Question : भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सामाजिक परिणाम
(2005)
Answer : भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सामाजिक परिणाम का आकलन हम इस बात से करते हैं कि यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप प्रत्यक्ष रूप से हमें निम्नांकित सामाजिक परिणाम देखने को मिलता है-
भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अप्रत्यक्ष सामाजिक परिणाम भी हुए हैं, जो निम्नांकित हैंः
Question : सामाजिक परिवर्तन एवं आधुनिकीकरण के एक उपकरण के रूप में सार्वजनिक शिक्षा पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : शिक्षा न केवल सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करती है, बल्कि अनेक दृष्टियों से आधुनिकीकरण के एक घटक के रूप में भी कार्य करती है।
शिक्षा निश्चित रूप से सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करती है। इस अर्थ में यह न केवल सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करती है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के एक घटक के रूप में भी क्रियाशील रहती है। शिक्षा अपने को अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में लगाए रखती है और परिवर्तन के प्रवर्त्तक का कार्य संपन्न कर सकती है। जो भी परिवर्तन समाज के पुनर्निर्माण के लिए वांछनीय हैं उन्हें युवा पीढ़ी के मन में बैठाना शिक्षा का कार्य है। इसके अतिरिक्त यह लोगों को परिवर्तन की चुनौतियों से जुझने के लिए बौद्धिक एवं भावात्मक रूप से तैयार करती है।
शिक्षा आधुनिकीकरण का एक महत्वपूर्ण कारक है। आधुनिकीकरण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में संबंधित आधुनिक मूल्यों को लोगों के मन में बैठाना आवश्यक होता है। समानता, स्वतंत्रता, वैज्ञानिक दृष्टि, मानवतावाद तथा अंधविश्वास के विरूद्ध विचार जैसे मूल्यों से आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त होता है। शिक्षा के माध्यम से यह कार्य कारगर ढंग से संपन्न हो सकता है।
यद्यपि शिक्षा, आधुनिकीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है परंतु आधुनिकीकरण एवं सामाजिक परिवर्तनसार्वजनिक शिक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है। सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। शिक्षा का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन में निम्नांकित तथ्यों के विश्लेषण से आकलन किया जा सकता हैः
शिक्षा का योगदान न सिर्फ सामाजिक परिवर्तन में रहा है, बल्कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को भी बढ़ावा दिया है। परंतु इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा के माध्यम से आधुनिकीकरण शिक्षित तथा अभिजात समूहों तक ही सीमित रहा जो अधिकतर उच्च वर्गों के सदस्यों थे। फिर भी शिक्षा ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को एक नयी दिशा दी। शिक्षा का योगदान आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का आकलन निम्नलिखित बिन्दुओं के तहत किया जा सकता है।
Question : शिक्षा का निजीकरण और अवसर की समता
(2004)
Answer : निजीकरण की अवधारणा निजी स्वामित्व की बहुस्तरीय मात्रत्मक अवधारणा प्रदर्शित करती है। इसका स्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षण संस्थाओं को निजी क्षेत्र में सौंपकर सरकारी एकाधिकार को कम किया जा सकता है। शिक्षा के संबंध में प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक प्रचलित दो धारणाएं प्रमुख रही है-
(i) राज्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए राज्य नियंत्रित शिक्षा,
(ii) व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से राज्य के नियंत्रण से परे शिक्षा प्रबंध और संचालन।
आधुनिक काल में प्रथम धारणा किसी न किसी रूप में समाजवादी विचारधारा तथा द्वितीय धारणा स्वतंत्र अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई है।
शिक्षा का निजीकरण के संदर्भ में यह तथ्य सामने आता है कि सिर्फ निजी क्षेत्र ही शिक्षा की सारी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता, क्योंकि शिक्षा के बदले जिस शुल्क की अपेक्षा वे रखते हैं, उसे दे पाने में हमारे देश का बहुसंख्यक वर्ग असमर्थ है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षा के निजीकरण के फलस्वरूप समाज में असमानता बढ़ती है और यह वर्तमान समय में बढ़ रही है। उदाहरणस्वरूप, आज हर एक बड़े शहरों में यह देखने को मिलता है कि उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय में शिक्षा पाते हैं परंतु दूसरी ओर गरीब वर्ग के बच्चे साधारण स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते हैं। अगर दोनों के स्तर का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो यह भिन्नता सामने स्पष्टतः ही आ जाती है। साथ ही इन वर्गों के बच्चे ही विभिन्न प्रकार की अच्छी नौकरी पाने में समर्थ हैं जबकि गरीब वर्ग के बच्चे इससे अछूते रह जाते हैं। यह निश्चित रूप से अवसर की असमानता को स्पष्ट करती है।
Question : विज्ञान और सामाजिक दायित्व।
(2004)
Answer : मानवीय ज्ञान संबंधी समस्याओं का एक दृष्टिकोण विज्ञान के नाम से जाना जाता है जिसके द्वारा आनुभविक प्रेक्षण (इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव) के आधार पर असीमित वर्ग की घटनाओं के संबंध में सामान्य सिद्धांत खोजने का प्रयास किया जाता है। विज्ञान इस अनुमान पर आधारित है कि विश्व के संबंध में इंद्रियों द्वारा वस्तुपरक ज्ञान संभव है तथा इस ज्ञान की सत्यता की परख अनेक व्यक्तियों के समान प्रेक्षणों द्वारा की जा सकती है। संक्षेप में विज्ञान से तात्पर्य ऐसे व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ ज्ञान से है जिसका सत्यापन किया जाना संभव है। विज्ञान को जब एक पद्धति के रूप में पारिभाषित किया जाता है तब विज्ञान का अर्थ ज्ञान प्राप्ति की व्यवस्थित पद्धति से होता है।
विज्ञान वास्तव में मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विज्ञान के फलस्वरूप ही आज विश्व एक गांव की भांति हो गया है। विज्ञान ने समाज की आवश्यकता की इस प्रकार से पूर्ति कर दी है कि मानो इसमें कोई दूरी ही नहीं रह गयी हो। विज्ञान ने संचार क्रांति के माध्यम से व्यक्तियों के बीच पारस्परिक अंतःक्रिया को बढ़ा दिया है। अतः वर्तमान समय में व्यक्ति दूर रहकर भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का भलीभांति निर्वाह कर सकता है।
विज्ञान का ही गत्यात्मक एवं प्रायोगिक पक्ष प्रौद्योगिकी है। प्रौद्योगिकी के विकास के फलस्वरूप व्यक्तियों के बीच पारस्परिक निर्भरता का विकास हुआ है। विशेषीकरण की अवधारणा इसकी मूल है। यह विशेषीकरण समाज के विभिन्न क्षेत्रों में देखने को मिलता है चाहे वो औद्योगिक हो या शैक्षिक या फिर सांस्कृतिक। अतः इस विशेषीकरण ने व्यक्तियों को एक-दूसरे के समीप लाने में अभूतपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। परंतु इससे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसके कोई दोष नहीं है। विज्ञान के प्रसार के फलस्वरूप व्यक्तिवादी प्रवृति का विकास हुआ है एवं नाभिकीय शस्त्रों-अस्त्रों के विकास ने मानव जीवन को खतरे में डाल दिया है।
Question : सामाजिक परिवर्तन के मार्क्सवादी और पार्सनवादी विचारों का एक तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए और समकालीन भारत में सामाजिक विकास के लिए प्रत्येक विचार की प्रासंगिकता का परीक्षण कीजिए।
(2004)
Answer : सामाजिक परिवर्तन किसी भी समाज का एक शाश्वत नियम एवं घटना है। वस्तुतः समाजशास्त्र का उद्भव भी सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या के लिए ही हुआ है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं का विश्लेषण हम मुख्यतः उद्विकासीय, चक्रीय, संघर्ष तथा प्रकार्यवादी सिद्धांतों के अंतर्गत करते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा मूल रूप से मार्क्स के विचारों पर आधारित सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत है जो क्रांति पर जोर देता है जबकि टालकट पारसंस ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए ऐतिहासिक या उद्विकासीय प्रारूप का सहारा लिया है। पारसंस का यह विचार उद्विकासीय सार्वभौमिक तत्वों के नाम से जाना जाता है।
सामाजिक परिवर्तन का मार्क्सवादी विचारः जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की उद्विकासीय व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने समाज के विकास का विभिन्न चरणों में वर्णन किया है। उनके अनुसार समाज का एक स्तर से दूसरे स्तर में जाने की प्रक्रिया के पीछे वर्ग संघर्ष का मुख्य योगदान होता है।
सामाजिक परिवर्तन के मार्क्सवादी विचारों के अंतर्गत हम मुख्यतः समाज के विकास के चार चरणों की व्याख्या करते हैं। ये हैं-आदिम साम्यवाद, पुरातन, सामंती एवं पूंजीवादी।
आदिम साम्यवाद मानव समाज के इतिहास का प्रथम चरण था। इस अवस्था में उत्पादन के साधनों पर समुदाय का पूर्ण नियंत्रण होता था। व्यक्तिगत सम्पत्ति की अवधारणा का अभाव था इसलिए इस समाज में न तो किसी तरह का शोषण था और न ही वर्ग व्यवस्था। यह एक वर्गविहीन समाज था। इसके बाद धीरे-धीरे समाज एशियाटिक उत्पादन के साधनों के स्तर की ओर अग्रसर हुआ।
दास मूलक समाज में मार्क्स के अनुसार प्रथम बार मानव समाज के इतिहास में दास और मालिक जैसे दो वर्गों का उदय हुआ। विकास के इसी स्तर में सामूहिक स्वामित्व की जगह व्यक्तिगत स्वामित्व का विकास हुआ। इसी युग से आर्थिक विकास तीव्र हुआ। व्यापार, नगरों का निर्माण धातुओं का प्रयोग आदि इस स्तर से भी संभव हुआ।
सामंती समाज का आगमन दास एवं मालिक के बीच परस्पर संघर्ष के परिणामस्वरूप हुआ। इस समाज में भी दो वर्ग थे- सामंत और कृषिदास सामंत उत्पादन के साधनों के स्वामी थे। कृषिदास सामंतों के अधीन कार्यों में हाथ बंटाते थे तथा युद्ध की स्थिति में सामंत के सिपाही के रूप में लड़ते थे। इस समाज में निजी संपत्ति की धारणा और ज्यादा मजबूत हुई। सामंतों एवं कृषिदासों के बीच संघर्ष निरंतर चलते रहते थे।
पूंजीवादी समाज सामंतों एवं कृषिदासों के बीच पारस्परिक संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया। इस समाज में भी मुख्य दो वर्ग हैं-पूंजीपति और श्रमिक या सर्वहारा। इस समाज में उत्पादन के साधनों पर मुख्य अधिकार पूंजीपतियों का होता है, जबकि उत्पादन कार्य में मेहनत श्रमिकों की होती है। पूंजीपति सदा श्रमिकों का शोषण करता है। इससे दोनों वर्गों के बीच वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया चलती रहती है।
मार्क्स ने साम्यवादी समाज को उद्विकास का अंतिम चरण माना है। उनके अनुसार इस समाज में वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया का अंत संभव है, क्योंकि विकास के इस चरण में वर्ग विभाजन के साथ-साथ राज्य की भी समाप्ति हो जायेगी। लेकिन, अब तक के ऐतिहासिक अनुभवों से लगता है कि निकट भविष्य में ऐसा समाज संभव नहीं है।
कुछ विद्वानों का विचार है कि मार्क्स को एक उद्विकासीय चिंतक नहीं कहा जाना चाहिए। मार्क्स का विचार बहुत कुछ उद्विकासीय इसलिए लगता है कि उन्होंने आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तन की विचारधारा को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है।
टालकट पारसंस का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांतः पारसंस की गणना एक प्रकार्यवादी सामाजिक उद्विकासवादी के रूप में की जाती है। अपने पूर्ववर्ती उद्विकासवादी सामाजिक चिंतकों की तरह पारसंस ने यह विचार व्यक्त किया है कि समाज उद्विकास के चलते निम्न विभेदीकरण से उच्च विभेदीकरण के स्तर की ओर बढ़ता है। पारसंस ने बताया है कि आधुनिक समाज उद्विकास के चार प्रमुख चरणों से गुजरा है, जो इस प्रकार है-
(i) निम्नतर आदिम स्तर, (ii) उन्नत आदिम समाज, (iii) मध्यवर्ती समाज तथा (iv) उद्योगीकृत समाज।
दुर्खीम की तरह पारसंस ने कहा है कि प्रारंभिक मानव समाज ऑस्ट्रेलिया की आदिम जाति से मिलता-जुलता रहा होगा। वहां के लोगों की जो संस्कृति है उसे पारसंस ने मानव की संस्कृति के उद्विकास का पहला चरण माना है। इसे निम्नतर आदिम स्तर के नाम से जाना जाता है। विभिन्न किस्म के प्रतीकों के सहारे लोग अपने विचारों, धार्मिक विश्वासों, अपनी इच्छाओं और मनोवृत्तियों को स्पष्ट किया करते थे। इस स्थिति को पारसंस ने संघटक प्रतीकवाद कहा है।
जैसे-जैसे समाज में विभिन्नताएं बढ़ी, लोग उद्विकास के दूसरे चरण में बढ़े, जिसे पारसंस ने उन्नत आदिम समाज कहा है। इस तरह से समाज के अंदर सामाजिक स्तरण की उत्पत्ति हुई। सामाजिक समानता में भी कमी आई। वर्ग की अवधारणा का जन्म हुआ, खेती और पशुपालन जैसे पेशों का भी जन्म हुआ। धर्म ने अपना एक स्पष्ट रूप लिया।
उद्विकास के तीसरे चरण को पारसंस ने मध्यवर्ती समाज कहकर पुकारा है। इस चरण के दो उप-चरण हैं-प्राचीन समाज एवं ऐतिहासिक समाज। उद्विकास के इस चरण में धर्म का विकास इतना अधिक हो गया कि यह लोगों के रोजमर्रे के जीवन को प्रभावित करने लगा। भाषा और साहित्य का विकास हुआ। पारसंस के अनुसार, प्राचीन मिश्र, चीन, रोम की सभ्यता मध्यवर्ती समाज का अच्छा उदाहरण है।
औद्योगिक समाज पारसंस के उद्विकासीय सिद्धांत का अंतिम चरण है। उन्होंने बताया है कि औद्योगिकृत समाज में सबसे अधिक विभेदीकरण पाया जाता है। समाज में विभिन्न प्रकार के विशेषीकरण का विकास होता है। राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच में स्पष्ट अलगाव दिखाई पड़ता है। पर इसके साथ ही विभिन्न किस्म की व्यवस्थाओं के बीच आपसी निर्भरता पायी जाती है। राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। परंपरागत विश्वासों की जगह वैज्ञानिक चिन्तन एवं आधुनिकता की विभिन्न विशेषताएं जगह ले लेती है। धार्मिक विश्वासों की जगह पर धर्मनिरपेक्ष मूल्य चला आता है। सामुदायिक भावना की जगह पर व्यक्तिवाद चला आता है। अध्यात्मवाद की जगह पर भौतिकवादी मूल्य समाज में लोकप्रिय हो जाते हैं।
पारसंस के उपरोक्त विचारों से बहुत लोग सहमत नहीं हैं। आलोचकों का कहना है कि मानव समाज का उद्विकास जैविक उद्विकास से मेल खाने वाली प्रक्रिया नहीं है। जैविक उद्विकास में आनुवंशिक हस्तांतरण की विशेष महत्ता है। उस ढंग से समाज में वंशानुगत हस्तांतरण नहीं होता है।
सामाजिक परिवर्तन के मार्क्सवादी और पार्सनवादी विचारों का तुलनात्मक विश्लेषणः सामाजिक परिवर्तन के दोनों ही दृष्टिकोण बहुत से मामले में एक-दूसरे के काफी नजदीक प्रतीत होते है परंतु इसमें कुछ असमानताएं भी है। इसे हम निम्नांकित रूप से विवेचना कर सकते हैं-
समकालीन भारत में सामाजिक विकास के लिए हम मुख्यतः तीन प्रकार के चरणों की बात करते हैं। ये हैं-परंपरागत समाज, संक्रमणशील समाज एवं आधुनिक समाज। सामाजिक विकास के इन तीनों प्रकार/चरण मार्क्स एवं पारसंस के विचारों से काफी ओत-प्रोत हैं परंतु इसके अतिरिक्त कुछ भिन्नता भी है। परंपरागत समाज के अवयव मार्क्स के आदिम साम्यवादी एवं पुरातन समाज तथा पारसंस के निम्नतर आदिम समाज एवं आदिम समाज से काफी मिलता-जुलता है परंतु परिप्रेक्ष्य में अंतर है कारण भारत को एक जनजातीय समाज के रूप में हम नहीं देख सकते है फिर भी लगभग 8% जनजातीय लोग यहां पर निवास करते हैं। दूसरी बात यह है कि संक्रमणशील समाज को हम मार्क्स के सामंती समाज एवं पारसंस के मध्यवर्ती समाज के रूप में देख सकते हैं क्योंकि इसके अंतर्गत बहुत से अवयव एवं विशेषताएं एक-समान प्रतीत होते है।
समकालीन भारत में आधुनिकता एक प्रमुख आयाम को स्पष्ट करता है। परंतु पूर्णरूप से हम भारत को एक आधुनिक समाज नहीं कह सकते हैं परंतु इसके प्रसार से हम इंकार नहीं कर सकते हैं। आज की परिस्थिति ऐसी है कि शहरों की ओर ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन भारी मात्र में जारी है। यह बहुत कुछ आधुनिकता एवं औद्योगिकरण से संबंधित है। अतः यहां पर मार्क्स का पूंजीवादी समाज एवं पारसंस का औद्योगीकृत समाज की अवधारणा बहुत कुछ क्षेत्रों में मिलती जुलती प्रतीत होती है। परंतु मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष के विचार की भूमंडलीकरण के फलस्वरूप प्रतिस्पर्द्धा में बढ़ोतरी अवश्य हुई है। दूसरी ओर पारसंस की औद्योगीकृत समाज की अवधारणा इस दृष्टिकोण कहीं ज्यादा वैज्ञानिक लगता है।
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न आयामों के उद्घाटन के बावजूद भी मार्क्सवादी एवं पारसंसवादी दृष्टिकोण वर्तमान समय के सभी अवयवों एवं पहलुओं की व्याख्या करने में असफल रहा है, यह मूलरूप में 90 के दशक के बाद।Question : शिक्षा एवं सामाजिक विकास।
(2003)
Answer : शिक्षा एवं सामाजिक विकास के बीच गहरा संबंध है। जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षा वह सशक्त माध्यम है जो व्यक्तियों के चरित्र विकास के साथ-साथ सामाजिक चेतना एवं सामाजिक विकास भी करता है। शिक्षा वर्तमान समय में समाज के हर एक क्षेत्र में भूमिका निभा रहा है। यह एक वो माध्यम है जो व्यक्ति को गतिशीलता प्रदान कर आधुनिक विचारों एवं वैज्ञानिकता से परिचित कराता है।
दूसरी ओर, सामाजिक विकास निश्चित रूप से किसी देश या समाज का आधार तत्व होता है जो व्यक्ति के आवश्यकता के दृष्टिकोण से आधारभूत कार्य करता है। सामाजिक विकास के अंतर्गत मूलतः शिक्षा, भोजन, आवास, बिजली, पानी, सफाई, रोड एवं रोजगार आता है। शिक्षा एक ऐसा तत्व है जो सामाजिक विकास के प्रत्येक तत्व में महत्वपूर्ण योगदान करता है।
शिक्षा के फलस्वरूप ही व्यक्तियों में कौशल का विकास होता है और यह विभिन्न कौशल उसे रोजगार के अवसर प्रदान कर बेरोजगारी को घटाने में सहयोग देते हैं। शिक्षा के माध्यम से ही हम भाषा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो अंततः देश के आधारभूत इकाईयों के विकास में मदद करता है। साथ ही ये चीजें आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। शिक्षा लोगों के बीच परंपरागत रूढ़िगत विचारों को भी समाप्त करने में योगदान देता है ये परंपरागत रूढ़िगत विचार एवं क्रियाकलाप हमें विभिन्न कुरीतियों से ओत-प्रोत कराता है जो अंतोगत्वा शिक्षा के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है।
अतः आज हम यह देख रहें हैं कि जो देश/राज्य शिक्षा (प्रोद्योगिकी/विज्ञान/तकनीकी) क्षेत्र में जितना आगे है वो उतना ही विकसित एवं आत्म-निर्भर है। फिर भी इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न देशों का भिन्न-भिन्न प्रकार की संरचनात्मक एवं कार्यात्मक भिन्नताएं पायी जाती हैं जो सामाजिक विकास में बाधक होते हैं। अतः यह शिक्षा ही है जोसारी बाधाओं को दूर कर सकता है।
Question : भारत में नई प्रोद्योगिकियों का सामाजिक प्रभाव।
(2003)
Answer : नई प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में अनेक परिवर्तन आते हैं। ये परिवर्तन प्रोद्योगिकीय परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न परिवर्तनों के माध्यम से आते है।
(1) श्रम विभाजन एवं कार्यों का विशेषीकरणः प्रौद्योगिकी के विकास के फलस्वरूप अब भारत में उत्पादन बड़े पैमाने पर विशालकाय कारखानों में होने लगा। इन कारखानों में श्रम का चुनाव उसके व्यक्तिगत कार्यशीलता एवं विशेषीकरण के आधार पर होता है। साथ ही विभिन्न कार्यों को ठीक से पूरा करने के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई है।
(2) श्रमिक संगठनों का निर्माणः उत्पादन के क्षेत्र में नवीन प्रविधियों के काम में लिये जाने के फलस्वरूप नई-नई समस्याएं श्रमिकों के बीच आयी जिसके परिणाम स्वरूप श्रमिकों के हित की रक्षा के लिए नई-नईश्रमिक संगठनों का निर्माण हुआ। साथ-साथ ही श्रमिकों में वर्ग-चेतना का भी विकास हुआ।
(3) नगरीकरणः नयी प्रोद्योगिकी के विकास के कारण भारत के ग्रामीण जनता में एक चेतना का विकास हुआ एवं इससेवे संपर्क में आने लगे जिसके फलस्वरूप वे लोग ज्ञान एवंरोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करने लगे। फलतः नगरीकरण की प्रक्रिया में तेजी आ गयी।
(4) गतिशीलता का बढ़नाः प्रोद्योगिकी परिवर्तन ने स्थानीय और सामाजिक दोनों ही प्रकार की गतिशीलता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नवीन प्रोद्योगिकी के कारण आवागमन एवं संसार के साधनों में तेजी से वृद्धि हुई है।
(5) सामाजिक संबंधों में परिवर्तनः प्रोद्योगिकी के विकास के परिणामस्वरूप पारिवारिक, सामाजिक एवं आर्थिक संबंधोंमें परिवर्तन आया है एवं संबंधों में जटिलता बढ़ी है। आज संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है एवं एकाकी परिवारों का निर्माण हो रहा है एवं साथ ही व्यक्तिवादिता की प्रवृति में भी विकास हो रहा है।
(6) ग्रामीण क्षेत्रों में नगरीय विशेषताओं का फैलावः आज प्रोद्योगिकी के कारण नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया तीव्र है जिसका प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों पर भी पड़ा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रामीण एवं नगरीय जीवन का अंतर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
Question : सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन।
(2002)
Answer : सामाजिक आंदोलन एवं सामाजिक परिवर्तन परस्पर अंतः संबंधित अवधारणाएं हैं। जब किसी समाज में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है तो वह सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लेती है, जिससे उस समाज में सामाजिक परिवर्तन भी अवश्यंभावी हो जाता है।
सामाजिक आंदोलन वास्तव में समाज के समूह द्वारा किसी उद्देश्य की प्राप्ति के द्वारा किया गया एक सुनिश्चित, सुव्यस्थित एवं संगठित प्रयास है। इस प्रकार सामाजिक आंदोलन एक वृहत अवधारणा है, जैसे-जनजाति आंदोलन, वातावरणीय आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन एवं पिछड़ा वर्ग आन्दोलन इत्यादि। प्रो. टी.के. ओमन ने सामाजिक आंदोलन की व्याख्या बहुत ही स्पष्ट किया है तथा इस आंदोलन के फलस्वरूप समाज में काफी परिवर्त्तन आता है।
उपरोक्त बातों से यह काफी बल मिलता है कि सामाजिक आंदोलन की शुरुआत निश्चित ही किसी समस्या द्वारा होती है एवं इस समस्या के समाधान के साथ ही सामाजिक जीवन के कुछ पहलुओं में परिवर्तन के साथ समाप्त होता है। सामाजिक आंदोलन एवं सामाजिक परिवर्तन का सबसे अच्छा उदाहरण पिछड़े वर्ग का आंदोलन हो सकता है। पिछड़े वर्ग के लोगों ने अपनी स्थिति सुधारने के लिए काफी संघर्ष एवं आंदोलन किया, जिसके फलस्वरूप मंडल आयोग द्वारा उन्हें संविधान के अंतर्गत सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान दिया गया तथा इस आरक्षण के आधार पर आज पिछड़े वर्ग के लिए लोग विभिन्न उच्च पदों पर भी सुशोभित हैं, जो बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन है। आज उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के पद पर दलित नेता मयावती सुशोभित हैं। इसके पीछे भी एक दलित आंदोलन जुड़ा हुआ है। इन सारी बातों से अंततोगत्वा समाज के विभिन्न आयामों में परिवर्तन आता है, जो वृहत स्तर पर सामाजिक परिवर्तन कहलाता है।
Question : विज्ञान की प्रकृति।
(2002)
Answer : सामान्य तौर पर सामाजिक विज्ञान एवं विशिष्ट तौर पर समाजशास्त्र में विज्ञान का स्वरूप को लेकर मतभेद है। शाब्दिक रूप से विज्ञान की प्रकृति वस्तुनिष्ठ एवं व्यक्तिगत ज्ञान से परे होती है एवं इसका संचालन अवलोकन, वर्गीकरण, निरीक्षण एवं परीक्षण द्वारा होता है। कॉम्ट एवं दुर्खीम ने प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण से समाज को प्रकृति का एक अंग मानकर समाजशास्त्र को विज्ञान कह डाला। परंतु दूसरी ओर वैज्ञानिक समाजशास्त्र के व्याख्यता कार्ल पॉपर ने किसी भी विज्ञान की वैज्ञानिकता को कड़ी चुनौती दी है और कहा कि आज के वैज्ञानिक, विज्ञान की प्रकृति का सम्मान करते हुए परीक्षण की ओर ज्यादा झुकाव रखते हैं। साथ ही पॉपर ने प्राकृतिक विज्ञानों की वस्तुनिष्ठता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा है कि विज्ञान की प्रकृति नयी खोज एवं अनुसंधान न होकर सिर्फ परीक्षण रह गयी है। अतः पॉपर में ‘खंडन के सिद्धान्त’ का समर्थन करते हुए माना कि विज्ञान की वैज्ञानिकता, खंडन के द्वारा ही कायम रखी जा सकी है।
अतः आज की परिस्थिति में विज्ञान की प्रकृति के बारे में स्पष्टता जाहिर करना काफी मुश्किल होगा। पिटर विंच समाज के अध्ययन के लिए प्राकृतिक विज्ञान एवं समाज विज्ञान के बीच की खाई को समाप्त करने के पक्ष में था, फिर भी हम यहां विज्ञान की प्रकृति को एच-एम- जॉनसन के शब्दों में चार प्रकार की विशेषताओं के आधार पर पुष्टि कर सकते हैं:
Question : औपचारिक शिक्षा की प्रक्रिया एवं समाजीकरण के अंतर को दर्शाइये। सामाजिक परिवर्तन के एक साधन को रूप में औपचारिक शिक्षा की प्रभावकता का परीक्षण करें।
(2001)
Answer : कुछ समाजों, विशेषकर जनजाति समाजों में बालक का शिक्षण और समाजीकरण औपचारिक शिक्षा संस्थाओं के बिना होता है। फिर भी सीखने की प्रक्रिया के रूप में शिक्षा सर्वव्यापी होती है चाहे कोई जंगल में रहे या मरुस्थल में या शहर अथवा गांव में। सीखने की सार्वभौमिकता से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सभी प्रकार का सीखना समाजीकरण होता है उसी प्रकार जैसे सभी प्रकार की शिक्षा भी समाजीकरण के लिए नहीं होती।
यह भी उल्लेखनीय है कि सब कुछ सीखना समाजीकरण नहीं होता है, क्योंकि उससे व्यक्ति जो कुछ सीखता है वह उसकी सभी सामाजिक भूमिकाओं के लिए आवश्यक या संगत नहीं होता। जैसे कहीं-कहीं सिगरेट पीना सीखना, सामाजिक-भूमिकाओं को निभाने के लिए असंगत भी हो सकता है। व्यक्ति द्वारा इन मूल्यों और आदर्शों को सीखने की प्रक्रिया लगभग सभी समाजों में एक जैसी होती है। विशिष्ट समाजों में इन मूल्यों में कई कारणों से भिन्नता हो सकती है।
कोई बालक, सबसे पहले अपने समाज का सदस्य होता है। साथ ही वह बड़े परिवार वर्ग (बिरादरी, खानदान आदि) का भी सदस्य होता है। इसी में उसके भाई-बहन तथा उसके माता-पिता के दूसरे रिश्तेदार भी सम्मिलित हो जाते हैं। जिस परिवार में उसका जन्म होता है। वह केंद्रित या संयुक्त परिवार हो सकता है। इसी तरह वह बड़े समाज का सदस्य होता है। इन वर्गों और संस्थाओं का सदस्य होने के नाते प्रत्येक सदस्य को उसके व्यवहार संबंधी मूल्यों और प्रतिमानों को मानना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार हम एक साथ कई वर्गों के सदस्य होते हैं। उदाहरण के तौर पर हम परिवार, बिरादरी, खानदान, कुनबा, समाज, स्कूल या कॉलेज के एक ही समय पर सदस्य होते हैं। इसी सदस्यता के अनुरूप हमें पुत्र, पुत्री, पोता, पोती, या विधार्थी की भूमिका निभानी होती है। वे विभिन्न भूमिकाएं भी एक साथ, एक ही समय पर निभायी जाती है। इन वर्गों के प्रतिमानों, अभिवृत्तियों, मूल्यों या व्यवहार पद्धतियों को सीखने की प्रक्रिया जीवन के प्रारंभ में शुरू होती है और जीवन भर चलती रहती हैं।
आधुनिक समाज में शिक्षा का एक विशिष्ट महत्व है। विद्यालय एवं महाविद्यालयों के माध्यम से बच्चों को अपने समाज एवं संस्कृति के बारे में काफी जानकारी मिलती है। समाजीकरण में स्कूली शिक्षा की इतनी अहम भूमिका होती है कि प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे-से-अच्छे स्कूल में दाखिला देना पसंद करते हैं। आधुनिक युग में औपचारिक शिक्षा की इतनी अधिक महत्ता है कि लोगों को विभिन्न प्रकार का ज्ञान स्कूलों तथा महाविद्यालयों के माध्यम से मिलता है। शायद उतना ज्ञान समाजीकरण के अन्य अभिकरणों से प्राप्त नहीं होता है। शिक्षण संस्थाओं में ज्ञान के तीन प्रमुख स्रोतहैं- (1) शिक्षक-शिक्षिकायें, (2) सहपाठी एवं (3) पुस्तक। इन्हीं तीन चीजों के मिलने से स्कूली शिक्षा का वातावरण निर्मित होता है, जिसका प्रभाव व्यक्तित्व के विकास में इतना अधिक होता है कि किसी भी व्यक्ति को देखकर यह समझा जा सकता है कि उसकी शिक्षा किस प्रकार की शिक्षण-संस्थानों में हुई है।
औपचारिक शिक्षा का योगदान सामाजिक परिवर्तन के हर एक क्षेत्र में हमें देखने को मिलता है। औपचारिक शिक्षा ही वह धुरी है जो समाज में एकता, समानता, आधुनिक मूल्य एवं व्यक्तियों में चेतना का संचार करता है। शिक्षा समाज के प्रत्येक पहलुओं पर अपना प्रभाव डालता है। इनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक प्रमुख है।
सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन के रूप में हमें यह देखने को मिलता है कि परंपरागत समाज में उपस्थित लैंगिक, जातीय, धार्मिक, वर्गीय असमानता को औपचारिक शिक्षा के द्वारा दूर करने में सहायता मिली है। आज स्त्री-पुरुष के बीच विभेद की प्रकृति में शिक्षा के फलवरूप ह्रास हुआ है। स्त्री किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं हैं। वर्तमान समय में ज्ञान के आधार पर व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित होती है। दूसरी ओर, औपचारिक शिक्षा ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा जातीय बंधन की प्रकृति में ह्रास हुआ है। जाति में उपस्थित संस्तरण, शुद्ध एवं अशुद्ध की अवधारणा का ह्रास हुआ है। धार्मिक बंधन भी ढीले पड़े हैं। परंतु वर्गीय संरचना की प्रभाव शीलता को देखने को मिलता है। शिक्षा के फलस्वरूप आधुनिक समाज विभिन्न वर्गीय संरचना में विभाजित हो गयी है। जिससे वेबर प्रस्थिति की बात करता है।
आर्थिक क्षेत्र में औपचारिक शिक्षा का योगदान अभूत पूर्व है। औपचारिक शिक्षा के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति अपने अंदर विभिन्न कौशलों का विकास करता है। यही कौशल आर्थिक प्रक्रिया में काफी सहायता करता है। इसलिए आधुनिक समय में यह कहा जाता है कि ज्ञान के साथ-साथ प्रायोगिक स्तर पर तथ्यों की जानकारी आवश्यक है। औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत हम विभिन्न तकनीकी, संचार एवं सामान्य ज्ञान का विकास करते हैं जो अंततोगत्वा आर्थिक क्रिया में योगदान करती है। मैक्स वेबर इसे वर्ग की अवधारणा के अंतर्गत व्याख्या करता है।
राजनीतिक क्षेत्र में औपचारिक शिक्षा का योगदान से इन्कार नहीं किया जा सकता है। औपचारिक शिक्षा के माध्यम से ही हम राजनीतिक समाजीकरण एवं राजनीतिक आधुनिकीकरण जैसी- प्रक्रिया को समझते हैं जो राजनीतिक प्रक्रिया में मददगार साबित होते हैं। मैक्स वेबर ने इस प्रक्रिया की व्याख्या पार्टी की अवधारणा द्वारा की है।
औपचारिक शिक्षा का योगदान सांस्कृतिक क्षेत्र में भी काफी रहा है। जैसा कि हम जानते है शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जिसका कभी अंत संभव नहीं है। यह समाजीकरण की प्रक्रिया जैसा है। सांस्कृतिक क्षेत्र के अंतर्गत हम भाषा विज्ञान की बात करते हैं। आधुनिक समाज में भाषा का ज्ञान बहुत ही उपयोगी है। भाषा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तियों के बीच अंतःक्रियाएं होती हैं। परंतु औपचारिक शिक्षा समाज की उपयोगिकता के आधार पर विभिन्न भाषाओं की जानकारी प्रदान करता है। आधुनिक समाज में अंग्रेजी काफी महत्व है, क्योंकि यह भूमंडलीकरण का दौर है। इस भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में भाषा का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। अंग्रेजी के अतिरिक्त आज सभी भाषाओं के विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को सफल बनाती है।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि औपचारिक शिक्षा ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा समाज के प्रत्येक पहलुओं में योगदान करके सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में औपचारिक शिक्षा का योगदान अभूत पूर्व रहा है।
Question : संरचनात्मक परिवर्तन की संकल्पना पर सविस्तार लिखिए। समाज में संरचनात्मक परिवर्तन के सगोत्रीय कारकों पर उपयुक्त उदाहरणों सहित चर्चा कीजिए।
(1999)
Answer : भारत में समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को दो वृहत् श्रेणियों में रखकर विश्लेषित किया है- संरचनात्मक प्रक्रियाएं और सांस्कृतिक प्रक्रियाएं। परिवर्तन की संरचनात्मक प्रक्रियाएं सामाजिक संबंधों के संजाल में होने वाला परिवर्तन है। जाति, नातेदारी, परिवार और व्यावसायिक समूह संरचनात्मकता के कुछ विशिष्टपक्ष हैं। इनके पूर्व निश्चित संबंधों में होने वाले परिवर्तन संरचनात्मक परिवर्तन है। जब एक पारंपरिक कृषि व्यवस्था, जो पारिवारिक श्रम पर आश्रित थी, व्यावसायिक उत्पादन के लिए किराये के मजदूरों का इस्तेमाल करती है, तब हम इसे संरचनात्मक परिवर्तन कह सकते है। संयुक्त परिवार का एकाकी परिवार में परिवर्तन परिवार की संरचना एवं प्रकार्य में परिवर्तन लाता है। भूमिकाओं में परिवर्तन की प्रक्रिया के माध्यम से यह संरचनात्मक परिवर्तन होता है। दूसरे शब्दों में, घटनाओं के विशिष्ट क्रम के कारण सामाजिक संस्थाओं की भूमिका में परिवर्तन होता है जो इन परिवर्तित परिस्थितियों में अधिक प्रभावशाली होता है। वास्तव में भूमिकाओं का संरचनात्मक परिवर्तन प्रकार्यात्मक विशेषीकरण में परिणत हो जाता है। हमारे पिछले उदाहरण के माध्यम से अगर कहें तो संयुक्त परिवार पारंपरिक समाज में शिक्षा, व्यवसाय, सामाजिक सुरक्षा के अलावा बच्चों के जन्म एवं लालन-पालन में अपनी विविध भूमिकाओं का निर्वाह करता है। परंतु इसके एकाकी परिवार के रूप में परिवर्तन के तमाम कार्य विशेष संगठनों जैसे- स्कूल, आर्थिक संगठन, सरकारी विभागों और दूसरे माध्यमों द्वारा किये जाने लगे हैं। भूमिकाओं की भिन्नताओं के परिणाम स्वरूप संरचनात्मक परिवर्तन सामाजिक जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में महसूस किये जा रहे हैं।
सामाजिक परिवर्तन के सरंचनात्मक पहलू के अंतर्गत मुख्यतः दो प्रकार के कारक या स्रोत उत्तरदायी है- (i) अंतर्गत (Eudogenous) (ii) बहिर्जात (Exogenous)। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया तथा लघु एवं वृहत परम्पराओं के बीच अंतःक्रिया, शिक्षा का प्रचार-प्रसार एवं भूमि सुधार आदि सामाजिक परिवर्तन के अंतर्जात स्रोत के अंतर्गत आते हैं।
संस्कृतिकरण भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों की व्याख्या सर्वप्रथम एम.एन. श्री निवास ने मैसूर की पूर्व रियासत में कूर्गों के अपने अध्ययन के दौरान इस शब्द का प्रयोग किया था। श्री निवास के अनुसार, ‘संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक ‘निम्न’ जाति या जनजाति या अन्य समूह एक उच्च जाति और विशेषतः एक ‘द्विज’ जाति की प्रथाओं, धार्मिक-कृत्यों, आस्थाओं, विचारधारा और जीवन प्रणाली को अपनाता है।’ अतः जाति के ढांचे के अंतर्गत ही निम्न जाति के लोग उच्च जातियों के जीवन-तरीकों का अनुकरण अपनी-प्रस्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से करते हैं। संस्कृतिकरण की अवधारणा पर टिप्पणी करते हुए योगेन्द्र सिंह ने कहा है कि इस अवधारणा के दो अभिधान है- (i) ऐतिहासिक, और (ii) संदर्भात्मक। ऐतिहासिक संदर्भ में, भारतीय समाज के इतिहास में संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया रही है। संदर्भात्मक संदर्भ में, सांस्कृतिकरण सापेक्षित भाव से परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। प्रक्रिया का महत्व और बाहुल्य हर क्षेत्र और यहां तक कि हर गांव में भिन्न-भिन्न पाया जाता है क्योंकि ये संदर्भ से संबंधित आंतरिक कारकों और उनसे जुडे़ हुए बा“य कारकों पर निर्भर करते हैं।
रॉबर्ड रेडफील्ड के मतानुसार सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का आधार ‘परम्परा का सामाजिक संगठन’ है। भारत की ‘सभ्यता’ प्राथमिक या देशज है। इस पर सामाजिक परिवर्तन के विजातीय कारकों का प्रभाव नहीं पड़ा हैं। भारत की प्राथमिक सभ्यता लघु परम्पराओं और दीर्घ परंपरा में विभक्त है। लघु परम्परा जनसाधारण और अशिक्षित कृषकों से संबंधित है। दीर्घ परम्परा में अभिजात या कुछ गणमान्य व्यक्तियों का समावेश होता है। लघु और दीर्घ परम्पराओं में निरन्तर अंतःक्रिया रहती है। अतः हम कह सकते हैं कि जनसाधारण और अभिजात के बीच विचारों का प्रवाह और सामाजिक संबंधों का आदान-प्रदान निरन्तर होता है।
मैकिम मेरियट के अनुसार सर्विकीकरण और संकीर्णीकरण की प्रक्रियाओं द्वारा इन दोनों परंपराओं के बीच अंतःक्रिया से भारत की सभ्यता की एकता बनी हुई है। सार्विकीकरण का अभिप्राय लघु परम्पराओं के तत्वों के प्रसार से है जो सांस्कृतिक या महान् परंपरा का अंग भी बन सकते हैं संकीर्णीकरण का अर्थ दीर्घ परंपरा के तत्वों का नीचे की ओर अशिक्षित जनसाधारण तक पहुंचने से हैं। ‘ऊपर’ और ‘नीचे’ की तरफ प्रसार की इन प्रक्रियाओं द्वारा लघु और दीर्घ परम्पराओं के बीच अंतःक्रिया की प्रकृति को समझा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त अंतर्जात परिवर्तन के अंतर्गत भूमि-सुधार की प्रक्रिया भी आती है। इस क्षेत्र में मुख्यतः विनोबा भावे का ‘भूदान आंदोलन’ एवं सरकार के द्वारा किये गये प्रयास शामिल है। साथ ही, ‘हरित क्रांति’, यातायात के साधन, वयस्क मताधिकार, विकास कार्यक्रम और स्थानीय स्तर पर सत्ता का विकेंद्रीकरण आदि के कारण भी संरचनात्मक परिवर्तन आए हैं।
परिवार, जाति, शक्ति, संरचना और भू-स्वामित्व आदि के संदर्भ में संरचनात्मक विभेदीकरण और सामाजिक गतिशीलता अवलोकित की गई है। इन संरचनात्मक इकाइयों में मानक, उत्तरदायित्व, भूमिकाएं, प्रकार्य और परिस्थितियां बहुत परिवर्तित हुई है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते है कि भारत में संरचनात्मक परिवर्तन लगभग सभी प्रमुख क्षेत्रों में देखने को मिलता है।
Question : शिक्षा एवं संस्कृति।
(1998)
Answer : शिक्षा एवं संस्कृति एक-दूसरे से अंतःसंबंधित हैं। संस्कृति जैसा हम जानते है कि यह एक सीखा हुआ व्यवहार है एवं इसका स्थानांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हुआ करता है। निश्चित रूप से प्राथमिक समाजीकरण की प्रक्रिया का योगदान सांस्कृतिक प्रसार में अधिक है परंतु स्कूल, कॉलेज एवं शिक्षा के अन्य माध्यम सांस्कृतिक गतिशीलता में अभूतपूर्व योगदान करते है। ऑगबर्न ने सांस्कृतिक तत्वों को स्पष्ट करते हुए Cultural lag के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसके अंतर्गत ऑगबर्न का मानना है कि भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की तुलना में तेजी से प्रसार होता है जिससे समाज में विलम्बन की स्थिति पैदा होती है। इन भौतिक संस्कृतियों के प्रसार में शिक्षा का अभूतपूर्व योगदान होता है।
दूसरी ओर, संस्कृति के मुख्यतः तीन पहलू- धर्म, भाषा एवं लिंग होते हैं। भाषा की अवधारणा शिक्षा से पूर्ण रूपेण संबंधित है। भाषा शिक्षा का एक माध्यम माना जाता है एवं संस्कृति इसका उत्पादक। भाषा के द्वारा ही लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं एवं इसे आगे की पीढ़ी के लिए बढ़ाया जाता है। अतः यह माना जाता रहा है कि शिक्षा से दोनों भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति का प्रसार होता है। अतः शिक्षा सभ्यता से भी संबंधित रही है। पिअरे बोर दियू ने शिक्षा एवं संस्कृति के संबंधों की व्याख्या अपनी अवधारणा ‘Cultural capital’ के अंतर्गत की है। जिसमें बोर दियू का मानना है कि समाज में प्रस्थिति के निर्धारण में ‘Cultural capital’ का अभूतपूर्व योगदान है। ‘Cultural capital’ वास्तव में किसी व्यक्ति का उसका शैक्षिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि को बताता है।
Question : प्रौद्योगिकी में परिवर्तनों के सामाजिक परिणामों का परीक्षण कीजिए। नए उत्पादन प्रक्रमों और उपस्कर से उदाहरणों को देते हुए अपने उत्तर को सोदाहरण समझाइए।
(1998)
Answer : प्रोद्योगिकी के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में अनेक परिवर्तन आते हैं जिनमें से कुछ इसके प्रत्यक्ष प्रभाव या परिणाम और कुछ अप्रत्यक्ष प्रभाव या परिणाम कहे जा सकते हैं। प्रत्यक्ष प्रभाव वे हैं जो प्रोद्योगिकी परिवर्तन के परिणामस्वरूप अनिवार्यतः और शीघ्र ही समाज में परिवर्तन लाते हैं। ये परिवर्तन स्पष्टतः मालूम पड़ते हैं। अप्रत्यक्ष प्रभाव वे हैं जो समाज से विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के फलस्वरूप अप्रत्यक्ष तरीके से परिवर्तन लाते हैं। ये परिवर्तन प्रोद्योगिकी परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न परिवर्तनों के माध्यम से आते हैं। प्रोद्योगिकी में परिवर्तन के सामाजिक परिणाम निम्नलिखित हैंः
प्रोद्योगिकी परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभाव इस प्रकार है
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि प्रोद्योगिकी कारकों ने समाज के हर एक पहलुओं में परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।