मानसिक स्वास्थ्य बिल, 2016 कोलोकसभा द्वारा पारितकर दियागया। मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी की चिंता तो इसमें नजर आती है लेकिन कारणों से निपटने का रास्ता नहीं निकलता दिखता। जबकि भारत में मनोरोग एक बड़ी बीमारी के रूप में उभर रहा है और करीब साढ़े नौ करोड़ लोग इसकी चपेट में बताये जाते हैं।
सरकार और संसदद्वारा उठाया गया यह एक उपयोगी और सार्थक कदम है। बिल में ये रेखांकित किया गया है कि मनोरोग को लेकर समाज में भ्रांतियां और रूढि़यां हैं। मानसिक स्वास्थ्य को सीधे तौर पर दिमागी गड़बड़ी से जोड़ दिया जाता है जबकि मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति को ठीक उसी तरह इलाज, दवा और देखभाल की जरूरत है जैसे किसी शारीरिक बीमारी से पीडि़त व्यक्ति को। कुल मिलाकर यह बिल अपनी भावना, उद्देश्य और उपचार विधियों में बदलाव को लेकर बेशक सही है लेकिन इसका ध्यान उपायों पर ज्यादा और कारणों की शिनाख्त और उनके निदान पर कम ही है।
बिल में एक महत्त्वपूर्ण बात ये भी है कि आत्महत्या की कोशिश को अब मुकदमे के दायरे से बाहर रखा गया है। इसे अपराध नहीं, एक बीमारी माना गया है। आत्महत्या की घटनाओं के मामले में भारत, पूरी दुनिया में 12वें नंबर पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साढ़े सात प्रतिशत यानी करीब साढ़े नौ करोड़ लोग विभिन्न किस्म की हल्की या गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं। नेशनल इंस्टीटड्ढूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड साइंसेस यानी निमहान्स के एक सर्वे के मुताबिक भारत में हर 20 में से एक व्यक्ति अवसाद का शिकार है। डब्लूएचओ के अनुसारपूरी दुनिया में 2005 से 2015 के बीच अवसाद में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।एक अध्ययन में पाया गया कि व्यग्रता, बेचौनी और अवसाद जैसे साधारण मनोरोग दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं। 1990 में ऐसे रोगियों की संख्या साढ़े 41 करोड़ थी, तो 2013 में ये बढ़कर साढ़े 61 करोड़ हो गई।
मानसिक स्वास्थ्य बिल इन विसंगतियों पर नहीं जाता, न ही वो उस आर्थिक विकास के मॉडल की विसंगतियों पर इशारा करता है जिसे लागू कर सरकारें निवेश और मुनाफे और मुक्त बाजार की एक खुली स्वच्छंद विकास परियोजना को लागू करने पर आमादा हैं। दूसरी ओर इसी विशाल उपभोक्तावादी जनसंख्या के अलावा, उससे भी बड़ी एक ऐसी आबादी रहती है जो अपनी गुजर बसर के लिए संघर्ष कर रही है, जो आर्थिकी के आंकड़ों की भव्यता की ओट में ही रहती आयी है।
विशेषज्ञों के अनुसार मनोरोगों का सीधा संबंध किसी देश की गरीबी और असमानता से भी है। लिहाजा ये सिर्फ जनस्वास्थ्य की बात नहीं है ये विकास का भी एक बड़ा मुद्दा है- सबको शिक्षा सबको स्वास्थ्य नागरिक अधिकार है, और शासन का बुनियादी कर्तव्य भी। सबको शांति, सबको न्याय और सबको प्यार भी इसमें जोड़ना चाहिए तभी देश वास्तविक तौर पर एक स्थिर और स्वस्थ लोकतंत्र बना रह पाएगा।