भारत की मूर्तिकला

हड़प्पाकालीन मूर्तिकलाः हड़प्पा सभ्यता में मृणमूर्तियों (मिट्टी की मूर्ति), प्रस्तर मूर्ति तथा धातु मूर्ति तीनों गढ़ी जाती थी। मिट्टी की मूर्तियां लाल मिट्टी एवं क्वार्ट्ज नामक प्रस्तर के चूर्ण से बनाई गई कांचली मिट्टी से बनाई जाती थी। धातु मूर्तियों के निर्माण के लिये हड़प्पा सभ्यता में मुख्यतः तांबा व कांसा का प्रयोग किया जाता था। सेलखड़ी पत्थर से बनी मोहनजोदड़ो की योगी मूर्ति (अधखुले नेत्र, नाक के अग्रभाग पर टिकी दृष्टि, छोटा मस्तक व संवरी हुई दाढ़ी) इसकी कलात्मकता का प्रमाण है।

मौर्यकालीन मूर्तिकलाः चमकदार पॉलिश (ओप), मूर्तियों की भावाभिव्यक्ति, एकाश्म पत्थर द्वारा निर्मित पाषाण स्तंभ एवं उनके कलात्मक शिखर (शीर्ष) मौर्यकालीन मूर्तिकला की विशेषताएं हैं।

मौर्यकाल में जो मूर्तियां उपलब्ध हुई है उनमें पत्थर व मिट्टी की मूर्ति तो मिली है, किंतु धातु की कोई मूर्ति नहीं मिली है। मौर्यकाल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि (अंगुलियों या चुटकियों का इस्तेमाल करके) या सांचे में ढ़ालकर किया जाता था। मौर्यकालीन मृणमूर्तियों के विषय है- पशु-पक्षी, खिलौना और मानव; अर्थात् ये मृणमूर्तियां गैर-धार्मिक उद्देश्य वाली मृणमूर्तियां हैं। प्रस्तर मूर्तियां अधिकांशतः शासकों द्वारा बनवाई गई हैं, फिर भी किसी देवता को अभी प्रस्तर मूर्ति में नहीं ढ़ाला गया है। मौर्यकाल में प्रस्तर मूर्ति निर्माण में चुनार के बलुआ पत्थर और पारखम जगह से प्राप्त मूर्ति में चित्तीदार लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ है। मौर्यकाल की मूर्तियां अनेक स्थानों, यथा- पाटलिपुत्र, वैशाली, तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्र, सारनाथ आदि से प्राप्त हुई है। कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्यकालीन मूर्तिकला पर ईरान एवं यूनान की कला का प्रभाव था।

शुंग/कुषाणकालीन मूर्तिकलाः प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से मूर्तियों के साथ-साथ प्रतिमाओं का भी प्रादुर्भाव हुआ तथा नवीन मूर्तिकला शैली का भी आगमन हुआ। प्रतीकात्मकता इस काल की मूर्तिकला की प्रधान विशेषता है। इसी दौर में गांधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ।

गांधार शैलीः यह विशुद्ध रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिक प्रस्तर मूर्तिकला शैली है। इसका उदय कनिष्क प्रथम (पहली शताब्दी) के समय में हुआ तथा तक्षशिला, कपिशा, पुष्कलावती, बामियान-बेग्राम आदि इसके प्रमुख केन्द्र रहे। गांधार शैली में स्वात घाटी (अफगानिस्तान) के भूरे रंग के पत्थर या काले स्लेटी पत्थर का इस्तेमाल होता था। गांधार शैली के अंतर्गत बुद्ध की मूर्तियां या प्रतिमा आसन (बैठे हुए) या स्थानक (खड़े हुए) दोनों मुद्राओं में मिलती है।

  • गांधार मूर्तिकला शैली के अंतर्गत भगवान बुद्ध प्रायः वस्त्रयुक्त, घुंघराले बाल व मूंछ सहित, ललाट पर ऊर्णा (भौंरी), सिर के पीछे प्रभामंडल तथा वस्त्र सलवट या चप्पलयुक्त विशेषताओं से परिपूर्ण है। गांधार कला शैली में बुद्ध-मूर्ति की जो भव्यता है उससे भारतीय कला पर यूनानी एवं हेलेनिस्टिक प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट होती है।

मथुरा शैलीः इसका संबंध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण-हिन्दू धर्म, तीनों से है। मथुरा कला शैली की दीर्घजीविता प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् तक रही है। मथुरा कला के मुख्य केन्द्र- मथुरा, तक्षशिला, अहिच्छत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कौशाम्बी आदि है। मथुरा शैली में सीकरी रूपबल (मध्यकालीन फतेहपुर सीकरी) के लाल चित्तीदार पत्थर या श्वेत चित्तीदार पत्थर का इस्तेमाल होता था।

मथुरा मूर्तिकला शैली में बुद्ध आसन (बैठे हुए) और स्थानक (खड़े हुए) दोनों स्थितियों में प्रदर्शित किये गए हैं। मथुरा शैली में बुद्ध प्रायः वस्त्ररहित, बालविहीन, मूंछविहीन, अलंकरणविहीन किंतु पीछे प्रभामंडल युक्त प्रदर्शित किये गए हैं। मथुरा कला में बुद्ध समस्त प्रसिद्ध मुद्राओं में प्रदर्शित किये गए हैं, यथा- वरदहस्त मुद्रा, अभय मुद्रा, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में।

अमरावती (धान्यकटक) मूर्तिकलाः इस शैली का विकास अमरावती में होने के कारण इसे अमरावती शैली कहा गया। अमरावती दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के निचले हिस्से में गुण्टूर जिले (आंध्र प्रदेश) के पास स्थित है। सातवाहन काल (द्वितीय शताब्दी) में इस शैली का आगमन हुआ। इस शैली में धार्मिक विषयवस्तु पर मूर्तियों का निर्माण हुआ है तथा प्रस्तर मूर्तियां ज्यादा बनाई गई हैं। यहीं एक अन्य मूर्ति में बुद्ध के दुष्ट चचेरे भाई देवदत्त द्वारा उन पर छोड़े गए पागल हाथी नीलगिरि को शांत करने का दृश्य उत्कीर्ण है। दूसरी शताब्दी ई. में अमरावती से प्राप्त एक प्रसिद्ध उत्कीर्णन में चार स्त्रियों को बुद्ध के चरणों को पूजते हुए दिखाया गया है।

गुप्तकालीन मूर्तिकलाः गुप्त मूर्तिकला में तीनों धर्मों (बौद्ध, जैन, ब्राह्मण-हिन्दू धर्म) के अलावा गैर-धार्मिक विषयों की भी मूर्तियां बनाई गई हैं। सारनाथ, मथुरा और पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। गुप्तकालीन मूर्तियों की निर्मलता, अंग सौंदर्य, वास्तविक हाव-भाव एवं जीवंतता ने कला को ऊंचाई प्रदान की। सारनाथ से प्राप्त धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त 7-5 फीट ऊंची, 12 टन वजनी बुद्ध की ताम्रमूर्ति अतिविशिष्ट है।

  • गुप्तकाल में जैन धर्म पर हिन्दू प्रभाव बढ़ रहा था, इसलिये तीर्थंकर के बगल में इन्द्र, सूर्य, कुबेर आदि की मूर्तियां बनने लगी।
  • गुप्तकालीन जैन धर्म के अंतर्गत विशालकाय बाहुबली की मूर्तियां बननी शुरू हो गईं। गुप्तकाल में दशावतार की मान्यता आई। अतः इस दौर में सर्वाधिक मूर्तियां ब्राह्मण-हिन्दू धर्म से संबंधित ही बनी।

चालुक्यकालीन मूर्तिकलाः इसके चार प्रमुख केन्द्र बादामी, ऐहोल, पट्टडकल और महाकूट है। ये चारों कर्नाटक राज्य में अवस्थित हैं। चालुक्य मूर्तियां बलिष्ठ और विशालकाय है तथा अंग-प्रत्यंग समानुपातिक है। बादामी (कर्नाटक) में मिली नटराज की 18 हाथों की मूर्ति, विष्णु के त्रिविक्रम स्वरूप की मूर्ति, वाराह अवतार मूर्ति तथा बैकुंठ नारायण विष्णु की प्रशंसनीय प्रतिमाएं मिली है। पट्टडकल की मूर्तियां चालुक्य शिल्प में शांत, संतुलित, ऊर्जा से युक्त, जीवंत और भव्य हैं। पट्टडकल से मिली त्रिपुरांतक और अंधकार मूर्तियों के साथ-साथ कैलाश पर्वत को उठाए रावण की मूर्ति को विशेष प्रशंसा मिली है।

  • ऐहोल की मूर्तियों के आलंकारिक अंकनों में विशेष कुशलता दिखाई देती है; यथा- लयबद्धता, धोती एवं अन्य वस्त्रों पर गहरी धारी दिखती है।

ओडिशा (कलिंग) की मूर्तिकलाः ओडिशा भारतीय वास्तुकला और मूर्तिशिल्प का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसमें पुरी के जगन्नाथ मंदिर, भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर के शिल्प को शामिल किया गया है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की विशाल मूर्तियों के अलावा शिव-पर्वती, ब्रह्म-सावित्री और विष्णु-लक्ष्मी की भी मूर्तियां बनाई गई है। कोणार्क के सूर्य मंदिर में सूर्य प्रतिमा का हास्य-भाव विशेष रूप से सराहा गया है। लिंगराज मंदिर की मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग का लालित्य, अलंकरण, केश-विन्यास आदि विशेष रूप से दर्शनीय है।

  • पांडवों का स्वर्गारोहण, प्रेम-पत्र लिखती स्त्री, माता-शिशु, श्रृंगाररत नारियां, काम-क्रीड़ा के दृश्य, सूर्य-गणेश-कार्तिकेय, ब्रह्मा आदि मूर्तियों को लिंगराज मंदिर में उत्कृष्टता प्राप्त है।

राष्ट्रकूटकालीन मूर्तिकलाः इस दौर में मुख्यतः महाराष्ट्र के एलोरा, एलीफेंटा और कन्हेरी में मूर्तिशिल्प का काम हुआ है। एलोरा या वेरूल और एलीफेंटा में शिव के विविध रूपों का विस्तारपूर्वक अंकन हुआ है।

एलोरा में शिव, विष्णु, शक्ति और सूर्य की मूर्तियों के उदाहरण हैं, जबकि कन्हेरी (महाराष्ट्र) में बौद्ध शिल्प के उदाहरण मिलते हैं। मूर्तियां चट्टानों को काटकर उन्हें उभारकर बनाई गई है। मूर्तियों को वस्त्र कम लेकिन आभूषण अधिक पहनाए गए हैं। एलोरा की सभी गुफाओं के बाहर अधिकांशतः द्वारपाल के रूप में गंगा एवं यमुना की मूर्तियां बनाई गई है।