पत्र-पत्रिका संपादकीय
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के परिणाम आम तौर पर मिश्रित होते हैं, और कुछ क्षेत्रों में सुधार के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में स्थिरता और गिरावट आती है। इस वर्ष मातृ एवं बाल स्वास्थ्य, लिंग अनुपात और जनसंख्या नियंत्रण में आमूलचूल सुधार हुआ है। पहले से कहीं अधिक अनुपात में अब संस्थागत जन्म हो रहे हैं, 12-23 महीने के आयु वर्ग के अधिक बच्चों का टीकाकरण हो गया है। सबसे दिलचस्प यह है कि भारत ने कुल प्रजनन दर 2.0 हासिल कर ली है, यह दर्शाता है कि भारत ने जनसंख्या विस्फोट को नियंत्रित किया है। लिंग अनुपात में पहली बार प्रति 1,000 पुरुषों पर अधिक महिलाएं दर्ज की गई हैं। पहली बार आबादी के बीच रक्त शर्करा (मधुमेह) और उच्च रक्तचाप को मापने के बाद, NFHS-5 ने जीवन शैली की बीमारियों के बढ़ते खतरे पर प्रकाश डाला है। देश भर में छः लाख से अधिक परिवारों में बड़े पैमाने पर किए इस सर्वेक्षण का उद्देश्य आंकड़े उपलब्ध करवाना है, जो नीतियों को आकार देने में मदद कर सके, कमियों को दूर कर सके और सेवा के लिए समान पहुंच सुनिश्चित कर सके।
केंद्र को भी NFHS के इस अभ्यास को केवल सर्वेक्षण मात्र के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि संघीय ढांचे में राजनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग किए बिना नीतियों में सुधार या पुनर्मूल्यांकन शुरू करने के अवसरों के रूप में देखना चाहिए।
स्रोत- द हिंदू
वैश्विक महामारी संधि पर विचार
विश्व स्वास्थ्य सभा ने महामारी की रोकथाम, तैयारी और प्रतिक्रिया हेतु ऐतिहासिक ‘वैश्विक महामारी संधि’ विकसित करने के लिए प्रक्रिया शुरू करने पर सहमति जताई है। कोरोना वायरस के ‘ओमिक्रॉन’ वैरिएंट के बारे में बढ़ती चिंताओं के बीच, आज वैश्विक महामारी संधि की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। वास्तव में, कोविड -19 महामारी के दौरान, यह स्पष्ट हो गया है कि इस परिमाण की स्वास्थ्य आपात स्थितियों से निपटने के लिए वर्तमान संरचनाएं अपर्याप्त हैं।
हालांकि डब्ल्यूएचओ एक प्रमुख वैश्विक स्वास्थ्य निकाय है, लेकिन इसके पास किसी भी देश को कुछ भी कार्रवाई करने के लिए मजबूर करने का कोई साधन नहीं है। नतीजतन, वर्तमान में कोई भी देश वैश्विक महामारी से निपटने के लिए अनुकूल तरीके से कार्य करने या बीमारी की रोकथाम पर देशों के साथ समन्वय करने के लिए किसी भी कानूनी दायित्व के अधीन नहीं है।
भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को देखते हुए वैश्विक महामारी संधि पर सहमति एक कठिन कार्य हो सकता है। लेकिन यह आपस में जुड़ी दुनिया को सुरक्षित करने के लिए किया जाना जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सभी देशों के लिए कानूनी दायित्वों के साथ एक महामारी संधि को साकार करने के लिए एकजुटता दिखानी चाहिए।
स्रोत- टाइम्स ऑफ इंडिया
भारतीय अर्थव्यवस्था सुधार की राह पर
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के नवीनतम जीडीपी और सकल मूल्य वर्द्धन (जीवीए) अनुमानों ने पुष्टि की है कि अर्थव्यवस्था अब पिछले वित्त वर्ष के रिकॉर्ड संकुचन के बाद सुधार की राह पर है। दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में 8.4% की वृद्धि हुई है, एक साल पहले की इसी अवधि (2020 में) के दौरान 7.4% संकुचन हुआ था। हालांकि दूसरी तिमाही में पूर्ण सकल घरेलू उत्पाद महामारी पूर्व स्तरों की तुलना में 0.3% अधिक था, फिर भी कई चिंताजनक क्षेत्र हैं। वास्तविक अर्थव्यवस्था के आठ प्रमुख औपचारिक क्षेत्रों में गतिविधि को प्रदर्शित करने वाले जीवीए आंकड़े भी सुधार को रेखांकित करते हैं। जुलाई - सितंबर 2019 की अवधि की तुलना में जुलाई -सितंबर 2021 के जीवीए आंकडों ने 32.89 लाख करोड़ के साथ 0.5% की वृद्धि दर्ज की है। आठ में से पांच क्षेत्रों ने न केवल एक साल पहले की तिमाही से वृद्धि दर्ज की, बल्कि कोविड -19 से पूर्व के प्रदर्शन को भी पीछे छोड़ दिया।
जीडीपी के आंकड़े चिंता के उन क्षेत्रों का भी खुलासा करते हैं, जो सुधार को कमजोर कर सकते हैं। निजी अंतिम उपभोग व्यय, जो सभी उपभोक्ताओं द्वारा आवश्यक वस्तुओं से लेकर विलासिता की वस्तुओं और सेवाओं के समग्र खर्च को मापता है, और सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा हिस्सा 55% भी है, अभी भी प्रगति करने में विफल है। सरकारी उपभोग व्यय भी वित्त वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही से काफी नीचे है। नीति निर्माताओं को अर्थव्यवस्था में सुधार को जारी रखने और मजबूती सुनिश्चित करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने सहित मांग-सहायक उपायों को बढ़ाने की जरूरत है।
स्रोत- द हिंदू
कृषि कानून निरस्त
केंद्र सरकार द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त कर दिया गया है। सरकार ने इन तीन कानूनों - किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020; किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध और कृषि सेवा अधिनियम, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 के जरिये भारत के विशाल कृषि बाजार में एक संरचनात्मक परिवर्तन लाने का लक्ष्य रखा था। साथ ही इसके जरिये बिचौलियों को हटाने, किसानों को अपनी पसंद के खरीदारों को बेचने की स्वतंत्रता और कृषि क्षेत्र में नए निवेश हेतु कॉर्पोरेट जगत को लाने का लक्ष्य भी रखा था। किसानों को संदेह था कि मंडियों को खत्म करने का कदम न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यक्रम को खत्म करने का एक पिछले दरवाजे का प्रयास था, जो उन्हें उनकी उपज के लिए उचित मूल्य का आश्वासन देता है। उन्हें कॉरपोरेट्स पर संदेह था और उन्होंने आवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म करने के कदम को खारिज कर दिया था, जिसके बारे में उनका मानना था कि अगर कृषि की कीमतों में वास्तव में काफी वृद्धि हुई है तो इसे किसी न किसी रूप में फिर से पेश किया जाएगा।
ये कानून एक सबक भी हैं कि केवल अच्छे इरादे ही काफी नहीं हैं; इस तरह के किसी भी दूरगामी सुधार को संसद में भारी बहुमत से या नियत प्रक्रिया को दरकिनार करके नहीं लाया जा सकता है। न केवल किसानों की सुरक्षा, बल्कि सभी हितधारकों के हितों की रक्षा करते हुए, संरचनात्मक परिवर्तन कैसे लाया जाए, इस पर आम सहमति होनी चाहिए।
स्रोत- द फ्री प्रेस जर्नल
चुनावी खर्चों पर निगरानी हेतु प्रौद्योगिकी की आवश्यकता
हाल में निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त पैनल द्वारा चुनावी खर्च सीमा को लोक सभा उम्मीदवारों के लिए 77 लाख रुपए से बढ़ाकर 90 लाख-1 करोड़ रुपए तक और विधान सभा उम्मीदवारों के लिए 30 लाख रुपए से बढ़ाकर 35-38 लाख रुपए करने संबंधित वृद्धि विकल्प सुझाए गए हैं। खर्च करने की सीमा का नियमित रूप से उल्लंघन किया जाता है और दिखाए गए खर्च वास्तविक खर्च से काफी कम होते हैं। समस्या केवल खर्च किए गए धन की नहीं है, बल्कि इसके स्रोत की अस्पष्टता की भी है।
खर्च की सीमा बढ़ाने के बजाय, यह बेहतर होगा जनता से जानकारी के माध्यम से, उम्मीदवारों से वाद-विवाद के जरिये, वास्तविक खर्च पर आंकड़े एकत्रित किए जाएं और उम्मीदवार से इस खर्च के लिए धन का स्रोत दिखाने के लिए कहा जाए। उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा दिखाये गए खर्चों से स्वतंत्र, चुनाव प्रचार की वास्तविक लागत का अनुमान लगाने के लिए ‘डेटा अभिग्रहण और वैश्लेषिकी’ (Data capture and analytics) का उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए ‘प्रौद्योगिकी’ और ‘बिग डेटा विश्लेषिकी’ को तैनात करने की आवश्यकता होगी। एक बार जब राजनीतिक चंदा पारदर्शी हो जाएगा तो राजनीति और शासन को भ्रस्टाचार मुक्त किया जा सकता है।
स्रोत - इकनॉमिक टाइम्स
क्रिप्टोकरेंसीः विनियमन करें, प्रतिबंध नहीं
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा आभासी मुद्राओं के धारकों को संभावित वित्तीय और सुरक्षा जोखिमों के बारे में अपनी पहली सलाहकार चेतावनी जारी करने के आठ साल बाद और क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक विधेयक का मसौदा तैयार करने के दो साल बाद सरकार यह कानून पेश करने के लिए तैयार है। यदि यह कानून पारित हो जाता है, तो आधिकारिक तौर पर ऐसी मुद्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। सरकार की चिंता क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े जोखिम के रूप में प्रतीत होती है, जिसमें मनी-लॉन्ड्रिंग और अवैध गतिविधियों के वित्तपोषण के लिए उनका संभावित उपयोग शामिल है। निवेशकों और उपभोक्ताओं को भी इन मुद्राओं से जोखिम का सामना करना पड़ता है।
इस वर्ष अल सल्वाडोर ने आधिकारिक तौर पर ‘बिटकॉइन’ को वैध मुद्रा के रूप में घोषित किया, जिससे दुनिया भर में निजी आभासी मुद्राओं को अपनाने में बहुत कुछ बदलाव हुआ है। कनाडा, जापान और थाईलैंड भुगतान पद्धति के रूप में आभासी मुद्राओं के उपयोग की अनुमति देते हैं। भारत को चीन की तरह आभासी मुद्राओं पर प्रतिबंध लगाने से बचना चाहिए और इसके बजाय निगरानी वाले एक्सचेंजों के माध्यम से उनके व्यापार को कड़ाई से विनियमित करने और राजस्व अर्जित करने का लक्ष्य रखना चाहिए। इसके साथ ही, इसे आरबीआई के ‘सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी’ (Central Bank Digital Currency) के प्रायोगिक रूप में तेजी लानी चाहिए ताकि क्रिप्टोकरेंसी के विकल्प की पेशकश की जा सके।
स्रोत- द हिंदू
राष्ट्रीय बाढ़ मैदान क्षेत्र को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
प्रायद्वीपीय भारत में बेमौसम बारिश और बाढ़ से जानमाल और आजीविका के साथ ही संपत्ति और बुनियादी ढांचे को व्यापक नुकसान हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन ने वर्षा के पैटर्न में परिवर्तनशीलता को बढ़ा दिया है। जलमार्गों के अतिक्रमण, अपर्याप्त जल निकासी चैनल और नालों के अवरुद्ध होने के कारण जलभराव होता है।
तेजी से शहरीकरण की पृष्ठभूमि में बाढ़ के मैदानों का अनियोजित और अनियमित विकास एक प्रमुख कारक हैः आर्द्रभूमि और जल निकायों का निर्माण और आमतौर पर वाटरशेड प्रबंधन और वनीकरण योजनाओं के लिए अपर्याप्त ध्यान प्रमुख कारण हैं। निश्चित रूप से बाढ़ के मैदानों में भूमि उपयोग को नियमित रूप से विनियमित करना होगा, ताकि बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके और उद्देश्यपूर्ण ढंग से सीमित किया जा सके।
हमें संरचनाओं के वर्गीकरण और प्राथमिकता के साथ पूर्ण बाढ़ मैदान क्षेत्र या ‘फ्लड प्लेन जोनिंग’ (floodplain zoning) मानदंडों की आवश्यकता है। वास्तव में, केंद्र द्वारा लगभग 1975 में बाढ़ मैदान क्षेत्र के लिए एक मॉडल मसौदा विधेयक राज्यों को भेजा गया था, जिसे फिर से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। फ्लड प्लेन जोनिंग का उद्देश्य बाढ़ को कम से कम करने के लिए विकास गतिविधियों के स्थान और सीमा को पारदर्शी रूप से निर्धारित करना है। बाढ़ को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिए हमें एक शीर्ष ‘राष्ट्रीय बाढ़ प्रबंधन संस्थान’ के साथ-साथ संसाधन आवंटन में तेजी लाने की आवश्यकता है।
स्रोत - इकनॉमिक टाइम्स