केंद्रीय खाद्य उपभोक्ता मंत्रलय ने एक सुझाव दिया है कि भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए स्टार होटल एवं रेस्त्रओं में परोसे जाने वाले भोजन की मात्र निर्धारित की जानी चाहिये। इससे पहले जम्मू-कश्मीर में विवाह समारोहों में शामिल होने वाले अतिथियों एवं परोसे जाने वाले व्यंजनों की संख्या भी निर्धारित करने का निर्देश जारी किया जा चुका है। वैसे बाद में केंद्रीय उपभोक्ता मंत्रलय ने यह स्पष्ट जरूर किया कि भोजन की मात्र को सीमित करने का प्रस्ताव सुझाव मात्र है और जरूरी नहीं है कि सरकार इसे लागू ही करे। परंतु इस सुझाव मात्र से ही विवाद पैदा हो गया और सोशल मडिया पर टिप्पणियां आने लगीं कि कहीं भारत में सरकार ‘नैनी स्टेट' (Nanny state) की भूमिका तो नहीं अदा कर रही है।
विवाद का आरंभ
दरअसल विवाद की शुरुआत उपभोक्ता मामलों के केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के उस साक्षात्कार के पश्चात हुयी जिसमें उन्होंने कहा कि रेस्त्रओं (गैर-ढ़ाबा) में किसी व्यक्ति का काम दो झींगा से ही चल जाये तो उसे छह देने की क्या जरूरत है? यदि कोई व्यक्ति दो इडली ही खाता है तो उसे चार क्यों दिया जाये? यह भोजन कीबर्बादी तो है ही, लोग जो नहींखाते हैं उसे भी भुगतान करना पड़ता है। जब उनसे पूछा गया कि वे भोजन की कितनी मात्र निर्धारित करना चाहते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि रेस्त्र के मालिक इस मामले में विशेषज्ञ हैं और वे ही इसका जवाब दे सकते हैं इसलिए उन्हें इस बात के लिए प्रश्नोत्तरी भेजी जा रही है ताकि इस विषय पर चर्चा हो सके।
हालांकि इससे पहले प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात रेडियो कार्यक्रम में देश में बड़े पैमाने पर खाना की बर्बादी पर चिंता जतायी थी। श्री पासवान ने यह जरूर स्पष्ट किया कि यह सुझाव केवल ‘स्टैंडर्ड होटल’ के लिए है न कि ढ़ाबा के लिए जहां थाली परोसी जाती है। वैसे सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिये, इसलिए नहीं कि वह लोगों की थाली की विनियामक संस्था बने, वरन् इसलिए कि व्यापक भुखमरी को देखते हुये, उसे देश में हो रही खाने की बर्बादी की चिंता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2016 में विश्व के 118 देशों में भारत की 97वीं रैंकिंग को देखते हुये भोजन की बर्बादी को रोकना व संसाधनों का उचित वितरण, खासकर खाद्य संसाधनों का, को देखते सरकार की सोच स्वागतयोग्य कदम है।
सरकार की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिवर्ष 67 मिलियन टन का भोजन बर्बाद होता है। जितनी मात्र में भोजन की बर्बादी होती है उससे किसी एक राज्य के सभी लोगों को 365 दिन का भोजन मिल सकता है। साथ ही, जितने मूल्य (92000 करोड़ रुपये) का खाना बर्बाद होता है उससे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के तहत लगभग 60 करोड़ लोगों को खिलाया जा सकता है। केंद्रीय पोस्ट-हार्वेस्टिंग टेक्नोलॉजी (CIPHET) के एक अध्ययन के अनुसारआधिक्य, कीटों एवं भंडारण प्रणाली की कमी के कारण फल, सब्जियां एवं दाल सर्वाधिक बर्बाद वाले खाद्यों में शामिल हैं। भारत में खाद्य की बर्बाद के लिए परिवहन भी कम जिम्मवार नहीं है।
विश्व के कई देशों की रेस्त्रओं में इस तरह की व्यवस्था है। रुचिकर बात यह है कि भारत के होटल प्रबंधन संस्थानों के पाठ्यक्रम में खाद्य एवं पेय नियंत्रण एक महत्वपूर्ण अध्याय है। भावी रेस्त्र प्रबंधकों को मीनू की मानकता का मूल्य सिखाया जाता है ताकि वे व्यवसाय अनुमानों का प्रबंधन कर सके। साथ ही भोजन की पोषकीय तत्व का भी ख्याल रखा जाता है ताकि जो भोजन परोसा जाये वह पूर्ण हो और अधिक भी नहीं हो।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि सरकार भी नहीं, रेस्त्रओं को यह निर्देश दे कि उसे किस प्रकार का और कितना भोजन परोसना चाहिये। पर उपभोक्ता इस बारे में जरूर सोच सकते हैं और यह सही भी है।