सिन्धु कालीन स्थापत्य कला

स्थापत्य कलाः सिंधु स्थापत्य कला की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है, सुनियोजित नगर-निर्माण योजना। इसका आधार था- प्रमुख सड़कें। ये सड़कें उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर समकोण पर काटती थी।

  • चौड़ी नालियों को ढंकने के लिए कहीं-कहीं बड़ी ईटों अथवा पत्थरों का प्रयोग किया गया था। नालियों की जुड़ाई और प्लास्टर में मिट्टी, चूने तथा जिप्सम के प्रयोग किए जाते थे।
  • उत्खनन में सबसे छोटे भवन की माप लगभग 30×27 मीटर थी, जिसमें 4-5 कमरे होते थे। कई वृहत् स्थापत्यों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। इनमें सबसे आकर्षक है, मोहनजोदड़ो का स्नानागार।

धातु कलाः सिंधुवासियों को विविध धातुओं का पूरा ज्ञान था। वे स्वर्ण, रजत, ताम्र एवं कांसा से कलात्मक आभूषणों का निर्माण करते थे। खुदाई में बाजूबन्द, कंठहार, लम्बहार, भुजबन्द, चूड़ियां, अंतक, अंगूठियां आदि मिले हैं, जो काफी आकर्षक है। मोहनजोदड़ों से गलाए हुए तांबे का एक ढे़र मिला है।

मुद्रा कलाः इस काल में सेलखड़ी की मुहरें बनाई जाती थीं। खुदाई में मुहरें ढालने के सांचे और ठप्पे मिले हैं। उन पर विभिन्न पशु-पक्षियों की आकृतियां चित्रित है। उनमें से पशुओं से घिरे हुए योगीश्वर शिव की मुद्रा उल्लेखनीय है।

मृद्भांड कलाः सिंधु सभ्यता के नगरों में मिट्टी, अभ्रक की हंड़िया, प्याले तथा तश्तरियां मिले हैं। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के अधिकांश बर्तन हल्के रंगों से रंगे हैं, कुछ थोड़े से काले एवं भूरे रंग के बर्तन भी मिले हैं।

स्थापत्य कला के प्राचीन स्कूल

  • प्राचीन भारत में स्थापत्य कला की तीन शैलियां विकसित हुई थी, जिनमें बनने वाली मूर्तियों की अलग-अलग विशेषताएं थी। ये निम्न हैं:
  • गांधार कला (50 ई. पू.-500 ई.): पश्चिमोत्तर भारत में ई.पू. प्रथम शताब्दी के मध्य कुषाण काल में विकसित इस मूर्ति कला पर यूनानी प्रभाव पड़ा। गांधार कला में भारतीय विषय को यूनानी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस कला का विषय बौद्ध है, इस कारण इसे ‘यूनानी बौद्ध’ या इंडो-ग्रीक अथवा ग्रीक-रोमन कला भी कहा जाता है। इसका केंद्र गांधार था, जिससे इसे ‘गांधारकला’ के नाम से भी जाना जाता है। गांधार कला आध्यात्मिकता की बजाय लौकिकता पर बल देती है।
  • मथुरा कला (150-300 ई.): जैन शिल्पियों ने मथुरा को केन्द्र बनाकर मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया एवं महावीर स्वामी की मूर्ति का निर्माण किया। मथुरा कला का विकास भी कुषाण काल में हुआ। इस कला पर ईरानी तथा यूनानी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहां के मूर्ति कला के विषय के रूप में बुद्ध के अलावा हिन्दू एवं जैन को भी शामिल किया गया। गांधार कला के विपरीत यहां की मूर्तियां अध्यात्मिकता एवं भावना प्रधान है।
  • अमरावती कला (150 ई. पू.-400 ई.): इस शैली की प्रतिमाओं का विकास दक्षिण भारत में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच ‘अमरावती’ नामक स्थान पर हुआ। इसे बौद्ध धर्म से प्रेरणा मिली और सातवाहन राजाओं का संरक्षण मिला।