किसी भी देश का केन्द्रीय बैंक (भारत के संदर्भ में रिजर्व बैंक) आम बैंकों के लिए नीति.निर्देश बनाता है, उनके लेन.देन पर नजर रखता है और नकदी की कमी होने पर नकदी उपलब्ध कराता है। इन सबका आकलन क्रेडिट पॉलिसी या मौद्रिक नीति के अंतर्गत किया जाता है। पहले तकनीकी रूप से मौद्रिक नीति की घोषणा वर्ष में दो बार, अप्रैल और अक्टूबर में की जाती थी। लेकिन अब दोमाही आधार पर इसकी समीक्षा 8 बार किए जाने का प्रावधान कर दिया गया है। इस दौरान रिजर्व बैंक कोई भी नीतिगत निर्णय ले सकता है। स्थिति के अनुसार वह सीआरआर, रेपो आदि दरों में कमी या बढ़ोतरी कर सकता है। रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति नियंत्रित व विस्तार नीति के आधार पर लागू करता है।
क्रेडिट पॉलिसी बनाते समय रिजर्व बैंक यह देखता है कि बाजार में कितना धन है। बैंकों के पास कितनी नकदी है और वे कितना उधार दे रहे हैं। यदि मार्केट में धन बढ़ता है तो इससे वस्तुओं की कीमतें बढें़गी। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक यह भी देखता है कि बैंक कितना उधार दे रहे हैं और कितनी वसूली कर रहे हैं। क्योंकि कर्ज देने के बाद बैंकों ने कर्ज को उचित ढंग से नहीं वसूल किया तो वे दिवालिया हो जाएंगे। आर्थिक मंदी के दौरान इस तरह की स्थिति अमेरिकी बैंकों में उत्पनन हुई थी। मौद्रिक नीति और मुद्रास्फीति में निकट का संबंध होता है। मुद्रास्फीति की अवधारणा कीमत और मजदूरी में वृद्धि पर आधारित होती है जो कि मुद्रा की क्रय शक्ति को घटाती है। मौद्रिक नीति देश में कीमत स्थिरता के साथ उत्पादन और रोजगार बढ़ाने में योगदान करती है।