनी का सा प्रकाश रहता है। जिससे किस समय चांदनी का उजाला आरंभ हुआ, यह लक्षित नहीं होता।
विशेषताः 1. ‘दीपसिखा-सी’ में धर्म वाच्य न होने से धर्म लुप्तोपमा अलंकार है।
2. देह में दीपक के प्रकाश के आने का वर्णन होने के कारण तद्गुण अलंकार है।
3. नवयौवन का आगमन होने से मुग्धा नायिका का वर्णन है।
4. यहां आकाशवासी चन्द्रमा का निषेध करके उसे नायिका के मुख के स्थान पर स्थापित करने से परिसंख्या अलंकार है।
5. यहां पत्र से ही तिथि जानने का कारण बताये जाने से काव्यलिंग अलंकार है।
6. प्रथम दो पंक्तियों में मदकल (अक्षर, 35, गरु 13, लघु 21) छंद हैं।
7. साभ्यता- कुहूनिस तिथि पत्र में, वाचन कौ रद्वि जाइ।
तव मुख-ससि की चांदनी, उदै करत है आइ।
Question : ‘कामायनी’ में चित्रित मानव सभ्यता के विकास की विभिन्न स्थितियों और समस्याओं का विवेचन कीजिए।
(2002)
Answer : ‘कामायनी’ का प्रस्थान बिंदु वस्तुत काव्य रचना की एक मूल्य व्यवस्था से दूसरी रचना मूल्य व्यवस्था में प्रवेश का सूचक है। इसमें न सिर्फ मुक्तकों वाली एक भाव स्थिति के बजाय मनुष्य और परिस्थिति के घात-प्रतिघात से बनने वाली कथात्मक घटना क्रम है वरन् इस महाकाव्य की शुरुआत श्रृंगार के बजाय चिंता से होती है। यह चिंता वास्तव में पहले के काव्य और भद्र समाज में निहित एक मूल्य-व्यवस्था को लेकर है, जिसमें नित्य निर्बाध भोग-विलास, उद्दाम वासना, श्रृंगार, सुरा-सुंदरी और सुरमय जीवन में डूबी निष्क्रियता, दंभ और क्रूरता से युक्त अमरता का भ्रम आदि सब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। ऐसे चरणों से धरती प्रतिदिन आक्रांत होकर थर-थर कांपती थी। ‘चिंता’ सभी में एक मूल्य व्यवस्था के ढ़ह जाने का, उसके परिणाम का दुख तो है-
गया सभी कुछ मधुरतम
भरी वासना सरिता को वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह
प्रलय जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।
साथ ही उसकी तार्किक परिणति की समझ भी है-
"क्यों न विश्रंखल होती सृष्टि।"
निर्बाध भोग-विलास और वासना की बहती सरिता, दंभ तथा अमानवीयता की तार्किक परिणति है- सृष्टि का ‘विश्रृंखल’ होना। ‘कामायनी’ में एक मूल्य व्यवस्था के परिणाम का जो गहरा दुख है उसमें उस मूल्य व्यवस्था रचना व्यवस्था की समीक्षा छिपी हुई है और चिंता वास्तव में उसे बचाने की नहीं है वरन् उसके कारणों की खोज है। मनु जब पुरानी मूल्य व्यवस्था के कारणों और उसकी तार्किक परिणति को जान लेता है तो उसमें फ्शांति और जागरण चिह्न सा लगा धधकने अब फिर से।"
तथा काम की ‘अयादि वासना’ नवीन होकर जाग उठती है। यह ‘काम’ पुरानी काम वासना का पयार्य नहीं वरन् उसका रूप अत्यंत व्यापक है। श्रद्धा काम-गोत्रजा है, इसलिए उसका एक नाम कामायनी भी है। वह लोकमंगल की भावना का पर्याय भी है-
‘वह कामायनी जगत की
मंगल कामना अकेली।’
श्रद्धा काम-भावना उत्पन्न करते हुए मनु के हताश मन में रागपूर्ण आत्म विश्वास का संचरण करती है। वह उसे कर्म के लिए प्रेरित करती है-
दुख के डर से तुम अज्ञात
जटिलताओं का कर अनुमान
काम से झिझक रहे हो आज
भविष्यत से बनकर अनजान।
श्रद्धा स्पष्ट करती है कि ‘यह विश्व कर्मरंग स्थल है’ और इसमें ‘कर्म यज्ञ से जीवन के/सपनों का स्वर्ण मिलेगा।’ चह मनु को ‘कर्म का भोग/भोग का कर्म।’ नामक दर्शन सिखाती है और उसे ललकारती है-
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो
विश्व में गुंज रहा जयगान।’
‘कामायनी’ में मनु देव लोक की तुलना में मानव लोक की सृष्टि करते हैं। श्रद्धा और इड़ा इस कार्य में उनकी सहायता करती है, यह सृष्टि देव-सृष्टि से आगे बढ़ी हुई सृष्टि हो इसमें मनुष्य कर्म का सर्वाधिक महत्व हैः देव-सृष्टि में कर्म हीनता है। यहां ‘अखिल मानव भावों का सत्य। विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित है।’ देव सृष्टि काफी हद तक एकायामी है, लेकिन मानव सृष्टि बहुआयामी। उसमें न सिर्फ भावों विचारों की संश्लिष्ट बहुविध व्यवस्था होती है वरन् वह अपने बाह्य रूपाकार में भी संश्लिष्टता और बहुआयमिता से मुक्त होती है। कामायनी में न सिर्फ श्रद्धा, मन, इड़ा और प्रजा की विविध भावनाओं एक-एक भाव के साथ अनेक अनुभावों की व्यवस्था की अभिव्यक्ति है वरन् ग्राम समाज, साम्राज्य स्थापना के क्रम में नगर, विभिन्न कर्म और विभिन्न वर्ण अथवा वर्गों की बहुविध उपस्थिति है। नवजागरण मानववाद की प्रतिष्ठा को यहां आसानी से देखा जा सकता है। वास्तव में जहां से देव सृष्टि खत्म होती है, वहीं से मानव सृष्टि की शुरुआत होती है। श्रद्धा कहती है-
"देव असफलताओं का ध्वंस
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज
पड़ा है वन मानव संपत्ति
पूर्ण हो मन का चेतन राज।"
मनुष्य के इस चेतना के राज में वह प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करती हुई संपूर्ण जीवन जगत में अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाएगी और इस तरह मानवता की विजय होगी-
"शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त
विरल बिखरे पड़े हैं, हो निरुपाय
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय।"
वास्तव में, मानवता के विजय की कामना और देव सृष्टि के ध्वंसावशेषों पर मानव-सृष्टि की प्रस्तावना है कामायनी। मानव की संस्कृति देव-संस्कृति की तुलना में न सिर्फ इसलिए श्रेष्ठ है कि यह बहुआयामी और विविधता लिए हुए है कि उसमें कर्मशीलता की प्रधानता है वरन् इस रूप में भी श्रेष्ठ है कि वह मूल्यों से युक्त है। इसमें सिर्फ अपना सुख मुख्य नहीं है, वह सुख-संकीर्ण नहीं है, इसमें सबको सुखी बनाकर अपने सुख को व्यापक संकीर्णता के बजाय विस्त्रृत बनाने की अवधारणा पर बल है-
"औरो को हंसते देखो मनु
हंसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तुत कर लो
सबको सुखी बनाओ।"
दूसरों को सुखी बनाना ‘श्रृंगार’ और ‘रति’ के जरिये संभव नहीं है जो देव संस्कृति का ‘श्रृंगार’ और ‘रति’ कामायनी में अपना मानवीय आकार ग्रहण करता हुआ परिवर्तित होकर ‘प्रेम’ और ‘लज्जा’ बन जाता है- यह गुणात्मक परिवर्तन है। इसी तरह देव सृष्टि की अंधता यहां चेतनता और बुद्धि में इड़ा में परिवर्तित हो जाती है। इस तरह मनाव संस्कृति चेतना, बौद्धिकता, प्रकाश और ज्ञान-विज्ञान पर आधारित है।
लेकिन मानव सृष्टि का सहज सुख अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। किलात और आकुसि नामक दो असुर पुरोहित उस विप्लव से बच निकले थे- "असुर पुरोहित उस विप्लव से, वे किलात आकुलि थे।" वे मनु के पास आये और उन्होंने मनु को पशु-बलि के लिए उकसाया तथा मनु की सुप्त वासना को जगाया। वह समझने लगा- ‘आकर्षण से भरा विश्व यह, केवल भोग्या हमारा।’ श्रद्धा के समझाने पर भी मनु की समझ में कुछ नहीं आया और वह भोग-विलास तथा अधिकार सुख की लालसा में सारस्वत प्रदेश में आ पहुंचा। यहां पहुंचकर देव और असुर संस्कृतियों का द्वंद्व जैसे उसके भीतर ही समा गया-
मुझमें ममत्व आत्ममोह स्वातंत्रयमयी उच्छृंखलता
हो प्रलय मीत तन रक्षा में पूजन करने की व्याकुलता
वह पूर्व द्वंद्व परिवर्तित हो मुझको बना रहा अधिक दीन।
इड़ा की सहायता से सारस्वत प्रदेश का निर्माण करने के उपरान्त मनु भोग-विलास में डूब गए तथा सब कुछ पर अधिकार कर लेने की वृत्ति ने उन्हें इड़ा पर भी पूर्ण अधिकार के लिए प्रेरित किया, जनता पर उन्होंने तो पहले ही अधिकार कर लिया जिन पर मनु अत्याचार करते थे। इसका परिणाम हुआ प्रजा विद्रोह और प्रकृति क्षोभ। युद्ध में मनु घायल हो बेसुध हो गए। फिर श्रद्धा आयी और उन्हें कैलाश पर्वत पर ले गयी तथा पृथ्वी पर राज्य करने के लिए अपने पुत्र मानव को इड़ा के पास छोड़ गयी। मानव का इड़ा के साथ होना इस बात का संकेत है कि मानव-संस्कृति में सहृदयता और चेतना का सुखद संयोग रहता है, उसमें कर्म का महत्व होता है और सबकी चिंता का मानवीय मूल्य। मनु में जब आसुरी वृत्ति जगी तो वह न सिर्फ सबको अपने भोग का साधन समझने लगा था वरन चेतना को भी अस्वीकार करने लगा था। उसकी समझ थी कि यह विश्व उसी समय हमारा ‘भोग्य’ बन सकता है ‘जिस क्षण भूल सकें हम अपनी, यह भीषण चेतनता।’’ जैसे इसी धारणा का विरोध करते हुए श्रद्धा मानव से कहती है-
यह (इड़ा) तर्कमयी तू श्रद्धामय
तू मननशील कर कर्म अभय,
इसका तू सब संताप निचय
सब की समरसता कर प्रचार
मेरे सूत! सुन मां की पुकार।
यानी कामायनी में जिस मानव संस्कृति की अभिव्यक्ति की ओर प्रसाद जी ने संकेत किया है वह देव और असुर संस्कृतियों की तुलना में न सिर्फ विशिष्ट और श्रेष्ठ है वरन् वह एक पूर्ण संस्कृति भी है, जिसमें शरीर सुख और व्यक्तिगत अधिकार का हित के बजाय करुणा और समाज हित के सरोकार प्रमुख हैं। यानी यह संस्कृति आत्म-सुख की आकांक्षा में दूसरों पर अन्याय, अत्याचार में लीन रहने के बजाय करुणा ओर जन-कल्याण जैसे मूल्यों की सृष्टि करता है।
Question : चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है,
युधिष्ठिर! स्वत्व की अन्वेषणा पालक नहीं है।
नरक उनके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं,
न उनके हेतु जो रण में उसे ललकारते हैं।
(2002)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत अवतरण राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित ‘कुरूक्षेत्र’ के चतुर्थ सर्ग से उघृत है। इस पद्यांश में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को युद्ध, उसके मूल कारण एवं पाप और पुण्य आदि प्रश्नों का समाधान करते हुए कहते हैं कि-
व्याख्याः जो व्यक्ति न्याय छीनता है, अत्याचार करता है, दूसरे का अधिकार लूटता है, वस्तुतः वही युद्ध का मूल कारण होता है। अपने अधिकारों को प्राप्त करना कोई पाप नहीं होता। जो सत्य और न्याय के लिए युद्ध करते हैं, वे नरक में नहीं जाते, अपितु अन्याय और अत्याचार को स्वीकार कर उसे युद्ध में चुनौती देते हैं, वे तो स्वर्ग के अधिकारी होते हैं।
महाभारत के प्रसंगानुसार दुर्योधन छल-प्रपंच से पाण्डवों का राज्य छीन लेते हैं, इसी कारण भीष्म पितामह युधिष्ठिर को न्याय के लिए युद्ध करने को प्रेरित करते हैं।
विशेषताः 1. उपरोक्त पंक्तियों में मानव के सहज शांति प्रेम युद्ध और अन्याय की मूल प्रकृतियों एवं मानव के सहज कर्तव्य का यथार्थ चित्रण किया गया है।
2. अत्याचार सहने वाला और करने वाला दोनों ही पापी हैं, किंतु अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाला स्वर्ग का अधिकारी होता है, नर्क का नहीं। भीष्म पितामह के ये विचार सभी दृष्टियों से तर्क संगत एवं यथार्थ हैं।
3. इसी प्रकार की बातें दिनकर जी कुरूक्षेत्र में अन्यत्र भी करते हैं-
"छिनता हो स्तत्व कोई और तू
त्याग तप से काम ले वह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।"
4. ‘नरक उनके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं’ में वक्रोक्ति अलंकार है।
5. प्रस्तुत अवतरण वीर रस और ओज गुण से परिपूर्ण है।
Question : ‘असाध्य वीणा’ को केंद्र में रखकर अज्ञेय की रचना दृष्टि और जीवन-दर्शन का निरूपण कीजिए।
(2002)
Answer : असाध्य वीणा की कथा का आधार जापान में प्रचलित एक लोक कथा है जो ‘ओकाफुरा’ की पुस्तक ‘द बुक ऑफ टी’ में ^Taming of the harp* के नाम से संकलित की गई है। इस कथानुसार ‘एक जादूगर ने ‘किरी’ नामक एक विशाल वृक्ष से वीणा बनायी। चीन के सम्राट ने इस वीणा को संभालकर रखा और वह चाहता था कि इसे कोई बजाए। कई कलावंताें के प्रयास के बाद भी इसको कोई भी बजा नहीं पाया। अंत में वीणाकारों के राजकुमार पीवों ने अपनी साधना के माध्यम से उस वीणा को बजाया।’ जब सम्राट ने उसकी सफलता का रहस्य पूछा तो उसने बताया कि औरों को सफलता इसलिए नहीं मिली कि वे सभी अपनी बात करते थे, जबकि मैंने स्वयं को भूलकर वीणा में निहित संगीत को जगाया। मैं स्वयं नहीं जानता था कि मैं वाद्य यंत्र हूं या वादक।
कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि इस कविता पर बौद्ध धर्म के जापानी संप्रदाय जैन बुद्धिज्म का प्रभाव है। अज्ञेय पर जैन बुद्धवाद का प्रभाव रहा है, यह बात सत्य है। इस संप्रदाय का संबंध मूलतः बौद्ध धर्म के महायानी संप्रदाय से है। जैन बुद्धवाद मानता है कि बुद्ध ने जिस संबोधि की प्राप्ति की थी, उसकी प्राप्ति किसी भी बाहरी साधन से नहीं की जा सकती। अतः बोधि की प्राप्ति के लिए सारे बाहरी अनुष्ठान निरर्थक हैं और ध्यान ही वह एकमात्र मार्ग है, जिससे बुद्ध की तरह बोधि की प्राप्ति संभव है।
किंतु, अज्ञेय की कविता इस बौद्ध धर्म के प्रभाव और कविता के बौद्ध मिथक पर आधारित होने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि अज्ञेय की कविता इस बौद्ध मिथक की नकल है, ठीक वैसे ही जैसे- ‘राम की शक्ति पूजा’ ‘रामायण’ या कृतिवास रामायणे की नकल नहीं है। मानव की सृजनात्मकता और स्वतंत्रता अज्ञेय के चिंतन के केंद्रीय बिंदु रहे हैं। यह कविता अज्ञेय को आकर्षित कर सकी तो केवल इसलिए कि यह उन्हीं मूल्यों को वहन करती है तो अज्ञेय के जीवन और चिंतन का सार है।
ध्यान देने की बात यह भी है कि कविता को पढ़ते हुए ऐसा कहीं भी महसूस नहीं होता कि यह किसी भिन्न संस्कृति संदर्भ की कविता है। इसका कारण यह है कि कविता मिथक के विशेष तत्वों पर नहीं, बल्कि उन शाश्वत मूल्यों पर ध्यान देती है जिनका संबंध प्रत्येक संस्कृति और प्रत्येक सर्जक से है और जो अपनी प्रकृति में शाश्वत है।
‘असाध्य वीणा’ अज्ञेय की प्रतिनिधि कविता है जिसके तथ्य को समझना काफी जटिल चुनौती है। कविता का मिथकीय आधार पर चलना कविता की समझ को और जटिल बनाता है।
सामान्य रूप से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि इसकी मूल संवेदना सृजन तत्व की व्याख्या करना है। नई कविता के दौर में लंबी कविताओं की यह प्रवृत्ति रही है कि वे जिस भी समस्या को लेती है, उस समस्या पर समग्र चिंतन करना चाहती है। ‘असाध्य वीणा’ में भी सृजन तत्व को समग्रता से समझने-समझने का भाव है और संभवतः इसी प्रयास में कविता लंबी हुई है। सृजन तत्व के संबंध में कविता मूल रूप से चार पक्षों पर चिंतन करती है- सृजन की अर्हता, सृजन की प्रक्रिया, सृजनात्मककता का स्वरूप और सृजन का प्रभाव।
पहले स्तर पर यह कविता सृजन की अर्हता को स्पष्ट करती है। कविता की मूल समस्या जो राजा के सामने है वह यह है कि-
‘मेरे हार गये सब जाने-माने कलावंत
सबकी विद्या हो गयी अकारथ, दर्प चूर
कोई ज्ञानी गुणी आजतक इसे न साध सका।’
इस समस्या के रूप में कविता स्पष्ट करती है कि वीणा की साधना ज्ञान व गुण के माध्यम से ही संभव नहीं है, इसके लिये किसी अन्य योग्यता की भी आवश्यकता है। ज्ञान और गुण तो प्राथमिक अर्हता है ही, किंतु सृजन का निर्णयक तत्व वह भाव भूमि है, जहां पहुंचकर साधक का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह सृजनशक्ति के सामने आत्म निवेदन के भाव से ही उपस्थित होता है। ‘प्रियवंद’ में जो अतिरिक्त गुण है, वह यही आत्म निवेदन का भाव है। उसकी अहंकार शून्यता ही उसे इस योग्य बनाती है कि वह असाध्य वीणा के रूप में विख्यात हो चुकी वीणा को साध सके-
"धीरे बोला", राजन! पर मैं तो
कलावंत हूं नहीं, शिष्य, साधक हूं-
यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही? दूसरे स्तर पर यह कविता सृजन की प्रक्रिया को व्याख्यायित करती है और इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण धारणाएं व्यक्त करती है। सृजन की प्रक्रिया का मूल संबंध अहंकार के विलयन से है। अहंकार के विलयन के लिए यह आवश्यक है कि साधक सृजनशक्ति के प्रति आत्मनिवेदन के भाव से प्रस्तुत हो। प्रियवंद इसी प्रक्रिया के माध्यम से असाध्य वीणा को साधने का प्रयास आरंभ करता है-
‘पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियवंद साध रहा था वीणा-
नहीं, स्वयं आपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी तरूको।’
यह कविता सृजन की प्रक्रिया में एक और बिंदु को उठाती है। प्रगतिवादी सिद्धांत के विपरीत इस कविता की स्पष्ट धारणा है कि सृजन की प्रक्रिया अपने आप में वैयक्तिक हो सकती है समाज-सापेक्ष नहीं। सृजन की प्रक्रिया में साधक जब सृजन शक्ति का साक्षात्कार करता है तो वह नितांत अकेला होता है।
"भूल गया था केश कंबली राज-सभा को
कंबल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था"
सृजन का उद्भव ठीक उसी बिंदु पर होता है जब प्रियवंद के संपूर्ण व्यक्तित्व का विलयन हो जाता है। व्यक्तित्व का विलयन वही कर सकता है जिसके पास सचमुच व्यक्तित्व हो। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रियंवद ज्ञान और गुण से संपन्न तो है ही, इसके बावजूद उसमें एक और क्षमता है और वह है इस विकसित व्यक्तित्व को भुला देने की क्षमता। सृजन की प्रक्रिया का अंतिम बिंदु वह है, जहां वह स्वयं को भूल गया है और यहीं से सृजन का उद्भव होता है-
"मुझे स्मरण है- पर मुझको मैं भूल गया हूं,
सुनता हूं मैं-
पर मैं मुझसे परे शब्द में लीयमान।
मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं।"
अगले स्तर पर यह कविता सृजनात्मकता के स्वरूप की व्याख्या करती है। यह कविता पश्चिमी चिंतन के अनुरूप कला को साधन के रूप में प्रतिष्ठित नहीं करती। इसके विपरीत भारतीय चिंतन की अनुरूपता में उसे ब्रह्म के समान महत्व देती है। भारतीय चिंतन में रस के आनंद को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया है और इसका मूल संदर्भ यही है कि ब्रह्म का साक्षात्कार वैसा ही आनंद देता है जैसे- कला का वास्तविक साक्षात्कार सेः
‘अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू
जिसमें सोता है अखंड
ब्रह्म का मौन
अशेष प्रभा मय।’
अंतिम स्तर पर यह कविता सृजन के प्रभाव को स्पष्ट करती है। असाध्य वीणा स्पष्ट करती है कि प्रत्येक व्यक्ति पर सृजन का प्रभाव मात्र में चाहे समान पड़ता हो किंतु प्रकृति में अलग होता है। सृजन यदि वास्तविक सृजन है तो उसका प्रभाव वैसा ही होगा जिसे लॉन्जाइनस ने सम्मोहन कारी प्रभाव कहा है, किंतु प्रभाव में डूबने के बाद आनंद की उपलब्धि प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्वधर्म के अनुकूल होगी-
‘डूब गए सब एक साथ
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।’
असाध्य वीणा में अज्ञेय ने व्यैक्तिक स्वतंत्रता को भी इस कविता में भाव दिखलाया है। अज्ञेय ने पाया कि वर्तमान काल की मूल समस्या राजनीति और विज्ञान के सर्वसत्तावादी रूप के सामने मानव का निरंतर लघुमानव के रूप में तबदील होते जाना है। यह समस्या वही है जिसे पश्चिम में अस्तित्ववादी चिंतन के रूप में स्वीकार किया गया है। अज्ञेय का मानना है कि अस्तित्ववादी मृत्युबोध और निरर्थकता बोध में फंसे मानव को सृजनात्मकता की ओर उन्मुख करना ही आज के कवि का सबसे बड़ा उद्देश्य है। असाध्य वीणा में अज्ञेय ने अस्तित्ववादी अनास्था या ‘न कुछ’ को भारतीय चिंतन की आस्था या ‘सब-कुछ’ से तोड़ा हैं रामस्वरूप चतुर्वेदी का कहना है- ‘न कुछ’ से भयभीत हुआ जा सकता है जबकि ‘सब कुछ’ को सब कुछ सौंपा जा सकता है।" प्रियंवद भी ऐसा ही करता है-
श्रेय नहीं कुछ मेरा
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब-कुछ को सौंप दिया था।
अज्ञेय इस कविता के माध्यम से एक स्तर पर सांस्कृतिक अस्मिता का भी बोध कराते हैं। प्रतिष्ठा नहीं हो सकती जिसमें कोई सांस्कृतिक अस्मिता नहीं होती। जिससे हम बने हैं, उसे पहचानते हुए उसे अभिव्यक्ति दे तो वर्तमान और भविष्य हमारे हैं, नहीं तो हम कहीं के नहीं।"
अंततः विजय देव नारायण साही के अनुसार प्रसाद ने अनुभूति में दर्शन को घुलाया जबकि अज्ञेय ने जीवन दर्शन को फिर से अनुभूति में घुलाने की राह अपनी कविता के जरिए निकाली।
Question : दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखे कई दिनों के बाद।
(2002)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत अवतरण प्रगतिवादी कवि नागार्जुन द्वारा लिखी गई ‘अकाल और जिसके बाद’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। यह कविता आठ पंक्तियों की छोटी कविता है। प्रस्तुत अवतरण इसकी अंतिम चार पंक्तियां हैं। इस कविता के माध्यम से कवि ने अकाल की प्रचंड विभीषिका का चित्रण किया है। अकाल के हटने का चित्र भी अकाल की विभिषिका को चित्रित करता है।
व्याख्याः कवि चित्रत्मक शैली में कई दिनों के बाद घर के अंदर अनाज के दाने आने का चित्रण किया है, जिससे संपूर्ण घर में उल्लास का माहौल हो गया। चूल्हा जलने पर धुएं के उठने का चित्र अत्यंत मार्मिक है, क्योंकि उस धुएं से कई अन्य प्राणियों के आत्मरक्षा का प्रश्न जुड़ा हुआ है। कवि नागार्जुन ने इस कविता में बिंबों व प्रतीकों के माध्यम से अभाव ग्रस्त परिवार का दृश्यचित्र प्रस्तुत करते हैं। निम्न मध्यवर्गीय जीवन सामान्य प्राकृतिक आपदा को भी नहीं झेल पाता। उसका अस्तित्व अन्न के कुछ दानों पर बना रहता है। अकाल के दिनों में पूरी दिनचर्या ही अवरुद्ध हो जाती है। जब कई दिनों के बाद अन्न आता है, तब पूरे घर की स्वाभाविक खुशियां लौट आती हैं। चहल-पहल होने लगती है, चुल्हों पर पुनः भोजन बन रहा है। आंगन के ऊपर धुंआ दिखाई दे रहा है। सभी के नेत्रों में खुशी की चमक है तथा कौआ भी अनाज के दानों के आगमन की खुशी में कई दिनों के बाद अपने पंख को उत्साहपूर्वक खुजला रहा है, क्योंकि उसे भी कुछ अन्न के दानों को कई दिनों के बाद मिलने की आशा है।
विशेषताः 1. सरल व्यवहारिक काव्य भाषा
2. वर्णनात्मक शैली
3. प्रतीकात्मक व्यंजन
4. प्रगतिशील यथार्थ दृष्टि
5. मानव जीवन में आशा का केंद्रीय भाव है। ‘प्रसाद जी’ ने
कहा है-
यह क्या मधुर स्वप्न सी झिल-मिल
सदय हृदय में अधिक अधीर।
व्याकुलता भी व्यप्त हो रही
आशा बनकर प्राण समीर।
6. ‘अन्न’ से ही जीवन बनता-संवरता है, इसलिए उसमें आशा भरी चमक है। दिनकर ने कहा है-
तन को दो आहार अन्न का मन को चिंतन का अधिकार
तन मन दोनों बढ़े अगर तो चमक उठे सचमुच संसार।
7. नागार्जुन की इस कविता में अन्न की समस्या मुखरित हुई है। अन्न का अभाव पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पन्न कर दिया जाता है।
Question : बिरहा बुरहा जिनि कहां, बिरहा है सुलितान।
जिसघर बिरहा न संचरे, सो घर सदा मशान।।
इस तन का दीवा करो, बाती मल्यू जीव।
लोहो सीचो तेल ज्यूं, कबमुख देखौ पीव।।
(2001)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत मनोरम पद्यांश कबीरदास द्वारा विरचित है, जो कबीर ग्रंथावली में संग्रहित है। कबीरदास जी हिन्दी साहित्य के इतिहास में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि है। प्रस्तुत साखी ‘विरह कौ अंग’ से उधृत है। कबीरदास विरह की महिमा का गुणगान कर रहे हैं। कवि विरह को आत्मा से परमात्मा के मिलन का माध्यम बताया है।
व्याख्याः सूफी कवियों ने प्रेम की सार्थकता वियोग में मानी है। उसके मिलन का लक्ष्य तो जीवनोपरान्त है। इहलौकिक जीवन परमात्मा-रूपी प्रेमिका से वियोग का काल है। उसमें जितनी ही अधिक तीव्रता और तड़पन होगी उतनी ही प्रेम में सबलता आयेगी। विरह को प्रेम की परिपक्वता के लिए अनिवार्य माना है। कबीरदास ने यहां तक कह दिया है कि जिस शरीर में वियोग का संचार नहीं होता, उसे बिलकुल श्मशान समझना चाहिए। इसलिए विरह को बुरा नहीं समझना चाहिए, विरह तो सुल्तान है अर्थात् संयोग से भी अच्छा। जिस हृदय में विरह का भाव नहीं है, वह श्मशान की भांति शून्य है, निर्जीव है। कबीरदास का विश्वास है कि प्रेमी से मिलन सुख का आनन्द लेने के लिए अग्निपरीक्षा में प्रवेश करना ही होगा। यह अग्नि परीक्षा विरह ही है। अतः विरह के बिना प्रेमी यानि परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता है। इसी प्रकरण में कबीरदास विरहावस्था को और अधिक तीव्र करते हुए कहते हैं कि मैं अपने शरीर रूपी दीपक में प्राणों की वर्तिका डाल कर और अपने लहू से इस दीपक को तेल की पूर्ति करता हूं। इस दीपक को जला कर कब से मैं अपने प्रिय के आगमन का मार्ग देख रही हूं, न जाने कब उनका मुख निहार सकूंगी।
विशेषताः 1. कबीर के प्रेम-साधना के तीन सोपान हैं- अनुराग, विरह और मिलन। अंश का अंशी से मिलने की उत्कट अभिलाषा ही अनुराग है। अनुराग के प्रारंभ होने पर प्रेमी के हृदय में विरह का अनुभव होता है। विरह के कारण प्रेम और घनीभूत होता जाता है। विरह से प्रेम की वृद्धि होती जाती है और कुछ समय पश्चात् ऐसी अवस्था आती है, जब जीवात्मा, परमात्मा रूपी प्रिय से मिलन की योग्यता प्राप्त कर लेती है और प्रभु उसका वरण करने के लिए तत्पर हो जाते हैं।
2. कबीर ने विरह का वर्णन दाम्पत्य प्रेम के प्रतीक द्वारा किया है, क्योंकि संसार में जितने संबंध हैं, पति-पत्नी का संबंध उसमें सबसे अधिक प्रगाढ़ होता है। दाम्पत्य प्रेम में अद्वैत की जो स्थिति होती है, वह अन्य संबंधो में नहीं।
3. कबीर के विरहावस्था पर सूफीमत को प्रेम का बहुत हद तक प्रभाव है।
4. अज्ञेय का कथन ‘दुःख सबको भॉजता है’ तुलनीय है।
Question : निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर! हॅसि समुसाय, सौंह दै बूसति सांच, न हांसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कौन बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलाषी।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्नै रह्यो सो सूर सबै मति मासी।।
(2001)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास द्वारा विरचित ‘भ्रमर गीत’ नामक काव्य-संग्रह से उधृत है। प्रस्तुत पद सूर की व्यंग्य गर्भित शैली का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसमें गोपियां उद्धव के निर्गुण ब्रह्म का उपहास कर रही हैं और अतिशय व्यंग्यात्मक ढंग से वे निर्गुण ब्रह्म का परिचय पूछ रही है। यह उद्धव-प्रति गोपियों का कथन है।
व्याख्याः हे उद्धव, भला हमें यह तो बताइए कि तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का निवासी है, क्योंकि हमने आज तक इसके संबंध में कुछ भी नहीं सुना और न इसकी हमें कुछ जानकारी ही है। हे भ्रमर, सच हम कसम खाकर पूछ रही हूं, मजाक तुमसे नहीं कर रही हूं। हमें तुम हंसकर अर्थात् सहज रूप से समझा दो कि निर्गुण ब्रह्म का कौन पिता है और इसकी माता कौन है, इसकी स्त्री कौन है और इसकी दासी कौन है? व्यंग्य अर्थ यह है कि जिसके माता-पिता आदि का पता न हो उसकी क्या हैसियत है, क्या मर्यादा है, यहां तो हमारे श्री कृष्ण के माता-पिता आदि सभी संबंधी मौजूद हैं। पुनः हम सब यह भी जानना चाहती हैं कि इसका रंग कैसा है, क्योंकि हमारे श्री कृष्ण का रंग तो हमें ज्ञात है और इनकी कैसी वेश-भूषा है? दूसरे शब्दों में हमारे श्री कृष्ण श्याम रंग के हैं और पीताम्बर धारण करते हैं और किस रस में यह डूबे रहते हैं इन सब बातों को पूछते-पूछते गोपियों का तीखा व्यंग्य अमर्ष भाव में परिणत हो जाता है। वे कहने लगती हैं कि हे उद्धव, अब ज्यादा जले-भूने की बात मत करो, नहीं तो तुम्हें अपनी करनी का फल भी मिल जायेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अब हमारे हृदय को निर्गुण विषयक चर्चा से अधिक मत दुखाओ, अन्यथा हम तुम्हें कुछ कह देंगी। सूर के शब्दों में गोपियों की ऐसी बातों को सुनकर उद्धव जी ठगे से चुप हो गये, उनसे कुछ कहते नहीं बना और वे गोपियों की भक्ति और प्रेम के समक्ष स्तंभित हो गये।
विशेषताः 1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूर के इस पद की पर्याप्त सराहना की है। उनके अनुसार स्त्रियों के कैसे स्वाभाविक हाव-भाव भरे ये वचन हैं- ‘कसम है, हम ठीक-ठीक पूछती हैं, हंसी नहीं कि तुम्हारा निर्गुण कहां का रहने वाला है।’ कुछ विनोद, कुछ चपलता, कुछ भोलापन, कुछ घनिष्ठता कितनी बातें इस छोटे से वाक्य में टपकती हैं।
2.निर्गुण ब्रह्म जिसे वेद और उपनिषद आदि सभी दार्शनिक ग्रंथ नेति-नेति कहते हैं और जो अग्राह्य और अज्ञेय है, उसका निरूपण करने में असमर्थ उद्धव की मनःस्थिति का बोध ‘सुनत मौन.....ठग्यों सो’ से पूरी तरह हो जाता है।
3. यह हास्य-व्यंग्य गर्भित शैली का उत्कृष्ट नमूना है।
4. सूर की वचन विदग्धता का इससे पूरा परिचय मिल जाता है।
5. कई भावों की संयुक्त योजना के कारण, इसमें किलकिंचित् हाव की प्रधानता है।
6. ‘निर्गुण’ शब्द में परिकरांकुर है और निर्गुण (गुणात) के माता-पिता की चर्चा आलंकारिक दृष्टि से विरोधाभास के अन्तर्गत आएगी।
7. यह पद राग सारंग पर आधारित है।
Question : सुंदरकांड के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास के काव्य सौष्ठव का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
(2001)
Answer : गोस्वामी तुलसीदास के काव्य की प्रमुख विशेषता है- प्रतिपाद्य विषय और प्रतिपादन शैली का उत्कृष्ट समन्वय। उन्होंने जहां एक ओर अत्यंत विशाल फलक पर भावयोजना की अभिकल्पना की हैं, वहीं उसे अत्यंत निपुणता के साथ सजाया-संवारा भी है। वस्तुतः उनकी वाणी एक ऐसे समाधिस्थ चित्र की अभिव्यक्ति है, जिसमें भारतीय दर्शन, धर्म और कला का अद्भुत सामंजस्य है। उसमें ‘कांतासम्मित उपदेश’ के साथ ही ‘सद्यः परिनिवृत्ति’ की क्षमता है। भाव पक्ष की दृष्टि से अकेला सुंदरकांड ही ऐसा कांड है, जिसमें मानव जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। यह लौकिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों का मार्गदर्शक कृति है। यदि इसमें एक और भक्ति का तत्व है तो दूसरी ओर हमारी पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान भी देता है।
मानस का सुंदरकांड हनुमान द्वारा लंका प्रयाण से लेकर समुद्र पर सेतु बांधने के उपक्रम तक विस्तृत है। यह दो खण्डों में विभक्त है- पूर्वार्द्ध में हनुमान-चरित् से और उत्तरार्द्ध में विभीषण-चरित् से संबद्ध है। यहां यह ध्यातव्य है कि वाल्मीकि तथा अध्यात्म रामायण में केवल पूर्वार्द्ध की घटनाओं का ही विवरण है। विभीषण संबंधी आख्यान लंका कांड में है, जिसे दोनों ग्रंथो में युद्ध कांड नाम दिया है।
सुंदरकांड का कथानक औदात्य से भरा हुआ है। जामवंत द्वारा प्रेरित किए जाने पर हनुमान लंका को जाते हैं। वे आकाश मार्ग से समुद्र की सीमा तय करते हैं। मार्ग में सुरसा, सिंहिका तथा लंकिनी उनका मार्ग रोकती हैं, जिसे हनुमान बल-बुद्धि से पार करते हैं। लंका प्रवेश के बाद सीता की खोज करने के क्रम में विभीषण से मुलाकात होती है। विभीषण सीता का पता बताते हैं। हनुमान अशोक वाटिका में राम की मुद्रिका सीता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। सीता की अनुमति से वह वाटिका के फल खाने लगे और उत्पात मचाने लगे। रक्षकों का विरोध व्यर्थ हुआ, अंततः मेघनाथ ने ब्रह्मास्त्र द्वारा उन्हें पकड़ा। सभा में हनुमान-रावण-विभीषण संवाद हुआ। हनुमान की पूंछ में आग लगा दी गई। पूंछ में आग लगाने पर उन्होंने लंका दहन प्रारंभ किया। तत्पश्चात् वह पुनः सीता के समक्ष उपस्थित हुए और पहचान के रूप में उनसे चूड़ामणि लेकर पुनः वायुमार्ग से इस पार आ गये और वहां प्रतीक्षारत लोगों को लंका का समाचार बताया। इसी बीच विभीषण ने रावण को बहुत समझाया और सीता को वापस करने का अनुरोध किया। इससे क्षुब्ध रावण ने विभीषण पर चरण-प्रहार किया, जिससे दुखी होकर विभीषण श्रीराम की शरण में आ गए। इधर श्रीराम ने समुद्र पार करने के निमित्त विभीषण से परामर्श किया। उनके अनुरोध पर श्री राम ने तीन दिनों तक समुद्र से पार जाने के लिए विनती की। किन्तु सागर द्वारा विनय उपेक्षित किए जाने पर उन्होंने शर-संधान किया। इससे भयभीत होकर समुद्र उनके समक्ष उपस्थित हुआ और सेतु-बंध का सुझाव दिया। यहीं पर सुंदरकांड समाप्त हो जाता है। इस प्रकार इस कांड का कथानक महान एवं उदात्त है।
उदात्त कथानक के साथ ही सुन्दरकांड में हनुमान तथा विभीषण का उदात्त ढंग से शील-निर्माण तुलसी ने किया है। साथ ही सीता, राम, रावण, जामवंत, अंगद के चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित किया है। वस्तुतः सुंदरकांड हनुमान का यशगान है। इसी कारण इस कांड के प्रारंभ में श्रीराम की वंदना के साथ ही हनुमान का भी प्रशस्ति गान किया है। हनुमान की वंदना करते हुए गोस्वामी तुलसी दास ने उनके समस्त गुणों का उल्लेख कर दिया हैः
‘अतुलितबलधामं, स्वर्णशैलाभदेहं, दनुजबलकृशानुं, ज्ञानिनामगव्यं, सकलगुणनिधानं, वानराणामधीशं, रघुपति वरदूतं, वातजातं नमामि।’
इस श्लोक में आठ विशेषणों द्वारा हनुमान की वंदना की गई है। वह अतुलित बलधाम हैं, स्वर्ण पर्वत के समान कान्ति वाले हैं, दैत्यरूपी वन के लिए अग्निवाण हैं, ज्ञानियों में शिरोमणि हैं, समस्त गुणों के आगार हैं, वानरों के स्वामी हैं, श्री राम के श्रेष्ठ दूत हैं और पवन-पुत्र हैं। इस प्रकार गोस्वामी जी ने प्रस्तुत ‘हनुमानाष्टक’ द्वारा हनुमान जी के समस्त गुणों और कर्मों का उल्लेख कर दिया है। सुंदरकांड में उनके ये सभी रूप-गुण विद्यमान है। हनुमान के चरित्र की विशेषताएं हैं- अतिशय विनम्रता तथा निरहंकारिता। उन्होंने लंका में जो असंभव कार्य किया, उनको अपने उन कार्यों का लेखमात्र भी अभिमान नहीं था। श्री राम के सम्मुख उन्होंने अपने कार्यों का उल्लेख भी नहीं किया था, क्योंकि स्वयं वर्णन करने से अहंभाव की गंध आ सकती थी। अतः उनके शौर्य और विवेक का परिचय जामवन्त ने दिया थाः
पवन तनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपति हि सुनाए।
जिसे सुनकर श्री राम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और अद्भुत करनी से वह अत्यंत द्रवीभूत हो गए थे। उन्होंने जिन शब्दों से हनुमान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की थी, वह श्रीराम के उदार शील का व्यंजक तो है ही, हनुमान के चरित को भी उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंचाने वाला है। श्रीराम के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर हनुमान ‘त्रहि-त्रहि’ करते हुए उनके चरणों पर गिर जाते हैं। वह भयभीत है कि कहीं उनके मन में अभिमान न पैदा हो जाय।
सुनि प्रभु वचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त।
चरण परेउ प्रेमाकुल त्रहि त्रहि भगवन्त।।
सुंदरकांड के उत्तरार्द्ध में गोस्वामी जी ने विभीषण के चरित्र पर प्रकाश डाला है। विभीषण रावण का सौतेला भाई था। रावण के भय से लंका में कोई शुभ आचरण नहीं कर सकता था- "तेहि बहु विधि त्रसै देस निकासै जो कह वेद पुराना", किन्तु उसने विभीषण की ईश्वर भक्ति में कोई व्यवधान नहीं किया था, क्योंकि वह जानता था कि विभीषण ने ब्रह्मा जी से हरि-भक्ति का वरदान प्राप्त किया है। अतः उसके बिना नहीं रह सकता। विभीषण की इसी भगवद्-भक्ति के प्रकाशन हेतु गोस्वामी जी ने लंका में हनुमान-विभीषण मिलन के प्रसंग का समावेश किया है। वाल्मीकि तथा अध्यात्म रामायण में यह प्रसंग नहीं है। तुलसीदास के अनुसार हनुमान को सीता का पता विभीषण ने बताया था। यह उनकी निजी उद्भावना है।
जुगुति विभीषण सकल सुनाई।
चले उपवनसुत विदा कराई।
रावण की सभा में विभीषण ने ही विनती की थी कि दूत का वध नीति-विरुद्ध है, अतः उसे कुछ अन्य दण्ड दिया जाना ही उचित है।
नाइ सीस करि-विनय अहूता।
नीति विरोध न मारिअदूता।
आनदंड कछ करिअ गोसांई।
सबहीं कहा मंत्र भलभाई।
विभीषण राष्ट्रद्रोही अथवा भ्रातृद्रोही नहीं था। वह राज्य प्राप्ति के लिए लंका त्याग नहीं किया था। उसने तो यथाशक्ति अर्धम रत रावण को धर्म पर लाने का प्रयास किया। इस पर रावण ने चरण प्रहार किया और लंका छोड़कर राम से मिल जाने का प्रस्ताव किया था।
अस कहि कीन्हेसि चरण प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा।
सुंदरकांड में काव्य के तीन रसो- श्रृंगार, वीर और भयानक के अतिरिक्त भक्तिरस का भी सुंदर रीति से प्रतिपादन मिलता है। श्रृंगार रस के अन्तर्गत सीता और राम, दोनों की वियोग दशा का मार्मिक चित्रण किया गया है। सीता के वियोग की दशा का वर्णन निम्न हैः
देखि, मनहि महु कीह प्रनामा। बैठेहि बीति जात निसि जामा।
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयै रघुपति गुन श्रेनी।
वियोग में सुखद वस्तुएं भी दुःखद हो जाती है, अतः उन्हें आकाश के नक्षत्र भी अंगारे प्रतीत होते हैं, शीतल चंद्रमा अग्निवत् दाहक प्रतीत होता है, और अशोक के नूतन किसलय अनल के समान दिखाई पड़ते हैं। वे विलाप करते हुए कहते हैं:
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एव उतारा।
पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुं मोहि जानि हत भागी।
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नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अग्नि जनिकरहि निदाना।
हनुमान जी द्वारा राक्षसों के संहार में वीर रस की व्यंजना है और लंका दहन में भयानक रस की प्रतीति होती है।
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलए सिधरि धूरि,
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।
भयानक रसः जरइ नगर भा लोग बिहाला,
झपट लपट बहु कोटि कराला।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा,
एहिं अवसर को हमहिं उबारा।
इसी प्रकार भक्ति रस का प्रतिपादन हनुमान-विभीषण संवाद और राम-विभीषण मिलन के प्रसंग में सुंदर कांड में हुआ है। सुंदरकांड में भाव सौन्दर्य और कला सौन्दर्य दोनों का मणिकांचन संयोग दिखाई देता है। सुंदरकांड में जहां एक ओर कवि ने भावों की सूक्ष्मताओं का वर्णन किया है, वहीं उनकी भाषा में चित्रमयता, प्रभावोत्पादकता और भावमयता आदि के कारण एक विशिष्ट अर्थ और सौन्दर्य की भी सृष्टि स्वतः हो गई है। तुलसी द्वारा अलंकारों एवं छन्दों का प्रयोग तो देखते ही बनता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा के संबंध में कहा था कि वह वाणी के डिक्टेटर थे। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। वस्तुतः यह कथन तुलसीदास के संदर्भ में अधिक संगत और सार्थक प्रतीत होता है। वे भाषा-प्रयोग और अभिव्यक्ति की क्षमता में बेजोड़ थे। वास्तव में, निःसंकोच रूप से यह कहा जा सकता है कि भाषा-प्रयोग में इतना जागरूक कवि पूरे हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं है। गोस्वामी जी की भाषा के संबंध में उनका ही यह कथन अक्षरशः लागू होता है कि फ्ज्यों मुख मुकुर, मुकुर जिमि पानी, गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।" पूरे काण्ड में निष्ठ अवधी का प्रयोग मिलता है। प्रारंभ में मंगलाचरण के श्लोक संस्कृत भाषा में है। युद्ध वर्णन अथवा लंका दहन के वर्णन में ओजगुण संपन्न भाषा प्रयुक्त की गई है। शेष में प्रसाद गुण संपन्न। व्यंजना प्रधान काव्य को उत्तम माना गया है। गोस्वामी जी प्रायः इसी शैली को अपनाते हैं। जैसे हनुमान का यह कथनः
जानउॅ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहस बाहु सन परी लराई।
समर बलिसन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि विहरावा।
आचार्यों ने काव्य में अर्थग्रहण की अपेक्षा बिंब ग्रहण को अधिक महत्व दिया है। चित्र-शक्ति काव्य की महत्वपूर्ण शक्ति मानी गई है। जिस प्रकार चित्रकार तूलिका से चित्र खींचते हैं, वैसे ही श्रेष्ठ कवि लेखनी के माध्यम से ऐसा चित्र उपस्थित कर देते हैं कि वह आन्तरिक भावों को प्रकट कर दें। उदाहरणार्थ सीता की विरह दशा का एक चित्रः
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हारा कपाट।
लोचन-निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
तुलसीदास मूलतः रसवादी कवि थे तथा रस को ही काव्य की आत्मा मानते थे। उनके काव्य में अलंकार साधन रूप में आया है, साध्य रूप में नहीं। फिर भी उनका काव्य अलंकारों का अक्षयकोष है। वे अलंकारों का चयन इतनी पटुता से करते हैं कि रचना-प्रवाह में बाधक नहीं साधक बन जाते हैं। यहां सुंदरकाण्ड से कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं:
वक्रोक्ति- तासु दूत कि बंध तर आवा, प्रभुकारज लगि कपिहि बंधावा।
श्लेष- जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।
रूपक- सिंध कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।
उपमा- मसक समान रूप कपि धरी।
उत्प्रेक्षा- नव तरू किसलय मनहु कृसानु
विभावना- सादर सुनहि ते तरहिं भव सिंधु बिना जल जान।
गोस्वामी तुलसीदास छन्द को काव्य का आवश्यक अंग मानते थे। वे संस्कृत से लेकर प्राकृत और अपभ्रंश तक की काव्य परम्परा से भली-भांति परिचित थे। इसीलिए उनकी रचनाओं में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्द पाए जाते हैं। मुख्य विधान चौपाई-दोहा छन्दों में हुआ है। इसके अलावे हरिगीतिका, सोरठा, वसंततिलका, मंजु मालिनी छन्दों का भी थोड़ा बहुत प्रयोग हुआ है।
इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस का सुंदरकाण्ड काव्य सौष्ठव की दृष्टि से अद्वितीय है।
Question : महानृत्य का विषम सम, अरी
अखिल स्पंदनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है
सृष्टि सदा होकर अभिशाप।
अंधकार के अट्टहास-सी,
मुखरित सतत् चिरंतन सत्य,
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू,
यह सुन्दर रहस्य है नित्य।
(2001)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः जयशंकर प्रसाद का कालजयी महाकाव्य ‘कामायनी’ के चिंता सर्ग से उधृत प्रस्तुत पंक्तियों में मनु मृत्यु के सत्य को उद्घाटित करते हैं।
व्याख्याः मनु मृत्यु को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे मृत्यु! तू संसार में होने वाले विनाशकारी तांडव नृत्य का वह भयंकर पद-चाप है, जहां पहुंचते ही जीवन की संपूर्ण लय समाप्त हो जाती है, और फिर जीवन के एक नए ताल का आरम्भ हो जात है अर्थात् मृत्यु तेरे ही कारण विनाश के कार्यों की पूर्ति होती है। विश्व की धड़कन का अंत तुझसे होता है। यह सारा संसार दुःखमय और अरूचिकर होकर तेरी ही संपत्ति राख के रूप में हो जाता है। तात्पर्य है कि संसार की विनाशलीला मृत्यु से पूर्ण होती है। जैसे नृत्य करते-करते नर्तक उस बिन्दु पर पहुंच जाता है, जहां लय की समाप्ति और ताल का आरम्भ होता है। इसी प्रकार संहार का कार्य मृत्यु से पूर्ण हो जाता है।
मृत्यु! तू जगत की समस्त चेतना का अंत करने वाली है, क्योंकि तू जगत की समस्त गतिविधियों की सीमा है। तेरे द्वारा नष्ट-भ्रष्ट पदार्थों की धूलि ही पुनः नव-निर्माण का कारण बनती है, परन्तु वह अभिशाप हेतु ही विकसित होती है क्योंकि तू उन्हें फिर नष्ट-भ्रष्ट कर देगी। पुनः मनु मृत्यु को संबोधिता करते हुए कहते हैं कि- हे मृत्यु! तू अंधकार में होने वाले उस अट्टहास के समान है, जो निरन्तर गूंज रहा हैं, और जो चिर स्थायी है, तथा मिथ्या आभास से रहित होने के कारण सत्य है। इसके साथ यह भी सत्य है कि तू सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है अथवा छिपकर बैठी हुई है। बस यही तेरे जीवन का, स्वरूप का चिरस्थायी रहस्य है।
विशेषताः 1. विश्व की प्रत्येक वस्तु नाशवान है, यह भेद सनातन है।
2. उपनिषदों में ब्रह्म को मृत्यु और आत्रि-अति कहा है।
3. गीता में कृष्ण ने कहा है-
कालो{स्मि लोकक्षमकृत प्रवृद्धों लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृतः।
4. संसार के सभी धर्मों में संसार को नश्वर बताया गया है।
5. ‘विषम-सम’ में विरोधाभास अलंकार है।
6. ‘स्पन्दनों की तू माप’ में रूपक अलंकार है।
7. ‘विभूति’ के दो अर्थ होने से श्लेष अलंकार है। पहला अर्थ संपत्ति, दूसरा राख।
8. ‘अट्टहास-सी’ में उपमा अलंकार है
9. ‘कण-कण’ में वीप्सा है।
Question : ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘कुकरमुत्ता’ की संवेदना की भिन्नता को रंखांकित करते हुए निराला की शैलीगत विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए।
(2001)
Answer : निराला जी छायावादी काव्य युग के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। काव्य का मूल तत्व संवेदना ही है। छायावादी युग में कविवर निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसे काव्य का सृजन किया, उसमें तो सर्वतोभावेन काव्य में संवेदना ही सर्वथा प्रमुख बनकर रह गया था। समूचे छायावादी युग का काव्य अन्तः बाह्य सभी दृष्टि से संवेदन युक्त है। इस तथ्य को सभी मुक्त भाव से स्वीकार करते हैं। अपनी उदात्त संवेदना के कारण ही ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ काव्य हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान और महत्व रखता है। लेकिन दोनों की संवेदनाओं में पर्याप्त भिन्नता है। सर्वप्रथम ‘राम की शक्ति पूजा’ की संवेदनाओं पर दृष्टि डालते हैं।
‘राम की शक्तिपूजा’ प्रबन्धात्मक रूप में कवि ने जो परिकल्पना प्रस्तुत की है, वह वास्तव में उदात्त, विराट् और अप्रतिम है। कविवर पंत ने इसके बारे में कहे गये शब्द अक्षरशः सत्य है कि ‘सूक्ष्म-जटिल कलाकारिता तथा संकल्प-शक्ति की द्योतक, अपनी अबाध शिल्प शक्ति के अदम्य वेग तथा पौरुष-सौन्दर्य-क्षमता के कारण, वह हिन्दी में एक अभूतपूर्व लम्बी कविता है।’
इस दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि निराला जी की शक्ति पूजा को परम्परागत मान-मूल्यों के चौखटे में फिट नहीं किया जा सकता। इसके वास्तविक मूल्यांकन के लिए भव्य एवं उदात्त दृष्टि की आवश्यकता है।
महाप्राण निराला का प्रस्तुत कविता शक्ति पूजा अपने मूल परिवेश में पुराण- इतिहास- सम्मत कथ्य एवं कथानक पर आधारित है। पर इसमें महाकाव्योचित औदात्य भाव का संयोजन करने के लिए कवि ने मौलिक, नव्य और युगानुकूल उद्भावनाओं से भी पर्याप्त काम लिया है। कवि ने मनोविज्ञान की पूर्व-दीप्ति-पद्धति का आश्रय लेकर जनक-वाटिका के लतान्तराल में राम-सीता का पुनर्मिलन करवाया है। उसकी सीता-मिलन की भावना को भड़का कर एक बार पुनः उसे अदम्य शक्ति का स्रोत बनते हुए, शिव-धनुष को पुनवीर भंग करते हुए और अनेक राक्षसों का वध करते हुए मनःस्तर पर अंकित किया है। निश्चय ही इस उद्भावना से काव्य में औदात्य का महत्व सन्निवेश हो गया है। इस प्रकार विभीषण का संबोधन और जामवंत का परामर्श भी काव्य को उदात्त की गरिमा से मण्डित करने वाला है। हनुमान का आकाश-मंथन अलौकिक तत्व होते हुए भी महाकाव्योचित औदात्य का परिचायक है। इसके साथ शक्ति साधना के समय राम का चक्र-दर-चक्र पार करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और महेश के स्तर को पार कर जाना भी इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। उसके बाद मिलने वाली सफलता और सिद्धि औदात्य का सहज स्वाभाविक पर्यवसान है।
यह काव्य संवेदना की दृष्टि से केवल राम के स्थिति-चित्रण के लिए ही नहीं रचा गया है। न ही कवि का लक्ष्य राम-भक्तों के समान मात्र कथा कहना ही है। उसका लक्ष्य एक समूचे युग के भाव-बोध को रूपायित करना, एवं अडिग रहकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए उत्प्रेरित करना भी हो, ऐसा कवि ने काव्य में स्थान-स्थान पर स्वानुभूतियों को अन्तः संयोजित करके किया है। वह युग कवि के लिए व्यक्ति और अन्तःबाह्य द्वंद्व का युग था। अतःकवि ने उस द्वंद्व को चित्रित करने के लिए राम को सहज मानवीयता के धरातल पर उतारा है। सीता से लतान्तराल-मिलन, विभीषण की फटकार और जामवंत के परामर्श मानव राम के लिए है, न कि पूर्ण ब्रह्म के अवतार राम के लिए। इसी स्तर पर पहुंच कर राम का द्वन्द्व बन गया। तभी तो अपनी पराजय के भाव से भरे राम का हृदय डावांडोल हो उठता हैः
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय,
रह-रह उठता जग-जीवन में रावण-जय-भय।
स्थिर राघवेन्द्र का संशय-ग्रस्त हो, रह-रह हिल उठना, जगजीवन में अपनी पराजय की आशंका से संत्रस्त हो उठना, कवि और युग का भी संत्रस है और फिर देवी द्वारा अन्तिम फूल को उठा ले जाने के बाद राम का अपने आप को धिक्कार युग एवं कवि का कहना हैः
धिक् जीवन जो पाता आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।
‘राम की शक्ति पूजा’ में संशय का तत्व आधुनिक मनुष्य की अवधारणा के साथ मिथक की दुनिया में आज के कवि का एक कारगर हस्तक्षेप है। निराला इसे वैयक्तिक अनुभव और संवेदनवृत से ग्रहण कर सामाजिक संदर्भ में घटित करते हैं। यह पूरा परिदृश्य रेखांकित करने योग्य है- ‘रावण जय-भय।’ यह जितना राम के मन में उससे कहीं ज्यादा लोक में व्याप्त है- सामाजिक सत्य है। ऐसे में, सीता भी मात्र राम की विवाहिता नहीं रह जाती। वह उस जाति की संस्कृति और जीवन का प्रतीक बन जाती हैं, जिसके उद्धार का सवाल हिन्दी की जातीय संस्कृति की स्वायत्तता से सीधे तौर पर एकमेक हो जाता है।
राम रावण युद्ध की भयावहता और उसमें महाशक्ति की भूमिका को पूरी तत्परता से संक्षेप में ही समग्र अभिव्यक्ति देने पर भी निराला ‘राम की शक्ति पूजा’ के रूप में कोई युद्ध काव्य नहीं लिखते। युद्ध से कहीं ज्यादा युद्ध के लिए अनिवार्य आत्मबल का संधान और समायोजन ही उनका अभीष्ट रहा है। इस कविता में द्वंद्व उथल-पुथल के साथ युद्धोपरान्त घटित होता है। बाहर के दृश्यमान युद्ध से कहीं ज्यादा युद्ध के लिए अनिवार्य आत्मबल का संधान और समायोजन ही उनका अभीष्ट रहा है। इस कविता में द्वंद्व, उथल-पुथल के साथ युद्धोपरान्त घटित होता है। बाहर के दृश्मान युद्ध से कहीं अधिक भीषण और मर्मस्पर्शी है, भीतर का युद्ध। इससे निजात तब मिलता है, जब राम लक्ष्य सिद्धि के लिए भौतिक स्तर पर प्रियतम वस्तु समर्पित करने की मनःस्थिति में पहुंच जाता है। ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो नहीं जानता दैन्य नहीं जानता विनय।’ इस मन को पूरी वैज्ञानिकता के साथ अभिव्यक्ति दी निराला ने। महाशक्ति के दृढ़ आराधना का संकल्प गांधी जी की ‘साधना की पवित्रता’ की अनुगूंजों से भरा है। ये अनुगूंजे सामयिक है, उसी देश काल की है, जिसमें निराला का कवि-कर्म घटित हुआ है। इस प्रकार निराला ने राम की शक्ति पूजा में उदात्त संवेदना को समाविष्ट किया है।
‘कुकुरमुत्ता’ एक संश्लिष्ट संरचना है। प्रगति और प्रबंध की पारंपरिक व्यवस्था से भिन्न एक और विलक्षण स्थापत्य। निराला मात्र निश्च्छल भावुक नहीं है, उनके पास विचार है। उनके विचार व्यवस्था की रूढि़ से टकराते हैं, उसे तोड़ते और नई रचना संभव करते हैं। इस प्रक्रिया में उनका शाश्वत व्यवस्था विरोध सक्रिय रहता आया है ‘आदि विद्रोही’ की तरह उनकी नियति है विद्रोह। निराला युगान्तर लाना चाहते हैं। उनके इस प्रयास की एक परवर्ती कड़ी है ‘कुकुरमुत्ता’। डा. रामविलास शर्मा के मत में ‘यह उस कवि की रचना थी, जिसकी पुरानी आस्थाएं टूट चुकी थीं और उनकी जगह नये विश्वास पनपे न थे। यह लोगों की सुरूचि पर नहीं, कांग्रेसी राजनीति की कुटिलता पर प्रहार था। निर्धारित रूढि़यों को तो निराला बहुत दिनों से तोड़ते आ रहे थे। अब कुछ ऐसी रूढि़यां तोड़ रहे थे, जो निर्धारित नहीं थी, जिनमें प्रवंचना और आत्म प्रवंचना का मायाजाल रूढि़ न कहलाकर देश भक्ति, भारतीय संस्कृति आदि सुन्दर नामों से याद किया जाता था। निराला पर अब तक जो पत्थर फेंकते आये थे, वे इस बात से नाराज हुए कि निराला ने उलट कर एक ढेला उन पर भी फेंक दिया।’
‘निराला हंस रहे थे वेदान्त पर’, समाजवाद पर, कांग्रेसी नेताओं पर, छायावाद पर और अपनी समस्त मान्यताओं पर। नाम से ही हास्यास्पद ‘कुकुरमुत्ता’ को अपना अस्त्र बनाकर उन्होंने उसे बंह्म के समान विश्वव्यापी बना दिया। उसके सहारे उन्होंने सबसे बदला लिया। वे जो अपने को सभ्य, सालीन और सुसंस्कृत समझते थे, ‘कुकुरमुत्ता’ से ओछे साबित हुए। बेला, चमेली, कामिनी, जुही व रातरानी की दुनियां पर हंसता हुआः
कही गंन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठा सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता।
कालिदास का सौन्दर्य, गुलाब की खुशबू, मैदाने जंग छोड़ औरत की जानिब भागने वाले काव्यप्रेमी, छायावादी संसार के स्वप्नदर्शी कवि पर हंसता हुआ कुकुरमुत्ताः
ख्वाब में डूबा चमकता हुआ सितारा
पेट में डंड पेलते चूहे, जबां पर लफ्रज प्यारा।
आधुनिकता वादी आचार्य टी.एस. एलियट भी कुकरमुत्ता के सामने कुछ नहीं। डिक्टेटर, भुक्खड़ फालोवर, दुम हिलाते टैरियर जैसा आधुनिक पोएट- सब निराला के व्यंग्य के शिकार। कुकुरमुत्ता सिर्फ एक ढ़ेला था, जो उन्होंने हल्ला मचाती हुई भीड़ पर फेक दिया।
कुकुरमुत्ता सब पर हंसता है पर स्वयं भी हास्यास्पद है। निराला उस पर हंसते हैं। लेखकों को लण्ठ- जैसे खुशनसीब कहकर चिढ़ाते हैं। कविता के अन्त में उसका कालिया कबाब बनाकर उन्होंने उसकी अन्त्येष्टि भी कर दी। कविता की गुलाबी उर्दू ‘कुल्लीमारट’ और ‘बिल्लेसुर’ की भाषा की तरह ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ की उदात्त शब्दावली पर मानो हंस रही हो। (रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना)
शुरू से ही लग जाता है कि ‘कुकुरमुत्ता’ बहुत बोलता है। वह बड़बोला है। गुलाब की प्रतिस्पर्द्धा ने उसे बड़बोला बना दिया है। गुलाब की शोभा सुगंध और सुषमा के सभी कायल है। उसके अभिजात्य की गरिमा से लोक आक्रांत है। कुकुरमुत्ता उसके अभिजात्य को चुनौती देता है तो उसकी भदेस हो जाती है। उसका जन्म भी कचरे के ढे़र पर हुआ है। छातानुमा, अपने सिर पर जन्म से ही छतरी लिये हुए है। गुलाब उसकी तुलना में पूंजीपति सेठ लगता है, जिसकी तीमारदारी में सभी लोग लगे हैं। उसके लिए माली है। वह शाहों, अमीरों और राजाओं का प्रिय है। लेकिन साधारण जनों से उसके न्यारा होने का रहस्य कुकुरमुत्ते को मालूम है, अपनी रौ में वह गुलाब को गाली भी देता हैः
अबे, सुन बे गुलाब
भूलमत जो पाई, खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।
: : : : : :
रोज पड़ता रहा पानी, तू हरामी खानदानी
अंततः जानकी वल्लभ शास्त्री के शब्दों में ‘कुकुरमुत्ता’ को निराला जी ने दीन-हीन शोषित जनता का प्रतीक माना है, और गुलाब को शोषक अभिजात वर्ग का।
इस प्रकार राम की शक्ति पूजा और कुकुरमुत्ता की संवेदनाओं में पर्याप्त भिन्नताएं है।
निराला के काव्यों की शैलीगत विशेषता अपने आप में विशिष्ट है। इनमें जहां एक ओर शास्त्रीयता का आग्रह है, वहीं दूसरी ओर उसका तिरस्कार। वस्तुतः निराला जन्मजात विद्रोही है, इसका प्रभाव उनकी शैली पर भी पड़ा है। इसलिए उनका काव्य बने बनाये लीक से हटकर है।
सर्वप्रथम इनकी काव्य-भाषा सुसंस्कृत से लेकर सुगठित है। जिसमें संस्कृत की तत्सम शब्दावली का पूर्ण योग है। जिसमें कोमलकांत पदावली से लेकर दुरूहता भी मौजूद है। राम की शक्ति पूजा की प्रारंभिक पंक्तियां इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैः
‘प्रतिपल-परिवर्तन व्यूह- भेद- कोशल- समूह,
राक्षस- विरुद्ध- प्रत्युह- कुद्व- कवि- विषम हूह,
विच्छुरित वह्मि- राजीवनयन- हत- लक्ष्य- वाण,
लोहित लोचन- रावण-मदमोचन- महीयान,
राघव-लाघव-रावण-वारण- गत- युग्म- प्रहर,’
तो दूसरी ओर ठेठ भाषा भी इनकी शैली रही है। कुकुरमुत्ता इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। जिसमें ग्रामीण बोलियों के साथ विदेशज शब्दों का भी प्रयोग बेझिझक किया गया हैः
अबे, सुन वे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगो आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।
इतनी अधिक शैलीगत विविधता अन्य किसी हिन्दी कवियों में नहीं मिलती है।
व्यंग्यात्मकता इनकी काव्य की मुख्य विशेषता है। यह व्यंग्यात्मकता कभी कठोर तो कभी मृदु रूप में भी होती है। ‘कुकुरमुत्ता’ में यह व्यंग्यात्मकता सर्वत्र विद्यमान है। तथाकथित प्रगतिवादी कवियों पर तीखा व्यंग्य करता हुआ कुकुरमुत्ता कहता है-
‘जैसे प्रोग्रेसीव का कमल लेते ही रोका नहीं जा सकता जोश का पारा।’
प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता निराला के काव्य की प्रमुख शैली रही है। इनकी प्रायः सभी कविताओं में प्रतीकों और बिंबों का प्रयोग काफी सुन्दर ढ़ंग से हुआ है। जिससे उनके काव्यों के सौन्दर्य में वृद्धि होती है। प्रस्तुत कविता में ही ‘गुलाब’ पूंजीपति का प्रतीक है, जबकि कुकुरमुत्ता ‘दीन हीन शोषित’ का।
संगीतात्मकता निराला के काव्य का एक प्रमुख गुण है। छंद के बंधन से मुक्ति के बाद भी उनकी रचनाओं में लय और ताल की सन्नहति हुई है। जिससे काव्यगत सौन्दर्य निखरा है। इसके साथ ही अलंकारों का प्रयोग भी निराला की विशिष्टता है। इस प्रकार इनकी शैली भी अनूठी है।Question : पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा
नहीं स्वयं अपने को शोध रहा था।
सघन निबिड़ में अपने को
सौप रहा था उसी किरीटी-तरू को।
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमंत्रित कारूवाद्य के सम्मुख आवे?
(2001)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत मनोरम पद्यांश प्रयोगवादी महाकवि अज्ञेय द्वारा विरचित ‘आंगन के पार द्वार’ काव्य संग्रह के ‘असाध्यवीणा’ कविता से उधृत है। प्रस्तुत अवतरण कविता सृजन की प्रक्रिया को व्याख्यायित करती है और इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण धारणाएं व्यक्त करती है।
व्याख्याः एक राजा के पास वज्रकीर्ति द्वारा निर्मित एक ऐसी वीणा थी, जिसे कोई बजा नहीं पाता था। अंततः उसके निमंत्रण पर एक बार प्रियंवद केशकंबली नामक एक साधक उनकी सभा में उपस्थित हुआ। जो वीणा को साध रहा है, उसी समय का यानि सृजन के वक्त की परिस्थिति का वर्णन होता है। प्रियवंद में वीणा साधने की अर्हता है। वीणा की साधना ज्ञान और गुण से ही संभव नहीं है, इसके लिए किसी अन्य योग्यता की भी आवश्यकता है। ज्ञान और गुण तो प्राथमिक अर्हताएं हैं ही, किंतु सृजन का निर्णायक तत्व वह भाव-भूमि है, जहां पहुंचकर साधक का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह सृजनशक्ति के सामने आत्म निवेदन के भाव से ही उपस्थित होता है।
प्रियंवद में जो अतिरिक्त गुण है, वह यही आत्मनिवेदन का भाव है। उसकी अहंकार शून्यता ही उसे इस योग्य बनाती है कि वह असाध्यवीणा के रूप में ख्यात वीणा का साध सके। ‘कलावंत हूं नहीं, शिष्य साधक हूं।’ प्रियंवद किरीटतरु के ध्यान में निमग्न हो जाते हैं। यह ध्यान आह्नान है, स्मृति-साक्षात् है, किरीट तरु का। महान कला मर्मज्ञ आनन्द कुमार स्वामी ने दिखलाया है कि प्राचीन भारत का कलाकार जब मूर्ति बनाता था तो वह अपनी प्रेरणा ध्यान प्रक्रिया से ही प्राप्त करता था। ध्यान में ही वह मूर्ति उसे प्रत्यक्ष होती थी, जिसके आगे वह आत्म निवेदन करता था। जिससे वह तादात्म्य साधता था। तभी रूप का शिल्पन संभव होता था। प्रियंवद भी वहीं कर रहा है। तरु को उसका संबोधन एक ‘नीरव एकालाप’ है। किंतु कितना गीत्यात्मक! वीणा तो इस आह्नान के बाद बहुत बार छेड़ी जाती है, किन्तु सच पूछा जाय तो उस संगीत का आरम्भ यहीं से हो जाता है।
विशेषताः 1. ‘असाध्य वीणा’ की कथा का आधार जापान में प्रचलित एक लोककथा है जो ‘ओकाकुर’ की पुस्तक ‘द बुक ऑफ टी’ में ^Taming of the harp* के नाम से संकलित की गई है। इस कथानुसार एक जादूगर ने ‘किरी’ नामक विशाल वृक्ष से एक वीणा बनायी। चीन के सम्राट ने इस वीणा को संभाल कर रखा और वह चाहता था कि इसे कोई बजाए। कई कलावंतो के प्रयास करने के बावजूद इसको कोई नहीं बजा सका। अंत में वीणाकारों के राजकुमार ‘पीवो’ ने अपनी साधना के माध्यम से उस वीणा को बजाया। ‘पीवो’ ने स्वयं को भूलकर वीणा में निहित संगीत को जगाया। पीवो स्वयं नहीं जानता था कि मैं वाद्य यंत्र हूं या वाद्ययंत्र मैं।
कितना साम्य है-
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था
2. सृजन का उद्भव ठीक उसी बिन्दु पर होता है जब प्रियंवद के संपूर्ण व्यक्तित्व का विलयन हो जाता है।
3. तत्सम बहुल शब्दों का प्रयोग हुआ है।
4. कोमलकांत पदावली, प्रवाहमयता पूरे अवतरण में मौजूद है।
Question : नागार्जुन की काव्य संवेदना और भाषा शैली की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
(2001)
Answer : जीवन और जगत की व्याख्या करने में साहित्य की केंद्रीय भूमिका रही है। समय-समय पर जो विविध सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होते रहे हैं, उन्हें आगे बढ़ाने का उत्प्रेरक साहित्य ही है। आधुनिक काल में भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद व पंत जैसे रचनाकारों ने अपने समय के समाज को सोद्देश्य दिशा प्रदान की। ‘नागार्जुन’ इसी परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। नागार्जुन का साहित्य संघर्षशील मानवता के सुख-दुखों की सचेतन अभिव्यक्ति है। उन्होंने सोये हुये मानव समाज को जगाने का कार्य किया है। एक प्रगतिशील रचनाकार के रूप में वे क्रांति चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। नागार्जुन की जनपक्षधरता स्पष्ट रही है। मानवीय सहानुभूति का विश्वास लेकर संघर्ष के प्रचंड आवेग में निरंतर आगे बढ़ने वाले रचनाकार कम ही हुये हैं।
नागार्जुन के साहित्य का लक्ष्य व्यवस्थादोष का उद्घाटन, मानव मुक्ति व प्रगतिशील समाज की स्थापना हेतु जन-मन को प्रेरित करना है। मानव को कुंठित करने वाले गत्यावरोध की सूक्ष्म पहचान नागार्जुन को है। प्रगतिशील समाज की दिशा में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों से संघर्ष अनिवार्य था। कोई भी सच्चा रचनाकार न तो जीवन की वास्तविकता से मुख मोड़ सकता है और न ही आदर्श लक्ष्य से मुक्त हो सकता है। नागार्जुन की रचनात्मक व्यग्रता दोनों ही पक्षों के प्रति है।
तन जर्जर है भूख प्यास से,
व्यक्ति-व्यक्ति दरव दैन्य ग्रस्त है
लो मशाल अब घर-घर को
आलोकित कर दो
नागार्जुन गरीब परिवार, निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुए थे और अपने चारो ओर गरीबी, अपमान, दैन्य विषमता में तड़पते हुए किसानों, मजदूरों को देखा था। अतः इसके लिए जिम्मेदार व्यक्तियों, संस्थाओं और सरकारों पर जमकर प्रहार किया। अतः अमन या शांति की कविता न लिखना उनकी विवशता हैः
कैसे लिखूं शांति की कविता
अमन-चैन को कैसे कडि़यों में बांधू,
मैं दरिद्र हूं, पुश्त-पुश्त की यह दरिद्रता
कटहल के छिलके जैसी खुरदरी जीभ से
मेरा लहू चाटती आई
मैं न अकेला...
मुझ जैसे तो लाख-लाख हैं, कोटि-कोटि हैं। वे कोटि-कोटि जन के प्रतिनिधि कवि हैं। जनता तक अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने और उसे प्रशिक्षण देने के लिए व्यंग्य का प्रयोग करते हैं। व्यवस्था के प्रति व्यंग्य उनकी काव्य-संवेदना का एक मुख्य गुण है। जनप्रतिनिधि विभिन्न तरीकों से धनी होते जाते हैं, जबकि सामान्य जनता की हालत यथावत बनी रही है। ऐसे में इनकी कविता ये बयां करती हैः
चना है बना मसालेदार,
खाइये भी तो यह सरकार
मिलेगा परमिट बारम्बार
मिलेंगे सौदे सभी उधार
नया हो जाएगा घर-बार
लद-लद कर आवेंगी कार।
नेताओं ने श्रद्धा और विश्वास का भी विक्रय किया है। आदर्शों की कीमत लगाई है। अबोध जनता भावुक होकर उन्हें सत्ता सौंपती है और बदले में वह बैंक बैलेंस बढ़ाते हैं, ऊंची-ऊंची, कोठियां खड़ी करते हैं। जाति और सम्प्रदाय से खेलते है। नागार्जुन इस वास्तविकता को देख कर तीखा व्यंग्य करते हैं:
बेच-बेच कर, गांधी जी का नाम
बटोरो कोट, बैंक बैलेंस बढ़ाओ
राजघाट पर बापू की वेदी के
आगे अश्रु बहाओ
वास्तव में व्यंग्य नागार्जुन की कविताओं को अत्यंत जीवंत पृष्ठभूमि प्रदान करता है। डॉ. प्रभाकर माचवे के शब्दों में ‘जब नागार्जुन का नाम हिन्दी कविता के इतिहास में लिया जायेगा, तब उनकी सामाजिक और राजनैतिक व्यंग रचना के लिए याद किये जायेंगे।’ नागार्जुन की कविताओं में राग के तीन आयाम है- प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम और देश प्रेम। इन तीनों का संबंध भाव-पक्ष की स्फूर्ति, सहजता व सरसता से है। प्रकृति से नागार्जुन का रागात्मक लगाव है। बादल उनकी कविता का प्रिय प्रतीक है। ‘बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता में प्रकृति सौन्दर्य के अनेक बिम्ब है। इस कविता में जीवन भी लय उमंग हैः
ऋतु बसंत का सुप्रभात था
मन्द-मन्द था अनिल बह रहा
बालारूण की मृदु किरणें थी,
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो,
अलग-अलग रह कर ही जिनको
सारी रात बितानी होती
नागार्जुन का नारी विषयक प्रेम स्वस्थ, सात्विक आकर्षण का पर्याय है। उसके अंतर्गत सहज आत्मीयता का भाव प्रतिबिम्बित होता हैः
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बना कर ठूंठ छोड़ गया पतसार
उमंग, असगुन सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमंगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में थे टेसू
यह तुम थी।
राग का तीसरा पक्ष स्वदेश प्रेम से संबंधित था। स्वदेश प्रेम नागार्जुन की रचनात्मक ताकत है। उनकी कविताओं में जो सामाजिक यथार्थ है, छद्म प्रगतिशीलता का उद्घाटन है, साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। उसके मूल में उनकी राष्ट्रीय चेतना निरंतर सक्रिय है। इस प्रकार की कविताओं की संवेदना देखते ही बनता है। विचार और भावना का सुन्दर तालमेल राष्ट्रीय कविताओं को स्थाई महत्व प्रदान करता हैः
आज तो मैं दुश्मन हूं तुम्हारा
पुत्र हूं भारत माता का
और कुछ नहीं हिन्दुस्तानी हूं महज।
प्राणों से भी प्यारे हैं मुझे अपने लागे,
प्राणों से भी प्यारी है मुझे अपनी भूमि।
नागार्जुन की कविताएं हृदय की उपज है। सरलता उनकी प्रकृति है। वे कृत्रिम भावों के कवि नहीं हैं। वे जिस युग में उत्पन्न हुए हैं, उसमें देश की बहुसंख्यक जनता को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए प्रतिपल संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए नागार्जुन क्रांति की भाषा में बात करते हैं। वे जनता के सच्चे हितैषी है। इसलिए इनकी कविताएं समकालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों की परत-दर-परत उघाड़ते हैं। इस रचना प्रक्रिया में जीवन की त्रासदी से साक्षात्कार होता है। अभावग्रस्त मानवता की करुण व्यथा बोलती है। यथाः
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक काली कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
यह अकाल के समय निम्न मध्यवर्गीय के घरेलू वातावरण का संपूर्ण चित्र है। इस कविता में वस्तु-विधान के कई स्तर हैं, परिस्थितियों का चितेरा मनुष्य शांत हैं, अनुपस्थि है अन्य के मार से ओझल हो गया, वातावरण भी शांत है, ठहरा हुआ है, चूल्हा और चक्की जैसी जड़ वस्तुओं में भी मानवीय भावनाएं पसरी हुई हैं, उनका उपयोग नहीं हो रहा है। मनुष्य के साथ ही छिपकलियां व चूहे भी विषम परिस्थिति से पराजित है। यह हारा हुआ सच है। रचनाकार की स्वाभाविक चिंता का यही विषय है। जनपद के हृदय की धड़कन, चाहे गांव के पाठशाले का चित्र हो चाहे अकाल का, जहां कहीं भी मिलता है, वहां कविता संवेदना के स्तर पर पहुंच जाती है। इनमें वस्तुनिष्ठ समीकरण का जो विन्यास दिखाई पड़ता है, वह यथार्थ का जीवंत चित्र प्रस्तुत करने के साथ-साथ व्यवस्था पर भी चोट करने में नहीं चूकताः
घुन खाये शहतीरों पर बारह खड़ी विधाता बांचे
फटीभीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट पांच तमाचे
इसी तरह दुखरन मास्टर गढ़ता है आदम के सांचे।
प्रगतिवादी कवि नागार्जुन काव्य भाषा को जनजीवन के स्तर पर ले आये। उनकी कविताएं सीधी-सपाट भाषा शैली में लिखी गई है। वे रस, छंद तथा अलंकार के बंधन को स्वीकार नहीं करते। उनकी भाषा रूपी सरिता के केवल दो तथ्य हैं, एवं उसका अपने आप दूसरा उसका पाठक, जो भाषा अपने विचारों का अधिक से अधिक ईमानदाराना प्रतिबिम्ब हो सकता है, और जिस भाषा के दर्पण में उसके पाठकों को अपना मुंह स्पष्ट दिखायी देता है। डा. नामवर सिंह के शब्दों में ‘जनकवि के रूप में नागार्जुन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कविता के कलात्मक सौन्दर्य की बलि चढ़ाये बिना कविता को सर्वजन सुलभ बना देना।’
नागार्जुन की काव्य भाषा के कई आयाम है। उन्होंने संस्कृत निष्ठ तत्सम भाषा, सहज व्यवहारिक भाषा, तद्भव शब्दावली से युक्त काव्य भाषा का प्रयोग किया है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम काव्यभाषा का उदाहरण दृष्टव्य हैः
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है।
माधुर्य गुण, उपमालंकार, कोमलकांत पदावली, प्रवाहमयता प्रस्तुत छंद की भाषागत विशेषताएं हैं। भाषा का एक दूसरा रूप है, सामाजिक विसंगतियों, छद्म व पाखण्ड, आचरणहीनता को उद्घाटित करते समय होता है। काव्य-भाषा का यह रूप सहज-सरल और व्यवहारिक हैः
आश्वासन की मीठी वाणी, भूखों को भरमाती
पाला पड़ता है लेकिन वह नंगो को गर्माती
जन-जन को आडम्बर प्रिय हैं, उसको नाटक
खोल दिये हैं तुमने कैसे इन्द्र सभा के फाटक।
काव्य भाषा का एक अन्य आयाम लोक जीवन की संवेदनाओं के चित्रण के क्षण दिखाई देता है। तद्भव और देशज शब्दावली, प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता तथा मुहावरों के प्रयोग से युक्त यह भाषा अत्यंत जीवंत व मार्मिक हैः
कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर
राम जी ही करेगें इसकी खैर
हम कैसे जानेगें, हम ठहरे हैवान
देखो तो कैसा भुलुर-मुलुर देख रहा शैतान!
नागार्जुन की कविताओं में मुख्य रूप से वर्णनात्मक, उद्बोधनात्मक व व्यंग्यात्मक भाषा शैली का प्रयोग हुआ है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक शैली है। नागार्जुन की राजनैतिक कविताएं व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई हैं। इस शैली का उदाहरणः
ओं दलों में एक एक दल अपना दल ओं
ओं अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
ओं मुष्टीकरण, तुष्टीकरण, पुष्टीकरण
.......................................................
ओं ट्रिब्युनल ओं आश्वासन।
नागार्जुन की भाषा शैली में अलंकारों का महत्तम योगदान है। उनकी कविताओं में उपमा, रूपक, विरोधाभास, विसंगति, मानवीयकरण आदि विविध अलंकारों का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग में भावनारूपता की प्रवृति विशेष रूप से दिखाई पड़ती है। इनका अलंकार विधान अत्यंत सजग, मनोरम और जीवंत है।
उदाहरणः
उपमा- छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों से
रूपक-हजार बांहों वाली शिशिर विषकन्या
उतरी ले कर सांसों में प्रलय की वन्या
इनकी काव्यभाषा शैली की एक अन्य विशेषता है- लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता। लाक्षणिकता का प्रयोग मुहावरों व व्यंग्योक्तियों के रूप में किया गया। जब प्रतीकात्मकता का प्रयोग नेताओं, छल-छद्मो, पाखण्डों पर व्यंग्य करने के लिए किया गया है। यथाः
देखा हमने चिडि़याखाना
सुना हमने चीखना और चिल्लाना
धवल टोपियां फेंक रहे थे
मगर गधो से रेंक रहे थे।
इस प्रकार नागार्जुन की काव्य संवेदना अत्यन्त उदात्त है। साथ ही इस उदात्त संवेदनाओं को कवि ने सफल साधना के रूप में भाषा का प्रयोग किया।
Question : ‘कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्व देते थे।’ इस मत की समीक्षा कीजिए।
(2000)
Answer : साहित्यकार साहित्य की रचना समाज में रहकर करता है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि साहित्य पर उसके अपने व्यक्तित्व के साथ-साथ अपने समय की स्थितियों का प्रभाव पड़ेगा। कबीर का समय पंद्रहवीं शताब्दी का मध्यकाल है। यह समय प्रत्येक दृष्टि से उथल-पुथल का समय था। साहित्य और जीवन का अविच्छिन्न संबंध है। कवि समाज को प्रभावित करता है और उससे प्रेरणा भी ग्रहण करता है। तत्कालीन समाज दूषित मूल्यों पर आधारित था, जहां विलासिता का मूल्य माना जाता था। धर्म सारी व्यवस्था के केंद्र में था और आडंबरों और बाह्य कर्मकांडों में उलझ कर धर्म अपनी धुरी से उतर चुका था। जन्म पर आधारित वर्णव्यवस्था थी। धार्मिक सिद्धांतों में द्वंद्वात्मक दार्शनिक दृष्टिकोणों की स्थापना होती जा रही थी। राजतंत्र निरंकुश हो गया था।
मध्यकाल के अंधकारमय वातावरण में कबीर का व्यक्तित्व एक ज्ञानदीप की भांति प्रकाश उत्पन्न करने वाला है। कबीर का व्यक्तित्व न केवल हिन्दी संत कवियों में, अपितु पूरे हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। हिन्दी साहित्य के लगभग बारह सौ वर्षों के इतिहास में तुलसीदास को छोड़कर इतना प्रभावशाली और महिमामंडित व्यक्तित्व दूसरे कवि का नहीं है। वह हिन्दुओं के लिए ‘वैष्णव भक्त’ मुसलमानों के लिए ‘पीर’ सिक्खों के लिए ‘भगत’ कबीरपंथियों के लिए ‘अवतार’ आधुनिक राष्ट्रवदियों के लिए ‘हिन्दू-मुस्लिम एक विधायक’ नववेदान्तियों के लिए ‘विश्वधर्म या मानव धर्म प्रवर्तक’ प्रगतिशील तत्वों की दृष्टि से कमजोर वर्ग के पक्षधर, क्रांतिकारी और समता, बंधुत्व भावना, न्याय तथा एकता के प्रतिपादक के रूप में मान्य है। कबीर निम्न वर्ण से संबंधित होने के कारण भोक्ता भी थे। उन्होंने अनुभव के आधार पर अभिव्यक्ति की। कबीर शास्त्रें के ज्ञाता नहीं थे, इस कारण उनके अनुभवों में अधिक प्रमाणिकता आ गयी।
कबीर यह देखकर अत्यंत क्षुब्ध थे कि धर्म के नाम पर पूरा समाज पाखंड और बाह्य आडंबर से ग्रस्त था। योगी योग ध्यान लगाकर उन्मत्त थे, पंडितों को पुराण का अहंकार था, तपस्वी तप के अहंकार में डूबे थे, संन्यासियों को अहं की सिद्धि का गर्व था, मुल्ला को कुरान पढ़ने का ही नशा था और काजी को न्याय करने का गर्व था। वस्तुतः सभी मोहग्रस्त थे, सन्मार्ग से भटक गए थे।
जोगी माते धरि जोग ध्यान, पंडित माते पढि़ं पुरान।
तपसो माते तप के भेव, संन्यासी माते करहिमेव।
मोलाना माते पढि़ मुसाफ, काजी माते है निसाफ।
सारा समाज मिथ्या प्रपंच में अनुरक्त था, कोई सत्य सुनने वाला नहीं था, उनके झूठे वचनों और आश्वासनों में ही विश्वास था, चतुर्दिक ‘झूठहिं लेना, झूठहि देना, झूठहि भोजन, झूठ चबेना’ का साम्राज्य था। कबीर ने ऐसे लोगों को देखा था, जो नियम और धर्म का आडंबर करते थे, नित्य प्रातः उठकर स्नान करते थे, मोटी-मोटी पोथी का वाचन करते थे, उनमें केवल ऊपरी कर्मकांड था, भीतर से वे शून्य थे। वैसे में वे अनुभव के आधार पर समाज को एक नई दृष्टि देने की कोशिश कीः
पोथि पढि़-पढि़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।
कबीर जान गए थे कि जड़ता का मूल, शास्त्रें की निष्क्रियता है। मनुष्य सार्थक तभी हो सकता है, जब वह पुस्तकों को तिलांजलि दे, क्योंकि पुस्तकवाद केवल बाह्य जड़ आडंबरों, कर्मकांडों को ही जन्म देता है, वास्तविक समाधान नहीं प्रस्तुत कर सकता। इन्होंने शास्त्रें के स्थान पर अनुभव को अधिक महत्व दिया।
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे।
मैं कहता आंखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरसावनहारी तू राख्यों उरसाई रे।
कबीर भक्त थे, जिनकी पूर्ण आस्था अपने अराध्य पर होती है। उन्हें ईश्वर को पाने के अतिरिक्त और कुछ पाने का लालच नहीं था। अहं का पूर्ण विसर्जन उनमें मिलता है। ऐसा ही अहं का पूर्ण विसर्जन संपूर्ण समाज में देखना चाहते थे। वे समाज को साम्यता के दृष्टि से देखना चाहते थे। जिसमें धन संचय को कहीं स्थान नहीं मिलता थाः
सांई इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।।
कबीर का अनुभव ज्ञान उनके सामाजिक प्रतिबद्धता से मिलता है। उनके पदों में गहन सामाजिक बोध दिखाई देता है। वे अपने समाज की विसंगतियों के प्र्रति चेतन थेः
सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोए।
दुखिया दास कबीर है, आगै अरू रोए।।
कबीर लकीर के फकीर नहीं थे, बल्कि वे नवीन लकीर का निर्माण किए। यह लकीर उनके अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने जन्मगत श्रेष्ठता को पूर्णतः अस्वीकार कर दिया और कहा कि यदि सृष्टा के मन में वर्ण व्यवस्था होती तो वह मानव को जन्म देते ही ब्राह्मण के मस्तक पर तीन चिह्नों का तिलक क्यों नहीं लगा देता? अतः वर्ण व्यवस्था नैसर्गिंक नहीं है। वह मानवकृत है। यदि ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठ है अर्थात् यदि मिसर्गतः ब्राह्मणी से ही उत्पन्न है तो वह अन्य जातियों से भिन्न किसी विशिष्ट मार्ग से क्यों नहीं उत्पन्न हुआ? यदि तुर्क तुर्किनी से जन्म लेने के कारण ही अपने विशेष वर्ग का समझता है तो गर्भ में ही उसका खतना क्यो नहीं हो गया? वस्तुतः जन्म से कोई न नीच है, न उच्च। नीच वह है जो मानव धर्म को नहीं अपनाता हैः
जौपैं करता वरन विचारै।
तौ जनतै तीनि डांडि किन सारै।।
जौ तू बांभन बभनी जाया, तौ आंन बाट होइ काहेन आया। तेजू तुरूक किनी जाया, तौ विभीतरि खतना क्यूं न करायी।
कबीर ने मध्यकालीन कर्म कांडी परिवेश को देखा था, अनुभव किया था। कबीर ने निर्भीकता के साथ हिन्दू और मुसलमानों की धार्मिक अंधता पर व्यंग्यात्मक उक्तियां कसीं:
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लियो बनाय।
तां चढि़ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।
पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार।।
कबीर ने संसार की नश्वरता को पहचाना, इसीलिए विलासिता और भोगवाद का तीख विरोध किया। उन्होंने देखा कि सारा समाज मिथ्या माया के पीछे भागा जा रहा है। लोगों में घन संचय की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उन्होंने ऐसे समाज को देख आर्य सत्य की घोषणा कीः
पानी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
कबीर के समय में छुआछूत एक आम समस्या थी। कबीर इससे काफी व्यथित थे। एक सरल हृदयी कवि की वाणी इसके विरोध में उतरता ही, कबीर ने भी ऐसा ही किया। वह कहते हैं कि हे पंडित, तुम तथाकथित नीची जाति के घर में रखे हुए मिट्टी के पात्र और उसके जल को भी अशुद्ध समझते हो। इसलिए अब तुम समझ-बुझ कर पानी पियो, क्योंकि सभी जगह की मिट्टी से बना है, वह भी अपवित्र है, क्योंकि सारी सृष्टि उसी में लीन होती है। मरने पर सभी लोग मिट्टी में मिल जाते हैं। इसी मिट्टी में छप्पन करोड़ यादव और अट्ठासी हजार महर्षि मुनि मरकर विलीन हो गए हैं। इस मिट्टी में पग-पग पर पैगंबर भी गाड़े गये हैं। वे सभी सड़कर मिट्टी रूप हो गये हैं। उसी मिट्टी से तुम्हारे सब बर्तन बनते हैं। केवल मिट्टी ही अपवित्र है, क्योंकि वह पशुओं की हड्डी से सड़कर और गूदे से गलकर बनता है। इस विषय में पंडित लोग धर्म ग्रंथों का जो प्रमाण देते हैं, वह गलत है। यह विपरीत आचरण भ्रांत मन भी उपज है। यह मिथ्या पाखंड हो इनका वेद पुराण आदि से कोई संबंध नहीं है। कबीर की मान्यता है कि वास्तविक पवित्रता मानसिक विकारों का त्याग है, शेष सब दिखावा हैः
पांडे बूझि पियहु तुम पानी।
जेंहि मटिया के घर महै बैठे, ता में सृष्टि समानी।
पैग-पैग पैगंबर गाड़े, सो सब सरिभो भारी।
तेह मटिया के भाड़े पांडे, बूझि पियहू तुम पानी।
वेद कितेब छाडि़ देहु पांडे, ई सब मन के भर्मा।
कहै कबीर सुनो हो पांडे? ई सब तुम्हरे कर्मा।।
कबीर ने अपने धार्मिक दर्शन के द्वारा विखण्डित समाज में धार्मिक, सामाजिक एकता को स्थापित करने का महान कार्य किया।
कबीर अपने युग में नारी के रूप को देखकर अत्यंत दुखी थे। नारी के मध्यकालीन रूप को देखकर ही कबीर ने नारी को माया के समान बताया। जिसकी नजर मात्र से ही लोग अंधे हो जाते हैं। वस्तुतः नारी के प्रति कबीर की दृष्टि सामंती है। किन्तु यह उनके व्यक्तित्व की सीमा न होकर अपने युग की सीमा है। उस समय की परिस्थितियों में नारी की स्वतंत्रता कल्पित भी नहीं की जा सकती थी। कबीर ने नारी को माया कहाः
नारी की सांई पड़त अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की कौन गति जो नित नारी के संग।
कबीर ने नारी को नैतिकता के बंधनों का समर्थन किया।
पतिव्रता मैली भली, शुचिता कुचित कुरूप।
पतिव्रता के रूप पर, वारौ कोटी सरूप।।
कबीर ने खंडनात्मक शैली में जो कुछ कहा उसमें मानवतावाद की पुकार है, किसी धर्म से द्वेष या वैमनस्य नहीं। कबीर मानव-प्रेमी और मानवतावदी महापुरुष थे। भगवान् में अटूट विश्वास के कारण नर में नारायण की प्रतीति ने उन्हें मानवतावाद की ओर उन्मुख किया था, इसलिए कभी किसी मानव से उन्होंने घृणा या द्वेष का व्यवहार नहीं किया। नर में नारायण को देखने के कारण ही उनकी दृष्टि सच्ची आस्तिक भावना से ओत-प्रोत हो गयी थी।
निष्कर्षतः कबीर की निर्भयता, आत्मविश्वास, प्रेम ज्ञान के मिश्रित दृष्टिकोण, शास्त्रें व कर्मकांडों का विरोध, सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति अनुभवाधारित थी, जो उन्हें युग प्रवर्तक के रूप में स्थापित की है। कबीर ने अपने युग में जीते हुए, जिन समस्याओं को उठाया है, वे कालजयी हैं, उनकी प्रासंगिकता आज के युग में भी विद्यमान है।Question : राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषण भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाईं।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरिष गएं पुनित तबहिं सुखाही।।
(2000)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के ‘सुंदरकांड’ से उधृत है। मेघनाथ द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने पर हनुमान जी मूर्च्छित हो गये तो उन्हें नागपाश में बांध कर रावण के पास ले गया। हनुमान जी को देखकर रावण दुर्वचन कहकर खूब हंसा। इस पर हनुमान ने राम नाम की महिमा का बखान करते हुए, ये बातें कहीं।
व्याख्याः राम नाम के बिना वाणी की शोभा नहीं है अर्थात् भगवत भक्ति के बिना जीवन निरर्थक है। हे रावण। इस तथ्य को मोह और अहंकार त्यागकर विचारपूर्वक देखो। भगवत् भक्ति के बिना जीवन वैसे ही सारहीन है, जैसे समस्त आभूषणों को धारण किए हुए नंगी स्त्री अशोभनीय है। श्रीराम की उपेक्षा करने पर अर्थात् उनकी भक्ति के बिना अतीत काल से प्राप्त वर्तमान काल में प्राप्त हो रही तथा भविष्य में प्राप्त होने वाली संपत्ति और प्रभुता उसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार पर्वतों अथवा जलाशयों से वर्षा द्वारा नदी को प्राप्त होने वाला जल वर्षा बीत जाने पर बह जाता है और नदियां सूख जाती हैं। अतः हे रावण, सुनो मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूं कि श्रीराम के प्रतिकूल होने पर कोई भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। तुम्हारा राज्य, कुल, संपत्ति सभी कुछ नष्ट हो जाएगा। हजारों शिव, विष्णु और ब्रह्मा भी राम विरोधी की रक्षा नहीं कर सकते।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. राम नाम बिनु-रावण कभी श्री राम का नाम नहीं लेता था। वह उनके लिए नृप, रिपु, नर, तापस, मनुज आदि शब्दों का ही प्रयोग करता था। इसीलिए हनुमान ने उसे ‘राम’ नाम की महिमा समझायी और उसके जप का अनुरोध किया।
2. राम की महिमा के वर्णन द्वारा रावण को समझाने का ऐसा ही वाल्मीकि और अध्यात्म रामायण में भी मिलता है।
3. ‘सजल मूल ......सुखाही’ में दृष्टांत अलंकार की योजना है।
4. ‘सजल मूल ..... बर नाही’ में प्रतिवस्तूपमा की योजना है।
5. शांतरस तथा प्रसाद गुण का परिपाक हुआ है।
Question : "पद्मावत एक उत्कृष्ट प्रेम काव्य है।" इस मत की सतर्क व्याख्या करें।
(2000)
Answer : हिन्दी साहित्य में भक्तिकालीन काव्यधारा की प्रेमाश्रयी शाखा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है, उनका ‘पद्मावत’ हिन्दी साहित्य का अमर कीर्ति स्तंभ है। जायसी का काव्य लौकिक और अलौकिक, शारीरिक और सूक्ष्म तथा सूफी मत प्रेम-भावना की सजीव और सरस अभिव्यक्ति है और इसीलिए वह सहृदयों के विशेष रूप से प्रेम-भाजन है।
पद्मावत की आख्यायिका एक प्रेम कहानी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पद्मावत के प्रेम पद्धति को इस प्रकार बताया है। फ्पद्मावत में वह प्रेम है जो गुण-श्रवण, चित्र-दर्शन स्वपन-दर्शन आदि से बैठे-बिठाए उत्पन्न हैं और नायक और नायिका को संयोग के लिए प्रयत्नवान् है।" जायसी के श्रृंगार में मानसिक पक्ष की प्रधानता है। शारीरिक पक्ष गौण है। चुंबन, आलिंगन आदि का वर्णन कवि ने बहुत कम किया है। केवल मन के उल्लास और वेदना का कथन अधिक किया है। प्रयत्न नायक की ओर से है और उसकी कठिनता द्वारा कवि ने नायक के प्रेम को नापा है, नायक का यह आदर्श लैला-मजनूं, शीरी फरहाद आदि, उन अरबी-फारसी कहानियों के आदर्श से मिलता-जुलता है, जिसमें हड्डी की ठठरी भर लिए हुए टांकियों से पहाड़ खोद डालने वाला आशिक पाए जाते हैं। फारस के प्रेम में नायक का प्रेम का वेग अधिक तीव्र दिखायी पड़ता है और भारत के प्रेम में नायिका के प्रेम का। जायसी ने आगे चलकर नायक और नायिका दोनों के प्रेमी की तीव्रता समान करके, दोनों आदर्शों का एक में मेल कर दिया है। राजा रत्न सेन सूए के मुंह से पद्मावती का रूप वर्णन सुन योगी होकर घर से निकल जाता है और मार्ग के अनेक दुःखों को झेलता हुआ समुद्र पार कर सिंहलद्वीप पहुंचता है। इधर पद्मावती भी राजा के प्रेम को सुन विरहाग्नि में जलती हुई साक्षात्कार के लिए विह्नल होती है और जब रत्नसेन को सूफी की आज्ञा होती है, तब उसके लिए मरने को तैयार है।
जायसी ने इश्क के दास्तावाली, मसनवियों के प्रेम के स्वरूप को प्रधान रखा है, पर बीच-बीच में भारत के लोक व्यवहार संलग्न स्वरूप का भी मेल किया है। इश्क की मसनवियों के समान ‘पद्मावत’ लोक पक्ष शून्य नहीं है। राजा योगी होकर घर से निकलता है, इतना कह कर कवि भी कहता है कि चलते समय उसकी माता और रानी दोनों उसे रो-रोकर रोकती हैं। कवि ने राजा से संयोग होने पर पद्मावती के रस रंग का वर्णन किया है, वैसे ही सिंहल द्वीप से विदा होते समय परिजनों और सखियों से अलग होने का स्वाभाविक दुःख भी। राधव चेतन के निकाले जाने पर राजा और राज्य के अनिष्ठ की आशंका से पद्मावती उस ब्राह्मण को अपना खास कंगन दान देकर संतुष्ट करना चाहती है। प्रेम पक्ष कैसा सुंदर है। लोक-व्यवहार के बीच भी अपनी आभा का प्रसार करने वाली प्रेम ज्योति का महत्व कुछ कम नहीं।
तोते के मुंह से पद्मावती का रूप वर्णन सुनने से राजा रत्नसेन को पूर्वराग हुआ। पूर्वराग से ही जायसी ने विप्रलंभ श्रृंगार की बहु दशाओं की योजना की है। पूर्वराग पूर्णरति नहीं है, अतः उसमें केवल ‘अभिलाषा’ स्वाभाविक जान पड़ती है, शरीर का सूखकर कांटा होना, मूर्छा, उन्माद आदि नहीं। तोते के मुंह से पहले ही पहल पद्मावती का वर्णन सुनते ही रत्नसेन का मूर्छित हो जाना और पूर्ण वियोगी होना, अस्वाभाविक लगता है। वस्तुतः इस समय का प्रेम रूप लोभ ही कहा जा सकता है। रत्नसेन का प्रेम लक्षण उसी समय दीख पड़ता है, जब शिव मंदिर में पद्मावती की झलक देख बेसुध हो जाता है। इस प्रेम की पूर्णता उस समय स्फुट होती है, जब पार्वती अप्सरा का रूप धारण करके उसके सामने आती है और वह उसके रूप की ओर ध्यान न देकर कहता है किः
भलेही रंग अछरी तोर ताता। मोहि दुसरे सौं भाव न बाता।।
उक्त कथन से रूप लोभ की व्यंजना नहीं होती, प्रेम की व्यंजना होती है। प्रेम का दूसरा रूप चाहता ही नहीं, चाहे वह प्रेम पात्र के रूप से कितना ही बढ़कर हो। यही विशिष्टता और एकनिष्ठता प्रेम है।
रत्नसेन के पूर्व राग वर्णन में जो अस्वाभाविकता आयी है, इसका कारण है, लौकिक प्रेम और ईश्वर प्रेम दोनों को एक साथ व्यंजित करने का प्रयत्न। शिष्य जिस प्रकार गुरू से परोक्ष ईश्वर के स्वरूप का कुछ आभास पाकर प्रेम मग्न होता है, उसी प्रकार रत्नसेन तोते के मुंह से पद्मिनी का रूप वर्णन सुन-बेसुध हो जाता है। ऐसी ही अलौकिकता पद्मिनी के पक्ष में भी कवि ने दिखाई है। राजा रत्नसेन के सिंहल पहुंचते ही, कवि ने पद्मावती की बैचेनी का वर्णन किया है। पद्मावती को अभी तक रत्नसेन के आने की कुछ भी खबर नहीं है। अतः वह व्याकुलता काम की ही कही जा सकती है, वियोग का नहीं। यद्यपि आचार्यों ने वियोग दशा को काम दशा ही कहा है, पर दोनों में अंतर है। समागम के सामान्य अभाव का दुख कामवेदना है और विशेष व्यक्ति के समागम के अभाव का दुख वियोग है। जायसी के वर्णन में दोनों का मिश्रण है। रत्नसेन का नाम तक सुनने के पहले वियोग की व्याकुलता कैसे हुई, इसका समाधान कवि के पास यदि कुछ है तो रत्नसेन के योग का अलक्ष्य प्रभावः
पद्मावति तेहि जोग संजोगा। परी प्रेमबल गहे वियोगा।
विवाह हो जाने के पीछे पद्मावती का प्रेम दो अवसरों पर अपना बल दिखाता है। एक तो उस समय जब राजा रत्नेसन के दिल्ली में बंद होने का समाचार मिलता है और फिर उस समय जब राजा युद्ध में मारा जाता है। ये दोनों अवसर विपत्ति के हैं। साधारण दृष्टि से एक में आशा के लिए स्थान है, दूसरे में नहीं। पर सच्चे पहुंचे हुए प्रेम के समान प्रथम स्थिति में पद्मावती संसार की ओर दृष्टि रखती हुई विह्नल और क्षुब्ध दिखायी पड़ती है और दूसरी स्थिति में दूसरे लोक की ओर दृष्टि फेरे हुए पूर्ण आनंदमयी और प्रशांत। राजा के बंदी होने का समाचार पाने पर रानी की विरह युक्त हृदय में उद्योग और साहस का उदय होता है। वह गोरा और बादल के पास दौड़ जाती है और रो-रोकर उनसे अपने पति के उद्धार की प्रार्थना करती है। राजा रत्नसेन के मरने पर रोना-धोना नहीं सुनायी देता। नागमती और पद्मावती दोनों श्रृंगार करके प्रिय से उस लोक में मिलने के लिये तैयार होती हैं। यह दृश्य हिंदू स्त्री के जीवन दीपक की अत्यंत उज्ज्वल और दिव्य प्रभा है, जो निर्वाण के पूर्व दिखायी पड़ती है। राजा के बंदी होने पर जिस प्रकार कवि ने प्रेम प्रसूत साहस का दृश्य दिखाया है, उसी प्रकार सतीत्व की दृढ़ता का भी।
पद्मावती के नवप्रस्फुटित प्रेम के साथ-साथ नागमती का गार्हस्थ्य परिपुष्ट प्रेम भी अत्यंत मनोहर है। पद्मावती प्रेमिका के रूप में अधिक लक्षित होती है पर नागमती पतिप्राणा हिंदु पत्नी के मधुर रूप में ही हमारे सामने आती है। उसे पहले पहल रूपगर्विता और प्रेमगर्विता के रूप में देखते हैं ये दोनों के गर्व दांपत्य सुख के प्रतीक है। परंतु राजा के निकल जाने के पीछे फिर हम उसे प्रोषित पति के उस निर्मल स्वरूप में देखते हैं, जिसका भारतीय काव्य और संगीत में प्रधान अधिकार रहा है, और है। जायसी के भावुक हृदय ने स्वकीया के पुनीत प्रेम के सौन्दर्य को पहचाना। नागमती का वियोग हिन्दी साहित्य में विप्रलंभ श्रृंगार का अत्यंत उत्कृष्ट निरूपण है। जायसी का विरह वर्णन कहीं-कहीं अत्युक्ति पूर्ण होने पर भी मजाक की हद तक नहीं पहुंचने पाया है, उसमें गंभीर बना हुआ है।
नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात-रात भर रोती फिरती है। इस दशा में पशु-पक्षी, पेड़ जो कुछ सामने आता है, उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है। यह पुष्पदशा धन्य है, जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह जान पड़ने लगता है कि इन्हें दुःख सुनाने से भी जी हल्का होगा। विरह दशा के वर्णन में कवि ने भारतीय पद्धति का अनुसरण किया है। नागमती की विरह दशा में उसके बाग-बगीचे में उदासी बरस रही थी। पेड़-पौधे सब मुरझाये पड़े थे। नागमती के विलाप से घोंसलों में बैठे हुए पक्षियों की नींद हराम हो गयी हैः
फिरि-फिरि रोव, कोइ नहिं डोला।
आधी रात विहंगम बोला।
तू-फिरि फिरि दाहै सब पांखी।
केहि दुख रैनि न लावसि आंखी।
नागमती की दशा पर एक पक्षी को दया आती है। वह उसके दुःख का कारण पूछती है, नागमती उस पक्षी से कहती हैः
चारिउ चक्र उजार भए, कोई न संदेसा टेक।
कहां विरह दुख आपन, बैठि सुनहु दंड एक।
इस पर वह पक्षी संदेश ले जाने को तैयार हो जाता है। पद्मावती से कहने के लिए नागमती ने जो संदेश कहा है वह अत्यंत मर्मस्पर्शीय है। उसमें मान, गर्व आदि से रहित, सुख भोग लालसा से अलग, अत्यंत नम्र, शीतल और विशुद्ध प्रेम की झलक पायी जाती हैः
पद्मावती सौं कहेहु, बिहंगम। कंत लोभाइ रही करि संगम।।
तेहि चैन सुख मिलै सरीरा। मो कहं हिये दुंद दुख पीरा।।
हमहुं बियाही संग ओहि पीऊ। आपहु पाइ, जानु पर जीऊ।।
मोहि भोग सौं काज न, बारी। सौंह दिष्टि के चाहन हारी।।
मानुष्य के आश्रित, मनुष्य के पाले हुए, पेड़ पौधे किस प्रकार मनुष्य के प्रेम से युक्त रहते हैं, यह भी पदमावती में कवि ने दिखाया। बाग, उपवन नागमती के वियोग में मुरझाये हुए हैं:
पलुही नागमती कै बारी। सोन फूल फूलि फुलवारी।।
जावत पंखि रहे रह रहे। सबै पंखि बोले गहग हे।।
इस प्रकार नागमती की वियोग दशा का विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक दिखाई पड़ता था।
नागमती के विरह वर्णन के अंतर्गत प्रसिद्ध बारहमासा भी है, जिसमें वेदना अत्यंत निर्मल और कोमल स्वरूप हिन्दू दांपत्य जीवन का अत्यंत मर्मस्पर्शी माधुर्य अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुरूप है। प्रेम में सुख और दुःख दोनों में अनुभूति की मात्र जिस प्रकार बढ़ जाती है, उसी प्रकार अनुभूति के विषयों का विस्तार भी। संयोग की अवस्था में, जो प्रेम सृष्टि की सब वस्तुओं से आनंद का संग्रह करता है, वही वियोग की दशा में सब वस्तुओं से दुःख का संग्रह करने लगता है। यथाः
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह, दुंद दल बाजा।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नांह मंदिर को छावा?
विरह दशा, दुःख दशा है। इसमें कष्ट कारक वस्तुएं और भी कष्टदायक हो जाती हैं। जैसे-
चारिहु, पवन सकोरै आगी। लंका दाहि पसंका सागी।।
उठे आग्नि और आवै आंधी। नैन न सूझ, मरां दुख बांधी।।
नागमती देखती है कि बहुतों के बिछुडे़ हुए प्रिय आ रहे हैं, पर मेरे प्रिय नहीं आ रहे हैं। यह वैषम्य की भावना उसे और भी व्याकुल करती है। किसी वस्तु के अभाव से दुखी मनुष्य के हृदय की यह अत्यंत स्वाभाविक वृत्ति है। पपीहे का प्रिय पयोधर आ गया, सीप के मुंह में स्वाती की बूंद पड़ गयी, पर नागमती का प्रिय नहीं आयाः
चित्रर मीन कर आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा।।
स्वाति बूंद चालक मुख परे। समुद सीप मोती सब भरे।।
सरवर सैवरि हंस चलि आए। सारस कुरसहिं खंजन देखाए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पद्मावत में प्रेम के प्रति एक ऐसी दृष्टि मिलती है, जो पूरे हिन्दी साहित्य में अनूठी है। जायसी ने हिन्दी साहित्य में पहली बार मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा की। इस प्रकार पद्मावत एक प्रेम काव्य है।
Question : मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की सोई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
कहत, नटत, रीझत, खिसत, मिलत, खिलज, लजियात।
भरे भन में करत हैं, नैंननु ही सब बात।।
नहिं परागु नहि मधुर मधु नहिं विकासु इहि काल।
अली कलि ही सौ वंध्यौ, आगे कौन हवाल।।
(2000)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत दोहा बिहारी कृत बिहारी सतसई से उद्धृत है। प्रथम दोहे में बिहारी ने अपनी सतसई की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से कवि, इस मंगला चरण रूप में दोहे में, श्री राधिकाजी से सांसारिक बाधा दूर करने की प्रार्थना करते हैं। दूसरे दोहे में, नायक और नायिका की चतुरता का वर्णन कोई सखी अपनी सखी से कर रही है। तीसरा दोहा, नवविवाहिता पत्नी के प्रेम में डूबकर अपने कर्त्तव्यों को भूल जाने वाले महाराज जयसिंह के प्रति कवि की उक्ति है।
व्याख्याः ‘मेरी भव बाधा.....।’ दोहा बिहारी की प्रतिभा का अत्युत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें कवि ने ‘सांई’, ‘स्याम’ और ‘हरित-दुति’ शब्दों के तीन-तीन अर्थ रखकर एक ही वाक्य से तीन भाव निकाले हैं, जो तीनों ही उसके इष्टार्थ के साधक हैं। पहला, जिस राधा के शरीर की परछाही पड़ते ही श्याम रंग वाले कृष्ण हरे रंग के हो जाते हैं, वह चतुर राधा मेरे सांसारिक दुःखों का हरण करेगी। इस अर्थ में कवि श्री राधिका जी के शरीर की गोराई की प्रशंसा करता है कि वह ऐसे सुनहरे रंग का है कि उसकी आभा पड़ने से श्याम रंग हरा हो जाता है। पीले तथा नीले रंगों के मेल से रंग का बनना लोक प्रसिद्ध है। इस भांति उनके रूप की प्रशंसा करके कवि उनसे अपनी भव-बाधा दूर करने की विनती करता है। दूसरा अर्थ- जिस राधा के तन की झांकी अर्थात् झलक पड़ते ही श्री कृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं, वही चतुर राधा मेरे सांसारिक दुःख का हरण करें। तीसरा अर्थ- जिस राधा के शरीर का ध्यान करते ही श्याम रंग वाले पदार्थ- दुःख, दैत्य, पाप आदि प्रभाव हीन हो जाते हैं, अर्थात् नष्ट हो जाते हैं, वही चतुर राधा मेरे सांसारिक दुःखों का हरण करें।
दूसरे दोहे में, नायक-नायिका से रति की प्रार्थना करता है। नायिका मना कर देती है। नायक उसके मना करने के ढंग पर रीझ जाता है। उसकी रीझ को देखकर नायिका खीझ जाती है। फिर दोनों में मेल हो जाता है अर्थात् नायिका रति की स्वीकृति दे देती है। इस पर नायक प्रसन्न हो जाता है। उसकी प्रसन्नता देखकर नायिका लज्जित हो जाती है। इस प्रकार गुरूजन आदि से भरे हुए भवनों में वे नेत्रों से ही बातें कर लेते हैं।
तीसरे दोहे में कवि कहते हैं कि हे भ्रमर, अभी तक इस कली में न तो पराग है, न मधुर मकरंद है और न इसका विकास ही हुआ है।
यदि तू इस कली से बंध गया तो जब यह कली पराग और मधुर मकरंद से युक्त होकर विकसित होगी, तब तेरी क्या दशा होगी? भाव यह है कि जिस नायिका के प्रेम में डूबकर तुम अपने कर्त्तव्यों को ही भूल बैठे हो, जबकि वह अभी तक पूर्ण यौवन को प्राप्त नहीं हुई है तो जब वह पूर्ण यौवन को प्राप्त होगी, तब न जाने तुम्हारी दशा क्या होगी?
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. ‘मेरी भव......’ मंगला चरण आशीर्वादात्मक और वस्तु निर्देशात्मक है। ‘नागरि’ शब्द क्रिया-विदग्धा और वाग्विदग्धा नायिका की ओर संकेत करता है। जो ‘बिहारी-सतसई’ का मूल विषय श्रृंगार को प्रकट करता है।
2. ‘सांई’, ‘स्यामु’ और ‘हरित’ शब्द अनेकार्थी होने के कारण श्लेष अलंकार है।
3. ‘स्यामु’ का अर्थ ‘काले रंग वाले पदार्थ’ करने से उपादान लक्षणा है।
4. ‘मेरी भव......’ दोहा की शुरुआत तगण से हुई है, जो मंगलाचरण की दृष्टि से अशुभ मानी जाती है।
5. प्रथम छंद में करम छंद प्रयुक्त हुआ है।
6. ‘कहत, रीझत, खिलत’ और ‘निरत, खिजत, सजियात’ क्रियाओं का एक कर्त्ता होने के कारण कारक दीपक अलंकार है।
7. नेत्र बात नहीं कर सकते, फिर भी उनके द्वारा बात करने का वर्णन है अर्थात् प्रतिबंधक होते हुए भी कार्य का होना वर्णित है। अतः विभावना है।
8. दूसरे दोहे में त्रिकल छंद प्रयुक्त है।
9. नवयौवन के आगमन के कारण तथा उसका ज्ञान न होने से तीसरे दोहे की नायिका अज्ञात यौवना मुग्धा नायिका है।
10. यहां जो वक्तव्य है वह साधर्म्य होने के कारण भ्रमर तथा आसक्त पुरुष पर समान रूप से घटित होता है, अतः अन्योक्ति अलंकार है।
11. तीसरे दोहे में पयोधर छंद प्रयुक्त है।
Question : यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है कि इसके निवासी ‘आर्य’ हैं, विद्या, कला-कौशल सबके जो प्रथम आचार्य हैं। संतान उनकी आज यद्यपि हम अधोगति में पड़े, पर चित्र उनकी उच्चता के आज भी आज भी कुछ है खड़े।
(2000)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश कविवर मैथिलीशरण गुप्त प्रणीत ‘भारत-भारती’ के ‘अतीत खंड’ के अंतर्गत ‘भारत वर्ष की श्रेष्ठता’ शीर्षक से उद्धृत है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में गुप्त जी को द्विवेदी युग का सर्वश्रेष्ठ रचनाकार माना जाता है। द्विवेदी युग का साहित्य मूलतः भारतीय नवजागरण की चेतना से स्पंदित साहित्य है। गुप्त जी द्वारा प्रणीत भारत-भारती आधुनिक हिन्दी कविता का गौरव ग्रंथ है, जिसके द्वारा कवि ने संपूर्ण हिन्दी प्रदेश में नवजागरण एवं राष्ट्रीयता के मूल्यों का प्रसार है।
व्याख्याः भारतीय नव जागरण की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति यह है कि वह वर्तमान की दुरावस्था एवं संकटों से मुठभेड़ के लिए अतीत के गौरव से ऊर्जा ग्रहण करती है। कवि गुप्त जी कहते हैं कि पवित्र भूमि वाला भारत वर्ष अपनी महानता और पावनता के कारण सारे संसार में विख्यात है। अर्थात् सभी देश इसकी महानता से भली-भांति परिचित हैं। यहां के मूल निवासी आर्य जाति के हैं। संसार में आज जितने भी प्रकार की विद्याएं, कला-कौशल आदि हैं प्रचलित, उस सबके प्रथम आचार्य अर्थात् उसके प्रतिपादक और गुरू, भारत-भूमि के निवासी आर्य ही हैं। अर्थात् सभी कलाओं, ज्ञान की बातों का उद्भव भारत वर्ष में ही हुआ और यहीं से अन्यत्र देशों में इसका प्रचार-प्रसार हुआ। उस महान् आर्यों की संतान हमने वर्तमान भारतवासी है जो अवनति और पराधीनता भोग रहे हैं, परंतु आज भी उस सभ्यता के उच्च आदर्शों की झलक हमारे बीच मिल जाती है।
साहित्यिक सौन्दर्यः 1. कवि ने आर्यों का उद्गम स्थान भारत वर्ष को ही माना है। जबकि मानवशास्त्री इस बात को नहीं मानते हैं, वे आर्यों का उद्भव स्थान मध्य एशिया मानते हैं।
2.कवि का भारत को प्रथम आचार्य मानना अत्यंत संगत है।
3. नव जागरण पश्चिमी संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति की टकराहट का परिणाम है पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति प्रकृति पर विजय की कोशिश करती है, जबकि भारतीय संस्कृति सहभाव की संस्कृति है।
4. पद्य में उल्लेख और वर्णन अलंकार है।
5. भाषा शैली सरल, रोचक और आकर्षक है।
6. भाषा प्रसाद गुण संपन्न है।
Question : छायावाद की प्रमुख विशेषताओं के आधार पर कामायनी का मूल्यांकन कीजिए।
(2000)
Answer : कामायनी छायावाद की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसका निर्माण छायावाद की प्रौढ़ वेला में हुआ है और यह छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद की गहन अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति की साकार प्रतिमा है।
इसी कारण इसमें छायावाद की संपूर्ण उन्नत और श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का मिलना नितांत स्वाभाविक है। देखा जाय तो कामायनी महाकाव्य ही छायावाद की प्रतिनिधि रचना है। जयशंकर प्रसाद ने जीवन के जिन संदर्भों को लेकर कामायनी का प्रणयन किया है, वे अत्यंत व्यापक और मोहक हैं। हिन्दी-साहित्य जगत् में तुलसी के रामचरित मानस के पश्चात् कामायनी में कविता को मानवीय संवेदनाओं के नये आयाम उपलब्ध हुए हैं। सत् और चित् के शाश्वत गुणों से संचालित मानवता में आनंद उपलब्ध करने की, जो चिरंतन पुकार उठती है, वह इस काव्य में ध्वनित हुई है। अंतर्जगत् और बाह्य जगत् की कलात्मक अभिव्यंजना इसके महत्व को प्रतिपादित करती है।
छायावाद ने हिन्दी-काव्य के क्षेत्र में एक ऐसी नूतन पद्धति एवं मनन-प्रणाली का प्रचार किया था, जिसके आधार पर कविजन पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक इति वृत्तियों को भी आधुनिक मानव-जीवन से संपृक्त करके अपने काव्यों में प्रस्तुत किया करते थे। उनके सम्मुख मानवोत्थान की भावना सबसे अधिक प्रबल रहती थी और इसी दृष्टि से संपूर्ण इतिहास एवं पुराणों की कथाओं का विश्लेषण किया करते थे। प्रसाद ने कामायनी में जो कथानक चुना है, वह उक्त धारणा का ज्वलंत प्रमाण है, क्योंकि कामायनी में श्रद्धा और मनु का केवल ऐतिहासिक एवं वैदिक आख्यान ही नहीं है, अपितु प्रसाद ने अपनी नूतन चिंतन धारा के अनुसार उसमें एक ओर तो मानवता के क्रमिक विकास का इतिहास प्रस्तुत किया है और दूसरी ओर वर्तमान मन्वन्तर के प्रवर्तक मनु का क्रमिक इतिहास भी प्रस्तुत कर दिया है। ऐसे ही इसी कामायनी महाकाव्य के इतिवृत्त में कवि ने एक ओर चिंताग्रस्त जीव की भौतिक विफलताओं का विवरण देकर, आध्यात्मिक विचारों के द्वारा क्रमशः आनंद शिखर की ओर उन्मुख होने तथा आत्म-साक्षात्कार द्वारा ब्रह्मानंद में लीन होने का वर्णन किया है, तो दूसरी ओर चिंतित मन की सहज प्रवृत्तियों का चित्रण करते हुए, उसे क्रमशः अखंड-आनंद प्राप्त करने के लिए अधोगति से ऊर्ध्वगति की ओर अग्रसर होता हुआ दिखाकर, उसके मनोवैज्ञानिक क्रमिक विकास का चित्रण किया है। ऐसे ही जहां एक ओर कामायनी में शैव दर्शन के आधार पर यह दिखलाया गया है कि कैसे नियति चक्र से संचालित जीव भौतिक संघर्षों में विषमता का शिकार होकर सदैव कष्टमय जीवन यापन करता है और वही समरसता को अपनाकर अखंड-आनंद प्राप्त कर सकता है। इस तरह छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद भी अपनी अद्भुत चिंतन प्रणाली तथा गहन अनुभूति के आधार पर कामायनी में नूतन वर्ण्य विषय की सृष्टि की है।
छायावाद ने हिन्दी के कवियों को एक ऐसी दृष्टि दी है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें प्रकृति में कहीं भी जड़ता दृष्टिगोचर नहीं होती, उन्हें जड़ पदार्थ भी चेतनवत आचरण करते हुए दिखायी देते हैं। कामायनी के कवि प्रसाद ने इसीलिए ‘एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन’ कह कर, इसी एक चेतन तत्व की व्यापकता को स्वीकार किया है। इसलिए उन्हें बल्लरियां नृत्य करती हुई दिखाई देती हैं, मधुकर वीणा बजाते जान पड़ते हैं, चन्द्र किरणें, अप्सराओं की तरह नाचती दिखायी देती हैं और संपूर्ण प्रकृति-लास-रास में विह्वल होकर हंसती हुई सी मौसम जान पड़ती है। जैसेः
रश्मियों बनी अप्सरियां अंतरिक्ष में नाचती थीं,
परिमल का कन-कन लेकर रंगमंच रचती थी,
मौसम सी आज हुई थी हिमवती प्रकृति पाषाणी
उस लास रास में विह्वल थी हंसती सी कल्याणी।
छायावाद ने मानव को धुरी बनाकर अपने समस्त विचार व्यक्त किए हैं। वह मानवता का सर्वाधिक पुजारी रहा है और उसने मानवता को विश्व में विजयिनी घोषित करने के लिए अपनी शुभकामनाएं व्यक्त की है। कामायनी के कवि ने भी इसीलिए अपने काव्य में सर्वाधिक बल मानवता को समुन्नत बनाने पर दिया है। कामायनी में मानव मूल्यों की विवेचना शाश्वत् जीवन के संदर्भों में हुई है। मानवता की सार्थकता जीवन की विराट भूमि पर सौन्दर्य एवं गौरव की प्रतिष्ठा करने में निहित है। जीवन के सौन्दर्य और गौरव का आभास मानव की उदारता, सहृदयता, संवेदनशीलता, सेवा परायणता, आदि उदात्त भावनाओं में मिलता है। उक्त भवाना संचालित मानवता की व्याख्या श्रद्धा की उक्तियों में प्रस्तुत हैः
औरो को हंसते देखो मनु
हंसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो
सबको सुखी बनाओ।
मानवता किसी विज्ञापन और प्रचार का फार्मूला नहीं है। वह मनसा, वाचा, कर्मणा आराधनीय है। ऐसी मानवता राष्ट्रों की अंधी तथा संकीर्ण गलियों से निकलकर सार्वभौमिकता की उच्च भूमि पर खड़ी रहेगी, तभी विश्व विजयिनी होगी। प्रसाद जी ऐसी मानवता के ही पक्षपाती हैं:
शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, जो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय।
छायावाद व्यक्तिवाद की कविता है, जिसका आरंभ व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने और कराने से हुआ, किंतु पर्यवसान संसार और व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ। व्यक्तिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में छायावादी कवि ने जो निर्भीकता और साहस दिखलाया है, वह पहले किसी कवि में नही मिलता। ‘आत्मकथा’ उसका विषय हो गया और ‘मैं’ उसकी शैली। छायावादी युग का मानव अपनी व्यक्तिता की खोज के कितना आकुल था। इसे ‘कामायनी’ के मनु के मुख से सुना जा सकता हैः
वन गुहा कुंज मरू अंचल में हूं खोज रहा अपना विकास। आत्म विकास की टोह में निकला हुआ, यह आधुनिक मनु धीरे-धीरे युगांत तक जाते-जाते इतना व्यक्तिवादी हो गया कि बोल उठाः
मैं तो अबाध गति मरूत सदृश हूं, चाह रहा अपने मन की।
छायावाद ने हिन्दी के कवियों को ऐसी दृष्टि प्रदान की है, जिससे वे प्रकृति में भी एक अतीन्द्रिय सौन्दर्य का दर्शन करते हैं और उस सौन्दर्य पर मुग्ध होकर प्रकृति सुन्दरी की सचेतन प्राणी की भांति विविध व्यापारों से युक्त कल्पना करते हैं। यद्यपि प्रकृति में रमणीयता के साथ-साथ, भयंकरता भी कम नहीं भरी हुई है, तथापि इन कवियों को उसकी भयंकरता में भी रमणीयता के दर्शन होते हैं। कामायनी में ही प्रसाद ने प्रलय के भयंकर रूप का वर्णन करते हुए, धरती और नभ के पारस्परिक आलिंगन व्यापार को भी मार्मिक एवं सुन्दर कल्पना किया हैः
पंचभूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के शकल निपात,
उल्का से कर अमर शक्तियां, खोज रही ज्यों खोया प्रात।
बार-बार उस भीषण रन से कंपती धरती देख विशेष
मानो नील व्योम उतरा हो आलिंगन के हेतु अशेष।
कामायनी में प्रकृति सुन्दरी के रमणीय चित्रों की तो भरमार है। कवि प्रसाद ने रजनी की अनिन्द्य माधुरी का निरूपण एक अभिसारिका नायिका की भांति किया है, जो अपने प्रियतम से मिलने के लिए भागी चली जा रही हैः
पगली हां, सम्हाल ले कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल,
देख बिखराती है मणिराजी अरी, उठाबेसुध चंचल।
फटा हुआ था नील वसन क्या ओ यौवन की मतवाली,
देख, अकिंचन जगत लूटता तेरी छवि भोली-भाली।
छायावाद ने मानव का अखंड एवं अनंत शक्ति स्वरूप नारी की महता स्थापित करके उसे मानव की चिरसहचरी ही नहीं, अपितु असीम प्रेरणा एवं अखंड विश्वास का स्रोत सिद्ध किया है और जीवन के सभी क्षेत्रों में उसकी अव्याहत गति को स्वीकार करते हुए उसे समाज एवं राष्ट्र के उत्थान जैसे कार्यों का मूलाधार बतलाया है। ‘कामायनी’ में नारी की सही महत्ता पग-पग पर अंकित है। प्रसाद ने इसीलिए उसे श्रद्धा रूपिणी कह कर मानव जीवन के समतल में पीयूष स्रोत के समान प्रवाहित रहने की कामाना की हैः
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत-नग पगतल में
पीयूष-स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।
समन्वय की मूर्ति नारी के रूप को भुला देने से ही मनु का जीवन संकट ग्रस्त हो जाता है। आज अहं के उद्रेक में नारी की सत्ता उसके अधिकारों की अवहेलना करने वाले अधिकांश पुरुषों का जीवन भी कम संकट ग्रस्त नहीं है। मनु की अपनी विस्मृति का बोध काम की प्रतिध्वनि से हो जाता हैः
तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है संबन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की।
छायावाद ने एक ऐसा आध्यात्मिक वातावरण की भी सृष्टि की है, जिसमें कवि अपने रहस्यात्मक संकेतों द्वारा उस अव्यक्त एवं अगोचर सत्ता का निरूपण किया करते हैं, जो धर्मप्राण जीवन का मूलाधार है। भक्तों का चिर अवलंबन है और ज्ञानियों का चरम लक्ष्य है। प्रायः आलोचकों ने इसे ‘रहस्यवाद’ नाम दिया है। परंतु यह रहस्यवाद भक्तिकालीन कवि की भांति धार्मिक नहीं है, अपितु मानवीय धरातल पर स्थित है। इसे हम आधुनिक युग की वैज्ञानिक एवं भौतिक प्रगति की प्रति क्रिया कह सकते हैं, क्योंकि आधुनिक विज्ञान ने मानव को नास्तिकता की ओर उन्मुख करके उसके हृदय में यह धारणा उत्पन्न कर दी थी कि आज मानव की सृष्टि का चरम बिंदु है, उससे बढ़कर कोई सत्ता नहीं, कोई शक्ति नहीं, जो सृष्टि का निर्माण या संहार करती हो अथवा जो इस सृष्टि का संचालन करती हो। छायावादी कवि ने इसी बद्धमूल धारणा को ध्वस्त करने के लिए अव्यक्त और अगोचर सत्ता का स्थान-स्थान पर निरूपण किया है। कामायनी में भी इसीलिए कवि प्रसाद ने उस अव्यक्त और अगोचर सत्ता के अस्तित्व का निरूपण करते हुए घोषणा की हैः
सिर नीचा कर किसकी सत्ता सब करते स्वीकार कहां?
सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका, वह अस्तित्व कहां?
हे अनंत रमणीय! कौन तुम? यह मैं कैसे कह सकता।
हे विराट! हे विश्व देव! तुम कुछ हो ऐसा होता मान,
मन्द गंभीर धीर स्वर संयुक्त यही कर रहा सागर गान।
छायावाद ने हिन्दी कवियों को एक ऐसी चित्रेपम भाषा प्रदान की है, जिसमें भावानुकूल शब्दों का प्रयोग करके कवि वस्तु-स्थिति एवं मनोभावों के अत्यंत सजीव और संश्लिष्ट बिंब प्रस्तुत किया करता है और ये बिंब पाठकों के मनश्चक्षुओं के सम्मुख चल-चित्र की भांति अविरल गति से चलते हुए प्रतीत होते हैं। प्रसाद ने कामायनी में ऐसे ही अनेक गत्यात्मक चित्रों का निर्माण किया है, जिसमें चित्रेपम भाषा का अनिन्द्य सौन्दर्य विद्यमान है। जैसे प्रलयकारी समुद्र की उत्ताल तरंगों का वर्णनः
उधर गरजती सिंधु लहरियां कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रही फेन उजलती फन फैलाये व्यालो सी।
धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वाला मुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास।
छायावाद ने हिन्दी काव्य को ऐेसे नूतन प्रतीक प्रदान किये हैं, जो सूक्ष्म मनोभावों, चेष्टाओं एवं पदार्थों के बिंब प्रस्तुत करने में सर्वथा समर्थ एवं सशक्त होते हैं तथा जिसके द्वारा छायावादी कवियों ने सांकेतिक शैली का प्रयोग करते हुए, अपने हृदयस्थ मनोभावों का संकेत रूप में चित्रण किया है। प्रसाद ने कामायनी में बहुत सुंदर प्रतीकों का प्रयोग किया है। काम सर्ग में यौवन का निरूपण करते हुए कवि प्रसाद ने वसंत के प्रतीक द्वारा यौवन के आगमन की कितनी मार्मिक झांकी अंकित की है-
मधुमय बसंत जीवन वन के वह अंतरिक्ष की बलहरों में।
कब आये थे तुम चुपके से रजनी के पिछले पहरों में।
क्या देखकर आते यों मतवाली कोयल बोली थी,
उस नीरवता में अलसाई कलियों ने आंखे खोली थी।
छायावाद ने अपनी अभिव्यक्ति को अधिक सरस सजीव और सुंदर बनाने के लिए लाक्षणिकता का सर्वाधिक प्रचार किया है। प्रसाद तो माधुर्य की दृष्टि के लिए लक्षणा के व्यापार का सर्वाधिक प्रचार किया है। जैसे विरह विधुरा श्रद्धा की दीन-हीन दशा का मर्मस्पर्शी चित्र अंकित करते हुए, प्रसाद ने लाक्षणिक पदावली का कितना सरस प्रयोग किया हैः
कामायनी कुसुम वसुधा पर पड़ी न वह मकरंद रहा,
एक चित्र बस रेखाओं का अब उसमें है रंग कहां?
प्रसाद ने उपचारूवक्रता को छायावाद की एक प्रमुख विशेषता बतलाया है। प्रसाद ने कामायनी के वर्णनों को अधिक सरस एवं आकर्षक बनाने की लिए, इस उपचार वक्रता का अधिक प्रयोग किया है। इसीलिए सरिता जैसे अचेतन पदार्थ में चेतन का सा आरोप करते हुए कवि ने लिखा हैः
नुजलता पड़ी सरिताओं की शैलों के गले सनाथ हुए
जल निधि का अंचल व्यंजन बना धरणी का दो-दो साथ हुए।
छायावाद की अभिव्यक्ति में नाद-सौन्दर्य एक प्रमुख विशेषता मानी जाती है। कामायनी में प्रसाद ने भी ऐसी पदावली का प्रयोग कितने जगहों पर किया है, जिसमें नादात्मक सौन्दर्य विद्यमान है। यथाः
(क)धंसती धरा धधकती ज्वाला।
(ख)धू-धू करता नाच रहा था। अनस्तित्व का ताण्डव नृत्य।
(ग)कंवण खणित रणित नूपुर थे।
(घ)सधन गगन में भीम प्रकंपन।
छायावाद ने तीन ऐसे नूतन अलंकारों का अधिक प्रचार एवं प्रसार किया है, जो प्राचीन अलंकारों के साथ-साथ सभी कवियों द्वारा अधिक प्रयुक्त हुआ है। इसके नाम हैं- मानवीकरण अलंकार, विशेषण-विपर्यय अलंकार और ध्वन्यर्थ व्यंजन अलंकार। इसमें से मानवीकरण के अंतर्गत भावनाओं में मानव गुणों अथवा मानवीय अंगों के कार्यों का आरोप किया जाता है। जैसे कामायनी में लज्जा सर्ग के अंतर्गत लज्जा नामक मनोभाव को एक नारी के रूप में चित्रित करके इस मानवीकरण का बड़ा ही सजीव प्रयोग किया गया हैः
संध्या की लाती में हंसती उसकी ही आश्रय लेती सी
छाया प्रतिमा गुन-गुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी।
विशेषण विपर्यय और ध्वन्यर्थ अलंकार का प्रयोग भी कामायनी में काफी हुआ हैः
विशेषण विपर्ययः (क) खुली उसी रमणीय दृश्य में अलग चेतना की पांखे।
(ख)जलधि लहरियों की अंगड़ाई बार-बार जाती सोने।
ध्वन्यर्थ व्यंजनाः (क) यह क्या तम में करता सन-सन,
(ख) छप-छप का होता शब्द विरल, थर-थर कंप रहती दीप्ति तरल।
छायावाद से पूर्व एक ऐसी नियम बद्ध एवं शास्त्रीय छंद रचना प्रचलित थी, जिसका प्रयोग सभी हिन्दी के कवि किया करते थे। परंतु छायावाद ने एक ओर तो नये-नये छंदों के अविष्कार की भावना को जन्म दिया और दूसरी ओर अतुकांत छंदों वाली पंक्तियां लिखने का अत्यधिक प्रचार किया। कामायनी के अंतिम सर्ग आनंद में कवि ने पूर्णतया नवीन एवं स्वनिर्मित छंद का प्रयोग किया है। इसमें 14-14 मात्रओं के विराम से 28 मात्रएं होती हैं। कुछ विद्वान इसे प्रसाद छंद ही कहते हैं। यथा-
चलता था धीरे-धीरे,
वह एक यात्रियों का दल,
सरिता के रम्य-पुलिन में,
गिरिपथ से ले निज संबल।
अंततः छायावाद कामायनी में अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है और छायावाद की नूतन अनुभूति, नूतन अभिव्यंजना-प्रणाली एवं नूतन चिंतन पद्धति को अपनाने के कारण ही कामायनी महाकाव्य छायावादी युग की ही नहीं अपितु हिन्दी के आधुनिक युग की प्रतिनिधि रचना है।
Question : विजन-वन-बल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल-कोमल-तनु तरुणी-जुही की कली,
दृग बंद किये, शिथिल, पत्रंक में,
वासंती निशार्थी,
विरह विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
(2000)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत पद्यावतरण निरालाकृत ‘राग-विराग’ के ‘जुही की कली’ से उद्धृत है। इस कविता में वसंत के आगमन और नायिका के उन्मुक्त प्रणय भावना की सादृश्यता है।
व्याख्याः सूने वन में उगी, विकसित लता पर पत्तों की गोदी में प्रेम की मधुर कल्पनाओं में डूबी, निर्मल-कोमल शरीर वाली पतली कमर वाली युवती के समान पूर्ण विकसित जुही की कली अपनी आंख बंद किए अर्थात् उन खिले रूप में, शिथिल शरीर से अर्थात् खिलने की प्रक्रिया में चुपचाप सो रही थी। वह बसंत की एक रात थी। उस कली का प्रिय मलयानिल उसे विरह से दुःखी कर अभी किसी दूर देश में ही था। अर्थात् प्रातः काल की मंद पवन का स्पर्श पाकर अभी तक जुहीं की वह कली खिल नहीं पाई थी।
भाव यह है कि जिस प्रकार प्रिय के परदेस में रहने के कारण उनके वियोग से व्याकुल नायिका कोमल सेज पर पड़ी रहती है, उसी प्रकार गत काल न होने मंद वायु के न बहने के कारण अभी तक जुही की कली भी अनखिली पत्तों की सेज पर चुपचाप सो रही थी।
विशेषः पद्य भाग में अन्योक्ति और अनुप्रास अलंकार है।
Question : अग्नि जो लागी नीर मैं, कंदू जलिया झारि।
उतर दषिण के पंडिता, रहे विचारि विचारि।।
दौ लागी साइक जल्या, पंषी बैठे आइ।
दाधी देह न पालवै, सतगुर गया लगाइ।।
समंदर लागी आगि, नदिया जल कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढि़ गई।
(1999)
Answer : संदर्भ-प्रसंगः उपर्युक्त पद्यांश कबीर की साखी ‘ग्यान बिरह को अंग’ से उद्धृत है। इसमें कबीर ने उलटवासी के माध्यम से अपने भीतर परमात्मा से मिलने की विरह रूपी जो आग लगी है, उसको अभिव्यक्त किया है।
व्याख्याः कबीर कहते हैं कि उनके मानस रूपी नीर या जल में विरह की आग लग चुकी है, जिसके फलस्वरूप उसमें निहित विकार या वासना रूपी कीचड़ पूर्णतया जलकर भस्म हो चुका है। कीचड़ के जलने में एक व्यंजना यह भी है कि जिस प्रकार कीचड़ जल में सबसे नीचे रहता है वैसे ही मानस के सबसे नीचे तल अर्थात् अवचेतन में सांसारिक वासनाएं निवास करती हैं। वे भस्म हो जाती है। उत्तर-दक्षिण यानी चारों दिशाओं के पंडित भी इस मर्म को समझ नहीं पा रहे हैं। चूंकि पंडितों का ज्ञान केवल पुस्तक तक सीमित रहता है, इसलिए वे इसे समझ नहीं पा रहे हैं।
सद्गुरु के द्वारा लगायी गयी ज्ञान विरह की इस आग से मानस रूपी सरोवर जल गया। इसके फलस्वरूप जीव रूपी पंक्षी वासनाओं के जलने के पश्चात अपना संबंध इससे बिल्कुल तोड़ लिया और पुनः उससे नहीं जुड़ेगा। अर्थात् उसकी आत्मा अब शारीरिक रूप धारण नहीं करेगी।
कबीर कहते हैं कि उसके विषयाक्त मानस में लगी ज्ञान रूपी आग के फलस्वरुप इंद्रियां रूपी नदियां जलता कोयला हो गयी। अर्थात् पूर्णतया नष्ट हो गयी, चूंकि आत्मा को विषय-वासना में लिप्त रखने में इंन्द्रियों की ही भूमिका होती है।
इसलिए उसके नष्ट होते ही आत्मा इससे मुक्त हो जाती है। कबीर का जीवात्मा इसे देखते ही सहस्त्रदल कमल पर पहुंच गया अर्थात बह्म से उसका एकाकार हो गया है।
विशेषताः उपर्युक्त पंक्तियों में क्रमशः असंगति एंव अन्योक्ति अलंकार है।
Question : ‘कबीर एक ओर तो अद्वैतवाद के समर्थक हैं और दूसरी ओर भगवद्भक्ति के द्वंद्व स्तंभ’, समीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : कबीरदास की भक्ति अथवा साधना पद्धति में सभी पद्धतियों का सामंजस्य दिखता है। जहां उनमें अद्वैतवाद के तत्व प्राप्त होते हैं वहीं भगवद्भक्ति के तत्व भी। वस्तुतः वे किसी एक पद्धति से जुड़कर चिपके रहने में विश्वास नहीं करते थे। वे दोनों पद्धतियों से तत्व लेते हैं, पर राह अपनी बनाते हैं।
कबीर के ब्रह्म, माया एवं जगत् संबंधी विचारों में अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अद्वैतवादी दर्शन के मुताबिक ही कबीरदास जी के ब्रह्म और जगत में आस्था भेद है। ब्रह्म कारण है, जगत है कार्य। ब्रह्म बिंब है, जगत है प्रतिबिंब। जगत के जीवों में व्याप्त आत्मा उस परमात्मा का ही अंग है, उस ब्रह्म के ही छोटे-छोटे टुकड़े का समूह हैः
‘एके राम देखया सबहि में कहे कबीर मनमाना
मारी एक धरी नाना ता में ब्रह्म समाना।
कबीर कहते हैं कि जो दर्पण में देखता है और जो दिखता है दोनों एक ही है। जो देख रहा है वह बिंब है, जो दिख रहा हैं वह प्रतिबिंब है। इसी तरह ब्रह्म ही दर्पण रूपी जगत के प्रतिबिंब होता है। अद्वैतवाद के समान ही कबीर मानते हैं कि ब्रह्म ही जगत के रूप में अभिव्यक्त है। इस जगत में अनेक जीवों के रूप में ही अपने को प्रकट किया है। यह जीव ब्रह्म को तब तक विस्मृत किए रहता है जब तक उस पर माया का प्रभाव रहता है। यह माया ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में दीवार है। यह वेष बदल कर नया-नया रूप धारण कर लोगों को आकर्षित करती है। इस माया का सबसे प्रभावशाली रूप है कामीनी रूप। वैसे काम के ढेर सारे अर्थ है, लेकिन कबीरदास जी ने नारी पुरुष के आकर्षण को परस्पर कामिक शक्ति के रूप में देखा है। कबीर की राय में इस कामिनी रूपी माया से कोई घर खाली नहीं है। मुनियों एवं देवताओं तक को इस माया ने नहीं छोड़ा। केशव के घर में यहीं कमला है, तो शिव के घर में भवानी। योगी के घर योगिन है, तो राजा के घर रानीः
केशव के घर कमला है बैठी
शिव के घर भवानी
योगी के घर योगिन है बैठी
राजा के घर रानी।
इस माया से छुटकारा पाना ही आत्मा और परमात्मा की, पुनः एक बार सत्ता स्थापित करना है। अद्वैतवाद में आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो भाग हैं। जिन्हें माया रूपी परदे से अलग कर दिया गया है। जब माया नष्ट हो जाती है, तब दोनों भागाें का पुनः एकाकार हो जाता है। कबीर इस बात को इस ढंग से लिखते हैं:
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाटिर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समान, यहु तत कथो गियानी।।
अर्थात् एक घड़ा जल में तैर रहा है। उस घडे़ में पानी भी है। घड़े के भीतर जो पानी है वह घड़े के बाहर के पानी से किसी प्रकार भी भिन्न है, किन्तु वह अलग इसलिए है, क्योंकि घड़े की परत दोनों को मिलने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार माया, ब्रह्म के दो स्वरूपों को अलग करती है। किंतु जैसे ही घड़ा फूटता है, माया रूपी परत समाप्त हो जाता है और दोनों जल मिल जाते हैं। मिलने के पश्चात् यह पहचान कर पाना मुश्किल होता है कि घड़े का पानी कौन-सा है और घड़े के बाहर का पानी कौन-सा है। कबीर कहते हैं कि उसकी जीवात्मा सांसारिक मायामोह से पिंड छुड़ाकर ब्रह्म इस कदर यानी अपने वास्तविक स्वरूप से इस तरह घुलमिल गया कि पहचान पाना कठिन हो गयाः
मैं औरनी, औरनी मैं सब
मेरी बिलग विलग बिलगाइ हो
कोई कहे कबीरा
कोई रामराई हो
वस्तुतः कबीर का ब्रह्म अद्वैतवाद के समान ही घट-घट में निवास करने वाला है। अद्वैतवाद के अलावा कबीरदास भगवद्भक्ति के दृढ़ स्तंभ भी है। यहीं सही है कि कबीरदास ने अद्वैतवाद के निर्गुण राम को स्वीकार किया। किंतु यह निर्गुण राम केवल योग और बुद्धि से प्राप्त नहीं हो सकता था।
वे तो अंधानुकरण में विश्वास नहीं रखते थे। ‘आंखिन देखी’ सत्य को ही वे स्वीकार करते थे। उन्होंने अपनी रुचि और विवेक से तत्कालीन मार्ग एवं पद्धतियों से गुण ग्रहण किये, जिसमें भक्तिमार्ग भी है। निर्गुण राम की प्राप्ति के लिए सर्वथा निरीह, विपन्न और प्रसन्न भाव से जागना होगा। इसलिए वे कहा करते थे कि राम की प्राप्ति न जप से, न तप से, न वेद-पुराण स्मृति से संभव है। संभव है तो केवल भक्ति सेः
ना हरि रीझै जप तप कीन्हें, ना काया के जारे।
ना हरि रीझै धोती छांडे़, न पांचों के मारे।
दया राखि धरम को पालै, जग सो रहे उदासी।
अपना सा जिव सबको जामै, ताहि मिलै अविनासी।
‘भक्ति’ का आधार दया, प्रेम, आत्मसमर्पण इत्यादि है। भक्ति सूत्रकार ने कहा है कि भक्ति के लिए अनन्य भाव से भगवान की शरणागति, निष्कारण प्रेम एवं बिना शर्त आत्म समर्पण आवश्यक है। कबीरदास की निर्गुण मार्ग के द्वारा ब्रह्म को पाने की राह में ‘प्रेम से आते ही सारा ज्ञान को ढ़ाई अक्षर के प्रेम से तौल देते हैं:
पोढि पढ़त-पढ़त पंडित भ्या न होइ।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित कोइ।
कबीरदास भगवद्भक्ति में इस तरह रमे थे कि शाक्त की चर्चा होते ही, उसकी निंदा करना शुरू कर देते थेः
वैष्णव की कूकरि भली, साकत की बुरी माइ।
ओह सुनहि हरिनाम जस, वह पाप बिसाइन जाइ।
भगवद्भक्ति के अर्जन के लिए मनुष्य को अपने हृदय को सर्वथा निष्कलुष और पवित्र बनाना पड़ता है। अंतर्जगत और बाह्य जगत के पूर्ण सामंजस्य के बिना भक्ति का पूर्ण विकास संभव नहीं है। कबीर तो राम और अपने को हमेशा एक समझते थे। इसलिए राम की तारन-तरन उपाधि उन्हें पसंद नहीं थी। इसका यह तात्पर्य होता है कि राम तारने वाला है और भक्त तरने वाला है। तो फिर तरने के बाद भक्त का पार्थवन बना रहेगा। कबीरदास की यही निष्काम भक्ति और निष्काम आचरण की प्रवृत्ति कि उन्होंने अपने को भगवत का एक अनुयायी और अंग समझा।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि कबीरदास एक ओर तो अद्वैतवाद के समर्थक हैं और दूसरी ओर भगवद्भक्ति के दृढ़ स्तंभ।
Question : ऊधो! प्रीति न मरन विचारै।
प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहि टारैं।।
प्रीति परेवा उड़त गगन चढि़, गिरत न आप सम्हारै।
प्रीति मधुप केतकी कुसुम वसि कंटक आवु प्रहारै।।
प्रीति जानु जैसे पय पानी, जानि अपनपौ जारै।
प्रीति कुरंग नाद रस लुब्धक, तानि-तानि सर मारै।।
प्रीति जान जननी सुत कारन, को न अपन पो हारै।
सूर स्याम सौ प्रीति गोपिन की, कहु कैसे निरूवारै।।
(1999)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत पद्यांश सूरदास विरचित सूरसागर के भ्रमरगीत सार से उद्धृत है। राग सा रंग में रचित इस पद में सूर की गोपियां मथुरा से कृष्ण का संदेश लेकर आए उद्धव को यह बता रही हैं कि प्रेम के मार्ग एक बार अपना लेने के पश्चात् कोई भी मृत्यु की परवाह नहीं करता। इसके लिए गोपियों की कई दृष्टांत भी उसके समक्ष प्रस्तुत करती हैं।
व्याख्याः गोपियां कहती हैं कि है उद्धव मृत्यु का भय किसी प्रेममार्गी को उसके मार्ग से विचलित नहीं करता, क्योंकि कोई इस पर विचार नहीं करता। प्रेम से जो आनंद की प्राप्ति होती है उसके समक्ष हंसते-हंसते जीवन भी उत्सर्ग करना कम ही है। यथा, पतंगा का दीपक के प्रति ऐसा प्रेम है कि वह उसमें जल जाता है और जलते समय उस आग की ज्वाला से अपने शरीर को पृथक नहीं करता या उड़ नहीं जाता। इसी प्रकार कबूतर भी अपनी प्रेमिका कबूतरी को देखने के लिए अपनी जान की परवाह किये बिना ऊंचे आकाश में पहुंच जाता है, यह जानते हुये भी कि इतने ऊंचे आकाश से गिरने पर मर सकता है।
प्रेमवश भ्रमर केतकी फूल के कांटों से अपने कोमल अंगों को बेधने से मृत्यु होने की परवाह न करते हुए उस पुष्प में बस जाता है। प्रेम तो उस पानी या दूध से देखने लायक है। अपनापन में दूध केा बचाकर खुद को जला देता है। हिरण संगीत के आनंद में इस कदर रम जाता है कि उसे बहेलिया के बाणों का प्रहार भी विलग नहीं कर पाता और अपने संतान को प्रेम के कारण ही कौन माता अपना सुख-दुख को भुला देती है? तात्पर्यतः सभी माता अपने पुत्र के लिए अपना सुख दुख न्योछावर कर देती है। गोपियां उद्धव से कहती हैं कि श्याम से उनका प्रीत भी ऐसा ही है, जिसे दूर नहीं किया जा सकता है।
Question : भ्रमरगीत में अभिव्यक्त सूर की भक्ति भावना का सांगोपांग विवेचन कीजिए।
(1999)
Answer : परंपरागत भक्ति के दो प्रकार हैं- गौणी तथा परा। गौणी भक्ति सामान्य जनों की भक्ति है। परा से तात्पर्य है- आध्यात्मिक या श्रेष्ठ। अनुकूल भाव से ईश्वर का स्मरण ही पराभक्ति है। गौणी भक्ति के भी दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा। विधि-विधान पूर्वक की गयी भक्ति को वैधी भक्ति कहा गया है। जबकि रागानुगा प्रेममय भक्ति है। कामरूपा तथा संबंधरूपा रागानुगा भक्ति के दो प्रकार हैं। भ्रमरगीत में गोपियों की जिस भक्ति का उद्घाटन प्राप्त होता है वह रागानुगा भक्ति है। इस भक्ति में भक्त चारों ओर से अपने चित्त को हटाकर एकमात्र भगवान में केंद्रीभूत करना चाहता है। जब सूर की गोपियां उद्धव से कहती हैं
नाहिंन रह्यो मन में ढौर
नंद नंदन आछत कैसे आनिए उर और
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सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रही ब्रजनारी
तो इसका तात्पर्य भी अन्य जगहों से ध्यान हटाकर एकमात्र कृष्ण के प्रेम में ही तल्लीन होना है। भ्रमरगीत में जिस रागानुगा या प्रेमलक्षणा भक्ति का प्राधान्य है, वहीं कांता भाव या माधुर्य भाव की भक्ति है, जिसे गोपियों ने शनैः-शनैः प्राप्त किया था। अर्थात् वात्सल्य रस की सीढि़यों पर चढ़कर ही गोपियों ने भक्ति के अंतिम सोपान माधुर्य भाव को प्राप्त किया। रागानुगा भक्ति में वैधी भक्ति के समान विधि-विधान या मर्यादा का आग्रह नहीं होता। यह भगवान की कृपा पर आश्रित होता है। भगवान का अनुग्रह ही इसका पोषण करता है। वल्लभाचार्य ने इसे ही पुष्टिमार्गीय भक्ति की संज्ञा दी। गोपियां श्री कृष्ण से अपना सच्चा प्रेम संबंध बनाये रखने के लिए माता-पिता, समाज इत्यादि की मर्यादा का भी ख्याल नहीं रखतीः
हम अलि गोकुल नाथ अराध्यो।
मन, बच, क्रम हरि सों धरि, पतिव्रत प्रेमयोग तप साह्यो
मातु-पिता हित प्रीति निगम पथ तजि दुख-सुख भ्रम नाट्यों
मान अपमान परम परितोषी अस्थिर चित मन राख्यो।।
माधुर्य भाव की तीन अवस्थाएं होती हैं- प्रेम, आसक्ति तथा वसना, प्रेम रूपाकर्षण से शुरू होता है। यह प्रेम जब बेचेंनी का सबब बन जाता है तब एक दूसरे को देखे बिना शांति नहीं मिलती, जो आसक्ति की दशा है। सूरदास जी कहते हैं:
उधो कैसे विसरत वह नेह
हमारे हृदय आनि नंद-नंदन
रच-रच किये गेह।
भ्रमरगीत में गोपियों की जिस भक्ति भाव की अभिव्यक्ति हुई है। उसमें उनके प्रेम की सात्विकता अंतनिर्हित है। वे उद्धव की लाख कोशिशों के बावजूद श्रीकृष्ण के प्रति अपने सात्विक प्रेमयोग की साधना कभी त्यागना नहीं चाहती। भले ही कोई मर्यादा तोड़नी पडे़। वैसे भी रागानुगा भक्ति में मर्यादा की परवाह की अपेक्षा नहीं की जातीः
पीत ध्वजा उनके पीताम्बर, लाल ध्वजा कृष्णा व्यभिचारी,
सत की ध्वजा सेत ब्रज ऊपर अजरन हेतु, उधो-पै प्यारी
राधा और कृष्ण का प्रेम या गोपियों से उनका प्रेम उस बिंदु पर पहुंच चुका है, जहां कोई भी अवरोध उसे रोक नहीं सकता। भ्रमरगीत की गोपियां, उद्धव से कहती हैं कि यह प्रेम आज का नहीं, बल्कि पुराना है। यह बचपन से ही चला आ रहा है तो फिर अचानक कैसे छूटेः
लरिकाई को प्रेम, कहो अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित अब अंतरगति यौ लूटत।
पुष्टि भक्ति प्रेममय भक्ति है। पुष्टि का अर्थ होता है पोषण। पोषण का अर्थ होता है अनुग्रह। कृष्ण की बांसुरी अनुग्रह संचारिका है। वह कृष्ण को गोपियों से आह्नान है। यह पुष्टि दो प्रकार की है, साधन रूपा तथा साध्य रूपा। साधन रूपा भक्ति में भक्त को स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है, जबकि साध्य रूपा भक्ति में भक्त ईश्वर पर अपने को पूर्णरूप से समर्पित करता है। अपने को उसकी कृपा पर छोड़ देता हैः
जा पर दीनानाथ धरे
सोई कुलीन बड़ों सुंदर सोई
जा पर कृपा करे।
भ्रमरगीत में गोपियां रूप और संबंध को ही कृष्ण की प्राप्ति के उपाय के रूप में देखती हैं। उद्धव जब उनसे निर्गुण तथा अरूप ब्रह्म को साधने की सलाह देते हैं, तो वे भौंचक रह जाती है। उन्हें आश्चर्य होता है कि जिस कृष्ण ने उन्हें अपने रूप से रिझाया, वे ही अपने रूप का निषेध कैसे कर सकते हैं? गोपियां, उद्धव से कहती है कि कृष्ण ने अपने को जिस रूप में, जिन संबंधों में अभिव्यक्त किया है, उन्हीं के माध्यम से उन्हें जाना भी जा सकता है। वे तो उद्धव से निगुर्ण का ही अता-पता पूछ कर चकरा देती हैः
निर्गुण कौन देश को वासी
को हैं जनक जननी को कहियत
कौन नारी को दासी
कैसो वर्ण भेष है कैसो
केहि रस के अभिलाषी।
Question : स्वारथु नाथ फिरें सबही की
किये रजाइ कोटि विधि नीका।
यह स्वारथ परमारथ सास
सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू।
देव एक विनती सुनि मोरी
उचित होई तस करन वहोरी।
तिलक समाज साजि सबु आना
करिअ सुफल प्रभु जौ मनु आना।
सानुग पढइअ मोहि बन, कीजिअ सबहि सनाथ
नतरू फेरि अहि बंधु, दोउ नाथ चलौ मैं साथ।
(1999)
Answer : सन्दर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत पंक्यिां भक्त कवि तुलसीदास द्वारा विरचित महाकाव्य रामचरित मानस के अयोध्याकांड से उधृत है। राम जब अपना गृह छोड़कर वनवास चले जाते हैं, तब भरत सहित पूरा परिवार उन्हें लेने वन में आते हैं और कई प्रकार से मनाने का यत्न करते हैं। उपर्युक्त पंक्तियों में भरत ने अपनी आत्मग्लानि को व्यक्त करते हुए स्वयं वन में रहने की इच्छा व्यक्त की है।
व्याख्याः भरत, राम से कहते हैं कि हे नाथ! आपके अयोध्या लौटने में ही सबका स्वार्थ है और आपकी आज्ञा शिरोधार्य करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण हैं। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार है। यहीं समस्त पुण्यों का फल और सभी शुभगतियों का आभूषण या श्रृंगार है। भरत कहते हैं कि हे देव स्वरूप भ्राता! मेरी एक विनती है, जिसे सुनने के उपरान्त आप जैसा उचित समझे वैसा करें। मैं अयोध्या के राजतिलक की सारी सामग्री सजाकर साथ लाया हूं। हे प्रभु! यदि आपका मन माने या इच्छा हो तो अपना राजतिलक करवाइये जिससे यहां सामग्री लाने का उसका परिश्रम सफल हो।
हे भ्राता, अपने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित मुझे यानी भरत को वन में भेज दीजिए और आप अयोध्या वापस लौटकर, आपके बिना अनाथ प्रजा को सनाथ कीजिए। यदि आपको यह आग्रह स्वीकार नहीं है तो हे नाथ, दोनों छोटे भाइयों लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न को वापस अयोध्या भेज दें और मैं (भरत) आपके साथ चलूंगा (वन में)।
विशेषताः उपर्युक्त पंक्तियों में अनुप्रास तथा काव्यलिंग अलंकार है।
Question : ‘कवितावली को आप मुक्तक रचना मानते हैं या प्रबंध रचना।’ सप्रमाण अपने मत का समर्थन कीजिए।
(1999)
Answer : काव्यशास्त्र में तीन प्रकार के काव्यों का उल्लेख मिलता है। प्रबंध काव्य, निबंध काव्य और मुक्तक काव्य। प्रबंध काव्य में कथा की एक सुव्यवस्थित योजना रहती है। इसमें पूर्वापर संबंध का निर्वाह आवश्यक होता है अर्थात् प्रत्येक सर्ग अथवा कांड कथात्मकता की दृष्टि से एक-दूसरे से संबंद्ध होता है। इसके अलावा एक सर्ग की पंक्ति आगामी सर्ग की शुरुआत से जुड़ी होती है। साथ ही प्रबंध काव्य में नायक, प्रतिनायक, नायिका तथा अन्य सहायक पात्रों की संयोजना रहती है, जिनके माध्यम से मूल कथा विकसित होती है। किसी विशिष्ट रस की स्थिति भी प्रबंध काव्य की अनिवार्य विशेषता होती है अर्थात् अंगीरस का नियोजन उसमें होता है।
‘वहीं मुक्त काव्य को काव्यशास्त्र में परिभाषित करते हुए कहा गया है’ मुक्तक वह पद्य रचना है, जो निर्बाध हो, परतः निरपेक्ष और स्वतः पर्यवसित हो, जिसके प्रतिपाद्य अर्थ की प्रतिपत्ति के लिए पूर्वापर संबंध आवश्यक न हो और स्वतंत्र रूप से चमत्कारी हो अर्थात् रसानुभूति कराने में समर्थ हो।
उपर्युक्त दोनों काव्य स्वरूपों के अनिवार्य तत्वों के आधार पर कवितावली का मूल्यांकन किया जाए तो यह प्रतीत होता है यह मुक्तक काव्य की श्रेणी में आता है। कवितावली में श्रीराम कथा की सुव्यवस्थित योजना नहीं है। इसमें राम कथा से जुड़े हुए कतिपय प्रसंगों को चुनकर अपने हृदय के उद्गारों को निश्चल अभिव्यक्ति प्रदान की है। वस्तुतः कवितावली में कवि का लक्ष्य श्रीराम के जीवन की विधिवत् कथा कहना नहीं है।
यह कार्य वे रामचरितमानस में ही कर चुके थे। फलतः तुलसी जैसे कवि पुनः इसे दोहराने का खतरा नहीं मोल ले सकते थे। हालांकि श्रीरामचरित मानस की तरह ही कवितावली भी सात कांडों में विभक्त किया गया है, जिसमें श्रीराम के जीवन से जुड़े कतिपय प्रसंगों का चयन करके उनका सजीव वर्णन किया गया है। कवितावली का उत्तरकांड जो कि सर्वाधिक विस्तृत कांड है, उसमें कवि ने राम से इतर विषयों पर भी लिखा है। हालांकि शेष छः कांडों में श्रीराम की ही कथा वर्णित हैं, किंतु उसमें क्रमबद्धता नहीं है। इस आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जाता है कि कवितावली में रामकथा के केवल खंडचित्र और झलकियां ही चित्रित हैं।
कवितावली में पात्र तो सभी रामकथा से जुडे़ हैं, किंतु इन पात्रों का सही अर्थों में चारित्रिक विकास नहीं हो सका है। पात्रों के चरित्र उभरकर सामने नहीं आ पाया। पर इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि कवितावली में पात्रों के चरित्र के पहचान में किसी प्रसंग की कठिनाई होती है। इसका मुख्य कारण है कि कवितावली के सभी पात्र भारतीय जनमानस में गहरे दबे हुए हैं। फलतः कहा जा सकता है कि कवितावली मुक्तक काव्य है।
Question : ‘नारी केवल माता है और इसके उपरांत वह जो कुछ है, वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूंगा- जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी।’
(1999)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचंद के महाकाव्यात्मक उपन्यास गोदान से उद्धृत है। यह कथन मिस्टर बी मेहता का है जो रायसाहब अमरपाल सिंह के सहपाठी तथा यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हैं।
व्याख्याः कहा यह जाता है कि नारी आदर्श का उपर्युक्त कथन प्रेमचंद का नारी संबंधी आदर्श भी है और उन्होंने अपने कथित प्रवक्ता मेहता साहब से कहलवाया है। मेहता की दृष्टि में नारी आदर्श का सजीव उदाहरण गोविन्दी है, जो अपना संपूर्ण समय परिवार को देती है न कि मालती की तरह पार्टियों को। मेहता जिस नारीत्व को आदर्श मानते हैं, उसकी सजीव प्रतिमा गोविंदी है।
इस कथन में मेहता के माध्यम से प्रेमचंद ने नारी के सभी रूपों में ‘मातृ’ रूप को सर्वोत्कृष्ट रूप की संज्ञा दी है। बाकी सभी रूप मातृत्व प्राप्ति के साधन ही हैं अर्थात् मातृत्व साध्य है एवं पत्नी, पुत्री इत्यादि उस साध्य तक पहुंचने का उपक्रम। इसे प्राप्त करना ही सभी नारियों का एकमात्र लक्ष्य होता है। इसे प्राप्त करना ही नारियों की विजय है। जो अपेक्षा और अनादर सहकर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है कि उसकी प्रतिमा बना कर पूजी जाय।
Question : यह क्या मधुर स्वप्न सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर;
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही
आशा बन कर प्राण समीर।
यह कितनी स्पृहणीय बन गई
मधुर जागरण सी छविमान;
स्मिति की लहरों सी उठती है
नाच रही ज्यों मधुमय तान।
(1999)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः उपर्युक्त पद्यांश छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य कामायनी के आशा सर्ग से उद्धृत है। महाप्रलय के पश्चात् सब कुछ खाने के कारण चिंतामग्न मनु को विराट् शक्ति का ज्ञान होने के फलस्वरूप हृदय में जीवन के प्रति आशा का संचार होता है। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए वे कहते हैं कि जिस तुच्छ सुख के नष्ट हो जाने के कारण जीवन को उपेक्षा भरी नजर से देख रहे थे, उसी हृदय में आशा जीवन दायिनी प्राणवायु सी बनकर बड़ी बेचैनी के साथ उत्पन्न हो रही है, जो कोमल हृदय में सुनहरे स्वप्न के समान झिलमिलाते हुए व्याकुलता के समान व्यक्त होती प्रतीत होती है।
व्याख्याः मनु कहते हैं कि आशा इतना रमणीक या मनमोहक है कि मानो सुखपूर्ण रातों के आनंददायक जागरण के समान शोभायमान हो रही है। यह हृदय में उत्पन्न होकर इस तरह उठ रही है मानों ओठों पर मंद-मंद मुस्कान की लहरें उठा करती हैं और यह हृदय में उत्पन्न होकर इस तरह नृत्य प्रस्तुत कर रही है जैसे संगीत की कोई मोहक तान कानों में बार-बार गूंजती हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने निराश मन में आशा के संचार के बाद की स्थितियों को सूक्ष्म तरीके से उद्घाटित किया है। इनमें आशा जैसे अदृश्य भाव के लिए सुंदर पंक्ति में आशा के ‘प्राण समीर’ की संज्ञा दी गयी है, जो उचित ही है, क्योंकि निराश एवं चिंतित मन में आशा के संचार होते ही जीवन में स्फूर्ति, बल एवं चेतना जन्म लेती है।
विशेषताः ऊपर के पंक्तियों में ‘स्वप्न सी’ तथा ‘व्याकुलता सी’ में उपमा अलंकार तथा प्राण समीर का आरोप करके रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है।
Question : कामायनी में अभिव्यक्त आनंदवाद और समरसता का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
(1999)
Answer : कामायनी अभिव्यक्त जीवन दर्शन का मूल उद्देश्य आनंदवाद की स्थिति या आनंदवाद की प्राप्ति है। आनंदवाद से तात्पर्य है मानव या मनु के मन की आनंद साधना। चूंकि कामायनी की सर्वप्रमुख घटना है, मनु की मानसरोवर की यात्र, जिसका तात्पर्य है मानव मन की आनंद साधना। इस आनंदवाद की प्राप्ति समरसता से ही हो सकती थी। समरसता अर्थात् अभेद की स्थिति। अभेद की स्थिति से तात्पर्य है भाव-वृत्ति, ज्ञान-वृत्ति और कर्म-वृत्ति। इन तीनों में पृथक्ता समाप्त हो जाता, तभी समरसता की प्राप्ति संभव है।
स्वप्न, स्वाप, जागरण भएम हो
इच्छा क्रिया ज्ञान मिलन्लय थे,
दिव्य अनाहत पर विवाद में
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।
ध्यातव्य है कि तीन वृत्तियों में मैं सामंजस्य नहीं रहने के कारण मनुष्य बिडंबनाओं का शिकार होता है और आनंद की स्थिति उससे दूर होती है। तीन वृत्तियां इच्छा, क्रिया और ज्ञान क्रमशः भाव-वृत्ति, ज्ञान-वृत्ति और कर्म-वृत्ति है। तीनों ही एक दूसरे से पृथक् रहकर क्रियाशील हैं। कामायनी का मनु, श्रद्धा और इड़ा क्रमशः मन, हृदय और बुद्धि के प्रतीक हैं। मनु या मन अपने प्राकृतिक रूप में केवल मननशील तथा अहंकारी है। जिसके कारण यह अहंकारमय निष्क्रिय चिंतन मनन के अतिरिक्त और कुछ कर नहीं पाता। कामायनी के मनु के व्यक्तित्व का मूल यही अहंकार है।
मैं हूं, यह वरदान सदृश क्यों
लगा गूंजने कानों में,
मैं भी कहने लगा, मैं रहूं
शाश्वत नभ के गानों में।
श्रद्धा के साहचर्य से मनु के अहंकार का समायोजन हो जाता है। चूंकि श्रद्धा जो कि हृदय या विश्वासमयी रागात्मिक वृत्ति का प्रतीक है। इसलिए बीच-बीच में मनु के उभरते अहंकार को रोकने का यत्न भी करती है। फिर भी सामंजस्य नहीं बन पाता है। जब तक मनु या मन, श्रद्धा या हृदय से सामंजस्य बनाकर रहता है, उसके अहं का संस्कार होता रहता है, किंतु अधिक समय तक यह स्थिति नहीं रह पाती, मनु का अहंकार फिर उभर आता हैः
यह जलन नहीं सह सकता मैं,
चाहिए मुझे मेरा ममत्व,
इस पंचभूत की रचना में,
मैं रमण करूं बन एक तत्व।
मनु, श्रद्धा से विलग हो सारस्वत प्रदेश में इड़ा या बुद्धि के संसर्ग में आता है।
जो बुद्धि कहे उसको न मानकर फिर नर किसकी शरण जाए।
मनु पुनः इड़ा या बुद्धि पर भी अधिकार करने का यत्न करते हैं। किन्तु वहां भी अपनी अहंकारिता के कारण विफल होते हैं। वस्तुतः मन, हृदय या बुद्धि में सामंजस्य न रख, उस पर अधिकार रखने का यत्न किया, जो कि वर्तमान जिंदगी में दृष्यमान है। इसी कारण मनु के समक्ष एक बार पुनः प्रलय की स्थिति उत्पन्न होती है। संघर्ष में उनकी पराजय होती है।
वस्तुतः बुद्धि व्यवसायिक वृत्ति है, वह उसको संघर्ष की निरंतर प्रेरणा तो दे सकती है, परंतु सुख नहीं दे सकती। अहंकार का संस्कार करने के स्थान पर वह उसे और भी उत्तेजित करती है। अंततः ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें मन बुद्धि पर पूर्ण एकाधिकार करने के लिए अग्रसर हो उठता है। जिसमें उसका पूर्ण पराभव होता है। तीनों में सामंजस्य या समरसता की स्थिति न होने के कारण आनंदवाद या आनंद की प्राप्ति मनु को नहीं हो पाती है। मनु के जीवन की विडंबना, आधुनिक जीवन की विडंबना ही है। आज के मानवीय त्रासदी के मूल्य में समरसता का न होना ही है। आज इच्छा या भाव-वृत्ति अर्थात् संस्कृति जिसमें धर्म, नैतिकता और कला साहित्य आदि आते हैं। क्रिया या कर्म-वृत्ति अर्थात् राजनीति जिसमें आर्थिक परिदृश्य आदि भी सम्मिलित है और ज्ञान-वृत्ति अर्थात् दर्शन विज्ञान, तीनों पृथक्-पृथक् हैं या अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखे हुए हैं। तीनों के विकास की अलग-अलग दिशाएं हैं। राजनीति की दिशा अलग है। विज्ञान की दिशा अलग है। सोचने की दिशा अलग है। इसके कारण संपूर्ण मानवीय विकास या आनंदवाद या वास्तविक सुख की स्थिति संभव नहीं हो पाती है। इनमें सामंजस्य नहीं होने के कारण ही मानवीय जीवन आंतरिक और बाह्य संघर्ष और विषमताओं से आक्रांत हैः
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की
एक-दूसरे से न मिल सके
यह विडंबना है जीवन की।
परंतु कामायनी में जब श्रद्धा के द्वारा मन समरसता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब आनंदवाद को प्राप्त कर लेता है। यह समरसता मनु द्वारा कैलाश स्थित मानसरोवर की यात्र से प्राप्ति होती है। यहां पहुंच कर मनु के समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं। वस्तुतः मानसरोवर की यात्र मन के समरसता की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न है, जिसके उपरांत मन के समस्त भौतिक और आध्यात्मिक क्लेश नष्ट हो जाते हैं और वह पूर्ण आनंद में लीन हो जाता है। यह आनंद औपनिषदिक परंपरा से प्रभावित शैवा-द्वैत प्रतिपादित अभेदमय आत्मास्वाद है, जिसमें आत्मा और परमात्मा के ही नहीं, वरन् आत्मा और जगत के भी पूर्ण एक्य की भावना निहित हैः
समकस थे जड़ या चेतन
सुंदर साकार बना था
चेतनता एक विलसती
आनन्द अखंड घना था।
श्रद्धा द्वारा अपने पुत्र ‘मानव’ का इड़ा को सौंपना भी इसी ऐक्य का प्रतीक है। मनु और श्रद्धा का पुत्र होने के कारण मानव जन्म का मननशीलता और श्रद्धा से युक्त है। इड़ा का निरीक्षण उसके बुद्धि तत्व को भी परिपक्व कर मानवत्व को संपूर्ण कर देता है। इस अखंड आत्मानुभूति में द्वयता के लिए कोई जगह नहीं है। आनंदवाद की चरम दशा में अंत और बाह्य में दुःख और सुख में जड़ और चेतन में एक्य स्थापित हो जाता हैः
सब भेद भाव भुलवाकर
दुख-सुख को हृदय बनाता
मानव कह रे! ‘यह मैं हूं’
यह विश्व नीड़ बन जाता।
Question : एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है
ये परमास्त्र है, प्रक्षेपास्त्र है, यम है।
शून्याकाश में से होते हुए वे
अरे, अरि पर ही टूटे पड़े अनिवार।
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, हां भई।
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
(1999)
Answer : संदर्भ एवं प्रसंगः प्रस्तुत पंक्तियां गजानन माधव मुक्तिबोध विरचित ‘अंधेरे में’ शीषर्क लंबी कविता से उद्धृत है। स्वप्न कथा शैली में इन पंक्तियों में कवि के अंतःस्तल में क्रांति का फैंटेसी गढ़ा गया है।
व्याख्याः पंक्तियों के द्वारा कवि ने कहना चाहा है कि जब शोषण के खिलाफ वैश्विक एकता बन जाती है, तब सत्ता का ध्वंस किस अस्त्र से किया जाये, यह मायने नहीं रखता। यहां उपयोग की एक-एक वस्तु ही विध्वंसक औजार के रूप में काम करने लगता है। एक-एक वस्तु या एक-एक आदमी बम की तरह काम करता है। ये ही परमास्त्र, प्रक्षेपास्त्र है तथा दुश्मनों के लिए काल या यम है। जहां पहले कोई हलचन नहीं थी। वहां भी दुश्मनों पर हमला होने लगा है। यह क्रांति के व्यापक होने का प्रमाण है। यह गप या मिथ नहीं, न ही किवदंती है। वस्तुतः कवि के मन में क्रांति छिड़ गयी है। क्रांतिकारी कहीं आग लगा रहे हैं तो कहीं गोली चला रहे हैं।
मुक्तिबोध कविता में एक ओर निम्नवर्ग से अलग होकर सर्वहारा वर्ग की संगति में व्यक्तित्व रूपांतरण की अपनी सामान्य समस्या का विवेचन करते हैं, तो दूसरी ओर अपने उत्तेजित त्रस्त मन की असामान्य अवस्था का चित्रण करते हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अंधकार के विरुद्ध लड़ने वाली शक्तियों का उल्लेख किया है। कुछ आलोचकों ने इस क्रांति के चित्र को वास्तविकता पर आशावादी कल्पना को आरोप की संज्ञा दी है। पर स्वयं कवि के अनुसार यह कथा नहीं, यह सब सच है।