भारतीय मूर्तिकला भारत के उपमहाद्वीपों की सभ्यताओं की मूर्तिकला परंपराएँ, प्रकार और शैलियाँ का संगम है। प्राचीन, मद्यकालीन व आधुनिक भारतीय भवन प्रचुर रूप से मूर्तिकला से अलंकृत हैं और प्रायः एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते।
इतिहास: अन्य कलाओं के समान ही भारतीय मूर्तिकला भी अत्यन्त प्राचीन है। यद्यपि पाषाण काल में भी मानव अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर विशेष आकार देता था और पत्थर के टुकड़े से आकृति बनाने हेतु अनेक नए - नएतकनीकों का इस्तेमाल होना आरम्भ हो गया था।
प्रमुख शैलियाँ : भारतीय मूर्ति कला की प्रमुख शैलियाँ इस प्रकार हैं-
सिंधु घाटी सभ्यता की मूर्ति कला : हड़प्पा सभ्यता में मृणमूर्तियों (मिट्टी की मूर्ति), प्रस्तर मूर्ति तथा धातु मूर्ति तीनों गढ़ी जाती थी। मिट्टी की मूर्तियां लाल मिट्टी एवं क्वार्ट्ज नामक प्रस्तर के चूर्ण से बनाई गई कांचली मिट्टी से बनाई जाती थी। धातु मूर्तियों के निर्माण के लिये हड़प्पा सभ्यता में मुख्यतः तांबा व कांसा का प्रयोग किया जाता था। सेलखड़ी पत्थर से बनी मोहनजोदड़ो की योगी मूर्ति (अधखुले नेत्र, नाक के अग्रभाग पर टिकी दृष्टि, छोटा मस्तक व संवरी हुई दाढ़ी) इसकी कलात्मकता का प्रमाण है।
मौर्यकालीन मूर्तिकलाः चमकदार पॉलिश (ओप), मूर्तियों की भावाभिव्यक्ति, एकाश्म पत्थर द्वारा निर्मित पाषाण स्तंभ एवं उनके कलात्मक शिखर (शीर्ष) मौर्यकालीन मूर्तिकला की विशेषताएं हैं।
शुंग/कुषाणकालीन मूर्तिकलाः प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से मूर्तियों के साथ-साथ प्रतिमाओं का भी प्रादुर्भाव हुआ तथा नवीन मूर्तिकला शैली का भी आगमन हुआ। प्रतीकात्मकता इस काल की मूर्तिकला की प्रधान विशेषता है। इसी दौर में गांधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ।
गांधार शैलीः यह विशुद्ध रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिक प्रस्तर मूर्तिकला शैली है। इसका उदय कनिष्क प्रथम (पहली शताब्दी) के समय में हुआ तथा तक्षशिला, कपिशा, पुष्कलावती, बामियान-बेग्राम आदि इसके प्रमुख केन्द्र रहे। गांधार शैली में स्वात घाटी (अफगानिस्तान) के भूरे रंग के पत्थर या काले स्लेटी पत्थर का इस्तेमाल होता था।
अमरावती (धान्यकटक) मूर्तिकलाः इस शैली का विकास अमरावती में होने के कारण इसे अमरावती शैली कहा गया। अमरावती दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के निचले हिस्से में गुण्टूर जिले (आंध्र प्रदेश) के पास स्थित है। सातवाहन काल (द्वितीय शताब्दी) में इस शैली का आगमन हुआ। इस शैली में धार्मिक विषयवस्तु पर मूर्तियों का निर्माण हुआ है तथा प्रस्तर मूर्तियां ज्यादा बनाई गई हैं। यहीं एक अन्य मूर्ति में बुद्ध के दुष्ट चचेरे भाई देवदत्त द्वारा उन पर छोड़े गए पागल हाथी नीलगिरि को शांत करने का दृश्य उत्कीर्ण है। दूसरी शताब्दी ई. में अमरावती से प्राप्त एक प्रसिद्ध उत्कीर्णन में चार स्त्रियों को बुद्ध के चरणों को पूजते हुए दिखाया गया है।
गुप्तकालीन मूर्तिकलाः गुप्त मूर्तिकला में तीनों धर्मों (बौद्ध, जैन, ब्राह्मण-हिन्दू धर्म) के अलावा गैर-धार्मिक विषयों की भी मूर्तियां बनाई गई हैं। सारनाथ, मथुरा और पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। गुप्तकालीन मूर्तियों की निर्मलता, अंग सौंदर्य, वास्तविक हाव-भाव एवं जीवंतता ने कला को ऊंचाई प्रदान की। सारनाथ से प्राप्त धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त 7-5 फीट ऊंची, 12 टन वजनी बुद्ध की ताम्रमूर्ति अतिविशिष्ट है।
चालुक्यकालीन मूर्तिकलाः इसके चार प्रमुख केन्द्र बादामी, ऐहोल, पट्टडकल और महाकूट है। ये चारों कर्नाटक राज्य में अवस्थित हैं। चालुक्य मूर्तियां बलिष्ठ और विशालकाय है तथा अंग-प्रत्यंग समानुपातिक है। बादामी (कर्नाटक) में मिली नटराज की 18 हाथों की मूर्ति, विष्णु के त्रिविक्रम स्वरूप की मूर्ति, वाराह अवतार मूर्ति तथा बैकुंठ नारायण विष्णु की प्रशंसनीय प्रतिमाएं मिली है। पट्टडकल की मूर्तियां चालुक्य शिल्प में शांत, संतुलित, ऊर्जा से युक्त, जीवंत और भव्य हैं। पट्टडकल से मिली त्रिपुरांतक और अंधकार मूर्तियों के साथ-साथ कैलाश पर्वत को उठाए रावण की मूर्ति को विशेष प्रशंसा मिली है।
ओडिशा (कलिंग) की मूर्तिकलाः ओडिशा भारतीय वास्तुकला और मूर्तिशिल्प का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसमें पुरी के जगन्नाथ मंदिर, भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर के शिल्प को शामिल किया गया है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की विशाल मूर्तियों के अलावा शिव-पर्वती, ब्रह्म-सावित्री और विष्णु-लक्ष्मी की भी मूर्तियां बनाई गई है। कोणार्क के सूर्य मंदिर में सूर्य प्रतिमा का हास्य-भाव विशेष रूप से सराहा गया है। लिंगराज मंदिर की मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग का लालित्य, अलंकरण, केश-विन्यास आदि विशेष रूप से दर्शनीय है।
राष्ट्रकूटकालीन मूर्तिकलाः इस दौर में मुख्यतः महाराष्ट्र के एलोरा, एलीफेंटा और कन्हेरी में मूर्तिशिल्प का काम हुआ है। एलोरा या वेरूल और एलीफेंटा में शिव के विविध रूपों का विस्तारपूर्वक अंकन हुआ है। एलोरा में शिव, विष्णु, शक्ति और सूर्य की मूर्तियों के उदाहरण हैं, जबकि कन्हेरी (महाराष्ट्र) में बौद्ध शिल्प के उदाहरण मिलते हैं। मूर्तियां चट्टानों को काटकर उन्हें उभारकर बनाई गई है। मूर्तियों को वस्त्र कम लेकिन आभूषण अधिक पहनाए गए हैं। एलोरा की सभी गुफाओं के बाहर अधिकांशतः द्वारपाल के रूप में गंगा एवं यमुना की मूर्तियां बनाई गई है।