अधिकार आधारित दृष्टिकोण से समानता सुनिश्चित करना


भारतीय न्यायपालिका ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता को बढ़ावा देने के लिए निरंतर प्रयास किया है, जो लैंगिक असमानता, संपत्ति असमानता या सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक असमानता से संबंधित मुद्दों के हल के लिए होता है। न्यायालय का हमेशा से उद्देश्य भारतीय समाज का विकास करना और उसे ‘भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों और मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के निर्देशों’ के अनुरूप मानव प्रगति की प्रक्रिया की ओर प्रेरित करना है।

भारतीय न्यायपालिका ने समाज में प्रचलित कानूनों की न्यायिक समीक्षा (अनुच्छेद 13) के माध्यम से एक सक्रिय रुख अपनाया है और उन प्रावधानों को समाप्त किया है, जो संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। इस वर्ष भी सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐतिहासिक फैसले दिए, जो अधिकार आधारित दृष्टिकोण के माध्यम से भारतीय नागरिकों में समानता को बढ़ावा देते हैं।

परगमन (Adultery) का गैर-अपराधीकरण

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय न्यायपालिका के साथ-साथ संसद ने 21वीं सदी की वास्तविकता का नहीं, बल्कि औपनिवेशिक काल की नैतिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले कई पुराने कानूनों को समाप्त किया है। आज के समाज में परिदृश्य ऐसा है कि महिला सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और परगमन का गैर-अपराधीकरण महिलाओं को पुरुषों की बराबरी पर लाता है और उन्हें अपनी भावनात्मक संवेदना और स्वतंत्र इच्छा से कार्य करने का अधिकार देता है।

  • भारतीय समाज में आईपीसी की धारा 497 को ऐसे समय में लागू किया गया था, जब बहुविवाह की जड़ें समाज में गहराई तक विद्यमान थीं। इसलिए अन्य पुरुषों की पत्नियों के साथ यौन संबंध रखने से पुरुषों को प्रतिबंधित करने के लिए इस कानून के प्रावधानों को अधिनियमित किया गया था। बहरहाल यह वर्तमान समाज की वास्तविक स्थिति से बहुत दूर है।

वर्तमान स्थिति

  • जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), की धारा 497 (जो परगमन को अपराध घोषित करती है) के साथ-साथ आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 198 को भी खत्म कर दिया, जो परगमन अपराध के लिए शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया से संबंधित है। इन दोनों प्रावधानों को ‘‘असंवैधानिक’’ करार देते हुए न्यायालय ने कहा कि ये दोनों प्रावधान अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।

व्यभिचार का अर्थ

  • व्याभिचार का अर्थ है ‘‘विवाहित व्यक्ति और एक अन्य व्यक्ति के बीच स्वैच्छिक संभोग, जो उनका जीवनसाथी नहीं है।’’ भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में कहा गया है कि जो भी व्यक्ति, किसी पुरुष की सहमति के बिना उसकी पत्नी के साथ संभोग करता है, उसे व्याभिचार के अपराध का दोषी घोषित किया जाता है और उसके लिए पांच साल की कैद या जुर्माना या दोनों एक साथ दिया जा सकता है।

आईपीसी की धारा 497 की आलोचना

पुराना होने के कारण इस कानून की वर्षों से आलोचना होती रही है। इसमें शामिल कुछ कारणों में निम्न हैं,

  • यह कानून लैंगिक भेद उत्पन्न करता है, क्योंकि यह केवल एक विवाहित पुरुष को अपनी पत्नी के साथ संबंध रखने वाले किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ धारा 497 को लागू करने का अधिकार देता है। ऐसी ही समान शिकायत वाली महिला अपने पति द्वारा किए गए व्याभिचार पर न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकती है।
  • यह कानून एक अविवाहित महिला या एक विधवा के साथ व्याभिचार करने वाले व्यक्ति को दंडित नहीं करता है।
  • कानून दूसरे पुरुष के साथ दुष्कर्म करने वाली विवाहित महिलाओं को पीडि़त मानता है, न कि एक दोषी पक्ष।
  • यह कानून ‘संरक्षण के सिद्धांत’ (Doctrine of Coverture) पर आधारित है, जिसका मानना है कि महिलाएं अपने पति की निजी संपत्ति हैं और शादी के बाद वह अपने व्यक्तिगत और कानूनी अधिकारों को गंवा देती हैं। यह भारतीय संविधान में प्रत्येक महिला को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • अपराध को बेवफाई से जोड़ने वाले कानून के प्रावधानों को निजता के अधिकार का उल्लंघन माना गया है।
  • कानून एक विवाहित महिला द्वारा अपने पति की सहमति के बिना दी गई सहमति और एक अविवाहित महिला द्वारा दी गई सहमति के बीच भेद करता है।

कर्नाटक में प्रचलित देवदासी प्रथा

  • कर्नाटक सरकार द्वारा ‘देवदासी (समर्पण निषेध) अधिनियम’ को 1982 में पारित करने के बाद भी कानून के संचालन के नियम समाज में जारी नहीं किए गए थे। इससे देवदासी प्रणाली (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कन्याओं को मंदिरों में समर्पित करना) का प्रचलन न केवल कर्नाटक में बढ़ गया, बल्कि यह पड़ोसी गोवा में भी फैल गया है। देवदासी प्रणाली के ताजा अध्ययन में परेशान करने वाले कुछ पहलू सामने आए हैं:
  • शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग कन्याएं, देवदासियों के रूप में समर्पित करने के लिए अधिक खतरे में होती हैं।
  • भले ही यह समाज में अत्यधिक प्रचलित है, 2011 और 2017 के बीच इस प्रथा से संबंधित केवल चार मामले दर्ज किए गए हैं।
  • हाल के कानून जैसे ‘यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण’ (POCSO) अधिनियम 2012 और ‘किशोर न्याय (JJ) अधिनियम’ 2015 ने बच्चों के यौन शोषण के रूप में देवदासी प्रणाली का कोई संज्ञान नहीं लिया है।
  • समाज के कमजोर वर्गों के लिए आजीविका स्रोतों की वृद्धि में शासन की विफलता, इस तरह के कार्यों को जारी रखने में सहायता करती है।

निर्णय का महत्व

  • यह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि कानून केवल एक लिंग को दंडित करके पुरुषों और महिलाओं के बीच अनुचित वर्ग बनाता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून पुराना और संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों के खिलाफ था।
  • सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की स्वायत्तता, प्रतिष्ठा और समानता को मान्यता देता है।
  • भारत में पितृसत्तात्मक मानसिकता के पुरातन प्रभाव को कम करता है। यह मानता है कि महिलाएं उसके पति की निजी संपत्ति नहीं हैं।
  • अदालत ने कहा कि अगर एक दुखी जीवनसाथी अपने साथी के व्याभिचारी रिश्ते के कारण आत्महत्या करता है, तो इसे आत्महत्या के लिए उकसाना माना जा सकता है।
  • इस तथ्य को स्वीकार करता है कि कानून एक विवाहित व्यक्ति को अपने स्वयं के रिश्ते में कमियों को देखे बिना, अपने विवाह के टूटने के लिए एक बाहरी व्यक्ति को दोष देने का अधिकार देता है।

आगे की राह

  • "यह निर्णय विवाह की पवित्रता को कम करता है", इस तर्क पर राज्य विधानसभाओं और संसद द्वारा विचार करने की आवश्यकता है।
  • दिल्ली महिला आयोग (DCW) ने कहा कि यह निर्णय व्याभिचार करने के लिए एक खुला लाइसेंस देता है। इस पर सार्वजनिक रूप से बहस करने की आवश्यकता है।
  • प्रतिगामी कानूनों को समाप्त करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका, विधायिका द्वारा अपना कर्तव्य निभाने में दिखाई गई ढिलाई की ओर इशारा करती है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
  • कानूनी प्रणाली को यह नहीं नियंत्रित करना चाहिए कि कौन किसके साथ सोता है। उसे केवल अलगाव की प्रक्रिया को विनियमित करना चाहिए, जब एक या दोनों साथी विवाह की पवित्रता का उल्लंघन करते हैं। इसके अलावा, एक शादी में टूटे हुए भरोसे का अपराधीकरण न तो एक दंपति को फिर से एक आनंदमय जीवन शुरू करने की ओर ले जाता है और न ही यह समाज के सामाजिक व्यवहार को बदल पाता है। इस मूल तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए।